Category Archives: फिल्म

आर्थिक और बौद्धिक विकास के साथ बढ़ता अपराध-हिन्दी लेख (devlopment and crime-hindi article)


क्या गजब समय है। पहले लूट की खबरें अखबारों में पढ़ते थे। फिर टीवी चैनलों पर यह लुटने वाले लोगों के और कभी कभी लुटेरों के बयान सुनते और देखते थे। अब तो लूट के दृश्य बिल्कुल रिकार्डेड देखने को मिलने लगे हैं जो लूट के स्थान पर लगे कैमरों में समा जाते हैं-इनको सी.सी.डी. कैमरा भी कहा जाता है।
पहले जयपुर में और अब मुंबई के एक जौहरी के यहां ऐसे लूट की फिल्में देखने को मिलीं। इस संसार में अपराध कोई नया नहीं है और न ही खत्म हो सकता है पर व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह तो उठते ही है न! कहा जाता है कि
इधर उधर की बात न कर, बता यह काफिले क्यों लुटे,
राहजनों की राहजनी का नहीं, रहबर की रहबरी का सवाल है।
दूसरी बात यह है कि अपराध के तौर तरीके बदल रहे हैं। उससे अधिक बदल रहा है अपराध करने वाले वर्ग का स्वरूप! पहले जब हम छोटे थे तब चोरी, डकैती, तथा पारिवारिक मारपीट के अपराधों में उस वर्ग के लोगों के नाम पढ़ने और सुनने को मिलते थे जिनको अशिक्षित, निम्न वर्ग तथा श्रमिक वर्ग से संबंधित समझा जाता था। अब स्थिति उलट होती दिखती है-शिक्षित, उच्च,धनी वर्ग तथा बौद्धिक समुदाय से जुड़ें लोग अपराधों में लिप्त होते दिख रहे हैं और कथित रूप से परंपरागत निम्न वर्ग उससे दूर हो गया लगता है। कम से कम बरसों से समाचार पत्र पढ़ते हुए इस लेखक का तो यही अनुभव रहा है। ऐसे में देश के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक विकास को लेकर भी तमाम तरह के प्रश्न उठते हैं।
वैसे एक बात दूसरी भी है कि विकास का अपराध से गहरा संबंध है-कम से कम विकसित पश्चिमी देशों के अपराधों का ग्राफ देखकर तो यही लगता है और भारत के सामान्य लोगों को भी यह सब देखने के लिये तैयार हो ना चाहिए। जब समाज अविकसित था तब लोग मजबूरी वश अपराध करते थे पर विकास होते हुए यह दिख रहा है कि मजबूरी की बजाय लोग एय्याशी तथा विलासिता की चाहत पूरी करने के लिये ऐसा कर रहे हैं। इधर ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिले कि क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले भी इस तरह के अपराध करने लगे हैं। क्रिकेट के सट्टे का अपराध तथा सामाजिक संकट में क्या भूमिका है इसका आंकलन किया जाना चाहिऐ और स्वैच्छिक संगठनों को इस पर सर्वे अवश्य करना चाहिये क्योंकि जिस तरह समाचार हम टीवी और अखबारों में पढ़ते हैं उससे लगता है कि कहंी न कहीं इसके दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।
जिन लोगों को सी.सी.डी कैमरे पर लूटपाट करते हुए देखा वह कोई लाचार या मजबूर नहंी लग रहे थे। विकास के साथ अपराध आधुनिक रूप लेता है, ऐसा लगने लगा है। विकास होने के साथ समाज के एक वर्ग के पास ऐशोआराम की ढेर सारी चीजें हैं। दूसरी बात यह है कि धन का असमान वितरण हो रहा है। संक्षिप्त मार्ग से धनी बनने की चाहत अनेक युवकों को अपराध की तरफ ले जा रही है। फिर दूसरी बात यह है कि अपराधियों का महिमा मंडन संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा ऐसा किये जा रहा है जैसे कि वह कोई शक्तिशाली जीव हैं। इधर फिल्मों में अपराधों से लड़ने वाले सामान्य नागरिकों को बुरा हश्र दिखाकर आदमी आदमी को डरपोक बना दिया है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अनेक फिल्में तो अपराधियों के पैसे से उनका रास्ता साफ करने के लिये बनी। यही कारण है वास्तविकस दृश्यों इतने सारे लोगों के बीच अपराधी सभी को धमका रहा है पर कोई उसका प्रतिरोध करने की सोचता नहीं दिखता। अगर ऐसी में भीड़ पांच लोग ही आक्रामक हो जायें तो लुटेरों की हालत पस्त हो जाये पर ऐसा होता नहीं। इसका कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को कायर बनाती है और ऐसे में वह या तो सब कुछ होते हुुए देखता है या करता है। करता इसलिये है कि उसे पता है कि यहां कायरों की फौज खड़ी है और खामोश इसलिये रहता है कि कहीं इस तरह युद्ध करने की प्रेरणा ही लोगों को नहीं मिलती। फिर समाज का ढर्रा यह है कि वह बहादूरों के लिये सम्मानीय न रहा है। अनेक बार देश के सैनिकों की विधवाओं के बुरे हालों को समाचार आते रहते हैं तब मन विदीर्ण हो जाता है। दरअसल अपराध का संगठनीकरण हो गया है और कहीं न कहीं उसे आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य आधारों पर खड़े शिखर पुरुषों का संरक्षण मिल रहा है। अनेक शिखर पुरुष तो सफेदपोश बनकर घूम रहे हैं और उनके मातहत अपराध कर उनकी शरण में चले जाते हैं। ऐसे में सामान्य आदमी यह सोचकर चुप हो जाता है कि घटनास्थल अपराधी को तो यहां निपटा दें पर उसके बाद उसके आश्रयदाता कहीं बदला लेने की कार्यवाही न करें।
सामान्य आदमी की निष्क्रियता के अभाव में ऐसे अपराध रोकना संभव नहीं है क्योंकि सभी जगह आप पुलिस नहीं खड़ा कर सकते। ऐसे में समाज चेतना में लगे संगठनों को अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि किस तरह सामान्य नागरिक की भागीदारी अपराधी को रोकने के लिये बढ़े। इसके लिये यह जरूरी है कि अपराध करना या उसको प्रश्रय देना एक जैसा माना जाना चाहिये। इसके साथ ही अपराध रोकने वाली संस्थाओं को इस बात के लिये प्रेरित करना चाहिये कि वह अपराधियों से लड़ने वालो नागरिकों को संरक्षण दें तभी विकास दर के साथ अपराधों की बढ़ती दर पर अंकुश लग सकेगा।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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महान बुझे चिराग-व्यंग्य चिंतन (mahan bujhe chira-hindi vyangya chitan)


