Category Archives: मनोरंजन

इंसान बिल्ली जैसे हो गये-हिन्दी व्यंग्य (insan billi jaisi ho gaye-hindi vyangya)


कहते हैं कि बिल्ली दूध पियेगी नहीं तो फैला जरूर देगी। ऐसा लगता है कि हमारे देश की व्यवस्था में लगे कुछ लोग इसी तरह के ही हैं। हाल ही में नईदिल्ली में संपन्न कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 (राष्ट्रमंडल-2010) में कई किस्से इतने दिलचस्प आये हैं कि उन पर हंसने का मन करता है। देश के खज़ाने का जो उपयोग हुआ उस पर रोने का अब कोई फायदा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार पर इतना लिखा गया है कि अनेक ग्रंथों में उसे समेटा जा सकता है। फिर रोने की भी एक सीमा होती है। एक समय दुःखी आदमी रोता रहता है तो उसके आंसु भी सूख जाते हैं। समझदार होगा तो आगे नहीं रोएगा और कुछ पल हंस कर आनंद उठाऐगा और पागल हुआ तो उसका एसा मानसिक संतुलन बिगड़ेगा कि बस हमेशा ही हंसता रहेगा चाहे कोई मर जाये तो भी वह हंसता हुआ वहां जायेगा। जिनको अब कॉमनवेल्थ गेम्स की घटनाओं पर हंसी आ रही है अब वह बुद्धिमान हैं या पागल यह अलग विचार का विषय हैं पर सच यही है कि रोने का कोई फायदा नहीं है और उन पर हंसकर खूना बढ़ाया जाये यही अच्छा रहेगा।
एक दिलचस्प समाचार देश के समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला कि कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ खेलों के टिकट कूड़ेदानों में फिंके पाये गये जबकि उनके स्टेडियम खाली थे या उसमें दर्शक कम थे। साथ ही यह भी कि अनेक लोग टिकट काले बाज़ार में बेचते पकड़े गये और दर्शकों को टिकट खिड़की से खाली हाथ लौटना पड़ा। कूड़ेदानों में मिले टिकट मानो बिल्ली द्वारा फैलाया गया दूध जैसे ही हैं।
आखिर क्या हुआ होगा? कॉमनवेल्थ खेलों का प्रचार जमकर हुआ। व्यवस्था में लगे लोगों को लगा होगा कि जैसे कि कुंभ का मेला है और देश का लाचार खेलप्रेमी यहां ऐसे ही आयेगा जैसे कि तीर्थस्थल में आया हो! मैदान में खिलाड़ियों और खिलाड़िनों के दर्शन कर स्वर्ग का टिकट प्राप्त करने को आतुर होगा। जिस तरह तीर्थस्थलों पर खास अवसरों पर तांगा, रिक्शा, होटल, और अन्य वस्तुऐं महंगी हो जाती हैं-या कहें कि खुलेआम ब्लैक चलता है-वैसे ही कॉमनवेल्थ खेलों में भी होगा। ऐसा नहीं होना था और नहीं हुआ। जिन लोगों ने टिकट बेचने और बिकवाने का जिम्मा लिया होगा वह बहुत उस समय खुश हुए होंगे जब उनको टिकट मिले होंगे। इसलिये नहीं कि देश के प्रति कर्तव्य निर्वाह का अवसर मिल रहा है बल्कि इस आड़ में कुछ अपना धंधा चला लेंगें। टिकट बेचने वाले वेतन, कमीशन या ठेके पर ही यह काम करते होंगे। अब टिकट आया होगा उनके हाथ। मान लीजिये वह पांच सौ रुपये का है और उसे खिड़की पर या अन्यत्र इसी भाव पर बेचना है। मगर बेचने वाले को यह अपमान जनक लगता होगा कि वह पांच सौ का टिकट उसी भाव में बेचे।
कॉमन वेल्थ गेम के पीछे राज्य है और जहां राज्य है वहां निजी और राजकीय ठेका कार्यकर्ता आम आदमी के दोहन न करने को अपना अपमान समझते हैं। पांच सौ का टिकट पांच सौ में आम आदमी देते तो घर पर ताने मिलते। मित्र हंसते! इसमें क्या खास बात है यह बताओ कि ऊपर से क्या कमाया-लोग ऐसा कहते।
कुछ ब्लेक करने वालों को पकड़ा होगा कि टिकट बेच कर दो। ऊपर का पैसा आपसमें बांट लेंगे। दे दिये टिकट! उसने जितने बेचे वापस कर दिये होंगे। बाकी! फैंक दो कूड़ेदान में! रहने दे तो स्टेडियम खाली! अपने बाप के घर से क्या जाता है। नुक्सान राज्य का है तो होने दो! आम आदमी को बिना ब्लेक रेट के टिकट नहीं देंगे।
यह बिल्लीनुमा लोग! इनमें से बहुत सारे ऐसे होंगे जो सर्वशक्तिमान की भक्ति करते होंगे! मगर राज्य का मामला हो तो मन से अहंकार नहीं निकलता है! कई सत्संग में जाते होंगे, मगर उस समय वह इंसान नहीं बिल्ली की तरह हो गये होंगे। दूध फैला देंगे ताकि कोई न पी पाये।
टिकट कूड़ेदान में फैंककर तसल्ली की होगी कि अगर हमें अतिरक्त पैसा नहीं मिला तो क्या? आम दर्शक को अंदर भी तो नहीं जाने दिया।
यह केवल एक घटना है! ऐसी हजारों घटनायें हैं। गरीब को नहीं देंगे भले ही वह मर जाये और हमारी चीज़ भी सड़ जाये। मक्कारी, बेेईमान और भ्रष्टाचार का कोई चरम शिखर होता है तो उस पर हमारा देश सबसे ऊपर है मगर इसके पीछे जो विवेकहीनता, अज्ञानता तथा क्रूरता का जो दर्शन हो रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि चिंतन और आचरण का यह विरोधभास हमारे खून में आ गया है और अपनी महानता पर हम आत्ममुग्ध जरूर हो लें पर पूरी दुनियां ने यह सब देखा है।
हम दावे करते हैं कि हमारा देश धार्मिक प्रवृत्ति का है, हमारी संस्कृति महान है, हमारे संस्कार पूज्यनीय हैं, पर ऐसी घटनायें यह बताती हैं कि यह सब पाखंड है। इंसान सभी दिख रहे हैं पर कुत्ते और बिल्लियों और चूहों की मानसिकता से सभी सराबोर हैं। सच कहें कि पेट भर जाये तो यह तीनों जीव भी कुछ देर खामोश रहते हैं पर इंसान तो कीड़े मकोड़ों की तरह हो गया है जिनका बहुत सारा खून पीने पर भी पेट नहीं भरता। अलबत्ता बिल्ली का उदाहरण देना पड़ा यह बताने के लिये कि निम्न आचरण की इससे अधिक हद तो हो नहीं सकती।

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दुनियादारी और वफादारी-हिन्दी कविता (duniyandari aur vafadari-hindi poem)


हमने उनका रास्ता
कांटे हटाकर फूलों से सजाया
पर बदले में उन्होंने
हमारी राह में गड्ढे खोदकर
अपनी वफादारी दिखाई।
शिकायत करने पर बोेले वह
‘हमने सीखी है जो दुनियांदारी
तुम्हें सिखाकर
अपनी वफादारी निभाई।’
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हिन्दी भाषा का महत्व-हिन्दी दिवस पर हास्य कविताएँ (hindi bhasha ka mahatva-hindi diwas par hasya kavita)


हिन्दी दिवस पर
उन्होंने हिन्दी का महत्व बताया,
अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त होने का
अपना संकल्प अंग्रेजी में जताया।
——–
हिन्दी दिवस पर
अपनी मातृभाषा की उनको
बहुत याद आई,
इसलिये ही
‘हिन्दी इज वैरी गुड’ भाषा के
नारे के साथ दी बार बार दुहाई।
————
शिक्षक ने पूछा छात्रों से
‘बताओ अंग्रेजी बड़ी भाषा है या हिन्दी
जब हम लिखने और बोलने की
दृष्टि से तोलते हैं।’
एक छात्र ने जवाब दिया कि
‘वी हैव आल्वेज स्पीकिंग इन हिन्दी
यह हम सच बोलते हैं।’
———

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शब्दलेख पत्रिका ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या पार-हिन्दी संपादकीय (A Hindi blog shabdlekh patrika)


