Category Archives: धर्म

संत कबीरदास के दोहे-भगवान के साथ चतुराई मत करो


सिहों के लेहैंड नहीं, हंसों की नहीं पांत
लालों की नहीं बोरियां, साथ चलै न जमात

संत शिरोमणि कबीर दास जी के कथन के अनुसार सिंहों के झुंड बनाकर नहीं चलते और हंस कभी कतार में नहीं खड़े होते। हीरों को कोई कभी बोरी में नहीं भरता। उसी तरह जो सच्चे भक्त हैं वह कभी को समूह लेकर अपने साथ नहीं चलते।

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेही निराधार का गाहक गोपीनाथ

कबीरदास जी का कथन है कि चतुराई से परमात्मा को प्राप्त करने की बात तो व्यर्थ है। जो भक्त उनको निस्पृह और निराधार भाव से स्मरण करता है उसी को गोपीनाथ के दर्शन होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों ने तीर्थ स्थानों को एक तरह से पर्यटन मान लिया है। प्रसिद्ध स्थानों पर लोग छुट्टियां बिताने जाते हैं और कहते हैं कि दर्शन करने जा रहे हैं। परिणाम यह है कि वहां पंक्तियां लग जाती हैंं। कई स्थानों ंपर तो पहले दर्शन कराने के लिये बाकायदा शुल्क तय है। दर्शन के नाम पर लोग समूह बनाकर घर से ऐसे निकलते हैं जैसे कहीं पार्टी में जा रहे हों। धर्म के नाम पर यह पाखंड हास्याप्रद है। जिनके हृदय में वास्तव में भक्ति का भाव है वह कभी इस तरह के दिखावे में नहीं पड़ते।
वह न तो इस समूहों में जाते हैं और न कतारों के खड़े होना उनको पसंद होता है। जहां तहां वह भगवान के दर्शन कर लेते हैं क्योंकि उनके मन में तो उसके प्रति निष्काम भक्ति का भाव होता है।

सच तो यह है कि मन में भक्ति भाव किसी को दिखाने का विषय नहीं हैं। हालत यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर किसी सच्चे भक्त का मन जाने की इच्छा भी करे तो उसे इन समूहों में जाना या पंक्ति में खड़े होना पसंद नहीं होता। अनेक स्थानों पर पंक्ति के नाम पर पूर्व दर्शन कराने का जो प्रावधान हुआ है वह एक तरह से पाखंड है और जहां माया के सहारे भक्ति होती हो वहां तो जाना ही अपने आपको धोखा देना है। इस तरह के ढोंग ने ही धर्म को बदनाम किया है और लोग उसे स्वयं ही प्रश्रय दे रहे हैं। सच तो यह है कि निरंकार की निष्काम उपासना ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और उसी से ही परमात्मा के अस्तित्व का आभास किया जा सकता है। पैसा खर्च कर चतुराई से दर्शन करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।
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मंदिरों पर गौरव की अनुभूति-आलेख (hindu temple in the middle east-hindi lekh)


वह एक ब्राह्म्ण लेखक का पाठ था-ऐसा उन्होंने अपने पाठ में स्वयं ही बताया था। उसने बताया कि राजस्थान के सीमावर्ती गांवों में विभाजन के समय आये सिंधी किस तरह अपनी संस्कृति को संजोये हुए हैं। एक सिंधी ने उससे कहा कि ‘आपमें और हममें बस इतना अंतर है कि हम अभी कुछ समय पहले वहां से आये हैं और आप तीन चार सौ साल पहले बाहर से आये हैं।’
उस लेखक ने इसी आधार पर अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा कि बाहर से कितने ही आक्रांता इस देश के लूटने आये पर यहां के लोगों ने उनके विचारों में नयापन होने के कारण स्वीकार किया। यहां नित नित नये समाज बने। उस लेखक ने यह भी लिखा है कि इस समाज की यह खूबी है कि वह नये विचारों को ग्रहण करने को लालायित रहता है।
उस लेखक और इस पाठ के लेखकों में विचारों की साम्यता लगी और ऐसा अनुभव हुआ कि इस देश के इतिहास में कई ऐसी सामग्री हैं जिनका विश्लेषण नये ढंग से किया जाना चाहिये। हुआ यह है कि मैकाले की शिक्षा पद्धति से शिक्षित इस देश बौद्धिक समाज दूसरे द्वारा थोपे गये विषयों पर विचार भी उनके ढंग से करता है। पिछले तीस चालीस वर्ष के समाचार पत्र पत्रिकायें उठाकर देख लीजिये इतिहास की गिनी चुनी घटनाओं के इर्दगिर्द ही नये ढंग से विचार ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे नया हो।
अधिकतर तो हम पिछले बासठ वर्ष के इतिहास पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो कभी कभी हजारों वर्ष पीछे चले जाते हैं। इन सबमें हम अपना गौरव ढूंढने से अधिक कुछ नहीं करते। इससे कभी निराशा का भाव आता है। दरअसल हमारी समस्या यह है कि हम यथास्थिति से आत्ममुग्ध हैं और उसमें अपना गौरव ढूंढना ही अधिक सुविधाजनक लगता है।
इसमें एक गौरव पूर्ण बात कही जाती है कि हिन्दू धर्म कभी इतना विस्तृत था कि उसका विस्तार मध्य एशिया तक था। मध्य एशिया में बने हिन्दू मंदिरों को अपना गौरव बताने की यह प्रवृत्ति हमारे देश में बहुत है। इसके पीछे वास्तविकता क्या है और नये संदर्भों में हम उसे कैसे देखें? यह विचार करने का साहस कोई विद्वान नहीं करता। आईये हम कुछ इस पर प्रकाश डालें।

एक पश्चिमी विद्वान ने खोजकर बताया था कि मनुष्य की उत्पति दक्षिण अफ्रीका में हुई। वह वहां बिल्कुल बंदरों की तरह था। उसके बाद वह भारत आया और वहां उसने ज्ञान प्राप्त किया फिर वह मध्य एशिया में गया जहां उसने सभ्यता का नया स्वरूप प्राप्त किया। फिर वह भारत की तरफ लौटा और बौद्धिक रूप से परिष्कृत होकरउसके बाद अन्य स्थानों पर गया। हम इसे अगर सही माने तो आज भी कुछ नहीं बदला। भारत आकर इंसान ने यहां की आबोहवा मेें राहत अनुभव की और अपने प्रयोग से उसने सत्य का ज्ञान प्राप्त किया। उसके प्रचार के लिये वह मध्य एशिया में गया जहां उसे सांसरिक और भौतिकता का ज्ञान भी मिला। दोनों ही ज्ञानों में संपन्न होने के बाद वह पूरे विश्व में फैला। इसमें एक बात निश्चित रही कि जिस तत्व ज्ञान की वजह से भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु है उसका आभास इसी धरती पर होता है। मुश्किल यह है कि तत्व ज्ञान अत्यंत सूक्ष्म और संक्षिप्त है और बाह्य रूप से उसका आकर्षण दिखता नहीं है। जब इंसान अपने अंदर की आंखों खोले तभी उसका महत्व उसे अनुभव हो सकता है।

भारत में हमेशा ही प्रकृति की कृपा रहने के साथ जनसंख्या का भी घनत्व हमेशा अधिक रहा है इसलिये यहां हमेशा आदमी खातापीता रहा हैं इसके विपरीत अन्य देशों में इतना प्राकृतिक कृपा नहीं है इसलिये यहां का भौतिक आकर्षण विदेशियों को हमेशा ही यहां खींच लाता है। इनमें कुछ पर्यटक के रूप में आते हैं तो कोई आक्रांता के रूप में।
विदेशों से यहां आवागमन हमेशा रहा है और तय बात है कि विदेशों से जो लोग आये उनकी सभ्यता भी यहां मिलती गयी। यही कारण है कि हम अनेक समाजों के कर्मकांडों में विविधता देखते हैं। इतिहासकारों के अनुसार भारत में मूर्तिपूजा का प्रवृत्ति मध्य एशिया से आयी है। उनकी बात में दम इसलिये भी नजर आती है कि भारतीय धर्म ग्रंथों मेें यज्ञ हवन आदि की चर्चा तो होती है पर मूर्ति पूजा यहां के मूल धर्म का भाग हो ऐसा नहीं लगता। रामायण काल में भी रावण द्वारा यज्ञों में विध्वंस पैदा करने की घटनाओं की चर्चा होती है पर मंदिर आदि पर हमला कहीं हुआ हो इसकी जानकारी नहीं मिलती।
श्रीगीता में भी द्रव्य यज्ञ और ज्ञान यज्ञ की चर्चा होती है। द्रव्य यज्ञ से आशय वही यज्ञ हैं जिनमें धन का व्यय होता है और निश्चित रूप से उनका आशय उन यज्ञों से है जिनमें भौतिक सामग्री का प्रयोग होता है।
इतिहास में इस बात की चर्चा होती है कि मध्य एशिया में किसी समय अनेक देवी देवताओं की पूजा होती थी और इस कारण वहां सामाजिक वैमनस्य भी बहुत था। लोग अपने देवी देवताओं को श्रेष्ठ बताने के लिये आपस में युद्ध करते थे। इन देवी देवताओं की संख्या भारत में वर्तमान में प्रचलित देवी देवताओं से कई गुना अधिक थी।
इतिहासकारों के अनुसार वहां एक राजा हुआ जो सूर्य का उपासक था। उसने सूर्य को छोड़कर अन्य देवी देवताओं की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया। दरअसल उसका मानना था कि सूर्य ही सृष्टि का आधार है और वही पूज्यनीय है। उसने अन्य देवी देवताओं के मंदिर और मूर्तियां तुड़वा दीं। इससे लोग नाराज हुए और उसे इतिहास का क्रूर राजा माना गया। बाद में उस राजा की हत्या हो गयी। इतिहासकार मानते हैं कि भले ही उसकी जनता उससे नाराज थी पर उसने यह सत्य स्थापित तो कर ही दिया कि इस सृष्टि का स्वामी एक परमात्मा है।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि उस राजा के मरने के बाद फिर पुनः विभिन्न देवी देवताओं की पूजा होने लगी। नतीजा फिर आपसी संघर्ष बढ़ने लगे और यह तब तक चला जब तक वहां एक ईश्वर का सिद्धांत ताकत के बल पर स्थापित नहीं हो गया।
दरअसल हम इतिहास पर विचार करें तो मूर्ति पूजकों और उनके विरोधियों का संघर्ष वहीं से होता भारत तक आ पहुंचा। भारत में इसे अधिक महत्व नहीं मिला क्योंकि यहां तत्व ज्ञान हमेशा ही अपना काम करता रहता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में पूरी तरह वर्णित है। इसके अलावा एक अन्य बात यह भी है कि भारतीय समाज मानता है कि समय समय पर महापुरुष पैदा होकर समाज सुधार के लिये कुछ न कुछ करते रहते हैं और उनका यह विश्वास गलत नहीं है। आधुनिक काल में कबीर, तुलसी, रहीम, मीरा, रैदास तथा अन्य संत कवियों ने अपनी रचनाओं ने केवल तत्व ज्ञान का प्रचार किया बल्कि भक्ति के ऐसे रस का निर्माण किया जिसके सेवन से यह समाज हमेशा ही तरोताजा रहता है। इसके विपरीत जहां नवीन विचारों के आगमन पर रोक है वह समाज जड़ता को प्राप्त हो गये हैं।
पूर्व में ऋषियों मुनियों और तपस्वियों द्वारा खोजे गये तत्व ज्ञान तथा आधुनिक काल के संत कवियों के भक्ति तत्व का प्रचार हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं। अगर हम यह कहते हैं कि मध्य एशिया में फैले मंदिर हमारे गौरव हैं तो यह भी याद रखिये वह मंदिर हमारे तत्वज्ञान और भक्ति भाव का प्रतीक नहीं है। इसके अलावा सूर्य मंदिरों का मध्य एशिया में होना तो कोई अजूबा नहीं है क्योंकि वहां कभी उनकी पूजा होती है। हम उनके साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को नहीं जोड़ सकते क्योंकि उनके साथ आपसी खूनी संघर्षों का इतिहास भी जुड़ा है। कहने को तो भारत में भी विभिन्न धार्मिक मतों को लेकर विवाद होते रहे हैं पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि इसको लेकर किसी ने किसी पर हमला किया हो।
हमारी वर्तमान सभ्यता, संस्कृति और धर्म अनेक तरह के प्रयोगों के दौर से होते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है। इसके आधार स्तंभ तत्व ज्ञान और भक्ति ही हमारी वास्तविक पहचान है। एक बात याद रखिये इतिहासकार कहते हैं कि दक्षिण अफ्रीका से चलकर इंसान भारत में ज्ञानी हुआ और फिर प्रचार के लिये मध्य एशिया में गया जहां उसे अन्य ज्ञान मिला। वह उसे प्राप्त कर यहां लौटा फिर पूरी तरह से परिष्कृत होकर अन्य जगह पर गया। इसका आशय यह है कि अतीत का गौरव जो हमारे देश में यहीं को लोगों की तपस्य और परिश्रम से निर्मित हुआ है वही श्रेष्ठ है और उससे आगे की सीमा का गौरव तो धूल धुसरित हो गया है। यह वहां रहे लोगों को तलाशना है उस पर हमें गर्व करना बेकार है। इसलिये कहीं मध्य एशिया के पुराने मंदिर ही नहीं बल्कि पश्चिम देशों में बनने वाले मंदिरों में अपने धर्म का गौरव ढूंढना का प्रयास किसी को अच्छा लग सकता है पर अघ्यात्मिक ज्ञानी जानते हैं कि यह केवल एक क्षणिक मानसिक सुख है और इसका उस ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है जिसकी वजह से यह देश विश्व का अध्यात्मिक गुरु माना जाता है।
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वैचारिक महाभारत की आवश्यकता-आलेख (baba shri ramdev,shri shri ravishankar & shri gita)


कभी समलैंगिकता तो कभी सच का सामना, युवक युवतियों के बिना विवाह साथ रहने और इंटरनेट पर यौन सामग्री से संबंधित सामग्री पर प्रतिबंध जैसे विषयों पर जूझ रहे अध्यात्मिक गुरुओं और समाज चिंतकों को देखकर लगता है कि वैचारिक रूप से इस देश में खोखलापन पूरी तरह से घर कर चुका है। इसलिये बाबा रामदेव अगर योग के बाद अगर ज्ञान को लेकर कोई वैचारिक धर्मयुद्ध छेड़ते हैं तो वह एक अच्छी बात होगी। आज के युग में अस्त्रों शस्त्रों से युद्ध की बजाय एक वैचारिक महाभारत की आवश्यकता है। समलैंगिकता और सच का सामना जैसे विषयों पर देश के युवाओं का ध्यान जाये उससे अच्छा है कि उनको अध्यात्मिक वाद विवाद की तरफ लाना चाहिये। पहले शास्त्रार्थ हुआ करता था और यही शास्त्रार्थ अब आधुनिक प्रचार माध्यमों में आ जाये तो बहुत बढ़िया है।

अध्यात्मिक विषयों पर लिखने में रुचि रखने वाले जब बेमतलब के मुद्दों पर बहस देखते हैं तो उनके लिये निराशा की बात होती है। बहुत कम लोग इस बात को मानेंगे कि इसी शास्त्रार्थ ने ही भारतीय अध्यात्म को बहुत सारी जानकारी और ज्ञान दिया है और उसके दोहराव के अभाव में अध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोगों को एकतरफा ही ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि अनेक साधु संत शास्त्रार्थ करने की बजाय अकेले ही प्रवचन कर चल देते हैं। अपनी बात कहने के बाद उस पर उनसे वाद विवाद की कोई सुविधा नहीं है। दरअसल उनके पास ही मूल ज्ञान तत्व का अभाव है।

आचार्य श्रीरामदेव ने भी आज इस बात को दोहराया कि श्रीगीता के उपदेशो की गलत व्याख्या की जा रही है। यह लेखक तो मानता है कि श्रीगीता से आम आदमी को परे रखने के लिये ही कर्मकांडोें, जादू टोने और कुरीतियों को निभाने के लिये आदमी पर जिम्मेदारी डाली गयी। समाज और धर्म के ठेकेदारों ने यह परंपरायें इस तरह डाली कि लोग आज भी इनको बेमन से इसलिये निभाते हैं क्योंकि अन्य समाज यही चाहता है। अपने अध्यात्म ज्ञान से हमारे देश का शिक्षित वर्ग इतना दूर हो गया है कि वह अन्य धर्मों के लोगों द्वारा रखे गये कुतर्कों का जवाब नहीं दे पाता।

विदेशों में प्रवर्तित धर्मों के मानने वाले यह दावा करते हैं कि उनके धर्म के लोगों ने ही इस देश को सभ्यता सिखाई। वह विदेशी आक्रांतों का गुणगान करते हुए बताते हैं कि उन्होंने यहां की जनता से न्यायप्रियता का व्यवहार किया। अपने आप में यह हास्याप्रद बात है। आज या विगत में जनता की राजनीति में अधिक भूमिका कभी नहीं रही। भारत के राजा जो विदेशी राज्यों से हारे वह अपने लोगों की गद्दारी के कारण हारे। सिंध के राजा दाहिर को हराना कठिन काम था। इसलिये ईरान के एक आदमी को उसके यहां विश्वासपात्र बनाकर भेजा गया। अपने लोगों के समझाने के बावजूद वह उस विश्वासपात्र को साथ रखे रहा। उसी विश्वासपात्र ने राजा दाहिर को बताया कि उसकी शत्रु सेना जमीन के रास्ते से आ रही है जबकि वह आयी जलमार्ग से। इस तरह राजा दाहिर विश्वास में मारा गया। यहां के लोग सीधे सादे रहे हैं इसलिये वह छलकपट नहीं समझते। दूसरा यह है कि जो अध्यात्मिक ज्ञान और योग साधना उनको सतर्क, चतुर तथा शक्तिशाली बनाये रख सकती है उससे समाज का दूर होना ही इस देश का संकट का कारण रहा है। दरअसल सभ्य हमारा देश पहले हुआ विदेश में तो बाद में लोगों ने बहुत कुछ सीखा जिसके बारे में हमारे पूर्वज पहले ही जान चुके थे। पर हमारा देश अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण ही कभी आक्रामक नहीं रहा जबकि विदेशी लोग उसके अभाव में आक्रामक रहें। फिर जितनी प्रकृत्ति की कृपा इस देश में कहीं नहीं है यह इतिहास विपन्न देशों द्वारा संपन्न लोगों को लूटने के साथ भी जोड़ा जा सकता है। इसलिये अनेक इतिहासकार कहते भी है कि जो भी यहां आया वह लूटने ही आया।

फिर कुछ आक्रामक लोग अपने साथ अपने साथ मायावी ज्ञान उनको प्रचार करने वाले कथित सिद्ध भी ले आये जिनके पास चमत्कार और झूठ का घड़ा पूरा भरा हुआ था। आश्चर्य की बात है कि अन्य धर्म के लोग जब बहस करते हैं तो कोई उनका जवाब नहीं देता। हां, जो गैर भारतीय धर्मों पर गर्व करते हैं कभी उनसे यह नहीं कहा गया कि ‘आप अपने धर्म पर इतरा रहे हो पर आपके कथित एतिहासिक पात्रों ने जो बुरे काम किये उसका जिम्मा वह लेंगे। क्या इस देश के राजाओं, राजकुमारों और राजकुमारियों के साथ उनके एतिहासिक पात्रों द्वारा की गयी अमानुषिक घटनाओं को सही साबित करेंगे? उन्हों बताना चाहिये कि मीठा खा और कड़वा थूक की नीति धार्मिक चर्चाओं में नहीं चलती।

धार्मिक प्रवचनकर्ता ढेर सारा धन बटोर रहे हैं। इस पर हमें आपत्ति नहीं करेंगे क्योंकि अगर माया के खेल पर बहस करने बैठे तो मूल विचार से भटक जायेंगे। पर यह तो देखेंगे कि साधु और संत अपने प्रवचनों और उपदेशों से किस तरह के भक्त इस समाज को दे रहे हैं। केवल खाली पीली जुबानी भगवान का नाम लेकर समाज से परे होकर आलस्य भाव से जीवन बिताने वाले भक्त न तो अपना न ही समाज का भला कर सकते हैं। भक्ति का मतलब है कि आप समाज के प्रति भी अपने दायित्वों का पालने करें। श्रीगीता का सार आप लोगों ने कई बार कहीं छपा देखा होगा। उसमें बहुत अच्छी बातें लिखी होती है पर उनका आशय केवल सकाम भक्ति को प्रोत्साहन देना होता है और उनका एक वाक्य भी श्रीगीता से नहीं लिया गया होता। हां, यह आश्चर्य की बात है और इस पर चर्चा होना चाहिये। बाबा रामदेव और श्रीरविशंकर दो ऐसे गुरु हैं जो वाकई समाज को सक्रिय भक्त प्रदान कर रहे हैं-इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनकी आलोचना करने वाले बहुत हैं। यही आलोचक ही कभी सच का सामना तो कभी समलैंगिक प्रथा पर जोरशोर से विरोध करने के लिये खड़े होते हैं। योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और श्रीगीता का अध्ययन करने वाले भक्त कभी इन चीजों की तरफ ध्यान नही देते। हमें ऐसा समाज चाहिये जिसके बाह्य प्रयासों से बिखर जाने की चिंता होने की बजाय अपनी इच्छा शक्ति और दृढ़ता से अपनी जगह खड़े का गर्व हमारे साथ हो। कम से कम बाबा रामदेव और श्रीरविश्ंाकर जैसे गुरुओं की इस बात के लिये प्रशंसा की जानी चाहिये कि वह इस देश में ऐसा समाज बना रहे हैं जो किसी अन्य के द्वारा विघटन की आशंका से परे होकर अपने वैचारिक ढांचे पर खड़ा हो। बाबा श्रीरामदेव द्वारा धर्म के प्राचीन सिद्धांतों पर प्रहार करने से यह वैचारिक महाभारत शुरु हो सकता है और इसकी जरूरत भी है। आखिर विदेशी और देशी सौदागर देश के लोगों का ध्यान अपनी खींचकर ही तो इतना सारा पैसा बटोर रहे हैं अगर उस पर स्वदेशी विचाराधारा का प्रभाव हो तो फिर ऐसी बेवकूफ बनाने वाली योजनायें स्वतः विफल हो जायेंगी।
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श्रीगीता संदेश-स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद तामसी धारणाशक्ति के प्रतीक (gita sandesh in hindi)


यथा स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुमेंधा धृति सा पार्थ तामसी।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य में जिस धारणा शक्ति में स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद व्याप्त होते हैं उसे तामसी धारणाशक्ति कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पंचतत्वों से बनी यह देह नश्वर है पर मनुष्य अपना पूरा जीवन इसकी रक्षा करते हुए बिता देता है। यह देह जो कभी इस संसार को छोड़ देगी-इस सत्य से मनुष्य भागता है और इसी कारण उसे भय की भावना हमेशा भरी होती है। मनुष्य कितना भी धन प्राप्त कर ले पर फिर भी उसमें यह भय बना रहता है कि कभी वह समाप्त न हो जाये। परिणामतः वह निरंतर धन संग्रह में लगता है। भगवान की सच्ची भक्ति करने की बजाय वह दिखावे की भक्ति करता है-कहीं वह स्वयं को तो कहीं वह दूसरों को दिखाकर अपने धार्मिक होने का प्रमाण जुटाना ही उसका लक्ष्य रहता है।
दिन रात वह अपनी उपलब्धियों के स्वप्न देखता है। अगर आपको रात का सपना सुबह याद रहे तो इसका अर्थ यह है कि आप रात को सोये नहीं-निद्रा का सुख आपसे दूर ही रहा। लोग इसके विपरीत रात के स्वप्न याद रखकर दूसरों को सुनाते हैं। दिन में भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति का हर मनुष्य हर पल सपना देखता है। जो उसके पास है उससे संतुष्ट नहीं होता।

सभी जानते हैं कि इस संसार में जो आया है उसे एक दिन यह छोड़ना है पर फिर भी अपने सगे संबंधी के मरने पर वह दुःखी होता है। न हो तो भी जमाने को दिखाने के लिये शोक व्यक्त करता है।
यह देह कभी स्वस्थ होती है तो कभी अस्वस्थ हो जाती है। इस दैहिक विपत्ति से बड़े बड़े योगी मुक्त नहीं हो पाते पर मनुष्य के शरीर में जब पीड़ा होती है तब वह विषाद में सब भूल जाता हैं वह पीड़ा उसके मस्तिष्क और विचारों में ग्रहण लगा देती है। देह में यह परेशान मौसम, खान पान या परिश्रम से कभी भी आ सकती है और जैसे ही उसका प्रभाव कम हो जाता है वैसे ही मनुष्य स्वस्थ हो जाता है पर इस बीच वह भारी विषाद में पड़ा रहता है।
थोड़ा धन, संपदा और शक्ति प्राप्त होने से मनुष्य में अहंकार आ जाता है। उसे लगता है कि बस यह सब उसके परिश्रम का परिणाम है। सब के सामने वह उसका बखान करता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम दृष्टा की तरह इस संसार को देखें। गुण ही गुणों को बरतते हैं अर्थात हमारे अंदर सपनें, शोक, भय, विषाद और मद की प्रवृत्ति का संचालन वाले तत्व प्रविष्ट होते हैं जिनका अनुसरण यह देह सहित उसमें मौजूद इंद्रियां करती हैं। जब हम दृष्टा बनकर अपने अंदर की चेष्टाओं और क्रियाओं को देखेंगे तब इस बात का आभास होगा कि हम देह नहीं बल्कि आत्मा हैं।
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श्री गीता से-दूसरे के रोजगार का नाश करना तामस प्रकृत्ति का परिचायक (shri gita sandesh in hindi)


अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्रीच कर्ता तामस उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
युक्ति के बिना कार्य करने वाला, प्राकृत ( संसार की शिक्षा प्राप्त न करने वाला), स्तब्ध (इस संसार की भौतिकता को देखकर हैरान होने वाला, दुष्ट, किसी की कृति (जीविका) का नाश करने वाला, शोक करने वाला और लंबी चौड़ी योजनायें बनाकर काम करने वाला तामस प्रवृत्ति का कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर उत्पात मचाने वाले दूसरों पर आक्रमण करते हैं। दूसरे का रोजगार उनसे सहन नहीं होता और वह उसका नाश करने पर आमादा हो जाते हैं। सबसे हैरानी की बात तो तब होती है कि श्रीगीता को पवित्र मानने वाले लोग यह काम बेझिझक करते हैं। थोड़ी थोड़ी सी बात पर रास्ता जाम करना, दुकानें-बसें जलाना तथा राह चलते हुए लोगों और अपने रोजगार का कर्तव्य निभा रहे सुरक्षा जवानों पर पत्थर फैंकना कोई अच्छी बात नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में आंदोलन चलते हैं पर उनको चलाने का अहिंसक तरीका भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बता ही दिया है-जैसे सत्याग्रह और बहिष्कार। आज सारी दुनियां उनको मानती है पर इसी देश में जरा जरा सी बात पर हिंसा का तांडव दिखाई देता है। इस तरह युक्ति रहित आंदोलन तामसी प्रवृत्ति का परिचायक हैं।

नैतिक और धार्मिक सहिष्णुता और दृढ़ता हमारे भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति है। जीवन मरण तो सभी के साथ लगा रहता है। मुख्य बात यह है कि कोई मनुष्य किस तरह जिया-उसने सात्विक, राजस या तामस
में से किस प्रवृत्ति को उसने अपनाया। इस देश की विचारधारा को इतनी चुनौती मिलती हैं पर फिर भी वह अक्षुण्ण बनी हुई क्योंकि वह उस सृष्टि के उस सत्य को जानती है जिस पर पश्चिम अब काम कर रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूह के सदस्यों की संख्या अधिक है या कम-देखा तो यह जाता है कि उस समूह के सदस्य किस प्रवृत्ति-सात्विक, राजस या तामस-के हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर कोई दूसरा मनुष्य हमसे अलग भी हो तो भी उसकी जीविका का नाश करना अधर्म है-हमें यह नहीं देखना चाहिये कि उसका समूह या वह क्या करता है बल्कि इस बात पर दृष्टि रखना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं? हमारा और समूह का आचरण दृढ़ और धर्म पर आधारित होना चाहिये और यह निश्चय शक्तिशाली बना सकता है।
आज के कठिन युग में जहां तक हो सके दूसरे को रोजगार में सहायता देना चाहिये। इसके लिये अपनी तरफ से कोई प्रयास करना पड़े तो झिझकना नहीं चाहिये। यह न कर सकें तो कम से कम इतना तो करना चाहिये कि दूसरे के रोजगार का नाश न हो।
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भर्तृहरि नीति शतक-रोजी पाने वाले से प्रणाम पाकर आदमी को अंहकार का बुखार चढ़ जाता है (ahankar ka bukhar-adhyatmik sandesh)


स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।

न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
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विवाद करने वाले श्री राम का चरित्र नहीं पढ़ते-आलेख


श्रीराम द्वारा रावण वध के बाद श्रीलंका से वापस आने पर श्रीसीता जी की अग्नि परीक्षा लेने का प्रसंग बहुत चर्चित है। अक्सर भारतीय धर्म की आलोचना करने वाले इस प्रसंग को उठाकर नारी के प्रति हमारे समाज के खराब दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं। दरअसल समस्या वही है कि आक्षेप करने वाले रामायण पढ़ें इसका तो सवाल ही नहीं पैदा होता मगर उत्तर देने वाले भी कोई इसका अध्ययन करते हों इसका आभास नहीं होता। तय बात है कि कहीं भी चल रही बहस युद्ध में बदल जाती है। इन बहसों को देखकर ऐसा लगता है कि किसी भी विद्वान का लक्ष्य निष्कर्ष निकालने से अधिक स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है।
यह लेखक मध्यप्रदेश का है और यहां के लोग ऐसी लंबी बहसों में उलझने के आदी नहीं है। कभी कभी तो लगता है कि देश में चल रहे वैचारिक संघर्षों से हम बहुत दूर रहे हैं और अब अंतर्जाल पर देखकर तो ऐसा लगता है कि बकायदा कुछ ऐसे संगठन हैं जिन्होंने तय कर रखा है कि भारतीय धर्म की आलोचना कर विदेशी विचाराधाराओं के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास करते रहेंगे। उनका यह कार्य इतना योजनाबद्ध ढंग से है कि वह बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में भारतीय धर्म के प्रति अरुचि पैदा करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि इससे वह भारतीय समाज को अस्थिर कर सकते हैं। हालांकि उनकी यह योजना लंबे समय में असफल हो जायेगी इसमें संशय नहीं है।
आईये हम उस प्रसंग की चर्चा करें। नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने रामायण नहीं पढ़ी। श्रीसीता जी जब रावण वध के बाद श्रीराम के पास आयी तो वह उनको देखना भी नहीं चाहते थे-इसे यह भी कह सकते हैं कि वह इतनी तेजस्वी थी कि एकदम उन पर दृष्टि डालना किसी के लिये आसान नहीं था। वहां श्रीरामजी ने उनको बताया कि चूंकि वह दैववश ही रावण द्वारा हर ली गयी थी और उनका कर्तव्य था कि उसकी कैद से श्रीसीता को मुक्त करायें। अब यह कर्तव्य सिद्ध हो गया है इसलिये श्रीसीता जी जहां भी जाना चाहें चली जायें पर स्वयं स्वीकार नहीं करेंगे।
यह आलोचक कहते हैं कि श्रीसीता के चरित्र पर संदेह किया। यह पूरी तरह गलत है। दरअसल उन्होंने श्रीसीता से कहा कि ‘रावण बहुत क्रूर था और आप इतने दिन वहां रही इसलिये संदेह है कि वह आपसे दूर रह पाया होगा।’
तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीराम ने श्रीसीता के नहीं बल्कि रावण के चरित्र पर ही संदेह किया था। बात केवल इतनी ही नहीं है। रावण ने श्रीसीता का अपहरण किया तो उसके अंग उनको छू गये। यह दैववश था। श्रीराम जी का आशय यह था कि इस तरह उसने अकेले में भी उनको प्रताड़ित किया होगा-श्रीसीता जी के साथ कोई जबरदस्ती कर सके यह संभव नहीं है, यह बात श्रीराम जानते थे।
भगवान श्रीराम और सीता अवतार लेकर इस धरती पर आये थे और उनको मानवीय लीला करनी ही थी। ऐसे में एक वर्ष बाद मिलने पर श्रीराम का भावावेश में आना स्वाभाविक था। दूसरा यह कि श्रीसीता से तत्काल आंख न मिलाने के पीछे यह भी दिखाना था कि उनको स्वयं की गयी गल्तियां का भी आभास है। एक तो वह अच्छी तरह जानते थे कि वह मृग सोने का नहीं बल्कि मारीचि की माया है। फिर भी उसके पीछे गये। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि श्रीसीता जी उनको किसी भी प्रकार की हिंसा करने से रोकती थीं। सोने का वह मृग भी श्रीसीता ने जीवित ही मांगा था। एक तरह से देखा जाये तो श्रीसीता अहिंसा धर्म की पहली प्रवर्तक हैं। श्रीसीता जी के रोकने के बावजूद श्रीराम धर्म की स्थापना के लिये राक्षसों का वध करते रहे। उसकी वजह से रावण उनका दुश्मन हो गया और श्रीसीता जी को हभी उसका परिणाम भोगना पड़ा। मानव रूप में भगवान श्रीराम यही दिखा रहे थे कि किस तरह पति की गल्तियों का परिणाम पत्नी को जब भोगना पड़ता है और फिर पति को अपनी पत्नी के सामने स्वयं भी शर्मिंदा होना पड़ता है।
मानव रूप में कुछ अपनी तो कुछ श्रीसीता की गल्तियों का इंगित कर वही जताना चाहते थे कि आगे मनुष्यों को इससे बचना चाहिये।
भरी सभा में श्रीसीता से भगवान श्रीराम ने प्रतिकूल बातें कही-इस बात पर अनेक आलोचक बोलते हैं पर सच बात तो यह है कि श्रीसीता ने भी श्रीराम को इसका जवाब दिया है। उन्होंने श्रीराम जी से कहा-‘आप ऐसी बातें कर रहे हैं जो निम्नश्रेणी का पुरुष भी अपनी स्त्री से नहीं कहता।’
इतनी भरी सभा में श्रीसीता ने जिस तरह श्रीराम की बातों का प्रतिकार किया उसकी चर्चा कोई नहीं करता। सभी के सामने अपने ही पति को ‘निम्न श्रेणी के पुरुषों से भी कमतर कहकर उन्होंने यह साबित किया कि वह पति से बराबरी का व्यवहार करती थीं। श्रीराम दोबारा कुछ न कह सके और इससे यह प्रमाणित होता है कि वह उस लीला का विस्तार कर रहे थे।
यहां यह याद रखने लायक बात है कि श्रीसीता अग्नि से सुरक्षित निकलने की कला संभवतः जानती थी और यह रहस्य श्रीराम जी को पता था। जब श्री हनुमान जी ने लंका में आग लगायी तब वह श्रीसीता की चिंता करने लगे। जब अशोक वाटिका में पहुंचे तो देखा कि केवल श्रीसीताजी ही नहीं बल्कि पूरी अशोक वाटिका ही सुरक्षित है। तब उनको आभास हो गया कि श्रीसीता कोई मामूली स्त्री नहीं है बल्कि उनका तपबल इतना है कि आग उनके पास पहुंच भी नहीं सकती। श्रीसीता को पुनः स्त्री जाति में एक सम्मानीय स्थान प्राप्त हो इसलिये ही श्रीराम ने इस रहस्य को जानते हुए ही इस तरह का व्यवहार किया।
श्रीराम ने गलती की थी कि वह जानते हुए भी मारीचि के पीछे गये। रक्षा के लिये उन्होंने अपने छोटे भाई श्रीलक्ष्मण को छोड़ा। जब श्रीराम जी का बाण खाकर मारीचि ‘हा लक्ष्मण’ कहता हुआ जमीन पर गिरा तब उनको समझ में आया कि वह क्या गलती कर चुके हैं।
उधर श्रीलक्ष्मण भी समझ गये कि मरने वाला मारीचि ही है पर श्रीसीता ने उन पर दबाव डाला कि वह अपने बड़े भाई को देखने जायें। श्रीलक्ष्मण जाने को तैयार नहीं थे श्रीसीता ने भी उन पर आक्षेप किये। यह आक्षेप लक्ष्मण जी का चरित्र हनन करने वाले थे। भगवान श्रीराम इस बात से भी दुःखी थे और उन्हें इसलिये भी श्रीसीता के प्रति गुस्सा प्रकट किया।
यह आलेख नारी स्वतंत्रय समर्थकों को यह समझाने के लिये नहीं किया गया कि कथित रूप से वह भगवान श्रीराम पर श्रीसीता के चरित्र पर लांछन लगाने का आरोप लगाते हैं जबकि भगवान श्रीराम ने कभी ऐसा नहीं किया। उल्टे उन्होंने उनके प्रिय भ्राता श्रीलक्ष्मण पर आक्षेप किये थे। हमारा आशय तो भारतीय धर्म के समर्थकों को यह समझाना है कि आप जब बहस में पड़ते हैं तो इस तरह के विश्ेलषण किया करें। रामायण पर किसी भी प्रकार किसी भी स्त्री के चरित्र पर संदेह नहीं किया गया। जिन पर किया गया है उनमें रावण और श्रीलक्ष्मण ही हैं जो पुरुष थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि ग्रंथों में परिवार और समाज को लेकर अनेक प्रकार के पात्र हैं उनमें मानवीय कमजोरियां होती हैं और अगर न हों तो फिर सामान्य मनुष्य के लिये किसी भी प्रकार संदेश ही नहीं निकल पायेगा। फिर पति पत्नी का संबंध तो इतना प्राकृतिक है कि दोनों के आपसी विवाद या चर्चा में आये संवाद या विषय लिंग के आधार पर विचारणीय नहीं होते। मुख्य बात यह होती है कि इन ग्रंथों से संदेश किस प्रकार के निकलते हैं और उसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ता है? श्रीसीता जी एकदम तेजस्वी महिला थी। लंका जलाने के बाद श्रीहनुमान ने उनसे कहा कि ‘आप तो मेरी पीठ पर बैठकर चलिये। यह राक्षण कुछ नहीं कर सकेंगे।’
श्रीसीता ने कहा-‘मैं किसी पराये मर्द का अंग अपनी इच्छा से नहीं छू सकती। रावण ने तो जबरदस्ती की पर अपनी इच्छा से मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूंगी। दूसरा यह है कि मैं चाहती हूं कि मेरे पति की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो। वह होगी क्योंकि तुम जैसे सहायक हों तब उनकी जीत निश्चित है।’
इससे आप समझ सकते हैं कि श्रीसीता कितनी दृढ़चरित्र से परिपूर्ण हो गयी थी कि अवसर मिलने पर भी वह लंका से नहीं भागी चाहे उनको कितना भी कष्ट झेलना पड़ा। वह कोमल हृदया थी पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बिचारी या अबला थी।
नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने हमेशा ही इस मसले को उठाया है और यह देखा गया है कि भारतीय धर्म समर्थक इसका जवाब उस ढंग से नहीं दे पाते जिस तरह दिया जाना चाहिये। अक्सर वह लोग श्रीसीता को अबला या बेबस कहकर प्रचारित करते हैं जबकि वह दृढ़चरित्र और तपस्वी महिला थी। वह भगवान श्री राम की अनुगामिनी होने के साथ ही उनकी मानसिक ऊर्जा को बहुत बड़ा स्त्रोत भी थीं। भगवान श्रीराम महान धनुर्धर पुरुष थे तो श्रीसीता भी ज्ञानी और विदुषी स्त्री थी। यही कारण है कि पति पत्नी की जोड़ी के रूप में वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन के मूल आधार कहलाते हैं।
शेष फिर कभी
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रहीम दास के दोहे:स्वार्थ के कारण हुआ प्रेम घटता जाता है


