इंसान बिल्ली जैसे हो गये-हिन्दी व्यंग्य (insan billi jaisi ho gaye-hindi vyangya)


कहते हैं कि बिल्ली दूध पियेगी नहीं तो फैला जरूर देगी। ऐसा लगता है कि हमारे देश की व्यवस्था में लगे कुछ लोग इसी तरह के ही हैं। हाल ही में नईदिल्ली में संपन्न कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 (राष्ट्रमंडल-2010) में कई किस्से इतने दिलचस्प आये हैं कि उन पर हंसने का मन करता है। देश के खज़ाने का जो उपयोग हुआ उस पर रोने का अब कोई फायदा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार पर इतना लिखा गया है कि अनेक ग्रंथों में उसे समेटा जा सकता है। फिर रोने की भी एक सीमा होती है। एक समय दुःखी आदमी रोता रहता है तो उसके आंसु भी सूख जाते हैं। समझदार होगा तो आगे नहीं रोएगा और कुछ पल हंस कर आनंद उठाऐगा और पागल हुआ तो उसका एसा मानसिक संतुलन बिगड़ेगा कि बस हमेशा ही हंसता रहेगा चाहे कोई मर जाये तो भी वह हंसता हुआ वहां जायेगा। जिनको अब कॉमनवेल्थ गेम्स की घटनाओं पर हंसी आ रही है अब वह बुद्धिमान हैं या पागल यह अलग विचार का विषय हैं पर सच यही है कि रोने का कोई फायदा नहीं है और उन पर हंसकर खूना बढ़ाया जाये यही अच्छा रहेगा।
एक दिलचस्प समाचार देश के समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला कि कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ खेलों के टिकट कूड़ेदानों में फिंके पाये गये जबकि उनके स्टेडियम खाली थे या उसमें दर्शक कम थे। साथ ही यह भी कि अनेक लोग टिकट काले बाज़ार में बेचते पकड़े गये और दर्शकों को टिकट खिड़की से खाली हाथ लौटना पड़ा। कूड़ेदानों में मिले टिकट मानो बिल्ली द्वारा फैलाया गया दूध जैसे ही हैं।
आखिर क्या हुआ होगा? कॉमनवेल्थ खेलों का प्रचार जमकर हुआ। व्यवस्था में लगे लोगों को लगा होगा कि जैसे कि कुंभ का मेला है और देश का लाचार खेलप्रेमी यहां ऐसे ही आयेगा जैसे कि तीर्थस्थल में आया हो! मैदान में खिलाड़ियों और खिलाड़िनों के दर्शन कर स्वर्ग का टिकट प्राप्त करने को आतुर होगा। जिस तरह तीर्थस्थलों पर खास अवसरों पर तांगा, रिक्शा, होटल, और अन्य वस्तुऐं महंगी हो जाती हैं-या कहें कि खुलेआम ब्लैक चलता है-वैसे ही कॉमनवेल्थ खेलों में भी होगा। ऐसा नहीं होना था और नहीं हुआ। जिन लोगों ने टिकट बेचने और बिकवाने का जिम्मा लिया होगा वह बहुत उस समय खुश हुए होंगे जब उनको टिकट मिले होंगे। इसलिये नहीं कि देश के प्रति कर्तव्य निर्वाह का अवसर मिल रहा है बल्कि इस आड़ में कुछ अपना धंधा चला लेंगें। टिकट बेचने वाले वेतन, कमीशन या ठेके पर ही यह काम करते होंगे। अब टिकट आया होगा उनके हाथ। मान लीजिये वह पांच सौ रुपये का है और उसे खिड़की पर या अन्यत्र इसी भाव पर बेचना है। मगर बेचने वाले को यह अपमान जनक लगता होगा कि वह पांच सौ का टिकट उसी भाव में बेचे।
कॉमन वेल्थ गेम के पीछे राज्य है और जहां राज्य है वहां निजी और राजकीय ठेका कार्यकर्ता आम आदमी के दोहन न करने को अपना अपमान समझते हैं। पांच सौ का टिकट पांच सौ में आम आदमी देते तो घर पर ताने मिलते। मित्र हंसते! इसमें क्या खास बात है यह बताओ कि ऊपर से क्या कमाया-लोग ऐसा कहते।
कुछ ब्लेक करने वालों को पकड़ा होगा कि टिकट बेच कर दो। ऊपर का पैसा आपसमें बांट लेंगे। दे दिये टिकट! उसने जितने बेचे वापस कर दिये होंगे। बाकी! फैंक दो कूड़ेदान में! रहने दे तो स्टेडियम खाली! अपने बाप के घर से क्या जाता है। नुक्सान राज्य का है तो होने दो! आम आदमी को बिना ब्लेक रेट के टिकट नहीं देंगे।
यह बिल्लीनुमा लोग! इनमें से बहुत सारे ऐसे होंगे जो सर्वशक्तिमान की भक्ति करते होंगे! मगर राज्य का मामला हो तो मन से अहंकार नहीं निकलता है! कई सत्संग में जाते होंगे, मगर उस समय वह इंसान नहीं बिल्ली की तरह हो गये होंगे। दूध फैला देंगे ताकि कोई न पी पाये।
टिकट कूड़ेदान में फैंककर तसल्ली की होगी कि अगर हमें अतिरक्त पैसा नहीं मिला तो क्या? आम दर्शक को अंदर भी तो नहीं जाने दिया।
यह केवल एक घटना है! ऐसी हजारों घटनायें हैं। गरीब को नहीं देंगे भले ही वह मर जाये और हमारी चीज़ भी सड़ जाये। मक्कारी, बेेईमान और भ्रष्टाचार का कोई चरम शिखर होता है तो उस पर हमारा देश सबसे ऊपर है मगर इसके पीछे जो विवेकहीनता, अज्ञानता तथा क्रूरता का जो दर्शन हो रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि चिंतन और आचरण का यह विरोधभास हमारे खून में आ गया है और अपनी महानता पर हम आत्ममुग्ध जरूर हो लें पर पूरी दुनियां ने यह सब देखा है।
हम दावे करते हैं कि हमारा देश धार्मिक प्रवृत्ति का है, हमारी संस्कृति महान है, हमारे संस्कार पूज्यनीय हैं, पर ऐसी घटनायें यह बताती हैं कि यह सब पाखंड है। इंसान सभी दिख रहे हैं पर कुत्ते और बिल्लियों और चूहों की मानसिकता से सभी सराबोर हैं। सच कहें कि पेट भर जाये तो यह तीनों जीव भी कुछ देर खामोश रहते हैं पर इंसान तो कीड़े मकोड़ों की तरह हो गया है जिनका बहुत सारा खून पीने पर भी पेट नहीं भरता। अलबत्ता बिल्ली का उदाहरण देना पड़ा यह बताने के लिये कि निम्न आचरण की इससे अधिक हद तो हो नहीं सकती।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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