इस इस लेखक के ब्लाग शब्दलेख पत्रिका  ने भी आज एक लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार कर ली। गूगल पेज रैकिंग में चार अंक प्राप्त तथा एक लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार करने वाला इस लेखक का यह पांचवां ब्लाग है। यह संख्या कोई अधिक मायने रखती क्योंकि हिन्दी भाषियों की संख्या को देखते हुए लगभग तीन वर्ष में इतनी संख्या पार करना कोई अधिक महत्व का नहीं है। न ही इस संख्या को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि हिन्दी ने अंतर्जाल पर कोई कीर्तिमान बनाया है पर अगर कोई स्वतंत्र, मौलिक तथा शौकिया लेखक है तो उसके लिये यह एक छोटी उपलब्धि मानी जा सकती है। इस लेखक के अनेक ब्लाग हैं पर इससे पूर्व के चार ब्लाग बहुत पहले ही इस संख्या को पार कर चुके हैं पर कोई ऐसा ब्लाग नहीं है जो अभी एक दिन में हजार की संख्या पार कर चुका है अलबत्ता सभी ब्लाग पर मिलाकर 2500 से तीन हजार तक पाठक/पाठ पठन संख्या पार हो जाती है।
प्रारंभ में इस ब्लाग को अन्य ब्लाग से अधिक बढ़त मिली थी पर बाद में अपने ही साथी ब्लाग की वजह से इसे पिछड़ना भी पड़ा। इसकी वजह यह थी कि इस लेखक ने वर्डप्रेस की बजाय ब्लाग स्पॉट के ब्लाग पर ही अधिक ध्यान दिया जबकि वास्तविकता यह है कि वर्डप्रेस के ब्लाग ही अधिक चल रहे हैं। कभी कभी लगता है कि वर्डप्रेस के ब्लाग पर लिखा जाये पर मुश्किल यह है कि ब्लाग स्पॉट के ब्लाग कुछ अधिक आकर्षक हैं दूसरे उन पर अपने पाठ रखने में अधिक कठिनाई नहीं होती इसलिये उन पर पाठ रखना अधिक सुविधाजनक लगता है। चूंकि यह लेखक शौकिया है और यहां लिखने से कोई धन नहीं मिलता इसलिये अंतर्जाल पर निरंतर लिखने के लिये मनोबल बनाये रखना कठिन होता है। दूसरी बात यह है कि पाठक संख्या में घनात्मक वृद्धि अधिक प्रेरणा नहीं देती। इसके लिये जरूरी है कि गुणात्मक वृद्धि होना। एक बात निश्चित है कि देश में ढेर सारे इंटरनेट कनेक्शन हैं पर उनमें हिन्दी के प्रति सद्भाव अधिक नहीं दिखता है। संभव है कि अभी इंटरनेट पर अच्छे लिखने को नहीं मिलता हो।
दूसरी बात यह है कि दृश्यव्य, श्रव्य तथा प्रकाशन माध्यम अपनी तयशुदा नीति के तहत ब्लाग लेखकों के यहां से विषय लेते हैं पर उनके नाम का उल्लेख करने की बजाय उनके रचनाकार अपना नाम करते हैं।
दूसरी बात यह कि अंतर्जाल पर फिल्मी अभिनेता, अभिनेत्रियां, खिलाड़ी तथा अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के ब्लाग है और उनका प्रचार इस तरह होता है जैसे कि लिखना अब केवल बड़े लोगों का काम रह गया है।
एक सुपर स्टार के घर के बाहर से मैट्रो ट्रेन निकलने वाली है। निकलने वाली क्या, अभी तो चंद विशेषज्ञ उनके घर के सामने थोड़ा बहुत निरीक्षण करते दिखे। अभी योजना बनेगी। पता नहीं कितने बरस में पटरी बिछेगी। उस सुपर स्टार की आयु पैंसठ से ऊपर है और संभव है कि पटरियां बिछने में बीस साल और लग जायें। संभव है सुपर स्टार कहीं अन्यत्र मकान बना लें। कहने का अभिप्राय है कि अभी जंगल में मोर नाचने वाला नहीं पर उन्होंने अपनी निजी जिंदगी में दखल पर अपने ब्लाग पर लिख दिया। सारे प्रचार माध्यमों ने उस पर चिल्लपों मचाई। तत्काल उन सुपर स्टार ने ट्विटर पर अपना स्पष्टीकरण दिया कि ‘हम मैट्रों के विरोधी नहीं है। मैं तो केवल अपनी बात ऐसे ही रख रहा था।’
वह ट्विटर भी प्रचार माध्यामों में चर्चित हुआ। इससे संदेश यही जाता है कि इंटरनेट केवल बड़े लोगों का भौंपू है। ऐसे में आम लेखक के लिये अपनी पहचान का संकट बन जाता है। वह चाहे कितना भी लिखे पर उससे पहले यह पूछा जाता है कि ‘तुम हो क्या?’
किसी आम लेखक की निजी जिंदगी उतनी ही उतार चढ़ाव भरी होती है जितनी कि अन्य आम लोगों की। मगर वह फिर भी लिखता है पर अपनी व्यथा को भी तभी कागज पर लाता है जब वह समग्र समाज की लगती है वरना वह उससे जूझते हुए भी उसका उल्लेख नहीं करता। लेखक कभी बड़ा या छोटा नहीं होता मगर अब उसमें खास और आम का अंतर दिखाई देता है और यह सब ब्लाग पर भी दिखाई देता है।
आखिरी बात यह है कि जो वास्तव में लेखक है वह अपने निज अस्तित्व से विचलित नहीं होता और न पहचान के लिये तरसता है क्योंकि समाज की चेतना जहां विलुप्त हो गयी है वहां समस्या पाठक बढ़ाने की नहीं है बल्कि जो हैं उनसे ही निरंतर संवाद बनाये रखना है। जब लेखक लिखता है तब वह अध्यात्म के अधिक निकट होता है और ऐसे में समाज से जुड़ा उसका निज अस्तित्व गौण हो जाता है और अंदर तक पहुंचने वाला लेखन तभी संभव हो पाता है। इस अवसर पर मित्र ब्लाग लेखकों और पाठकों का आभार।
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इश्क पर हास्य कविता-हिन्दी काव्य प्रस्तुति (ishq par hasya kavita-hindi comic poem)


