जब लगे हम लोगों में उपेक्षित हो रहे हैं
भीड़ में घिरे होकर भी
अकेले हो रहे हैं
तब समझ लो मन में ही
कई जगह है अपने ही भारीपन
जिसका बोझ हम ढो रहे हैं
भला कौन यहाँ किसकी परवाह करता है
सामने करें कोई तारीफ
पीठ फेरते ही वह जहर भी उगलता है
इस दुनिया में सबके साथ होते हादसे
जिसके साथ हो वही अपने साथ ही हुआ
समझता है
इसलिए सब भीड़ में अकेले हो रहे हैं
कौन किसको सम्मान देता है
बिना मतलब कौन किसको दान देता है
सब अपने आप में खो रहे हैं
सबका दर्द और दुख एक जैसा होता है
यह भ्रम है कि हम ही उसे ढो रहे हैं
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टिप्पणियाँ
कडुआ सच कहती कविता है आप की. एक एक शब्द बिल्कुल सच्चा और धारधार. बधाईनीरज
सबका दर्द और दुख एक जैसा होता हैयह भ्रम है कि हम ही उसे ढो रहे हैंसजीव चित्रण।
बढ़िया दर्शन से भरी कविता । हाँ, जीवने में ऐसा ही होता है ।घुघूती बासूती
बहुत सहज रूप में कितना जटिल रूप वाला सत्य कह दिया…. कड़वा सत्य