Category Archives: आध्यात्म

विदुर दर्शन-प्रजा को आजीविका न देने वाला राष्ट नष्ट हो जाता है (kingdom and public-hindu dharma sandesh)


आजीव्यः सर्वभूतानां राजा पज्र्जन्यवद्भुवि।
निराजीव्यं त्यजन्त्येनं शुष्कवृक्षभिवाउढजाः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा मेघों के समान सब प्राणियों को आजीविका देता है। जो राजा प्रजा को आजीविका नहीं दे पाता उसका साथ सभी छोड़ जाते हैं, जिस प्रकार पेड़ को पक्षी छोड़ जाते हैं।
उत्थिता एवं पूज्यन्ते जनाः काय्र्यर्थिभिर्नरःै।
शत्रुवत् पतितं कोऽनुवन्दते मनावं पुनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति कार्य सिद्धि की अभिलाषा रखते हैं वह उत्थान की तरफ बढ़ रहे पुरुष का सम्मान करते हैं और जो पतन की तरफ जाता दिखता है उसे त्याग देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में अपनी भौतिक उपलब्धियों को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिये। यदि आप धनी है पर समाज के किसी काम के नहीं है तो कोई आपका हृदय से सम्मान नहीं करता। जिस तरह जो राजा अपनी प्रजा को रोजगार नहीं उपलब्ध कराता उसे प्रजा त्याग देती है वैसे ही अगर धनी मनुष्य समाज के हित पर धन व्यय नहीं करता तो उसे कोई सम्मान नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अगर आप समाज के शिखर पुरुष हैं तो जितना हो सके अपने आसपास और अपने पर आश्रित निर्धनों, श्रमिकों और बेबसों पर रहम करिये तभी तो आपका प्रभाव समाज पर रह सकता है वरना आपके विरुद्ध बढ़ता विद्रोह आपका समग्र भौतिक सम्राज्य भी नष्ट कर सकता है।
हमारे प्राचीन महापुरुष अनेक प्रकार की कथा कहानियों में समाज में समरसता के नियम बना गये हैं। उनका आशय यही है कि समाज में सभी व्यक्ति आत्मनियंत्रित हों। जिसे आज समाजवाद कहा जाता है वह एक नारा भर है और उसे ऊपर से नीचे की तरफ नारे की तरह धकेला जाता है जबकि हमारे प्राचीन संदेश मनुष्य को पहले ही चेता चुके हैं कि राजा, धनी और प्रभावी मनुष्य को अपने अंतर्गत आने वाले सभी लोगों को प्रसन्न रखने का जिम्मा लेना चाहिए। उनका आशय यह है कि समाजवाद लोगों में स्वस्फूर्त होना चाहिये जबकि आजकल इसे नारे की तरह केवल राज्य पर आश्रित बना दिया गया है। इस सामाजिक समरसता के प्रयास की शुरुआत भले ही राज्य से हो पर समाज में आर्थिक, सामाजिक, और प्रतिष्ठत पदों पर विराजमान लोगों को स्वयं ही यह काम करना चाहिये। इसके लिये हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों से जीवन के नियम सीखें न कि पश्चिम या पूर्व से आयातित नारे गाते हुए भ्रम में रहना चाहिए। केवल नारे लगाने से गरीब या कमजोर का उद्धार नहीं होता बल्कि इसके लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये। जो राज्य अपने गरीब, असहाय तथा तकलीफ पड़े आदमी या समूह की सहायता नहीं करता वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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श्रीमदभागवत गीता में भी है समाजवाद का सन्देश


हमारे देश में तमाम तरह के नारे लगाए जाते हैं जिनमें एक है ‘समाजवाद लाओ’। इस नारे के साथ अनेक आन्दोलन चले और उनके अगूआओं ने अपने चारों और लोगों की भीड़ बटोरी पर अभी भी समाज में समरस्ता का भाव स्थापित नहीं हो पाया। जिन लोगों ने भीड़ एकत्रित कर शक्ति प्राप्त की उन्होने अपने और परिवार के लिए अकूत संपदा अर्जित कर ली इतना ही नहीं आज भी वह यही नारा लगा रहे हैं। गरीबों और शोषितों के दम पर शक्ति अर्जित करने का बावजूद वह उनका भला नहीं कर पाए। भारतीय धर्म ग्रंथों में दोष ढूँढने वाले उसके अच्छे पक्ष से मुहँ फेर लेते हैं क्योंकि उसमें कई ऐसे रहस्य है जो जीवन के मूल तत्वों के सत्य पक्ष को उदघाटित करते हैं और आदमी को फिर भ्रम में नही जाने देते। ऐसे ही श्रीगीता भी एक ऐसा पावन ग्रंथ है जिसमे ज्ञान के साथ विज्ञान भी हैं। मैंने यह लेख मजदूर दिवस पर लिखा था और आज जब इस पर मेरी दृष्टि पढी तो मैंने इसे अपन मुख्य पर रखने का निश्चय किया क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो मुझे इसी ब्लोग की वजह से अधिक जानते और मानते हैं।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”
श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्र माने जाते है जिन के विचारों पर गईबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिद्ध होगा।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया की वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे।मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आता था पर भक्ति भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।

