Category Archives: हिंदी ब्लाग

बैचेन रहने की आदत है साहित्यक चोरी देखकर-हिन्दी व्यंग्य (baocjen rahne ki aadat hai sahityak chori dekhkar)


लिखना तथा एक तिवारी जी नामक हिन्दी पटकथा लेखक पर संयोग ऐसा बन गया कि हमें अपना नाम जोड़कर भी इस लेख को लिखना पड़ रहा है क्योंकि इंतजार है उस ब्लाग लेखक के उत्तर का जिसने बिना कांट छांट किये हमारी एक कविता को अपने ब्लाग पर बिना नाम के छाप दिया और हमने उस पर अपनी टिप्पणी लिख कर मामले के निपटारे की मांग की है।
हिन्दी में रचनाकार नहीं है, यह नारा बहुत दिनों से सुन रहे हैं-इस नारे में बाज़ार, राज्य तथा प्रचार व्यवसाय के जुड़े लोगों के जो वह बुद्धिजीवी लगाते हैं जो केवल आलेख लिखते हैं वह भी प्रायोजन मिलने पर। इधर राखी का इंसाफ धारावाहिक विवाद में फंसा तो एक राखी का स्वयंवर धारावाहिक का एक पटकथा लेखक सामने आया जिसने यह दावा किया है कि वह उसकी चुराई हुई है। स्थिति यह है कि उसने आत्महत्या करने की धमकी दे डाली है जैसे कि राखी के इंसाफ में ताने से प्रेरित होकर झांसी के एक लक्ष्मण युवक ने कर ली है।
तिवारी नाम धारी उसे लेखक का दावा था कि जब उसने अपनी पटकथा का होने का दावा किया तो उसे धमकाया गया और कहा गया कि ‘इसकी नायिका एक तरह से पूरे मीडिया की बेटी है। इसलिये उससे पंगा मत लो।’
हमें उस तिवारी नामधारी लेखक से सहानुभूति है। ऐसा लगता है कि वह सच बोल रहा होगा क्योंकि फिल्मों के बारे में मिली यह पहली शिकायत नहीं है। हमारे एक चौरसिया नाम के एक मित्र कहानीकार हैं। उन्होंने कम से कम पच्चीस वर्ष पूर्व एक कलात्मक फिल्म में अपनी कहानी चोरी होने की बात कही थी। तब हंसी आयी थी पर इसमें कोई शक नहीं था चौरसिया जी उच्च दर्जे के कहानीकार हैं। इधर हमने यह भी देखा कि एक अखबार हमारे ही चिंतनों को जस का तस छापता रहा है। जब नाम छापने को कहते हैं कि तो जवाब मिलता है कि ब्लाग का नाम छापने की परंपरा नहीं है। नाम छापने को कहा गया तो जवाब मिला कि अपने संपादक से कहेंगे कि आपकी रचनायें नहीं ले।
कितनी तुच्छ मानसिकता है उन लोगों की जो हिन्दी की खा रहे हैं। हिन्दी लेखक उनकी नज़र में है क्या? क्या खौफ है कि नाम छापेंगे तो लेखक अमिताभ बच्चन बन जायेगा और उसे साबुन, क्रीम या मोटरसाइकिल के विज्ञापन मिलने लगेंगे। मजे की बात है कि नामा न देने की बात स्वीकार तो हिन्दी लेखक कर ही लेते हैं कि क्योंकि उनको पता है कि हिन्दी लेखन और पूंजीपतियों के बीच जो दलाल हैं वह अपना ही पेट मुश्किल से भर पाते हैं पर नाम न देने की बात हमारे समझ में नहीं आयी। स्थिति यह हो गयी है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं के पास अब साफ सुथरी हिन्दी लिखने वाले ही नहीं बचे। महंगाई बढ़ रही है कि हिन्दी के अखबार की कीमत आज भी दो ढाई रुपये से अधिक नहीं है। अब तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लिये पाठक और दर्शक एक तरह से गूंगी फौज हो गयी है जिसके सहारे वह उच्च स्तर पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं वरना आम आदमी में उनकी कोई पकड़ नहीं है। आजकल तो हर आदमी टीवी की तरह मुंह किये बैठा है। इसलिये ही स्थानीय स्तर पर टीवी चैनलों ने अपने पंाव फैला दिये हैं। अखबार छपने की संख्या और उसे पढ़ने वालों की संख्या में बहुत अंतर है। उससे भी अधिक अंतर तो पढ़ने वाले और उस अखबार से हमदर्दी रखने और पढ़ने वालों के बीच है। मतलब यह कि पहले लोग न केवल अखबार पढ़ते थे बल्कि उसे मानसिक हमदर्दी भी रखते थे। यह अब नहंी है।
हिन्दी ब्लाग पर लिखना और लिखवाना आसान नहीं है। अगर किसी लेखक से लिखने को कहो तो वह कहता है कि रचना चोरी हो जायेगी। मतलब यह कि लिखने को तैयार नहीं है और जो लिख रहे हैं वह चोरी का शिकार हो रहे हैं। लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी के ब्लाग केवल ब्लाग लेखक ही पढ़ रहे हैं और अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। जबकि इस लेखक के गांधी और ओबामा पर लिखे पाठों के अनेक एक स्तंभकार ने चोरी किये जो कि इसका प्रमाण है कि कथित बुद्धिजीवी भी अब अंतर्जाल पर अपनी सामग्री टटोल रहे हैं। यह शायद मजाक लगता हो पर सच यही है कि कुछ ब्लाग लेखकों का नाम बाहर नहीं लिया जा रहा पर सच यही है कि उनके पाठ दूरगामी मार वाले हैं और बुद्धिजीवी उनसे प्रभावित हैं। हिन्दी ब्लाग पर कूड़ा लिखा जा रहा है तो बताईये बाहर कौनसा सदाबाहर साहित्य लिखा पढ़ने को मिल रहा है। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठकों की टिप्पणियां इस तरह की आती हैं कि ‘गजब! आप ऐसा भी सोच और लिख सकते हैं।’
लोगों के पास चिंतन नहीं है, दावा चाहे कितने भी करें। नारों पर लिखते हैं और वाद सजाते हैं। फिर उसमें किसी न किसी की तारीफ या निंदा का बिगुल बजाते हैं। फिल्म वालों के पास तो काल्पनिकता और यथार्थ का समन्वय करने की कभी शक्ति ही नहीं दिखी है क्योंकि वहां के निर्माता और निर्देशक हिन्दी लेखकों को स्वतंत्रता न देकर लिपिक बना लेते हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को लिपिक की तरह ही देखा जाता है। स्थिति यह है कि अधिकतर हिन्दी अखबार अब अंग्रेजी शब्दों के मोह में फंस गये हैं। प्रबंधन करना नहीं आया तो अब मैनेजमेंट करने लगे हैं। क्या खाक करेंगे? प्रबंधन हो या मैनेजमेंट बिना चिंतन और मनन के नहीं होते। हिन्दी का खाकर उसे मिटाने की योजना या साजिश रची गयी है। कहते हैं कि हिन्दी को विश्व स्तर पर पहुंचाना है। क्या खाक पहुंचायेंगे खुद को आती नहीं है। फिर दावा कि हम भाषाविद हैं? क्या खाक हैं एक ढंग की कविता नहीं लिख सकते। हम जैसी कि चुराने का मन हो? कुछ गुस्सा और कुछ हंसी! इस भाव से हम यह लेख लिख रहे हैं क्योंकि चोरी का सदमा है तो खुशी इस बात की है कि हम अच्छा लिख रहे हैं।
आईये पहले उस ब्लाग का नाम देखें। उससे पहले देखकर आयें कि उसने हमारी टिप्पणी का क्या किया? उसने न टिप्पणी प्रकाशित की और न ही जवाब दिया। हम भी उसका नाम नहीं लिख रहे। उसकी बेवसाईट का पता रख लिया है। ऐसा लगता है कि बिचारा रोमन में हिन्दी लिखता है और यह उसकी पहली ऐसी रचना है जो देवानगारी में है। हम उसे बदनाम नहीं करना चाहते पर उम्मीद है कि भाई लोग इसे पढ़कर उसे समझायेंगे। वैसे वह  हमारी टिप्पणियाँ नहीं छाप रहा पर रोमन लिपि में अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर रहा  है । हम यह सब  इसलिए रहे हैं क्योंकि बैचेन रहने की आदत ऐसे नहीं जाएगी। यहाँ यह भी बता दें हमारी रचना छापने का दाम पूछकर एक हज़ार और न पूछना पर दो हज़ार है और हम इसकी विधिवत माग करेंगे। इस लेख का लिखने का दंड अलग से वसूल करेंगे।  
हमारी   रचना यह है 
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बैचेन रहने की  आदत 
लोगों की हमेशा बेचैन रहने की
आदत ऐसी हो गयी है कि
जरा से सुकून मिलने पर भी
डर जाते हैं,
कहीं कम न हो जाये
दूसरों के मुकाबले
सामान जुटाने की हवस
अभ्यास बना रहे लालच का
इसलिये एक चीज़ मिलने पर
दूसरी के लिये दौड़ जाते हैं
। 
—————————
हमारा लिंक यह हैं
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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कभी गाड़ी नाव पर चढ़ी, कभी नाव गाड़ी पर पड़ी-हिन्दी व्यंग्य और हास्य कविता (naav aur gaadi-hindi vyangya and hasya kavita)


भगवान श्री राम की महिमा विचित्र है। बड़े ऋषि, मुनि तथा संत यही कहते हैं कि उनकी भक्ति के बिना उनको समझा नहीं जा सकता और भक्ति के बाद भी कोई जान ले इसकी गारंटी नहीं है। राम अपने भक्तों की परीक्षा इतने लंबे समय तक लेते हैं कि वह हृदय में बहुत व्यथा अनुभव करता है। मगर जब परिणाम देते हैं तो भले ही क्षणिक सुख मिले पर वह पूरी पीड़ा को हर लेता है। हम बात कर रहे हैं अयोध्या में राम मंदिर मसले पर अदालती फैसले की। अभी यह मसला ऊंची अदालत में जा सकता है-ऐसी संभावना दिखाई देती है- इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि राम मंदिर बनना तय है। हम यहां अदालत के फैसले पर टीका टिप्पणी नहीं कर रहे पर इस मसले को भावनात्मक रूप से भुनाकर लेख लिखकर या बयान देकर प्रसिद्ध बटोरने वालों की हालत देखकर हंसी आती है। यह सभी लोग इस पर होने वाली बहस के लाभों से वंचित होने पर रुदन कर रहे हैं हालांकि दावा यह कि वह तो राम मंदिर विरोधियों के साथ हुए अन्याय का विरोध कर रहे हैं। जो लोग राम मंदिर समर्थक हैं उनकी बात हम नहीं कर रहे पर जो इसके नाम पर सर्वधर्मभाव की कथित राज्यीय नीति बचाने के लिये इसका विरोध करते हैं उनका प्रलाप देखने लायक है। उनका रुदन राम भक्तों को सुख का अहसास कराता है।
याद आते हैं वह दिन कथित सभी धर्मों की रक्षा की नीति की आड़ में राम भक्तों को अपमानित करते रहते थे। उनके बयान और लेख हमेशा राम मंदिरों का दिल दुखाने के लिये होते थे ताकि राम मंदिर विरोधियों से उनको निरंतर बोलने और लिखने के लिये प्रायोजन मिलता रहे। मुश्किल यह है कि ऐसे बुद्धिजीवी आज़ादी के बाद से ही छद्म रूप से भारत हितैषी संस्थाआंें से प्रयोजित रहे। हिन्दी के नाम पर इनको इनाम तो मिलते ही हैं साथ ही हिन्दी को समृद्ध करने के नाम पर अन्य विदेशी भाषाओं से अनुवाद का काम भी मिलता है। यह अपने अनुवादित काम को ही हिन्दी का साहित्य बताते रहे हैं। अब आप इनसे पूछें कि हर देश की सामाजिक पृष्ठभूमि तथा भौगोलिक स्थिति अलग अलग होती है तो वहां के पात्र या विचाराधाराऐं किस आधार पर यहां उपयुक्त हो सकती हैं? खासतौर से जब हमारे समाज में अभी तक धर्म से कम ही धन की प्रधानता रही है।
बहरहाल अब इनका रुदन राम भक्तों की उस पीड़ा को हर लेता है जो इन लोगों ने कथित रूप से सभी धर्म समान की राज्यीय नीति की आड़ में उसका समर्थन करते हुए नाम तथा नामा पाने के लिये बयान देकर या लेख लिखकर दी थी। हालांकि इनकी रुदन क्षमता देखकर हैरानी हो रही है कि वह बंद ही नहीं होता। गाहे बगाहे अखबार या टीवी पर कोई न कोई आता ही रहता है जो राम मंदिर बनने की संभावनाओं पर रुदन करता रहता है। कहना चाहिये कि राम भक्तों की हाय उनको लग गई है। सच कहते हैं कि गरीब की हाय नहीं लेना चाहिए। भारत में गरीब लोगों की संख्या ज्यादा है पर इनमें अनेक भगवान राम मंदिर में अटूट आस्था रखते हैं। यह लोग किसी का प्रायोजन नहीं कर सकते जबकि राम मंदिर विरोधियों में यह क्षमता है कि वह बुद्धिजीवी और प्रचार कर्मियों को प्रायोेजित कर सकते हैं। ऐसे में अल्पधनी राम भक्त सिवाय हाय देने के और क्या कर सकते थे? कहते हैं जो होता है कि राम की मर्जी से होता है। राम से भी बड़ा राम का नाम कहा जाता है। यही कारण है कि राम मंदिर के विरोधी भी राम का नाम तो लेते हैं इसलिये उन पर माया की कृपा हो ही जाती है। अलबत्ता अंततः राम भक्तों की हाय उनको लग गयी कि अब उनका रुदन सुखदायी रूप में प्रकट हुआ।
इस पर प्रस्तुत है एक हास्य कविता
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जब से राम मंदिर बनने की संभावना
सभी को नज़र आई है,
विरोधियों की आंखों से
आंसुओं की धारा बह आई है।
कहते हैं कि चलती रहे जंग यह
हमें आगे करना और कमाई है,
उनका कहना है कि न राम से काम
न वह जाने सीता का नाम,
बस, मंदिर नहीं बने,
ताकि लोग रहें भ्रम में
और विदेशी विचाराधाराओं की आड़ में
उनकी संस्थाओं का तंबु तने,
मंदिर में जो चढ़ावा जायेगा,
हमारी जेब को खाली कराऐगा,
इसलिये सभी धर्मो की रक्षा के नाम पर
राम मंदिर न बनने देने की कसम उन्होंने खाई है,
जिसके जीर्णोद्धार की संभावनाओं ने
मिट्टी लगाई है।
कौन समझाये उनको
राम से भी निराला है उनका चरित्र
उन्होंने कभी नाव लादी गाड़ी पर
कभी गाड़ी नाव पर चढ़ाई है।
————

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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साहित्य आखिर होता क्या है-आलेख (article on hindi sahitya)


हिंदी की विकास यात्रा नहीं रुकेगी। लिखने वालों का लिखा बना रहेगा भले ही वह मिट जायें। पिछले दिनों कुछ दिलचस्प चर्चायें सामने आयीं। हिंदी के एक लेखक महोदय प्रकाशकों से बहुत नाखुश थे पर फिर भी उन्हें ब्लाग में हिंदी का भविष्य नहीं दिखाई दिया। अंतर्जाल लेखकों को अभी भी शायद इस देश के सामान्य लेखकों और प्रकाशकों की मानसिकता का अहसास नहीं है यही कारण है कि वह अपनी स्वयं का लेखकीय स्वाभिमान भूलकर उन लेखकों के वक्तव्यों का विरोध करते हुए भी उनके जाल में फंस जाते हैं।
एक प्रश्न अक्सर उठता है कि क्या ब्लाग पर लिखा गया साहित्य है? जवाब तो कोई नहीं देता बल्कि उलझ कर सभी ऐसे मानसिक अंतद्वंद्व में फंस जाते हैं जहां केवल कुंठा पैदा होती है। हमारे सामने इस प्रश्न का उत्तर एक प्रति प्रश्न ही है कि ‘ब्लाग पर लिखा गया आखिर साहित्य क्यों नहीं है?’