महान होने का मतलब क्या होता है? कम से कम हम इसका आशय तो उसी व्यक्ति से लेते हैं जिसने अपनी मेहनत, लगन तथा चिंतन के आधार पर कोई ऐसी उपलब्धि हासिल की हो जिससे समाज का भला हुआ हो या उसे फिर गौरवान्वित किया हो। अगर किसी ने नित्य प्रतिदिन अपना स्वाभावाविक कर्तव्य पूरा करते हुए केवल अपने लिये ही उपलब्धि प्राप्त की हो तो उसे महान कतई नहीं माना जा सकता। समाज हमेशा ही अपनी रक्षा, विकास तथा निर्देशन के लिये महान आत्माओं का धारण करने वाली देहों को देखकर अपना मन प्रसन्न करना चाहता है।
यही से शुरु होता है वह खेल जिसे बाजार अपने ढंग से खेलता है। अपने देश में महान लोगों की इज्जत होती है पर महान होना कोई आसान काम नहीं है। महान बनते बनते लोगों ने अपने घर और व्यवसाय तक त्याग डाले। उनकी तपस्या ने समाज को जो दिया वह एक अक्षुण्ण संपदा बन गया। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता। कहते हैं न कि हजारों साल धरती जब तरसती है तब कहीं जाकर उसकी झोली में एक दो दिलदार आकर गिरता है।
मगर बाजार क्या करे? उसे तो रोज कोई न कोई महान आदमी चाहिए। देवता नहीं तो राक्षस, दानी न मिले तो अपराधी और समाज को लिये कुछ न करने वाला न मिले तो अपने लिये करने वाला भी चलेगा। बाजार की ताकत इतनी अधिक है कि अगर कोई स्वयं वाकई महान काम कर चुका हो तो भी उसके मुंह से दूसरे का नाम महान के रूप में रखवा ले।
किसी अपराधी को खूंखार कहना भी उसकी एक तरह से प्रशंसा करना है। जब विदेश में बैठे अपराधी भारतीय प्रचार माध्यमों में अपने साथ ‘खूंखार’ की उपाधि लगते हुए देखतेे होंगे तो खुश होते होंगे। अपराधी तो अपराधी होता है-छोटा क्या बड़ा क्या, खूंखार क्या रहम दिल क्या?
अगर यहां चलते फिरते किसी दादा से कहो कि तुम अपराधी हो तो वह लड़ने दौड़ेगा। अगर आप उससे कहो कि तुम खूंखार अपराधी हो तो वह हंसकर कहेगा-‘तो मुझसे डरते क्यों नहीं।’
टीवी चैनलों पर रोज हर क्षेत्र में महानतम नाम आते हैं। बाजार अपने लिये ही कई ऐसी प्रतियोगितायें कराता है जिसमें विजेता के नाम पर उसे महानतम लोग मिल जाते हैं। विश्व सुंदरी और अन्य खेल प्रतियोगिताओं में उसे ऐसी महानतम हस्तियां हर वर्ष मिल जाती हैं। उनके देश को क्या मिला? इससे बाजार मतलब नहीं रखता। प्रचार तंत्र भी इसी बाजार का अभिन्न हिस्सा है। यही प्रचारतंत्र उससे विज्ञापन पाता है तो उसके सौदागरों को भी महान धनी, दानी, और होशियार बताकर प्रशंसा प्रदान करता है। ऐसे में यह कहना कठिन होता है कि प्रचार तंत्र बाजार को चला रहा है या बाजार उसको। कल्पित नायकों की फौज महानतम बन गयी है। फिल्मों के नायक और खेलों के खिलाड़ियों में अब अधिक अंतर नहीं दिखाई देता। फिल्मी हस्तियां क्रिकेट मैच करवा रही हैं तो क्रिकेट खिलाड़ी कही रैम्प पर नाचते हैं तो कहीं टीवी चैनलों पर हास्य प्रतियोगिताओं के निर्णायक बन रहे हैं। सब महानतम हैं। भारत में कोई पैदा हुआ पर काम करता है अमेरिका में। उसे नोबल पुरस्कार मिला तो बस प्रचारतंत्र लग जाता है उसे महानतम बताने में। जैसे कि उसे इस देश ने ही बनाया।
कई बार तो समझ में नहीं आता कि आखिर यह महान हो कैसे गये। अरे, भई अपने लिये तो सभी उपलब्धियां जुटाते हैं। कोई अधिक तो कोई कम! अभी उस दिन एक क्रिकेट खिलाड़ी के बीस बरस पूरा होने पर सारा प्रचारतंत्र फिदा था। अब भी उसे भुना रहा है। इधर हमें याद आ रहा है कि भारत ने एक दिवसीय क्रिकेट प्रतियोगिता में विश्व कप 1983 में जीता था जिससे 26 बरस हो गये। फिर भारत ने बीस ओवरीय प्रतियोगिता में विश्व कप जीता तो उसका वह सदस्य नहीं था। उसने एक बार भी भारत को विश्व कप नहीं जितवाया मगर उसे बाजार महान बना रहा है। उसके नाम पर एक भी बड़ी प्रतियोगिता नहीं है मगर वह महानतम है क्योंकि वह बड़े शहर में रहता है जहां फिल्मों में कल्पित नाायक का अभिनय करने वाले बड़े बड़े अभिनेता रहते हैं। यह बड़ा शहर मुंबई भारत की देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है-यह विवादास्पद है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बागडोर आज भी किसानों की पैदावर के हाथ में मानी जाती है, अगर बरसात समय पर न हो या अकाल पड़े तो उसके बाद इस देश की क्या हालत होगी यह समझी जा सकती है। कभी कभी तो लगता है कि देश का पैसा वहां जा रहा है न कि वहां से देश के अन्य भागों में आ रहा है। यह सही है कि नये अर्थतंत्र के आधार मुंबई में है और वही इस प्रचार तंत्र का आधार हैं। यही कारण है कि भारतीय बाजार और प्रचारतंत्र के मसीहा वहीं बसते हैं। इधर उस खिलाड़ी को महानतम बताने के लिये कोई ठोस वजह नहीं मिल रही थी तो उससे अपने भारतीय होने के गौरव का बयान दिलवाया फिर उसका विरोधी एक वयोवृद्ध शख्सियत से करवा लिया जिससे उसे खिलाड़ी से कहा कि‘ तुम तो अपनी पिच संभालो।’
बस प्रचारतंत्र में बवाल मच गया। मचना ही था क्योंकि यही तो बाजार चाहता था। अब उसे खिलाड़ी की राष्ट्रभक्ति के गुणगान किये जाने लगे। अगले ही दिन उस वयोवृद्ध शख्सियत का बयान आया कि उसने तो यह केवल प्रचारतंत्र में अपने ही एक प्रतिद्वंद्वी पर बढ़त बनाने के लिये दिया था। क्या गजब की योजनाएं बनती हैं कि देखकर दिल दिमाग दंग रह जाते हैं। एक भी विश्व कप उसके नाम पर नहीं है तो आखिर उस खिलाड़ी की महानता को आगे बाजार कैसे चलाता? सो उस पर देशभक्त का लेबल लगाकर उसके नायकत्व को आगे जारी रखने का यह प्रयास अद्भुत है! फिल्म अभिनेता महान, सुंदरियां महान, खिलाड़ी महान और धर्म का सौदा करने वाले संत महान! समाज जस का तस! अपने अंधेरों से जूझता हुआ इस इंतजार में कि ‘कब कोई उसको रौशनी देगा।
टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं अध्यात्मिक चर्चाएं और सड़कों पर सभायें होती हैं। नैतिकता और आदर्श का ऐसा प्रचार कि देखकर लगता है कि हम स्वर्ग में रह रहे हैं। जब सत्य से वास्ता पड़ता है तो लगता है कि यह कोई नरक हैं जहां गलती से आ गये। पिछले चार सौ सालों की एतिहासिक गाथाओं में अनेक महानतम लोगों की चर्चा आती है पर देश का क्या? जब रहीम, तुलसी, कबीर और गुरुनानक जी की वाणी को पढ़ते हैं तो लगता है कि समाज उस समय भी ऐसा ही था। इतना ही अंधेरा था। उनकी वाणी आज भी रौशनी की तरह जलती है पर लोगों को शायद अंधेरा ही पंसद है या उनको पता ही नहीं कि रौशनी होती क्या है?
किसे दोष दें। कल्पित नायकों की गाथा सुनाते हुए प्रचार तंत्र को या उसे सुनकर भावुक होते हुए आम लोगों को। बाजार तो वही बेचेगा जो लोगों को पंसद आयेगा। लोगों को क्या अंधेरा ही पसंद है। पता नहीं! मगर सभी अंधे नहीं है। कुछ लोगों में चिंतन है जो इस बात को समझते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो संतों और महापुरुषों की वाणी की रौशनी इस तरह आगे चलती हुई नहीं जाती। बाजार के महानतम उसके सामने बुझे चिराग जैसे दिखते हैं।

