Category Archives: हास्य व्यंग्य

बैचेन रहने की आदत है साहित्यक चोरी देखकर-हिन्दी व्यंग्य (baocjen rahne ki aadat hai sahityak chori dekhkar)


लिखना तथा एक तिवारी जी नामक हिन्दी पटकथा लेखक पर संयोग ऐसा बन गया कि हमें अपना नाम जोड़कर भी इस लेख को लिखना पड़ रहा है क्योंकि इंतजार है उस ब्लाग लेखक के उत्तर का जिसने बिना कांट छांट किये हमारी एक कविता को अपने ब्लाग पर बिना नाम के छाप दिया और हमने उस पर अपनी टिप्पणी लिख कर मामले के निपटारे की मांग की है।
हिन्दी में रचनाकार नहीं है, यह नारा बहुत दिनों से सुन रहे हैं-इस नारे में बाज़ार, राज्य तथा प्रचार व्यवसाय के जुड़े लोगों के जो वह बुद्धिजीवी लगाते हैं जो केवल आलेख लिखते हैं वह भी प्रायोजन मिलने पर। इधर राखी का इंसाफ धारावाहिक विवाद में फंसा तो एक राखी का स्वयंवर धारावाहिक का एक पटकथा लेखक सामने आया जिसने यह दावा किया है कि वह उसकी चुराई हुई है। स्थिति यह है कि उसने आत्महत्या करने की धमकी दे डाली है जैसे कि राखी के इंसाफ में ताने से प्रेरित होकर झांसी के एक लक्ष्मण युवक ने कर ली है।
तिवारी नाम धारी उसे लेखक का दावा था कि जब उसने अपनी पटकथा का होने का दावा किया तो उसे धमकाया गया और कहा गया कि ‘इसकी नायिका एक तरह से पूरे मीडिया की बेटी है। इसलिये उससे पंगा मत लो।’
हमें उस तिवारी नामधारी लेखक से सहानुभूति है। ऐसा लगता है कि वह सच बोल रहा होगा क्योंकि फिल्मों के बारे में मिली यह पहली शिकायत नहीं है। हमारे एक चौरसिया नाम के एक मित्र कहानीकार हैं। उन्होंने कम से कम पच्चीस वर्ष पूर्व एक कलात्मक फिल्म में अपनी कहानी चोरी होने की बात कही थी। तब हंसी आयी थी पर इसमें कोई शक नहीं था चौरसिया जी उच्च दर्जे के कहानीकार हैं। इधर हमने यह भी देखा कि एक अखबार हमारे ही चिंतनों को जस का तस छापता रहा है। जब नाम छापने को कहते हैं कि तो जवाब मिलता है कि ब्लाग का नाम छापने की परंपरा नहीं है। नाम छापने को कहा गया तो जवाब मिला कि अपने संपादक से कहेंगे कि आपकी रचनायें नहीं ले।
कितनी तुच्छ मानसिकता है उन लोगों की जो हिन्दी की खा रहे हैं। हिन्दी लेखक उनकी नज़र में है क्या? क्या खौफ है कि नाम छापेंगे तो लेखक अमिताभ बच्चन बन जायेगा और उसे साबुन, क्रीम या मोटरसाइकिल के विज्ञापन मिलने लगेंगे। मजे की बात है कि नामा न देने की बात स्वीकार तो हिन्दी लेखक कर ही लेते हैं कि क्योंकि उनको पता है कि हिन्दी लेखन और पूंजीपतियों के बीच जो दलाल हैं वह अपना ही पेट मुश्किल से भर पाते हैं पर नाम न देने की बात हमारे समझ में नहीं आयी। स्थिति यह हो गयी है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं के पास अब साफ सुथरी हिन्दी लिखने वाले ही नहीं बचे। महंगाई बढ़ रही है कि हिन्दी के अखबार की कीमत आज भी दो ढाई रुपये से अधिक नहीं है। अब तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लिये पाठक और दर्शक एक तरह से गूंगी फौज हो गयी है जिसके सहारे वह उच्च स्तर पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं वरना आम आदमी में उनकी कोई पकड़ नहीं है। आजकल तो हर आदमी टीवी की तरह मुंह किये बैठा है। इसलिये ही स्थानीय स्तर पर टीवी चैनलों ने अपने पंाव फैला दिये हैं। अखबार छपने की संख्या और उसे पढ़ने वालों की संख्या में बहुत अंतर है। उससे भी अधिक अंतर तो पढ़ने वाले और उस अखबार से हमदर्दी रखने और पढ़ने वालों के बीच है। मतलब यह कि पहले लोग न केवल अखबार पढ़ते थे बल्कि उसे मानसिक हमदर्दी भी रखते थे। यह अब नहंी है।
हिन्दी ब्लाग पर लिखना और लिखवाना आसान नहीं है। अगर किसी लेखक से लिखने को कहो तो वह कहता है कि रचना चोरी हो जायेगी। मतलब यह कि लिखने को तैयार नहीं है और जो लिख रहे हैं वह चोरी का शिकार हो रहे हैं। लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी के ब्लाग केवल ब्लाग लेखक ही पढ़ रहे हैं और अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। जबकि इस लेखक के गांधी और ओबामा पर लिखे पाठों के अनेक एक स्तंभकार ने चोरी किये जो कि इसका प्रमाण है कि कथित बुद्धिजीवी भी अब अंतर्जाल पर अपनी सामग्री टटोल रहे हैं। यह शायद मजाक लगता हो पर सच यही है कि कुछ ब्लाग लेखकों का नाम बाहर नहीं लिया जा रहा पर सच यही है कि उनके पाठ दूरगामी मार वाले हैं और बुद्धिजीवी उनसे प्रभावित हैं। हिन्दी ब्लाग पर कूड़ा लिखा जा रहा है तो बताईये बाहर कौनसा सदाबाहर साहित्य लिखा पढ़ने को मिल रहा है। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठकों की टिप्पणियां इस तरह की आती हैं कि ‘गजब! आप ऐसा भी सोच और लिख सकते हैं।’
लोगों के पास चिंतन नहीं है, दावा चाहे कितने भी करें। नारों पर लिखते हैं और वाद सजाते हैं। फिर उसमें किसी न किसी की तारीफ या निंदा का बिगुल बजाते हैं। फिल्म वालों के पास तो काल्पनिकता और यथार्थ का समन्वय करने की कभी शक्ति ही नहीं दिखी है क्योंकि वहां के निर्माता और निर्देशक हिन्दी लेखकों को स्वतंत्रता न देकर लिपिक बना लेते हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को लिपिक की तरह ही देखा जाता है। स्थिति यह है कि अधिकतर हिन्दी अखबार अब अंग्रेजी शब्दों के मोह में फंस गये हैं। प्रबंधन करना नहीं आया तो अब मैनेजमेंट करने लगे हैं। क्या खाक करेंगे? प्रबंधन हो या मैनेजमेंट बिना चिंतन और मनन के नहीं होते। हिन्दी का खाकर उसे मिटाने की योजना या साजिश रची गयी है। कहते हैं कि हिन्दी को विश्व स्तर पर पहुंचाना है। क्या खाक पहुंचायेंगे खुद को आती नहीं है। फिर दावा कि हम भाषाविद हैं? क्या खाक हैं एक ढंग की कविता नहीं लिख सकते। हम जैसी कि चुराने का मन हो? कुछ गुस्सा और कुछ हंसी! इस भाव से हम यह लेख लिख रहे हैं क्योंकि चोरी का सदमा है तो खुशी इस बात की है कि हम अच्छा लिख रहे हैं।
आईये पहले उस ब्लाग का नाम देखें। उससे पहले देखकर आयें कि उसने हमारी टिप्पणी का क्या किया? उसने न टिप्पणी प्रकाशित की और न ही जवाब दिया। हम भी उसका नाम नहीं लिख रहे। उसकी बेवसाईट का पता रख लिया है। ऐसा लगता है कि बिचारा रोमन में हिन्दी लिखता है और यह उसकी पहली ऐसी रचना है जो देवानगारी में है। हम उसे बदनाम नहीं करना चाहते पर उम्मीद है कि भाई लोग इसे पढ़कर उसे समझायेंगे। वैसे वह  हमारी टिप्पणियाँ नहीं छाप रहा पर रोमन लिपि में अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर रहा  है । हम यह सब  इसलिए रहे हैं क्योंकि बैचेन रहने की आदत ऐसे नहीं जाएगी। यहाँ यह भी बता दें हमारी रचना छापने का दाम पूछकर एक हज़ार और न पूछना पर दो हज़ार है और हम इसकी विधिवत माग करेंगे। इस लेख का लिखने का दंड अलग से वसूल करेंगे।  
हमारी   रचना यह है 
————————-
बैचेन रहने की  आदत 
लोगों की हमेशा बेचैन रहने की
आदत ऐसी हो गयी है कि
जरा से सुकून मिलने पर भी
डर जाते हैं,
कहीं कम न हो जाये
दूसरों के मुकाबले
सामान जुटाने की हवस
अभ्यास बना रहे लालच का
इसलिये एक चीज़ मिलने पर
दूसरी के लिये दौड़ जाते हैं
। 
—————————
हमारा लिंक यह हैं
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
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आतंक का भूत-हिन्दी व्यंग (atank ka bhoot-hindi vyanga)


एक विशेषज्ञ का मानना है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले में बिन लादेन बहुत पहले ही मारा जा चुका है पर अमेरिका के रणनीतिकार युद्ध जारी रखने के लिये उसका भूत बनाये रखना चाहते हैं ताकि वहां की खनिज, कृषि और तेल संपदा पर कब्जा बना रहे। ऐसा लगता है कि अमेरिकन लोग भले ही भूत प्रेत को न मानते हों पर एशियाई देशों से उनकी मान्यता को लेकर उसका उपयोग करना सीख गये हैं। इसलिये वह रोज नयी भभूत बनाकर लादेनी भूत को निपटाने का काम करते हैं।
याद आता है जब बचपन में कई सिद्ध लोगों के पास जाते थे तब वह भूतों को भगाने के लिये भभूत दिया करते थे कि अगर जो शायद उनके यहां के यज्ञों की राख वगैरह हुआ करती थी। अब तो लगता है कि जैसे अगर किसी को बाबा बनना है तो उसे भूतों की सवारी तो करनी पड़ेगी। अपने देश के इतिहास में बहुत सारे बाबा हुए हैं। उनके नाम से चमत्कारों का प्रचार ऐसा चला कि उनके नाम पर अभी भी धंधे चल रहे हैं।
उस विशेषज्ञ की बात पर विश्वास करने के बहुत सारे कारण है। उस युद्ध के बाद फिर कभी लादेन का वीडियो नहीं आया। कुछ समय तक उसके घनिष्ट सहयोगी अल जवाहरी का वीडियो आता रहा पर फिर वह भी बंद हो गया। हालांकि विशेषज्ञ का कहना है कि लादेन बीमार भी हो सकता है पर जो हालात लगते हैं उससे तो यह लगता है कि उनका पहला ही दावा अधिक सही है कि लादेन अब केवल एक भूत का नाम है।
किसी को सिद्ध बनना या बनाना है तो वह पहले भूतों की पहचान करे। अमेरिका ने बिन लादेन नाम का एक भूत बना लिया है। दरअसल कभी कभी तो यह लगता है कि कहीं लादेन वाकई भूत तो नहीं था जिसे इंसानी शक्ल के रूप में प्रस्तुत किया गया। एक बात याद रखें अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों का सौदागर है। वह उनका निर्माण कर फिर प्रदर्शन कर उनको बेचता है। जिस तरह कोई वाशिंग, मशीन तथा टीवी जैसी चीजें पहले चलाकर दिखाने के बाद बेची जाती हैं तो हथियारेां के लिये भी तो यही करना पड़ेगा तभी तो वह बिकेंगे। आरोप लगाने वाले तो यह भी कहते हैं कि अमेरिका दुनियां भर में युद्ध थोपता ही इसलिये है कि उसे अपने हथियारों का प्रदर्शन करना है ताकि अन्य देश उससे प्रभावित होकर अपने देश की गरीब जनता का पैसा देकर उसका खजाना भरे। आजकल आपने सुना होगा एक ‘ड्रोन’ नाम का एक हवाई जहाज है जो स्वयं ही निशाने चुनता है। उसे चलाने के लिये उसमें पायलट का होना जरूरी नहीं है। अनेक बार ऐसी खबरे आती हैं कि ‘ड्रोन’ ने लादेन के शक में अमुक वह भी जगह ‘अचूक बमबारी’ की। इससे पहले अफगानिस्तान युद्ध में भी अमेरिका के अनेक हथियारों तथा विमानों का प्रचार हुआ था।
हमारे देश में भूतों पर खूब यकीन किया जाता है। इसी कारण बाबाओं का खूब धंधा चलता है। एक आदमी ने बड़े मजे की बात कही थी। उससे उसके मित्र ने पूछा कि ‘एक बात बताओ कि तुम भूत वगैरह की बात करते हो? तुम्हें पता है कि पश्चिमी राष्ट्र हमसे अधिक प्रगति कर गये हैं वहां तो ऐसी बातों पर कोई यकीन नहीं करता। क्या वहां लोग मरते नहीं है? देखों हम लोग ऐसी फालतू बातों पर यकीन करते हैं इसलिये पिछड़ हुऐ हैं जबकि जो भूतों पर यकीन नहीं करते वह मजे कर रहे हैं। ’
उस आदमी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि ‘वहां तो सभी कुछ आदमी को मिल जाता है। बंगला, गाड़ी, पैसा मिलने के साथ अन्य जरूरतें पूरी हो जाती है। वहां मरने वाले आदमी की कोई कोई ख्वाहिश नहीं रह जाती। यहां गरीबी के कारण लोग अनेक इच्छायें मन में दबाकर मर जाते हैं इसलिये उनको भूत की यौनि मिलती है। यही सोचकर यकीन करना पड़ता है।’

अमेरिका ने सारे झगड़े एशिया में ही किये हैं। उसका सबसे बड़ा शत्रु क्यूबा का फिदेल कास्त्रो उसके पास में ही रहता है पर कभी उस पर हमला नहीं किया। वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान में उसके हमले चर्चित रहे हैं जो कि एशिया में ही है। एशिया में ही लोग भूत बनते हैं और इसलिये वह अपने ही लोग यहां भेजकर उनका भूत यहां रचता है।

वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि भूत रचकर अपनी ताकत दिखाने की तकनीकी उसने भारत या एशिया से ही सीखा होगा। सीधी सी बात है कि ऊनी सामान बेचने वाला सर्दी का, धर्म बेचने वाला अधर्म का, शराब बेचने वाला गमों का और ऋण देने वाले पैसा देकर फिर उसे बेदर्दी से वसूलने से पहले जरूरतों का भूत नहीं खड़ा करेगा तो फिर उसका काम कैसे चलेगा? अमेरिका ने लादेन नाम के भूत से अरबों डालरों की कमाई की होगी। लादेन के मरने का मतलब है कि उसे युद्ध छोड़ना पड़ेगा। युद्ध छोड़ा तो प्रयोग कैसे करेगा? ऐसे में उसके द्वारा निर्मित हथियार और विमान कोई नहीं खरीदेगा।
जिस तरह लोग प्रायोजित भूत खड़ा करते हैं उससे तो यह लगता है कि सचमुच में लादेन रहा भी होगा कि नहीं। ऐसा तो नहीं कभी इस नाम का कोई आदमी अमेरिका में रहता हो और फिर मर गया हो। फिर अमेरिकनों ने किसी दूसरे आदमी की प्लास्टिक सर्जरी कर उसका चेहरा बना कर अफगानिस्तान भेज दिया हो। उस मरे आदमी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया गया हो क्योंकि एक बार अफगानिस्तान आने के बाद वह कभी घर नहीं गया और न ही परिवार वालों से मिला। उसके बारे में अनेक कहानियां आती रहीं पर उनको प्रमाणित किसी ने नहीं किया। इस तरह फिल्मों में अनेक बार देखने को भी मिला है कि नायक का चेहरा लगाकर खलनायक उसे बदनाम करता है। ऐसा ही लादेन नाम के भूत से भी हुआ हो। जिस आदमी ने चेहरा लगाया होगा। भूत के रूप में लादेन को स्थापित करने का काम खत्म होने के बाद वह लौट गया हो। इस तरह के प्रयोजन में पश्चिमी देशों को महारत हासिल है।
हम अभी तक जो सुनते, देखते और पढ़ते हैं उनका आधार तो टीवी, फिल्म और समाचार पत्र ही हैं। कोई कहेगा कि भला यह कैसे संभव है कि भूत को इतना लंबा जीवन मिल जाये? दरअसल आदमी को न मिलता हो पर भूत को कई सदियों तक जिंदा रखा जा सकता है। जिंदा आदमी की इतनी कीमत नहीं है जितना भूत की। हमारे देश में इतने सारे भूत बनाकर रखे गये हैं कि उनके नाम पर खूब व्यापार चलता है। कोई समाज वाद के नाम से चिढ़ता है तो कोई पूंजीवाद के नाम से। किसी को चीन सताता है तो किसी को पाकिस्तान! अमीर के सामने गरीब के हमले का और गरीब के सामने अमीर के शोषण का भूत खड़ा करने में अपने यहां बहुत लोग माहिर हैं। सबसे बड़ा भूत तो अमेरिका का नाम है। उसके सम्राज्यवाद से लड़ने के लिये लोग अपने देश में भी सक्रिय हैं जो बताते हैं कि उसका भूत अब यहां भी आ सकता है। जब वह साठ सालों तक ऐसे भूत को जिंदा रख सकते हैं तो फिर यह तो नयी तकनीकी और तीक्ष्ण चालें चलने वाला अमेरिका है। चाहे जितने भूत खड़ा कर ले उसके नाम पर भभूत यानि हथियार और विमान बेचता जायेगा। बाकी लोग तो छोड़िये उसके ही लोग ऐसे भूतों पर सवाल उठाने लगे हैं। वैसे भारतीय प्रचार माध्यम भी लादेन नाम का भूत बेचकर अपने समय और पृष्ठों के लिये सामग्री भरते रहे हैं।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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उनको नाचते देखना-व्यंग्य कविता


बिकने के लिए तैयार है तो
फिर सौदे जैसा लिख और दिख

बाज़ार के कायदे हैं अपने
जहां मत देख ईमानदार बने रहने के सपने
दाम तेरी पसंद का होगा
काम खरीददार के मन जैसा होगा
भाव होगा वैसा ही होगा जैसा दाम
शब्द होंगे तेरे, पर नाम कीमत देने वाले होगा
अपने नाम को आसमान में
चमकता देने की चाहत छोड़ देना होगा
वहां तो उसको ही शौहरत मिलेगी
जिसका घर भी उड़ता होगा
तू जमीन में रेंगना सीख ले
इशारों को समझ कर लिख
जैसा वह चाहें वैसा दिख

मत कर भरोसा शब्दों की जंग लड़ने वालों पर
अपनी जिन्दगी में तरसे हैं
वह कौडियों के लिए
उनका लिखा बेशकीमती हो गया
उनके मरने के बाद
अमीरों पर उनके नाम से रूपये बरसे हैं
पेट में भूख हो तो कलम तलवार नहीं हो सकती
करेगी प्रशस्ति गान किसी का
तभी तेरी रोटी पक सकती
कब तक लिखेगा लड़ते हुए
स्याही भी कोई मुफ्त नहीं मिल सकती
शब्दों को सजाये कई लोग घूम रहे हैं
पर खरीददार नहीं मिलता
मिल जाए तो बिक जाना
या फिर छोड़ दे ख्वाहिश
शब्दों से पेट भरने का
किसी से लड़ने का
दिल को तसल्ली दे वाही लिख
जैस मन चाहे वैसा दिख
फेर ले शब्दों के सौदागरों से मुहँ
वह तुझे देखते रहे
तू भी नज़रें घुमा कर देखता रहना
उनका पुतले और पुतलियों की तरह
दूसरों के इशारों नाचना भी
तेरी कई रचनाओं को जन्म देगा
पर ऐसा करता बिलकुल मत दिख
बस अपना लिख

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‘चक दे इंडिया’ नहीं ‘सच देख इंडिया’-व्यंग्य


बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं ‘चक दे इंडिया’। जब देखों कोई थोड़ी बहुत अच्छी खबर होती है गूंजने लगता है टीवी चैनलों पर ‘चक दे इंडिया’‘। एक काल्पनिक कहानी पर फिल्म बनी जिसमें भारतीय महिला हाकी टीम को विश्वविजेता बता कर पूरे देश को भरमाने की कोशिश की गयी। सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों में भारत किसी भी खेल में विश्व कप जीता नहीं था पर एक फिल्म में काल्पनिक रूप से मिली जीत को भी एक सच की तरह भुनाया गया। भ्रम पैदा कर लोगों की भावनाओं से जुड़े व्यवसाय में किस तरह कमाई हो सकती है ऐसा उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिल सकता।

अनेक विज्ञापन वाले अपने माडल कों किसी काल्पनिक प्रतियोगिता में जितवाकर अपने द्वारा विज्ञापित वस्तु दिखाते हुए उससे गंवाने लगते हैं ‘चक दे इंडिया’। कोई ‘रीयल्टी शो’ होता है तो उसमें कई बार प्रतियोगी गाने लगते हैं तो कई बार उस शो की समप्ति पर विजेता के सम्मान में भी गाया जाता है ‘चक दे इंडिया’। धीरे धीरे लोग इसे भूलने लगे थे पर क्रिकेट के बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीतने पर तो जैसे प्रचार माध्यमों की उचट कर लग गयी। जिसे देखो वही बजाये जा रहा था। यहीं से उनको अवसर मिला। क्रिकेट में उसके बाद कोई भी छोटी मोटी जीत मिली तो यही गाना चैनलों पर सुनाई देता है। जब हार जाती है तो उसके लिये कोई मातमी धुन बजना चाहिए पर एसा कोई भी नहीं करता जबकि फिल्मों ने कई ऐसे मातमी गीत और संगीत के कार्यक्रम बना रखे हैं। जब टीम पिट जाती है उस समय अपने खिलाडि़यों को थोड़ा बहुत कोसकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं।

काल्पनिक कहानियों से कुछ नहीं होता। फिल्म और उसके गीत क्षणिक रूप से आनंद प्रदान करते है, पर जीवन के लिये वह निरर्थक हैं। पहले लोग फिल्म देखकर भूल जाते थे और जो गाने जीवन के लिये थोड़ा बहुत अर्थ रखते थे तो उसे गुनागनाने लगते थे पर आज के प्रचार माध्यम तो उन गानों को भुनाने के लालायित रहते हैं। कई बार तो समाचार पत्र पत्रिकाएं अपने किसी सकारात्मक लेख या समाचार को प्रभावी बनाने के लिये लिख देते है ‘चक दे इंडिया’ ।

वैसे देखा जाये तो बजाय ‘चक दे इंडिया की जगह होना चाहिए ‘सच देख इंडिया‘। सच तो यह है कि इस लेखक को गीत नहीं लिखना आता वरना लिख देता ‘सच देख इंडिया’। अगर प्रयास भी किया तो तुक मिलाने के चक्कर में शब्द गड़बड़ा जायेंगे और अगर उनको ठीक रखने का प्रयास किया तो तुक नहीं बनेगी। चलिये इस पर एक गीतनुमा एक हास्य कविता लिखने का प्रयास करके देखते हैं।

सच देख इंडिया, सच देख इंडिया
ख्वाब देखा तो सच से मूंह फेर लिया
सच देख इंडिया
परदे पर देखा होगा, अपने लिये विश्व कप
पर कीर्तिमानों में देश को जीरो ने घेर लिया
सच देख इंडिया
हाकी में नहीं जा रही इंडिया की टीम
सच में कभी नहीं जमती, देश के जीत की थीम
सच देख इंडिया
दुनियां भर के खिलाड़ी दिखायेंगे बीजिंग में अपने जौहर
इंडिया में बैठकर देखेंगे, परायों को बीबी और शौहर
सच देख इंडिया
सास-बहु सीरियल में सुनकर धमाके दिल बहालाआगे
शहर में होने वाले असली धमाकों से कान नहीं बचा पाओगे
काल्पनिक कहानियां कितना भी डरायें
सच भयानक दृश्यों से ज्यादा डरावनी नहीं होती
उनमें कितना भी खूबसूरत अहसास हो
जिंदगी इतनी खुशनुमा भी नहीं होती
सच देख इंडिया
…………………………………

हां, यह सच है कि यह गीत की तरह नहीं लिखा पर जब कड़वे सच हों तो शब्दों को बाहर आने देने से रोकना भी अच्छा नहीं लगता नहीं तो वह रुके हुए पानी की तरह अंदर ही अंदर गंदा होकर हृदय को खोखला कर देते हैं। कभी ‘ये है मेरा इंडिया’ तो कभी ‘मेड इन इंडिया’ तो कभी ‘चक दे इंडिया’ जैसे फिल्मी वाक्यों को जीवन में दोहराते रहने से सच नहीं बदल जायेगा। एक अजीब माहौल है। यहां दर्द है, संवेदना है और अभिव्यक्ति के साधन है पर फिर भी वह सब कुछ हो रहा है जिसे नहीं होना चाहिए। पहले कथा कहानियां सुनाकर इस देश को भ्रमित किया गया और फिल्म की काल्पनिक कहानियों से कुछ वाक्यांश लेकर उसमें देश के लोगों का दिल और दिमाग भटकाना एक व्यापार हो सकता है पर इससे पूरी कौम मानसिक रूप से कितनी कमजोर हो गयी है जो इंतजार करती है किसी घटना का ताकि उस संवेदना व्यक्त की जा सकें। आम आदमी का समझ में तो आ सकता है पर जिन लोगों खेल और समाज के संबंध में कुछ करने का दायित्व है उनकी नाकामी एक चिंता का विषय है। लोग अपनी तकलीफों के साथ जी रहे हैं उसे भुलाने के लिये वह इन काल्पनिक कहानियों में मन बहला रहे हैं पर समाज और राष्ट्र को आगे ले जाने वाला चिंतन और अध्ययन का भाव उनमें लुप्त होता जा रहा है। फिल्मी वाक्यांशों से इस देश की वास्तविकता नहीं बदल सकती। इसके लिये पहले ‘चक दे इंडिया’ की जगह कहना पड़ेगा ‘सच देख इंडिया’
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

मूर्ख लिखते हैं और समझदार पढ़ते हैं-हास्य व्यंग्य


ब्लोगर अपने घर के बाहर पोर्च पर अपनी पत्नी के साथ खडा था। उसी समय दूसरा ब्लोग आकर दरवाजे पर खडा हो गया। पहला ब्लोगर इससे पहले कुछ कहता उसने अभिवादन के लिए हाथ उठा दिए-”नमस्ते भाभीजी।

पहला ब्लोगर उसकी इन हरकतों का इतना अभ्यस्त हो चुका था कि उसने अपनी उपेक्षा को अनदेखा कर दिया। वह कुछ उससे कहे गृहस्वामिनी ने उसका स्वागत करते हुए कहा-”आईये ब्लोगरश्री भाईसाहब। बहुत दिनों बाद आपका आना हुआ है।”

पहले ब्लोगर ने प्रतिवाद किया और कहा-”हाँ, अगर उस सम्मानपत्र की बात कर रही हो जो यह कहीं से छपवाकर लाया और तुमसे हस्ताक्षर कराकर ले गया था तो मैं बता दूं उससे यह तय करना मुश्किल है कि यह ब्लोगश्री है कि ब्लोगरश्री। अभी उस भ्रम का निवारण नहीं हुआ है। अभी इसके नाम के आगे किसी पदवी का उपयोग करना ठीक नहीं है।”

गृहस्वामिनी ने दरवाजा खोल दिया। दूसरा ब्लोगर अन्दर आते हुए बोला-”यार, आज तुमसे जरूरी काम पड़ गया इसलिए आया हूँ।”
पहले ब्लोगर ने कहा-”तुम कल आना। आज मुझे एक जरूरी पोस्ट लिखनी है।
गृहस्वामिनी ने बीच में हस्तक्षेप किया और कहा-”आप कंप्यूटर के पास बैठकर बात करिये। मैं तब तक चाय बनाकर लाती हूँ। घर आये मेहमान से ऐसे बात नहीं की जाती है। ”
पहले ब्लोगर को मजबूर होकर उसे अन्दर ले जाना पडा। दूसरे ब्लोगर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा–”मैं होली पर मूर्ख ब्लोगर सम्मेलन आयोजित करना चाहता हूँ। अपने शहर में तो बहुत कम लोग लिखते हैं कोई ऐसा शहर बताओ जहाँ लिखे वाले अधिक हों तो वहीं जाकर एक सम्मेलन कर लूंगा। तुम तो इंटरनेट पर लिखने वाले अधिकतर सभी ब्लोगरों को जानते हो.”
पहले ब्लोगर ने शुष्क स्वर में कहा-”हाँ, यहाँ तो तुम अकेले मूर्ख ब्लोगर हो। इसलिए कोई सम्मेलन नहीं हो सकता। किस शहर में मूर्ख ब्लोगर अधिक हैं मैं कैसे कह सकता हूँ।

दूसरा ब्लोगर बोला-”मैंने तुमसे कहा नहीं पर हकीकत यह है कि मेरी नजर में तुम एक मूर्ख ब्लोगर हो। जो ब्लोगर लिखते हैं वह मूर्ख और जो पढ़ते हैं वह समझदार हैं। समझदार ब्लोगर पढ़कर कमेन्ट लगाते हैं और कभी-कभी नाम के लिए लिखते हैं।”
पहले ब्लोगर ने कहा-”ठीक है। फिर इस मूर्ख ब्लोगर के पास क्यों आये हो? अपना काम बता दिया अब निकल लो यहाँ से।

दूसरा ब्लोगर बोला-”यार, मैं तो मजाक कर रहा था। जैसे होली पर मूर्ख कवि सम्मेलन होता है उसमें भारी-भरकम कवि भी मूर्ख कहलाने को तैयार हो जाते हैं। वैसे ही मैं ब्लोगरों का सम्मेलन करना चाहता हूँ।तुम तो मजाक में कहीं बात का बुरा मान गए.”