जिनको लगता है कि ब्लाग पर लिखा गया साहित्य नहीं है उनको इस प्रश्न का उत्तर ही ढूंढना चाहिए। पहले गैरअंतर्जाल लेखकों की चर्चा कर लें। वह आज भी प्रकाशकों का मूंह जोहते हैं। उसी को लेकर शिकायत करते हैं। उनकी शिकायतें अनंतकाल तक चलने वाली है और अगर आज के समय में आप अपने लेखकीय कर्म की स्वतंत्र और मौलिक अभिव्यक्ति चाहते हैं तो अंतर्जाल पर लिखने के अलावा कोई चारा नहीं है। वरना लिफाफे लिख लिखकर भेजते रहिये। एकाध कभी छप गयी तो फिर उसे दिखा दिखाकर अपना प्रचार करिये वरना तो झेलते रहिये दर्द अपने लेखक होने का।
उस लेखक ने कहा-‘ब्लाग से कोई आशा नहीं है। वहां पढ़ते ही कितने लोग हैं?
वह स्वयं एक व्यवसायिक संस्थान में काम करते हैं। उन्होंने इतनी कवितायें लिखी हैं कि उनको साक्षात्कार के समय सुनाने के लिये एक भी याद नहीं आयी-इस पाठ का लेखक भी इसी तरह का ही है। अगर वह लेखक सामने होते तो उनसे पूछते कि ‘आप पढ़े तो गये पर याद आपको कितने लोग करते हैं?’
अगर ब्लाग की बात करें तो पहले इस बात को समझ लें कि हम कंप्यूटर पर काम कर रहे हैं उसका नामकरण केल्कूलेटर, रजिस्टर, टेबल, पेन अल्मारी और मशीन के शब्दों को जोड़कर किया गया है। मतलब यह है कि इसमें वह सब चीजें शामिल हैं जिनका हम लिखते समय उपयोग करते हैं। अंतर इतना हो सकता है कि अधिकतर लेखक हाथ से स्वयं लिखते हैं पर टंकित अन्य व्यक्ति करता है और वह उनके लिये एक टंकक भर होता है। कुछ लेखक ऐसे भी हैं जो स्वयं टाईप करते हैं और उनके लिये यह अंतर्जाल एक बहुत बड़ा अवसर लाया है। स्थापित लेखकों में संभवतः अनेक टाईप करना जानते हैं पर उनके लिये स्वयं यह काम करना छोटेपन का प्रतीक है। यही कारण है अंतर्जाल लेखक उनके लिये एक तुच्छ जीव हैं।
इस पाठ का लेखक कोई प्रसिद्ध लेखक नहीं है पर इसका उसे अफसोस नहीं है। दरअसल इसके अनेक कारण है। अधिकतर बड़े पत्र पत्रिकाओं के कार्यालय बड़े शहरों में है और उनके लिये छोटे शहरों में पाठक होते हैं लेखक नहीं। फिर डाक से भेजी गयी सामग्री का पता ही नहीं लगता कि पहुंची कि नहीं। दूसरी बात यह है अंतर्जाल पर काम करना अभी स्थापित लोगों के लिये तुच्छ काम है और बड़े अखबारों को सामगं्री ईमेल से भी भेजी जाये तो उनको संपादकगण स्वयं देखते हों इसकी संभावना कम ही लगती है। ऐसे में उनको वह सामग्री मिलती भी है कि नहीं या फिर वह समझते हैं कि अंतर्जाल पर भेजकर लेखक अपना बड़प्पन दिखा रहा इसलिये उसको भाव मत दो। एक मजेदार चीज है कि अधिकतर बड़े अखबारों के ईमेल के पते भी नहीं छापते जहां उनको सामग्री भेजी जा सके। यह शिकायत नहीं है। हरेक की अपनी सीमाऐं होती हैं पर छोटे लेखकों के लिये प्रकाशन की सीमायें तो अधिक संकुचित हैं और ऐसे में उसके लिये अंतर्जाल पर ही एक संभावना बनती है।
इससे भी हटकर एक बात दूसरी है कि अंतर्जाल पर वैसी रचनायें नहीं चल सकती जैसे कि प्रकाशन में होती हैं। यहां संक्षिप्तीकरण होना चाहिये। मुख्य बात यह है कि हम अपनी लिखें। जहां तक हिट या फ्लाप होने का सवाल है तो यहां एक छोटी कहानी और कविता भी आपको अमरत्व दिला सकती है। हर कविता या कहानी तो किसी भी लेखक की भी हिट नहीं होती। बड़े बड़े लेखक भी हमेशा ऐसा नहीं कर पाते।
एक लेखिका ने एक लेखक से कहा-‘आपको कोई संपादक जानता हो तो कृपया उससे मेरी रचनायें प्रकाशित करने का आग्रह करें।’
उस लेखक ने कहा-‘पहले एक संपादक को जानता था पर पता नहीं वह कहां चला गया है। आप तो रचनायें भेज दीजिये।’
उस लेखिका ने कहा कि -‘ऐसे तो बहुत सारी रचनायें भेजती हूं। एक छपी पर उसके बाद कोई स्थान हीं नहीं मिला।‘
उस लेखक ने कहा-‘तो अंतर्जाल पर लिखिये।’
लेखिका ने कहा-‘वहां कौन पढ़ता है? वहां मजा नहीं आयेगा।
लेखक ने पूछा-‘आपको टाईप करना आता है।’
लेखिका ने नकारात्मक जवाब दिया तो लेखक ने कहा-‘जब आपको टाईप ही नहीं करना आता तो फिर अंतर्जाल पर लिखने की बात आप सोच भी कैसे सकती हैं?’
