1.ईर्ष्या असफलता का दूसरा नाम है। अपनी असफलता और दूसरे की सफलता से मनुष्य ईर्ष्यालु हो जाता। ईर्ष्याग्रस्त मनुष्य महत्वहीन होता है, अतएव ईर्ष्या करना अपना महत्व घटाता है,हजारों गायों के बीच बछ्दा केवल अपने माँ के पास जाता है, इसी प्रकार मनुष्य का कर्म भी उसी में पाया जाता है, जो उसका कर्ता होता है। कर्ता कर्म का फल भोगे बिना कैसे रह सकता है ।
2.ईश्वर ने सोने में सुगंध नहीं डाली, गन्ने में फल नहीं लगाए, चन्दन के पेड को फूलों से नहीं सजाया , विद्वान को धन से संपन्न नहीं बनाया और राजा को दीर्घायु प्रदान नहीं की। इनके साथ इस तरह के अभाव का रहस्य का कारण यही है इन वस्तुओं के उपयोग के साथ और मनुष्यों में उसकी प्रवृति में दुरूपयोग और अहंकार का भाव पैदा न हो। अगर इससे ज्यादा गुण होते तो यह दोनों के लिए घातक होता।
3.यदि गंदे स्थान पर सोना पडा है उसे उठाने में गुरेज नहीं करना नहीं चाहिए, क्योंकि वह कीमती हैं। यदि विद्या निम्न कोटि के व्यक्ति से भी सीखना पडे तो संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह उपयोगी होती है। यदि विष से अमृत मिलता है जरूर प्राप्त करना चाहिए।
*इसका आशय यह है हमें अगर ज्ञान अपने लघु व्यक्ति से मिलता हो तो उसे ग्रहण करना चाहिऐ। सज्जन व्यक्ति से अगर वह गरीब भी है तो संपर्क करना चाहिए। आगे व्यक्ति गुणी है पर निम्न जति या वर्ग है तो भी उसकी प्रशंसा करना चाहिए।
युवावस्था में काम-क्रोध हावी होते हैं, इसी कारण व्यक्ति की विवेक शक्ति निष्क्रिय हो जाती है। काम वासना से व्यक्ति को कुछ नहीं सूझता। काम-क्रोध व्यक्ति को अँधा कर देता है।
4.धूर्तता, अन्याय और बैईमानी आदि से अर्जित धन से संपन्न आदमी अधिक से अधिक दस वर्ष तक संपन्न रह सकता है, ग्यारहवें वर्ष में मूल के साथ-साथ पूरा अर्जित धन नष्ट हो जाता है।
*इसका सीधा आशय यह है कि भ्रष्ट और गलत तरीके से कमाया गया पैसा दस वर्ष तक ही सुख दे सकता है, हो सकता है कि इससे पहले ही वह नष्ट हो जाय।