इतने में गृहस्वामिनी चाय लेकर आ गए, साथ में प्लेट में बिस्किट भी थे।
दूसरा ब्लोगर बोला-”भाभीजी की मेहमाननवाजी का मैं कायल हूँ। बहुत समझदार हैं।
पहले ब्लोगर ने कहा-”हाँ, हम जैसे मूर्ख को संभाल रही हैं।”
दूसरा ब्लोगर ने कहा–”नहीं तुम भी बहुत समझदार हो। वर्ना इंटरनेट पर इतने सारे ब्लोग पर इतना लिख पाते। ”
वह चली गयी तो दूसरा ब्लोगर बोला-”देखो, तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी इज्जत रख ली।”
पहले ब्लोगर ने कहा–”मेरी कि अपनी। अगर तुम नहीं रखते तो अगली बार की चाय का इंतजाम कैसे होता।
दूसरे ब्लोगर ने कहा–”अब यह तो बताओं किस शहर में अधिक ब्लोगर हैं।
पहले ने कहा-”यहाँ कितने असली ब्लोगर हैं और कितने छद्म ब्लोगर पता कहाँ लगता है। ”
दूसरे ने कहा-”ठीक है मैं चलता हूँ। और हाँ इस ब्लोगर मीट पर एक रिपोर्ट जरूर लिख देना।तुम्हारे यहाँ आकर अगर कोई काम नहीं हुआ। मुझे मालुम था नहीं होगा पर सोचा चलो एक रिपोर्ट तो बन जायेगी।”
पहला ब्लोगर इससे पहले कुछ कहता, वह कप रखकर चला गया। गृहस्वामिनी अन्दर आयी और पूछा-”क्या बात हुई?”
पहले ब्लोगर ने कहा-”कह रहा था कि मूर्ख ब्लोगर लिखते हैं और समझदार पढ़ते हैं?”
गृहस्वामिनी ने पूछा-”इसका क्या मतलब?”
ब्लोगर कंधे उचकाते और हाथ फैलाते हुए कहा-”मैं खुद नहीं जानता। पर मैं उससे यह पूछना भूल गया कि इस ब्लोगर मीट पर हास्य कविता लिखनी है कि नहीं। अगली बार पूछ लूंगा।”

नोट-यह हास्य-व्यंग्य रचना काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है. अगर किसी से मेल हो जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा. इसका रचयिता किसी दूसरे ब्लोबर से नहीं मिला है।

उधार की रौशनी


धीरे अस्ताचल को जाता सूरज
अपनी रोशनी समेत लेता है
जहाँ भी धरती को अंधरे में
छोड़ता है उदासी से उसका
तेज मद्धिम होता चला जाता
‘कितना अँधेरा होगा इस धरती पर
यह सोचकर आँखें बंद कर लेता है’
फिर खोलकर देखता है
नीचे टिमटिमाते हुए छोटा दीपक
जो लहराते हुए अपनी रौशनी
जैसे कह रहा हों
”सुबह तक तुम्हारा कुछ काम
मेरा कंधा भी संभाल लेता है’
मुस्कराता हुआ सूरज सोचता है
‘चंद्रमा से तो यह दीपक भला
जो मेरा काम संभालने के लिए
मुझसे ही रोशनी उधार लेता है
छोटा दीपक होकर भी
जमीन पर अँधेरे से बखूबी लड़ लेता है .
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उधार लेकर
आंखों को चकाचौंध करने वाले
बल्बों से रोशन करना अपने घर
अब नहीं सुहाता
इससे तो अन्धेरे भले
जिनमें चैन तो आता
कुछ पल चिराग जलाकर
तसल्ली कर लो
सुबह सूरज सभी नकली
रौशनी को फीका कर जाता
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तुम्हारे ब्लोग तो ‘अधपकी खिचडी श्रेणी’ के हैं


पहले ब्लोगर के घर के दरवाजे पर उसके पत्नी खडी सब्जी वाले से सामान लेकर अन्दर जा रही थी तभी दूसरा ब्लोगर वहाँ पहुचं गया। उसका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे गुस्से में है उसने लगभग फुफकारते स्वर में कहा-‘कहाँ है वो।’
उसका यह रवैया उस भद्र महिला को समझ में नहीं आया उसने पूछा-”कौन वो? और महाशय आप हैं कौन? एक बार आप आ चुके हैं पर परिचय नहीं दिया था।’
दूसरा ब्लोगर बोला-”आप तो उसको बाहर बुलाओ, कहो मैं आया हूँ।”
“अरे कौन वो बोलूँ?” उसने पूछा।
इतने में पहला ब्लोग बाहर आया और उसे देखते ही बोला-”अरे तुम? इधर अचानक कैसे आये।”
”यह है कौन? ऐसे अपने हाथ में जेब डालकर हाथ क्यों घुमा रहा है। यह आपकी तरह कोई ब्लोगर तो नहीं?” पत्नी ने सशंकित नजरों से पहले ब्लोगर से पूछा।
”नहीं यह भला आदमी मेरा दोस्त है।”पहला ब्लोगर ऐसा कहकर उसे घर से दूर ले गया।
फिर उससे बोला-”तुम इधर क्यों आये। यार तुम्हें पता नहीं अभी घर पर पता लग जाता कि तुम ब्लोगर हो तो हंगामा हो जाता।”
‘मैं बहुत गुस्से में हूँ। आज मैंने एक जगह तुम्हारे ब्लोग के नाम देखे। उनको कला और समाज की श्रेणी में रखा गया है। मुझे बताओ तुम ऐसा क्या लिखते हो जिससे उसे कला और समाज से जोडा जाये। अरे, यह किताबों से उठाकर लिखना तो मैं भी जानता हूँ। पर हम हैं असली ब्लोगर।”ऐसा कहकर वह अपने जेब से बीडी का बंडल निकाला और पीने लगा।
पहले ब्लोगर ने कहा-‘यहाँ से थोडा दूर पार्क है वहीं चलकर बैठते हैं और बीडी वहीं पीना। क्या इमेज खराब करवाओगे। अडोस-पड़ोस वाले कहेंगे की बीडी वाले से दोस्ती करता हूँ।’
दूसरा गुस्से में बोला-‘मैं दोस्त हूँ? अरे, तुम सबको धोखा दे सकते हो पर मुझे नहीं, अरे तुम कला और समाज श्रेणी के ब्लोगर कैसे हो सकते हो? ज़रा समझाना तो सही।
पहला-‘पहले यह बताओ के तुमने मेरा ब्लोग देखा कहाँ था?’
दूसर ब्लोगर इस प्रश्न से चकरा गया और हकलाते हुए बोला-”अरे वो।। अरे मैंने आज कुछ फोटो वगैरह देखने के लिए सर्च किया था। वहाँ पता नहीं कोई बहुत सारे फोटो थी और उसमें तुम्हारे ब्लोग का नाम कला और समाज में देखकर गुस्सा आ गया। मेरा तू मूड ही खराब हो गया।
”पहले ब्लोगर-कहीं कोई चौपाल होगी, अरे वह भी आजकल कुछ चौपालें भी लाइब्रेरी जैसी हो गयीं हैं।”
दूसरा ब्लोगर कुछ हो गया-”हाँ याद आया, अरे वह लाइब्रेरी जैसी नहीं फोटो स्टूडियों जैसी चौपाल थी। वह तो गनीमत थी तुम्हारा फोटो नहीं दिखा। नहीं तो फाड़ देता।
पहले ब्लोगर ने पूछा’-क्या कंप्यूटर।”
”नहीं अपने पास रखा पुराना अखबार। पर पहले यह बताओं तुम जैसे घटिया ब्लोगर को कला और समाज की श्रेणी में क्यों रखा गया है?”
पहले ब्लोगर ने कहा-”हाँ, मुझे भी लग रहा है। पर मेरे ब्लोग को कहाँ रखते “खिचडी श्रेणी” में, मुझे भी अपे लिए यही श्रेणी ठीक लगती है।
”दूसरा ब्लोगर बोला-”क्या बकवास करते हो। खिचडी श्रेणी तो बहुत अच्छी लगती है तुम्हारा ब्लोग “अधपकी खिचडी श्रेणी” में रखा जाना चाहिए।”
अब तो पहले ब्लोगर को भी गुस्सा आने लगा था वह बोला-”अधकचरा श्रेणी में अपने ब्लोग रखने के लिए उनको कहूं तो कैसा रहेगा।
”दूसरा बोला-”नहीं, मैं पढ़ते हुए शर्म महसूस करूंगा, और कभी अपना रुत्वा दिखाने किसी को वहाँ ले गया तो अच्छा नहीं लगेगा। हाँ, तुम्हारे सभी ब्लोग ‘अधपकी खिचडी’ श्रेणी के लायक हैं। और तुम अपना फोटो मत भेजना तुम्हारी सूरत देखकर मैं डर जाऊंगा।”
पहला ब्लोग मुस्कराया और बोला-”वैसे तुम्हारा ब्लोग किस श्रेणी में है ज़रा बताओगे? क्या लिखते हो आजकल?”
दूसरा ब्लोगर बोला-”मैं तुमसे सीनियर हूँ मुझसे कोई सवाल मत पूछो। बस अपने ब्लोग अधपकी खिचडी श्रेणी में रखवा दो, मैं तुम्हें इतनी इज्जत से नहीं पढ़ सकता।
पहले ब्लोगर को भी थोडा ताव आने लगा था और वह उसकी आंखों में आँखें डालकर बोला-”तुम दूसरों के ब्लोग पढ़ते हो?”
दूसरा ब्लोगर बीडी फैंक कर खडा हो गया और बोला-‘अब मैं जा रहा हूँ।”
उसने पहले ब्लोगर की तरफ देखा भी नहीं और चला गया। पहला ब्लोगर उसे देखता रहा। वह जब चला गया तो उसे यह ख्याल आया कि उसने यह तो पूछा ही नहीं कि इस ब्लोगर मीट पर हास्य कविता लिखनी है कि नहीं। फिर उसने सोचा चलो इस बार भी हास्य आलेख लिखने में मेहनत कर लेते हैं।

नोट-यह हास्य-व्यंग्य काल्पनिक है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं है और किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार है। इन पंक्तियों का लेखक किसी ऐसे दूसरे ब्लोगर से नहीं मिला।

वह चला क्रिकेट मैच देखने


अपने गंजू को भी पता नहीं क्या धुन सवार हुई कहने लगा-”क्रिकेट मैच देखने स्टेडियम जाऊंगा। आप चलेंगे”
हमने कहा-”अखबार पढ़ते हो?”
वह बोला-”नहीं! इस बेकार के काम में मैं नहीं पड़ता, और जो पड़ते हैं उन पर रहम खाता हूँ। क्या सुबह-सुबह बुरी खबरें पढ़ना?”
हमने पूछा-”टीवी पर न्यूज चैनल देखते हो।”
गंजू बोला-”नहीं। उस पर इतने सारे मनोरंजक चैनल आते हैं, मुझ जैसा व्यक्ति क्यों समाचार देखने में वक्त गंवायेगा।”
हमने कहा-”हमारा दुर्भाग्य है की हम यह बेकार के काम करते हैं और उसमें मैचों को देखने वालों की जो हालत सुनते हैं उसके मद्देनजर स्टेडियम पर जाकर मैच देखने का साहस नहीं कर सकते।”
गंजू बोला-”ठीक है और कोई साथ ढूंढता हूँ। वह तो मेरा एक दोस्त बाहर चला गया इसलिए कोई साथ पाने के लिए आपके सामने प्रस्ताव रखा।”
हमने कहा-”इसके लिए शुक्रिया! तुम्हारा वह दोस्त भाग्यशाली है जो बच गया।”गंजू बोला-”आप नहीं चल रहे तो कोई और साथी ढूंढ लूंगा।”
हमने कहा-”हमारी तरफ से शुभकामनाएं स्वीकार कर लो। क्योंकि आजकल स्टेडियम के अन्दर जाकर क्रिकेट मैच देखना कोई सरल काम नहीं है।”
वह चला गया। हम भी भूल गए। मैच के अगले दिन हम सुबह देखा एक लड़का हाथ और सिर में पट्टी बांधे चला आ रहा है। वह हमारे सामने आकर खडा हो गया और नमस्कार की। पहले तो हमने उसे पहचाना नहीं फिर जब गौर से देखा तो एकदम मुहँ से चीत्कार निकल गई-”अरे गंजू तुम। यह क्या हाल बना रखा है। कहीं किसी ने पीट तो नहीं दिया।”
वह रुआंसे स्वर में बोला-”अपने यह नहीं बताया था कि इस तरह इतना बवाल भी मच सकता है। लोगों की इतनी भीड़ थी कि अन्दर जाने का मौका ही नहीं मिल पाया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया।” ”क्या तुम्हें भी मारा-“
हमने पूछा वह बोला-” नहीं, भागमभाग में गिर गया। इससे तो अच्छा तो घर पर मैच देखता। वहाँ तो सारा समय अन्दर घुसने की सोचता निकल गया।”
”तुमने अखबार या टीवी देखा, हो सकता है उसमें तुम्हारे गिर कर घायल होने का फोटो छपा हो।”
हमने पूछा वह एक दम खुश हो गया और बोला-”ऐसा हो सकता है। मैं अभी जाकर देखता हूँ। मैं मैदान में कोई मैच-वैच थोडे ही देखना चाहता था, बल्कि यह सोचकर जाना चाहता था कि कहीं दर्शकों में मेरा फोटो आ गया तो अपनी गर्ल फ्रेंड पर रुत्वा जमाऊंगा। इसलिए इतनी मेहनत की। अब अगर आप कह रहे हैं तो देखता हूँ अखबार या टीवी में अगर मेरी फोटो आयी होगी तो मजा आयेगा।”
वह चला गया और हम हैरानी से सोचते रहे कि वह क्रिकेट के बारे में जानता भी है कि नहीं क्योंकि इससे पहले कभी उसने क्रिकेट पर चर्चा नहीं की।”

मिठाई और जुदाई


वह सड़क पर रोज खडा होकर उस लड़की से प्रेम का इजहार करता था और कहता”-आई लव यू।
”कभी कहता-”मेरे प्रपोजल का उत्तर क्यों नहीं देती।”वह चली जाती और वह देखता रह जाता था। आखिर एक दिन उसने कहा कहा-”मुझे ना कर दो, कम से कम अपना वक्त खराब तो नहीं करूं।”
वह लडकी आगे बढ़ गयी और फिर पीछे लौटी-”तुम्हारे पास प्यार लायक पैसा है।
”वह बोला-”हाँ, गिफ्ट में मोबाइल, कान की बाली और दो ड्रेस तो आज ही दिलवा सकता हूँ।
”लड़की ने पूछा-”तुम्हारे पास गाडी है।
”लड़के न कहा-”हाँ मेरे पास अपनी मोटर साइकिल है, वैसे मेरी मम्मी और पापा के पास अलग-अलग कार हैं। मम्मी की कार मैं ला सकता हूँ।”
लड़की ने पूछा-“तुम्हारे पास अक्ल है?”
लड़के ने कहा-”हाँ बहुत है, तभी तो इतने दिन से तुम्हारे साथ प्रेम प्रसंग चलाने का प्रयास कर रहा हूँ। और चाहो तुम आजमा लो।”

लड़की ने कहा-”ठीक है। धन तेरस को बाजार में घूमेंगे, तब पता लगेगा की तुम्हें खरीददारी की अक्ल है कि नहीं। हालांकि तुम्हें थोडा धन का त्रास झेलना पडेगा, और बात नहीं भी बन सकती है।”
लड़का खुश हो गया और बोला-”ठीक, आजमा लेना।
धन तेरस को दोनों खूब बाजार में घूमें। लड़के ने गिफ्ट में उसे मोबाइल,कान की बाली और ड्रेस दिलवाई। जब वह घर जाने लगी तो उसने पूछा-”क्या ख्याल है मेरे बारे में?”
लड़की ने कहा-”अभी पूरी तरह तय नहीं कर पायी। अब तुम दिवाली को घर आना और मेरी माँ से मिलना तब सोचेंगे। वहाँ कुछ और लोग भी आने वाले हैं।”
लड़का खुश होता हुआ चला गया। दीपावली के दिन वह बाजार से महंगी खोवे की मिठाई का डिब्बा लेकर उसके घर पहुंचा। वहाँ और भी दो लड़के बैठे थे। लड़की ने उसका स्वागत किया और बोली-”आओ मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रही थी, आओ बैठो।”
लड़का दूसरे प्रतिद्वंदियों को देखकर घबडा गया था और बोला -”नहीं मैं जल्दी में हूँ। मेरी यह मिठाई लो और खाओ तो मेरे दिल को तसल्ली हो जाये।”
लड़की ने कहा-”पहले मैं चेक करूंगी की मिठाई असली खोये की की या नकली की। यह दो भी बैठे हैं इनके भी चेक कर करनी है। यही तुम्हारे अक्ल की परीक्षा होगी। ”
लड़के ने कहा-”असली खोवे की है, उसमे बादाम और काजू भी हैं। ”
लडकी ने आँखें नाचते और उसकी मिठाई की पेटी खोलते हुए पूछा-”खोवा तुम्हारे घर पर बनता है।” लड़का सीना तान कर बोला-”नहीं, पर मुझे पहचान है।”लडकी ने मिठाई का टुकडा मुहँ पर रखा और फिर उसे थूक दिया और चिल्लाने लगी-”यह नकली खोवे की है।”
लड़का घबडा गया और बोला-”पर मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।”
लडकी ने कहा-‘तभी यह नकली खोवे की मिठाई लाये हो। तुम फेल हो गए। अब तुम जाओ इन दो परीक्षार्थियों की भी परीक्षा लेनी है।”
लड़का अपना मुहँ लेकर लौट आया और बाहर खडा रहा। बाद में एक-एक कर दोनों प्रतिद्वंद्वी भी ऐसे ही मुहँ लटका कर लौट आये। तीनों एक स्वर में चिल्लाए-”इससे तो मिठाई की जगह कुछ और लाते, कम से कम जुदाई का गम तो नहीं पाते।”
हालांकि तीनों को मन ही मन में इस बात की तसल्ली थी की उनमें से कोई भी पास नहीं हुआ था।
नोट-यह एक काल्पनिक व्यंग्य है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं है और किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा।

ब्लोगर ने ऐसे मनाई दीपावली


ब्लोगर के रूप में उसकी यह पहली दीपावली थी और उसके दिमाग में ब्लोगरी स्टाइल में मनाने का विचार था। पत्नी बहुत देर से बाजार से पूजा सामग्री और मिठाई लाने की कह रही थी और वह कंप्यूटर के पास रखी कुर्सी पर बैठा टीवी पर समाचार देख रहा था-कंप्यूटर खुला हुआ था पर उसका ध्यान टीवी की तरह ही था। आखिर जब उसे टीवी पर भी लिखने का आइडिया नहीं मिला तो वह घर से निकलने लगा तो पत्नी ने कहा-”पूजा सामग्री और मिठाई लेना जा रहे हो न? जल्दी ले आओ। देखो कालोनी में सबने पूजा कर ली है और सब पटाखे जला रहे हैं। हमने ही देर कर दी है।”
ब्लोगर ने कहा-हाँ, जल्दी आऊँगा पर पहले कालोनी में सबको दीपावली की कमेन्ट दे आऊँ।”
वह चला गया और पीछे से कहती रह गई-”किसी को दीपावली की कमेन्ट नहीं बधाई देना।”
उसने सुना ही नहीं और चल पडा लोगों को दीपावली की कमेन्ट देने. उसने देखा बच्चे पटाखे जला रहे हैं तो लग गया अपनी कमेन्ट लगाने. बच्चे एक पटाखा जलाते तो वह तालियाँ बजाता और फिर उनसे कहता कि-”लाओ यार एक पटाखा मुझे दे दो तो मैं जलाकर तुम्हें दीपावली की कमेन्ट दे दूं।”
बच्चे पटाखा देते और कहते-” अंकल, एक ही देंगे, हमारे पास अधिक नहीं है।”
ब्लोगर कहता’-अरे कमेन्ट तो एक ही दूंगा, मुझे और लोगों के पास भी जाना है। मुझे और जगह भी तो दीपावली की कमेन्ट देनी है।
बच्चे अवाक होकर सोचते कि यह कमेन्ट क्या बला है? कुछ बच्चों ने इसलिए नहीं पूछा कि उनके समझ में नहीं आया तो कुछ अपना अज्ञान न प्रकट हो इसलिए नहीं पूछा। जिन बडे बच्चों को मालुम था तो वह उनके सम्मान करने की वजह से यह समझे कि मजाक कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह थी कि ब्लोगर इतने वर्षों से कालोनी में रह रहा था पर उसका यह मिलनसार रूप पहली बार सामने आया था। एक बच्चे के पास पटाखे काम थे उसने कहा-”अंकल, अपने ताली बजाकर कमेन्ट दे तो दी, अब पटाखा चलाने से क्या फायदा?”
ब्लोगर ने कहा-”अरे, उसका मतलब तो यह है कि कमेंट का कालम खोला। इतने बच्चे जला रहे हैं पर ताली तो मैंने तुम्हारे लिए ही बजाई थी।”
ऐसे ही वह चलता रहा और किसी जानपहचान वाले के घर के बाहर खडा होकर देखता लोग बुलाते–आईये, भाईसाहब। मुहँ मीठा कर जाइये।”
ब्लोगर अन्दर घुस जाता और दीपावली की कमेन्ट देता और मिठाई खाकर चला आता। उधर दूर से उनकी श्रीमती सब देख रहीं थीं और जब देखा कि वह सब चीजें आनी ही नहीं है तो वह खुद ही कालोनी की दुकानों से सब सामान खरीद लाई। उधर ब्लोगर अपना कमेन्ट कार्यक्रम समाप्त कर घर लौटा तो पत्नी की आंखों में गुस्सा देखकर डर गया और उल्टे पाँव घर से बाहर जाने को उद्यत होते हुए बोला-”अरे! मैं अपना सामान लाना तो भूल गया। अभी लाता हूँ।”
“क्या जरूरत है?”पत्नी ने कहा-”सबके घर तुम कमेन्ट दे आये अब अपने घर कौन आयेगा?’
”कोई आया तो?” ब्लोगर ने कहा।
पत्नी ने व्यंग्यात्मक रूप से कहा-”कह देना। मैंने दीपावली पर कोई पोस्ट बनायी नहीं तो कमेन्ट कहाँ से दोगे? कहाँ से मुहँ मीठा कराऊँ।तुम सबको कमेंट दे कर पटाखे जलाते और मिठाई खाते रहे, यह सोचा कि कोई तुम्हारे घर दीपावली की कमेन्ट देने भी आ सकता है। क्या जरूरत है सोचने की। ”
ब्लोगर सोच में पड़ गया और बोला-”नहीं, इससे तो अपना नाम फ्लॉप हो जायेगा।”
पत्नी ने दोनों हाथ नचाते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-”तो अभी कौनसा हिट चल रहा है?”
ब्लोगर फिर सोच में पड़ गया। फिर बोला-”नहीं, पर हमें अपनी पोस्ट तो तैयार रखनी चाहिए हो सकता है की कोई कमेन्ट देने आ आजाये। मैं जा रहा हूँ।” पत्नी ने कहा-”मत जाओ। जब तुम लोगों को केम्न्त देने में लगे थे तब मैं ले आई, आओ पहले पूजा करते हैं। फिर पोस्ट और कमेन्ट के मामले पर भी चर्चा करते हैं।
दोनों ने शांति से पूजा की। पूजा करने के बाद पत्नी फिर व्यंग्यात्मक लहजे में बोली-”अब लोगों को यह मिठाई अपनी पोस्ट मत बताना। मैं खुद ले आयी हूँ और कोई कमेन्ट देने आये मैं ही संभाल लूंगी तुम अपने कंप्यूटर रूम में ही रहना, बैठक में मत आना।”
ब्लोगर चुप हो गया और मन में यह सोचने लगा-”पोस्ट किसकी भी हो ब्लोग तो मेरा ही है। किसको पता चलेगा कि पोस्ट किसकी है। सब कमेन्ट तो मेरे नाम पर ही जायेंगे। अरे, अपने ब्लोग पर मैं कितने बडे लोगों के नाम की पोस्ट रखता हूँ पर कमेन्ट तो मुझे ही मिलते हैं। ” उसने कंधे उचकाए और लिखने बैठ गया।
नोट-यह काल्पनिक हास्य रचना है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी इससे मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा।

जब सोना लगे पीतल, पानी से अधिक शीतल


सुबह टीवी पर एक खबर दिखाई गयी की महंगाई की वजह से हीरे के व्यापार में भारी मंदी चल रही है और व्यापारी इस वजह से परेशान हैं। यह समाचार देखकर एक सज्जन ने दूसरे से पूछा की”- यार, एक बात समझ में नहीं आई की महंगाई की वजह से हीरों का व्यापार तो ठप्प है, सोने के भाव कैसे उच्चतम स्तर तक पहुंच गया है। इससे तो अच्छा है आदमी अपना पैसा हीरो इन्वेस्ट करे। आखिर उन्हें भी सोने की तरह बहुमूल्य माना जाता है।”

दूसरे ने जवाब दिया-”लगता है तुम अखबार नहीं पढ़ते हो वरना यह सवाल तुम कभी नहीं करते। बहुमूल्य वाली तो बात जाओ भूल। हीरों से नल की टोंटी नहीं बनती इसलिए लोग उसे नहीं खरीदते। और जिसे इनवेस्टमेंट कह रहे हो उसे तो केवल अपनी आय छिपाने और उससे भी और पैसा कमाने की विधा है। अब कुछ लोग अपनी आय छिपाने के लिए सोने की टोंटी लगाते हैं ताकि बाहर से आने वाले को पीतल के लगें। कुछ जगह छापे डालने वाले लोगों ने यह देखा है मैंने ऐसी खबरें टीवी पर देखीं और अखबारों में पढी हैं।”

ऐसी खबरें कुछ दिन पहले टीवी पर आयीं थीं और लोगों को हैरानी हुई थी। कहाँ तो पहले लोग पीतल का सामान इस तरह इस्तेमाल करते थे जैसे वह सोने के हों और अब सोने की नल टोंटियाँ इस तरह बनायी जा रहीं जैसे की वह पीतल की लगें और उनके अमीर होने का शक किसी को न हो। हीरे का व्यापार मंदा है पर सोने का नहीं है उससे तो यही लगता है कि सामान्य आदमी के पास इतना पैसा नहीं है और जिनके पास है वह उसे छिपाने के लिए प्रयासरत हैं और हीरा बहुत चमकदार होता है उसे कहीं भी रखें अपनी चमक नहीं खोयेगा और आदमी कि पोल खोल देगा। और सोने की टोंटियाँ बनाए या कुर्सी के हत्थे धीरे-धीरे सोना अपनी चमक खोने लगता है इसलिए किसी को अधिक संदेह नहीं होता है। हाँ, जो लगवा रहे हैं उन्हें बड़ा आनंद मिलता होगा। अपने घर आया मेहमान जब नल से हाथ धोता होगा और कहता होगा-”क्या अच्छी टोंटी है। क्या सोने की है।”

मालिक जबाब देता होगा-”नहीं पीतल की हैं. मैंने ठेकेदार से कहा था कि नल की टोंटी ऐसी लाना कि सोने की तरह लगें. मैंने खुद खडे होकर मकान बनवाया इसलिए हर माल बढिया क्वालिटी का लगा है.”
मेहमान को टोंटी सोने जैसे लगी उसने पूछा। फिर उससे झूठ बोला और फिर अपनी आत्म प्रवंचना की वह अलग। इस तरह तीन प्रकार से सुख मिला। सोने की टोंटी होना , झूठ बोलना और आत्मप्रवंचना तीनों बातों से आदमी को बहुत सुखद लगता है। सोने के आभूषण लोग इसलिए पहनते हैं अन्य व्यक्ति उसे देखकर और आकर्षित हों-और जब सोना दिख ही रहा है और वह धन छिपाने में मदद भी कर रहा है तो सुख तो दूना हो ही जाता है।

जिन लोगों ने सोने की टोंटियाँ बनवाईं होंगीं उन्हें नल खोलकर पानी पीने से अधिक शीतलता तो इस अनुभूति से होगी कि सोने की टोंटी से निकला पानी पी रहे हैं। यह अलग बात है कि दूसरे को वह डर के मारे पीतल की बताते होंगे-और झूठ बोलने का आनंद भी उठाते होंगे। समय की बलिहारी है कभी लोग सोने की जगह पीतल का उपयोग करते थे और अब यहाँ कुछ लोग पीतल की जगह सोने को लगवा रहे हैं और सच बताने का साहस नहीं करते। वैसे आजकल हमारे जैसे अज्ञानी लोगों की संख्या अधिक है जिन्हें सोने और पीतल का अंतर एक अनजाने में पता नहीं चलता और अगर कहीं पीतल की जगह सोने की लगी हो तो उस पर ध्यान नहीं देंगे। अब जब कुछ ऐसे समाचार देखे और सुने हैं तो कहना ही पड़ता है कि माया का खेल निराला है वह आदमी के सिर पर चढ़ती है तो उसे मायावी बना देती है और सोने को पीतल जैसा और पानी से अधिक शीतल बना देती है।

पहले वह सुधरे


पहले कौन सुधरे? यहाँ हर कोई एक दूसरे से सुधर जाने की उम्मीद करता है पर कोई स्वयं सुधरना नहीं चाहता। सामने वाला सुधर जाये तो हम भी सुधर जाएं यही शर्त हर कोई लगाता है। बरसों से अनेक प्रकार से विश्व में सुधार वादी आन्दोलन चलते रहे हैं पर कोई सुधार कहीं परिलक्षित नहीं हो रहा है। लोगों को सुधारने के लिए अनेक पुस्तकें लिखीं गयीं हैं और वह इतनी बृहद रचनाएं हैं कि उन्हें कोई पढ़ना ही नहीं चाहता और इसलिए जो इनको पढ़ते हैं वह विद्वान् बन जाते हैं लोगों का मार्गदर्शन करते हुए वाह-वाही लूटते हैं। अपने हिसाब से उसकी व्याख्या कर लोगों को बताते हैं और लोग उनकी बात सुनकर खुश हो जाते हैं और मान लेते हैं कि उसमें यही लिखा होगा। ऐसी हालत में लोगों का सुधारने और मार्ग दर्शन का ठेका लेने वालों की हमेशा चांदी रही है। दिन-ब-दिन लोगों में नैतिक,वैचारिक और सामाजिक आचरण में गिरावट आयी है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि बिगाड़ अधिक आ रहा है।
ग्राहक कहता है कि व्यापारी सुधर जाये और अच्छी चीज दे और दाम भी सही बताये। व्यापारी कहता है कि ग्राहक सुधर जाये। जनता कहती है कि हमारे नेता सुधर जाये, और नेता कहते हैं कि लोग अपने आप में सुधार लायें क्योंकि वही तो सबको चुनती है और सही चुनाव करे तो हमें भी ऐसे लोग मिलेंगे तो हम सही काम करेंगे। गुरु कहे चेला सुधरे तो सही शिक्षा दें सकें और चेले कहते हैं कि गुरु अगर सही शिक्षा दे तो हम भटके ही क्यों?
पाकिस्तान की जनता कहे मुशर्रफ जाएं तो शांति हो और मुशर्रफ कहते हैं कि शांति हो मुझे जिन्दगी की गारंटी हो जाये तो में चला जाऊंगा। इराक़ में लोग कहें अमेरिका की सेना हमारे यहाँ से चली जाये तो हम खामोश हो जायेंगे और अमेरिका कहता हैकि पहले लोग खामोश हो जाएं तो हम अपनी सेना वहां से हटा लें। मतलब सुधार का कहीं से छोर पकड़ सकते हो पर उसे अपने हाथ में अधिक देर नहीं रख सकते। महात्मा गांधी ने कहा अहिंसक आन्दोलन के जरिये सब किले फतह कर सकते हैं पर जिनके हाथ में बंदूकें हैं वह कहते हैं है कि पहले किला फतह कर लें तो अहिंसक हो जायेंगे। अब भला किस्में साहस है कि उन्हें समझाए कि यही तो वक्त है गांधी जी के मार्ग का अनुसरण करने का। ऐसा इसलिए सब जगह हो रहा है कि लोग अपने धर्म ग्रंथों को नहीं पढ़ते और उनके पढे हुए तथाकथित विद्वानों की बात को सच मानते हैं। लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है। वैसे टीवी देखने, अखबार पढ़ने और परनिंदा करने में लोग कितना समय नष्ट करते हैं पर धर्म ग्रंथों की बात करो तो कहेंगे उसमे क्या है पढ़ने को? वह तो बुढापे में पढेंगे। वह स्वयं नहीं पढ़ते तो बच्चों की रूचि भी नहीं होती। नतीजा सामने है। लोग बातें तो संस्कारों कें करते हैं पर वह कहाँ से आयें यह कोई नहीं बताता।
कोई कहता है कि ‘संस्कारवान बहू चाहिए’ तो कोई कहता है कि हमें ‘संस्कारवान दामाद चाहिए’। पहली तो यह बात कि संस्कार का क्या मतलब है? यह कोई स्पष्ट नहीं करता। दूसरे उनसे पूछों कि क्या तुमने अपने घर परिवार में संस्कार स्थापित करने का क्या प्रयास किया है?
लोग अपनी सफाई में कुछ कहते रहें पर यह वास्तविकता यह है कि लोग अपने घर में इंजीनियर, डाक्टर, और अफसर बनाने के कारखाने तो लगाना चाहते हैं पर कोई ‘संस्कारवान’ बनाने का प्रयास नहीं करते। सब एक दूसरे से यह आशा करते हैं कि वह सुधर जाये। ससुराल वाले कहें बहू और दामाद सुधर जाएं और वह कहें ससुराल वाले सुधर जाएं। पति कहे पत्नी सुधर कर सब सहती जाये और पत्नी कहे पति अपने आप में सुधार लाये और मूहं बंद और कान खोलकर हमारी पूरी बात सुनता जाये।
सुधार का कोई सिरा पकडो तो लोग शिकायतों का पुलिंदा थमा देते है, जिन्हें देखकर दिमाग चकरा जाये और सच्चे सुधारक तो अपने कान पकड़ लेते हैं शायद इसलिए सुधार लाना अब एक पेशा हो गया है। समाज में सुधार लाने के लिए तमाम लोग अपनी दूकान खोले बैठे हैं। नतीजा यह है कि कहीं भी बातें खूब होती हैं पर सुधार कहीं दिखाई नहीं देता।

नाम क्या और काम क्या


रास्ते चलते हुए कई बार विभिन्न इमारतों पर लगे होर्डिंग पर जब नजर जाती है तो उसे पढ़ लेते हैं-चाहे अनचाहे पढ़ते हुए एक तरह से समय भी पास होता है ध्यान बाँटने से थोडा मानसिक राहत भी मिलती है, और जब पढ़ते हैं तो फिर चिंतन भी करते हैं।
मैं खासतौर से हिन्दी और संस्कृत निष्ठ नाम देखकर यह सोचता हूँ की यह क्या है ज़रा आगे पढें। नाम तो होते हैं बढे प्यारे जैसे -वात्सल्य, संस्कार, जीवनधारा, निरोग, स्नेह, अंकुर,सुरभि,सुरुचि और सहज आदि। कई बार तो ऐसा लगता है की शायद किसी पत्र-पत्रिका के दफ्तर हों और क्या कोई लोगों की सेवा करने वाला संस्थान हो। इमारत का बाहरी स्वरूप और वहाँ खडी गाड़ियों का जमघट देखकर लगता है जैसे कोई बड़ा होटल हो। पर नहीं साहब वहाँ तो होते हैं नर्सिंग होम या अल्ट्रासाउंड सेंटर या कोई पेथलोजी लैब । तब लगता है कि इतने प्यारे नाम होना आश्चर्य की बात है। इसकी वजह यह है कि इन स्थानों पर आदमी कभी स्वस्थ होने की स्थिति में तो जाता नहीं है। इतना ही नहीं नाम पढ़ने के बाद तो नाम और इमारत का भव्य आकर्षण भूलकर आदमी भगवान से याचना करता है कि कभी इन अस्पतालों की तरफ न भेजे।

कई बार किसी शहर में जाते हैं और पैदल चलते हुए दूर-दूर तक नजर दौडाते चलते हुए किसी भव्य और ऊंची इमारत पर नजर दृष्टि पड़ती और मन में विचार आता है कि शायद किसी बडे आदमी की रिहायश होगी, या कोई होटल होगा या कोई मार्केट होगा और जब पास आते है नाम पर नजर पड़ती है तो मन में प्रफुल्लता का भाव आता है पर आगे जब दृष्टि जाती है-नर्सिंग होम या अस्पताल का बोर्ड देखकर पूरा जायका बिगड़ जाता है।

उस दिन मैं और मेरा मित्र एक जगह खडे बातचीत कर रहे थे तो हमने देखा एक महिला और पुरुष पास से गुजरे तो हमने महिला को कहते सुना-”हम वहाँ दूर से देख कर कह रहे थे कि इस बिल्डिंग में यह होगा और वह होगा यहाँ तो अस्पताल है। भगवान् न करे कभी ऐसे अस्पतालों में आना पड़े आदमी का यहाँ इतना पैसा खर्च हो जायेगा कि ठीक भी होगा तो घर लौटने के बाद भूखा मर जाएंगा। नाम भी देखो कितना प्यारा रखा है।

उसके जाने के बाद हम दोनों ने उस इमारत को ध्यान से देखा तो हंसने लगे। मित्र ने कहा-”ऐसा धोखा कई बार हमारे साथ भी हो चुका है. अक्सर जब ऐसा होता है तो सोचता हूँ कि इनके नाम क्या हैं और काम क्या है?”

सम्मान तो मेरा, असम्मान तो तुम्हारा


पहला ब्लोगर उस दिन बाजार में सब्जी खरीद रहा था कि दूसरा ब्लोगर पुराने स्कूटर पर सवार होकर गुजरा और उसे देखकर रुक गया। उसने पहले ब्लोगर के कंधे पर पीछे से हाथ रख और बोला -“यार, सुबह से तुम्हें कितने ईमैल भेज चुका हूं और तुमने कोई जवाब नहीं दिया।”

पहला ब्लोगर बोला-“वैसे तो मैने तुम्हें बता दिया था कि मैं सुबह कंप्यूटर पर काम नहीं करता। अगर आज करता तो भी मैं तुम्हारा ईमैल नहीं पढ़ता। आखिर मेरी भी कोई इज्जत हैं कि नहीं। मेरे से रिपोर्ट लिखवा लेते हो पर कमेन्ट नहीं देते।”

दूसरा ब्लोगर-“अरे यार अब छोडो पुरानी बातों को अब मेरे साथ चलो। आज मेरा सम्मान हो रहा है। मैने सोचा तुम मेरे साथ रहोगे तो अपनी इज्जत बढ़ेगी।”

पहला-“क्या मुझे तुमने फालतू समझ रखा है जो तुम्हारी इज्जत बढ़वाने के लिए अपना समय खराब करूंगा।”

दूसरा -“नहीं तुम तो हिन्दी को अंतर्जाल पर फ़ैलाने के लिये प्रतिबद्ध हो। इसलिए तुम्हें तो खुश होना चाहिये कि एक ब्लोगर सम्मानित हो रहा है। तुम्हारा कर्तव्य है कि ऐसे कार्यक्रम की शोभा बढ़ाना चाहिए।”

पहला ब्लोगर खुश हो गया-“चलो ठीक है। तुम कह्ते हो तो चलता हूं। हो सकता है तुम्हें सदबुद्धि आ जाये, कुछ अच्छी कमेन्ट लिखने लगो।”

दूसरा-“इस सम्मान का लिखने से कोई मतलब नहीं है। यार, तुम कभी समझोगे नहीं। वैसे तुम वहां मेरे लिखे-पढ़े की चर्चा मत करना। यह भी मत बताना कि तुम एक ब्लोगर हो।”

पहला ब्लोगर्-”तो तुम्हें एक चमचा चाहिऐ , यह दिखाने के लिये तुम कितने बडे ब्लोगर और तुम्हारा लिखा कोई पढता भी है।

दूसरा-“नहीं यार एक से भले दो होते हैं, हो सकता है कि आगे तुम्हें भी कभी सम्मानित किया जाये। तब मैं तुम्हारे साथ चलूंगा।

पहला ब्लोगर बोला-”वैसे तो इसकी संभावना लगती नहीं है पर तुम कह रहे हो तो चलता हूँ।’

दोनों स्कूटर पर उस स्थान की ओर रवाना हुए जहां सम्मान होना था। वहां और भी बहुत लोग जमा थे पर हाल का दरवाजा बंद था। दोनों वहां खड़े उस भीड़ को देख रहे थे।वहां खड़े एक सज्जन से दुसरे ब्लोगर ने पूछा-“अभी कार्यक्रम शुरू होने में कितनी देर है।”

तब वह सज्जन बोले-“आज का कार्यक्रम तो स्थगित हो गया है, हम सबने अपने सम्मान के लिये जिस आदमी को पैसे दिये थे वह अपने किसी रिश्तेदार के यहां सगाई में शामिल होने बाहर चला ग्या है।उसने फोन कर माफ़ी मांगी है और अब यह कार्यक्रम बाद में कब होगा यह पता नहीं, क्या आप भी सम्मानित होने आये हैं।”

दूसरे ब्लोगर ने फ़ट से अपनी ऊँगली पहले ब्लोगर की तरफ़ उठाई और कहा-“मेरा नहीं इनका सम्मान होना है।”

पहला ब्लोगर हक्का बक्का रह गया। इससे पहले वह कुछ बोले दूसरे ने उसका हाथ खींच लिया और बोला-“चलो यार आज का दिन खराब हो गया।

पहला ब्लोगर थोडी दूर चलकर बोला-”यह क्या मतलब है तुम्हारा?सम्मान तुम्हारा और असम्मान मेरा। तुम उससे क्या कह रहे थे?”

दूसरा बोला-”यार, तुम समझते नहीं? जब हम किसी से बात कर रहे हैं तो अपना अच्छा या बुरा पक्ष नहीं रख सकते। अगर तुम उससे बात करते हुए मेरे सम्मान की बात करते तो ठीक रहता। मुझे अपनी बात करते हुए अपनी नजरें नीचीं करनी पड़ती और बिचारों जैसा चेहरा बनाना पड़ता जो कि मुझे मंजूर नहीं। तुम्हें इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती।

पहले ब्लोगर ने कहा-“इसमें पक्ष और विपक्ष की क्या बात थी? वैसे क्या तुमने अपने सम्मान के लिये पैसे दिये हैं।”

दूसरा-“नहीं! तुमने क्या मुझे पागल समझ रखा है? सम्मान करने वाले का मुझ पर उधार है इसलिए उसे वसूल करने के लिये वह सम्मान कर रहा है। वह कोई अपना खर्च थोडे ही करेगा, वह इन अन्य सम्मानीय लोगों के पैसे से ही एडजस्ट करेगा। अब तुम जाओ मुझे दूसरा काम निपटाना है।”

पहला ब्लोगर गुस्से में बोला-“कमाल करते हो यार! यह मैं झोला लेकर कहां घूमूंगा। पहले मुझे मेरे घर तक पहुंचाओ फ़िर कहीं भी जाओ।”

दूसरा बोला-“यार जिस काम के लिये तुम्हें लाया था वह तो हुआ ही नहीं। बताओ मैं कैसे अब तुम्हें छोड्ने के लिये इतनी दूर कैसे चल सकता हूं, तम अभी टेम्पो से निकल जाओ बाद में तुम्हें पैसे दे दूंगा।”

पहला ब्लोगर समझ गया कि इससे माथा मच्ची करना बेकार है, और वह चलने को हुआ तो पीछे से दूसरा ब्लोगर बोला-“और हां सुनो। यह ब्लोगर मीट नहीं थी इसका मतलब यह नहीं है कि तुम रिपोर्ट नहीं लिखो। इस सम्मान समारोह पर जरूर लिखना, भूलना नहीं। तुम तो ऐसे ही लिख देना….यार कुछ भी लिख देना।

“पहले ब्लोगर ने व्यंग्य और गुस्से में पूछा-‘इसका शीर्षक क्या लिखूं? मेरे ख्याल से ‘सम्मान मेरा और असम्मान तुम्हारा’ शीर्षक ठीक रहेगा।”

दूसरा ब्लोगर बोला-“यार!इतना मैं कहाँ जानता हूँ तुम खुद ही सोच लेना।”

इससे पहले कुछ और बात पहला ब्लोगर उससे पूछ्ता वह स्कूटर से चला गया। इधर सामान्य होने के बाद पहला ब्लोगर सोच रहा था कि-मैने यह तो पूछा ही नहीं कि इस पर हास्य कविता लिखूं या नहीं? ठीक है इस बार भी हास्य आलेख ही लिखूंगा।”

ब्लोगर चला क्रिकेट मैच खेलने


ब्लोगर की कालोनी में क्रिकेट टीम में एक खिलाडी काम पड़ रहा था और उनकों दूसरी कालोनी से फेस्टिवल मैच खेलना था. पडोसियों को पता था कि ब्लोगर जब घर में होता है तो कंप्यूटर पर बैठा रहता है और शायद वह न चले. चूंकि मैच फेस्टिवल था और उसमें बड़ी उम्र के खिलाडी ही शामिल होने थे और लोग चाहते थे कि एकदम बड़ी उम्र के खिलाडियों की बजाय मध्यम उम्र के खिलाडी मैदान में उतारे जाएं और फिर उनकी कुछ अलग से पहचान हो। डाक्टर, वकील, प्रोफेसर और फिर उसमें एक ब्लोगर हो तो……इस ख्याल की वजह से ब्लोगर को टीम में खेलने के लिए राजी कर लिया गया।

अपनी कालोनी की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध एक लड़का उनके पास गया और तमाम तरह की बातें कर उनसे बोला-‘लोग तो और भी हैं पर आप तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ब्लोगर हैं यह बात हमें उन कालोनी वालों को बताना है। अरे! इस पूरे इलाके के आप अकेले ब्लोगर हैं और हमारी कालोनी में रहते हैं और जब आप क्रिकेट खेलेंगे तो सब दंग रह जायेंगे। आप पहले क्रिकेट खेलते रहे हैं हमें यह बात पता है।’

ब्लोगर ने कहाँ-‘यार तुम लोग तो कभी मेरा लिखा पढ़ते नहीं हो और वहाँ इस बात को मानेगा कौन? कभी कमेन्ट वगैरह तो देते नहीं हो।”

लड़के के कहा-”आप क्या बात करते हैं। यहाँ कई लोग आपका लिखा पढ़ते हैं।पर यह कमेंट क्या होता है आपने बताया ही नहीं।”

ब्लोगर ने कहा-‘अगर तुम पढ़ते होते तो मैं फ्लॉप ब्लोगर नहीं कहलाता। खैर! तुम कह रहे हो तो चलूँगा।’

निर्धारित दिन को वह मैदान में पहुंचा। उसकी कालोनी के कप्तान ने टास जीता और ओपनिंग में ब्लोगर को इसलिए भेजा कि वह पुराना खिलाडी है कुछ रन तो बना ही लेगा। ब्लोगर भी पूरी तैयारी के साथ अपने पुराने पैड, दास्ताने, और टोपी पहनकर बल्ला लेकर मैदान में पहुचा। उधर गेंदबाज गें फैंकने की तैयारी में था इधर विकेटकीपर ने उससे कहा-‘क्या आप ब्लोगर हैं?’

ब्लोगर ने उसकी बात को सुना और जवाब देने की बजाय इधर उधर देखा कहीं भी दर्शक दीर्घा में कालोनी के लोगों कोई दिखाई नहीं दिया। वह वापस लौट पडा। पीछे-पीछे प्रतिपक्षी टीम के खिलाड़ी चिल्ला रहे थे-‘जनाब कहाँ जा रहे हैं?’ अरे, मैच शुरू हो रहा है।’

मगर ब्लोगर ने किसी की नहीं सुनी और पैविलियन में अपने कप्तान के पास पहुच गया और बोला-” अभी मैच शुरू मत करो। यहाँ मेरे लिए कमेन्ट देने वाला कोई नहीं है। मेरे दो शिष्य और दो शिष्याएं अभी आने वाले है।उनको मैंने कमेन्ट देने के लिए बुलाया है।’

सब हक्के-बक्के रह गए और एक दूसर से बोले-यह ब्लोगर है यह तो हमने सुना है, पर कमेन्ट का क्या लफडा है।’

इतने में उसके शिष्य और शिष्याएं वहाँ कमेंट के होर्डिंग लेकर पहुचं गए। उन पर लिखा था-‘बहुत सुंदर’, ‘मजा आ गया’, ‘बहुत खूब’ और आदि। एक शिष्य बोला-‘सर!वह पेंटर ने हमें बहुत लेट से यह सामग्री दी। इसलिए हमें देरी हो गयी।’

ब्लोगर ने उनकी भी नहीं सुनी और होर्डिंग पढ़ने लगा और बोला-‘इसमे ”वाह क्या जोरदार हिट है’ वाला होर्डिंग नहीं दिखाई दिया। मैंने उसे पैसे तो पूरे दिए थे।”

उसकी एक शिष्या सहमते हुए बोली-‘सर, उस पर गलत लिख गया था।’ वाह क्या जोरदार हेट है’ लिखा था। पेंटर ने कहा मैं ठीक कर देता हूँ पर हमें सोचा कि देरी हो जायेगी।”

ब्लोगर का मूड उखड गया फिर भी मैदान में उतरा। अब मैच भी जिस तरह होना था हुआ। ब्लोगर ने रन तो बनाए दो, पर गेंद फैंकने वाले इधर-उधर फैंकते कि वह वाइड होकर बाहर चली जाती और उस पर उनकी टीम को चार-चार रन कई बार मिले-पर इससे क्या? उसके दूर बैठे शिष्य यही सोच कर होर्डिंग लहराते रहे कि उनके गुरूजी का शाट है। उसकी वजह से दर्शकों को भी गलतफहमी हो जाती कि ब्लोगर ही रन बना रहा है। वह आउट होकर लौट रहा था तब भी होर्डिंग लहराये जा रहे थे। उसके लौटने पर कप्तान ने कहा-क्या खूब रन बनाए।’

ब्लोगर ने बोलिंग नहीं की पर उनकी टीम जीत गयी। वापस लौटते हुए एक शिष्या अपने साथी से कहा-‘हमारे सर ने रन तो दो ही बनाए। मैंने स्कोरर से पूछा था।’

एक शिष्य ने उससे कहा-चुप! तुझे ब्लोग बनाना सीखना है कि नहीं, और सीख गयी है तो बाद में कमेन्ट चाहिए कि नहीं।

शिष्या चुप हो गयी और ब्लोगर विजेता की तरह सीना ताने चलता रहा।