पुरानी प्रेमिका मिली अपने
पुराने प्रेमी कवि से बहुत दिनों बाद
और बोली,
‘कहो क्या हाल हैं,
तुम्हारी कविताओं की कैसी चाल है,
सुना है तुम मेरी याद में
विरह गीत लिखते थे,
तुम पर सड़े टमाटर और फिंकते थे,
अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की
वरना पछताती,
कितना बुरा होता जब बेस्वादी चटनी से
बुरे आमलेट ही जीवन बिताती,
तुम भी दुःखी दिखते हो
क्या बात है,
पिचक गये तुम्हारे दोनों गाल हैं,
मेरी याद में विरह गीत लिखते तुम्हारा
इतना बुरा क्यों हाल है।’
सुनकर कवि बोला
‘तुमसे विरह होना अच्छा ही रहा था,
उस पर मेरा हर शेर हर मंच पर बहा था,
मगर अब समय बदल गया है,
कन्या भ्रुण हत्याओं ने कर दिया संकट खड़ा,
लड़कियों की हो गयी कमी
हर नवयुवक इश्क की तलाश में परेशन है बड़ा,
जिनकी जेब भरी हुई है
वह कई जगह साथ एक जगह जुगाड़ लगाते हैं,
जिनके पास नहीं है खर्च करने को
वह केवल आहें भर कर रह जाते हैं,
विरह गीतों का भी हाल बुरा है,
हर कोई सफल कवि हास्य से जुड़ा है,
इश्क हो गयी है बाज़ार में बिकने की चीज,
पैसा है तो करने में लगता है लज़ीज,
एक से विरह हो जाने से कौन रोता है,
दौलत पर इश्क यूं ही फिदा होता है,
दिल से नहीं होते इश्क कि टूटने पर कोई हैरान हो,
कल दूसरे से टांका भिड़ जाता है
फिर क्यों कोई विरह गीत सुनने के लिये परेशान हो,
जिन्होंने बस आहें भरी हैं
उनको भी इश्क पर हास्य कविता
सुनने में मजा आता है,
आशिक माशुकाओं का खिल्ली उड़ाने में
उनका दिल खिल जाता है,
कन्या भ्रुण हत्याओं ने कर दिया कचड़ा समाज का,
इश्क पर फिल्में बने या गीत लिखे जा रहे ज्यादा
मगर तरस रहा इसके लिये आम लड़का आज का,
तुम्हारे विरह का दर्द तो अभी अंदर है
मगर उस पर छाया अब हास्य रस का जाल है।
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रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi shayari)


नाच न सके नटों की तरह, इसलिये ज़माने से पिछड़ गये।
सभी की आरज़ू पूरी न कर सके, अपनों से भी बिछड़ गये।
महलों में कभी रहने की ख्वाहिश नहीं की थी हमने,
ऐसे सपने देखने वाले हमराहों से भी रिश्ते बिगड़ गये।
———-
कुछ रिश्ते बन गये
कुछ हमने भी बनाये,
मगर कुछ चले
कुछ नहीं चल पाये,
समय की बलिहारी
कुछ उसने पानी में बहाये।
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घर के भागीरथ-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ghar ke bhagirath-hindi vyangya kavitaen)


ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं,
जो विकास की गंगा घर घर पहुंचायें,
सभी बन गये हैं अपने घर के भागीरथ
जो तेल की धारा
बस!
अपने घर तक ही लायें,
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने के लिये
केवल आले में चिराग जलायें।
————-
तमाशों में गुज़ार दी
पूरी ज़िदगी
तमाशाबीन बनकर।
कहीं दूसरे की अदाओं पर हंसे और रोए,
कहीं अपने जलवे बिखेरते हुए, खुद ही उसमें खोए,
हाथ कुछ नहीं आया
भले ही रहा ज़माने को दिखाने के लिये
सीना तनकर।
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वैश्विक उदारीकरण-हिन्दी व्यंग्य कविता (globle marcket-hindi satire poem)


वैश्विक उदारीकरण के चलते
बाज़ार एक हो गया है,
सभी को खुश करते सौदागरों ने
सजा दिये हैं बुत
कहंी धर्म के उदारपंथी
पेशेवराना ममता बरसा रहे हैं
कहीं कट्टरपंथी पाकर मदद
मचाते हैं आतंक
शांति के लिए तरसा रहे हैं।
पहेली बूझ रहे हैं सिद्धांतों की
कुछ प्रायोजित बुद्धिमान लोग
जिनकी चर्चा सौदागरों के भौंपू
चहूं फैलाते हैं,
विज्ञापनों में ही अमन की अपील
और सनसनी दिखलाते हैं,
शक होता है यह देखकर
दंगों की तरह जंग भी
तयशुदा लड़ी जाती होगी,
हादसों की भी कोई पहले रूपरेखा होगी,
मरेगा तो सभी जगह आम आदमी
खरीदेगा भी वही मोमबत्तियां
इसलिये तो हादसों, जंगों और दंगों की
बरसी जोरशोर से मनवाते हैं,
भौंपूओं से आवाज भी लगवाते है,
कसा रहे शिकंजा पाले हुए खास लोगों का
पूरी दुनियां पर
सौदागर इसलिये कर्ज भी बरसा रहे हैं।
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नया ज़माना-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (naya zamana-hindi vyangya kavitaen)


वह प्रतिदिन चौराहे पर आकर
अपना धर्मयुद्ध लड़ेंगे,
इसी तरह ही तो नये बुद्ध बनेंगे।
शांति के मसीहा बनने की ललक ने
कुछ इंसानों को चालाक बना दिया है
वह जानते हैं कि
तभी मिलेगी उनको सिद्धि
जब अपने शोर से
आम इंसानों को क्रुद्ध करेंगे।
———-
नया जमाना यही है
जिन इंसानों के चरित्र
जितने दागदार हैं,
लोगों की नज़र में वह
उतने ही इज्जतदार हैं।
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विकास और लोग-व्यंग्य कविता (vikas aur log-hindi vyangya kavita)


गरीबी हटाओ, देश बचाओ,
भ्रष्टाचार भगाओ, विकास लाओ,
जैसे नारे सुनते हुए बरसों बीत गये
मगर हालात हैं कि सुधरे नहीं।
हर बरस बजट के तीर जनकल्याण के अंधेरे में
कुछ इस तरह चलते कि
जहां पहुंचंे वहां गरीब नज़र नहीं आता,
रंगेहाथों पकड़े गये रिश्वत लेते कई
मगर हर कोई अपने हाथ सफेद कर बरी हो जाता,
तालाब खुदते गये काग़जों पर
लबालब हो गयी कई लोगों की जेबें
परवाह किसे है यहां देखने की
प्यासों ने पानी के बर्तन भरे कि नहीं।
नतीज़ा यही है कि देश कर रहा है विकास
लोग खड़े है वहीं की वहीं।
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पहरेदारी का हिस्सा-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (pahredari ka hissa-hindi vyangya kavitaen)


कत्ल के पेशेवरों ने ले ली
शहर भर की पहरेदारी,
तय किया पुराने हमपेशा सफेदपोशों को
खंजर घौंपने की छूट के साथ
अपनी कमाई में देंगे हिस्सेदारी।
———
खज़ाने की चाब़ी ठगों के हाथ में देकर
मालिक अब बेफिक्र हो गये हैं,
हेराफेरी में हाथ काले नहीं होंगे
मिलेगा कमाई से पूरा हिस्सा
यह देखकर
सफेदपोश चैन की नींद सो गये हैं।
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भाषण-हिन्दी लघु कथा (bhashan-hindu laghkatha)


वह अपने भाषण में गरज़ रहे थे-‘आज हमारे शहर की कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब है। कोई भी सुरक्षित नहीं है। माता बहिनों को घर से निकलते हुए डर लगता है। कोई आदमी अधिक पैसा जेब में रखकर डरता सड़क पर चलता है। अरे, पर कई लोग तो इसलिये पैसे जेब में रखकर निकलते हैं कि कोई लुटेरा लूटने के लिये हथियार लेकर रास्ते में खड़ा हो और न देने पर निराशा में कहीं हमला न कर बैठै। हा……..हा….’’
एक श्रोता बोल पड़ा-‘आप क्यों कानून व्यवस्था की फिकर करते हैं। आपके साथ तो चार बंदूकधारी पहरेदार है न! कोई खतरा नहीं है फिर कानून व्यवस्था की स्थिति खराब कैसे हैं?’
इससे पहले कि वह कुछ कहते उनके चेले चपाटों ने मंच से उतरकर उस श्रोता पर अपने हाथ साफ कर दिये। वहां खड़े अन्य श्रोताओं ने उसको अधिक पिटने से बचाया।
तब वह बोले-‘अरे भाई, देख लिया न कितनी कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है! यह देखो बंदूकधारी पहरेदार खड़े देखते रहे और तुम पिटते रहे। वैसे मेरे चेलों के लिये यह शर्म की बात है।’
फिर वह अपने चेलों ने बोले-‘हट जाओ, ऐसे किसी पर हमला नहीं करना चाहिये। तुम्हें अपनी दमदार आदमी की छबि बनानी है ताकि लोग डरें तो भाई मुझे भले आदमी की छबि बनानी है। एक बात याद रखना हमारी छबि खराब हुई तो तुम्हारी भी बनने वाली नहीं है।’
फिर वह उस श्रोता से बोले-‘हमारा उद्देश्य हम जैसे बड़े लोगों से नहीं तुम जैसे आम आदमी की सुरक्षा और अन्य परेशानियों से है। तुम इतना नहीं समझते! आइंदा ध्यान रखना वरना ऐसे हादसे होते रहेंगे। बड़े लोग भले हों पर उनके चेले चपाटे भी वैसे हों यह जरूरी नहीं है, और कानून व्यवस्था के खराब होने का मतलब तो तुम समझ ही गये होगे।’
वह श्रोता दुःखी मन से वहां से चला गया और भाषण जारी रहा।

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ऊंचे ओहदेदार-हिन्दी हास्य कविता (oonche ohdedar-haysa kavita in hindi)


फिल्म निर्माता ने कहा
कहानीकार से
‘कोई ऐसी कहानी लिखकर लाओ,
जिसमें पुराने राजाओं जैसे रात को वेश बदलकर
जनता के दुःखदर्द जानने की कोशिश करते हुए
आज के किसी ऊंचे ओहदेदार का पात्र दिखाओ।
अपने ही बेटे को नायक बना रहा हूं
तो भतीजे को गायक के रूप में ला रहा हूं,
घिसी पिटी कहानियों से दर्शक अब नहीं फंसता
अमीरों की कहानियों को देखने से बचता,
अपना बेटा है इसलिये मज़दूर का अभिनय
उससे कराना कठिन है,
आखिर छबि का सवाल है
उसके यह इस धंधे में शुरुआती दिन है,
इसलिये कोई चमकदार पात्र सजाओ।’

सुनकर कहानीकार ने कहा
‘ भारत में और वह भी हिन्दी में यह संभव नहीं है
कोई अंग्रेजी कहानी हो तो आप बताओ।
उसका अनुवाद मैं लिख दूंगा,
पात्र की पृष्ठभूमि अमेरिका या ब्रिटेन में रख लूंगा,
यहां ऐसी कहानी नहीं लिखी जा सकती,
ऊंचे ओहदेदार रात मे क्या दुःखदर्द देखेंगे,
दिन में ही जनता उनके दर्शन नहीं करती,
फिर भेष बदलकर सड़क पर निकलने की बात
यहां जम नहीं पायेगी,
कमांडो तय करते हैं जिनका रास्ता
वह खुद क्या
उनकी पालतू कुतिया भी सड़क पर नहीं आयेगी,
अपने ही पहरेदारों के जो बंधक हैं
वह ऊंचे ओहदेदार
जनती की व्यववस्था के जरूर प्रबंधक हैं,
पर लोगों के भला करने की बात वह
तभी तो सोच पायेंगे
जब अपने घर भरने से फुरसत पायेंगे,
वैसे भी मैं बेमतलब की प्रेम कहानियां
लिखने का अभ्यस्त हूं,
आजकल तो बहुत ज्यादा व्यस्त हूं,
इसलिये या तो कहानी का पात्र बदलो
या कहानीकार ही बदलकर लाओ।’
———–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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असली दोस्त वही जो महंगाई में निभाता है-हिन्दी हास्य कविता (asli dost aur mahanagai-hindi hasya kavita)


आशिक ने अपने दोस्त से कहा
‘‘यार, महंगाई बढ़ गयी है,
माशुका की मांगें पूरी करते करते
जेब कंगाली की सीढ़िया चढ़ रही है,
अब पेट्रोल होता जा रहा है महंगा,
होटलों में बैरे पेश करते हैं महंगे बिल
तब हो जाता है उनसे पंगा,
यह महंगाई तो मोहब्बत को मार डालेगी,
इस संसार में केवल नफरत को ही पालेगी
मुझे अपनी चिंता नहीं
माशुका का ख्याल आता है,
कैसे करेगी मेरे बिना गुजर
यह सोचकर दिल भर आता है।’’

दोस्त ने कहा
‘‘कैसी बात करते हो यार,
अपनी दोस्ती है, न कि व्यापार,
महंगाई में मोहब्बत महंगी हो सकती है
पर दोस्ती कभी नहीं थकती है,
तुम्हारा दर्द सुनकर मेरा दिल भर आया
इतने दिन तुमने क्यों छिपाया,
घबड़ाओ नहीं अपनी माशुका के घर का पता दो,
‘मैं उससे निभाऊंगा’ तुम जाकर उसे अभी बता दो,
जो तुमने उसे ऐश कराए,
मैं उससे ज्यादा कराऊंगा
ताकि उसे तुम्हारी याद न आए,
अरे, वही दोस्त संसार में नाम पाता है,
जो महंगाई में भी दिल के साथ दोस्ती  निभाता है।’’
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विश्व कप फुटबाल में भविष्यवाणी का खेल-हास्य व्यंग्य (world cup footbal aur jyotish-hasya vyangya)


यह पश्चिम वाले भी उतने ही अजूबा हैं जितने हमारे देश के लोग। उतने ही अंधविश्वास और अज्ञानी जितने हमारे यहां बसते हैं। पहले अक्सर यह सुनने और पढ़ने को मिलता था कि पश्चिम में भारतीय लोगों के प्रति अच्छी धारणा व्याप्त नहीं है। भारत को वहां के लोग सन्यासियों, सांपों और संकीर्ण मानसिकता वाला मानते हैं। बात अपने समझ में तब भी नहीं आयी और अब भी नहीं आती क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन के बारे की कई इमारतों में भूत होने की बातें भी पढ़ने को मिलती हैं। इसके अलावा उनके उतने ही अंधविश्वासी होने के प्रमाण मिलते रहे हैं जितने हमारे यहां के लोग हैं। कई बड़े नामी गिरामी लोगों को भूत दिखने के दावे किये जाते हैं। अपने यहां तोते की भविष्यवाणियों पर हंसने वाले यह पश्चिमी देश अब एक समुद्रीजीव ऑक्टोपस पकड़ लाये हैं जिसके बारे में दावा यह कि 2010 के विश्व कप फुटबाल के मैचों के बारे में सही भविष्यवाणी कर रहा है। आठ पांव वाले इस जीव को पकड़ना ही पर्यावरणवादियों को ललकारने जैसा है पर पश्चिम में सब चलता है।
जहां तक फुटबाल खेल का सवाल है वह भी हमने खूब देखा पर यह टीवी और अखबार वाले उसमें भी फिक्सिंग जैसी बातें होने की बात कहते हैं इस कारण उसमें अरुचि हो गयी। जब तक क्रिकेट में फिक्सिंग की बात नहीं थी तब तक उसे खूब देखा पर एक बार जब दिमाग में मैच फिक्स होने की बात आयी तो उसे छोड़ दिया। फुटबाल भी खूब देखा पर उसमें भी यही बात आयी तो यह शायद पहला विश्व कप है जिसके मैच नहीं देखे। अर्र्जेटीना, फृ्रांस, ब्राजील और ब्रिटेन की टीमें देखते देखते बाहर हो गयी। इनको हमेशा ललकारने वाली जर्मनी की टीम का हारना भी कम चौंकाने वाला नहीं था। स्पेन और हालैंड की टीमें फायनल खेलेंगी। फुटबाल कोई क्रिकेट की तरह अवसर का खेल नहीं है पर हैरानी की बात है कि उसे भी अब इसी दृष्टि से देखा जायेगा। क्रिकेट में अनफिट खिलाड़ी चल सकता है पर फुटबाल में यह संभव नहीं है पर लगता है कि सटोरियों और पूंजीपतियों के दबाव के चलते अब वह भी विज्ञापनों के बोझ तले दब गया है। शायद यही कारण है कि दुनियां की जानी मानी टीमें अपने साथ हारने के लिये अनफिट खिलाड़ी जायी थी ताकि समय पड़ने पर मनोमुताबिक परिणाम निकाले जा सकें-कहते हैं न कि दूध का जला छांछ को भी फूंक फूंक कर पीता है इसलिये क्रिकेट को देखकर यह बात अनुमान से ही लिखी जा रही है। जर्मनी जिस तरह प्रतियोगिता में आगे बढ़ रहा था उसे देखते हुए उसका एकदम बाहर हो जाना शक पैदा करेगा ही-जो टीम एक मैच में चार गोल करती है दूसरे मैच में एक गोल को तरस जाती है तो सोचना स्वभाविक क्योंकि आखिर यह क्रिकेट नहीं है।
आक्टोपस को पॉल बाबा भी कहा जा रहा है-पता नहीं इस शब्द का उपयोग विदेशी प्रचार माध्यम कर रहे हैं कि नहीं पर भारत में तो यही नाम दिया गया है। पॉल बाबा ने फुटबाल में फायनल मैच में जर्मनी के हारने की भविष्यवाणी की थी। जर्मनी हार गया तो अब यह कहना कठिन है कि उन्होंने अपने देश के ऑक्टोपस ज्योतिषी की भविष्यवाणी का सम्मान किया या फिर उन दांव लगाने वालों को निपटाया जो उसकी भविष्यवाणी पर भरोसा नहंी कर रहे थे। अब इस पॉल बाबा ने स्पेन के जीतने की भविष्यवाणी की है। चूंकि हमने मैच नहीं देखे पर पिछली टीमों की स्थिति देखते हुए हमारा दावा है कि यह फाइनल मैच हालैंड वाले जीतेंगे। वजह! हालैंड के खिलाड़ी दुनियां में सबसे जीवट वाले माने जाते हैं। फायनल मैच अगर हमारे अनुकूल समय के अनुसार हुआ तो जरूर देखेंगे और नहीं हुआ तो अखबार में तो रोज इस बारे में पढ़ते ही हैं।
इधर पूर्व में भी एक तोता ज्योतिषी आ गया है जिसका दावा है कि यह मैच हालैंड जीतेगा। अब यह सट्टे वालों पर निर्भर है कि वह कितना इस खेल को प्रभावित कर पाते हैं। क्रिकेट में तो उनको बहुत मौका होता है पर फुटबाल में यह संभव नहीं होता कि बीच में जाकर प्रयास किये जायें या फिर अंपायर से दो चार गलत निर्णय करा लें।
वैसे सट्टे वाले भी आजकल भविष्यवाणी करते दिखते हैं तो भविष्यवाणी करने वाले भी अपना प्रभाव जमाने के लिये यह एक तरह से सट्टा खेलते हैं। सट्टे का का संबंध भविष्य के अनुमानों से है तो ज्योतिष का भी यही आधार हैै। अनेक लोग ज्योतिष नहीं जानते पर भविष्यवाणी करते हैं। सही निकली तो पौबाहर नहीं तो भाग्य का सहारा लेकर कह दिया कि ‘अमुक कारण से यह विपरीत परिणाम आया।’
अलबत्ता जैसे प्रचार माध्यमों की सक्रियता से विश्व निकट आ रहा है उससे अब पता लग रहा है कि सारे विश्व में सभी लोगों की मानसिकता एक जैसी है। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता की याद आ ही जाती है। वैसे एक अध्यात्मिक और सामयिक लेखक होने के नाते दोनों विषयों को मिलाना नहीं चाहिए पर आदमी की प्रवृत्तियों का क्या करें? जो हर खेल में प्रकट होती हैं और उनकी पहचान श्रीगीता में वर्णित प्रकृत्तियों से मेल खाती है। आदमी में दैवीय और आसुरी प्रवृत्तियां होती हैं। दैवीय प्रकृत्ति जहां सत्कर्म में लगाती है वहीं आसुरी प्रकृत्ति प्रमाद, मोह, लोभ तथा काम की तरफ ही प्रेरित करती है। ऐसे में हमें अपना अध्यात्मिक ज्ञान स्वर्ण संदेशों से सराबोर दिखाई देता है और उनका उल्लेख करने को लोभ व्यंग्य लिखते हुए भी छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
मान लीजिये ऑक्टोपस ज्योतिषी यान पॉल बाबा की भविष्य सही साबित भी हुई और स्पेन जीत गया तो भी हम उसे दैवीय नहीं आसुरी चमत्कार मानेंगे। साफ कहें तो कहीं न कहीं फिक्सिंग    का संदेह होगा। कभी कभी तो लगता है कि अध्यात्मिक लेखक होने के नाते हास्य व्यंग्य जैसी रचनायें न लिखें पर ज्योतिष तो वैसे भी अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ा विषय माना जाता है और जब उसको लेकर हास्यास्पद स्थिति बनायी जाये तो फिर उस पर लिखा भी वैसा ही जा सकता है। अब खेलों में भविष्यवाणी हो रही है तो कहना ही पड़ता है कि भविष्यवाणी एक खेल हो गया है।
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