मनुस्मृति:एक दिन से अधिक ठहरने वाला अतिथि नहीं


  1. एक सज्जन व्यक्ति के घर से बैठने या विश्राम के लिए भूमि, तिनकों से बने आसन, जल तथा मृदु वचन कभी दूर नहीं रहते। यह सब आसानी से उपलब्ध रहते हैं। अत: अतिथि को यदि अन्न, फल-फूल और दूध आदि से सेवा करना संभव नहीं हो तो उसे सही स्थान पर आसन पर आदर सहित बैठाकर जल तथा मृदु वचनों से संतुष्ट करना चाहिऐ।
  2. एक रात गृहस्थ के घर ठहरने वाला व्यक्ति ही अतिथि कहलाता है क्योंकि उसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं होती। एक रात से अधिक ठहरने वाला अतिथि कहलाने का अधिकारी नहीं होता।
  3. यदि एक स्थान से दूसरे स्थान या नगर में रोजी-रोटी कमाने के उद्देश्य से जाकर कोई व्यक्ति बस जाता है तथा उसके गृह क्षेत्र का कोई दूसरा व्यक्ति उसके यहाँ ठहरता है या वह स्वयं अपने गृहक्षेत्र में जाकर ठहरता है तो उसे अतिथि नहीं माना जाता। इसी प्रकार मित्र, सहपाठी और यज्ञ आदि कराने वाला पुरोहित भी अतिथि नहीं कहलाता।
  4. जो मंद बुद्धि गृहस्थ उत्तम भोजन के लालच में दूसरे गाँव में जाकर दूसरे व्यक्ति के घर अतिथि बनकर रहता है वह मरने के बाद अन्न खिलाने वाले के घर पशु के रूप में उस भोजन का प्रतिफल चुकाता है।
  5. सूर्यास्त हो जाने के बाद असमय आने वाले मेहमान को भी घर से बिना भोजन कराए वापस भेजना अनुचित है। अतिथि समय पर आये या असमय पर उसे भोजन कराना ही गृहस्थ का धर्म है।
  6. जो खाद्य पदार्थ अतिथि को नहीं परोसे गए हों उन्हें गृहस्थ स्वयं न ग्रहण करे। अतिथि का भोजन आदि से आदर सत्कार करने से धन, यश, आयु एवं स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
  7. उत्तम, मध्यम एवं हीन स्तर के अतिथियों को उनकी अवस्था के अनुसार स्थान, विश्राम के लिए शय्या और अभिवादन प्रदान कर उनकी पूजा करना चाहिऐ।

पर्व का एक दिन बीत गया


एक दीपावली का पर्व और बीत गया। लोगों ने इस पर अपने सामर्थ्यानुसार आनंद उठाया। कई लोगों के पास इसको मनाने के लिए या तो समय नहीं रहा होगा या पैसा-पर दोनों ने इसके आने की खुशी का अहसास किया होगा क्योंकि कहीं न कहीं एक मन होता है जो भूखे, प्यासे और कष्ट झेलकर भी आनंद उठाता है। हर आदमी में पांच तत्वों की देह में मन, बुद्धि और अंहकार की प्रकृतियां रहती हैं और उनके दासत्व का बोध सामान्य मनुष्य को नहीं होता है।
जब तक विज्ञान और समाचार माध्यम इतने प्रबल नहीं थे तब तक कुछ जानकारी नहीं हो पाती थी पर अब तो हर चीज पता लग जाती है। मिठाई के नाम विष भी हो सकता है क्योंकि नकली खोया बाजार में बिक रहा है, और पटाखे भयानक ढंग से पर्यावरण प्रदूषण फैलाते हैं, पर यह लगा नहीं कि लोगों का इस पर ध्यान है। इतना ही नहीं खुले में रखी मिठाई में कितने दोष हो सकते हैं यह सब जानते हैं पर न इस पर खरीदने वाला और न बेचने वाला सोचने के लिए तैयार दिखा। कोई चीज थोडी देर के लिए बाहर रख दो उस पर कितनी मिटटी जमा हो जाती है इसका पता तब तक नहीं लगता जब तक वह प्रतिदिन उपयोग की न हो। रात को बाहर किये गए वाहन-जैसे कार, स्कूटर, और साईकिल सुबह कितने गंदे हो जाते है लोगों को पता है क्योंकि सुबह जाते समय वह उस पर कपडा मारकर उसे साफ करते हैं। वह यह नहीं सोचते कि इतनी देर खुले में रखे मिठाई कितनी गंदी हो गयी होगी।
खुशी मनाना है बस क्योंकि कहीं खुशी मिलती नहीं है। त्यौहार क्या सिर्फ खुशियाँ मनाने के लिए ही होते? क्या कुछ पल बैठकर चिंतन और मनन नहीं करना चाहिए। क्या पुरुषार्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित है? क्या त्यौहार पर अमीर केवल इसके लिए प्रसन्न हों कि उन पर लक्ष्मी की कृपा है और गरीब इसलिए केवल दुखी हो कि उसके पास पैसा नहीं है। समाज में सहकारिता की भावना समाप्त हो गई है और यह मान लिया है कि गरीबों का कल्याण केवल राज्य करेगा और समाज के शक्तिशाली वर्ग का कोई दायित्व नहीं है। पहले धनी लोग अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और आसपास के लोगों पर अपने दृष्टि बनाए रखते थे पर अब यहाँ पहले जैसा कुछ नहीं रहा। जाति,भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर बने समाज या समूह बाहर से मजबूत दिख रहे हैं पर अन्दर से खोखले हो चुके हैं।
कार्ल मार्क्स ने कहा था इस दुनिया में दो वर्ग हैं पर अमीर और गरीब। सच कहा था पर भारत में आज के संदर्भ में ही सही था-क्योंकि उस समय एक वर्ग और था जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता था। इस वर्ग में बुद्धिजीवी और विद्वान भी शामिल थे-और उनका समाज में अमीर और गरीब दोनों वर्ग के लोग भरपूर सम्मान करते थे। जिन्होंने कार्ल मार्क्स की राह पकडी उनका उद्देश्य यही था कि किसी तरह मध्यम वर्ग का सफाया कर गरीब का भला किया जा सके और उन्होने अपने लिए एक बौद्धिक वर्ग बनाया जिसने उनका रास्ता बनाया। अब सब जगह केवल दो ही वर्ग रह गए हैं अमीर और गरीब। जिसके पास धन है सब उसकी मुहँ की तरफ देख रहे हैं। दुनिया धनिकों की मुट्ठी में है और विचारवान और बुद्धिमान होने के लिए धन का होना जरूरी हो गया।
परिणाम सामने हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्धिमान और विचारवान लोग नहीं है पर उनकी कोई सुनता नहीं है, टीवी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं में केवल धनिक लोगों की चर्चा और प्रचार है। उनमें हीरो-हीरों की चर्चा है। बस वही हैं सब कुछ। लोगों की सोचने की शक्ति को निष्क्रिय रखने के लिए मनोरंजन के नाम पर ऐसी विषय सामग्री प्रस्तुत की जा रही है कि वह उससे अलग कुछ सोच ही नही सकता। यह खरीदो और वह बेचो-ऐसे प्रचार के चक्र व्यूह में घिरा आदमी बौद्धिक लड़ाई में हारा हुआ लगता है।
फिर भी इस देश में कुछ ऐसा है कि झूठ अधिक समय तक नहीं चलता इस दिपावली के त्यौहार से यही सन्देश मिलता है कि लोग सच को पसंद करते है और यह उम्मीद करना चाहिऐ कि धीरे -धीरे लोग सच के निकट आयेंगे और झूठ को असली पटाखे की तरह जला देंगे -और तब नकली पटाखे जलाकर पर्यावरण प्रदूषण नहीं फैलाएंगे।

मनु स्मृति:जिसके सामने प्रजा लुटे वह राजा मृतक समान


१.उस राजा को जीवित रहते हुए भी मृतक समान समझना चाहिए जिसके स्वयं या राज्य के अधिकारियों के सामने चीखती-चिल्लाती प्रजा डाकुओं द्वारा लूटी जाती है।
२.प्रजा का पालन करना ही राजा का धर्म होता है। जो इस धर्म का पालन करता है वाही राज्य सुखों को भोगने का धिकारी है।

३.यदि राजा रोग आदि या किसी अन्य कारण से राज्य के सभी विषयों का निरीक्षण करने में समर्थ न हो तो उसे अपनी जगह धर्मात्मा , बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभी और श्रेष्ट व्यक्ति को मुख्य अमात्य(मंत्री) का पदभार सौंपना चाहिऐ।

४.मूर्ख, अनपढ़(जड़बुद्धि वाले व्यक्ति),गूंगे-बहरे आदि हीन भावना की ग्रंथि से पीड़ित होने के कारण, पक्षी स्वभाव से ही(तोते आदि पक्षी रटी-रटाई बोलने वाले) अभ्यस्त होने के कारण मन्त्र(मंत्रणा) को प्रकट कर देते हैं। कुछ स्त्रियाँ स्वभाववश (चंचल मन और बुद्धि के कारण) मंत्रणा को प्रकट कर सकती हैं। इसके अलावा अन्य व्यक्ति भी जिन पर राजा को अपनी मंत्रणा प्रकट करने का संदेह हो उन्हें मंत्रणा स्थल से हटा देना चाहिऐ।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अपने से हीन व्यक्ति से संधि या संबंध न करें


