१.उस राजा को जीवित रहते हुए भी मृतक समान समझना चाहिए जिसके स्वयं या राज्य के अधिकारियों के सामने चीखती-चिल्लाती प्रजा डाकुओं द्वारा लूटी जाती है।
२.प्रजा का पालन करना ही राजा का धर्म होता है। जो इस धर्म का पालन करता है वाही राज्य सुखों को भोगने का धिकारी है।
३.यदि राजा रोग आदि या किसी अन्य कारण से राज्य के सभी विषयों का निरीक्षण करने में समर्थ न हो तो उसे अपनी जगह धर्मात्मा , बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभी और श्रेष्ट व्यक्ति को मुख्य अमात्य(मंत्री) का पदभार सौंपना चाहिऐ।
४.मूर्ख, अनपढ़(जड़बुद्धि वाले व्यक्ति),गूंगे-बहरे आदि हीन भावना की ग्रंथि से पीड़ित होने के कारण, पक्षी स्वभाव से ही(तोते आदि पक्षी रटी-रटाई बोलने वाले) अभ्यस्त होने के कारण मन्त्र(मंत्रणा) को प्रकट कर देते हैं। कुछ स्त्रियाँ स्वभाववश (चंचल मन और बुद्धि के कारण) मंत्रणा को प्रकट कर सकती हैं। इसके अलावा अन्य व्यक्ति भी जिन पर राजा को अपनी मंत्रणा प्रकट करने का संदेह हो उन्हें मंत्रणा स्थल से हटा देना चाहिऐ।
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