Category Archives: हिन्दी साहित्य

ब्रिटेन के मुफ्तखोर राजघराने के आशिक भारतीय प्रचार माध्यम-हिन्दी लेख (muftakhor rajgharane ka prachar-hindi lekh


             ब्रिटेन के राजघराने की उनके देश में ही इतनी इज्जत नहीं है जितना हमारे देश के प्रचार माध्यम देते हैं। आधुनिक लोकतंत्र का जनक ब्रिटेन बहुत पहले ही राजशाही से मुक्ति पा चुका है पर उसने अपने पुराने प्रतीक राजघराने को पालने पोसने का काम अभी तक किया है। यह प्रतीक अत्यंत बूढ़ा है और शायद ही कोई ब्रिटेन वासी दुबारा राजशाही को देखना चाहेगा। इधर हमारे समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में सक्रिय बौद्धिक वर्ग इस राजघराने का पागलनपन की हद तक दीवाना है। ब्रिटेन के राजघराने के लोग मुफ्त के खाने पर पलने वाले लोग है। कोई धंधा वह करते नहीं और राजकाज की कोई प्रत्यक्ष उन पर कोई जिम्मेदारी नहीं है तो यही कहना चाहिए कि वह एक मुफ्त खोर घराना है। इसी राजघराने ने दुनियां को लूटकर अपने देश केा समृद्ध बनाया और शायद इसी कारण ही उसे ब्रिटेनवासी ढो रहे हैं। इसी राजघराने ने हमारे देश को भी लूटा है यह नहीं भूलना चाहिए।
               कायदा तो यह है कि देश को आज़ादी और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले हमारे प्रचारकगण इस राजघराने के प्रति नफरत का प्रसारण करें पर यहां तो उनके बेकार और नकारा राजकुमारों के प्रेम प्रसंग और शादियों की चर्चा इस तरह की जाती है कि हम अभी भी उनके गुलाम हैं। खासतौर से हिन्दी समाचार चैनल और समाचार पत्र अब उबाऊ हो गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल अपने विज्ञापनदाताओं के गुलाम हैं। इनके विज्ञापनदाता अपने देश से अधिक विदेशियों पर भरोसा करते हैं। यही कारण है कि कुछ लोगों के बारे में तो यह कहा जाता है कि वह यहां से पैसा बैगों में भरकर विदेश जमा करने के लिये ले जाते हैं। हैरानी होती है यह सब देखकर। अपने देश के सरकारी बैंक आज भी जनता के भरोसा रखते हैं पर हमारे देश के सेठ साहुकार विदेशों में पैसा रखने के लिये धक्के खा रहे हैं।
बहरहाल भारतीय सेठों का पांव भारत में पर आंख और हृदय ब्रिटेन और अमेरिका की तरफ लगा रहता है। कई लोगों को देखकर तो संशय होता है कि वह भारत के ही हैं या पिछले दरवाजे से भारतीय होने का दर्जा पा गये। अमेरिका की फिल्म अभिनेत्री को जुकाम होता है तो उसकी खबर भी यहां सनसनी बन जाती है। प्रचार माध्यमों के प्रबंधक यह दावा करते हैं कि जैसा लोग चाहते हैं वैसा ही वह दिखा रहे हैं पर वह इस बात को नही जानते कि उनको दिखाने पर ही लोग देख रहे हैं। उसका उन पर प्रभाव होता है। वह समाज में फिल्म वालों की तरह सपने बेच रहे हैं। विशिष्ट लोग की आम बातों को विशिष्ट बताने वाले उनके प्रसारण का लोगों के दिमाग पर गहरा असर होता है। ऐसा लगता है कि समाज में से पैसा निकालने की विधा में महारत हासिल कर चुके हमारे बौद्धिक व्यवसायी किसी नये सृजन की बजाय केवल परंपरागत रूप से विशिष्ट लोगों की राह पर चलने के लिये विवश कर रहे हैं।
                 यह भी लगता है कि सेठ लोगों की देह हिन्दुस्तानी है पर दिल अमेरिका या ब्रिटेन का है। उनको लगता है कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस उनके अपने देश हैं और उनकी तर्फ से वहां केवल धन वसूली करने के लिये पैदा हुए हैं। अगर यह सच नहीं है तो फिर विदेशी बैंकों में भारी मात्रा में भारत से पैसा कैसे जमा हो रहा है? सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों को विदेश बहुत भाता है और राष्ट्रीय स्तर की बात छोड़िये स्थानीय स्तर के शिखर पुरुष बहाने निकालकर विदेशों का दौरा करते हैं।
प्रचार प्रबंधकों को लगता है कि जिस तरह पश्चिमी देशों में भारत की गरीबी, अंधविश्वास तथा जातिवादपर आधारित कहानियां पसंद की जाती हैं उसी तरह भारत के लोगों को पश्चिम के आकर्षण पर आधारित विषय बहुत लुभाते हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन के बुढ़ा चुके राजघराने की परंपरा के वारिसों की कहानियां यहां सुनाई जाती हैं।
                 बहरहाल ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल बहुत कम खर्च पर अधिक और महंगे विज्ञापन प्रसारित कर रहे हैं। इन समाचार चैनलों के पास मौलिक तथा स्वरचित कार्यक्रम तो नाम को भी नहीं। स्थिति यह है कि सारे समाचार चैनल आत्मप्रचार करते हुए अधिक से अधिक समाचार देने की गारंटी प्रसारित करते हैं। मतलब उनको मालुम है कि लोग यह समझ गये हैं कि समाचार चैनलों का प्रबंधन कहीं न कहीं विज्ञापनदाताओं के प्रचार के लिये हैं न कि समाचारों के लिये। आखिर समाचार चैनलों को समाचार की गारंटी वाली बात कहनी क्यों पड़ी रही है? मतलब साफ है कि वह जानते हैं कि उनके प्रसारणों में बहुत समय से समाचार कम प्रचार अधिक रहा है इसलिये लोग उनसे छिटक रहे हैं या फिर वह समाचार प्रसारित ही कब करते हैं इसलिये लोगांें को यह बताना जरूरी है कि कभी कभी यह काम भी करते हैं। विशिष्ट लोगों की शादियों, जन्मदिन, पुण्यतिथियों तथा अर्थियों के प्रसारण को समाचार नहीं कहते। इनका प्रसारण शुद्ध रूप से चमचागिरी है जिसे अपने विज्ञापनदाताओं को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है न कि लोगों के रुझान को ध्यान में रखा जाता है।
                  शाही शादी जैसे शब्द हमारे देश के अंग्रेजी के देशी गुलामों के मुख से ही निकल सकते हैं भले ही वह अपने को बौद्धिक रूप से आज़ाद होने का दावा करते हों।
                 बहरहाल जिस तरह के प्रसारण अब हो रहे हैं उसकी वजह से हम जैसे लोग अब समाचार चैनलों से विरक्त हो रहे हैं। अगर किसी दिन घर में किसी समाचार चैनल को नहीं देखा और ऐसी आदत हो गयी तो यकीनन हम भूल जायेंगे कि हिन्दी में समाचार चैनल भी हैं। जैसे आज हम अखबार खोलते हैं तो उसका मुख पृष्ठ देखने की बजाय सीधे संपादकीय या स्थानीय समाचारों के पृष्ठ पर चले जाते हैं क्योंकि हमें पता है कि प्रथम प्रष्ठ पर क्रिकेट, फिल्म या किसी विशिष्ट व्यक्ति का प्रचार होगा। वह भी पहली रात टीवी पर देखे गये समाचारों जैसा ही होगा। समाचार पत्र अब पुरानी नीति पर चल रहे हैं। उनको पता नहीं कि उनके मुख पृष्ठ के समाचार छपने से पहले ही बासी हो जाते हैं। हिन्दी समाचार चैनलों को भी शायद पता नहीं उनके प्रसारण भी बासी हो जाते हैं क्योंकि वही समाचार अनेक चैनलों पर प्रसारित होता है जो वह कर रहे होते हैं। एक ही प्रसारण सारा दिन होता है। शादियों और जन्मदिनों का सीधा प्रसारण पहले और बाद तक होता है।
कितने मेहमान आने वाले हैं, कितने आ रहे हैं, कितनी जगहों से आ रहे हैं। फिर कब जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं जैसे जुमले सुने जा सकते हैं। संवाददाता इस तरह बोल रहे होते हैं जैसे आकाश से बिजली गिरने का सीधा प्रसारण कर रहे हों। वैसे ही टीवी अब लोकप्रियता खो रहा है। लोग मोबाइल और कंप्यूटर की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। खालीपीली की टीआरपी चलती रहे तो कौन देखने वाला है।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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बैचेन रहने की आदत है साहित्यक चोरी देखकर-हिन्दी व्यंग्य (baocjen rahne ki aadat hai sahityak chori dekhkar)


