Category Archives: संदेश

हिन्दी भाषा का महत्व-हिन्दी दिवस पर हास्य कविताएँ (hindi bhasha ka mahatva-hindi diwas par hasya kavita)


हिन्दी दिवस पर
उन्होंने हिन्दी का महत्व बताया,
अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त होने का
अपना संकल्प अंग्रेजी में जताया।
——–
हिन्दी दिवस पर
अपनी मातृभाषा की उनको
बहुत याद आई,
इसलिये ही
‘हिन्दी इज वैरी गुड’ भाषा के
नारे के साथ दी बार बार दुहाई।
————
शिक्षक ने पूछा छात्रों से
‘बताओ अंग्रेजी बड़ी भाषा है या हिन्दी
जब हम लिखने और बोलने की
दृष्टि से तोलते हैं।’
एक छात्र ने जवाब दिया कि
‘वी हैव आल्वेज स्पीकिंग इन हिन्दी
यह हम सच बोलते हैं।’
———

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi shayari)


नाच न सके नटों की तरह, इसलिये ज़माने से पिछड़ गये।
सभी की आरज़ू पूरी न कर सके, अपनों से भी बिछड़ गये।
महलों में कभी रहने की ख्वाहिश नहीं की थी हमने,
ऐसे सपने देखने वाले हमराहों से भी रिश्ते बिगड़ गये।
———-
कुछ रिश्ते बन गये
कुछ हमने भी बनाये,
मगर कुछ चले
कुछ नहीं चल पाये,
समय की बलिहारी
कुछ उसने पानी में बहाये।
————

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घर के भागीरथ-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ghar ke bhagirath-hindi vyangya kavitaen)


ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं,
जो विकास की गंगा घर घर पहुंचायें,
सभी बन गये हैं अपने घर के भागीरथ
जो तेल की धारा
बस!
अपने घर तक ही लायें,
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने के लिये
केवल आले में चिराग जलायें।
————-
तमाशों में गुज़ार दी
पूरी ज़िदगी
तमाशाबीन बनकर।
कहीं दूसरे की अदाओं पर हंसे और रोए,
कहीं अपने जलवे बिखेरते हुए, खुद ही उसमें खोए,
हाथ कुछ नहीं आया
भले ही रहा ज़माने को दिखाने के लिये
सीना तनकर।
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विश्व कप फुटबाल में भविष्यवाणी का खेल-हास्य व्यंग्य (world cup footbal aur jyotish-hasya vyangya)


यह पश्चिम वाले भी उतने ही अजूबा हैं जितने हमारे देश के लोग। उतने ही अंधविश्वास और अज्ञानी जितने हमारे यहां बसते हैं। पहले अक्सर यह सुनने और पढ़ने को मिलता था कि पश्चिम में भारतीय लोगों के प्रति अच्छी धारणा व्याप्त नहीं है। भारत को वहां के लोग सन्यासियों, सांपों और संकीर्ण मानसिकता वाला मानते हैं। बात अपने समझ में तब भी नहीं आयी और अब भी नहीं आती क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन के बारे की कई इमारतों में भूत होने की बातें भी पढ़ने को मिलती हैं। इसके अलावा उनके उतने ही अंधविश्वासी होने के प्रमाण मिलते रहे हैं जितने हमारे यहां के लोग हैं। कई बड़े नामी गिरामी लोगों को भूत दिखने के दावे किये जाते हैं। अपने यहां तोते की भविष्यवाणियों पर हंसने वाले यह पश्चिमी देश अब एक समुद्रीजीव ऑक्टोपस पकड़ लाये हैं जिसके बारे में दावा यह कि 2010 के विश्व कप फुटबाल के मैचों के बारे में सही भविष्यवाणी कर रहा है। आठ पांव वाले इस जीव को पकड़ना ही पर्यावरणवादियों को ललकारने जैसा है पर पश्चिम में सब चलता है।
जहां तक फुटबाल खेल का सवाल है वह भी हमने खूब देखा पर यह टीवी और अखबार वाले उसमें भी फिक्सिंग जैसी बातें होने की बात कहते हैं इस कारण उसमें अरुचि हो गयी। जब तक क्रिकेट में फिक्सिंग की बात नहीं थी तब तक उसे खूब देखा पर एक बार जब दिमाग में मैच फिक्स होने की बात आयी तो उसे छोड़ दिया। फुटबाल भी खूब देखा पर उसमें भी यही बात आयी तो यह शायद पहला विश्व कप है जिसके मैच नहीं देखे। अर्र्जेटीना, फृ्रांस, ब्राजील और ब्रिटेन की टीमें देखते देखते बाहर हो गयी। इनको हमेशा ललकारने वाली जर्मनी की टीम का हारना भी कम चौंकाने वाला नहीं था। स्पेन और हालैंड की टीमें फायनल खेलेंगी। फुटबाल कोई क्रिकेट की तरह अवसर का खेल नहीं है पर हैरानी की बात है कि उसे भी अब इसी दृष्टि से देखा जायेगा। क्रिकेट में अनफिट खिलाड़ी चल सकता है पर फुटबाल में यह संभव नहीं है पर लगता है कि सटोरियों और पूंजीपतियों के दबाव के चलते अब वह भी विज्ञापनों के बोझ तले दब गया है। शायद यही कारण है कि दुनियां की जानी मानी टीमें अपने साथ हारने के लिये अनफिट खिलाड़ी जायी थी ताकि समय पड़ने पर मनोमुताबिक परिणाम निकाले जा सकें-कहते हैं न कि दूध का जला छांछ को भी फूंक फूंक कर पीता है इसलिये क्रिकेट को देखकर यह बात अनुमान से ही लिखी जा रही है। जर्मनी जिस तरह प्रतियोगिता में आगे बढ़ रहा था उसे देखते हुए उसका एकदम बाहर हो जाना शक पैदा करेगा ही-जो टीम एक मैच में चार गोल करती है दूसरे मैच में एक गोल को तरस जाती है तो सोचना स्वभाविक क्योंकि आखिर यह क्रिकेट नहीं है।
आक्टोपस को पॉल बाबा भी कहा जा रहा है-पता नहीं इस शब्द का उपयोग विदेशी प्रचार माध्यम कर रहे हैं कि नहीं पर भारत में तो यही नाम दिया गया है। पॉल बाबा ने फुटबाल में फायनल मैच में जर्मनी के हारने की भविष्यवाणी की थी। जर्मनी हार गया तो अब यह कहना कठिन है कि उन्होंने अपने देश के ऑक्टोपस ज्योतिषी की भविष्यवाणी का सम्मान किया या फिर उन दांव लगाने वालों को निपटाया जो उसकी भविष्यवाणी पर भरोसा नहंी कर रहे थे। अब इस पॉल बाबा ने स्पेन के जीतने की भविष्यवाणी की है। चूंकि हमने मैच नहीं देखे पर पिछली टीमों की स्थिति देखते हुए हमारा दावा है कि यह फाइनल मैच हालैंड वाले जीतेंगे। वजह! हालैंड के खिलाड़ी दुनियां में सबसे जीवट वाले माने जाते हैं। फायनल मैच अगर हमारे अनुकूल समय के अनुसार हुआ तो जरूर देखेंगे और नहीं हुआ तो अखबार में तो रोज इस बारे में पढ़ते ही हैं।
इधर पूर्व में भी एक तोता ज्योतिषी आ गया है जिसका दावा है कि यह मैच हालैंड जीतेगा। अब यह सट्टे वालों पर निर्भर है कि वह कितना इस खेल को प्रभावित कर पाते हैं। क्रिकेट में तो उनको बहुत मौका होता है पर फुटबाल में यह संभव नहीं होता कि बीच में जाकर प्रयास किये जायें या फिर अंपायर से दो चार गलत निर्णय करा लें।
वैसे सट्टे वाले भी आजकल भविष्यवाणी करते दिखते हैं तो भविष्यवाणी करने वाले भी अपना प्रभाव जमाने के लिये यह एक तरह से सट्टा खेलते हैं। सट्टे का का संबंध भविष्य के अनुमानों से है तो ज्योतिष का भी यही आधार हैै। अनेक लोग ज्योतिष नहीं जानते पर भविष्यवाणी करते हैं। सही निकली तो पौबाहर नहीं तो भाग्य का सहारा लेकर कह दिया कि ‘अमुक कारण से यह विपरीत परिणाम आया।’
अलबत्ता जैसे प्रचार माध्यमों की सक्रियता से विश्व निकट आ रहा है उससे अब पता लग रहा है कि सारे विश्व में सभी लोगों की मानसिकता एक जैसी है। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता की याद आ ही जाती है। वैसे एक अध्यात्मिक और सामयिक लेखक होने के नाते दोनों विषयों को मिलाना नहीं चाहिए पर आदमी की प्रवृत्तियों का क्या करें? जो हर खेल में प्रकट होती हैं और उनकी पहचान श्रीगीता में वर्णित प्रकृत्तियों से मेल खाती है। आदमी में दैवीय और आसुरी प्रवृत्तियां होती हैं। दैवीय प्रकृत्ति जहां सत्कर्म में लगाती है वहीं आसुरी प्रकृत्ति प्रमाद, मोह, लोभ तथा काम की तरफ ही प्रेरित करती है। ऐसे में हमें अपना अध्यात्मिक ज्ञान स्वर्ण संदेशों से सराबोर दिखाई देता है और उनका उल्लेख करने को लोभ व्यंग्य लिखते हुए भी छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
मान लीजिये ऑक्टोपस ज्योतिषी यान पॉल बाबा की भविष्य सही साबित भी हुई और स्पेन जीत गया तो भी हम उसे दैवीय नहीं आसुरी चमत्कार मानेंगे। साफ कहें तो कहीं न कहीं फिक्सिंग    का संदेह होगा। कभी कभी तो लगता है कि अध्यात्मिक लेखक होने के नाते हास्य व्यंग्य जैसी रचनायें न लिखें पर ज्योतिष तो वैसे भी अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ा विषय माना जाता है और जब उसको लेकर हास्यास्पद स्थिति बनायी जाये तो फिर उस पर लिखा भी वैसा ही जा सकता है। अब खेलों में भविष्यवाणी हो रही है तो कहना ही पड़ता है कि भविष्यवाणी एक खेल हो गया है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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क्रिकेट प्रतियोगिता के लाभार्थियों के नाम जानना भी जरूरी-हिन्दी लेख (cricket and terrism-hindi article)


आखिर सच कहने में बुद्धिजीवी लोग डर क्यों रहे हैं? विश्व भर में फैला आतंकवाद-चाहे भले ही वह जाति, भाषा, धर्म तथा क्षेत्रवाद का लबादा ओढ़े हुए हो-अवैध धन के सहारे चल रहा है। कहीं कहीं तो उसके सरगना स्वयं ही अवैध धंधों  में  लिप्त हैं और कहीं ऐसे धंधे  करने वालों से सुरक्षा और न्याय प्रदान कर फीस के रूप में भारी धन वसूल करते हैं।
अभी भारत में क्रिकेट की क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में विदेश स्थित एक माफिया के पैसा लगे होने की बात सामने आ रही है। एक पूर्व सरकारी अधिकारी ने तो यह तक आरोप लगा दिया कि इस प्रतियोगिता में  शामिल टीमों के स्वामी उस माफिया के एजेंट की तौर पर काम कर रहे हैं जिस पर देश के अन्दर आतंकवादियों को आर्थिक सहायता देने का आरोप है।
सच तो यह है कि संगठित प्रचार माध्यम-टीवी चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकायें-जहां इस प्रतियोगिता के विज्ञापनों से लाभान्वित होकर इसे अधिक महत्व दे रहे हैं पर उंगलियां इशारों में उठा रहे हैं। इस प्रतियोगिता में काले पैसे को सफेद करने के प्रयास तथा मैचों पर सट्टेबाजों की पकड़ होने के आरोप इन्हीं प्रचार माध्यमों में लगे हैं। मगर यह काफी नहीं है। धन कहां से आया इस पर तो कानून की नज़र है पर अब इस बात पर भी चर्चा करना चाहिये कि यह धन जा कहां रहा है। जो लोग प्रत्यक्ष इससे लाभान्वित हैं उन पर सरकार के आर्थिक विषयों से संबंधित विभाव कार्यवाही करेंगे पर जिनको अप्रत्यक्ष से लाभ मिला उनको देखा जाना भी जरूरी है।
जिन अपराधियों और माफियाओं पर भारत में आतंकवाद के प्रायोजित होने का आरोप है उन्हीं का पैसा इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में लगे होने का आरोप है। इसका आशय यह है कि वह यहां से पैसा कमा कर फिर आतंकवादियों को ही देंगे। जिन सफेदपोशों पर इन माफियाओं से संबद्ध होने का आरोप है स्पष्टतः वह भी इसी दायरे में आते हैं।
याद रखिये अमेरिका में 9/11 हमले में कल्कत्ता के अपहरण कांड में वसूल की गयी फिरौती का धन लगने का भी आरोप लगा था। उसके बाद भारत में भी 26/11 के हमले में भी हमलावारों को माफिया और अपराधी के द्वारा धन और हथियार देने की बात सामने आयी। जब भारत में आतंकवाद फैलाना तथा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से संबंध रखना अपराध है तब आखिर वह सफेदपोश लोग कैसे उससे बचे रह सकते हैं। इस तरह की चर्चा में संगठित प्रचार माध्यम इन सफेदपाशों पर इस तरह उंगली उठाने से बच रहे हैं क्योंकि यह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष रूप से उनके विज्ञापनों का आधार है। जब किसी आतंकवादी की सहायता को लेकर कोई सामान्य आदमी पकड़ा जाता है तो उसकी खूब चर्चा होती है पर जिन पर आतंकवादियों के घोषित भामाशाह के होने का आरोप है उनसे प्रत्यक्ष साझेदारी के संबंध रखने वालों की तरफ कोई भी उंगली नहीं  उठती। इतना ही नहीं उस अपराधी के दरबार में नृत्य कर चुके अनेक अदाकार तो जनप्रतिनिधि होने का भी गौरव प्राप्त कर चुके हैं।
संगठित प्रचार माध्यमों के ही अनुसार इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता से देश के अनेक युवक सट्टा खेलकर बर्बाद हो रहे हैं। इस पर चिंता होना स्वाभाविक है। अगर प्रतियोगिता में ऐसा हो रहा है तो उसे रोका जाना चाहिए। मगर इस बात की भी जांच करना चाहिए कि इसका लाभ किसे मिल रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस देश में कहीं कोई आर्थिक लेनदेन करने पर अपना सरकार की नज़र से छिपाने का प्रयास नहीं  करना चाहिऐ। विनिवेश गुप्त रखना वह भी राज्य से कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। दान गुप्त हो सकता है पर देने वाला अपना नाम रख सकता है लेने वाले को इससे बरी नहीं किया जा सकता। जिस तरह इन टीमों के स्वामियों के नाम पर गोपनीयता बरती गयी हैं वह उसे अधिक संदेहपूर्ण बनाती है। कथित रूप से क्रिकेट को सभ्य लोगों का खेल कहा जा सकता है पर इसके धंधेबाज केवल इसलिये सभ्य नहीं हो जाते।
जिस तरह संगठित प्रचार माध्यम इस घटना पर नज़र रखे हुए हैं और केवल आर्थिक पक्ष पर ही अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं उससे तो लगता है कि उनमें अनुभव की कमी है या अपने सफेदपोश दानदाताओं-अजी, इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में कथित रूप से चैरिटी भी शामिल की गयी है इसलिये हम विज्ञापनदाताओं को इस नाम से भी संबोधित कर सकते हैं-के मासूम चेहरे देखकर आतंक जैसा घृणित शब्द उपयोग  करने से बच रहे हैं। जबकि सच यही है कि अगर इस प्रतियोगिता में काला धन है, काले लोग कमाई कर रहे हैं और सफेदपोश उनके अभिकर्ता की तरह काम रहे हैं तो यह भी देखा जाना चाहिए कि उनकी कमाई का हिस्सा आतंकवादियों के पास भी जाता है। कभी कभी यह बात अपने सफेदपोशों को बता दिया करें कि उनकी इस मासूम चेहरे पर हमेशा ही नहीं पिघला जा सकता है क्योंकि जिस काले आदमी से उनके संबंधों की बात आती है और हर कमाऊ धंधे में उसका नाम जुड़े होने के साथ ही उस आतंकवादियों का प्रायोजक होने की भी आरोप हैं।

