नाम क्या और काम क्या


रास्ते चलते हुए कई बार विभिन्न इमारतों पर लगे होर्डिंग पर जब नजर जाती है तो उसे पढ़ लेते हैं-चाहे अनचाहे पढ़ते हुए एक तरह से समय भी पास होता है ध्यान बाँटने से थोडा मानसिक राहत भी मिलती है, और जब पढ़ते हैं तो फिर चिंतन भी करते हैं।
मैं खासतौर से हिन्दी और संस्कृत निष्ठ नाम देखकर यह सोचता हूँ की यह क्या है ज़रा आगे पढें। नाम तो होते हैं बढे प्यारे जैसे -वात्सल्य, संस्कार, जीवनधारा, निरोग, स्नेह, अंकुर,सुरभि,सुरुचि और सहज आदि। कई बार तो ऐसा लगता है की शायद किसी पत्र-पत्रिका के दफ्तर हों और क्या कोई लोगों की सेवा करने वाला संस्थान हो। इमारत का बाहरी स्वरूप और वहाँ खडी गाड़ियों का जमघट देखकर लगता है जैसे कोई बड़ा होटल हो। पर नहीं साहब वहाँ तो होते हैं नर्सिंग होम या अल्ट्रासाउंड सेंटर या कोई पेथलोजी लैब । तब लगता है कि इतने प्यारे नाम होना आश्चर्य की बात है। इसकी वजह यह है कि इन स्थानों पर आदमी कभी स्वस्थ होने की स्थिति में तो जाता नहीं है। इतना ही नहीं नाम पढ़ने के बाद तो नाम और इमारत का भव्य आकर्षण भूलकर आदमी भगवान से याचना करता है कि कभी इन अस्पतालों की तरफ न भेजे।

कई बार किसी शहर में जाते हैं और पैदल चलते हुए दूर-दूर तक नजर दौडाते चलते हुए किसी भव्य और ऊंची इमारत पर नजर दृष्टि पड़ती और मन में विचार आता है कि शायद किसी बडे आदमी की रिहायश होगी, या कोई होटल होगा या कोई मार्केट होगा और जब पास आते है नाम पर नजर पड़ती है तो मन में प्रफुल्लता का भाव आता है पर आगे जब दृष्टि जाती है-नर्सिंग होम या अस्पताल का बोर्ड देखकर पूरा जायका बिगड़ जाता है।

उस दिन मैं और मेरा मित्र एक जगह खडे बातचीत कर रहे थे तो हमने देखा एक महिला और पुरुष पास से गुजरे तो हमने महिला को कहते सुना-”हम वहाँ दूर से देख कर कह रहे थे कि इस बिल्डिंग में यह होगा और वह होगा यहाँ तो अस्पताल है। भगवान् न करे कभी ऐसे अस्पतालों में आना पड़े आदमी का यहाँ इतना पैसा खर्च हो जायेगा कि ठीक भी होगा तो घर लौटने के बाद भूखा मर जाएंगा। नाम भी देखो कितना प्यारा रखा है।

उसके जाने के बाद हम दोनों ने उस इमारत को ध्यान से देखा तो हंसने लगे। मित्र ने कहा-”ऐसा धोखा कई बार हमारे साथ भी हो चुका है. अक्सर जब ऐसा होता है तो सोचता हूँ कि इनके नाम क्या हैं और काम क्या है?”

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टिप्पणियाँ

  • rajivtaneja  On नवम्बर 13, 2007 at 23:39

    गहरी और पैनी पकड चहुँ ओर….बधाई

  • रवीन्द्र प्रभात  On नवम्बर 6, 2007 at 20:42

    बहुत बढिया विश्लेषण, कभी – कभी ऐसे नाम के चक्कर में मैं भी धोखा खा जाता हूँ! वैसे सबकी कोशिश होती है कि अस्पतालों के चक्कर न काटने पड़े .मगर जब आफत -बिपत पड़ ही जाए तो क्या करे कोई . वो एक कहावत है न – नाम बड़े और दर्शन छोटे !

  • Udan Tashtari  On नवम्बर 5, 2007 at 22:33

    मगर हैं भी तो जरुरी…नाम में क्या है कुछ भी रख लें. जो अटकेगा वो आयेगा ही. कोशिश तो दूर रहने की सभी करते हैं इनसे.बड़ा अच्छा आबजर्वेशन किया है.

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