कहीं खुश दिखने की
तो कहीं अपना मुहँ बनाकर
अपने को दुखी दिखाने की कोशिश करते लोग
अपने जीवन में हर पल
अभिनय करने का है सबको रोग
अपने पात्र का स्वयं ही सृजन करते
और उसकी राह पर चलते
सोचते हैं’जैसा में अपने को दिख रहा हूँ
वैसे ही देख रहे हैं मुझे लोग’
अपना दिल खुद ही बहलाते
अपने को धोखा देते लोग
कभी नहीं सोचते
‘क्या जैसे दूसरे जैसे दिखना चाहते
वैसे ही हम उन्हें देखते हैं
वह जो हमसे छिपाते
हमारी नजर में नहीं आ जाता
फिर कैसे हमारा छिपाया हुआ
उनकी नजरों से बच पाता’
इस तरह खुद रौशनी से बचते
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग
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टिप्पणियाँ
सोलह आने सच है भाई कि हम सिमटते जा रहे हैं अपने ही दायरे में,सही फरमा रहे हैं,कि-”इस तरह खुद रौशनी से बचतेदूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग”बार- बार पढ़ने योग्य है यह.
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोगसही। इस व्यवहार का मनोविज्ञान में भी उल्लेख है – ब्लेमिश के तौर पर।आलोक
इस तरह खुद रौशनी से बचतेदूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग–बहुत सही बात की है आपने.