गरीबी हटाओ, देश बचाओ,
भ्रष्टाचार भगाओ, विकास लाओ,
जैसे नारे सुनते हुए बरसों बीत गये
मगर हालात हैं कि सुधरे नहीं।
हर बरस बजट के तीर जनकल्याण के अंधेरे में
कुछ इस तरह चलते कि
जहां पहुंचंे वहां गरीब नज़र नहीं आता,
रंगेहाथों पकड़े गये रिश्वत लेते कई
मगर हर कोई अपने हाथ सफेद कर बरी हो जाता,
तालाब खुदते गये काग़जों पर
लबालब हो गयी कई लोगों की जेबें
परवाह किसे है यहां देखने की
प्यासों ने पानी के बर्तन भरे कि नहीं।
नतीज़ा यही है कि देश कर रहा है विकास
लोग खड़े है वहीं की वहीं।
—————-
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका