कागज़ खाने वाले शेर-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ


लापता हो गये हाड़मांस के असली शेर,
कुछ बीते इतिहास में दर्ज थे
कुछ आज भी नए जमाने में 
 कागजों में दिख रहे हैं।
पैसे, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पर
बैठे इंसान ही कागज पर
अपने नाम में शेर लिख रहे हैं।
—————
सुना है उनका शेर जैसा है जिगर,
पर नहीं जिंदा रह सकते
वह कागज़ के नोट खाये बिगर।
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कंधे पर बंदूक लटकाए
वह घूम रहे हैं
कहते हुए अपने को शेर,
दुश्मन बनाए हैं जमाने में
काँपते हैं हर पल
कब कौन कर देगा कब ढेर।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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