चिल्ला चिल्ला कर वह
करते हैं एक साथ होने का दावा
यह केवल है छलावा
मन में हैं ढेर सारे सवाल
जिनका जवाब ढूंढने से वह कतराते
आपस में ही एक दूसरे के लिये तमाम शक
जो न हो सामने
उसी पर ही शुबहा जताते
महफिलों में वह कितना भी शोर मचालें
अपने आपसे ही छिपालें
पर आदमी अपने अकेलेपन से घबड़ाकर
जाता है वहां अपने दिल का दर्द कम करने
पर लौटता है नये जख्म साथ लेकर
फिर होता है उसे पछतावा
रात होते उदास होता है मन सबका
फिर शुरू होता है सुबह से छलावा
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
टिप्पणियाँ
Shree Deepak Bharatdeep Jee,
Pranam.
Aapke dwara post kiye gaye har-ek kabita aur byang man ko uddhelit kar deti hai. Aap kripya ese print media me prakashit kyo nahi karwate hai. Achha hota ki aap khud apna patrika nikalte.
Aapke har ek bichar ko padhne wale byakti ke antaraatma ko (kuchh samay ke liye hi n sahi) jaroor uddhelit karti hogi.