बन्दूक और बारूद के सौदागरों के घर भरते-व्यंग्य कविता (saudagron ke ghar bharte-vyangya kavita)


बंदूक और बारूद के सौदागर
कभी बाजार की मंदी पर आहें नहीं भरते
जंग के लिये रोज लिखने वाले
मुफ्त में उनका विज्ञापन करते।

अमीर के अनाचार पर गरीब को
बंदूक उठाने का सिखाते फर्ज
गोली और बंदूक ऐसे बांटते जैसे कर्ज
शोषितों के उद्धार के लिये जंग का ऐलान
दबे कुचले के लिये छेड़ते खूनी अभियान
जहां शांति दिखे वहीं बारूद भरते।

अन्याय के खिलाफ् एकजुट होने का आव्हान
हर जगह दिखाना है संघर्ष का निशान
खाली अक्ल और
दिमागी सोच से परे
वह लोग नहीं जानते
अपने अंदर ही जो भाव नहीं
उसे दूसरे में जगाना संभव नहीं
यह बात नहीं मानते।
खून भरा है ख्यालों में
उन्हें सभी जगह घाव दिखाई देते हैं
बस लड़ते जाओ बढ़ते जाओ के
नारे सभी जगह लिखाई देते हैं
भूखा आदमी लड़ने की ताकत नहीं रखता
गरीब कभी गोली का स्वाद नहीं चखता
इसलिये किराये पर
गरीब और भूखे जुटा रहे हैं
बारूदों और बंदूकों उन पर लुटा रहे हैं
कौन जानता है कि
सौदागरों के पास से कमीशन उठा रहे हैं
अच्छा लगता है जंग की बात करना
पर गरीब और भूखे लड़ते हैं
अपनी जिंदगी से स्वयं
उनके लिये संभव नहीं
इतनी आसानी से मुफ्त में मरना
फिर भी जंग के ऐलान करने वाले
हर तरह बारूद और बंदूकों के
सौदागरों का घर भरते।
………………..

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Post a comment or leave a trackback: Trackback URL.

एक उत्तर दें

Please log in using one of these methods to post your comment:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

%d bloggers like this: