अस्त्र-शस्त्र के सहारे अपनी देह की
सुरक्षा ढूंढते हुए बडे लोग
समाज में फैलता भय का रोग
बंदूक में भी गोली लगाईये
शीशी में भी भरकर आईये
भर ली है समाज की पूरी दौलत घर में
गरीबी के झुंड में अमीरी ऐसे घिरी
जैसे फंसी अधर में
कैसे न फैलें राजरोग
सुख को समझें भोग
कह गए दास कबीर
जब जल और धन बढ़ने लगे
तो उलीचते जाइये
पर अब दौलत से अंधे
और शौहरत से बहरे लोगों
क्या सुनाएं और पढाएं
आगे-आगे देखिये होता है क्या
अपनी कुर्सी तो दर्शकों में लगाईये
एक तरफ हैं भूख से
हिंसक जंग में लड़ने वाले
दूसरी तरफ हैं अपने सुख को ही
जगत का सुख मानने वाले
किसको कैसे समझाईये
चिंता के समान शत्रु नहीं
मधुमेह, उच्च रक्तचाप और
दिल की धक्-धक् से
पहले अपने को बचाईये
टिप्पणियाँ
बिल्कुल सही लिखा ;आज कल ऐसा ही होता है
बहुत सुंदर और सारगर्भित कविता , समाज की व्यवस्था पर करारा व्यंग्य , सुख को आपने बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है , बधाईयाँ !