Category Archives: व्यंग्य

अंधेरे की तरफ बढ़ता देश-हिन्दी क्षणिकायें


महंगाई पर लिखें या
बिज़ली कटौती पर
कभी समझ में नहीं आता है,
अखबार में पढ़ते हैं विकास दर
बढ़ने के आसार
शायद महंगाई बढ़ाती होगी उसके आंकड़ें
मगर घटती बिज़ली देखकर
पुराने अंधेरों की तरफ
बढ़ता यह देश नज़र आता है।
———–
सर्वशक्तिमान को भूलकर
बिज़ली के सामानों में मन लगाया,
बिज़ली कटौती बन रही परंपरा
इसलिये अंधेरों से लड़ने के लिये
सर्वशक्तिमान का नाम याद आया।
———–
पेट्रोल रोज महंगा हो जाता,
फिर भी आदमी पैदल नहीं नज़र आता है,
लगता है
साफ कुदरती सांसों की शायद जरूरत नहीं किसी को
आरामों में इंसान शायद धरती पर जन्नत पाता है।
———-

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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महंगाई और बिज़ली कटौती-हिन्दी क्षणिकायें (mahangai aur bijli katauti-hindi vyangya kavitaen)

स्वतंत्रता दिवस का एक दिन-व्यंग्य कविता कविता (one day of independence-hidi satire poem)


अपने ही गुलामों की
भीड़ एकत्रित कर आज़ादी पर
शिखर पुरुष करते हैं झंडा वंदन।
अपने खून को पसीना करने वाले
मेहनतकशों के लिये हमदर्दी के
कुछ औपचारिक शब्द बोल देते हैं
उसके हाथ भी खोल देते हैं
बस! एक दिन
फिर उसके पसीने का तेल बनाने के लिए
डाल देते हैं पांव में बंधन।।
———-

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रुपयों से लिया जा रहा है हंटर का काम-हास्य कविताएँ (rupya aur hunter-hasya kavitaen)


जैसे जैसी बढ़ी महंगाई
नैतिकता की कीमत नीचे आई,
अपनी भूख से बढ़कर
इंसान की कोई जरूरत नहीं है
यह बात किसी अर्थविज्ञानी के समझ नहीं आई।
———–
बेकाबू हो रहा बाज़ार
सौदागर हो गये बेलगाम,
दौलतमंद के घरों पर
बिक रही है ज़माने को
काबू करने की ताकत
रुपयों से लिया जा रहा हंटर का काम।
———
जिनके पेट भरे हैं
भुखमरी पर सबसे अधिक वही रोते हैं,
अपने जज़्बात के दाम वसूल कर
फिर घोड़े बेचकर सोते हैं।
———–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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फिर गिर सकती है क्रिकेट की लोकप्रियता-हिन्दी आलेख (t-twenty world cricket cup-hindi article)


तय किया था कि हम बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में भारत आस्ट्रेलिया का मैच देखेंगे, मगर नहीं देख पाये। क्रिकेट दर्शन से हमने तौबा कर ली थी पर कहते हैं कि न आदमी अपनी आदत से बाज़ नहीं आता। क्रिकेट मैच चला देते हैं और इधर इंटरनेट पर भी बैठ जाते हैं-अपने आपको तसल्ली देते हैं कि हम क्रिकेट मैच नहीं देख रहे। अलबत्ता यह तय बात है कि अब देखते भी हैं तो देशों के बीच के मैच देखते हैं-यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिताऐं हमारी नज़र में दोयम दर्जे की है। एक तरह से सस्ते बज़ट की फिल्मों की तरह-प्रमाण यह है कि सुनने में आया है कि अब इन पर वैसे ही मनोरंजन कर लगाने की तैयारी हो रही हैं जैसा फिल्मों पर लगता है।
बहुत समय बाद किसी मैच को देखने का ख्याल आया पर बिज़ली ने वह भी छीन लिया। पूरे आठ घंटे कालोनी की बिजली गायब रहीं-इसमें बीस ओवर क्या पचास ओवर का मैच भी निपट जाता है। हमने भी भुला दिया और रात को कालोनी के पार्क में घूमने चले गये। मगर कहते हैं न कि सब कुछ आपके हिसाब से नहंी चलता। क्रिकेट मैच हमने देखना छोड़ा और जब देखने का विचार किया तो वह दिखाई नहीं दिया। फिर उसका ख्याल छोड़ा तो फिर वह भी लौट कर आया। हमारे जैसे परेशान चार पांच युवक उस पार्क में भी आये। उनमें से एक मोबाईल पर स्कोर किसी से पूछ रहा था-‘ मैच का क्या चल रहा है।’
वहां से जवाब आया तो वह अपने साथियों को बता रहा था‘सोलह ओवर में 160 रन!
हमने सोचा कि शायद बीसीसीआई की टीम का होगा। खुश हुए, चलो आज जीत तो दूसरे मैच में भी मजा आयेगा। तब देखेंगें।
इसी बीच दूसरा बोल पड़ा-‘लगता है कहीं आज तो इंडिया की टीम हार न जाये।’
उसने भारत शब्द उपयोग नहीं किया यह सुनकर अच्छा लगा क्योंकि तब यह सदमे जैसा लगता।
मतलब यह स्कोर आस्ट्रेलिया का था। हमारा मन फक हो गया। फिर पार्क के चक्कर काटने लगे।
घर आये तब भी अंधेरा था। न कंप्यूटर खोल सकते थे और न ही टीवी देख सकते थे। ऐसे में अपना ट्रांजिस्टर निकाला और उस पर दिल्ली दूरदर्शन का स्टेशन लगाया। बीसीसीआई का स्कोर था चार विकेट पर 24 रन! फिर शायद पांचवें खिलाड़ी के आउट होने की आवाज सुनाई दी। बीसीसीआई की टीम हार की तरफ बढ़ रही थी ट्रांजिस्टर बंद कर दिया। बाद में एक दो बार खोला तो उद्घोषकों की चर्चा में बीसीसीआई के बुरे प्रदर्शन की बात सुनाई दी।
बीसीसीआई की टीम हारी। सच बात तो यह है कि इस टीम के अगले दौर में पहुंचने की संभावनायें अब बहुत कम है। दो साल पहले बीसीसीआई की टीम ने बीस ओवरीय प्रतियोगता का विश्व कप जीता था तब भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता लगभग खत्म होने के कगार पर थी पर उसे जीवनदान मिल गया जिससे क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं का जन्म हुआ और वह कमाई का धंधा बना। भारत देश इस क्रिकेट का कितना बड़ा सहारा है यह इनाम वितरण के समय दिखने वाले कंपनियों के बोर्ड देखकर समझा जा सकता है जिनमें से अधिकतर भारत के व्यापार जगत में सक्रिय हैं। अनेक लोग क्लब स्तरीय प्रतियोगता के आयोजन पर होने वाली धाधलियों से बहुत नाराज हैं पर देश की नयी पीढ़ी का इससे जुड़ाव जिस ढंग से हुआ है वह आश्चर्यजनक है। इसके बावजूद यह सच है कि यह देश विजय को सलाम करता है। अगर इस विश्व कप में बीसीसीआई की टीम हारती है तो एक बार फिर क्रिकेट की लोकप्रियता गिर सकती है।
कुछ लोग बीसीसीआई की टीम को समग्र भारत का प्रतिनिधि नहंी मानते। इसका कारण यह है कि उस पर कुछ खास क्षेत्रों के लोगों का प्रभाव अधिक है। दूसरा यह भी कि क्लब स्तरीय प्रतियोगिता आयोजित करने वाली जो समिति है वह बीसीसीआई की है पर उसे अलग दिखाया गयां जो कि एक मजाक था। इस समिति ने भारत में अनुमति न मिलने पर पर दक्षिण अफ्रीका में प्रतियोगिता की। इसका सीधा मतलब यह है कि बीसीसीआई और उसकी समितियां कंपनियों की तरह है जो केवल व्यापार में रुचि रखती हैं। अब किसी कंपनी में सभी कर्मचारी भारतीय हों पर वह संपूर्ण देश की प्रतिनिधि तो नहीं हो जाते। अलबत्ता क्रिकेट अब फिल्म की तरह मनोरंजन हो गया है इसलिये इसमें उसी तरह उतार चढ़ाव आयेंगे। इसलिये यह वेस्टइंडीज में होने वाली बीस ओवरी प्रतियोगिता भले ही मनोरंजन न हो पर भारत में उसका आधार तो यही है। टीम विश्व जीतेगी तो ही लोग अगली फिल्म देखने को तैयार होंगे। बहरहाल पूरी शिद्दत के साथ क्रिकेट मैच देखने का अब हमारा इरादा नहीं रहा और इसका कारण आस्ट्रेलिया से इस तरह हार जाना है। अगर बीसीसीआई की टीम खाली हाथ लौटती है तो यकीनन फिर क्रिकेट की लोकप्रियता गिरेगी इसमें संदेह नहीं है।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पेशेवर बौद्धिक विलासी- हिन्दी आलेख (peshevar buddhi vilasi)


हिटलर तानाशाह पर उसने जर्मनी पर राज्य किया। कहते हैं कि वह बहुत अत्याचारी था पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसने हर जर्मनी नागरिक का मार दिया। उसके समय में कुछ सामान्य नागरिक असंतुष्ट होंगे तो तो कुछ संतुष्ट भी रहेंगे। कहने का मतलब यह कि वह एक तानाशाह पर उसके समय में जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग शांति से रह रहा था। सभी गरीब नहीं थे और न ही सभी अमीर रहे होंगे। इधर हम दुनियां के अमीर देशों में शुमार किये जाने वाले जापान को देखते हैं जहां लोकतंत्र है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां की सारी जनता अपनी व्यवस्था से खुश होगी। वहां भी अमीर और गरीब होंगे।
किसी राज्य में प्रजाजनों में सभी अमीर होंगे तो भी सभी संतुष्ट नहीं होंगे सभी गरीब होंगे तो सभी असंतुष्ट भी नहीं होंगे। कहने का मतलब यही है कि राज्य की व्यवस्था तानाशाही वाली है या प्रजातंात्रिक, आम आदमी को मतलब केवल अपने शांतिपूर्ण जीवन से है। अधिकतर लोग अपनी रोजी रोटी के साथ ही अपने सामाजिक जीवन में दायित्व निर्वाह के साथ ही धाार्मिक, जातीय, भाषाई तथा क्षेत्रीय समाजों द्वारा निर्मित पर्वों को मनाकर अपना जीवन अपनी खुशी और गमों के साथ जीते हैं। अलबत्ता पहले अखबार और रेडियो में समाचार और चर्चाओं से सामान्य लोगों को राजनीतिक दृष्टि विकसित होती थी । अब उनके साथ टीवी और इंटरनेट भी जुड़ गया है। लोग अपने मनपसंद विषयों की सामग्री पढ़ते, देखते और सुनते है और इनमें कुछ लोग भूल जाते हैं तो कुछ थोड़ी देर के लिये चिंतन करते है जो कि उनका एक तरह से बुद्धि विलास है। सामान्य आदमी के पास दूसरे की सुनने और अपनी कहने के अलावा कोई दूसरा न तो उपाय होता है न सक्रिय येागदान की इच्छा। ऐसे में जो खाली पीली बैठे बुद्धिजीवी हैं जो अपना समय पास करने के लिये सभाओं और समाचारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जिनके साथ अब टीवी चैनल भी जुड़ गये हैं। इनकी बहसों पेशेवर बौद्धिक चिंतक भाग लेते हैं। ऐसा नहीं है कि चिंतक केवल वही होते हैं जो सार्वजनिक रूप से आते हैं बल्कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चिंतन की अभिव्यक्ति केवल अपने व्यक्ति गत चर्चाओं तक ही सीमित रखते हैं।
ऐसे जो गैर पेशेवर बुद्धिजीवी हैं उनके लिये अपना चिंतन अधिक विस्तार नहीं पाता पर पेशेवर बुद्धिजीवी अपनी चर्चा को अधिक मुखर बनाते हैं ताकि प्रचार माध्यमों में उनका अस्तित्व बना रहे। कहते हैं कि राजनीति, पत्रकारिता तथा वकालत का पेशा अनिश्चिताओ से भरा पड़ा है इसलिये इसमें निरंतर सक्रियता रहना जरूरी है अगर कहीं प्रदर्शन में अंतराल आ गया तो फिर वापसी बहुत मुश्किल हो जाती है। यही कारण है कि आधुनिक लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ पत्रकारिता-समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तथा रेडियो- में अपनी उपस्थित दर्ज कराने के लिये पेशेवर बौद्धिक चिंतक निरंतर सक्रिय रहते हैं। यह सक्रियता इतनी नियमित होती है कि उनके विचार और अभिव्यक्ति का एक प्रारूप बन जाता है जिसके आगे उनके लिये जाना कठिन होता है और वह नये प्रयोग या नये विचार से परे हो जाते हैं। यही कारण है कि हमारे देश के बौद्धिक चिंतक जिस विषय का निर्माण करते हैं उस पर दशकों तक बहस चलती है फिर उन्हें स्वामित्व में रखने वाले राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष अपना नाम निरंतर चर्चा में देख प्रसन्न भी होते हैं। इधर अब यह भी बात समाचार पत्र पत्रिकाओं में आने लगी है कि इन्हीं बौद्धिक चिंतकों के सामाजिक, आर्थिक शिखर पुरुषों से इतने निकट संबंध भी होते हैं कि वह अपनी व्यवसायिक, राजनीतिक तथा अन्य गतिविधियों के लिये उनसे सलाह भी लेते हैं-यह अलग बात है कि इसका पता वर्षों बाद स्वयं उनके द्वारा बताये जाने पर लगता है। यही कारण है कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव की बात तो सभी करते हैं पर जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके पास कोई चिंतन नहीं है और उनके आत्मीय बौद्धिक लोगों के पास चिंतन तो है पर उसमें बदलाव का विचार नहीं है। बदलाव लाने के लिये सभी तत्पर हैं पर स्वयं कोई नहीं लाना चाहता क्योंकि उसे उसमें अपने अस्तित्व बने रहने की गुंजायश नहीं दिखती।
लार्ड मैकाले वाकई एतिहासिक पुरुष है। उसने आज की गुलाम शिक्षा पद्धति का अविष्कार भारत पर अपने देश का शासन हमेशा बनाये रखने के लिये किया था पर उसने यह नहीं सोचा होगा कि उसके शासक यह देश छोड़ जायेंगे तब भी उनका अभौतिक अस्तित्व यहां बना रहेगा। इस शिक्षा पद्धति में नये चिंतन का अभाव रहता है। अगर आपको कोई विचार करना है तो उसके लिये आपके सामने अन्य देशों की व्यवस्था के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे या फिर विदेशी विद्वानों का ज्ञान आपके सामने रखा जायेगा। भारतीय सामाजिक सदंर्भों में सोचने की शक्ति बहुत कम लोगों के पास है-जो कम से कम देश में सक्रिय पेशेवर बुद्धिजीवियों के पास तो कतई नहीं लगती है।
इसका कारण यही है कि संगठित प्रचार माध्यमों-प्रकाशन संस्थान, टीवी चैनल और रेडियो-पर अभिव्यक्ति में भी एक तरह से जड़वाद हावी हो गया है। आपके पास कोई बड़ा पद, व्यवसाय या प्रतिष्ठा का शिखर नहीं है तो आप कितना भी अच्छा सोचते हैं पर आपके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा जितना पेशेवर बौद्धिक चिंतकों को दिया जाता है। आप बहुत अच्छा लिखते हैं तो क्या आपक पत्र संपादक के नाम पत्र में छपेगा न कि किसी नियमित स्तंभ में। कई बार टीवी और रेडियो पर जब सम सामयिक विषयों पर चर्चा सुनते हैं तो लोग संबंधित पक्षों पर आक्षेप, प्रशंसा या तटस्थता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। किसी घटना में सामान्य मनुष्य की प्रकृतियों और उसके कार्यों के परिणाम के कारण क्या हैं इस पर कोई जानकारी नहीं देता। एक बात याद रखना चाहिये कि एक घटना अगर आज हुई है तो वैसी ही दूसरी भी कहीं होगी। उससे पहले भी कितनी हो चुकी होंगी। ऐसे में कई बार ऐसा लगता है कि यह विचार या शब्द तो पहले भी सुने चुके हैं। बस पात्र बदल गये। ऐसी घटनाओं पर पेशेवर ंिचंतकोें की बातें केवल दोहराव भर होती है। तब लगता है कि चितकों के शब्द वैसे ही हैं जैसे पहले कहे गये थे।
चिंताओं की अभिव्यक्ति को चिंतन कह देना अपने आप में ही अजीब बात है। उनके निराकरण के लिये दूरगामी कदम उठाने का कोई ठोस सुझाव न हो तो फिर किसी के विचार को चिंतन कैसे कहा जा सकता है। यही कारण है कि आजकल जिसे देखो चिंता सभी कर रहे हैं। सभी को उम्मीद है कि समाज में बदलाव आयेगा पर यह चिंतन नहीं है। जो बदलाव आ रहे हैं वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से हैं न कि किसी मानवीय या राजकीय प्रयास से। हालांकि यह लेखक इस बात से प्रसन्न है कि अब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शिखर पर कुछ ऐसे लोग सक्रिय हैं जो शांति से काम करते हुए अभिव्यक्त हो रहे हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। फिर मुश्किल यह है कि बौद्धिक चिंतकों का भी अपना महत्व है जो प्रचार माध्यमों पर अपनी ढपली और अपना राग अलापते हैं। फिर आजकल यह देखा जा रहा है कि प्रचार माध्यमों में दबाव में कार्यकारी संस्थाओं पर भी पड़ने लगा है।
आखिरी बात यह है कि देश के तमाम बुद्धिजीवी समाज में राज्य के माध्यमों से बदलाव चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है राज्य का समाज में कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिये। समाज के सामान्य लोगों को बुद्धिहीन, आदर्शहीन तथा अकर्मण्य मानकर चलना अहंकार का प्रमाण है। एक बात तय रही कि दुनियां में सभी अमीर, दानी ओर भले नहीं हो सकते। इसके विपरीत सभी खराब भी नहीं हो सकते। राजनीतिक, आर्थिक, और सामजिक शिखर पर बैठे लोग भी सभी के भाग्यविधाता नहीं बल्कि मनुष्य को निचले स्तर पर सहयेाग मिलता है जिसकी वजह वह चल पाता है। इसलिये देश के बुद्धिजीवी अपने विचारों में बदलाव लायें और समाज में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम हो इसके लिये चिंतन करें-कम से कम जिन सामाजिक गतिविधियों में दोष है पर किसी दूसरे पर इसका बुरा प्रभाव नहीं है तो उसे राज्य द्वारा रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
भारत के सर्वश्रेष्ठ व्यंगकार स्वर्गीय शरद जोशी जी ने अपने एक व्यंग्य में बरसों पहले लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरतस नहीं है। जो लोग यह काम करते हैं उनके पास लूटमार करने के लिये बहुत अमीर और बड़े लोग मौजूद हैं ऐसे में हम पर वह क्यों दृष्टिपात करेंगे।’ कहने का तात्पर्य यह है कि आम आदमी इसलिये जिंदा है क्योंकि सभी आपस में मिलजुलकर चलते हैं न कि राज्य द्वारा उनको कोई प्रत्यक्ष मदद दी जाती है। ऐसे में समाज सहजता से चले और उसमें आपसी पारिवारिक मुद्दों पर कानून न हो तो ही अच्छा रहेगा क्योंकि देखा यह गया है कि उनके दुरुपयोग से आपस वैमनस्य बढ़ता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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तयशुदा लड़ाई-हिन्दी लघुकथा (fix religion war-hindi short story)


वह डंडा लेकर उस मैदान में लड़ने पहुंचे। यह मैदान ‘धर्मकुश्ती’ के लिये विख्यात था। मैदान के मध्य में उन दोनों ने अपने अपने धर्म का नाम लेकर लड़ाई शुरु की। पहले एक दूसरे पर डंडे से प्रहार करते-साथ में अपने धर्म की जय भी बोलते जाते। डंडे से डंडे टकराते। वह उनको चलाते चलाते थक गये तब वह डंडे फैंककर दोनों मल्लयुद्ध करने लगे। एक दूसरे पर घूंसे बरसाते जाते। काफी जमकर कुश्ती हुई। मगर कोई नहीं जीता। वह थककर वहीं बैठ गये। उनके हाथ पांव में घावों से रक्त भी बहता आ रहा था।
उनको प्यास लगी। वहीं से कुछ दूर मैदान के किनारे बने चबूतरे पर एक ज्ञानी भी बैठा था जिसके साथ पानी पिलाने वाला एक शिष्य था। अपने उसी शिष्य से उस ज्ञानी से कहा कि‘जाओ उनको पानी पिलाओ। अब वह थककर चूर होकर बैठे हैं।
वह पानी लेकर उनके पास पहुंचा और दोनों को ग्लास भरकर देने लगा। धर्मयोद्धाओं में से एक ने उससे पूछा-‘तुझे कैसे मालुम कि हमें पानी की प्यास लगी है।’
उस शिष्य ने कहा-‘यह मैदान धर्मकुश्ती के लिये विख्यात है। यहां आप जैसे अनेक लोग आते हैं। हमारे ज्ञानी जी यहां रोज आकर बैठते हैं क्योंकि उनको मालुम है कि यहां आकर धर्म कुश्ती करने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा पर प्यास तो योद्धाओं उनको लगेगी। वह परेशान न हों इसलिये मुझे भी साथ रखते हैं ताकि उनको पानी दे सकूं।’
दूसरे ने पूछा-‘तेरा धर्म क्या है?’
शिष्य ने जवाब दिया-‘पानी पिलाना।’
पहले ने कहा-‘यह भी कोई धर्म है?’
शिष्य ने कहा-‘हमारे गुरुजी कहते हैं कि आज के अक्षरज्ञानी विद्वानों ने कुश्ती प्रदर्शन के लिये धर्मों का नाम रख लिया है। मनुष्य का आचरण, व्यवहार, कर्म तथा विचार से ही पता लगता है कि वह धर्मी है या अधर्मी।
पहले धर्म के नाम पर बांटकर लोगों पहले राज्य किया जाता है आज व्यापार भी किया जाता है। आप यहां कुश्ती करने आये कल यह खबर सभी जगह चमकेगी तो बताओ खबरफरोशों   का धंधा हुआ कि नहीं।’
उन दोनों ने पानी पिया और सुस्ताने लगे। उसी समय एक आदमी आया और बोला-‘शांति रखो! शांति रखो। सभी धर्म एक समान है। सभी धर्म शांति, अहिंसा और प्रेम का संदेश देते हैं।’
इससे पहले वह महायोद्धा कुछ कहते वह चला गया। इस तरह चार लोग शांति संदेश देकर चले गये। एक महायोद्धा ने शिष्य से पूछा-‘यह लोग कौन हैं?’
शिष्य ने कहा-‘‘ इनके नाम भी कल अपनी खबर के साथ देख लेना। यह पंच लोग हैं जो इस बात का इंतजार करते हैं कि कब यहां कुश्ती हो और शांति संदेश सुनाने पहुंच जायें। यह शांति सन्देश देकर अपना धर्म निभाते  हैं।  वैसे यह भी लोग नहीं जानते कि धर्म क्या है?’
दूसरे महायोद्धा ने कहा-‘पर इनका शांति संदेश तो ठीक लगता है। तुम्हारे गुरु जी किस धर्म को मानते हैं’।’
शिष्य ने कहा-‘वह ज्ञानी हैं और वह कहते हैं कि हमारे महापुरुषों तो अच्छे आचरण, व्यवहार, कर्म तथा सुविचार को ही धर्म मानते हैं और इसके विपरीत अधर्म। मेरा धर्म है प्यासे को पानी पिलाना और उनका धर्म है ज्ञान देना।’
एक महायोद्धा ने कहा-‘हम उनसे ज्ञान लेना चाहते हैं।’
शिष्य ने कहा-‘यह उनका ज्ञान देने का समय नहीं है। वह तो यहां इसलिये आते हैं ताकि ऐसी कुश्तियों से कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें। यहां आकर योद्धा आपस में मूंहवाद भी करते हैं। अपने अपने तर्क देते हैं उन्हें सुनकर वह अपना मंतव्य निर्धारित करते हैं। अब आप बाहर जाकर अपने जख्मों का इलाज कराओ। वहां भी एक चिकित्सक हैं जो सेवा भाव से धर्म कुश्ती में घायल होने वालों का इलाज करते हैं।’
वह दोनों लड़खड़ाते हुए बाहर चल दिये। चलते चलते भी दोनों एक दूसरे को गालियां देते रहे।
इधर यह शिष्य अपने गुरू के पास लौटा। गुरू ने उससे पूछा-‘उनको ठीक ढंग से पानी पिलाये आये?’
‘हां, गुरुजी, मैंने अपना धर्म निभा दिया।’शिष्य ने कहा।
गुरुजी अपने ध्यान में लीन हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली तो इधर अचानक शिष्य की नजर उन दो डंडों पर पड़ी जो दोनों योद्धा उस मैदान में छोड़ गये थे। वह बोला-‘गुरूजी! उनके डंडे छूट गये हैं। वह ले जाकर उनको वापस कर आता हूं। वह जरूर उसी डाक्टर के पास होंगे।’
गुरुजी ने कहा-‘रहने दे! डंडे अब उनके किसी काम के नहीं है। वह दोनों शांत हो गये हैं। अगर डंडा हाथ में लेंगे तो कहीं उनकी आग फिर भड़क उठी तो गलत होगा। तेरा काम पानी पिलाना है न कि आग लगाना।’
शिष्य ने कहा-‘नहीं गुरुजी, आपने कहा है कि हर किसी की मदद करना चाहिये। इन डंडों को वापस करना अच्छा होगा।’
इससे पहले गुरुजी कुछ समझाते वह भाग कर चला गया। कुछ देर बाद शिष्य लौटा तो उसके बदन पर भी पट्टी बंधी हुई थी। गुरुजी के कारण पूछने पर वह बोला-‘वह दोनों अपने जख्मों पर पट्टी बंधवा चुके थे। जब मैंने जाकर उनको डंडे दिये तो दोनों ने यह कहते हुए मुझ पर डंडे बरसाये कि तू हमारी इजाजत के बगैर हमारी कुश्ती देख कैसे रहा था?’
गुरुजी ने कहा-‘मैंने तुझसे कहा था कि तेरा धर्म पानी पिलाना पर तू आग लगाने पहुंच गया। यह धर्म परिवर्तन करना ही तेरे लिये घातक रहा। तेरे संस्कारों में डंडा चलाना नहीं लिखा तो तू चला भी नहीं सकता। इसलिये उसे हाथ लगाना भी तेरे लिये अपराध है। फिर तू उन लोगों की संगत करने गया जिनके संस्कार तेरे ठीक विपरीत हैं। तू धर्म ईमानदारी से निभाता है उन धर्मकुश्ती करने वाले योद्धाओं से पानी पिलाने तक ही तेरा संबंध ठीक था। इससे आगे तो यही होना था।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

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अपनी रचनाएँ भुनाओ-हास्य कविता (apni rachna-hindi hasya kavita)


श्रृंगार रस का कवि
पहुंचा हास्य कवि के पास
लगाये अच्छी सलाह की आस
और बोला
‘यार, अब यह कैसा जमाना आया
समलैंगिकता ने अपना जाल बिछाया।
अभी तक तो लिखी जाती थी
स्त्री पुरुष पर प्रेम से परिपूर्ण कवितायें
अब तो समलिंग में भी प्रेम का अलख जगायें
वरना जमाने से पिछड़ जायेंगे
लोग हमारी कविता को पिछड़ी बतायेंगे
कोई रास्ता नहीं सूझा
इसलिये सलाह के लिये तुम्हारे पास आया।’

सुनकर हास्य कवि घबड़ाया
फिर बोला-’‘बस इतनी बात
क्यों दे रहे हो अपने को ताप
एकदम शुद्ध हिंदी छोड़कर
कुछ फिल्मी शैली भी अपनाओ
फिर अपनी रचनायें लिखकर भुनाओ
एक फिल्म में
तुमने सुना और देखा होगा
नायक को महबूबा के आने पर यह गाते
‘मेरा महबूब आया है’
तुम प्रियतम और प्रियतमा छोड़कर
महबूब पर फिदा हो जाओ
चिंता की कोई बात नहीं
आजकल पहनावे और चाल चलन में
कोई अंतर नहीं लगता
इसलिये अदाओं का बयान
महबूब और महबूबा के लिये एक जैसा फबता
कुछ लड़के भी रखने लगे हैं बाल
अब लड़कियों की तरह बड़े
पहनने लगे हैं कान में बाली और हाथ में कड़े
तुम तो श्रृंगार रस में डूबकर
वैसे ही लिखो समलैंगिक गीत कवितायें
जिसे प्राकृतिक और समलैंगिक प्रेम वाले
एक स्वर में गायें
छोड़े दो सारी चिंतायें
मुश्किल तो हमारे सामने है
जो हास्य कविता में आशिक और माशुका पर
लिखकर खूब रंग जमाया
पर महबूब तो एकदम ठंडा शब्द है
जिस पर हास्य लिखा नहीं जा सकता
हम तो ठहरे हास्य कवि
साहित्य और भाषा की जितनी समझ है
दोस्त हो इसलिये उतना तुमको बताया।

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दीपावली का पर्व निकल गया-आलेख


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगेे। हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है। अगर कहीं शारीरिक श्रम की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं। हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट मेें जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं। इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता।
दिवाली के अगली सुबह बाजार में निकले तो देखा कि बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था। इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं। मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं। मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं। ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं। पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे। कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे। वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो। शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं। संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है। वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा। अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी। अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते। अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो। उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है। इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए। ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें। कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं। इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े। ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा। इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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रिश्ता और सच का सामना-हास्य कविता (rishta aur sach ka samana-hasya kavita)


लड़के की मां ने
रिश्ते कराने वाले मध्यस्थ से कहा
‘‘लड़की और परिवार के साथ
दहेज का मामला भी समझ में आयेगा।
बस एक बात रह गयी है कहना कि
अब तो चल गया है सच के सामना करने का फैशन
इसलिये लड़की को उस मशीन पर भी बिठायेंगे
चाहें उसके मां बाप तो
अपने लड़के को भी उस पर दिखायेंगे
इस तरह रिश्ता तय हो जायेगा।’

सुनकर लड़का चौंका
और इशारा कर मां को बाहर बुलाया
और बोला-
‘यह क्या कर रही हो माताश्री
उस तरह तो मेरा कभी भी विवाह
संपन्न नहीं हो पायेगा।
तेरा और मेरा रिश्ता तो इसी जन्म का है
जो व्यर्थ जायेगा।
यह टीवी देखकर मत चलो
ऐसा न हो कि फिर इस रिश्ते से हाथ मलो
सच की मशीन है इस तरह कि
जो मेरे बारे में तुम भी नहीं जानती
सभी को पता चल जायेगा।
चुपचाप हामी भर दो
वरना तुम्हारे सास बनने का
और मेरा घर बसने का सपना
सच का सामना करते ही टूट जायेगा।’’

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पुरुष को बैल बनाने का पैगाम-हास्य कविता (admi aur bail-hindi hasya kavita


लोगों में सोच जगाने के लिये चला रहे सभी अभियान।
किताबों के गुलाम मिटाने निकले हैं गुलामी के निशान।।

नारी स्वतंत्रता का नारा लगाते हुए वह मुस्कराते हैं
गृहस्थी में पुरुष को बैल बनाने में ही देखते नारी की शान।।

पूरी जिंदगी दिखाया समाज को उन्होंने नया रास्ता
अपनी सोच से पैदल रहे,पराये ख्याल पर पाया सम्मान।।

मसीहा बनने की चाहत में ओढ़ लिया अपने आगे अंधेरा
अमन में इधर उधर ढूंढते हैं, जमाने में जंग के पैगाम।।

काट कर लोगों को कर दिया पहले अलग अलग
फिर मांगने निकले है लोगों से एकता का दान।।

कहैं दीपक बापू, बड़े बन गये कई छोटी सोच के कई लोग
चेहरे उनके पर्दे पर चमकते दिखते, पर डोलता लगता ईमान।।

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राम और रावण की भूमिका-लघुकथा