कविवर रहीम कहते हैं कि
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वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है।

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दिवस बनाता कोई और है, मनाता कोई और है-व्यंग्य आलेख


दिवस बनाता कोई और है और मनाता कोई और है। इस देश में हर रोज कोई न कोई दिवस मनाने की चर्चा होती है। अभी वैंलटाईन डे और महिला दिवस निकले नहीं कि होली आ गयी। होली तो अपने देश का परंपरागत पव है और साल में एक बार आता है। इस पर खूब हंसी ठठ्ठा भी होता है। इस पर्व को आम और खास दोनों ही प्रकार के लोग इस त्यौहार को मनाते हैं। तय बात है कि इसकी चर्चा भी होगी पर हम उन दिवसों की बात कर रहे हैं जिससे सामान्य लोग बेखबर रहते हैं पर बुद्धिजीवी,लेखक और पत्रकार उस पर शोर मचाते हैं।
यह महिला,पुरुष,मित्र और प्रेम दिवस यकीनन भारत की देन नहीं है पर यहां चर्चा उनकी खूब होती है। अपने देश में संगठित लेखक बुद्धिजीवी और पत्रकार दो प्रकार के माने जाते हैं-एक प्रगतिशील और दूसरे पंरपरावादी। जब यह दिवस आते हैं तो यही सबसे अधिक शोर मचाते हैं। एक अनुकूल लिखता और बोलता है दूसरा प्रतिकूल। खूब चर्चा होती है। संगठित होने के कारण उनको प्रचार माध्यमों पर खूब प्रचार मिलता है-आजकल अंतर्जाल पर भी उनके पास ही अधिक हिट होते हैं। वह लोग लिखते हैं इसमें कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये वरना हमें पढ़ने के लिये कहां से मिलेगा? उनकी मेहरबानी है जो लिखते और बोलते हैं। मगर फिर भी कुछ बातें हमारे समझ में नहीं आती।

प्रगतिशील वर्ग पश्चिम का धुर विरोधी है। पूरे वर्ष वह उस पश्चिम पर बरसता है। अमेरिका ने यह कर दिया और वह कर दिया। उसे इराक छोड़ना चाहिये। उसे अफगानिस्तान से बाहर जाना चाहिये। वगैरह वगैरह।
मगर पश्चिम द्वारा बनाये गये यह दिवस आते हैं तब महिला,बाल,श्रमिक,और जाने कौन से प्रताडि़त वर्गों के नाम लेकर यही प्रगतिशील वर्ग उसके लिये उमड़ पड़ता है। इसके विपरीत परंपरावादी लेखक जो पूरा वर्ष पश्चिम को विजेता की तरह पेश करते हैं उस दिन अड़ जाते हैं कि यह दिवस हमारे देश के संस्कारों के अनुकूल नहीं है। हमारी परंपरायें अलग हैं। वगैरह वगैरह। प्रगतिशील को बाजार की स्वतंत्रता पसंद नहीं है पर वह इन दिवस को प्रचार देकर उसकी खुलकर मदद करता है। प्रगतिशीलों को पुराने धर्म पसंद नहीं है और ऋषियों और मुनियों को वह पुरातनपंथी मानते हैं पर वैलंटाईन ऋषि में के नाम पर मनाये गये दिवस उन्होंने जितना शोर मचाया वह ठीक उनकी विपरीत चाल का हिस्सा था।

हाल ही में महिला दिवस भी ऐसे ही मना। प्रगतिशीलों ने महिलाओं की आजादी के नारे लगाते हुए जमकर लिखा और बोला। एक आलेख पर नजर पड़ी जिसमें ‘बिने फेरे हम तेरे’ की प्रथा का जमकर विरोध किया गया। कहा गया इससे नारी पर ही संकट आयेगा। प्रगतिशीलों की एक बात समझ में नही आती कि वह आखिर विवाह प्रथा के साथ चिपटे क्यों रहना चाहते हैं जबकि वह उन्हीं प्राचीन धर्मों का हिस्सा है। चलने दीजिये उस प्रथा को जिसमें बिना विवाह किये ही लड़के लड़कियां रहना चाहते हैं। फिर उस प्रथा को जो जोड़े अपना रहे हैं उनमें नारियां भी हैं। वह उन नारियों में ही चेतना क्यों नहीं जगाना चाहते कि ऐसा मत करो-वह यहां भी महिलाओं के अधिकारों के कानूनी संरक्षण की बात कर रहे हैं। वह एक तरफ नारियों को समान अधिकार की बात करते हैं पर दूसरी तरफ उनको यह भी लगता है कि उनमें विवेक शक्ति की कमी है और ‘बिन फेरे हमे तेरे’ की प्रथा से वह अपना भविष्य संकट में डाल सकती है।

दरअसल बात यह है अगर इस देश में बिन फेरे हम तेरे की प्रथा आम हो जाये तो कानून के डंडे के सहारे पुरुष समाज के विरुद्ध अभियान छेड़कर महिलाओं में अपनी छबि बनाने का प्रगतिशीलों के अवसर कम हो जायेंगे। इतने सारे पुरुष आजाद होकर मजे करेंगे तो उनको घास कौन डालेगा?

हम अपने अनुभव से यही समझ पाये है कि इस तरह वर्ग बनाकर लोगों को कल्याण का भ्रम दिखाना अंग्रेजों की शैली है। समाज के टुकड़े कर फिर उसमें एकता लाने का यह तरीका इतना प्राचीन है कि विचारधारा से परे लिखने और बोलने वाले लोग उस पर हास्य व्यंग्य ही लिखते हैं। संपूर्ण समाज का विकास होना चाहिये पर यहां महिला,बालक,मजदूर,व्यापारी, और पता नहीं कितने प्रकार के भेद कर उनका कल्याण करने की बात होती है। हमारे देश में परिवार परंपरा दुनियां में सबसे अधिक शक्तिशाली है। अगर पुरुष को कुछ अतिरिक्त मिलता है तो क्या वह अपनी पत्नी और बच्चों से छिपाकर खाता है? मगर यहां तो यह मान लिया गया जाता है कि पुरुष हमेशा ही स्त्री का शोषक है। स्त्री को नौकरी और धन दो पर पुरुष की आय बढ़े इसका कोई उपचार नहीं करना चाहता। बालकों के लिये धन दो क्योंकि उनके पिता उनके लिये कुछ नहीं करते। कमाने वाले पुरुष-चाहे वह कमाते होेंं या अधिक-शोषक मानकर प्रगतिशील पता नहीं क्या कहना चाहते हैं जबकि आज भी देश की रीढ़ यही पुरुष वर्ग है। अब कुछ लोग कहेंगे कि साहब नारियां भी कमाई के क्षेत्र में आयें। जनाब, अमेरिका की एक संस्था की रिपोर्ट कहती है कि भारत में गृहस्थी का काम करने वाली महिलाओं की कमाई का आंकलन किया जाये तो वह पुरुषों से अधिक है। इसमें सच्चाई भी है। कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है पर उसे लक्ष्य लेकर बढ़ाने की बात करना इस बात का प्रमाण है कि गृहस्थी का काम करने वाली महिलाओं का कमतर आंका जा रहा है। सच बात तो यह है कि इस देश के भविष्य की रक्षा यही गृहस्थी का काम करने वाली महिलायें जिस निष्काम भाव से करती हैं वह मन को मोह लेता है।

बात कहां से निकली कहां तक पहुंच गयी। अंतर्जाल पर लिखते हुए ऐसा ही होता है। इस देश में तमाम तरह के दिवस पहले से ही मनाये जाते हैं और पश्चिम का विरोध करने वालो लोग जब उन दिवसों को यहां भी मनाते हैं तब तो हंसी आना स्वाभाविक है। खासतौर से जब प्रचार माध्यमों और अंतर्जाल पर उन दिवसों पर ढेर सारा मसाला हो पर आमजन में उसकी चर्चा तक नहीं हो। इसका कारण भी है कि अपने देश के लोगों के संस्कार इतने मजबूत हैं कि उनके लिये हर दिन नया होता है। पश्चिम में भला कौन प्रतिदिन धार्मिक स्थान पर जाता है? अपने यहां तो ऐसे लोग भी हैं जो प्रतिदिन सर्वशक्तिमान के दर्शन कर अपना दिन शुरु करते हैं और यही कारण है कि चाहे भले ही बाजार के संरक्षक प्रचार माध्यम जमकर दिवस का नाम सुनाते हों पर आम जनता में उसकी प्रतिक्रिया नहीं होती। हां, नयी पीढ़ी का वह तबका जरूर उनकी जाल में फंसता है जो इश्क मुश्क में चक्कर में रहता है। इन अवसरों पर कार्यक्रम अपने देश में जितने होते हैं शायद ही कहीं होते हों।
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भृतहरि शतकःगुणहीन व्यक्ति पशु समान जीवन बिताते हैं


शक्यो वारयितं जलेन हुतभुक् छत्त्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशितांकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ
व्याधिर्भैषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगग्र्विषम्
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्

हिंदी में भावार्थ-आग का पानी से धूप का छाते से, मद से पागल हाथी का अंकुश से, बैल और गधे का डंडे से, बीमारियों का दवा से और विष का मंत्र के प्रयोग निवारण किया जा सकता है। शास्त्रों के अनेक विकारों और बीमारियों के प्रतिकार का वर्णन तो है पर मूर्खता के निवारण के लिये कोई औषधि नहीं बताई गयी है।
येषा न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मत्र्यलोके भुवि भारतूवा
मनुष्य रूपेणः मृगाश्चरन्ति।।

हिंदी में भावार्थ-जिन मनुष्यों में दान देने की प्रवृत्ति, विद्या, तप,शालीनता और अन्य कोई गुण नहीं है और वह इस प्रथ्वी पर भारत के समान है। वह एक मृग के रूप में पशु की तरह अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्रःमित्रों और शत्रुओं से भरे विश्व में निष्पक्ष व्यवहार करने वाले कम ही हैं


आकीर्ण मण्डलं सव्र्वे मित्रैररिभिरेव च
सर्वः स्वार्थपरो लोकःकुतो मध्यस्थता क्वचित्

सारा विश्व शत्रु और मित्रों से भरा है। सभी लोग स्वार्थ से भरे हैं ऐसे में मध्यस्थ के रूप में निष्पक्ष व्यवहार कौन करता है।

भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्यूपीडयेत्
अत्यन्तं विकृतं तन्यात्स पापीयान् रिमुर्मतः

यदि अपना भला करने वाला मित्र भोग विलास में लिप्त हो तो उसे त्याग देना चाहिए। जो अत्यंत बुरा करने वाला हो उस पापी मित्र को दंडित अवश्य करना चाहिए।

मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्यजेत्
त्यजन्नभूतदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हि

अपने मित्र के बारे में अनेक प्रकार से विचार करना चाहिए। अगर उसमें दोष दिखाई दें तो उसका साथ छोड़ देने में ही अपना हित समझें। अगर ऐसे दुर्गुणी मित्र का साथ नहीं त्यागेंगे तो तो उससे अपने ही धर्म और अर्थ की हानि होती है।
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भृतहरि शतकःसच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन


पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः

हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए।

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भृतहरि शतकःआजीविका कमाते हुए मनुष्य की जिंदगी चली जाती है



हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमध्यिां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः

हिंदी में भावार्थ-परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनको बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हर मनुष्य को अपने जीविकोपार्जन के लिये कार्य करना पड़ता है पर वह केवल इससे संतुष्ट नहीं होता। उसने अनेक तरह के सामाजिक व्यवहारों की परंपरा बना ली है जिसके निर्वहन के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है। मनुष्य समुदाय ने कथित संस्कारों के नाम पर एक दूसरे मुफ्त में भोजन कराने के लिये ऐसे रीति रिवाजों की स्थापाना की है जिनको हरेक के लिये करना अनिवार्य हो गया है और जो नहीं करता उसका उपहास उड़ाया जाता है। अपने परिवार के भरण-पोषण करने के अलावा पूरे कथित समाज में सम्मान की चिंता करता हुआ आदमी पूरी जिंदगी केवल इसी में ही बिता देता है और कभी उसके पास भजन के लिये समय नहीं रह पाता। वह न तो अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर पाता है और न इस प्रकृति के विभिन्न रूपों को देख सकता है। बस अपना जीवन ढोता रहता है। अपने अंदर बौद्धिक गुणों का वह कभी उपयोग नहीं कर पाता।

चाणक्य नीति:बिना पूछे दान देना अधर्म का कार्य



१.पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
२.बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधर्म कार्य माना जाता है।
३.शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
४.उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ के सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है। 1

रहीम के दोहे:मेंढक आवाज देते हों तो कोयल हो जाती है खामोश


पावस देखि रहीम मन, कोइन साधे मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय

कविवर रहीम कहते है कि वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अक्सर हम देश में संगीत, साहित्य, खेल और अन्य कला क्षेत्रों में प्रतिभाओं की कमी की शिकायत करते हैं। यह केवल हमारा भ्रम है। 105 करोड़ लोगों के इस देश में एक से एक प्रतिभाशाली लोग हैं। एक से एक ऊर्जावान और ज्ञानवान लोग हैं। भारतभूमि तो सदैव अलौकिक और आसाधारण लोगों की जननी रही है। हां, आजकल हर क्षेत्र व्यवसायिक हो गया है। जो बिकता है वही दिखता है। इसलिये जो चाटुकारिता के साथ व्यवसायिक कौशल में दक्ष हैं या जिनका कोई गाडफादर होता है वही चमकते हैं और यकीनन वह अपने क्षेत्र में मेंढक की तरह टर्राने वाले होते हैं। थोड़ा सीख लिया और चल पड़े उसे बाजार में बेचने जहां माया की बरसात हो। जो अपने क्षेत्रों में प्रतिभाशाली हैं और जिन्होंने अपनी विधा हासिल करने के लिये अपनी पूरी शक्ति और बुद्धि झोंक दी और उनकी प्रतिभा निर्विवाद है वह कोयल की तरह माया की वर्षा में आवाज नहीं देते-मतलब वह किसी के घर जाकर रोजगार की याचना नहीं करते और आजकल तो मायावी लोग किसी को अपने सामने कुछ समझते ही नहीं और उनको तो मेंढक की टर्राने वाले लोग ही भाते हैं।

कई बार देखा होगा आपने कि फिल्म और संगीत के क्षेत्र में देश में प्रतिभाओं की कमी की बात कुछ उसके कथित अनुभवी और समझदार लोग करते हैं पर उनको यह पता ही नहीं कि कोयल और मेंढक की आवाज में अंतर होता है। एक बार उनको माया के जाल से दूर खड़े होकर देखना चाहिए कि देश में कहां कहां प्रतिभाएं और उनका उपयोग कैसा है तब समझ में आयेगा। मगर बात फिर वही होती है कि वह भी स्वयं मेंढक की तरह टर्रटर्राने वाले लोग हैं वह क्या जाने कि प्रतिभाएं किस मेहनत और मशक्कत से बनती हैं। वैसे बेहतर भी यही है कि अपने अंदर कोई गुण हो तो उसे गाने से कोई लाभ नहीं है। एक दिन सबके पास समय आता है। आखिर बरसात बंद होती है और फिर कोयल के गुनगनाने का समय भी आता है। उसी तरह प्रकृति का नियम है कि वह सभी को एक बार अवसर अवश्य देती है और इसीलिये कोई कोयल की तरह प्रतिभाशाली है तो उसे मेंढक की तरह टर्रटर्राने की आवश्यकता नहीं है और वह ऐसा कर भी नहीं सकते। हमें प्रतिभाशालियों का इसलिये सम्मान और प्रशंसा करना चाहिए कि स्वभावगतः रूप से दूसरे की चाटुकारिता करने का अवगुण नहीं होता।