लिखना तथा एक तिवारी जी नामक हिन्दी पटकथा लेखक पर संयोग ऐसा बन गया कि हमें अपना नाम जोड़कर भी इस लेख को लिखना पड़ रहा है क्योंकि इंतजार है उस ब्लाग लेखक के उत्तर का जिसने बिना कांट छांट किये हमारी एक कविता को अपने ब्लाग पर बिना नाम के छाप दिया और हमने उस पर अपनी टिप्पणी लिख कर मामले के निपटारे की मांग की है।
हिन्दी में रचनाकार नहीं है, यह नारा बहुत दिनों से सुन रहे हैं-इस नारे में बाज़ार, राज्य तथा प्रचार व्यवसाय के जुड़े लोगों के जो वह बुद्धिजीवी लगाते हैं जो केवल आलेख लिखते हैं वह भी प्रायोजन मिलने पर। इधर राखी का इंसाफ धारावाहिक विवाद में फंसा तो एक राखी का स्वयंवर धारावाहिक का एक पटकथा लेखक सामने आया जिसने यह दावा किया है कि वह उसकी चुराई हुई है। स्थिति यह है कि उसने आत्महत्या करने की धमकी दे डाली है जैसे कि राखी के इंसाफ में ताने से प्रेरित होकर झांसी के एक लक्ष्मण युवक ने कर ली है।
तिवारी नाम धारी उसे लेखक का दावा था कि जब उसने अपनी पटकथा का होने का दावा किया तो उसे धमकाया गया और कहा गया कि ‘इसकी नायिका एक तरह से पूरे मीडिया की बेटी है। इसलिये उससे पंगा मत लो।’
हमें उस तिवारी नामधारी लेखक से सहानुभूति है। ऐसा लगता है कि वह सच बोल रहा होगा क्योंकि फिल्मों के बारे में मिली यह पहली शिकायत नहीं है। हमारे एक चौरसिया नाम के एक मित्र कहानीकार हैं। उन्होंने कम से कम पच्चीस वर्ष पूर्व एक कलात्मक फिल्म में अपनी कहानी चोरी होने की बात कही थी। तब हंसी आयी थी पर इसमें कोई शक नहीं था चौरसिया जी उच्च दर्जे के कहानीकार हैं। इधर हमने यह भी देखा कि एक अखबार हमारे ही चिंतनों को जस का तस छापता रहा है। जब नाम छापने को कहते हैं कि तो जवाब मिलता है कि ब्लाग का नाम छापने की परंपरा नहीं है। नाम छापने को कहा गया तो जवाब मिला कि अपने संपादक से कहेंगे कि आपकी रचनायें नहीं ले।
कितनी तुच्छ मानसिकता है उन लोगों की जो हिन्दी की खा रहे हैं। हिन्दी लेखक उनकी नज़र में है क्या? क्या खौफ है कि नाम छापेंगे तो लेखक अमिताभ बच्चन बन जायेगा और उसे साबुन, क्रीम या मोटरसाइकिल के विज्ञापन मिलने लगेंगे। मजे की बात है कि नामा न देने की बात स्वीकार तो हिन्दी लेखक कर ही लेते हैं कि क्योंकि उनको पता है कि हिन्दी लेखन और पूंजीपतियों के बीच जो दलाल हैं वह अपना ही पेट मुश्किल से भर पाते हैं पर नाम न देने की बात हमारे समझ में नहीं आयी। स्थिति यह हो गयी है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं के पास अब साफ सुथरी हिन्दी लिखने वाले ही नहीं बचे। महंगाई बढ़ रही है कि हिन्दी के अखबार की कीमत आज भी दो ढाई रुपये से अधिक नहीं है। अब तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लिये पाठक और दर्शक एक तरह से गूंगी फौज हो गयी है जिसके सहारे वह उच्च स्तर पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं वरना आम आदमी में उनकी कोई पकड़ नहीं है। आजकल तो हर आदमी टीवी की तरह मुंह किये बैठा है। इसलिये ही स्थानीय स्तर पर टीवी चैनलों ने अपने पंाव फैला दिये हैं। अखबार छपने की संख्या और उसे पढ़ने वालों की संख्या में बहुत अंतर है। उससे भी अधिक अंतर तो पढ़ने वाले और उस अखबार से हमदर्दी रखने और पढ़ने वालों के बीच है। मतलब यह कि पहले लोग न केवल अखबार पढ़ते थे बल्कि उसे मानसिक हमदर्दी भी रखते थे। यह अब नहंी है।
हिन्दी ब्लाग पर लिखना और लिखवाना आसान नहीं है। अगर किसी लेखक से लिखने को कहो तो वह कहता है कि रचना चोरी हो जायेगी। मतलब यह कि लिखने को तैयार नहीं है और जो लिख रहे हैं वह चोरी का शिकार हो रहे हैं। लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी के ब्लाग केवल ब्लाग लेखक ही पढ़ रहे हैं और अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। जबकि इस लेखक के गांधी और ओबामा पर लिखे पाठों के अनेक एक स्तंभकार ने चोरी किये जो कि इसका प्रमाण है कि कथित बुद्धिजीवी भी अब अंतर्जाल पर अपनी सामग्री टटोल रहे हैं। यह शायद मजाक लगता हो पर सच यही है कि कुछ ब्लाग लेखकों का नाम बाहर नहीं लिया जा रहा पर सच यही है कि उनके पाठ दूरगामी मार वाले हैं और बुद्धिजीवी उनसे प्रभावित हैं। हिन्दी ब्लाग पर कूड़ा लिखा जा रहा है तो बताईये बाहर कौनसा सदाबाहर साहित्य लिखा पढ़ने को मिल रहा है। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठकों की टिप्पणियां इस तरह की आती हैं कि ‘गजब! आप ऐसा भी सोच और लिख सकते हैं।’
लोगों के पास चिंतन नहीं है, दावा चाहे कितने भी करें। नारों पर लिखते हैं और वाद सजाते हैं। फिर उसमें किसी न किसी की तारीफ या निंदा का बिगुल बजाते हैं। फिल्म वालों के पास तो काल्पनिकता और यथार्थ का समन्वय करने की कभी शक्ति ही नहीं दिखी है क्योंकि वहां के निर्माता और निर्देशक हिन्दी लेखकों को स्वतंत्रता न देकर लिपिक बना लेते हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को लिपिक की तरह ही देखा जाता है। स्थिति यह है कि अधिकतर हिन्दी अखबार अब अंग्रेजी शब्दों के मोह में फंस गये हैं। प्रबंधन करना नहीं आया तो अब मैनेजमेंट करने लगे हैं। क्या खाक करेंगे? प्रबंधन हो या मैनेजमेंट बिना चिंतन और मनन के नहीं होते। हिन्दी का खाकर उसे मिटाने की योजना या साजिश रची गयी है। कहते हैं कि हिन्दी को विश्व स्तर पर पहुंचाना है। क्या खाक पहुंचायेंगे खुद को आती नहीं है। फिर दावा कि हम भाषाविद हैं? क्या खाक हैं एक ढंग की कविता नहीं लिख सकते। हम जैसी कि चुराने का मन हो? कुछ गुस्सा और कुछ हंसी! इस भाव से हम यह लेख लिख रहे हैं क्योंकि चोरी का सदमा है तो खुशी इस बात की है कि हम अच्छा लिख रहे हैं।
आईये पहले उस ब्लाग का नाम देखें। उससे पहले देखकर आयें कि उसने हमारी टिप्पणी का क्या किया? उसने न टिप्पणी प्रकाशित की और न ही जवाब दिया। हम भी उसका नाम नहीं लिख रहे। उसकी बेवसाईट का पता रख लिया है। ऐसा लगता है कि बिचारा रोमन में हिन्दी लिखता है और यह उसकी पहली ऐसी रचना है जो देवानगारी में है। हम उसे बदनाम नहीं करना चाहते पर उम्मीद है कि भाई लोग इसे पढ़कर उसे समझायेंगे। वैसे वह  हमारी टिप्पणियाँ नहीं छाप रहा पर रोमन लिपि में अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर रहा  है । हम यह सब  इसलिए रहे हैं क्योंकि बैचेन रहने की आदत ऐसे नहीं जाएगी। यहाँ यह भी बता दें हमारी रचना छापने का दाम पूछकर एक हज़ार और न पूछना पर दो हज़ार है और हम इसकी विधिवत माग करेंगे। इस लेख का लिखने का दंड अलग से वसूल करेंगे।  
हमारी   रचना यह है 
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बैचेन रहने की  आदत 
लोगों की हमेशा बेचैन रहने की
आदत ऐसी हो गयी है कि
जरा से सुकून मिलने पर भी
डर जाते हैं,
कहीं कम न हो जाये
दूसरों के मुकाबले
सामान जुटाने की हवस
अभ्यास बना रहे लालच का
इसलिये एक चीज़ मिलने पर
दूसरी के लिये दौड़ जाते हैं
। 
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हमारा लिंक यह हैं
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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इंसान बिल्ली जैसे हो गये-हिन्दी व्यंग्य (insan billi jaisi ho gaye-hindi vyangya)


कहते हैं कि बिल्ली दूध पियेगी नहीं तो फैला जरूर देगी। ऐसा लगता है कि हमारे देश की व्यवस्था में लगे कुछ लोग इसी तरह के ही हैं। हाल ही में नईदिल्ली में संपन्न कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 (राष्ट्रमंडल-2010) में कई किस्से इतने दिलचस्प आये हैं कि उन पर हंसने का मन करता है। देश के खज़ाने का जो उपयोग हुआ उस पर रोने का अब कोई फायदा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार पर इतना लिखा गया है कि अनेक ग्रंथों में उसे समेटा जा सकता है। फिर रोने की भी एक सीमा होती है। एक समय दुःखी आदमी रोता रहता है तो उसके आंसु भी सूख जाते हैं। समझदार होगा तो आगे नहीं रोएगा और कुछ पल हंस कर आनंद उठाऐगा और पागल हुआ तो उसका एसा मानसिक संतुलन बिगड़ेगा कि बस हमेशा ही हंसता रहेगा चाहे कोई मर जाये तो भी वह हंसता हुआ वहां जायेगा। जिनको अब कॉमनवेल्थ गेम्स की घटनाओं पर हंसी आ रही है अब वह बुद्धिमान हैं या पागल यह अलग विचार का विषय हैं पर सच यही है कि रोने का कोई फायदा नहीं है और उन पर हंसकर खूना बढ़ाया जाये यही अच्छा रहेगा।
एक दिलचस्प समाचार देश के समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला कि कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ खेलों के टिकट कूड़ेदानों में फिंके पाये गये जबकि उनके स्टेडियम खाली थे या उसमें दर्शक कम थे। साथ ही यह भी कि अनेक लोग टिकट काले बाज़ार में बेचते पकड़े गये और दर्शकों को टिकट खिड़की से खाली हाथ लौटना पड़ा। कूड़ेदानों में मिले टिकट मानो बिल्ली द्वारा फैलाया गया दूध जैसे ही हैं।
आखिर क्या हुआ होगा? कॉमनवेल्थ खेलों का प्रचार जमकर हुआ। व्यवस्था में लगे लोगों को लगा होगा कि जैसे कि कुंभ का मेला है और देश का लाचार खेलप्रेमी यहां ऐसे ही आयेगा जैसे कि तीर्थस्थल में आया हो! मैदान में खिलाड़ियों और खिलाड़िनों के दर्शन कर स्वर्ग का टिकट प्राप्त करने को आतुर होगा। जिस तरह तीर्थस्थलों पर खास अवसरों पर तांगा, रिक्शा, होटल, और अन्य वस्तुऐं महंगी हो जाती हैं-या कहें कि खुलेआम ब्लैक चलता है-वैसे ही कॉमनवेल्थ खेलों में भी होगा। ऐसा नहीं होना था और नहीं हुआ। जिन लोगों ने टिकट बेचने और बिकवाने का जिम्मा लिया होगा वह बहुत उस समय खुश हुए होंगे जब उनको टिकट मिले होंगे। इसलिये नहीं कि देश के प्रति कर्तव्य निर्वाह का अवसर मिल रहा है बल्कि इस आड़ में कुछ अपना धंधा चला लेंगें। टिकट बेचने वाले वेतन, कमीशन या ठेके पर ही यह काम करते होंगे। अब टिकट आया होगा उनके हाथ। मान लीजिये वह पांच सौ रुपये का है और उसे खिड़की पर या अन्यत्र इसी भाव पर बेचना है। मगर बेचने वाले को यह अपमान जनक लगता होगा कि वह पांच सौ का टिकट उसी भाव में बेचे।
कॉमन वेल्थ गेम के पीछे राज्य है और जहां राज्य है वहां निजी और राजकीय ठेका कार्यकर्ता आम आदमी के दोहन न करने को अपना अपमान समझते हैं। पांच सौ का टिकट पांच सौ में आम आदमी देते तो घर पर ताने मिलते। मित्र हंसते! इसमें क्या खास बात है यह बताओ कि ऊपर से क्या कमाया-लोग ऐसा कहते।
कुछ ब्लेक करने वालों को पकड़ा होगा कि टिकट बेच कर दो। ऊपर का पैसा आपसमें बांट लेंगे। दे दिये टिकट! उसने जितने बेचे वापस कर दिये होंगे। बाकी! फैंक दो कूड़ेदान में! रहने दे तो स्टेडियम खाली! अपने बाप के घर से क्या जाता है। नुक्सान राज्य का है तो होने दो! आम आदमी को बिना ब्लेक रेट के टिकट नहीं देंगे।
यह बिल्लीनुमा लोग! इनमें से बहुत सारे ऐसे होंगे जो सर्वशक्तिमान की भक्ति करते होंगे! मगर राज्य का मामला हो तो मन से अहंकार नहीं निकलता है! कई सत्संग में जाते होंगे, मगर उस समय वह इंसान नहीं बिल्ली की तरह हो गये होंगे। दूध फैला देंगे ताकि कोई न पी पाये।
टिकट कूड़ेदान में फैंककर तसल्ली की होगी कि अगर हमें अतिरक्त पैसा नहीं मिला तो क्या? आम दर्शक को अंदर भी तो नहीं जाने दिया।
यह केवल एक घटना है! ऐसी हजारों घटनायें हैं। गरीब को नहीं देंगे भले ही वह मर जाये और हमारी चीज़ भी सड़ जाये। मक्कारी, बेेईमान और भ्रष्टाचार का कोई चरम शिखर होता है तो उस पर हमारा देश सबसे ऊपर है मगर इसके पीछे जो विवेकहीनता, अज्ञानता तथा क्रूरता का जो दर्शन हो रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि चिंतन और आचरण का यह विरोधभास हमारे खून में आ गया है और अपनी महानता पर हम आत्ममुग्ध जरूर हो लें पर पूरी दुनियां ने यह सब देखा है।
हम दावे करते हैं कि हमारा देश धार्मिक प्रवृत्ति का है, हमारी संस्कृति महान है, हमारे संस्कार पूज्यनीय हैं, पर ऐसी घटनायें यह बताती हैं कि यह सब पाखंड है। इंसान सभी दिख रहे हैं पर कुत्ते और बिल्लियों और चूहों की मानसिकता से सभी सराबोर हैं। सच कहें कि पेट भर जाये तो यह तीनों जीव भी कुछ देर खामोश रहते हैं पर इंसान तो कीड़े मकोड़ों की तरह हो गया है जिनका बहुत सारा खून पीने पर भी पेट नहीं भरता। अलबत्ता बिल्ली का उदाहरण देना पड़ा यह बताने के लिये कि निम्न आचरण की इससे अधिक हद तो हो नहीं सकती।

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दुनियादारी और वफादारी-हिन्दी कविता (duniyandari aur vafadari-hindi poem)


हमने उनका रास्ता
कांटे हटाकर फूलों से सजाया
पर बदले में उन्होंने
हमारी राह में गड्ढे खोदकर
अपनी वफादारी दिखाई।
शिकायत करने पर बोेले वह
‘हमने सीखी है जो दुनियांदारी
तुम्हें सिखाकर
अपनी वफादारी निभाई।’
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भगवान श्रीराम और कृष्ण ने जन्म से नहीं कर्म से भगवत्स्वरूप प्राप्त किया-हिन्दी लेख (bhagwan shir ram and shri krishna-hindi article)


अगर रावण ने भगवान राम की भार्या श्रीसीता का अपहरण न किया होता तो क्या दोनों के बीच युद्ध होता? कुछ लोग इस बात की ना हामी भरें पर जिन्होंने बाल्मीकि रामायण को पढ़ा है वह इस बात को मानते हैं कि राम रावण का युद्ध तो उसी दिन तय हो गया था जब ऋषि विश्वमित्र की यज्ञ की रक्षा के लिये भगवान श्री राम ने मारीचि और सुबाहु से युद्ध किया। सुबाहु इसमें मारा गया और मारीचि तीर खाकर उड़ता हुआ दूर जाकर गिरा था और बाद के मृग का वेश बनाकर उसने रावण की सीता हरण प्रसंग में सहायता की थी।
भारतीय दर्शन के पात्रों पर लिखने वाले एक उपन्यासकार कैकयी को चतुर राजनेता और भद्र महिला बताया है। शायद यह बात सच भी हो क्योंकि मारीचि और सुबाहु से युद्ध के बाद शायद कैकयी ने यह अनुभव किया था कि अब रावण कभी भी अयोध्या पर हमला कर सकता है। दूसरा रावण उस समय एक आतंक था और कैकयी ने अनुभव किया श्रीराम ही उसका वध करें इसलिये उसे उनको बनवास भेजने की योजना बनाई। ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि मंथरा की मति देवताओं ने ही भ्रमित करवाई थी क्योंकि श्रीराम उस समय के महान धनुर्धर थे और रावण को ही मार सकते थे। ऐसे में श्रीराम का वहां रहना ठीक नहीं है यह सोचकर ही कैकयी ने उनको बनवाय दिया-ऐसा उपन्यासकार का मानना है। दूसरा यह भी कि रावण के हमले से अयोध्या की रक्षा करने के प्रयास में पराक्रमी श्री राम का कौशल प्रभावित हो सकता यह संभावना भी थी। फिर जब उनके हाथ से रावण का वध संभव है कि तो क्यों न उनको वही भेज दिया जाये। संभवत कैकयी को यह अनुमान नहीं रहा होगा कि श्रीसीता का वह अपहरण करेगा मगर उस समय की राजनीिितक हालत ऐसे थे कि रणनीतिकार रावण के पतन के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। वैसे भी रावण ने श्रीराम को अपने यहां लाकर उनको मारने की योजना के तहत ही सीता जी का अपहरण किया था।
वन प्रवास के दौरान जब श्रीराम अगस्त्य ऋषि के यहां गये तो वहां इं्रद पहले से ही विराजमान थे और उनको आता देखकर तुरंत चले गयंे। दरअसल वह राम रावण के संभावित युद्ध के बारे में बातीचत करने आये थे। ऋषि अगस्तय ने वहां श्रीराम को अलौकिक हथियार दिये जो बाद में रावण के युद्ध के समय काम आये। कहा जाता है कि वानरों की उत्पति भी भगवान श्री राम की सहायतार्थ देवताओं की कृपा से हुई थी। इस तरह राम के विवाह से लेकर रावण वध तक अदृश्य राजनीतिक श्ािक्तयां भगवान श्रीराम का संचालन करती रहीं। वह सब जानते थे पर अपना धर्म समझकर आगे बढ़ते रहे।
आज जब हम देश के राजनीतिक स्थिति को देखते हैं तो केवल दृश्यव्य चरित्रों को देखते हैं और अदृश्यव्य ताकतों पर नज़र नहीं जाती। ऐसे में हमारे आराध्य भगवान श्री राम और श्रीकृष्ण के जीवन को व्यापक ढंग से देखने वाले इस बात को समझ पाते हैं कि किस तरह रामायण और श्रीगीता के अध्यात्म पक्ष को अनदेखा किया जाता है जो कि हमारे धर्म का सबसे मज़बूत पक्ष है।
हम थोड़ा श्रीकृष्ण जी के चरित्र का भी अवलोकन करें। मथुरा के कारावास में जन्म और वृंदावन में पलने वाले श्रीकृष्ण जी के जीवन का सवौच्च आकर्षक रूप महाभारत में दिखाई देता है जहां उन्होंने कुशल सारथी की तरह अपने मित्र अर्जुन के साथ ही उनके रथ का भी संचालन किया। भगवान श्रीराम की तरह स्वयं उन्होंने युद्ध नहीं किया बल्कि सारथि बनकर पूरे युद्ध को निर्णायक स्थिति में फंसाया। हम महाभारत का अध्ययन करें तो इस बात का पता लगता है कि अनेक तत्कालीन बुद्धिमान लोगों को यह लगने लगा था कि अंततः कौरवों तथा पांडवों में कभी न कभी युद्ध जरूर होगा। भगवान श्रीकृष्ण इस बात को जानते थे इसलिये कभी दोनों के बीच वैमनस्य कम करने का प्रयास न कर पांडवों की सहायता की । दरअसल कुछ लोग मानते हैं कि महाभारत युद्ध की की नींव कौरवों और पांडवों में जन्म के कारण पड़ी है पर यह सच नहीं है। महाभारत की नींव तो द्रोपदी के विवाह के समय ही पड़ गयी थी जब अपने स्वयंवर में द्रोपदी ने सूतपुत्र कर्ण का वरण करने से इंकार किया था फिर विवाह बाद कुंती के वचन की खातिर उसे पांच भाईयों की पत्नी बनना पड़ा। द्रोपदी श्रीकृष्ण की भक्त थी और वे शायद इसे कभी स्वीकार नहीं कर पाये कि एक क्षत्राणी मां है तो उसका वचन धर्म की प्रतीक बन गया और दूसरी पत्नी है तो उसे वस्तु मानकर उस पर वह वचन धर्म की तरह थोपा गया। मां के रूप में कुंती पूज्यनीय है तो क्या द्रोपदी पत्नी के रूप में तिरस्काणीय है? जब भगवान श्रीकृष्ण युद्ध से पहले बातचीत करने दुर्योधन के महल में जा रहे थे तब द्रोपदी ने उनसे यही आग्रह किया कि किसी भी तरह यह युद्ध होना चाहिए।
श्रीकृष्ण उस समय मुस्कराये थे। अधर्म और धर्म के बीच की लकीर का वह अंतर जानते थे और वह धर्म की स्थापना के लिये अवतरित हुए थे। उनके लिये पांडवों और कौरव दोनों ही निर्मित मात्र थे जिनके बीच यह युद्ध अनिवार्य था। वह न कौरवों के शत्रु थे न पांडवों के मित्र! वह केवल धर्म के मित्र थे और भक्तों के आश्रय दाता थे। अपनी भक्त द्रोपदी के अपमान का बदला लेने में उनके धर्म स्थापना का मूल छिपा हुआ था। जिसे उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता का संदेश स्थापित कर प्राप्त किया।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण जी का चरित्र जनमानस में हमेशा ही प्रभावी रहा है शायद इसी कारण ही संवेदनाओं के आधार पर काम करने वाले उनके नाम की आड़ अवश्य लेते हैं। ऐसा करते हुए वह केवल आस्था की बातें करते हैं पर ज्ञान पक्ष को भुला देते है-सच तो यह है कि ऐसा वह जानबुझकर करते हैं क्योंकि ज्ञानी आदमी को बहलाया नहीं जा सकता। उसके ज्ञान चक्षु हमेशा खुले रहते हैं और वह सभी में परमात्मा का स्वरूप देखता है पर संवदेनशीलता का दोहन करने वाले सीमित जगहों पर आस्था का स्वरूप स्थापित करते हैं। पहले तो पेशेवर संतों की बात करें जो भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की बाललीलाओं के आसपास ही अपनी बात रखते हें। इससे महिलाओं का कोमल मन बहुत प्रसन्न हो जाता है और वह अपने बाल बच्चों में भी ऐसे ही स्वरूप की कामना करती हैं तो पुरुष भी तन्मय हो जाते हैं। धनुर्धर । श्री राम और सारथी श्रीकृष्ण के जन्म तथा बाललीलाओं में तल्लीन रहने वालों को उनके संघर्ष तथा उपलब्धियों में रुचि अधिक नहीं दिखती।
अब तो भक्तों का ध्यान लीलाओं से अधिक जन्म स्थानों पर केंद्रित किया जा रहा है। अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि और मथुरा में श्रीकृष्ण का जन्मस्थान विवादों के घेरे में है। बरसों तक नहीं सुना था पर अब बरसों से सुन भी रहे हैं। सच क्या है पता नहीं? कभी कभी तो लगता है देश की धार्मिक आस्थाओं के दोहन के लिये यह सब हो रहा है तो कभी लगता है कि वाकई कोई बात होगी। ऐसे में हम जैसे आम भक्त और लेखक अपनी कोई भूमिका नहीं देख पाते खासतौर से जब जब श्रीमद्भागवत गीता की तरफ ध्यान जाता है। श्रीगीता में जन्म से अधिक निष्काम कर्म को मान्यता दी गयी है। भगवान श्रीराम ने रावण के युद्ध के समय केवल उसे मारने का ही लक्ष्य किया था तब वह इतना एकाग्र थे कि वहां पर अपने प्रिय भ्राता भरत को भी मदद के लिये याद नहीं किया। लक्ष्मण ने भी अपनी तरह आक्रामक रहने वाले शत्रुध्न को को एक आवाज तक नहीं दीं। इससे भी यह लगता है कि दोनों भाई यह समझ गये थे कि अयोध्या पर संकट न आये इसलिये ही रावण वध के प्रसंग में उनको लिप्त होना ही है। उसी तरह भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता संदेश मेें अपने श्रीमुख से किसी का नाम तक नहीं लिया। उस श्री राधा का भी नहीं जिसके साथ उनका नाम प्रेम प्रतीक में रूप में लिया जाता है। उस सुदामा का भी स्मरण नहीं किया जिनके साथ उनकी मित्रता सर्वोपरि मानी जाती है। पिता वासुदेव और देवकी के लिये भी एक शब्द नहीं कहा। स्पष्टतः वह इस संसार के रहस्य को उद्घाटित करते रहे जो बनता बिगड़ता रहता है और जहां जन्म स्थान तथा दैहिक संबंध परिवर्तित होते रहते हैं। अपने जन्मस्थानों या शहर से भी कोई सद्भाव भी दोनों ने नहीं दिखाया। सच तो यह है कि भगवान श्रीराम के लिये पूरा संसार ही अयोध्या तो श्रीकृष्ण के लिये यह द्वारका रहा। इस चर्चा को मतलब किसी विवाद पर निष्कर्ष देना नहीं है बल्कि यह एक सत्संग चर्चा है। लोग विवादों को उठायें उनको कोई रोक नहीं सकता। वह लोग अज्ञानी हैं या आस्था से उनका कोई लेना देना नहीं है यह कहना भी अहंकार की श्रेणी में आता है। अलबत्ता एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में अपने जैसे लोगों के लिये कुछ लिखने का मन हुआ तो लिख दिया। आखिर यह कैसे संभव है कि जब सारे देश में चर्चा चल रही है उस पर लिखा न जाये। एक बात याद रखने वाली है कि भगवान श्रीराम और कृष्ण अपने जन्म की वजह से नहीं कर्म की वज़ह से भगवत्स्वरूप प्राप्त कर सके यह नहीं भूलना चाहिए।
जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण

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राष्ट्रमंडल खेल तमाशे की तरह लगते हैं-हिन्दी लेख (commanwelth game in newdelhi-hindi article)


दिल्ली में होने वाले कॉमनवैल्थ तमाम कारणों से चर्चा में है। जिस तरह वहां निर्माण कार्य हुआ है और तैयारी चल रही है उससे विदेशों से आये प्रतिनिधिमंडल संतुष्ट नहीं है तो भारत में अनेक खेल विशेषज्ञ तमाम तरह के सवाल उठा रहे हैं। बहरहाल हम यहां कॉमनवैल्थ खेलों के महत्व की ही चर्चा करेंगे जिसको बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है।
देश में खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों की कमी नहीं है। दुनियां के प्रसिद्ध खेलों के -फुटबाल, क्रिकेट, शतरंज, टेनिस, टेबल टेनिस, बैटमिंटन तथा हॉकी-प्रशंसकों की यहां भरमार है। इसके अलावा भी कम लोकप्रिय खेलों में भी दिलचस्पी है। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि बहुत कम खेल प्रेमी हैं जिनकी दिलचस्पी राष्ट्रमंडल खेलों में होगी। दिल्ली में खेल होंगे इसलिये भारत के प्रचार माध्यम-टीवी चैनल, रेडियो तथा अखबार-इसका प्रचार खूब करेंगे पर यकीनन दर्शकों की दिलचस्पी उनमें कम ही होगी। भारत में अगर विज्ञापन और प्रायोजक कंपनियों को ध्यान रखने की बजाय आम दर्शक और पाठक को देखकर कार्यक्रमों का प्रसारण तथा समाचार का प्रकाशन हो तो संभव है कि कोई माध्यम इनको प्रसारित करने का जोखिम नहीं उठायेगा। लोगों के पास मनोरंजन के साधन अधिक हैं पर उनकी रुचियां सीमित हैं इसलिये ही क्रिकेट जैसे खेल को देखते हैं पर उनकी संख्या बहुत कम है। सच तो यह है कि क्रिकेट अब जिंदा ही विज्ञापन तथा कंपनियों की वजह से है।
इसके अलावा हम भारतीयों की आदत है कि कोई भी द्वंद्व तो देखने में रुचि तो रखते हैं पर महारथियों का स्तर भी देखना नहीं भूलते। इसलिये खेल की दुनियां में महारथ रखने वाले अमेरिका, चीन, सोवियत संघ, जापान तथा जर्मनी जैसे राष्ट्रों की अनुपस्थिति इन खेलों का महत्व स्वाभाविक रूप से कम कर देती है। दूसरी बात यह भी है कि राष्ट्रवादी खेल प्रेमियों के लिये कॉमनवैल्थ खेलों का आयोजन करता तो दूर की बात इनमें शामिल होना भी अंग्रेजों की गुलामी ढोने जैसा है क्योंकि इसमें केवल वही देश शामिल होते हैं जो कभी ब्रिटेन के गुलाम रहे हैं। जो लोग इन खेलों के आयोजन से विश्व में भारतीय की छबि अच्छी होने के दावे कर रहे हैं उन्हें यह बात याद रखना चाहिए कि गुलाम की कभी छबि अच्छी नहीं होती। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय क्रिकेट खेल इसमें शामिल नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत अच्छे पदक जीतेगा पर इससे भारतीय खेलप्रेमी ओलंपिक में अपने देश की स्थिति को भुला नहीं सकते जहां एक स्वर्ण पदक जीतने के बाद दूसरा नसीब नहीं हुआ और कांस्य या रजत पदक के टोटे पड़ गये। दूसरी बात यह है कि जो राष्ट्रमंडल के आयोजन से देश में खेल तथा खिलाड़ियों के विकास की बात कर रहे हैं वह यह भी बता दें कि पिछले आयोजन के बाद कितना विकास हुआ? उल्टे पाकिस्तानी ने हॉकी में इतनी बुरी शिकस्त दी कि उसकी कड़वी यादें भुलाने में भी समय लगा। कॉमनवैल्थ के दौरान ही अगर कोई बीसीसीआई की टीम कहीं क्रिकेट मैच खेलती हो तो फिर शायद प्रचार माध्यम भी इसे महत्व न दें।
जहां तक खेलों के विकास की बात है तो वह पैसे खर्च कर नहीं  आता। देश का इतना पैसा इन खेलों पर खर्च हो रहा है पर इससे उनमें विकास होगा यह सोचना भी बेकार है क्योंकि इधर अपने देश के ही खिलाड़ी धनाभाव की शिकायत कर रहे हैं। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाये बगैर कभी खेलों का विकास नहीं हो सकता। यह सही है कि पैसा सब कुछ नहीं होता पर वह आदमी में आत्मविश्वास का पैदा करने वाला एक बहुत बड़ा तत्व है।
कहने का मतलब यह है कि इन खेलों का आयोजन भारत में हो या बाहर भारतीय खेल प्रेमियों की इनमें दिलचस्पी कम ही है। इसलिये यह आशा करना ही व्यर्थ है कि इससे खेलों का विकास होगा या खिलाड़ियों का मनोबल ऊंचा उठेगा। यह पता नहीं बाकी देशों में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों की क्या स्थिति रहती है पर अपने देश के खेल प्रेमी इसमें यही सोचकर शामिल होंगे कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। कहने का मतलब यह कि उनमें परायेपन का ऐसा बोध रहेगा। इस बात को वही आदमी समझ सकता है जो स्वयं खिलाड़ी हो या खेल प्रेमी हो। उनके लिये यह आयोजन गुलामी के तमाश से अधिक कुछ नहीं है
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हिन्दी भाषा का महत्व-हिन्दी दिवस पर हास्य कविताएँ (hindi bhasha ka mahatva-hindi diwas par hasya kavita)


हिन्दी दिवस पर
उन्होंने हिन्दी का महत्व बताया,
अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त होने का
अपना संकल्प अंग्रेजी में जताया।
——–
हिन्दी दिवस पर
अपनी मातृभाषा की उनको
बहुत याद आई,
इसलिये ही
‘हिन्दी इज वैरी गुड’ भाषा के
नारे के साथ दी बार बार दुहाई।
————
शिक्षक ने पूछा छात्रों से
‘बताओ अंग्रेजी बड़ी भाषा है या हिन्दी
जब हम लिखने और बोलने की
दृष्टि से तोलते हैं।’
एक छात्र ने जवाब दिया कि
‘वी हैव आल्वेज स्पीकिंग इन हिन्दी
यह हम सच बोलते हैं।’
———

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शब्दलेख पत्रिका ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या पार-हिन्दी संपादकीय (A Hindi blog shabdlekh patrika)


इस इस लेखक के ब्लाग शब्दलेख पत्रिका  ने भी आज एक लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार कर ली। गूगल पेज रैकिंग में चार अंक प्राप्त तथा एक लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार करने वाला इस लेखक का यह पांचवां ब्लाग है। यह संख्या कोई अधिक मायने रखती क्योंकि हिन्दी भाषियों की संख्या को देखते हुए लगभग तीन वर्ष में इतनी संख्या पार करना कोई अधिक महत्व का नहीं है। न ही इस संख्या को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि हिन्दी ने अंतर्जाल पर कोई कीर्तिमान बनाया है पर अगर कोई स्वतंत्र, मौलिक तथा शौकिया लेखक है तो उसके लिये यह एक छोटी उपलब्धि मानी जा सकती है। इस लेखक के अनेक ब्लाग हैं पर इससे पूर्व के चार ब्लाग बहुत पहले ही इस संख्या को पार कर चुके हैं पर कोई ऐसा ब्लाग नहीं है जो अभी एक दिन में हजार की संख्या पार कर चुका है अलबत्ता सभी ब्लाग पर मिलाकर 2500 से तीन हजार तक पाठक/पाठ पठन संख्या पार हो जाती है।
प्रारंभ में इस ब्लाग को अन्य ब्लाग से अधिक बढ़त मिली थी पर बाद में अपने ही साथी ब्लाग की वजह से इसे पिछड़ना भी पड़ा। इसकी वजह यह थी कि इस लेखक ने वर्डप्रेस की बजाय ब्लाग स्पॉट के ब्लाग पर ही अधिक ध्यान दिया जबकि वास्तविकता यह है कि वर्डप्रेस के ब्लाग ही अधिक चल रहे हैं। कभी कभी लगता है कि वर्डप्रेस के ब्लाग पर लिखा जाये पर मुश्किल यह है कि ब्लाग स्पॉट के ब्लाग कुछ अधिक आकर्षक हैं दूसरे उन पर अपने पाठ रखने में अधिक कठिनाई नहीं होती इसलिये उन पर पाठ रखना अधिक सुविधाजनक लगता है। चूंकि यह लेखक शौकिया है और यहां लिखने से कोई धन नहीं मिलता इसलिये अंतर्जाल पर निरंतर लिखने के लिये मनोबल बनाये रखना कठिन होता है। दूसरी बात यह है कि पाठक संख्या में घनात्मक वृद्धि अधिक प्रेरणा नहीं देती। इसके लिये जरूरी है कि गुणात्मक वृद्धि होना। एक बात निश्चित है कि देश में ढेर सारे इंटरनेट कनेक्शन हैं पर उनमें हिन्दी के प्रति सद्भाव अधिक नहीं दिखता है। संभव है कि अभी इंटरनेट पर अच्छे लिखने को नहीं मिलता हो।
दूसरी बात यह है कि दृश्यव्य, श्रव्य तथा प्रकाशन माध्यम अपनी तयशुदा नीति के तहत ब्लाग लेखकों के यहां से विषय लेते हैं पर उनके नाम का उल्लेख करने की बजाय उनके रचनाकार अपना नाम करते हैं।
दूसरी बात यह कि अंतर्जाल पर फिल्मी अभिनेता, अभिनेत्रियां, खिलाड़ी तथा अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के ब्लाग है और उनका प्रचार इस तरह होता है जैसे कि लिखना अब केवल बड़े लोगों का काम रह गया है।
एक सुपर स्टार के घर के बाहर से मैट्रो ट्रेन निकलने वाली है। निकलने वाली क्या, अभी तो चंद विशेषज्ञ उनके घर के सामने थोड़ा बहुत निरीक्षण करते दिखे। अभी योजना बनेगी। पता नहीं कितने बरस में पटरी बिछेगी। उस सुपर स्टार की आयु पैंसठ से ऊपर है और संभव है कि पटरियां बिछने में बीस साल और लग जायें। संभव है सुपर स्टार कहीं अन्यत्र मकान बना लें। कहने का अभिप्राय है कि अभी जंगल में मोर नाचने वाला नहीं पर उन्होंने अपनी निजी जिंदगी में दखल पर अपने ब्लाग पर लिख दिया। सारे प्रचार माध्यमों ने उस पर चिल्लपों मचाई। तत्काल उन सुपर स्टार ने ट्विटर पर अपना स्पष्टीकरण दिया कि ‘हम मैट्रों के विरोधी नहीं है। मैं तो केवल अपनी बात ऐसे ही रख रहा था।’
वह ट्विटर भी प्रचार माध्यामों में चर्चित हुआ। इससे संदेश यही जाता है कि इंटरनेट केवल बड़े लोगों का भौंपू है। ऐसे में आम लेखक के लिये अपनी पहचान का संकट बन जाता है। वह चाहे कितना भी लिखे पर उससे पहले यह पूछा जाता है कि ‘तुम हो क्या?’
किसी आम लेखक की निजी जिंदगी उतनी ही उतार चढ़ाव भरी होती है जितनी कि अन्य आम लोगों की। मगर वह फिर भी लिखता है पर अपनी व्यथा को भी तभी कागज पर लाता है जब वह समग्र समाज की लगती है वरना वह उससे जूझते हुए भी उसका उल्लेख नहीं करता। लेखक कभी बड़ा या छोटा नहीं होता मगर अब उसमें खास और आम का अंतर दिखाई देता है और यह सब ब्लाग पर भी दिखाई देता है।
आखिरी बात यह है कि जो वास्तव में लेखक है वह अपने निज अस्तित्व से विचलित नहीं होता और न पहचान के लिये तरसता है क्योंकि समाज की चेतना जहां विलुप्त हो गयी है वहां समस्या पाठक बढ़ाने की नहीं है बल्कि जो हैं उनसे ही निरंतर संवाद बनाये रखना है। जब लेखक लिखता है तब वह अध्यात्म के अधिक निकट होता है और ऐसे में समाज से जुड़ा उसका निज अस्तित्व गौण हो जाता है और अंदर तक पहुंचने वाला लेखन तभी संभव हो पाता है। इस अवसर पर मित्र ब्लाग लेखकों और पाठकों का आभार।
————

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इश्क पर हास्य कविता-हिन्दी काव्य प्रस्तुति (ishq par hasya kavita-hindi comic poem)


पुरानी प्रेमिका मिली अपने
पुराने प्रेमी कवि से बहुत दिनों बाद
और बोली,
‘कहो क्या हाल हैं,
तुम्हारी कविताओं की कैसी चाल है,
सुना है तुम मेरी याद में
विरह गीत लिखते थे,
तुम पर सड़े टमाटर और फिंकते थे,
अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की
वरना पछताती,
कितना बुरा होता जब बेस्वादी चटनी से
बुरे आमलेट ही जीवन बिताती,
तुम भी दुःखी दिखते हो
क्या बात है,
पिचक गये तुम्हारे दोनों गाल हैं,
मेरी याद में विरह गीत लिखते तुम्हारा
इतना बुरा क्यों हाल है।’
सुनकर कवि बोला
‘तुमसे विरह होना अच्छा ही रहा था,
उस पर मेरा हर शेर हर मंच पर बहा था,
मगर अब समय बदल गया है,
कन्या भ्रुण हत्याओं ने कर दिया संकट खड़ा,
लड़कियों की हो गयी कमी
हर नवयुवक इश्क की तलाश में परेशन है बड़ा,
जिनकी जेब भरी हुई है
वह कई जगह साथ एक जगह जुगाड़ लगाते हैं,
जिनके पास नहीं है खर्च करने को
वह केवल आहें भर कर रह जाते हैं,
विरह गीतों का भी हाल बुरा है,
हर कोई सफल कवि हास्य से जुड़ा है,
इश्क हो गयी है बाज़ार में बिकने की चीज,
पैसा है तो करने में लगता है लज़ीज,
एक से विरह हो जाने से कौन रोता है,
दौलत पर इश्क यूं ही फिदा होता है,
दिल से नहीं होते इश्क कि टूटने पर कोई हैरान हो,
कल दूसरे से टांका भिड़ जाता है
फिर क्यों कोई विरह गीत सुनने के लिये परेशान हो,
जिन्होंने बस आहें भरी हैं
उनको भी इश्क पर हास्य कविता
सुनने में मजा आता है,
आशिक माशुकाओं का खिल्ली उड़ाने में
उनका दिल खिल जाता है,
कन्या भ्रुण हत्याओं ने कर दिया कचड़ा समाज का,
इश्क पर फिल्में बने या गीत लिखे जा रहे ज्यादा
मगर तरस रहा इसके लिये आम लड़का आज का,
तुम्हारे विरह का दर्द तो अभी अंदर है
मगर उस पर छाया अब हास्य रस का जाल है।
———–

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रिश्ते-हिन्दी शायरी (rishtey-hindi shayari)


नाच न सके नटों की तरह, इसलिये ज़माने से पिछड़ गये।
सभी की आरज़ू पूरी न कर सके, अपनों से भी बिछड़ गये।
महलों में कभी रहने की ख्वाहिश नहीं की थी हमने,
ऐसे सपने देखने वाले हमराहों से भी रिश्ते बिगड़ गये।
———-
कुछ रिश्ते बन गये
कुछ हमने भी बनाये,
मगर कुछ चले
कुछ नहीं चल पाये,
समय की बलिहारी
कुछ उसने पानी में बहाये।
————

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घर के भागीरथ-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ghar ke bhagirath-hindi vyangya kavitaen)


ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं,
जो विकास की गंगा घर घर पहुंचायें,
सभी बन गये हैं अपने घर के भागीरथ
जो तेल की धारा
बस!
अपने घर तक ही लायें,
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने के लिये
केवल आले में चिराग जलायें।
————-
तमाशों में गुज़ार दी
पूरी ज़िदगी
तमाशाबीन बनकर।
कहीं दूसरे की अदाओं पर हंसे और रोए,
कहीं अपने जलवे बिखेरते हुए, खुद ही उसमें खोए,
हाथ कुछ नहीं आया
भले ही रहा ज़माने को दिखाने के लिये
सीना तनकर।
—————

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वैश्विक उदारीकरण-हिन्दी व्यंग्य कविता (globle marcket-hindi satire poem)


वैश्विक उदारीकरण के चलते
बाज़ार एक हो गया है,
सभी को खुश करते सौदागरों ने
सजा दिये हैं बुत
कहंी धर्म के उदारपंथी
पेशेवराना ममता बरसा रहे हैं
कहीं कट्टरपंथी पाकर मदद
मचाते हैं आतंक
शांति के लिए तरसा रहे हैं।
पहेली बूझ रहे हैं सिद्धांतों की
कुछ प्रायोजित बुद्धिमान लोग
जिनकी चर्चा सौदागरों के भौंपू
चहूं फैलाते हैं,
विज्ञापनों में ही अमन की अपील
और सनसनी दिखलाते हैं,
शक होता है यह देखकर
दंगों की तरह जंग भी
तयशुदा लड़ी जाती होगी,
हादसों की भी कोई पहले रूपरेखा होगी,
मरेगा तो सभी जगह आम आदमी
खरीदेगा भी वही मोमबत्तियां
इसलिये तो हादसों, जंगों और दंगों की
बरसी जोरशोर से मनवाते हैं,
भौंपूओं से आवाज भी लगवाते है,
कसा रहे शिकंजा पाले हुए खास लोगों का
पूरी दुनियां पर
सौदागर इसलिये कर्ज भी बरसा रहे हैं।
————–

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नया ज़माना-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (naya zamana-hindi vyangya kavitaen)


वह प्रतिदिन चौराहे पर आकर
अपना धर्मयुद्ध लड़ेंगे,
इसी तरह ही तो नये बुद्ध बनेंगे।
शांति के मसीहा बनने की ललक ने
कुछ इंसानों को चालाक बना दिया है
वह जानते हैं कि
तभी मिलेगी उनको सिद्धि
जब अपने शोर से
आम इंसानों को क्रुद्ध करेंगे।
———-
नया जमाना यही है
जिन इंसानों के चरित्र
जितने दागदार हैं,
लोगों की नज़र में वह
उतने ही इज्जतदार हैं।
————-

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विकास और लोग-व्यंग्य कविता (vikas aur log-hindi vyangya kavita)


गरीबी हटाओ, देश बचाओ,
भ्रष्टाचार भगाओ, विकास लाओ,
जैसे नारे सुनते हुए बरसों बीत गये
मगर हालात हैं कि सुधरे नहीं।
हर बरस बजट के तीर जनकल्याण के अंधेरे में
कुछ इस तरह चलते कि
जहां पहुंचंे वहां गरीब नज़र नहीं आता,
रंगेहाथों पकड़े गये रिश्वत लेते कई
मगर हर कोई अपने हाथ सफेद कर बरी हो जाता,
तालाब खुदते गये काग़जों पर
लबालब हो गयी कई लोगों की जेबें
परवाह किसे है यहां देखने की
प्यासों ने पानी के बर्तन भरे कि नहीं।
नतीज़ा यही है कि देश कर रहा है विकास
लोग खड़े है वहीं की वहीं।
—————-

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पहरेदारी का हिस्सा-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (pahredari ka hissa-hindi vyangya kavitaen)


कत्ल के पेशेवरों ने ले ली
शहर भर की पहरेदारी,
तय किया पुराने हमपेशा सफेदपोशों को
खंजर घौंपने की छूट के साथ
अपनी कमाई में देंगे हिस्सेदारी।
———
खज़ाने की चाब़ी ठगों के हाथ में देकर
मालिक अब बेफिक्र हो गये हैं,
हेराफेरी में हाथ काले नहीं होंगे
मिलेगा कमाई से पूरा हिस्सा
यह देखकर
सफेदपोश चैन की नींद सो गये हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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