१. अपने से हीन पुरुष से कभी संधि या संबंध न करे।इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसके साथ विश्वास पूर्वक बातचीत करने से वह अवसर पाकर अवश्य आक्रमण करेगा।
२.बलवान के साथ संधि करे तथा उसके ह्रदय में प्रवेश कर प्रतापी पुरुष का इस प्रकार अनुगमन करे जिससे उसका विश्वास प्राप्त हो जाये।
लेखक का अभिमत- जब हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र को पढ़ते हैं, तो ऐसा लगता है कि वह केवल राजाओं के लिए लिखा गया है, पर हम यह देखें कि हर व्यक्ति अपने घर का राजा ही होता है और उसे अपने घर-परिवार की रक्षा उसी तरह करना पड़ती है जैसे राजा को अपने राज्य की करनी पड़ती है। जैसे राजा के लिए कहा जाता है कि उसे अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह पालन करना चाहिऐ उसी तरह मेरा मानना है कि अपने परिवार की रक्षा एक राजा की तरह करना चाहिए। इसलिए कौटिल्य ने जो सिद्धांत राजा के लिए बनाए हैं उसका अनुसरण आम आदमी को भी करना चाहिऐ। इसी परिप्रेक्ष्य में एक और बात जिस समय कौटिल्य ने जब अपनी यह रचना की थी उस समय महिलाओं की समाज में परिवार के बाहर कोई भूमिका नहीं थी पर आज समय बदल गया है और वह भी कहीं न कही साम्राज्ञी की भूमिका में होती हैं अत: उन्हें भी इसका अध्ययन करना चाहिऐ। वह कई जगह पुरुषों जैसे काम कर रहीं है और उन्हें भी एक राजा की तरह अपने कार्य के लिए रणनीति बनाने, उनको अमल में लाने के साथ अपने सार्वजनिक कार्यों के संधि और विग्रह के सिद्धांतों पर विचार करना होता है अत: कौटिल्य का अर्थशास्त्र उनके लिए उपयोगी हो सकता है। हमारे समाज का महत्त्व इसलिए अधिक है कि हम समय के साथ बदलते हैं। अगर कौटिल्य या चाणक्य ने कोई सिद्धांत राज्य के लिए प्रतिपादित किया है उसका अर्थ यह है कि जो जहाँ का राजा है वे उसके अनुसार चले-पर इसका आशय यह कि जिसके हाथ में राज्य सता है वह उसके अनुसार चले।

हम ऊपर उनके जो दो सिद्धांत है उस पर विचार करें तो वह सब पर लागू होता है। पुरुष हो या स्त्री उन्हें अपने कार्यों को संपन्न करने के लिए कई जगह संधि या संबंध करने होते हैं। कौटिल्य का कहना है कि अपने से हीन पुरुष या स्त्री से संधि विश्वास योग्य नहीं होती और वह कभी भी धोखा दे सकता है। व्यापारिक समझौता हो या कोई और संबंध उस समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए। विवाह के समय भी इस बात का ध्यान रखना चहिये कि जीवन साथी मानसिक, वैचारिक और आर्थिक स्तर पर बराबरी का हो क्योंकि संधि या संबंध बराबरी पर ही होती है। जो इन क्षेत्रों में कमजोर होता है उसके मन में हीन भाव होता है और वह सदा इस फिराक में रहता है कि कब सामने वाला लड़खडाए तो मैं उसे अपनी उपस्थिति और महत्व का अहसास कराऊँ और कभी-कभी तो वह ऐसी योजनाएं बनाने लगता है कि उसके परेशान होने की स्थिति हो जाये। बैमेल समझोते और विवाह शुरूआती लाभ के बाद शक्तिशाली व्यक्ति के लिए बहुत कष्टकारी होते हैं और उसे पतन की गर्त मैं ले जाते हैं। अगर कोई व्यापारिक समझौता हो तो चुप बैठा जा सकता है पर विवाह मैं तो पुरुष हो या स्त्री उसका जीवन बरबाद हो जाता है। इस मामले में स्त्रियों को विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि उनकी विवाह बन्धन से मुक्ति बहुत आसान नहीं होती।

इसी तरह अपने से अधिक शक्तिशाली व्यक्ति के साथ समझोता करना ठीक रहता है और उसके साथ विश्वास का निर्वाह करने का प्रयत्न करना चाहिए। जहाँ तक विवाह का सवाल है तो पुरुष को आर्थिक दृष्टि से थोडे कम या बराबर परिवार के स्त्री से विवाह करना चाहिए पर स्त्री को अपने से अधिक या बराबर या ऊंचे परिवार मैं विवाह करना चाहिऐ इससे समाज में सम्मान बना रहता है-आखिर विवाह किये तो समाज में अपने तथा अपने माता पिता का सम्मान बढाने के लिए ही जाते हैं- अगर समाज और माता-पिता को नहीं मानना तो फिर विवाह की पद्धति को मानने की भी जरूरत नहीं पड़ती, लोग ऐसे भी रह सकते हैं। जो लोग अपने वैवाहिक संबंधों से अपने माता-पिता का सम्मान गिराते हैं समाज में लोग उसका सम्मान बिलकुल नहीं करते सामने भले ही कोई नहीं कहता हो।

वैसे कहने को लोग भी कुछ कहते हैं पर हमारे पुराने मनीषियों ने अपने तत्कालीन समाज को दृष्टिगत रखते हुए ऐसे सिद्धांतों की रचना की जो उसके बदलते हुए स्वरूप में भी उपयोगी हों इस बात का ध्यान रखा। इसलिए जब मैं कौटिल्य या चाणक्य के विषय में लिखता हूँ तो कई पाठक मुझसे इसको जारी रखने का आग्रह करते हैं क्योंकि उनको आज भी यह सब प्रासंगिक लगते हैं। इसी तारतम्य में मैंने अपने विचार इसलिए प्रस्तुत किये ताकि उनके सिद्धांतों की आज के संबंध में व्याख्या की जा सके-क्योंकि मैं नारों और वाद में यकीन नहीं करता। मेरा मानना है कि जीवन जीने के कुछ नियन हैं जिन्हें कोइ नहीं बदल सकता चाहे वह देह के हों या मन के।

सच सुनने से भयातुर लोग


यहाँ बोलने के लिए सब हैं आतुर
अपने बारे में सच सुनने से भयातुर
चारों और बोले जा रहे शब्द
बस बोलने के लिए
सुनता कोई नजर नहीं आता
अपनी भक्ति के गीत हर कोई गाता
जिन्दगी जीने का तरीका कोई नहीं जानता
सिखाता दूसरे को गुर
सूरज उगने के बाद उठते
और बोलना शुरू करें ऐसे जैसे दादुर (मेंढक)
सुबह से शाम तक लोग ढूढ़ते श्रोता
सच सुनने से रहते भयातुर

रहीम के दोहे:प्रेम में भी बुद्धि से काम लें


रहिमन मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव
जो डिगिहै तो फिर कहूं, नहिं धरने को पाँव
कवि रहीम कहते हैं कि प्रेम-पाथ पर बुद्धिहीन होकर मत चलो। यदि प्रेम मार्ग में कहीं पग डगमगा गए फ़ो फिर कहीं पैर रखने के लिए स्थान भी नहीं मिलेगा।

भक्त मौन है


भक्त से पूछा गया
‘बता राम कौन है’
जो मनुष्यदेह धारण किये हो
और पूछे ऐसा प्रश्न
इस अहंकार पर भक्त मौन है

रोम-रोम में बसते हैं
कण-कण में रहते हैं
रक्त की हर बूँद में
सदैव प्रवाहित हैं
जिस भक्त के हृदय के स्वामी है
वह कैसे इस प्रश्न का उत्तर दे कि
‘राम कौन है’

प्रश्न में छाया है अहंकार
पर भक्ति तो होती निरंकार है
मन के भाव होते हैं पवित्र
उन्हें व्यक्त करना बेकार है
अंहकार का सबसे अच्छा उत्तर मौन है

जिन्होंने खोजा उसे पाया
जिनके मन में अहंकार
वाणी से निकले शब्दों में है प्रहार
आत्ममुग्धता से भरा व्यवहार
उनके भी पास हैं पर देख नहीं पाया

अंतर्दृष्टि का अँधेरा
दैहिक चक्षुओं से भी प्रकाश की
अनुभूति को दूर कर देता है
इसलिये वह पूछते हैं कि
‘राम कौन है’
जिसके घट-घट में बसते हैं
हर पल देह में विचरते हैं
वह भक्त मौन है
जिसे अपनी अटूट भक्ति में विश्वास है
वह जानता है उनकी कृपा दृष्टि को
इसलिये सुनकर भी यह प्रश्न
अनसुना कर देते हैं भक्त कि
‘यह राम कौन है’
आत्मा और परमात्मा के बीच
सेतु की तरह है राम का नाम
इसलिये भक्त मौन है

चाणक्य नीति:बुद्धिमान व्यक्ति की पहचान


  1. जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
  2. समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
  3. जब तक बारिश नहीं आती कोयल नहीं गाती, वह समयानुकूल स्वर निकालती है। पशु-पक्षी समय के अनुसार अपने क्रियाएँ करते हैं और जो मनुष्य समय का ध्यान नहीं रखते वह पसु-पक्षियों से भी गए गुजरे हैं। उसी कवि की शोभा और उपयोगिता होती है जो समयानुकूल होता है। बेमौसम राग अलापना जग हँसाई कराना है।

संत कबीर वाणी:चलें बगुले की चाल हंस कहलाये


चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावैं हंस
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पडे काल के फंस
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग चाल तो बगुले की चलते हैं और अपने आपको हंस कहलाते हैं, भला ज्ञान के मोती कैसे चुन सकते हैं? वह तो काल के फंदे में ही फंसे रह जायेंगे। जो छल-कपट में लगे रहते हैं और जिनका खान-पान और रहन-सहन सात्विक नहीं है वह भला साधू रूपी हंस कैसे हो सकते हैं।
संकलन कर्ता का अभिमत-
आजकल हमने देखा होगा कि धर्म के क्षेत्र में ऐसे लोग हो गए है जो बातें तो आदर्श की करते हैं पर उनका ऐक ही उद्देश्य होता है कि किसी भी तरह अपने लिए माया का अधिक से अधिक संग्रह करना कहने को वह साधू संत कहलाते हैं और उनके द्वारा प्रायोजित शिष्य भी उन्हें भगवान का अवतार कहते हैं पर उन्हें कभी भी उन्हें आध्यात्मिक गुरू नही माना जा सकता है। उनकी वाणी में हमारे पुराने धर्म ग्रंथों का महा ज्ञान तोते की तरह रटा हुआ होता है और उनका सामान्य व्यवहार देखकर कभी भी यह नही कहा जा सकता कि वह उस ज्ञान को धारण किये हुए है। ऐसे लोगों को धर्म का व्यापार करने वाला तो कहा जा सकता है पर साधू-संत नही माना जा सकता है चाहे वह कितना भी जतन कर लें।

अपनों से बढती दूरी का दर्द


आजकल जिसे देखो अपने लोगों-यानी अपने रिश्तेदारों , परिचितों, मित्रों और परिवार -पर यकीन नहीं करता । हालत यह है जो भाई बहिन साथ-साथ पलते हैं उनको भी एक दुसरे पर विश्वास तभी तक रहता है जब तक एक ही छत के नीचे हैं और घर से बाहर होने या विवाह होने पर सब कुछ बदल जाता है और रिश्ते बस नाम भर के रह जाते है।

हम अपने देश की संस्कृति और संस्कारों पर गर्व करते हैं वह उन्हीं पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर करते हैं जो अब एक तरह से अपना आभा मंडल खो चुके हैं या खोते जा रहे हैं । कोई अपनी तकलीफों को बयान नहीं कर पाता पर अपनों से बदती भावनात्मक दूरी का दर्द सभी को है। जब फोन जैसी सुविधाएं नहीं थी तब लोग बरसों तक एक दुसरे से बातचीत नहीं कर पाते थे तब लोगों में भावनात्मक लगाव और विश्वास अधिक हुआ करता था पर जब संबंध रखने और बातचीत करने के नए और तीव्रतर साधन उपलब्ध हो गये हैं तो लोगों में आपसी लगाव और विश्वास इस क़दर कम हो गया है कि रोज मोबाइल पर बातचीत करने वाले लोग भी एक- दुसरे पर विश्वास करते हैं -ऎसी आशा नहीं की जा सकती। परिवहन के साधन जब धीमे और उबाऊ थे तब लोग एक-दुसरे के पास बड़ी श्रध्दा, प्रेम और मन में उमंगता का भाव लेकर जाते थे और आज जब अति तीव्रगामी साधन उपलब्ध हो गये हैं लोगों का एक-दुसरे का यहाँ जाना मात्र ओपचारिकता भर रह गयी है-शादी विवाह के अवसर पर लोग बहुत उत्साह से शामिल होते थे पर बदलते समय ने इसे एक मजबूरी बना दिया है , आख़िर ऐसा क्या हुआ कि यह सब बदल गया और समाज जो कभी अपने श्रेष्ठता का दंभ भरता था आज एकदम खोखला हो गया – यहाँ हम इस बात को नहीं भूल सकते कि हम भी किसी न किसी के अपने है और जब हम अपनों पर कोई आक्षेप करते हैं तो वह हम स्वयं पर भी कर रहे हैं ।

हम यहां किसी पर आक्षेप नहीं करना चाहते बल्कि ईमानदारी से उन परिस्थतियों का अवलोकन करना चाहते हैं कि अपना आख़िर अपने से दूर क्यों हो गया और अब उसे कैसे पास रख कर विश्वसनीय बनाया जा सकता है ।

जब आधुनिक साधन और व्यवस्था नहीं थी तब व्यक्ति की व्यक्ति पर निर्भरता अधिक थी इसीलिये संपर्क बनाए रखना न एक बाध्यता बल्कि एक सामाजिक जरूरत भी थी । पहले घर में होने वाले कार्यक्रमों के लिए कामकाज के लिए लोगों की जरूरत होती थी और उस समय नाते-रिश्तेदार और आस-पड़ोस के लोग ख़ूब सहयोग करते थे और अब नवीनतम सुख-सुविधाओं और सेवाओं की बाजार में उपलब्धता ने आदमी को आत्मनिर्भर बना दिया और अब वह पैसा खर्च कर अपने काम करा लेता है। शादी के अवसर पर रिश्तेदार पन्द्रह-पन्द्रह दिन पहले पहुंचते थे ताकि काम में सहयोग किया जा सके। लडकी की शादी में रिश्तेदार बारात के स्वागत के लिए जीजान लगा देते थे। अब इस काम के लिए हलवाई बरात के स्वागत का भी ठेका लेने लगे हैं और जिनके पास पैसा है वह होटलों की सेवाएं लेते हैं जहाँ वेटर स्वागत का काम करते हैं।
अब तो शादी ब्याह में यह पता ही नहीं लगता कि लडकी के रिश्तेदार कौन हैं और लड़के के कौन? कुल मिलाकर आदमी का आदमी में स्वार्थ अब कम हो गया है । यहां किसी प्रकार के अध्यात्म की बात करना ठीक नहीं होगी। कुछ लोग कहेंगे कि ऐसे संबंधो का क्या मतलब जिसमें स्वार्थ हौं , तो पहले यह समझना होगा कि दैहिक स्वार्थ ही दो देहों के संबंध मजबूत रखते हैं -और हम इस तथ्य को तर्क की कसौटी पर नही कसेंगे तो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचेंगे और बात अधूरी रह जायेगी ।कुल मिलाकर बात यह कि घरेलू कर्यकर्मों में अपने लोगों की भागेदारी अब नाम मात्र की रह गयी है और इस कारण लोगों में आत्मीयता के भाव में कमी आ गयी है और रिश्ते निभाये नहीं बल्कि घसीटे जा रहे हैं अब भाई में भात्रत्व , मित्र में मैत्री, और सहयोगी में सहकारिता का भाव ढूँढना बेमानी लगता है। कहीं कहीं विपरीत स्थति भी है कि लोग अपनों से ही हानि की आशंका से भी त्रस्त हैं। इस घोर अविश्वास और हानि कि भावना ने आदमी को बौद्धिक रुप से खोखला कर दिया जहां निराशा, मानसिक तनाव और अकेलेपन की भयानक अनुभूति के साथ जीता है ।

हमारा किसी में काम नही पडेगा यह बात जहाँ आत्मविश्वास देती है वहीं हममें किसी का काम नहीं पडेगा यह उसे बुरी तरह तोड़ती भी है । अकेले होने पर इतना भय नहीं होता जितना परिवार और रिश्तेदारों के होते अकेलेपन का होता है ।हम किसी दुसरे व्यक्ति या समाज को सुधारने की बात करें उससे कुछ होने वाला नहीं है बल्कि हमें अपनी मानसिकता सुधारने की बात करना चाहिऐ , भले ही कम छोटा क्यां न हो हमें अपनों से उसके लिए कहना चाहिए क्योंकि हम जरा अपने अन्दर झाँकें कोई हमेंकिसी खास अवसर पर कोई काम कहता है तो हम खुश होते हैं या नहीं। मतलब यह कि दूसरों के स्वार्थ भी सिध्द करो और अपने भी स्वार्थ उसमे जानबूझकर फसाओ ताकि रिश्तो की निरन्तरता बनी रहे ।

कविवर रहीम कहते हैं –

“आवत काज रहीम काहिन् , गाढ़े बंधू सनहे
जीर होत न पेड ज्यों, थमे बरेह

विपत्ति के समय अपने घनिष्ठ बंधुओं का स्नेह काम आता है । जैसे पेड सा पराने होने पर उसकी लकड़ी के गट्ठे की मोटी रस्सी पेड को थाम लेती है और पेड की डालियों से निकलने वाली शाखाएं जमीन में जा बड़ा पकड लेती हैं।हमें अपनों में अपना स्नेह और प्रेम बनाए रखना चाहिए क्योंकि इससे हमारा ही आत्मविश्वास बढता है । वह लोग क्या सोचते और करते हैं यह उनका काम है।

कविवर रहीम यह भी कहते हैं कि

“दुर्दिन परे रही कहिन्न , भूलत: सब पहिचानी
सोच नही वित हानि को, जो न होय हित हानि”

जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग भी पहचानना भी भूल जाते हैं। ऐसे समय में यदि अपने मित्र तथा सगे संबंधी न भुलाएँ तो धन की हानि का विचार मन को इतनी पीडा नहीं पहुँचाता।

रहीम ने आज से कई बरस पहले भी ऎसी हालतों का सामना किया तभी अपने लोगों की उपेक्षा का भाव झेलने का दर्द वह व्यक्त कर पाए। अपने लोगों की सहायता के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिए पर उनसे कोई आशा नहीं करना चाहिऐ तभी स्वयं बेचारगी के भाव से मुक्त हो पायेंगे जो अपनों से दूर होने केकारण हमारे अन्दर उत्पन्न होता है।

महायोगी की आलोचना से आत्मविश्लेषण करैं


भारत में आजकल एक फैशन हो गया है कि अगर आपको सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करनी हो तो हिंदू धर्म या उससे जुडे किसी संत पर आक्षेप कर आसानी से प्राप्त की जा सकती है। मुझे ऐसे लोगों से कोई शिक़ायत नहीं है न उनसे कहने या उन्हें समझाने की जरूरत है। अभी कुछ दिनों से बाबा रामदेव पर लोग प्रतिकूल टिप्पणी कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की होड़ में लगे है । इस समय वह भारत में ही नहीं वरन पूरे विश्व में लोकप्रिय हो रहे हैं ,और मुझे नहीं लगता कि आजादी के बाद कोई व्यक्ति इतनी लोकप्रियता हासिल कर सका हो। सूचना तकनीकी में हम विश्व में उंचे स्थान पर हैं पर वहां किसी व्यक्ति विशेष को यह सम्मान नहीं प्राप्त हो सका है। बाबा रामदेव ने हिंदूं धर्म से योगासन, प्राणायाम, और ध्यान की जो विद्या भारत में लुप्त हो चुकी थी उसे एक बार फिर सम्मानजनक स्थान दिलाया है, उससे कई लोगों के मन में कुंठा उत्पन्न हो गयी है और वह योजनापूर्वक उन्हें बदनाम आकर रहे हैं।
पहले यह मैं स्पष्ट कर दूं कि मैंने आज से चार वर्ष पूर्व जब योग साधना प्रारंभ की थी तब बाबा रामदेव का नाम भी नही सुना था। भारतीय योग संस्थान के निशुल्क शिविर में योग करते हुए लगभग डेढ़ वर्ष बाद मैंने उनका नाम सूना था। आज जब मुझसे कोई पूछता है “क्या तुम बाबा रामदेव वाला योग करते हो?
मैं उनसे कहता हूँ -“हाँ, तुम भी किया करो ।
कहने का तात्पर्य यह है इस समय योग का मतलब ही बाबा रामदेव के योग से हो गया है। मुझे इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है क्योंकि मैं ह्रदय से चाहता हूँ कि योग का प्रचार और प्रसार बढ़े । मैं बाबा रामदेव का भक्त या शिष्य भी नहीं हूँ फिर भी लोगों को यह सलाह देने में मुझे कोई झिझक नहीं होती कि वह उनके कार्यक्रमों को देखकर योग सीखें और उसका लाभ उठाएं । इसमें मेरा कोई निजी फायदा नहीं है पर मुझे यह संतुष्टि होती है कि मैं जिन लोगों से योग सीखा हूँ वह गुरू जैसे दिखने वाले लोग नहीं है पर उन्होने गुरूद्क्षिना में इसके प्रचार के लिए काम करने को कहा था। बाबा रामदेव का समर्थन करने के पीछे केवल योग के प्रति मेरी निष्ठा ही नहीं है बल्कि यह सोच भी है कि योग सिखाना भी कोई आसान काम नहीं -योग शिक्षा वैसे ही भारत में ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाई है और इसे विषय के रुप में स्कूलों में शामिल करने का बहुत विरोध हो रहा है ऐसे में लार्ड मैकाले की शिक्षा से स्वयं को विद्धान की पदवी से अलंकृत कर स्वयंभू तो योग के नाम से बौखला जाते हैं, और उनके उलुलजुलुल बयानों को मीडिया में स्थान भी मिलता है। कुछ दिन पहले बाबा रामदेव के शिविर में एक बीमार व्यक्ति की मौत हो गयी थी तो मीडिया ने इस तरह प्रचारित करने का प्रयास किया जैसे वह योग्साध्ना से मरा हो, जबकि उसकी बिमारी उसे इस हाल में लाई थी। उस समय एक सवाल उठा था कि अंगरेजी पध्दति से सुसज्जित अस्पतालों में जब कई मरीज आपरेशन टेबल पर ही मर जाते हैं तो क्या इतनी चीख पुकार मचती है और कोई उन्हें बंद करने की बात करता है। ट्रकों, कारों, और मोटर सायाकिलों की टक्कर में सैंकड़ों लोग मर जाते हैं तो कोई यह कहता है इन्हें बंद कर दो? और इन वाहनों से निकलने वाले धुएँ ने हमारे पर्यावरण को इस क़दर प्रदूषित किया है जिससे लोगों में सांस की बीमारियाँ बढ गयी है तो क्या कोई यह कहने वाला है कि विदेशों से पैट्रोल का आयत बंद कर दो?
बाबा रामदेव ने हिंदूं धर्म से जुडी इस विधा को पुन: शिखर पर पहुंचाया है इसके लिए उन्हें साधुवाद देने की बजाय उनके कृत्य में छिद्र ढूँढने का प्रयास करने वाले लोग उनकी योग शिक्षा की बजाय उनके वक्तव्यों को तोड़ मरोड़ कर उसे इस तरह पेश करते हैं कि उसकी आलोचना के जा सके। जहाँ तक योग साधना से होने वाले लाभों का सवाल है तो उसे वही समझ सकता है जिसने योगासन, प्राणायाम , ध्यान और मत्रोच्चार किया हो। शरीर की बीमारी तो पता चलती है पर मानसिक और वैचारिक बीमारी का व्यक्ति को स्वयं ही पता नहीं रहता और योग उन्हें भी ठीक कर देता है। जहां तक उनकी फार्मेसी में निर्मित दवाओं पर सवाल उठाने का मामला है बाबा रामदेव कई बार कह चुके हैं वह बीमारियों के इलाज में दवा को द्वितीय वरीयता देते हैं, और जहाँ तक हो सके रोग को योग साधना से दूर कराने का प्रयास करते हैं। फिर भी कोई न कोई उनकी दवाए उठाकर लाता है और लगता है अपनी विद्वता दिखाने। आज तक कोई किसी अंगरेजी दवा का सैम्पल उठाकर नहीं लाया कि उसमे कितने साईट इफेक्ट होते हैं। इस देश में कितने लोग अंगरेजी बिमारिओं से मरे यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की।
अब रहा उनके द्वारा हिंदू धर्म के प्रचार का सवाल तो यह केवल उनसे ही क्यों पूछा जा रहा है? क्या अन्य धर्म के लोग अपने धर्म का प्रचार नहीं कर रहे हैं। मैं केवल बाबा रामदेव ही नहीं अन्य हिंदू संतों की भी बात करता हूँ । जो लोग उन पर सवाल उठाते हैं वह पहले अपना आत्म विश्लेषण करें तो उन्हें अपने अन्दर ढ़ेर सारे दोष दिखाई देंगे। दो या तीन घंटे तक अपने सामने बैठे भक्तो और श्रोताओं को-वह भी बीस से तीस हज़ार की संख्या में -प्रभावित करना कोई आसान काम नहीं है। यह बिना योग साधना, श्री मद्भागवत का अध्ययन और इश्वर भक्ती के साथ कडी तपस्या और परिश्रम के बिना संभव नहीं है । उनकी आलोचना केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो उन जैसा हो। इसके अलावा उनसे यह भी निवेदन है कि आलोचना से पहले कुछ दिन तक योग साधना भी करके देख लें ।