वह स्वस्थ्य सुंदर युवक रामलीला मंडली में भगवान श्री राम की भूमिका निभाता था। इसी कारण लोग उसको राम जैसा सम्मान देते थे। उसका आचरण भी बहुत अच्छा था। उसके अंदर कोई व्यसन नहीं था। वह हमेशा मीठी वाणी में बोलता, दूसरों की सहायता करता और अपने काम से समय मिलने पर भक्ति करता था। समय ने करवट ली। उसकी आयु बढ़ने लगी। मंडली के संचालक अनुभव करने लगे कि राम का पात्र निभाने के लिये जो कोमल वाणी और चेहरा चाहिये वह उसमें नहीं रहा। चूंकि वह कलाकार अच्छा था इसलिये उसे रावण का रोल दिया जाने लगा।
उसका जैसे चरित्र ही बदल गया। अब वह शराब पीने लगा। घर पर पत्नी और बच्चों से मारपीट कर वह पूरे मोहल्ले में बदनाम हो गया। लोग कहते थे कि ‘जैसे रावण की भूमिका करता है वैसा ही उसका चरित्र हो गया है।
वह शराब पीकर सड़कों पर गिरता। लोगों से अनावश्यक बहस करता। धीरे धीरे उसका अपने अभिनय पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। तब उसे मंडली ने निकाल दिया। वह गिड़गिड़ाया और कहने लगा कि ‘मैं अकेला ही घर में कमाने वाला आदमी हूं। मेरे जवान बच्चे हैं और पढ़ रहे हैं। पूरा घर तबाह हो जायेगा।’
तब एक संचालक ने उससे कहा-‘अब तुम रामलीला में अभिनय लायक नहीं रहे। हां, तुम अपना घर को बचाना चाहते हो तो अपना बड़ा लड़का राम के अभिनय के लिये हमें दे दो। हम उसको अच्छा मेहनताना देंगे।’
वह तैयार हो गया। जिस दिन उसका लड़का पहली बार अभिनय करने जा रहा था तो उसने उससे कहा-’जब तक राम के पात्र का अभिनय करने को मिले ठीक है पर कभी रावण के पात्र का अभिनय मत करना। जब इस तरह की भूमिका का प्रस्ताव मिलने लगे तब यह व्यवसाय छोड़ देना।’
बेटे ने पूछा-‘क्यों पापा?’
उसने प्रतिप्रश्न किया-जब तू छोटा था तब मैं तुझे कैसा लगता था।’
बेटे ने कहा-‘बहुत अच्छे!’
उसने फिर पूछा-‘अब कैसा लगता हूं?’
बेटा खामोश हो गया तो पिता ने कहा-‘जब मैं राम का अभिनय करता था तब मेरे अंदर वैसे ही भाव आते थे। भले ही अभिनय के बाद मैं राम नहीं रहता था पर मेरे भाव हमेशा ही मेरे साथ रहते थे। जब रावण के पात्र के रूप में अभिनय करने लगा तब मेरे अंदर वैसे ही भाव आते गये। आज मेरी छबि खराब है पर पहले अच्छी थी। रामलीला में करें या जिंदगी में जैसा अभिनय आदमी करता है वैसे ही उसके भाव हो जाते हैं। तुम कभी भी रावण का अभिनय नहीं करना।’
बेटे ने स्वीकृति में सिर हिलाया और बाहर निकल गया।
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चांदी के कप की खातिर- हास्य व्यंग्य कविताएँ


इतिहास में नाम दर्ज करने की
अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिये
वह किसी भी हद तक जाऐंगे।
कहीं जिंदा आदमी भूत बनाकर सजायेंगे
तो कहीं भूत को ही फरिश्ता बतायेंगे।।
………………………
चांदी के कप की खातिर
खेल में बन जाता है जंग का मैदान।
जीतने वाले की कद्र
उसके कारनामों से नहीं
चांदी से बढ़ती है शान।
पता नहीं किस पर सीना फुलाता है वह
अपने पसीने और घावों पर
या चांदी की चमक पर होकर हैरान।
……………………….
पांव हैं जमीन पर
किन्तु आकाश की तरफ है ध्यान।
जमीन से कोई सोना उगकर
पेट में नहीं जाता
सिर पर सजाने के लिये
कोई हीरा ऊपर से नहीं आता
दो पाटों की चक्की में
यूं ही पिस जाता है इंसान।

hindi poem, shayri, vyangya kavita, आकाश, चक्की, मनोरंजन, व्यंग्य रचना, सोना, हिंदी साहित्य, हीरा
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इन्टरनेट का ताला और पाठ चोर (हास्य व्यंग्य)


कभी कभी यह मन होता है कि किसी ब्लाग लेखक के लिखे पाठ के विषय पर कुछ हम भी लिखें। इसका कारण यह है कि किसी भी विषय के अनेक दृष्टिकोण होते हैं और किसी अन्य लेखक के विषय ने अपने दृष्टिकोण से लिखा होता है तो हमारे मन में यह आता है कि अन्य दृष्टिकोण से उस पर लिखें और इसके लिये अगर उस लेखक की कुछ पंक्तियां अपने पाठ में उद्धृत करें तो अच्छा रहेगा। अंतर्जाल पर लिखते हुए इस मामलें में एक आसानी होती है कि उस लेखक की पंक्तियां कापी कर उसे अपने पाठ पर लिखें ताकि पाठकों को यह पता लगे कि अन्य लेखक ने भी उस पर कुछ लिखा है। इससे दोनों लेखकों का दृष्टिकोण पाठकों के समक्ष आता है।

मगर अब समस्या यह आने लगी है कि दूसरों की देखा देखी हमने भी अपने ब्लाग पर ताला लगा दिया है। इसलिये किसी की शिकायत तो कर ही नहीं सकते क्योंकि अंतर्जाल पर अपने पाठों की चोरी की समस्या से अनेक लेखक परेशान हैं। हमारे लिये कभी अधिक परेशानी नहीं रही क्योंकि हमारा लिखा चुराने लायक हैं यह नहीं लगता पर दूसरों की देखा देखी ताला लगा दिया तो लगा दिया। हम किसी के पाठ की चोरी नहीं करते पर जिसका विषय पसंद आये उस पर लिखते हैं और उस लेखक का उल्लेख करने में हमें कोई झिझक नहीं होती-सोचते हैं हो सकता है कि उसके नाम से हम भी कहीं हिट हो जायें। अब जाकर अपने ब्लाग/पत्रिका पर ताला भी इसलिये नहीं लगाया कि हमें अपने पाठ के चोरी होने का खतरा है बल्कि पाठकों और मित्रों को लगे कि ऐसा लिखता होगा कि उसे चोरी का खतरा अनुभव होता है।

बात करें ब्लाग/पत्रिका पर ताले के चोरी होने की। यह एक ऐसा साफ्टवेयर है जिसको अपने ब्लाग पर लिंक करने पर उसके पाठ की कोई कापी नहीं कर सकता। हालांकि इसका कोई तोड़ नहीं होगा यह कहना कठिन है क्योंकि अंतर्जाल पर अनेक तकनीकी खिलाड़ी ऐसे हैं जो तालों को तोड़ने वाले हथोड़े या तालियां बनाकर उसे तोड़ भी सकते हैं। वैसे भी मनुष्य में रचनात्मक विचार से अधिक विध्वंस की भावना अधिक होती है। इस ताले की वजह से हमें तीन चार बार स्वयं ही परेशानी झेलनी पड़ी। उस दिन एक मित्र ब्लाग लेखक का पाठ हमें बहुत अच्छा लगा। सोचा चलो कि उसके अंश लेकर अपने ब्लाग/पत्रिका पर चाप देते हैं और साथ में अपनी बात भी जोड़ लेंगे। जब उसकी कापी करने लगे तो वहां कर्सर काम नहीं कर रहा था। बहुत माथापच्ची की। फिर उनके ब्लाग का मुआयना किया तो देखा कि वहां एक साफ्टवेयर का लिंक है जो इसके लिये इजाजत नहीं देगा हालांकि उसके साथ ताले का लिंक भी था पर हमें वह दिखाई नहीं दिया। मन मारकर हमें अपना इरादा बदलना पड़ा। तब हमने उसी साफ्टवेयर का लिंक अपने ब्लाग पर लगाया। मगर देखा कि अनेक लोग अपनी टिप्पणियों में हमारे पाठ की कापी कर टिप्पणियां कर रहे हैं। तब हैरानी हुई। हमने सोचा चलने दो। दो तीन दिन पहले एक ब्लाग के ताले पर नजर पड़ी। तब वहां से हमने ताले का साफ्टवेयर लिया और अपने ब्लाग@पत्रिकाओं पर लगा दिया। इस तरह अपना ब्लाग सुरक्षित कर लिया।

किसी ने विरोध नहीं किया पर आज एक ब्लाग से जब पाठ का अंश लेने का विचार आया तो देखा कि वहां ताला लगा हुआ है। सच बात तो यह है कि यह ताला इसलिये लगाया जाता है कि कोई मेहनत से लिखे गये पाठों से कापी नहीं कर सके मगर मुश्किल इसमें यह आने वाली है कि इससे आपस में एक दूसरे से जुड़े ब्लाग लेखक उन ब्लाग के पाठों की कापी नहीं कर पायेंगे जिन पर ताले लगे हुए हैं और वह उन पर लिखना चाहते हैं। हालांकि इसका एक तरीका यह भी है कि अपने मित्र ब्लाग लेखक को ईमेल कर उस पाठ की कापी मांगी जा सकती है और वह दे भी देंगे पर लिखने का एक मूड और समय होता है। ईमेल भेजने और उत्तर आने के बीच मूड और समय के बदलने की पूरी गुंजायश होती है।

वैसे भी ताले केवल सामान्य इंसान का मार्ग अवरुद्ध करता है। चोर उठाईगीरे और डकैतों के लिये निर्जीव ताले कोई अवरोध नहीं खड़े कर पाते। अंतर्जाल पर जिस तरह की घटनायें सुनने को मिलती हैं उससे तो नहीं लगता कि ताला उनके लिये कोई अवरोध खड़ कर पायेगा। जिस तरह समाज की स्थिति है उससे अंतर्जाल अलग तो हो नहीं सकता। जिस तरह समाज में विध्वसंक और विलासी लोगों के बाहुल्य है वैसी ही हालत इंटरनेट पर भी है। रचनात्मक लोगां की कमी यहां भी है अगर ऐसा नहीं होता तो हिंदी में लिखने वालों की संख्या देश की हिंदी आबादी के हिसाब से इतनी कम नहीं होती। इतने सारे इंटरनेट कनेक्शन हैं और सर्च इंजिनों पर हिंदी भाषियों की खोज का दृष्टिकोण देखें तो वह फिल्मी अभिनेत्रियों पर केंद्रित है।
भले ही किसी ब्लाग लेखक का पाठ उपयोग न हो पर ताला तोड़कर अपनी तकनीकी शक्ति का प्रदर्शन करने वाले भी यहां आत्मसंतुष्टि के लिये कर सकते हैं। हो सकता है कि कुछ तकनीकी जानकार पढ़ने लिखने की बजाय ब्लाग पर लगा ताला देखकर ही उसका तोड़ निकालने में ही अपना समय नष्ट करें क्योंकि कुछ लोगों को विध्वंस करने में मजा आता है। हम अपने आसपास कई ऐसे लोग देख सकते हैं जो किसी बेहतर चीज को देखकर उससे प्रसन्न होने की बजाय उसके नष्ट होने के उपायों पर विचार करने लगते हैं।
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मस्त राम……………की हिप हुर्र हुर्र


अपने कुछ ब्लाग/पत्रिका का नामकरण हमने मस्तराम के नाम पर आज कर ही दिया। आज होली का पर्व है और एक लेखक के नाते ऐसा समय हमारे लिये अकेले चिंतन करने का होता है। पिछले दो वर्षों से हम अंतर्जाल पर जूझ रहें पर अभी तक फ्लाप बने हुए हैं। हिंदी के सभी ब्लाग जबरदस्त हिट पाते जा रहे हैं और हम है कि ताकते रह जाते हैं।

यह बात यह ठीक है जो हिट हैं वह हमसे अच्छा और प्रासंगिक लिखते हैं पर और एक लेखक मन इस बात को कहां मानता है कि हम खराब लिखते हैं। इधर हमसे पुराने ब्लाग नित नयी बातें सामने रखकर विचलित कर देते हैं तो फिर दिमाग में आता है कि कोई ऐसी रणनीति बनाओ कि खुद भी हिट हो जायें। बहुत दिन से संकोच हो रहा था पर आज सारा संकोच त्याग कर अपने उन ब्लाग/पत्रिकाओं में अपने नाम के आगे मस्तराम शब्द जोड़ ही दिया जिन पर पहले लिखकर हटा लिया था।

दरअसल हुआ यूं कि पुराने ब्लाग लेखकों ने अपने पाठों में बताया कि इंटरनेट पर हिंदी विषयों के शब्द गूगल के सर्च इंजिनों में बहुत कम ढूंढे जाते जाते हैं-आशय यह है कि चाहे रोमन लिपि में हो या देवनागरी लिपि में लोग इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने के बहुत कम इच्छुक हैं। वैसे हमने स्वयं सर्च इंजिनों के ट्रैंड में जाकर यह बात पहले भी देखी थी और उसी आधार पर अपनी रणनीति बनाते रहे पर सफलता नहीं मिली। कल फिर गूगल के सर्च इंजिन ट्रैंड को देखा तो यथावत स्थिति दिखाई दी। वैसे हमने यह तो पहले ही देख लिया था कि मस्त राम शब्द की वजह से पाठक अधिक ही मिलते हैं। अपने एक ब्लाग पर हमने अपने नाम के आगे मस्त राम लिखकर छोड़ दिया तो देखा कि एक महीने तक नहीं लिखने पर भी वहां पाठक अच्छी संख्या में आते हैं और वह अपने अधिक पाठकों की संख्या के कीर्तिमान को स्वयं ही ध्वस्त करता जाता है जबकि सामान्य ब्लाग तरसते लगते हैं। हमारा यह ब्लाग बिना किसी फोरम की सहायता के ही 6500 से अधिक पाठक जुटा चुका है। एक अन्य ब्लाग भी तीन हजार के पास पहुंच गया था पर वहां से जैसे ही मस्तराम शब्द हटाया वह अपने पाठक खो बैठा।

ऐसे में सोचा कि जिन ब्लाग पर हमने ‘मस्त राम’ जोड़कर पाठक जुटाये और फिर हटा लिया तो क्यों न उनको पुराना ही रूप दिया जाये? एक मजे की बात यह है कि हमने मस्त राम का शब्द उपयोग किसी उद्देश्य को लेकर नहीं किया था। हमारी नानी हमको इसी नाम से पुकारती थी। जब ब्लाग@पत्रिका बनाना प्रारंभ किया तो बस ऐसे ही यह नाम उपयोग में लिया। बाद में समय के साथ अनेक अनुभव हुए तब पता लगा कि उत्तर प्रदेश में यह नाम अधिक लोकप्रिय रहा है और धीरे धीरे पूरे देश में फैल रहा है।
इस होली पर बैठे ठाले यह ख्याल आया कि क्यों न हम साल भर तक अपनी स्वर्गीय नानी द्वारा प्रदत्त प्यार का नाम मस्त राम का प्रयोग करते रहेंगे। वैसे वर्डप्रेस के हमारे अनेक ब्लाग स्वतः ही पाठक जुटा रहे हैं पर संख्या स्थिर हैं।

हमने अनेक शब्दों का प्रयोग करके देखा तो भारी निराशा हाथ लगी पर साथ में आशा की किरण जाग्रत हुई। लोगों का भगवान राम के प्रति लगाव है और सर्च इंजिनों में रोमन में उनका नाम लिखकर तलाश होती रहती है। जिन टैगों का हम उपयोग करते हैं उनका कोई ग्राफ नहीं मिला। तय बात है कि उनकी संख्या अधिक नहीं है। जहां तक मस्त राम का सवाल है तो हमारे सामान्य ब्लाग@पत्रिका में जो टैग मस्त राम के नाम पर है वहां भी पाठक पहुंचते हैं।
फिल्मी हीरोईनों के नाम पर सर्च इंजिनों में भारत के इंटरनेट सुविधाभोगी भीड़ लगाये हुए हैं। हैरानी होती है यह देखकर! टीवी, रेडियो और अखबारों में उनके नाम और फोटो देखकर भी उनका मन नहीं भरता। कहते हैं कि परंपरागत प्रचार माध्यमों से ऊबकर भारत के लोग इंटरनेट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं पर उनका यह रवैया इस बात को दर्शाता कि उनकी मानसिकता में बदलाव केवल साधन तक ही सीमित है साध्य के स्वरूप में बदलाव में उनकी रुचि नहीं हैं। अब इसके कारणों में जाना चाहिये। इसका कारण यह है कि हिंदी में मौलिक, स्वतंत्र और नया लिखने वाले सीमित संख्या में है। अभी तक लोग या तो दूसरों की बाहर लिखी रचनायें यहां लिख रहे हैं या अनुवाद प्रस्तुत कर अपना ब्लाग सजाते हैं। अगर मौलिक लेखक है तो शायद वह इतना रुचिकर नहीं है जितना होना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि अंतर्जाल पर दूसरे के लिखे की नकल चुरा लिये जाने का पूरा खतरा है दूसरा यह कि मौलिक लेखक के हाथ से लिखने और टाईप करने में स्वाभाविक रूप से अंतर आ जाता है। ऐसे में आम पाठकों की कमी से मनोबल बढ़ता नहीं है इसलिये बड़ी रचनायें लिखना समय खराब करना लगता है। जब यह पता लगता है कि हिंदी में नगण्य पाठक है तो ऐसे ब्लाग लेखक निराश हो ही जाते जिनके लिये यहां न नाम है न नामा। इतना ही नहीं कुछ वेबसाइटें तो ऐसी हैं जो ब्लाग लेखकों के टैग और श्रेणियों के सहारे सर्च इंजिनों में स्वयं को स्थापित कर रही हैं। हिंदी के चार फोरमों के लिये तो कोई शिकायत नहीं की जा सकती पर कुछ वेबसाईटें इस तरह व्यवहार कर रहीं हैं जैसे कि ब्लाग लेखक उनके लिये कच्चा माल हैं। यह सही है कि उनकी वजह से भी बहुत सारे पाठक आ रहे हैं पर सवाल यह है कि इससे ब्लाग लेखक को क्या लाभ है?

यह सच है कि अंतर्जाल पर हिंदी की लेखन यात्रा शैशवकाल में है। लिखने वाले भी कम है तो पढ़ने वाले भी कम। ऐसे में ब्लाग लेखक के लिये यह भी एक रास्ता है कि वह अपने लिखने के साथ ऐसे भी मार्ग तलाशे जहां उसे पाठक अधिक मिल सकें। यही सोचकर हमने होली के अवसर पर यही सोचा कि अब अपनी नानी द्वारा प्रदत्त नाम का भी क्यों न नियमित रूप से उपयोग करके देखें जिसकों लेकर अभी तक गंभीर नहीं थे। इस होली पर बोलो मस्त राम………………………………की हिप हुर्र हुर्र।

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शब्दों के सौदागर के हाथ बिक या अपने लिए लिख-व्यंग्य कविता hasya vyangya kavita


बिकने के लिए तैयार है तो
फिर सौदे जैसा लिख और दिख

बाज़ार के कायदे हैं अपने
जहां मत देख ईमानदार बने रहने के सपने
दाम तेरी पसंद का होगा
काम खरीददार के मन जैसा होगा
भाव होगा वैसा ही होगा जैसा दाम
शब्द होंगे तेरे, पर नाम कीमत देने वाले होगा
अपने नाम को आसमान में
चमकता देने की चाहत छोड़ देना होगा
वहां तो उसको ही शौहरत मिलेगी
जिसका घर भी उड़ता होगा
तू जमीन में रेंगना सीख ले
इशारों को समझ कर लिख
जैसा वह चाहें वैसा दिख

मत कर भरोसा शब्दों की जंग लड़ने वालों पर
अपनी जिन्दगी में तरसे हैं
वह कौडियों के लिए
उनका लिखा बेशकीमती हो गया
उनके मरने के बाद
अमीरों पर उनके नाम से रूपये बरसे हैं
पेट में भूख हो तो कलम तलवार नहीं हो सकती
करेगी प्रशस्ति गान किसी का
तभी तेरी रोटी पक सकती
कब तक लिखेगा लड़ते हुए
स्याही भी कोई मुफ्त नहीं मिल सकती
शब्दों को सजाये कई लोग घूम रहे हैं
पर खरीददार नहीं मिलता
मिल जाए तो बिक जाना
या फिर छोड़ दे ख्वाहिश
शब्दों से पेट भरने का
किसी से लड़ने का
दिल को तसल्ली दे वाही लिख
जैस मन चाहे वैसा दिख
फेर ले शब्दों के सौदागरों से मुहँ
वह तुझे देखते रहे
तू भी नज़रें घुमा कर देखता रहना
उनका पुतले और पुतलियों की तरह
दूसरों के इशारों नाचना भी
तेरी कई रचनाओं को जन्म देगा
पर ऐसा करता बिलकुल मत दिख
बस अपना लिख
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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप