मनुष्य शब्द दो शब्दों के मेल से बना है मन तथा उष्णा। इसके संधि विच्छेद को समझें तभी दोनों की संधि का निहितार्थ समझा जा सकता है। उष्णा का अर्थ है गर्मी या ऊर्जा। वैसे तो मन सभी जीवों का होता है पर दैहिक सीमाओं की वजह से अन्य जीवों के मन की हलचल कम ही होती है। मनुष्य के मन की ऊर्जा का विस्तार नहीं है जिससे उसकी दैहिक सक्रियता व्यापक दायरे में फैलती है इसलिये उसे ही मनुष्य संबोधन मिला। तात्पर्य यह है कि मन उष्णा से तो मनुष्य मन से संचालित हो रहा है। हम योग विद्या से जब इस रहस्य को समझते हैं तक हमारी मनस्थिति बदल जाती है। मन और उष्णा का संधि विच्छेद जानने की प्रक्रिया का नाम भी येाग है।
इस मन में तमाम तरह के विचार आते हैं और तय बात है कि इनका उद्गम स्थल बाहरी दृश्य, स्वर और अनुभूतियां हैं। कभी इस मन की हलचल को अनुभव करें। जब हम टीवी चैनलों पर समाचार देखते हैं तो लगता है कि इस दुनियां में तमाम तरह के अच्छे और बुरे घटनाक्रम हो रहे हैं। अगर मन किसी सामाजिक धारावाहिक में लग जाये तो उसकी कहानी सच्ची लगती है। यदि किसी अध्यात्म चैनल को देखें तो मन में जीवन दर्शन के प्रति रुझान पैदा होता है। गीत संगीत का चैनल देखें तो बाकी तीनों विषयों से परे हो जाते हैं। अगर मान लीजिये कोई कार्टून वाला चैनल देखें तो फिर हम यह भूल जाते हैं कि वहां रेखायें खीचंकर पात्र सृजित किये गये हैं, हमें वह पात्र वास्तव में बोलते दिखते हैं और उन्हें स्वर देने वालो मनुष्यों पर कभी विचार नहीं आता।
इस तरह हमारा मन बाहरी विषयों के पारंगत विद्वान सहजता से अपहृत कर लेते हैं। कहा जाता है कि आजकल मीडिया अत्यंत शक्तिशाली हो गया है। इसका कारण यह है कि परिवार और समाज के दायरे संकुचित हुए हैं और आधुनिक संचार माध्यमों ने व्यक्ति की दैहिक क्रियाओं को सीमित कर दिया है जिसकी वजह से बाहरी विषयों पर उसकी निर्भरता बढ़ी है। इन्हीं विषयों पर प्रचार माध्यम अपना प्रसारण करते हैं और यह माना जाता है कि मनुष्य जो देखता और सुनता है वही ग्रहण कर अपना विचार बनाता है। प्रचार माध्यमों पर जो प्रसारण होता है उसका आम इंसानों पर जो प्रभाव है उस पर विस्तृत बहस की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह हम देख ही रहे हैं। यही कारण है कि जिन लोगों का प्रचार माध्यमों पर वर्चस्व है वह एक सुखद नायकत्व की अनुभूति करते हैं। उन्हें लगता है कि वह अपनी छवि का नकदीकरण कर सकते हैं। उनका यह आत्मविश्वास गलत नहीं है। दरअसल हम एक आम इंसान के रूप में मानसिक रूप से बंधुआ हो गये हैं। जो पर्दे पर दिखाया और सुनाया जा रहा है उसे पर अपना चिंत्तन नहीं करते। यह मान लेते हैं कि वह सब कुछ वैसा ही है जैसा हम देख और सुन रहे हैं। यही वजह है कि प्रचार में छाये नायक अपनी छवि पर इतराते हैं। यह अलग बात है कि वह स्वयं भी इस प्रसारण के आम इंसान की की तरह शिकार होकर इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि उनका अपनी कमियों पर ध्यान नहीं जाता।
इस मन की शक्ति को समझने की कला है योग साधना। ध्यान से जब हम अपनी अंतदृष्टि जाग्रत करते हैं तब हमारी विवेक शक्ति तीव्रता से काम करती है। मन पर नियंत्रण करने की बात करना सहज है पर व्यवहारिक रूप से अत्यंत कठिन है। जब कोई आदमी ध्यान में पारंगत हो जाता है तब वह बाहरी विषयों का मूल सत्य समझने लगता है। तब उसके मन का अपहृत कोई नहीं कर सकता। कोई विषय चाहे कितना भी रुचिकर क्यों न हो वह ज्ञान साधक मनुष्य को बंधुआ नहीं बन सकता।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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