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ब्लाग लोकतंत्र का पांचवां नहीं चौथा स्तंभ ही है-आलेख (blog is forth pillar-hindi article)


भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या सात करोड़ से ऊपर है-इसका सही अनुमान कोई नहीं दे रहा। कई लोग इसे साढ़े बारह करोड़ बताते हैं। इन प्रयोक्ताओं को यह अनुमान नहीं है कि उनके पास एक बहुत बड़ा अस्त्र है जो उनके पास अपने अनुसार समाज बनाने और चलाने की शक्ति प्रदान करता है-बशर्ते उसके उपयोग में संयम, सतर्कता और चतुरता बरती जाये, अन्यथा ऐसे लोगों को इस पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जायेगा जो समाज को गुलाम की तरह चलाने के आदी हैं।

यह इंटरनेट न केवल दृश्य, पठन सामग्री तथा समाचार प्राप्त करने के लिये है बल्कि हमें अपने फोटो, लेखन सामग्री तथा समाचार संप्रेक्षण की सुविधा भी प्रदान करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम केवल प्रयोक्ता नहीं निर्माता और रचयिता भी बन सकते हैं। अनेक वेबसाईट-जिनमें ब्लागस्पाट तथा वर्डप्रेस मुख्य रूप से शामिल हैं- ब्लाग की सुविधा प्रदान करती हैं। अधिकतर सामान्य प्रयोक्ता सोचते होंगे कि हम न तो लेखक हैं न ही फोटोग्राफर फिर इन ब्लाग की सुविधा का लाभ कैसे उठायें? यह सही है कि अधिकतर साहित्य बुद्धिजीवी लेखकों द्वारा लिखा जाता है पर यह पुराने जमाने की बात है। फिर याद करिये जब हमारे बुजुर्ग इतना पढ़े लिखे नहीं थे तब भी आपस में चिट्ठी के द्वारा पत्राचार करते थे। आप भी अपनी बात इन ब्लाग पर बिना किसी संबंोधन के एक चिट्ठी के रूप में लिखने का प्रयास करिये। अपने संदेश और विचारों को काव्यात्मक रूप देने का प्रयास हर हिंदी नौजवान करता है। इधर उधर शायरी या कवितायें लिखवाकर अपनी मित्र मंडली में प्रभाव जमाने के लिये अनेक युवक युवतियां प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं कई बार अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये तमाम तरह के किस्से भी गढ़ते हैं। यह प्रयास अगर वह ब्लाग पर करें तो यह केवल उनकी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक रूप ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि समाज को ऐसी ताकत प्रदान करेगा जिसकी कल्पना वह नहीं कर सकते।

आप फिल्म, क्रिकेट,साहित्य,समाज,उद्योग व्यापार, पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनल तथा उन अन्य क्षेत्रों को देखियें जिससे बड़े वर्ग द्वारा छोटे वर्ग पर प्रभाव डाला जा सकता है वहां पर कुछ निश्चित परिवारों या गुटों का नियंत्रण है। यहां प्रभावी लोग जानते हैं कि यह सभी प्रचार साधन उनके पास ऐसी शक्ति है जिससे वह आम लोगों को अपने हितों के अनुसार संदेश देख और सुनाकर उनको अपने अनुकूल बनाये रख सकते हैं। क्रिकेट में आप देखें तो अनेक वर्षों तक एक खिलाड़ी इसलिये खेलता  है क्योंकि उसे पीछे खड़े आर्थिक शिखर पुरुष उसका व्यवसायिक उपयोग करना चाहते हैं। फिल्म में आप देखें तो अब घोर परिवारवाद आ गया है। सामान्य युवकों के लिये केवल एक्स्ट्रा में काम करने की जगह है नायक के रूप में नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार के शिखरों पर जड़ता है। आप पत्र पत्रिकाओं में अगर लेख पढ़ें तो पायेंगे कि उसमें या तो अंग्रेजी के पुराने लेखक लिख रहे हैं या जिनको किसी अन्य कारण से प्रतिष्ठा मिली है इसलिये उनके लेखन को प्रकाशित किया जा रहा है। पिछले पचास वर्षों में कोई बड़ा आम लेखक नहीं आ पाया। यह केवल इसलिये कि समाज में भी जड़ता है। याद रखिये जब राजशाही थी तब यह कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’, पर लोकतंत्र में ठीक इसका उल्टा है। इसलिये इस जड़ता के लिये सभी आम लोग जिम्मेदार हैं पर वह शिखर पर बैठे लोगों को दोष देकर अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं कि ‘क्या किया जा सकता है।’

इस इंटरनेट पर जरा गौर करें। अक्सर आप लोग देखते होंगे कि समाचार पत्र पत्रिकाओं में में उसकी चर्चा होती है। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि इनमें से कई ऐसे आलेख होते हैं जिनको इंटरनेट पर ब्लाग से लिया जाता है-जब किसी का नाम न दिखें तो समझ लें कि वह कहीं न कहीं इंटरनेट से लिया गया है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि अधिकतर इंटरनेट प्रयोक्ता केवल फोटो देखने या अपने पढ़ने के लिये बेकार की सामग्री पढ़ने में व्यस्त हैं। उनकी तरफ से हिंदी भाषी लेखकों के लिये प्रोत्साहन जैसा कोई भाव नहीं है। ऐसा कर आप न अपना समय जाया कर रहे हैं बल्कि अपने समाज को जड़ता से चेतन की ओर ले जाने का अवसर भी गंवा रहे हैं। वह वर्ग जो समाज को गुलाम बनाये रखना चाहता है कि फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियों के फोटो देखकर आप अपना समय नष्ट करें क्योंकि वह तो उनके द्वारा ही तय किये मुखौटे हैं। आपके सामने टीवी और समाचार पत्रों में भी वही आ रहा है जो उस वर्ग की चाहत है। ऐसे में आपकी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं था तो झेल लिये। अब इंटरनेट पर ब्लाग और ट्विटर के जरिये आप अपना संदेश कहीं भी दे सकते हैं। इस पर अपनी सक्रियता बढ़ाईये। जहां तक इस लेखक का अनुभव है कि एक एस. एम. एस लिखने से कम मेहनत यहां पचास अक्षरों का एक पाठ लिखने में होती है। जहां तक हो सके हिंदी में लिखे गये ब्लाग और वेबसाईट को ढूंढिये। स्वयं भी ब्लाग बनाईये। भले ही उसमें पचास शब्द हों। लिखें भले ही एक माह में एक बार। अगर आप समाज के सामान्य आदमी है तो बर्हिमुखी होकर अपनी अभिव्यक्ति दीजिये। वरना तो समाज का खास वर्ग आपके सामने मनोरंजन के नाम पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर आपको अंतर्मुखी बना रहा है ताकि आप अपनी जेब ढीली करते रहें। आप किसी से एस. एम. एस. पर बात करने की बजाय अपने ब्लाग पर बात करें वह भी हिंदी में। ऐसे टूल उपलब्ध हैं कि आप रोमन में लिखें तो हिंदी हो जाये और हिंदी में लिखें तो यूनिकोड में परिवर्तित होकर प्रस्तुत किये जा सकें।
याद रखें इस पर अपनी अभिव्यक्ति वैसी उग्र या गालीगलौच वाली न बनायें जैसी आपसी बातचीत में करते हैं। ऐसा करने का मतलब होगा कि उस खास वर्ग को इस आड़ में अपने पर नियंत्रण करने का अवसर देना जो स्वयं चाहे कितनी भी बदतमीजी कर ले पर समाज को तमीज सिखाने के लिये हमेशा नियंत्रण की बात करते हुए धमकाता है।
प्रसंगवश यहां यह भी बता दें कि यह ब्लाग भी पत्रकारिता के साथ ही चौथा स्तंभ है पांचवां नहीं जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं। सीधी सी बात है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और पत्रकारिता चार स्तंभ हैं। इनमें सभी में फूल लगे हैं। विधायिका में अगर हम देखें तो संसद, विधानसभा, नगर परिषदें और ग्राम पंचायतें आती हैं। कार्यपालिका में मंत्री, संतरी,अधिकारी और लिपिक आते हैं। न्याय पालिका के विस्तारित रूप को देखें तो उसमें भी माननीय न्यायाधीश, अधिवक्ता, वादी और प्रतिवादी होते हैं। उसी तरह पत्रकारिता में भी समाचार पत्र, पत्रिकायें, टीवी चैनल और ब्लाग- जिसको हम जन अंतर्जाल पत्रिका भी कह सकते हैं- आते हैं। इसे लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ केवल अभिव्यक्ति के इस जन संसाधन का महत्व कम करने के लिये प्रचारित किया जा रहा है ताकि इस पर लिखने वाले अपने महत्व का दावा न करे।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के ब्लाग जगत में आपकी सक्रियता ही इंटरनेट या अंतर्जाल पर आपको प्रयोक्ता के साथ रचयिता बनायेगी। जब ब्लाग आम जन के जीवन का हिस्सा हो जायेगा तक अब सभी क्षेत्रों में बैठे शिखर पुरुषों का हलचल देखिये। अभी तक वह इसी भरोसे हैं कि आम आदमी की अभिव्यक्ति का निर्धारण करने वाला प्रचारतंत्र उनके नियंत्रण में इसलिये चाहे जैसे अपने पक्ष में मोड़ लेंगे। हालांकि अभी हिंदी ब्लाग जगत अधिक अच्छी हालत में नहीं है- इसका कारण भी समाज की उपेक्षा ही है-तब भी अनेक लोग इस पर आंखें लगाये बैठे हैं कि कहीं यह माध्यम शक्तिशाली तो नहीं हो रहा। इसलिये पांचवां स्तंभ या रचनाकर्म के लिये अनावश्यक बताकर इसकी उपेक्षा न केवल स्वयं कर रहे हैं बल्कि समाज में भी इसकी चर्चा इस तरह कर रहे हैं कि जैसे इसको बड़े लोग-जैसे अभिनेता और प्रतिष्ठत लेखक-ही बना सकते हैं। जबकि हकीकत यह है कि अनेक ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपने रोजगार से जुड़े काम से आने के बाद यहां इस आशा के साथ यहां लिखते हैं कि आज नहीं तो कल यह समाज में जनजन का हिस्सा बनेगा तब वह भी आम लोगों के साथ इस समाज को एक नयी दिशा में ले जाने का प्रयास करेंगे। इसलिये जिन इंटरनेट प्रयोक्ताओं की नजर में यह आलेख पड़े वह इस बात का प्रचार अपने लोगों से अवश्य करें। याद रखें यह लेख उस सामान्य लेखक है जो लेखन क्षेत्र में कभी उचित स्थान न मिल पाने के कारण यह लिखने आया है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्रचार का मुकाबला प्रचार से ही संभव-आलेख


समाज को सुधारने की प्रयास हो या संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का सवाल हमेशा ही विवादास्पद रहा है। इस संबंध में अनेक संगठन सक्रिय हैं और उनके आंदोलन आये दिन चर्चा में आते हैं। इन संगठनों के आंदोलन और अभियान उसके पदाधिकारियेां की नीयत के अनुसार ही होते हैं। कुछ का उद्देश्य केवल यह होता है कि समाज सुधारने के प्रयास के साथ संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का प्रयास इसलिये ही किया जाये ताकि उसके प्रचार से संगठन का प्रचार बना रहे और बदले में धन और सम्मान दोनों ही मिलता रहे। कुछ संगठनों के पदाधिकारी वाकई ईमानदार होते हैं उनके अभियान और आंदोलन को सीमित शक्ति के कारण भले ही प्रचार अधिक न मिले पर वह बुद्धिमान और जागरुक लोगों को प्रभावित करते हैं।
ईमानदारी से चल रहे संगठनों के अभियानों और आंदोलनों के प्रति लोगों की सहानुभूति हृदय में होने के बावजूद मुखरित नहीं होती जबकि सतही नारों के साथ चलने वाले आंदोलनों और अभियानों को प्रचार खूब मिलता है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको अपने लिये भावनात्मक रूप से ग्राहकों को जोड़े रखने का एक बहुत सस्ता साधन मानते हैं। ऐसे कथित अभियान और आंदोलन उन बृहद उद्देश्यों को पूर्ति के लिये चलते हैं जिनका दीर्घावधि में भी पूरा होने की संभावना भी नहीं रहती पर उसके प्रचार संगठन और पदाधिकारियों के प्रचारात्मक लाभ मिलता है जिससे उनको कालांतर में आर्थिक और सामाजिक उपलब्धि प्राप्त हो जाती है।

मुख्य बात यह है कि ऐसे संगठन दीवारों पर लिखने और सड़क पर नारे लगाने के अलावा कोई काम नहीं करते। उनके प्रायोजक भी इसकी आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि उनके लिये यह संगठन केवल अपनी सुरक्षा और सहायता के लिये होते हैं और उनको समझाईश देना उनके लिये संभव नहीं है। अगर इस देश में समाज सुधार के साथ संस्कार और संस्कृति के लिये किसी के मन में ईमानदारी होती तो वह उन स्त्रोतों पर जरूर अपनी पकड़ कायम करते जहां से आदमी का मन प्रभावित होता है।
भाररीय समाज में इस समय फिल्म, समाचार पत्र और टीवी चैनलों का बहुत बड़ा प्रभाव है। भारतीय समाज की नब्ज पर पकड़ रखने वाले इस बात को जानते हैं। लार्ड मैकाले ने जिस तरह वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति का निर्माण कर हमेशा के लिये यहां की मानसिकता का गुलाम बना दिया वही काम इन माध्यमों से जाने अनजाने हो रहा है इस बात को कितने लोगों ने समझा है?
पहले हिंदी फिल्मों की बात करें। कहते हैं कि उनमें काला पैसा लगता है जिनमें अपराध जगत से भी आता है। इन फिल्मों में एक नायक होता है जो अकेले ही खलनायक के गिरोह का सफाया करता है पर इससे पहले खलनायक अपने साथ लड़ने वाले अनेक भले लोगों के परिवार का नाश कर चुका है। यह संदेश होता है एक सामान्य आदमी के लिये वह किसी अपराधी से टकराने का साहस न करे और किसी नायक का इंतजार करे जो समाज का उद्धार करने आये। कहीं भीड़ किसी खलनायक का सफाया करे यह दिखाने का साहस कोई निर्माता या निर्देशक नहीं करता। वैसे तो फिल्म वाले यही कहते हैं कि हम तो जो समाज में जो होता है वही दिखाते हैं पर आपने देखा होगा कि अनेक ऐसे किस्से हाल ही में हुए हैं जिसमें भीड़ ने चोर या बलात्कारी को मार डाला पर किसी फिल्मकार ने उसे कलमबद्ध करने का साहस नहीं दिखाया। संस्कारों और संस्कृति के नाम पर फिल्म और टीवी चैनलों पर अंधविश्वास और रूढ़वादितायें दिखायी जाती हैं ताकि लोगों की भारतीय धर्मों के प्रति नकारात्मक सोच स्थापित हो। यह कोई प्रयास आज का नहीं बल्कि बरसों से चल रहा है। इसके पीछे जो आर्थिक और वैचारिक शक्तियां कभी उनका मुकाबला करने का प्रयास नहीं किया गया। हां, कुछ फिल्मों और टीवी चैनलों के कार्यक्रमों का विरोध हुआ पर यह कोई तरीका नहीं है। सच बात तो यह है कि किसी का विरोध करने की बजाय अपनी बात सकारात्मक ढंग से सामने वाले के दुष्प्रचार पर पानी फेरना चाहिये।

एक ढर्रे के तहत टीवी चैनलों और फिल्मों में कहानियां लिखी जाती हैं। यह कहानी हिंदी भाषा में होती है पर उसको लिखने वाला भी हिंदी और उसके संस्कारों को कितना जानता है यह भी देखने वाली बात है। मुख्य बात यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों के पीछे जो आर्थिक शक्ति होती है उसके अदृश्य निर्देशों को ध्यान में रखा जाता है और न भी निर्देश मिलें तो भी उसका ध्यान तो रखा ही जाता है कि वह किस समुदाय, भाषा, जाति या क्षेत्र से संबंधित है। विरोध कर प्रचार पाने वाले संगठन और उनके प्रायोजक-जो कि कोई कम आर्थिक शक्ति नहीं होते-स्वयं क्यों नहीं फिल्मों और टीवी चैनलों के द्वारा उनकी कोशिशों पर फेरते? इसके लिये उनको अपने संगठन में बौद्धिक लोगों को शामिल करना पड़ेगा फिर उनकी सहायता लेने के लिये उनको धन और सम्मान भी देना पड़ेगा। मुश्किल यही आती है कि हिंदी के लेखक को एक लिपिक समझ लिया है और उसे सम्मान या धन देने में सभी शक्तिशाली लोग अपनी हेठी समझते हैं। यकीन करें इस लेखक के दिमाग में कई ऐसी कहानियां हैं जिन पर फिल्में अगर एक घंटे की भी बने तो हाहाकार मचा दे।

इस समाज में कई ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं जो प्रचार माध्यमों में सामाजिक एकता, समरसता और सभी धर्मों के प्रति आदर दिखाने के कथित प्रयास की धज्जियां उड़ा सकती है। प्यार और विवाह के दायरों तक सिमटे हिंदी मनोरंजन संसार को घर गृहस्थी में सामाजिक, धार्मिक और अन्य बंधन तोड़ने से जो दुष्परिणाम होते हैं उसका आभास तक नहीं हैं। आर्थिक, सामाजिक और दैहिक शोषण के घृणित रूपों को जानते हुए भी फिल्म और टीवी चैनल उससे मूंह फेरे लेते हैं। कटु यथार्थों पर मनोरंजक ढंग से लिखा जा सकता है पर सवाल यह है कि लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला कौन है? जो कथित रूप से समाज, संस्कार और संस्कृति के लिये अभियान चलाते हैं उनका मुख्य उद्देश्य अपना प्रचार पाना है और उसमें वह किसी की भागीदारी स्वीकार नहीं करते।
टीवी चैनलों पर अध्यात्मिक चैनल भी धर्म के नाम पर मनोरंजन बेच रहे हैं। सच बात तो यह है कि धार्मिक कथायें और और सत्संग अध्यात्मिक शांति से अधिक मन की शांति और मनोरंजन के लिये किये जा रहे हैं। बहुत लोगों को यह जानकर निराशा होगी कि इनसे इस समाज, संस्कृति और संस्कारों के बचने के आसार नहीं है क्योंकि जिन स्त्रोतों से प्रसारित संदेश वाकई प्रभावी हैं वहां इस देश की संस्कृति, संस्कार और सामाजिक मूल्यों के विपरीत सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। उनका विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला। इसके दो कारण है-एक तो नकारात्मक प्रतिकार कोई प्रभाव नहीं डालता और उससे अगर हिंसा होती है तो बदनामी का कारण बनती है, दूसरा यह कि स्त्रोतों की संख्या इतनी है कि एक एक को पकड़ना संभव ही नहीं है। दाल ही पूरी काली है इसलिये दूसरी दाल ही लेना बेहतर होगा।

अगर इन संगठनों और उनके प्रायोजकों के मन में सामाजिक मूल्यों के साथ संस्कृति और संस्कारों को बचाना है तो उन्हें फिल्मों, टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में अपनी पैठ बनाना चाहिये या फिर अपने स्त्रोत निर्माण कर उनसे अपने संदेशात्मक कार्यक्रम और कहानियां प्रसारित करना चाहिए। दीवारों पर नारे लिखकर या सड़कों पर नारे लगाने या कहीं धार्मिक कार्यक्रमों की सहायता से कुछ लोगों को प्रभावित किया जा सकता है पर अगर समूह को अपना लक्ष्य करना हो तो फिर इन बड़े और प्रभावी स्त्रोतों का निर्माण करें या वहां अपनी पैठ बनायें। जहां तक कुछ निष्कामी लोगों के प्रयासों का सवाल है तो वह करते ही रहते हैं और सच बात तो यह है कि जो सामाजिक मूल्य, संस्कृति और संस्कार बचे हैं वह उन्हीं की बदौलत बचे हैं बड़े संगठनों के आंदोलनों और अभियानों का प्रयास कोई अधिक प्रभावी नहीं दिखा चाहे भले ही प्रचार माध्यम ऐसा दिखाते या बताते हों। इस विषय पर शेष फिर कभी।
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सच है ऑस्कर में क्या रखा है-आलेख


इस देश में कई ऐसे लोग है जो अमिताभ बच्चन के अभिनय और आवाज से अधिक उनके व्यक्तित्व और वक्तव्यों से अधिक प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि अमिताभ बच्चन जहां जवां दिलों को भाते हैं और फिल्म प्रेमियों को लुभाते हैं वहंी बुद्धिजीवी वर्ग में भी उनकी एक जोरदार छबि है। जिन बड़े लोगों ने अपने ब्लाग शुरू किये हैं उनमें एक अमिताभ ही ऐसे ही जो अपने लेखन से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

आज टीवी पर उनका एक बयान सुनने को मिला जिसमें उन्होंने कहा कि ‘आस्कर में क्या रखा है‘। उनकी यह बात दिल को छू गयी। वह प्रसिद्ध कवि हरिबंशराय बच्चन के सुपुत्र हैं और जहां तक हिंदी बोलने या लिखने का प्रश्न है वह शायद हिंदी फिल्मों के अकेले ऐसे अभिनेता होंगे जिनको अपनी मातृभाषा में साहित्य लिखना आता होगा-बाकी भी होंगे पर इस लेखक को इसकी जानकारी नहीं है। यह लेखक लिखने में उनकी बराबरी तो नहीं कर सकता पर इतना जरूर कह सकता है कि दूसरा यहां कोई ‘अमिताभ बच्चन’ जैसा होगा यह संभव नहीं है इसलिये प्रचार माध्यम चिंतित रहते हैं। इसलिये हर साल आस्कर का बवाल खड़ा उठता है। अमिताभ बच्चन को कभी न तो आस्कर मिला न शायद कभी उसके लिये उनके नाम का चयन हुआ पर अगर आज उनको मिल भी जाये तो फर्क क्या पड़ता है। इस देश के लिये अमिताभ बच्चन जी को अमिताभ बच्चन ही रहना है। कोई उन जैसा नहीं बन सकता पर इसलिये बाकी लोग यह आशा करते हैं कि आस्कर मिल जाये तो कम से कम उनको प्रचार के मामले में चुनौती दे सकें और कह सकें कि अमिताभ बच्चन में क्या रखा है, हमें तो आस्कर मिल गया है’। सच तो यह है कि अनेक अभिनेताओं के मन में अमिताभ जैसा सम्मान पाने की इच्छा है पर वह जानते हैं कि यह संभव नहीं है और इसलिये वह आस्कर के द्वारा उनकी बराबरी करना चाहते हैं।
कई बार यह ख्याल समझदार लोगों को आता है कि आखिर आस्कर मिल जाने से होना क्या है?सच बात तो यह है कि आस्कर किसी फिल्म को तब मिलता है जब वह दर्शकों से पूरा पैसा वसूल कर चुकी है। अगर किसी हिंदी फिल्म को आस्कर मिल भी जाये तो उसकी दर्शक संख्या इसलिये नहीं बढ़ सकती कि उसे पुरस्कार मिल गया या फिर किसी अभिनेता की अगली फिल्म इसलिये हिट नहीं हो सकती कि उसे आस्कर अवार्ड मिल गया। दरअसल यह तो अन्य अभिनेताओं,निर्देशकों और निर्माताओं के साथ बाजार प्रबंधकों के लिये सोचने का विषय है जो इस देश के महानायक अमिताभ बच्चन के सामने कोई दूसरा विकल्प खड़ा करना चाहते हैं जिसमें अभी तक वह नाकाम रहे हैं। बाजार चाहे कुछ भी कर ले वह दूसरा अमिताभ ब्रच्चन नहीं बना सकता क्योंकि मनुष्य में कुछ गुण स्वाभाविक होते हैं जो पैसे सा शौहरत आने से नहंीं पैदा होते। अमिताभ बच्चन का सबसे बड़ा गुण है अपनी बात को सहज रूप से हिंदी मेंं कहना और यही कारण है कि जब वह दूरदर्शन पर कोई साक्षात्कार देते हैं तो लोगों के दिल में छा जाते हैं जबकि अन्य अभिनेता और अभिनेत्रियों के साक्षात्कारों से ऐसा लगता है कि उनकेा हिंदी नहीं आती और आम हिंदी दर्शक इससे निराशा और परायापन अनुभव करता है। आजकल प्रचार माध्यमों का जनता पर बहुत प्रभाव है और यही कारण है कि हिंदी फिल्मों के अभिनेता उसके हृदय पटल पर प्रभाव नहीं डाल पाते।
अगर हिंदी फिल्मों का कोई अभिनेता आस्कर भी ले आये तो भी श्री अमिताभ बच्चन जैसा सम्मान लोगों से नहंी पा सकता। अलबत्ता प्रचार माध्यम जरूर उनको कई बरस तक सिर पर उठा लेंगे। जहां तक आम आदमी के दिल पर राज करने का प्रश्न है तो कम से कम अगले पचास वर्ष तक अमिताभ बच्चन की बराबरी करने वाला नहीं मिल सकता। फिल्मी दुनियां की हालत सभी जानते हैं। फिल्मी गायक किशोर कुमार,मोहम्मद रफी,मन्ना डे, और मुकेश की बराबरी करने वाला आज भी कोई नहीं है जबकि ढेर सारे गायक हैं फिर अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता की तो बात ही क्या जो हर दिन एक नया मील का पत्थर रखता है। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अति लगे पर इस लेखक के मन का सच यही है और इसे मानने वाले ही अधिक होंगे।
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