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भ्रष्टाचार पर दो हिन्दी क्षणिकाऐ (two short poem on bhratshtachar)


भ्रष्टाचार वह राक्षस है
जो शायद हवा में रहता है।
बड़े बड़े नैतिक योद्धा उसे पकड़कर
मारने के लिये तलवारें लहराते हैं,
पर वह अमर है
क्योंकि उससे मिली कमीशन से
भरी जेब का बोझ नहीं सह पाते हैं,
चल रहा है उसका खेल
हर कोई भले ही
‘उसे पकड़े और मारो’ की बात कहता है
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पहले जेबों में रहता था
अब खातों में चमकने लगा है।
भ्रष्टाचार के पहले रूप दिखते थे
पर अब बैंकों में अनाम नाम से रहने लगा है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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