शराब पीते नहीं
मांस खाना आया नहीं
वह अंग्रेजी नये वर्ष का
स्वागत कहां कर पाते हैं।
भारतीय नव संवत् के
आगमन पर पकवान खाकर
प्रसन्न मन होता है
मजेदार मौसम का
आनंद भी उठाते हैं।
कहें दीपक बापू विकास के मद में,
पैसे के बड़े कद में,
ताकत के ऊंचे पद मे
जिनकी आंखें मायावी प्रवाह से
बहक जाती हैं,
सुबह उगता सूरज
देखते से होते वंचित
रात के अंधेरे को खाती
कृत्रिम रौशनी उनको बहुत भाती है,
प्राचीन पर्वों से
जिनका मन अभी भरा नहीं है,
मस्तिष्क में स्वदेशी का
सपना अभी मरा नहीं है,
अंग्रेजी के नशे से
वही बचकर खड़े रह पाते हैं।
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चालाक और क्रूर इंसान के लिये
पूरा ज़माने के
सभी लोग खिलौना है।
कभी खून बहाते
दिल से उसमें नहाते
इंसानियत का प्रश्न
उनके सामने बौना है।
कहें दीपक बापू हथियारों पर
चलती है जिनकी जिंदगी
दया का अर्थ नहीं जानते,
खून और पानी में
अंतर नहीं मानते,
मिलाकर हाथ उनसे
अपना सुकून खोना है।
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