लेखिका ने कहा-‘वह तो किसी से टाईप करवा लूंगी पर वहां मजा नहीं आयेगा। वहां कितने लोग मुझे जान पायेंगे।’
लेखन के सहारे अपनी पहचान शीघ्र नहीं ढूंढी जा सकती। आप अगर शहर के अखबार में निरंतर छप भी रहे हैं तो इस बात का दावा नहीं कर सकते कि सभी लोग आपको जानते हैं। ऐसे में अंतर्जाल पर जैसा स्वतंत्र और मौलिक लेखन बेहतर ढंग से किया जा सकता है और उसका सही मतलब वही लेखक जानते हैं जो सामान्य प्रकाशन में भी लिखते रहे हैं।
सच बात तो यह है कि ब्लाग लिखने के लिये तकनीकी ज्ञान का होना आवश्यक है और स्थापित लेखक इससे बचने के लिये ऐसे ही बयान देते हैं। वैसे जिस तरह अंतर्जाल पर लेखक आ रहे हैं उससे पुराने लेखकों की नींद हराम भी है। वजह यह है कि अभी तक प्रकाशन की बाध्यताओं के आगे घुटने टेक चुके लेखकों के लिये अब यह संभव नहीं है कि वह लीक से हटकर लिखें।
इधर अंतर्जाल पर कुछ लेखकों ने इस बात का आभास तो दे ही दिया है कि वह आगे गजब का लिखने वाले हैं। सम सामयिक विषयों पर अनेक लेखकों ने ऐसे विचार व्यक्त किये जो सामान्य प्रकाशनों में स्थान पा ही नहीं सकते। भले ही अनेक प्रतिष्ठत ब्लाग लेखक यहां हो रही बहसें निरर्थक समझते हों पर यह लेखक नहीं मानता। मुख्य बात यह है कि ब्लाग लेखक आपस में बहस कर सकते हैं और आम लेखक इससे बिदकता है। जिसे लोग झगड़ा कह रहे हैं वह संवाद की आक्रामक अभिव्यक्ति है जिससे हिंदी लेखक अभी तक नहीं समझ पाये। हां, जब व्यक्तिगत रूप से आक्षेप करते हुए नाम लेकर पाठ लिखे जाते हैं तब निराशा हो जाती है। यही एक कमी है जिससे अंतर्जाल लेखकों को बचना चाहिये। वह इस बात पर यकीन करें कि उनका लिखा साहित्य ही है। क्लिष्ट शब्दों का उपयोग, सामान्य बात को लच्छेदार वाक्य बनाकर कहना या बड़े लोगों पर ही व्यंग्य लिखना साहित्य नहीं होता। सहजता पूर्वक बिना लाग लपेटे के अपनी बात कहना भी उतना ही साहित्य होता है। शेष फिर कभी।
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अंतर्जाल पर हिंदी का वैश्विक काल-आलेख


अंतर्जाल पर हिंदी अब ‘वैश्विक काल’ में प्रवेश कर चुकी है। अभी तक हिंदी का आधुनिक काल चल रहा था पर ‘वैश्विक काल‘ में हिंदी की रचनाओं के स्वरूप की कल्पना करना अभी सहज नहीं लगता पर इतना जरूर है कि वह वैसा नहीं होगा जैसा कि अब तक था। अभी अनेक ब्लाग लेखक ऐसी बहसों में उलझ जाते हैं जिसमें उनको अपनी पहचान ही याद नहीं रहती। लेखक ब्लागर और ब्लाग लेखक के बीच का अंतर सभी ने समझ लिया है पर हिंदी के वैश्विक काल में उसका कोई महत्व नहीं रहने वाला है।
सवाल यह है कि कौन लोग इस वैश्विक काल में हिंदी का ध्वज वाहक होंगे? यकीनन वही लोग जिनका लिखने के प्रति समर्पण होगा मगर यहां नये लेखकों को लाना आसान काम नहीं है खासतौर से जब आर्थिक लाभ न हो। यह मामला भी चल जाये पर जब शाब्दिक या तकनीकी ज्ञान का प्रचार पर्याप्त न हो तब यह काम और कठिन लगता है।
वह नौजवान इंजीनियर मेरा कंप्यूटर ठीक करने आया था। दरअसल मेरा कंप्यूटर मेरी गल्तियों के कारण खराब हुआ। पड़ौस का एक लड़का उसे अनावश्यक रूप से फारमेट कर दे गया। उसके बाद मैंने कंप्यूटर बेचने वाले साफ्टवेयर इंजीनियर को बुलाया तो उसने सारे प्रोग्राम लोड कर दिये पर वह उस कमी को दूर नहीं कर सका और हार्डवेयर इंजीनियर को लाने का वादा कर चला गया। उसके जाने के बाद कंप्यूटर की वह कमी तो दूर हो गयी जिसकी वजह से परेशान होकर मैंने उसे स्वयं ही खराब कर दिया था पर आशंका बनी हुई थी। वह साफ्टवेयर इंजीनियर उस 16 साल के लड़के को ले आया। उसने कुछ टांके लगाये ओर मुझे लगा कि वह दिखाने के लिये अधिक समय ले रहा है क्योंकि उस लाने वाले लड़के का शायद यही उसे निर्देश था। उन्होंने काम खत्म कर मुझसे सात सौ रुपये मांगे पर मैंने पांच सौ दिये। वह रकम भी मुझे अधिक लगी।
काम खत्म होने के बाद उस 16 वर्षीय इंजीनियर लड़के ने मुझसे पूछा कि ‘आखिर आप इस कंप्यूटर का उपयोग क्या करते हैं?’
मैंने कहा-‘कुछ नहीं? एैसी फिल्में देखता हूं जो कहीं देखने को नहीं मिलती!’
साफ्टवेयर इंजीनियर ने जो उस समय दलाल की भूमिका में था बोला-‘अंकल मजाक कर रहे हैं यह अपना ब्लाग लिखते हैं।’
वह लड़का बोला-‘सर, आपका ब्लाग कौनसा है?’
मैंने उससे कहा-‘कभी इंटरनेट पर हिंदी में लिखी सामग्री पढ़ी है तो बताऊं।
उसने कहा-‘हां, मैं वेब दुनिया में पढ़ता हूं। जब मुझे हिंदी में पढ़ने में होता है तो वहीं जाता हूं। इस समय हिंदी में पढ़ने वाले लोग उसका ही उपयोग अधिक कर रहे हैं।
तब मेरे समझ में आया कि वर्डप्रेस के ब्लाग पर इतने हिट कहां से आ रहे हैं? मैंने मैंने उससे मजाक में कहहा-‘क्या तुम जानते हो कि तुम विश्व प्रसिद्ध हिंदी लेखक ब्लागर का कंप्यूटर ठीक करने आये हो?’
उसने पूछा-‘आप किस नाम से लिखते हो?’
मैंने उसे अपना नाम बताया और पूछा कि क्या कभी यह नाम उसके सामने आया है?
वह सोच में पड़े गया और बोला-‘मुझे याद नहीं आ रहा है। वैसे मैंने कई लोगों को पढ़ा है पर नाम पर कभी ध्यान नहीं दिया!’
मैंने उससे कहा-‘तुम कंप्यूटर पर हिंदी में ब्लाग लिख सकते हो?’
उसने मना करते हुए कहा-‘पर वहां हिंदी में कैसे लिखा जा सकता है।’
मैंने उसे इंडिक टूल खोलकर उस पर अपना नाम लिखने को कहा। उसने अंग्रेजी में टाईप कर जैसे ही स्पेस दबाया वह हिंदी में हो गया। उसके मूंह से निकल गया‘वाह’।
वह बोला-‘सर, मुझे पेन दीजिये मैं इस वेबसाईट को नोट करूंगा।’
मैंने उसे पेन देते हुए कहा-‘अगर तुम जीमेल पर काम करोगे तो वहां भी अब हिंदी लिखने की सुविधा है जो मुझे कल ही मिली है।’
उसने कहा-‘मैं अब जाकर जीमेल पर अपना खाता बनाऊंगा। अभी तक याहू पर ही काम चला रहा था।’
साफ्टवेयर इंजीनियर बहुत समय से कंप्यूटर लाईन में है पर वह भी हिंदी लिखने के टूल से अनभिज्ञ था। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी में इंटरनेट कनेक्शन बहुत हैं पर लोगों को यह पता नहीं कि उसका हिंदी उपयोग कैसे हो सकता है। देखा यह गया है कि हिंदी के ब्लाग लेखक ही जीमेल का अधिक उपयोग करते हैं क्योंकि उसने ही हिंदी के टूल लिखने की सुविधा उपयोगार्थ प्रस्तुत की है जबकि याहू का इस मामले में कोई भूमिका नहीं है। यह आश्चर्य की बात है कि मेरे आसपास के जिन लोगों ने इंटरनेट कनेक्शन लिये उन्होंने अपने ईमेल याहू पर ही बनाये। याहू के मामले में लोगों को पता नहीं क्यों उसके स्वदेशी होने का भ्रम है। बहुत पहले यह बात उड़ाई गयी थी कि यह एक भारतीय अभिनेता के स्वामित्व में है।
इस धीमी प्रगति के बावजूद अंतर्जाल पर हिंदी का वैश्विक काल उज्जवल रहने वाला है। जैसे जैसे हिंदी में लिखने के टूल का प्रचार होता जायेगा वैसे ही ढेर सारे लेखक यहां आयेंगे। हालांकि अभी जो हिंदी में लिख रहे हैं वह अपने को भाग्यशाली मानते हैं पर कुछ समय बाद यह प्रसन्नता समाप्त हो जायेगी। मैं अपने से मिलने वाले इंटरनेट कनैक्शनधारी लोगों को जब हिंदी के बारे में बताता हूं तो वह यकीन नहीं करते कि हिंदी में वहां लिखा जा रहा है।
जाते समय उस लड़के ने पूछा-‘सर, आपकी वेबसाईट का नाम क्या है?’
मैंने उससे कहा-‘तुम तो वेबदुनियां पर पढ़ो। जहां तुम्हें अपनी पसंद की सामग्री दिखे उसे पढ़ो और दोस्तों को भी पढ़ाओ।’
उसने फिर पूछा-‘आपके ब्लाग का नाम क्या है?’
मैंने उसस कहा-‘तुम तो ब्लागवाणी, नारद, चिट्ठाजगत और हिंदी ब्लाग पर जाओ और जो भी अच्छा लगे पढ़ो। केवल मेरा लिखा तुम पढ़ो और कहीं निराश हुए तो तुम्हारा मन टूट सकता है। हां, पढ़ते पढ़ते कहीं मेरा नाम जरूर आ जायेगा।’
उसने जाते जाते यही कहा-‘आपने यह मुझे बहुत बढ़िया टूल बताया। अब मैं वेबदुनियां पर सर्च कर अधिक पढ़ा करूंगा।’
शायद वह टूल उसके लिये बहुत उपयोगी होता अगर वह ब्लाग लिखता पर जीमेल पर ही उसके उपलब्ध होने के बाद उसके लिये इस इंडिक टूल की क्या उपयोगिता हो सकती है-मैं सोच रहा था।
बहरहाल उसकी बातों से हिंदी के वैश्विक काल में प्रवेश होने के संकेत समझे जा सकते थे ओर यकीनन अंतर्जाल से पूर्व के अनेक विचार, शैलियां और रुचियां परिवर्तित होंगी और उससे हिंदी के साहित्य का स्वरूप भी नहीं बच सकेगा। याद रखन वाली बात यह है कि अंतर्जाल पर उसी लेखक को सफलता मिलेगी जो संक्षिप्त रूप से अपनी बात कहेगा। वह इतनी भी संक्षिप्त भी ं न हो कि चार लाईनें अनावश्यक रूप से थोप दीं और समझा लिया कि हो गये लेखक या कवि। सार्थक, विचारप्रद और शिक्षाप्रद रचनाओं की अपेक्षा तो पाठक करेगा पर वह इतनी लंबी न हों कि वह अपनी आंखों इतना कष्ट दे कि उसकी चिंतन क्षमता प्रभावित हो।
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यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
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4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका

दक्षिण एशिया के साहित्यकार आतंक पर सच लिख भी कहां पाये-आलेख


अभी हाल ही में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यकार सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें भारत, पाकिस्तान,श्रीलंका,बंग्लादेश तथा अन्य सदस्य देशों के नामचीन साहित्यकार शामिल हुए। जैसा कि संभावना थी कि इस इलाके में व्याप्त आतंकवाद भी इसमें चर्चा का विषय बना। जब इलाके में आतंकवाद का बोलबाला है तो यह स्वाभाविक भी है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्यकार इसी दर्पण की आंख की तरह देखने वाला होता है। इन साहित्यकारों ने आतंकवाद की निंदा की है और अपने देश के हिसाब से ही अपने विचार व्यक्त किये। पाकिस्तान के एक साहित्यकार ने बंग्लादेश में हाल ही में हुए विद्रोह में अपने देश का हाथ होने के आरोप का खंडन किया। बात यहीं पर ही अटक जाती है कि साहित्यकारों को क्या उसी नजरिये पर चलना चाहिये जिस पर उनका समाज या देश चल रहा है।

पहले तो यहां साहित्यकार और पत्रकार का भेद स्पष्ट करना जरूरी है। पत्रकार जो देखता है वही दिखाता और लिखता है पर साहित्यकार का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिये। पत्रकार कल्पना नहीं करता और न उसे करना चाहिये पर साहित्यकार को किसी घटना में तर्क के आधार पर कल्पना और अनुमान करने की शक्ति होना चाहिये। अपने समाज और देश के प्रति साहित्यकार की प्रतिबद्धता होना जरूरी है पर उसे अंधभक्ति से दूर रहना चाहिये। दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अपने देश में जो इनाम मिलते हैं वही उनकी प्रतिष्ठा का आधार बनते हैं पर सच तो यह है कि पूरे क्षे.त्र की हालत एक जैसी है और सभी जगह यह पुरस्कार लेखकों के संबंधों पर अधिक दिये जाते हैं और कई तो ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कार पा जाते हैं जिनको समाज में ही अहमियत नहीं दी जाती है। बहरहाल दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अब इस बात का भी मंथन करना चाहिये कि क्या वह वास्तव में ही समाज और देश के लिये महत्ती भूमिका निभा रहे है? दक्षिण एशिया की सभी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर उससे सामाजिक सरोकार कितने जुड़े हैं यह भी देखने की बात है।
हम दक्षिण एशिया के साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद पर लिखी गयी सामग्रियों पर ही विचार करें तो लगेगा कि वह यथार्थ से परे हैं। लेखक को कल्पना तो करना चाहिये पर उससे यथार्थ का बोध होता हो न कि वह झूठ लगने लगे। हमने केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही पढ़ा है। सभी को पढ़ना संभव नहीं है पर पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर इस संबंध में पढ़ते है तो लगता है सभी साहित्यकार एक जैसे ही है। हो सकता है कि कुछ अपवाद हों पर उनकी रचनायें अनुवादों को माध्यम से अधिक नहीं पढ़ने को मिल पाती।
अब साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद की निंदा की गयी पर कितने ऐसे साहित्यकार हैं जो इस बात को समझते हैं कि आतंकवाद भले ही जाति,भाषा,क्षेत्र और धर्म के नाम झंडो तले अपना काम करता है पर वास्तव में वह एक व्यापार है। ऐसा व्यापार जिस पर भावना,श्रृंगार और अलंकार से शब्द सजाकर प्रस्तुत करना कभी कभी एकदम निरर्थक प्रक्रिया लगती है। आतंकवाद एक हाथी है जिसे साहित्यकार आंखें बंदकर पकड़ लेते हैं। कोई उसके सूंड़ को पकल लेता है तो कोई पूंछ-फिर उस पर अपनी व्याख्या करने लगता है। जिस तरह पहले किसी सुंदरी का मुखड़ा गढ़कर उसकी आंखें,नाक,कान,कमर,और बालों पर कवितायें और कहानी लिखी जाती थीं वैसे ही आतंकवाद का विषय उनके हाथ आ गया है। जिस तरह किसी सुंदरी के शारीरिक अंगों पर खूब लिख गया पर उसके व्यवहार,आचरण और ज्ञान पर कवि लिखने से बचते रहे वही हाल आतंकवाद का है। साहित्यकारों और लेखकों ने आतंकवादी घटनाओंे से हुई त्रासदी पर वीभत्स रस से सराबोर रचनायें खूब लिखीं। पाठक का दर्द खूब उबारा पर कभी इन घटनाओं के पीछे जो सौदागर हैं उसकी कल्पना किसी ने नहंी की। प्रसंगवश यहां हम मुंबई के खूंखार आतंकवादी कसाब की चर्चा करते हैं। 58 से अधिक बेकसूर लोगों का हत्यारा कसाब इंसान से कैसे राक्षस बना? क्या किसी पाकिस्तानी लेखक ने उसकी कल्पना करते हुए कोई लघुकथा या कविता लिखी। एक गरीब घर का लड़का जिसे उसका बाप आतंकवादी कैंप में यह कहकर भेजता है कि उसकी दो बहिनों की शादी के लिये पैसे मिलने के लिये यही एक रास्ता है। वह एक मामूली चोर डेढ़ से दो लाख रुपये की लालच में अपने देश के लिये योद्धा बनने को तैयार कैसे हो गया? उसमें इतनी क्रूरता कैसे आयी कि बंदूक हाथ में आते ही उसने 58 जाने बेहिचक ले ली? यही इंसान से राक्षस बना कसाब पकड़े जाने पर चूहे की तरह अपनी जान की भीख मांगने लगा। प्रचार माध्यम बता रहे हैं कि अब वह अपने किये पर पछता रहा है तब तो यह सवाल उठता ही है कि आखिर इस राक्षसीय कृत्य के लिये प्रेरित करने वाले कौनसे कारण थे?
कसाब के पीछे जो तत्व हैं उनके सच पर कितने पाकिस्तानी या भारतीय साहित्यकार लिख पाते हैं। कसाब और उसके साथी तो साँस लेते हुए ऐसे इंसान थे जो किन्ही राक्षसों के हथियार बने गये। मुख्य अपराधी कौन हैं? मुख्य अपराधी हैं वह जो इसके लिये धन मुहैया करवा रहे हैं। यह धन देने वाले तमाम तरह के अवैध धंधों में लिप्त हैं और प्रशासन और जनता का ध्यान उन पर न जाये इस तरह के आतंकवाद का प्रायोजन कर रहे हैं। यह सच कितने साहित्यकार लिख पाये? कसाब तो इंसानी रूप में एक बुत है या कहें कि रोबोट है।
पाकिस्तान साहित्यकारों में क्या इतनी हिम्मत है कि वह कसाब को केंद्रीय पात्र बनाकर कोई कहानी लिख सकें? नहीं! दरअसल दक्षिण एशियों के साहित्यकार नायकों पर लिखकर समाज की वाहवाही लूटना चाहते हैं पर खलनायकों के कृत्यों में पीछे समाज की जो स्वयं की कमियां हैं उसे उबारकर लोगों के गुस्से से बचना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि नायकों की विजय के पीछे अगर समाज है तो खलनायक की क्रूरता के पीछे भी इसी समाज के ही तत्व हैं। समाज की की खामियों को छिपाकर उससे अच्छा बताने से तात्कालिक रूप से प्रशंसा मिलती है शायद यही कारण है कि लोग उससे बचने लगे हैं। भारत में हालांकि अनेक लोग समाज की कमियों की व्याख्या करते हैं पर वह भी उसके मूल में नहीं जाते बल्कि सतही तौर पर देखकर अपनी राय कायम कर लेते हैं। नारी स्वातंत्रय पर लिखने वाले अनेक लेखक तो हास्यास्पद रचनायें लिखते हैं और उससे यह भी पता लगता है कि उनके गहन चिंतन की कमी है।

दक्षिण एशियाई देश भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,गरीबी,अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों के कारण विश्व में पिछडे हुए हैं और इसलिये यहां लोगों में कहीं न कहीं गुस्से की भावना है। दक्षिण एशिया की छबि विश्व में कितनी खराब है यह इस बात से भी पता चलता है कि ईरान के सबसे बड़े दुश्मन इजरायल ने भी उसे अपने लिये कम पाकिस्तान को अधिक संकट माना है जो कि दक्षिण एशिया का ही हिस्सा है। जब हम दक्षिण एशिया की बात करते हैं तो फिर भौगोलिक सीमाओं से उठकर विचार करना चाहिये पर जैसे कि सम्मेलन की समाचार पढ़ने को मिले उससे तो नहीं लगता कि शामिल लोग ऐसा कर पाये। सच बात तो यह है कि समाज और देश को दिशा देने का काम साहित्यकार ही कर पाते हैं क्योंकि वह पुरानी सीमाओं से बाहर निकलकर रचनायें करते हैं। सभी साहित्यकार ऐसा नहीं कर पाते जो पर जो करते हैं वही कालजयी रचनायें दे पाते हैं। अगर हम दक्षिण एशिया की स्थिति को देखें तो अब ऐसी कालजयी कृतियां कहां लिखी जा रही हैं जिससे समाज या देश में परिवर्तन अपेक्षित हो।
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