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खून और पानी-हिन्दी शायरी (khoon aur pani-hindi shayri)


जमीन पर बिखरे खून पर भी
अपने ख्यालों की वह तलवार चलायेंगे,
कातिलों से जिनका दिल का रिश्ता है
वह उनके जज़्बातों का करेंगे बखान
लाश के चारों ओर बिखरे लाल रंग को
पानी जैसा बतायेंगे।
———-
गम भी बिकता है तो
खुशी भी बाजार में सजती है।
खबरफरोशों को तो बस
खबर परोसने में आती मस्ती है।
पेट की भूख से ज्यादा खतरनाक है
परदे पर चमकने का लालच
मांगने पर भीख में रोटी मिल सकती है
पर ज़माने में चांद जैसे दिखने के लिये
सौदागरों की चौखट पर जाना जरूरी है
उनके हाथ के नीचे ही इज्जत की बस्ती है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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सोचने पर उठता है दिल में तूफान-हिन्दी शायरी (dil ka toofan-hindi shayri)


खून दूसरे का बहे
दर्द किसे होता है,
टूटते हैं जिनके घर
उनकर ही दिल रोता है।

अब तो किसी से हमदर्दी
जताते हुए भी डर लगता है
क्योंकि यहां हर हमदर्द भी
शक के दायरे में होता है।

जो बसे है ऊंचे शानदार महलों में
कौन नज़र डाले, उनके किले के फलों में
सड़कों में बहे खून, वह क्यों करेंगे परवाह
उनकी नज़र में, पैदल आदमी मवाद होता है।

सूख गये रोते कराहते हुए आंखों के आंसु
किसी का खून बह जाय,े
या दर्द सड़क पर टपक आये,
सोचने पर उठता है दिल में तूफान
इसलिये दिमाग लंबी तानकर सोता है।
———
अभी उनका खून बहा है
कमजोरों ने सारा दर्द सहा है
यह न समझना, तुम बच जाओगे।
पीठ पीछे वार करने वालों से
पीठ फेरने वालो,
उनके निशानों की तारीफ कर इतराने वालों
एक दिन खंजर की जद में तुम भी आओगे।
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आर्थिक और बौद्धिक विकास के साथ बढ़ता अपराध-हिन्दी लेख (devlopment and crime-hindi article)


क्या गजब समय है। पहले लूट की खबरें अखबारों में पढ़ते थे। फिर टीवी चैनलों पर यह लुटने वाले लोगों के और कभी कभी लुटेरों के बयान सुनते और देखते थे। अब तो लूट के दृश्य बिल्कुल रिकार्डेड देखने को मिलने लगे हैं जो लूट के स्थान पर लगे कैमरों में समा जाते हैं-इनको सी.सी.डी. कैमरा भी कहा जाता है।
पहले जयपुर में और अब मुंबई के एक जौहरी के यहां ऐसे लूट की फिल्में देखने को मिलीं। इस संसार में अपराध कोई नया नहीं है और न ही खत्म हो सकता है पर व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह तो उठते ही है न! कहा जाता है कि
इधर उधर की बात न कर, बता यह काफिले क्यों लुटे,
राहजनों की राहजनी का नहीं, रहबर की रहबरी का सवाल है।
दूसरी बात यह है कि अपराध के तौर तरीके बदल रहे हैं। उससे अधिक बदल रहा है अपराध करने वाले वर्ग का स्वरूप! पहले जब हम छोटे थे तब चोरी, डकैती, तथा पारिवारिक मारपीट के अपराधों में उस वर्ग के लोगों के नाम पढ़ने और सुनने को मिलते थे जिनको अशिक्षित, निम्न वर्ग तथा श्रमिक वर्ग से संबंधित समझा जाता था। अब स्थिति उलट होती दिखती है-शिक्षित, उच्च,धनी वर्ग तथा बौद्धिक समुदाय से जुड़ें लोग अपराधों में लिप्त होते दिख रहे हैं और कथित रूप से परंपरागत निम्न वर्ग उससे दूर हो गया लगता है। कम से कम बरसों से समाचार पत्र पढ़ते हुए इस लेखक का तो यही अनुभव रहा है। ऐसे में देश के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक विकास को लेकर भी तमाम तरह के प्रश्न उठते हैं।
वैसे एक बात दूसरी भी है कि विकास का अपराध से गहरा संबंध है-कम से कम विकसित पश्चिमी देशों के अपराधों का ग्राफ देखकर तो यही लगता है और भारत के सामान्य लोगों को भी यह सब देखने के लिये तैयार हो ना चाहिए। जब समाज अविकसित था तब लोग मजबूरी वश अपराध करते थे पर विकास होते हुए यह दिख रहा है कि मजबूरी की बजाय लोग एय्याशी तथा विलासिता की चाहत पूरी करने के लिये ऐसा कर रहे हैं। इधर ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिले कि क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले भी इस तरह के अपराध करने लगे हैं। क्रिकेट के सट्टे का अपराध तथा सामाजिक संकट में क्या भूमिका है इसका आंकलन किया जाना चाहिऐ और स्वैच्छिक संगठनों को इस पर सर्वे अवश्य करना चाहिये क्योंकि जिस तरह समाचार हम टीवी और अखबारों में पढ़ते हैं उससे लगता है कि कहंी न कहीं इसके दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।
जिन लोगों को सी.सी.डी कैमरे पर लूटपाट करते हुए देखा वह कोई लाचार या मजबूर नहंी लग रहे थे। विकास के साथ अपराध आधुनिक रूप लेता है, ऐसा लगने लगा है। विकास होने के साथ समाज के एक वर्ग के पास ऐशोआराम की ढेर सारी चीजें हैं। दूसरी बात यह है कि धन का असमान वितरण हो रहा है। संक्षिप्त मार्ग से धनी बनने की चाहत अनेक युवकों को अपराध की तरफ ले जा रही है। फिर दूसरी बात यह है कि अपराधियों का महिमा मंडन संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा ऐसा किये जा रहा है जैसे कि वह कोई शक्तिशाली जीव हैं। इधर फिल्मों में अपराधों से लड़ने वाले सामान्य नागरिकों को बुरा हश्र दिखाकर आदमी आदमी को डरपोक बना दिया है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अनेक फिल्में तो अपराधियों के पैसे से उनका रास्ता साफ करने के लिये बनी। यही कारण है वास्तविकस दृश्यों इतने सारे लोगों के बीच अपराधी सभी को धमका रहा है पर कोई उसका प्रतिरोध करने की सोचता नहीं दिखता। अगर ऐसी में भीड़ पांच लोग ही आक्रामक हो जायें तो लुटेरों की हालत पस्त हो जाये पर ऐसा होता नहीं। इसका कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को कायर बनाती है और ऐसे में वह या तो सब कुछ होते हुुए देखता है या करता है। करता इसलिये है कि उसे पता है कि यहां कायरों की फौज खड़ी है और खामोश इसलिये रहता है कि कहीं इस तरह युद्ध करने की प्रेरणा ही लोगों को नहीं मिलती। फिर समाज का ढर्रा यह है कि वह बहादूरों के लिये सम्मानीय न रहा है। अनेक बार देश के सैनिकों की विधवाओं के बुरे हालों को समाचार आते रहते हैं तब मन विदीर्ण हो जाता है। दरअसल अपराध का संगठनीकरण हो गया है और कहीं न कहीं उसे आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य आधारों पर खड़े शिखर पुरुषों का संरक्षण मिल रहा है। अनेक शिखर पुरुष तो सफेदपोश बनकर घूम रहे हैं और उनके मातहत अपराध कर उनकी शरण में चले जाते हैं। ऐसे में सामान्य आदमी यह सोचकर चुप हो जाता है कि घटनास्थल अपराधी को तो यहां निपटा दें पर उसके बाद उसके आश्रयदाता कहीं बदला लेने की कार्यवाही न करें।
सामान्य आदमी की निष्क्रियता के अभाव में ऐसे अपराध रोकना संभव नहीं है क्योंकि सभी जगह आप पुलिस नहीं खड़ा कर सकते। ऐसे में समाज चेतना में लगे संगठनों को अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि किस तरह सामान्य नागरिक की भागीदारी अपराधी को रोकने के लिये बढ़े। इसके लिये यह जरूरी है कि अपराध करना या उसको प्रश्रय देना एक जैसा माना जाना चाहिये। इसके साथ ही अपराध रोकने वाली संस्थाओं को इस बात के लिये प्रेरित करना चाहिये कि वह अपराधियों से लड़ने वालो नागरिकों को संरक्षण दें तभी विकास दर के साथ अपराधों की बढ़ती दर पर अंकुश लग सकेगा।
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आज हनुमान जयंती-सेवा भाव से भी श्रेष्ठता प्राप्त होती है (today hanuman jayanti-vishesh hindi lekh)


आज पूरे भारत में हिन्दुओं के प्रिय इष्ट श्री हनुमान जी की जयंती मनाई जा रही है। महर्षि बाल्मीकि जी द्वारा लिखा ‘रामायण’ हो या श्री तुलसीदास जी द्वारा लिखी गयी ‘रामचरित मानस’, किसी भी रामकथा में श्री हनुमान जी को भगवान श्रीराम के तुल्य ही नायक की तरह मान्यता प्राप्त है। भगवान श्रीराम के चरित्र की व्याख्या करने वाले ग्रंथ उनके नाम पर होने के बावजूद उनको अपने समय के एकल नायक के रूप में स्थापित नहीं करते क्योंकि उनकी सेवा का व्रत लेने वाले हनुमान जी अपने स्वामी के समकक्ष ही खड़े दिखते हैं।
बुद्धि और शक्ति के समन्वय का प्रतीक श्रीहनुमान जी मर्यादा के विषय में भी अपने स्वामी भगवान श्रीराम के समान थे। लंका दहन के बाद उन्होंने जब श्रीसीता जी को पुनः दर्शन किये तो उनसे अपनी पीठ पर चढ़कर श्रीराम के यहां चलने का आग्रह किया। देवी सीता ने अस्वीकार कर दिया। श्रीहनुमान जी जानते थे कि वह एक प्रतिव्रता स्त्री हैं और उनके आग्रह को स्वीकार नहंी करेंगी। दरअसल वह भी श्रीसीता जी की तरह यही चाहते थे कि भगवान श्रीराम अपने पराक्रम से रावण को परास्त कर श्रीराम को साथ ले जावें। उन्होंने यह आग्रह औपचारिकता वश कर अपनी मर्यादा का ही परिचय दिया था। हालांकि वह मन ही मन चाहते थे कि श्रीसीता उनका यह आग्रह अस्वीकार कर दें।
भगवान श्रीराम से मैत्री कर अपने ही भाई का वध कर राज्य प्राप्त करने वाले श्रीमान् सुग्रीव जब अपने सुख सुविधाओं के भोग में इतने भूल गये कि उन्हें भगवान श्रीराम के कर्तव्य का स्मरण ही नहीं रहा, तब श्रीहनुमान अनेक बार उनको संकेतों में अपनी बात कहते रहे। इसके बावजूद भी उन्होंने सेवक होने की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। उनका ही यह प्रभाव था कि लक्ष्मण के श्रीराम के आदेश पर कुपित होने पर किष्किंधा आने से पहले ही श्रीसुग्रीव ने अपनी सेना को एकत्रित होने का आदेश दे दिया था। जब श्रीलक्ष्मण किष्किंधा पहुंचे तब श्रीहनुमान जी ने सुग्रीव की सफाई देते हुए उनको यही तर्क देकर शांत किया था। इससे पता लगता है कि श्रीहनुमान जी न केवल दूरदृष्टा थे बल्कि राजनीतिक विशारद भी थे।
भारतीय जनमानस में उनको नायकत्व की छबि प्राप्त होने का एक दूसरा कारण भी है कि उसमें वर्णित अधिकतर पात्र राजशाही पृष्ठभूमि के हैं पर श्रीहनुमान आम परिवार के थे। बाकी सभी लोगों ने कहीं न कहीं राजशाही का उपयेाग किया पर श्रीहनुमान जी सदैव सेवक बनकर डटे रहे। उनकी सेवा की इतनी बड़ी शक्ति थी कि उनके स्वामी पहले सुग्रीव और बाद में भगवान श्रीराम उनको समकक्ष दर्जा देते थे। भगवान हनुमान की यह सेवा कोई व्यक्तिपूजा का प्रतीक नहीं थी क्योंकि वह धर्म स्थापना के लिये तत्पर अपने स्वामियों की सहायता कर रहे थे। उनकी यह सेवा निष्काम थी क्योंकि उन्होंने कभी इसका लाभ उठाने का प्रयास नहीं किया। जब सुग्रीव को बालि ने घर से निकाला तब श्रीहनुमान जी भी उनके साथ हो लिये। दरअसल वह सुग्रीव का नहीं बल्कि न्याय का पक्ष ले रहे थे। उसी तरह भगवान श्रीराम के लिये उन्होंने रावण सेना का संहार कर रावण द्वारा श्रीसीता के हरण का बदला ले रहे थे। उनका यह श्रम नारी अनाचार के प्रतिकार के रूप में किया गया था। कहने का अभिप्राय यह है कि श्रीहनुमान ‘सत्य, न्याय और चरित्र’ की स्थापना के लिये अवतरित हुए। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि उन्होंने धर्म स्थापना के लिये अपना पूरा जीवन लगा दिया। यही कारण है कि उनको राम कथा में लक्ष्मण से भी अधिक सम्मानीय माना गया। श्रीलक्ष्मण तो भाई होने के कारण श्रीराम के साथ थे पर हनुमान जी तो कोई पारिवारिक संबंध न होते हुए भी इस धरती पर धर्म स्थापना के लिये उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे। धर्म स्थापना के लिये सामुदायिक अभियान आवश्यक हैं यही उनके चरित्र से संदेश मिलता है।
हनुमान जयंती पर उनका स्मरण करते हुए यह चर्चा करना अच्छा लगता है। खासतौर से जब शारीरिक श्रम की महत्ता कम होती जा रही है और सेवा भाव को निम्न कोटि का माना जाने लगा है तब लोगों को यह बताना आवश्यक है कि इस संसार का संचालन उपभोग प्रवृत्ति के लोगोें की वजह से नहीं बल्कि निष्काम भाव से परिश्रम और सेवा करने वालों के कारण ही सहजता से हो रहा है। इस अवसर पर श्रीहनुमान को नमन करते हुए अपने ब्लाग लेखक मित्रों, पाठकों तथा देशवासियों को बधाई।

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अपने को अनमोल रत्न बताते-हिन्दी व्यंग्य शायरियां (anmol ratna-hindi comic poem)


वादों का व्यापार
दिल बहलाने के लिये किया जाता है,
मतलब निकल जाये तो
फिर निभाने कौन आता है।
———–
विषयों को भूल जाना
उनके सोचने का तरीका है।
अपनी कहते रहते हैं
सुनने का नहीं उनको सलीका है।
———–
बहसों को दौर चले
जाम टकराते हुए।
अपनी अपनी सभी ने कही
मुंह खुले पर कान बंद रहे,
इसलिये सब अनुसने रहे,
जब तक रहे महफिल में
लगता था जंग हो जायेगी,
पहले से तयशुदा बहस
परस्पर वार करायेगी,
पर बाहर निकले दोस्तों की तरह
बाहें एक दूसरे को पकड़ाते हुए।
———–
कोई खरीदता तो
वह भी सस्ते में बिक जाते,
नहीं खरीदा किसी ने कौड़ी में भी
इसलिये अब अपने को अनमोल रत्न बताते।

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अपना अपना दृष्टिकोण-व्यंग्य आलेख (apna apna drishtikon-hindi satire article)


आस्ट्रेलिया के एक पुलिस अधिकारी ने भारतीयों को हमले से बचने के लिये गरीब दिखने की सलाह क्या दी, उस पर भारत के बुद्धिजीवी समुदाय में  बावेला मच गया है।  कोई इस सलाह को लेकर  उसकी नाकामी पर बरस रहा है तो कोई उसे बेवकूफ बता रहा है।  अपनी समझ में उसने एक बहुत गज़ब का विचार व्यक्त किया है। दरअसल यह कोई उसका विचार नहीं बल्कि यह तो पुराना ही दर्शन है। अगर अपनी रक्षा करनी है तो उसके लिये सबसे पहला उपाय स्वयं को ही करना है पर विकासवादियों की संगत में सभी प्रकार के बुद्धिजीवियों की सोच केवल अब इसी बात पर रहती है कि ‘आदमी चाहे कैसे भी चले,, उसे रास्ता या अदायें बदलने की सलाह देना उसकी आजादी का उल्लंघन है क्योंकि हर आदमी को सुरक्षा देना राज्य का काम है।’
इस प्रवृत्ति ने लोगों को अपंग बना दिया है और न तो कोई अपनी रक्षा के लिये शारीरिक कला में रुचि लेता है और न ही इस बात का प्रयास करता है कि उसकी संपत्ति भले ही कितनी भी क्यों न हो, पर उसका प्रदर्शन न करें ताकि अभावों से ग्रसित आसपास के लोगों के समुदाय में कुंठा का भाव न आये-यही भाव अंततः धनपति समाज के प्रति कभी निराशा के रूप में अभिव्यक्त होता है तो कभी क्रोध से उपजी हिंसा के रूप  मे।
मगर नहीं! भारत में बहुत कम लोग हैं जिनको ऐसी सलाह का मतलब समझ में आयेगा। वैसे उस आस्ट्रेलियाई पुलिस अधिकारी के अज्ञान पर तरस भी आ रहा है। वह किसी अफ्रीकी देश के लोगों को कहता तो समझ में आ सकता था मगर भारतीयों को ऐसी सलाह उसने यह विचार किये बिना ही दी है कि यहां के लोग पैसा कमाते ही इसलिये है कि उसका प्रदर्शन कर दूसरों के मुकाबले अपने आपको श्रेष्ठ साबित करें।  एक आदमी को जिंदा रहने के लिये क्या चाहिये! पेट भर रोटी, पूरा तन ढंकने के लिये कपड़े-यहां फैशन से कम कपड़ा पहनने वालों की बात नहीं हो रही’-और सिर ढंकने के लिये छत।  देश में हजारों मजदूर परिवार हैं जो  ईंटों के कच्चे घर बनाकर रहते हैं।  उनकी बीवियां सुबह उठकर खाना बनाती हैं, बच्चे पालती हैं और फिर पति के साथ ईंटें और रेत ढोने का भी का करती हैं  फिर भी  वह उनके चेहरा पर संतुष्टि के भाव रहते  हैं।  यही कारण है कि भारत का ऐसा मजदूर वर्ग  बाजार और प्रचार के लक्ष्य के दायरे से बाहर का समाज है।  अपने यहां एक अभिनेता सभी संतुष्टों को असंतुष्ट होने का संदेश एक विज्ञापन में देता है।  ‘डोंट बी संतुष्ट’ का नारा लगाने वाले  अभिनेता के उस विज्ञापन का लक्ष्य तो केवल वह लोग हैं जिनका पैसे के मामलें में हाजमा खराब है।  यही कारण है कि उसके संदेश का आशय यही है कि आदमी को कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिये, बल्कि असंतुष्ट होकर खरीददारी करना चाहिए।
हमारे देश के टीवी चैनल, फिल्में और रेडियो ऐसे असंतोष फैलाने वाले संदेशवाहक की छबि बनाने में जुटे हैं। सभी जानते हैं कि इस तरह के  का प्रभाव हमारे देश के लोगों के दिमाग पर होता है-टीवी, फिल्म और रेडियो के प्रभाव सभी जानते हैं।
लोग बाहर जा इसलिये ही रहे हैं कि उनमें असंतोष है।  हालत यह है कि बाहर जाने के लिये लोग पैसा खर्च कर रहे हैं। यह राशि इतनी अधिक होती है कि अनेक माध्यम और गरीब लोग यह सोचते हैं कि इतना पैसा होने पर वह स्वयं विदेश जाने की तो सोचते ही नहीं।
ऐसे धनाढ्य लोग इतना पैसा देश में रखकर क्या करेंगे? फिर इधर कर वसूलने वालों की नज़रे भी लगी रहती हैं। इसलिये कोई पैसा बाहर भेज रहा है तो कोई खुद ही जा रहा है। कहीं पैसे को अपने पीछे कोई छिपा रहा है तो कोई पैसे के पीछे छिप रहा है। 
देश में आदमी दिखाता है कि ‘देखो फारेन जा रहा हूं।’  उधर आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और अमेरिका में भी वह अपनी दौलत दिखाता है यह प्रदर्शित करने के लिये कि उसे वहां के लोग ऐरा गैरा भारतीय न समझें।  हमारे देश के एक माननीय व्यक्ति ने बस इतना कहा कि ‘भारत के छात्र ऐसे विषयों के लिये बाहर जाते ही क्यों है, जो यहां भी उपलब्ध हैं। जैसे बच्चों की हजामत बनाना या बीमारों की सेवा करना।’
उस पर भी बावेला मच गया।  मतलब समझाओ नहीं!  हमारे पास इतना पैसा है उसका प्रदर्शन न करें तो फिर फायदा क्या, पता नहीं वह कैसे (?) तो कमाया है? यहां खर्च नहीं कर सकते क्योंकि टैक्स बचाने से अधिक यह बताने की चिंता है कि वह आया कहां से?’ बाहर जाने पर   ऐसी समस्या नहीं आती है पर वहां भी उसका दिखावा न करें तो इतना पैसा हमने या हमारे पिताजी ने  कमाया किसलिए?
इस मामले में हमारे बुजुर्गों ने जो सिखाया सादगी और चालाकी का पाठ  याद आता है।   यह लेखक  अपने ताउजी के साथ दूसरे शहर जा रहे था।  उनके पास बड़ी रकम थी-आज वह अधिक नहीं दिखती पर उस समय कोई कम नहीं  थी। उन्होंने लेखक को बताया कि उनका पैसा एक पुराने थैले में है जिसमें खाने का सामान रखा है जिसका उपयोग वह बस में ही करेंगे।
अटैची उन्होंने अपने हाथ में पकड़कर  रखी पर थैला टांग दिया।  कभी कभी वह थैले से  सामान निकालते और फिर उसे वहीं टांग देते।  ऐसे दिखा रहे थे की जैसे उनको थैले की परवाह ही नहीं है
अनेक बार हम बस से दोनों साथ उतरे और वह इतनी  बेपरवाही से चल रहे थे कि किसी को अंदाज ही नहीं हो सकता था कि उनके उस पुराने मैले थैले में खाने के सामान के नीचे एक बहुत बड़ी रकम है।   उनसे सीख मिली तो अब हम भी जब बाहर जाते हैं तो अपना कीमती सामान कभी अटैची में न रखकर खाने के सामान के साथ पुराने थैले में रख देते हैं, पर्स तो करीब करीब खाली ही रखते हैं।  कहीं पर्स खोलते हैं तो पांच दस रुपये कागजों से ऐसे निकालते हैं कि जैसे बड़े बुरे दिन से गुजर रहे हैं।
अपना अपना विचार है। हर आदमी इस पर चले या नहीं। आस्ट्रेलिया के उस पुलिस अधिकारी ने सलाह अपने किसी अन्य दृष्टिकोण से दी होगी पर उस पर हमारा भी अपना  एक दृष्टिकोण है? साथ ही यह भी जानते हैं कि अपने देश में बहुत कम लोगों को  इस दृष्टिकोण से संतुष्ट कर पायेंगे? हर शहर में नारियों के गले से मंगलसूत्र या सोने का हार खींच लेने की घटनायें होती हैं पर इससे क्या फर्क पड़ता है! एक गया तो दूसरा आ जाता है।  अनेक बार प्रशासन अपने इशारे अखबार में छपवाता है कि त्यौहार का अवसर है इसलिये थोड़ा ध्यान रखें!’ मगर सुनता कौन है? अपना अपना दृष्टिकोण है

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मकर संक्रांति और सूर्यग्रहण-हिन्दी लेख (makar sakranti, surya grahan, chandra grahan-hindi lekh)


कई लोगों को काम धंधे से फुरसत नहीं मिलती या फिर किसी के पास पैसा नहीं होता कि वह जाकर मकर संक्रांति, सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के अवसर पर पवित्र नदियों में जाकर स्नान करे। अनेक लोग हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और इलाहाबाद नियमित रूप से घूमने जाते हैं पर जब इन शहरों में कुंभ लगता है तो भीड़ के कारण घर ही बैठे रह जाते हैं। कुछ लोग धर्म और विश्वास की वजह से तो कुछ लोग इस भौतिक संसार का आनंद लेने के लिये ही देश में फैली परंपराओं को निभाते हैं जिनको कुछ लोग अंधविश्वास कहते हैं।
पूरे विश्व में श्रीमद्भागवत गीता को हिन्दुओं का ग्रंथ माना जाता है और उसकी उपेक्षा भी की जाती है। बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि सारे संसार का ज्ञान, विज्ञान और मनोविज्ञान उसमें समाया हुआ है। इतना ही नहीं श्रीमद्भागवत गीता को ‘सन्यास’ की तरफ प्रवृत्त करने वाली मानने वालों को पता ही नहीं है कि वह निर्लिप्ता का अभ्यास कराती है न कि विरक्ति के लिये उकसाती है। श्रीगीता में सांख्यभाव-जिसे सन्यास भी कहा जाता है-को कठिन माना गया है। अप्रत्यक्ष रूप से उसे असंभव कहा गया है क्योंकि अपनी आंखें, कान, नाक तथा अन्य इंद्रियां निचेष्ट कर पड़े रहना मनुष्य के लिये असंभव है और वही सांख्यभाव माना जाता है। अगर हमारी देह में इंद्रियां हैं तो वह सक्रिय रहेंगी। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता में इस संसार में मुुक्त भाव से विचरण के लिये कहा गया है यह तभी संभव है जब आप कहीं एक जगह लिप्त न हों। इसलिये सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के अवसर अनेक अध्यात्मिक ज्ञानी अगर पवित्र नदियों पर नहाने जाते हैं तो उन पर हंसना नहीं चाहिये। दरअसल वह ऐसे स्थानों पर जाकर लोगों में न केवल अध्यात्मिक रुझान पैदा करते हैं बल्कि ज्ञान चर्चा भी करते हैं।

इधर देखने को मिला कि कुछ लोग इसे अंधविश्वास कहकर मजाक उड़ा रहे हैं तो उन पर तरस आ रहा है। श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान हर किसी की समझ में नहीं आता और इसलिये यह अधिकार हर किसी को नहीं है कि वह किसी के धाार्मिक कृत्य को अंधविश्वास कहे। अगर कोई पूछता है कि ‘भला गंगा में नहाने से भी कहीं पाप धुलते हैं?’
मान लीजिये हमने जवाब दिया कि ‘ हां!’
तब वह कहेगा कि ‘साबित करो।’
इसके हमारे पास दो जवाब हो सकते हैं उसका मुंह बंद करने के लिये! पहला तो यह कि ‘तुम साबित करो कि नहीं होते हैं।’
दूसरा जवाब यह है कि ‘तुम एक बार जाकर नहाकर देखो, तुम्हें अपने पाप वहां गिरते दिखेंगे।’
एक मजे की बात यह है कि अनेक ऐसे बुद्धिमान लोग हैं जो भक्तों का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि ‘तुम्हें तो सारा ज्ञान है फिर माया के चक्कर में क्यों पड़ते हो? यह तो हम जैसे सांसरिक लोगों का काम है।

इसका एक ही जवाब है कि ‘अगर यह देह है तो माया का घेरा तो रहेगा ही। अंतर इतना है कि माया तुम्हारे सिर पर शासन करती है और हम उस पर। तुमने पैसा कमाया तो फूल जाते हो पर हम समझते हैं कि वह तो दैहिक जरूरत पूरी करने के लिये आया है और फिर हाथ से चला जायेगा।’
कहने का अभिप्राय है कि देश का हर आदमी मूर्ख नहीं है। लाखों लोग जो मकर संक्रांति और सूर्यग्रहण पर नदियों में नहाते हैं वह हृदय में शुचिता का भाव लिये होते हैं। हिन्दू धर्म में अनेक कर्मकांड और पर्व मनुष्य में शुचिता का भाव पैदा करने के लिये होते हैं। एक बात दूसरी भी कि अपने यहां यज्ञ और हवन आदि होते हैं। अगर हम ध्यान से देखें तो हमारे अधिकतर त्यौहार मौसम के बदलाव का संकेत देते हैं। मकर संक्रांति के बाद सूर्य नारायण उत्तरायण होते हैं। इसका मतलब यह है कि अब गर्मी प्रारंभ होने वाली है। वैसे हमारे यहां यज्ञ हवन सर्दी में ही होते हैं। इसका कारण यह है कि अग्नि के कारण वैसे ही देह को राहत मिलती है दूसरे मंत्रोच्चार से मन की शुद्धि होती है। अब कहने वाले कहते रहें कि यह अंधविश्वास है।
मकर संक्रांति के अवसर पर तिल की वस्तुओं को सेवन किया जाता है जो सर्दी के मौसम में गर्मी पैदा करने वाली होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि हिन्दू धर्म के समस्त त्यौहारों के अवसर सेवन की जाने वाली वस्तुऐं शाकाहारी होती हैं।
कुंभ के दौरान, सूर्यग्रहण और चंद्रगहण के अवसर पर नदियों के किनारे लगने वाले मेले अंधविश्वास का नहीं बल्कि सामुदायिक भावना विकसित करने वाले हैं। अब तो हमारे पास आधुनिक प्रचार साधन हैं पर जब यह नहीं थे तब इन्ही मेलों से धार्मिक, अध्यात्मिक तथा सामाजिक संदेश इधर से उधर प्रेषित होते होंगे। देश में जो संगठित समाज रहें हैं उनमें एकता का भाव पैदा करने में ऐसे ही सामूहिक कार्यक्रमों का बहुत महत्व रहा है।
अब रहा अंधविश्वास का सवाल! इनको अंधविश्वास कहने वाले इनसे मुंह क्यों नहीं फेरते? वह समाज में क्या चेतना ला रहे हैं? कतई नहीं! उनके पास कलम, माईक और कैमरा है इसलिये चाहे जो मन में बकवास है वह कर लें क्योंकि उनका अज्ञान और कमाई का लोभ कोई नहीं दूर सकता। कम से कम श्रीमद्भागवत गीता के संदेश से सराबोर यह समाज तो बिल्कुल नहीं है जो धर्म के नाम पर मिलने वाले आनंददायी अवसर पर समूह के रूप में एकत्रित होता है ऐसी बकवास की परवाह किये बिना। दूसरे यह भी कि श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों को अपना ज्ञान सुनाने का आदेश दिया है। ऐसे में आलोचना करते हुए चीखने वाले चीखते रहें कि यह अंधविश्वास है।’
कहने का तात्पर्य यह है धर्म को लेकर बहस करने वाले बहुत हैं। इसके अलावा हिन्दुओं पर अंधविश्वासी होने को लेकर तो चाहे जो बकवास करने लगता है। मुश्किल यही है कि उनका प्रतिकार करने वाले श्रीगीता का ज्ञान नहीं रखते। हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां के लोगों के खून में श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान ऐसा रचाबसा है कि वह किसी की परवाह न कर अपने कार्यक्रम में लगे रहते हैं। कम से कम मौत का गम इस तरह नहीं मनाते कि हर बरस मोमबती जलाकर उन पत्थरों पर जलायें जिनसे मुर्दानगी का भाव मन में आता है। हिन्दू पत्थरों के भगवान को पूजते हैं पर याद रहे उसमें जीवंतता की अनुभूति होती है। मृत्यु सभी की होनी है पर उसका शोक इतना लंबा नहीं खींचा जाता है। जीवन लंबा होता है उसके लिये जरूरी है कि आदमी के अंदर जिंदा दिली हो। पत्थरों में भगवान मानकर उसे पूजो तो जानो कि कैसे अपने अंदर सुखानुभूति होती है। नदी में धार्मिक नहाकर देखो तो जानो मन में कैसे आनंद आता है-ऐसी पिकनिक भी क्या मनाना जिसकी थकावट अगले दिन तक बनी रहे। मकर संक्रांति के पावन पर्व पर मन में जो चिंतन आया वह व्यक्त कर दिया क्योंकि कुछ परेशानियों की वजह से वह लिख नहीं पाया। वैसे भी हमारा मानना है कि हर काम समय पर सर्वशक्तिमान की कृपा से ही होता है।

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भर्तृहरि नीति शतक-रोजी पाने वाले से प्रणाम पाकर आदमी को अंहकार का बुखार चढ़ जाता है (ahankar ka bukhar-adhyatmik sandesh)


स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।

न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
………………………………..

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

हिंदी भाषा का प्रसार स्वाभाविक रूप से बढ़ेगा-आलेख


भीषण गर्मी के कारण पिछले कई दिनों से लिखने का मन नहीं हो रहा था। आज एक ब्लाग पर श्री बालसुब्रण्यम का पाठ पढ़ते हुए कुछ लिखने का मन हो उठा। उन्होंने अपने पाठ में हिंदी के विश्वभाषा बनने का प्रसंग उठाया था। उन्होंने अपने पाठ में बताया कि एक ईरानी छात्रा ने उनको हिंदी में ईमेल भेजकर उनसे हिंदी के व्याकरण के बारे में कुछ जानना चाहा था। उस ईरानी लड़की ने अंतर्जाल पर ही श्री बालसुब्रण्यम का पता ढूंढा था। श्री बालसुब्रण्यम के अनुसार वह स्वयं एक अनुवादक भी हैं। उन्होंने अपने व्यय पर ही एक किताब उस लड़की को भेज दी। उसका परिणाम भी अच्छा निकला। श्री बालसुब्रण्यम के उस पाठ पर कुछ टिप्पणियों भी थी जो इस का प्रमाण दे रही थी कि हिंदी अब एक विश्व भाषा बनने की तरफ अग्रसर है।

एक टिप्पणीकार ने एक विदेशी विद्वान का यह कथन भी उद्धृत किया कि भारतीयों ने अपने को रामायण और महाभारत की रचनाऐं कर बचाया है। श्रीबालसुब्रण्यम अपने पाठों में अक्सर अच्छी बातें लिखते हैं और जिनसे प्रेरित होकर लिखने का मन करता है।
अगर हम अंग्रेजी और हिंदी पर कोई संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहें तो बस यही कहा जा सकता है कि अंग्रेजी आधुनिक विज्ञान की भाषा है इसलिये उसका प्रचार प्रसार बहुत हुआ पर उसके अविष्कारों से ऊब चुके लोगों को अपने मन की शांति के लिये जिस अभौतिक अविष्कार की आवश्यकता है वह केवल अध्यात्मिक ज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है जिसकी भाषा हिंदी है इसलिये इसका प्रसार बढ़ेगा और इसमें अंतर्जाल भी सहायक होगा।
अंतर्जाल पर इस लेखक द्वारा लिखना प्रारंभ करना संयोग था। सच बात तो यह है कि अपने ब्लाग व्यंग्य, कहानियां और कवितायें लिखने के लिये प्रारंभ किया। इससे पूर्व इस लेखक ने कुछ पत्रिकाओं में प्राचीन गं्रथों और महापुरुषों पर संदेशों की वर्तमान संदर्भों की सार्थकता दिखाते हुए कुछ चिंतन लिखे। वह मित्रों और पाठकों ने बहुत पंसद किया और कुछ तो यह कहते थे कि तुम तो केवल इसी विषय पर लिखा करो। बहरहाल जब अंतर्जाल पर लिखना प्रारंभ किया तो अध्यात्मिक विषयों पर लिखने का मन में ऐसे ही विचार आया। तब उनको छदम नाम ‘शब्दलेख सारथी’ से लिखना शुरु किया। इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि लोग केवल चिंतन लिखने का आग्रह न करें। अध्यात्मिक विषयों पर लिखने से प्रसिद्धि होती है पर सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि तब आपसे सिद्ध होने का प्रमाणपत्र भी मांगा जाता है और यकीनन यह लेखक को कोई सिद्ध नहीं है। इसलिये छद्म नाम से लिखकर अपने मन की इच्छा को संतोष प्रदान करने के अलावा कोई ध्येय नहीं था। वह ब्लाग ब्लागस्पाट था और ऐसा लगा रहा था कि कोई ब्लाग वर्डप्रेस पर भी होना चाहिए तब अपने यथार्थ नाम से बने ब्लाग पर लिखना शुरू किया क्योंकि शैली एक जैसी थी इसलिये ही शब्दलेख सारथी पर भी असली नाम लिख दिया। बहरहाल यह अजीब अनुभव हुआ कि संत कबीर, रहीम, तुलसी, श्रीगीता, योग साधना, चाणक्य, विदुर, मनुस्मृति, तथा कौटिल्य का अर्थशास्त्र जैसे विषयों पर लिखने का मतलब यह होता है कि पाठ पठन और पाठकों के आवागमन की चिंता से मुक्त होना। पहले तो सारे ब्लाग पर ही अध्यात्म विषयों पर लिखा फिर तीन ब्लाग निश्चित कर दिये मगर आम पाठकों तक यह बात नहीं पहुंची और वह कुछ ऐसे ब्लाग पर टिप्पणियों में यह बात कह जाते हैं कि कबीर, रहीम तथा अन्य अध्यात्मिक विषयों पर और भी लिखें।
जहां तक पाठ पठन/पाठकों के आवगमन का प्रश्न है ऐसा कौनसा देश है जहां अध्यात्मिक विषयों वाले ब्लाग नहीं खुलते। उन जगहों पर भी जहां विदेशों में अन्य धर्मों के प्रसिद्ध स्थान हैं। अंगे्रजी टूल पर पढ़ने वाले अपनी प्रतिक्रिया देते हैं तो इस बात पर यकीन करना कठिन होता है कि उसने यह पढ़ा भी होगा। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठ पठन/पाठकों का आवागमन का संख्या में आंकलन किया जाये तो वह प्रतिदिन तेरह से सत्रह सौ के बीच होती है। गूगल की रैंकिंग में चार ब्लाग 4 अंकों के साथ सफलता की तरफ बढ़ रहे हैं इनमें दो केवल अध्यात्म विषयों पर केंद्रित हैं और जो दो अन्य भी है तो उनमें भी उनका योगदान समान रूप से दिखता है।
यह पाठ आत्म प्रचार के लिये नहीं है बल्कि अपना अनुभव मित्र ब्लाग लेखकों और पाठकों के साथ इस उद्देश्य से लिखा जा रहा है कि हिंदी को लेकर अपने मन से कुंठायें निकालें। न केवल अपने मन से भाषा कों लेकर बल्कि अपने धर्म और अपने मूल व्यक्तित्व-जिसको हिंदुत्व भी कह सकते हैं वह भी धर्म को लेकर नहीं-पर कोई कुुंठा न पालें। लोभ, लालच और भौतिकता के भ्रम ने हमें भ्रष्ट कर दिया है पर हमारा अध्यात्म ज्ञान जो कि संस्कृत के साथ अब हिंदी में भी उपलब्ध है दुनियां का सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञान हैं-कृपया इसे उन कर्मकांडों से न जोड़ें जो स्वर्ग में दिलाने के लिये होते हैं।
सच बात है कि हमारा सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान संस्कृत में हैं जिससे अनेक भाषायें पैदा हुई हैं पर हिंदी उसकी सबसे बड़ी बेटी मानी जाती है और उसमें समस्त ज्ञान-निष्काम भाव वाले हिंदी विद्वानों और धनपतियों की वजह से-हिंदी में उपलब्ध है। वैसे ही कुछ विद्वान कहते हैं कि हिंदी एक नयी भाषा है जो अपने पांव पसारेगी न कि सिमटेगी। भारत में विदेशों को देखकर अपनी हिंदी से अंग्रेजी को श्रेष्ठ मानना एक भ्रम है। इस चक्कर में अनेक लोग न तो हिंदी अच्छी सीख पाते हैं न ही अंग्रेजी। वह अच्छा कमा लेते हैं। उनकी इज्जत भी होती है पर उनका जुबान बंद रखना एक अच्छा विचार माना जाता है क्योंकि जब वह बोलते हैं तो समझ में नहीं आता। उनका चेहरा चमकता रहे इससे बाजार में सौदागर कमाते हैं। वह खेलते या दौड़ते हैं तो पैसा बरसता है पर उनके मूंह से शब्द निकलते ही उनके प्रशसंकों को चेहरा उतर जाता है। कम से कम वह विशुद्ध हिंदी भाषियों के समाज में उठने बैठने लायक नहीं रहते। कहा जाता है इस देश में अंग्रेजी केवल दो प्रतिशत लोग जानते हैं पर इस लेखक को शक है कि इसमें भी दो प्रतिशत लोगों को अंग्रेजी अच्छी आती होगी। अलबत्ता उनके हावभाव और शब्दों से दूसरे को बात समझ में आ जाती होगी इसलिये उनको जवाब मिल जाता है। वैसे भी इस लेखक ने अनेक बार टूलों से हिंदी का अंग्रेजी में अनुवाद कर दूसरों को भेजा है और उसका जवाब वैसा ही आया है जैसी कि अपेक्षा थी और इन टूलों के चलते अब अंग्रेजी में लिख पाने या हिंदी लेखक होने की कुंठा नहीं होती। यह यकीन हो गया है कि हिंदी निश्चित रूप से विश्व की भाषा बनेगी क्योंकि यह अध्यात्म की भाषा है। भारत में इसका क्या स्वरूप होगा कहना कठिन है? इस पर फिर कभी।
साभार
हिंदी सचमुच विश्व भाषा बन चुकी है
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भृतहरि: रोजीरोटी कि खोज में जीवन व्यर्थ हो जाता है


हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमध्यिां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः

हिंदी में भावार्थ- परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनकेा बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।
पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः

हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए।
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप