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अंतर्जाल पर हिंदी का वैश्विक काल-आलेख


अंतर्जाल पर हिंदी अब ‘वैश्विक काल’ में प्रवेश कर चुकी है। अभी तक हिंदी का आधुनिक काल चल रहा था पर ‘वैश्विक काल‘ में हिंदी की रचनाओं के स्वरूप की कल्पना करना अभी सहज नहीं लगता पर इतना जरूर है कि वह वैसा नहीं होगा जैसा कि अब तक था। अभी अनेक ब्लाग लेखक ऐसी बहसों में उलझ जाते हैं जिसमें उनको अपनी पहचान ही याद नहीं रहती। लेखक ब्लागर और ब्लाग लेखक के बीच का अंतर सभी ने समझ लिया है पर हिंदी के वैश्विक काल में उसका कोई महत्व नहीं रहने वाला है।
सवाल यह है कि कौन लोग इस वैश्विक काल में हिंदी का ध्वज वाहक होंगे? यकीनन वही लोग जिनका लिखने के प्रति समर्पण होगा मगर यहां नये लेखकों को लाना आसान काम नहीं है खासतौर से जब आर्थिक लाभ न हो। यह मामला भी चल जाये पर जब शाब्दिक या तकनीकी ज्ञान का प्रचार पर्याप्त न हो तब यह काम और कठिन लगता है।
वह नौजवान इंजीनियर मेरा कंप्यूटर ठीक करने आया था। दरअसल मेरा कंप्यूटर मेरी गल्तियों के कारण खराब हुआ। पड़ौस का एक लड़का उसे अनावश्यक रूप से फारमेट कर दे गया। उसके बाद मैंने कंप्यूटर बेचने वाले साफ्टवेयर इंजीनियर को बुलाया तो उसने सारे प्रोग्राम लोड कर दिये पर वह उस कमी को दूर नहीं कर सका और हार्डवेयर इंजीनियर को लाने का वादा कर चला गया। उसके जाने के बाद कंप्यूटर की वह कमी तो दूर हो गयी जिसकी वजह से परेशान होकर मैंने उसे स्वयं ही खराब कर दिया था पर आशंका बनी हुई थी। वह साफ्टवेयर इंजीनियर उस 16 साल के लड़के को ले आया। उसने कुछ टांके लगाये ओर मुझे लगा कि वह दिखाने के लिये अधिक समय ले रहा है क्योंकि उस लाने वाले लड़के का शायद यही उसे निर्देश था। उन्होंने काम खत्म कर मुझसे सात सौ रुपये मांगे पर मैंने पांच सौ दिये। वह रकम भी मुझे अधिक लगी।
काम खत्म होने के बाद उस 16 वर्षीय इंजीनियर लड़के ने मुझसे पूछा कि ‘आखिर आप इस कंप्यूटर का उपयोग क्या करते हैं?’
मैंने कहा-‘कुछ नहीं? एैसी फिल्में देखता हूं जो कहीं देखने को नहीं मिलती!’
साफ्टवेयर इंजीनियर ने जो उस समय दलाल की भूमिका में था बोला-‘अंकल मजाक कर रहे हैं यह अपना ब्लाग लिखते हैं।’
वह लड़का बोला-‘सर, आपका ब्लाग कौनसा है?’
मैंने उससे कहा-‘कभी इंटरनेट पर हिंदी में लिखी सामग्री पढ़ी है तो बताऊं।
उसने कहा-‘हां, मैं वेब दुनिया में पढ़ता हूं। जब मुझे हिंदी में पढ़ने में होता है तो वहीं जाता हूं। इस समय हिंदी में पढ़ने वाले लोग उसका ही उपयोग अधिक कर रहे हैं।
तब मेरे समझ में आया कि वर्डप्रेस के ब्लाग पर इतने हिट कहां से आ रहे हैं? मैंने मैंने उससे मजाक में कहहा-‘क्या तुम जानते हो कि तुम विश्व प्रसिद्ध हिंदी लेखक ब्लागर का कंप्यूटर ठीक करने आये हो?’
उसने पूछा-‘आप किस नाम से लिखते हो?’
मैंने उसे अपना नाम बताया और पूछा कि क्या कभी यह नाम उसके सामने आया है?
वह सोच में पड़े गया और बोला-‘मुझे याद नहीं आ रहा है। वैसे मैंने कई लोगों को पढ़ा है पर नाम पर कभी ध्यान नहीं दिया!’
मैंने उससे कहा-‘तुम कंप्यूटर पर हिंदी में ब्लाग लिख सकते हो?’
उसने मना करते हुए कहा-‘पर वहां हिंदी में कैसे लिखा जा सकता है।’
मैंने उसे इंडिक टूल खोलकर उस पर अपना नाम लिखने को कहा। उसने अंग्रेजी में टाईप कर जैसे ही स्पेस दबाया वह हिंदी में हो गया। उसके मूंह से निकल गया‘वाह’।
वह बोला-‘सर, मुझे पेन दीजिये मैं इस वेबसाईट को नोट करूंगा।’
मैंने उसे पेन देते हुए कहा-‘अगर तुम जीमेल पर काम करोगे तो वहां भी अब हिंदी लिखने की सुविधा है जो मुझे कल ही मिली है।’
उसने कहा-‘मैं अब जाकर जीमेल पर अपना खाता बनाऊंगा। अभी तक याहू पर ही काम चला रहा था।’
साफ्टवेयर इंजीनियर बहुत समय से कंप्यूटर लाईन में है पर वह भी हिंदी लिखने के टूल से अनभिज्ञ था। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी में इंटरनेट कनेक्शन बहुत हैं पर लोगों को यह पता नहीं कि उसका हिंदी उपयोग कैसे हो सकता है। देखा यह गया है कि हिंदी के ब्लाग लेखक ही जीमेल का अधिक उपयोग करते हैं क्योंकि उसने ही हिंदी के टूल लिखने की सुविधा उपयोगार्थ प्रस्तुत की है जबकि याहू का इस मामले में कोई भूमिका नहीं है। यह आश्चर्य की बात है कि मेरे आसपास के जिन लोगों ने इंटरनेट कनेक्शन लिये उन्होंने अपने ईमेल याहू पर ही बनाये। याहू के मामले में लोगों को पता नहीं क्यों उसके स्वदेशी होने का भ्रम है। बहुत पहले यह बात उड़ाई गयी थी कि यह एक भारतीय अभिनेता के स्वामित्व में है।
इस धीमी प्रगति के बावजूद अंतर्जाल पर हिंदी का वैश्विक काल उज्जवल रहने वाला है। जैसे जैसे हिंदी में लिखने के टूल का प्रचार होता जायेगा वैसे ही ढेर सारे लेखक यहां आयेंगे। हालांकि अभी जो हिंदी में लिख रहे हैं वह अपने को भाग्यशाली मानते हैं पर कुछ समय बाद यह प्रसन्नता समाप्त हो जायेगी। मैं अपने से मिलने वाले इंटरनेट कनैक्शनधारी लोगों को जब हिंदी के बारे में बताता हूं तो वह यकीन नहीं करते कि हिंदी में वहां लिखा जा रहा है।
जाते समय उस लड़के ने पूछा-‘सर, आपकी वेबसाईट का नाम क्या है?’
मैंने उससे कहा-‘तुम तो वेबदुनियां पर पढ़ो। जहां तुम्हें अपनी पसंद की सामग्री दिखे उसे पढ़ो और दोस्तों को भी पढ़ाओ।’
उसने फिर पूछा-‘आपके ब्लाग का नाम क्या है?’
मैंने उसस कहा-‘तुम तो ब्लागवाणी, नारद, चिट्ठाजगत और हिंदी ब्लाग पर जाओ और जो भी अच्छा लगे पढ़ो। केवल मेरा लिखा तुम पढ़ो और कहीं निराश हुए तो तुम्हारा मन टूट सकता है। हां, पढ़ते पढ़ते कहीं मेरा नाम जरूर आ जायेगा।’
उसने जाते जाते यही कहा-‘आपने यह मुझे बहुत बढ़िया टूल बताया। अब मैं वेबदुनियां पर सर्च कर अधिक पढ़ा करूंगा।’
शायद वह टूल उसके लिये बहुत उपयोगी होता अगर वह ब्लाग लिखता पर जीमेल पर ही उसके उपलब्ध होने के बाद उसके लिये इस इंडिक टूल की क्या उपयोगिता हो सकती है-मैं सोच रहा था।
बहरहाल उसकी बातों से हिंदी के वैश्विक काल में प्रवेश होने के संकेत समझे जा सकते थे ओर यकीनन अंतर्जाल से पूर्व के अनेक विचार, शैलियां और रुचियां परिवर्तित होंगी और उससे हिंदी के साहित्य का स्वरूप भी नहीं बच सकेगा। याद रखन वाली बात यह है कि अंतर्जाल पर उसी लेखक को सफलता मिलेगी जो संक्षिप्त रूप से अपनी बात कहेगा। वह इतनी भी संक्षिप्त भी ं न हो कि चार लाईनें अनावश्यक रूप से थोप दीं और समझा लिया कि हो गये लेखक या कवि। सार्थक, विचारप्रद और शिक्षाप्रद रचनाओं की अपेक्षा तो पाठक करेगा पर वह इतनी लंबी न हों कि वह अपनी आंखों इतना कष्ट दे कि उसकी चिंतन क्षमता प्रभावित हो।
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यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका

रामनवमी:राम से भी बड़ा है राम का नाम-आलेख (ramnavmi-ram se bhi bada ram ka nam)


भारतीय अध्यात्म में भगवान श्रीराम के स्थान को कौन नहीं जानता? आज रामनवमी है और हर भारतीय के मन में उनके प्रति जो श्रद्धा है उसको प्रकट रूप में देख सकते है। आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में भगवान श्रीराम की जो छवि है वह अद्वितीय है पर उनके जीवन चरित्र को लेकर आए दिन जो वाद-विवाद होते हैं और मैं उनमें उभयपक्षीय तर्क देखता हूं तो मुझे हंसी आती है। वैसे देखा जाये तो भगवान श्रीराम जी ने अपने जीवन का उद्देश्य अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना बताया पर उससे उनका आशय यह था कि आम इंसान शांति के साथ जीवन व्यतीत कर सके और तथा भगवान की भक्ति कर सके। उन्होंने न तो किसी प्रकार के धर्म का नामकरण किया और न ही किसी विशेष प्रकार की भक्ति का प्रचार किया।

मेरा यह आलेख किश्तों में आएगा इसलिये यह बता दूं कि मैं बाल्मीकि रामायण के आधार पर ही लिखने वाला हूं। मैं अपनी बुद्धि और विवेक से अपने वह तर्क रखूंगा जो भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र के अध्ययन से मेरे दिमाग में आते हैं। मेरा मौलिक चिंतन है और भगवान श्रीराम के चरित्र की व्याख्या करने वालों के मैं कई बार अपने को अलग अनुभव करता हूं। मैने अपने स्कूल की किताबें और बाल्मीकि रामायण की पढ़ाई एक साथ शुरू की और मेरे लेखक बन जाने का कारण भी यही रहा। शायद इसलिये जब मै भगवान श्रीराम के बारे में कई बार किसी की कथा सुनता हूं तो मुझे लगता है कि लोगों का भटकाया जा रहा है। कथा इस तरह होती है कि सुनाने वाला अपना अधिक महत्व प्रतिपादित करता है और उसमें भगवान श्रीराम के प्रति भक्ति कम दृष्टिगोचर होती है। शायद यही वजह है कि भगवान श्रीराम के चरित्र की आलोचना करने वाले लोगों का वह सही ढंग से मुकाबला नहीं कर पाते। कभी तो इस बात की अनुभूति होती है कि श्रीराम के जीवन चरित्र सुनाने वाले भी उसके बारे में किताबी ज्ञान तो रखते हैं पर मन में भक्ति नहीं होती उनका उद्देश्य कथा कर अपना उदरपूति करना होता है।

कई बार मेरे सामने ऐसा भी होता है कि जब भगवान श्रीराम के चरित्र की व्याख्या जब अपने मौलिक ढंग से करता हूं तो लोग प्रतिवाद करते हैं कि ऐसा नहीं वैसा। वह तो भगवान थे-आदि। कुल मिलाकर मनुष्य के रूप में की गयी लीला को भी लोग भगवान का ही सामथर््य मानते है। लोग अपने को विश्वास अधिक दिलाना चाहते हैं कि वह भगवान श्रीराम के भक्त हैं न कि विश्वास के साथ भक्ति करते हैं। अगर देखा जाय तो भक्ति का चरम शिखर अगर किसी ने प्राप्त किया है तो उनके सबसे बड़ा नाम संत कबीर और तुलसीदासजी का है-इस क्रम में मीरा और सूर भी आते हैं। ज्ञानियों में चरम शिखर के प्रतीक हम बाल्मीकि और वेदव्यास को मान सकते हैं। भगवान को पाने के दोनों मार्ग- भक्ति और ज्ञान- हैं। भगवान को दोनों ही प्रिय हैं पर ज्ञान के बारे में लोगों का मानना है कि भक्ति मार्ग मे रुकावट डालता है और जो आदमी भक्ति करता है और जब वह चरम पर पहुंचता है तो वह भी महाज्ञानी हो जाता है। बाल्मीकि और वेदव्यास ने ज्ञान मार्ग को चुना तो वह समाज को ऐसी रचनाएं दे गये कि सदियों तक उनकी चमक फीकी नहीं पड़ सकती और कबीर, तुलसी, सूर, और मीरा ने भक्ति का सर्वोच्च शिखर छूकर यह दिखा दिया है कि इस कलियुग में भी भगवान भक्ति में कितनी शक्ति है। किसी की किसी से तुलना नहीं हो सकती पर संत कबीर जी ने तो कमाल ही कर दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति और ज्ञान दोनों का समावेश इस तरह किया कि वर्तमान समय में एसा कोई कर सकता है यह सोचना भी कठिन है और यहीं से शुरू होते हैं विवाद क्योंकि लोग कबीर की तरह प्रसिद्ध तो होना चाहते हैं पर हो नहीं सकते इसलिये उनके इष्ट भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र पर टिप्पणियां करने लगते हैं।

राम से बड़ा है राम का नाम। मतलब यह कि इस देश में राम से बड़ा तो कोई हो नहीं सकता पर आदमी में हवस होती है कि वह अपने मरने के बाद भी पुजता रहे और जब तक राम का नाम लोगों के हृदय पटल पर अंकित है तब तक अन्य कोई पुज नहीं सकता। गरीबी, बेकारी और तंगहाली गुजारते हुए इस देश में राम की महिमा अब भी गाई जाती है यह कई लोगों का स्वीकार्य नहीं है। इसलिये वह अनेक तरह के ऐसे विवाद खड़े करते हैं कि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो। इसलिये कई तरह के स्वांग रचते हैं। रामायण से कुछ अंश लाकर उसका नकारात्मक प्रचार करना, विदेशी पुस्तकों से उद्धरण लेकर अपने आपको आधुनिक साबित करना और उससे भी काम न बने तो वेदों से अप्रासंगिक हो चुके श्लोकांे का सामने लाकर पूरे हिंदू समाज पर प्रहार करना।

कहा जाता है कि श्रीगीता में चारों वेदों का सार है इसका मतलब यह कि जो उसमें नहीं है उस पर पुनर्विचार किया जा सकता है-वेदों की आलोचना करने वालों को यह मेरा संक्षिप्त उत्तर है और इस पर भी मैं अलग से लिखता रहूंगा। विदेशी पुस्तकों से उद्धरण लेकर यहां विद्वता दिखाने वालों को भी बता दूं कि संस्कृत और हिंदी के साथ देशी भाषाओं में जीवन के सत्य को जिस तरह उद्घाटित किया गया उसके चलते इस देश को विदेश से ज्ञान अर्जित करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अधिकतर विदेशी ज्ञान माया के इर्दगिर्द केंद्रित है इसलिए भी उनको महत्व नहीं मिलने वाला।

अब आता है रामायण या रामचरित मानस से अंश लेकर आलोचना करने वालों के सवाल का जवाब देने का तो ऐसे लोग अपने अधिकतर उद्धरण-जिसमें शंबुक वध और सीता का वनगमन आदि है- वह उत्तर रामायण से ही ले आते हैं जिसके बारे में अनेक विद्वान कहते हैं कि वह मूल रामायण का भाग नहीं लगता क्योंकि उसमें जो भाषा शैली वह भिन्न है और उसे किन्हीं अन्य विद्वानों ने जोड़ा है। अगर आप कहीं श्रीराम कथा को देखें तो वह अधिकतर भगवान श्रीराम के अभिषेक तक ही होती है-इससे ऐसा लगता है कि यह मसला बहुत समय से विवादास्पद रहा है। मुझे जिन लोगों ने रामायण और रामचरित मानस पढ़ते देखा वह भी मुझे उत्तर रामायण न पड़ने की सलाह दे गये। इसका आशय यह है कि मैं उत्तर वाले भाग पर कोई विचार नहीं बना पाता।
अब आते हैं मूल रामायण के उस भाग पर जिसमें इस पूरे संसार के लिये ज्ञान और भक्ति का खजाना है। शर्त यही है कि श्रद्धा और विश्वास से प्रातः उठकर स्वयं उसका अध्ययन, मनन, और चिंतन करो-किसी एक प्रक्रिया से काम नहीं चलने वाला। यह आलेख लंबा जरूर हो रहा है पर इसकी जरूरत मुझे अनुभव इसलिये हो रही है कि आगे जब संक्षिप्त चर्चा करूंगा तो उसमें मुझे इनको दोहराने की आवश्यकता नहीं होगी। अगर सब ठीकठाक रहा तो मैं उस हर तर्क को ध्यस्त कर दूंगा जो श्रीराम के विरोधी देते है।

उस दिन गैर हिंदू घार्मिक टीवी पर एक गैरहिंदू विद्वान तमाम तरह के कुतर्क दे रहा था। मैने हिंदी फोरम पर एक ब्लाग देखा जिसमें उसके उन तर्को पर गुस्सा जाहिर किया गया। उसमें यह भी बताया गया कि उन महाशय ने इंटरनेट पर भी तमाम उल्टीसीधी चीजें रख छोड़ीं है। उसने कहीं किसी हिंदू विद्वान से बहस की होगी। वहंा भी झगड़ा हुआ। मैं उस गैरहिंदू विद्वान का नाम नहीं लिखूंगा क्योंकि एक तो उसका नाम लिखने से वह मशहूर हो जायेगा दूसरे उसके तर्क काटने के लिये मेरे पास ठोस तर्क हैं। एक बात तय रही बाल्मीकि रामायण और श्रीगीता से बाहर दुनियां का कोई सत्य नहीं है और अगर कोई उनके बारे में दुष्प्रचार कर रहा है तो वह मूर्ख है और जो उसका तर्क की बजाय गुस्से से मुकाबला करना चाहता है वह अज्ञानी है। मुझे अपने बारे में नहीं पता पर मैं जो भी लिखूंगा इन्हीं महान ग्रंथों से ग्रहण किया होगा और अपनी विद्वता सिद्ध करने का मोह मैने कभी नहीं पाला यह तो छोड दिया अपने इष्टदेव पर-जहां वह ले चले वहीं चला जाता हूं।

रामनवमी के पावन पर्व पर इतना बड़ा लेख शायद मैं लिखने की सोचता भी नहीं अगर मेरे मित्र ब्लागर श्रीअनुनादसिंह के ब्लाग पर कृतिदेव का युनिकोड टुल नहीं मिलता। आजकल मैं फोरमों पर जाता हूं और यह जरूरी नहीं है कि मेरी पंसद के ब्लाग वहां मिल ही जायें पर अनुनाद सिंह का वह ब्लाग मेरी नजर में आ गया और मैने यह टूल वहां से उठाया और सफल रहा। अगर मैं उस दिन नहीं जा पाता या मेरी नजर से चूक जाता तो इतना बड़ा बिना हांफे लिखना संभव नहीं होता और होता भी तो आगे की कडियां लिखने की घोषणा नहीं करता। यह भगवान श्रीराम की महिमा है कि अपने भक्तों के लिये रास्ते भी बना देते हैं अगर वह यकीन करता हो तो। आज मैंने कोई विवादास्पद बात नहीं लिखी पर आगे भगवान श्रीराम के भक्तों के लिये दिलचस्प और उनके विरोधियों के विवादास्पद बातें इसमें आने वालीं हैं।
अपने सभी मित्र और साथी ब्लागरों के साथ पाठकों को रामनवमी की बधाई।

दिवस बनाता कोई और है, मनाता कोई और है-व्यंग्य आलेख


दिवस बनाता कोई और है और मनाता कोई और है। इस देश में हर रोज कोई न कोई दिवस मनाने की चर्चा होती है। अभी वैंलटाईन डे और महिला दिवस निकले नहीं कि होली आ गयी। होली तो अपने देश का परंपरागत पव है और साल में एक बार आता है। इस पर खूब हंसी ठठ्ठा भी होता है। इस पर्व को आम और खास दोनों ही प्रकार के लोग इस त्यौहार को मनाते हैं। तय बात है कि इसकी चर्चा भी होगी पर हम उन दिवसों की बात कर रहे हैं जिससे सामान्य लोग बेखबर रहते हैं पर बुद्धिजीवी,लेखक और पत्रकार उस पर शोर मचाते हैं।
यह महिला,पुरुष,मित्र और प्रेम दिवस यकीनन भारत की देन नहीं है पर यहां चर्चा उनकी खूब होती है। अपने देश में संगठित लेखक बुद्धिजीवी और पत्रकार दो प्रकार के माने जाते हैं-एक प्रगतिशील और दूसरे पंरपरावादी। जब यह दिवस आते हैं तो यही सबसे अधिक शोर मचाते हैं। एक अनुकूल लिखता और बोलता है दूसरा प्रतिकूल। खूब चर्चा होती है। संगठित होने के कारण उनको प्रचार माध्यमों पर खूब प्रचार मिलता है-आजकल अंतर्जाल पर भी उनके पास ही अधिक हिट होते हैं। वह लोग लिखते हैं इसमें कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये वरना हमें पढ़ने के लिये कहां से मिलेगा? उनकी मेहरबानी है जो लिखते और बोलते हैं। मगर फिर भी कुछ बातें हमारे समझ में नहीं आती।

प्रगतिशील वर्ग पश्चिम का धुर विरोधी है। पूरे वर्ष वह उस पश्चिम पर बरसता है। अमेरिका ने यह कर दिया और वह कर दिया। उसे इराक छोड़ना चाहिये। उसे अफगानिस्तान से बाहर जाना चाहिये। वगैरह वगैरह।
मगर पश्चिम द्वारा बनाये गये यह दिवस आते हैं तब महिला,बाल,श्रमिक,और जाने कौन से प्रताडि़त वर्गों के नाम लेकर यही प्रगतिशील वर्ग उसके लिये उमड़ पड़ता है। इसके विपरीत परंपरावादी लेखक जो पूरा वर्ष पश्चिम को विजेता की तरह पेश करते हैं उस दिन अड़ जाते हैं कि यह दिवस हमारे देश के संस्कारों के अनुकूल नहीं है। हमारी परंपरायें अलग हैं। वगैरह वगैरह। प्रगतिशील को बाजार की स्वतंत्रता पसंद नहीं है पर वह इन दिवस को प्रचार देकर उसकी खुलकर मदद करता है। प्रगतिशीलों को पुराने धर्म पसंद नहीं है और ऋषियों और मुनियों को वह पुरातनपंथी मानते हैं पर वैलंटाईन ऋषि में के नाम पर मनाये गये दिवस उन्होंने जितना शोर मचाया वह ठीक उनकी विपरीत चाल का हिस्सा था।

हाल ही में महिला दिवस भी ऐसे ही मना। प्रगतिशीलों ने महिलाओं की आजादी के नारे लगाते हुए जमकर लिखा और बोला। एक आलेख पर नजर पड़ी जिसमें ‘बिने फेरे हम तेरे’ की प्रथा का जमकर विरोध किया गया। कहा गया इससे नारी पर ही संकट आयेगा। प्रगतिशीलों की एक बात समझ में नही आती कि वह आखिर विवाह प्रथा के साथ चिपटे क्यों रहना चाहते हैं जबकि वह उन्हीं प्राचीन धर्मों का हिस्सा है। चलने दीजिये उस प्रथा को जिसमें बिना विवाह किये ही लड़के लड़कियां रहना चाहते हैं। फिर उस प्रथा को जो जोड़े अपना रहे हैं उनमें नारियां भी हैं। वह उन नारियों में ही चेतना क्यों नहीं जगाना चाहते कि ऐसा मत करो-वह यहां भी महिलाओं के अधिकारों के कानूनी संरक्षण की बात कर रहे हैं। वह एक तरफ नारियों को समान अधिकार की बात करते हैं पर दूसरी तरफ उनको यह भी लगता है कि उनमें विवेक शक्ति की कमी है और ‘बिन फेरे हमे तेरे’ की प्रथा से वह अपना भविष्य संकट में डाल सकती है।

दरअसल बात यह है अगर इस देश में बिन फेरे हम तेरे की प्रथा आम हो जाये तो कानून के डंडे के सहारे पुरुष समाज के विरुद्ध अभियान छेड़कर महिलाओं में अपनी छबि बनाने का प्रगतिशीलों के अवसर कम हो जायेंगे। इतने सारे पुरुष आजाद होकर मजे करेंगे तो उनको घास कौन डालेगा?

हम अपने अनुभव से यही समझ पाये है कि इस तरह वर्ग बनाकर लोगों को कल्याण का भ्रम दिखाना अंग्रेजों की शैली है। समाज के टुकड़े कर फिर उसमें एकता लाने का यह तरीका इतना प्राचीन है कि विचारधारा से परे लिखने और बोलने वाले लोग उस पर हास्य व्यंग्य ही लिखते हैं। संपूर्ण समाज का विकास होना चाहिये पर यहां महिला,बालक,मजदूर,व्यापारी, और पता नहीं कितने प्रकार के भेद कर उनका कल्याण करने की बात होती है। हमारे देश में परिवार परंपरा दुनियां में सबसे अधिक शक्तिशाली है। अगर पुरुष को कुछ अतिरिक्त मिलता है तो क्या वह अपनी पत्नी और बच्चों से छिपाकर खाता है? मगर यहां तो यह मान लिया गया जाता है कि पुरुष हमेशा ही स्त्री का शोषक है। स्त्री को नौकरी और धन दो पर पुरुष की आय बढ़े इसका कोई उपचार नहीं करना चाहता। बालकों के लिये धन दो क्योंकि उनके पिता उनके लिये कुछ नहीं करते। कमाने वाले पुरुष-चाहे वह कमाते होेंं या अधिक-शोषक मानकर प्रगतिशील पता नहीं क्या कहना चाहते हैं जबकि आज भी देश की रीढ़ यही पुरुष वर्ग है। अब कुछ लोग कहेंगे कि साहब नारियां भी कमाई के क्षेत्र में आयें। जनाब, अमेरिका की एक संस्था की रिपोर्ट कहती है कि भारत में गृहस्थी का काम करने वाली महिलाओं की कमाई का आंकलन किया जाये तो वह पुरुषों से अधिक है। इसमें सच्चाई भी है। कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है पर उसे लक्ष्य लेकर बढ़ाने की बात करना इस बात का प्रमाण है कि गृहस्थी का काम करने वाली महिलाओं का कमतर आंका जा रहा है। सच बात तो यह है कि इस देश के भविष्य की रक्षा यही गृहस्थी का काम करने वाली महिलायें जिस निष्काम भाव से करती हैं वह मन को मोह लेता है।

बात कहां से निकली कहां तक पहुंच गयी। अंतर्जाल पर लिखते हुए ऐसा ही होता है। इस देश में तमाम तरह के दिवस पहले से ही मनाये जाते हैं और पश्चिम का विरोध करने वालो लोग जब उन दिवसों को यहां भी मनाते हैं तब तो हंसी आना स्वाभाविक है। खासतौर से जब प्रचार माध्यमों और अंतर्जाल पर उन दिवसों पर ढेर सारा मसाला हो पर आमजन में उसकी चर्चा तक नहीं हो। इसका कारण भी है कि अपने देश के लोगों के संस्कार इतने मजबूत हैं कि उनके लिये हर दिन नया होता है। पश्चिम में भला कौन प्रतिदिन धार्मिक स्थान पर जाता है? अपने यहां तो ऐसे लोग भी हैं जो प्रतिदिन सर्वशक्तिमान के दर्शन कर अपना दिन शुरु करते हैं और यही कारण है कि चाहे भले ही बाजार के संरक्षक प्रचार माध्यम जमकर दिवस का नाम सुनाते हों पर आम जनता में उसकी प्रतिक्रिया नहीं होती। हां, नयी पीढ़ी का वह तबका जरूर उनकी जाल में फंसता है जो इश्क मुश्क में चक्कर में रहता है। इन अवसरों पर कार्यक्रम अपने देश में जितने होते हैं शायद ही कहीं होते हों।
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यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका

भगवान के नाम पर माया का खेल-आलेख


सांई बाबा के नाम पर रायल्टी वसूलने की बात सुनकर मैं बिल्कुल नहीं चौंका क्योंकि अभी और भी चौंकाने वाली खबरें आऐंगी क्योंकि जैसे-जैसे लोगों की बुद्धि पर माया का आक्रमण होगा सत्य के निकट भारतीय अध्यात्म उनको याद आयेगा उसके लिए अपना धीरज बनाये रखना जरूरी है। मैं प्रतिदिन अंर्तजाल पर चाणक्य, विदुर, कबीर, रहीम और मनु के संदेश रखते समय एकदम निर्लिप्त भाव में रहता हूं ताकि जो लिख रहा हूं उसे समझ भी सकूं और धारण भी कर सकूं। सच माना जाये तो योगसाधना के बाद मेरा वह सर्वश्रेष्ठ समय होता है उसके बाद माया की रहा चला जाता हूं पर फिर भी वह समय मेरे साथ होता है और मेरा आगे का रास्ता प्रशस्त करता है।

मुझे अपने अध्यात्म में बचपन से ही लगाव रहा है पर कर्मकांडों और ढोंग पर एक फीसदी भी वास्ता रखने की इच्छा नहीं रखता। सांई बाबा के मंदिर पर हर गुरूवार को जाता हूं और मेरा तो एक ही काम है। चाहे जहां भी जाऊं ध्यान लगाकर बैठ जाता हूं। सांईबाबा के मंदिर में हजारों भक्त आते और जाते हैं और सब अपने विश्वास के साथ माथा टेक कर चले जाते हैं। सांई बाबा के बचपन में कई फोटो देखे थे तो उनके गुफा या आश्रम के बाहर एक पत्थर पर बैठे हुए दिखाए जाते थे। मतलब उनके आसपास कोई अन्य आकर्षक भवन या इमारत नहीं होती थी। आज सांईबाबा के मंदिर देखकर जब उन फोटो को याद करता हूं तो भ्रमित हो जाता हूं। फिर सोचता हूं कि मुझे इससे क्या लेना देना। सांई बाबा की भक्ति और मंदिर अलग-अलग विषय हैं और मंदिरों में जो नाटक देखता हूं तो हंसता हूं और सोचता हूं कि क्या कभी उन संतजी ने सोचा होगा कि उनके नाम पर लोग हास्य नाटक भी करेंगे। अपनी कारें और मोटर सायकलें वहां पुजवाने ले आते हैं। वहां के सेवक भी उस लोह लंगर की चीज की पूजा कर उसको सांईबाबा का आशीर्वाद दिलवाते हैं। इसका कारण यह भी है कि सांईबाबा को चमत्कारी संत माना जाता है और लोगों की इसी कारण उनमें आस्था भी है।

अधिक तो मैं नहीं जानता पर मुझे याद है कि मुझे शराब पीने की लत थी और एक दिन पत्नी की जिद पर उनके मंदिर गया तो उसके बाद शुरू हुआ विपत्ति को दौर। पत्नी की मां का स्वास्थ्य खराब था वह कोटा चलीं गयीं और इधर मैं उच्च रक्तचाप का शिकार हुआ। अपनी जिंदगी के उस बुरे दौर में मैं हनुमान जी के मंदिर भी एक साथी को ढूंढकर ले गया। आखिर मैं स्वयं भी कोटा गया क्योंकि यहां अकेले रहना कठिन लग रहा था। वहां सासुजी का देहांत हो गया।

उसके बाद लौटे तो फिर हर गुरूवार को मंदिर जाने लगे। इधर मेरी मानसिक स्थिति भी खराब होती जा रही थी। ऐसे में पांच वर्ष पूर्व (तब तक बाबा रामदेव की प्रसिद्धि इतनी नहीं थी)एक दिन भारतीय योग संस्थान का शिविर कालोनी में लगा। संयोगवश उसकी शूरूआत मैंने गुरूवार को ही की थी।

यह मेरे जीवन की दूसरी पारी है। जिन दिनों शराब पीता था तब भी मैं भगवान श्री विष्णु, श्री राम, श्री कृष्ण, श्री शिवजी, श्रीहनुमान और श्रीसांईबाबा के के मंदिर जाता रहा और बाल्मीकि रामायण का भी पाठ करता । योगसाधना शुरू करने के बाद श्रीगीता का दोबारा अध्ययन शुरू किया और देखते देखते अंतर्जाल पर लिखने भी आ गया। मतलब यह कि ओंकार के साथ निरंकार की ही आराधना करता हूं। अपना यह जिक्र मैंने इसलिये किया कि इसमें एक संक्षिप्त कहानी भी है जिसे लोग पढ़ लें तो क्या बुराई है।

असल बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि भारतीय अध्यात्म का मूल रहस्य श्रीगीता में है और इस समय पूरे विश्व में अध्यात्म के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है। ‘अध्यात्म’ यानि जो वह जीवात्मा जो हमारा संचालन करता है। उससे जुडे विषय को ही अध्यात्मिक कहा जाता है। कई लोग सहमत हों या नहीं पर यह एक कटु सत्य है कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने आध्यात्म का रहस्य पूरी तरह जानकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया और कहीं अन्य इसकी मिसाल नहीं है। भारत की ‘अध्यात्मिकता’ सत्य के निकट नहीं बल्कि स्वयं सत्य है। यह अलग बात है कि विदेशियों की क्या कहें देश के ही कई कथित साधु संतों ने इसकी व्याख्या अपने को पुजवाने के लिये की । दुनियों में श्रीगीता अकेली ऐसी पुस्तक है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है और उसमें जो सत्य है उससे अलग कुछ नहीं है। लोग उल्टे हो जायें या सीधे चाहे खालीपीली नारे लगाते रहें, तलवारे चलाये या त्रिशूल, पत्थर उड़ाये या फूल पर सत्य के निकट नही जा सकते। अगर सत्य के निकट कोई ले जा सकता है तो बस श्रीगीता और भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथ। अपने देश के लोग कहीं पत्थरमार होली खेलते हैं तो कहीं फूल चढ़ाते हैं तो कही पशु की बलि देने जाते है कही कही तो शराब चढ़ाने की भी परंपरा है। श्रीगीता को स्वय पढ़ने और अपने बच्चों को पढ़ाने से डरते है कहीं मन में सन्यास का ख्याल न आ जाये जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने तो सांख्ययोग (सन्यास) को लगभग खारिज ही कर दिया है। हां उसे पढ़ने से निर्लिप्त भाव आता है और ढेर सारी माया देखकर भी आप प्रसन्न नहीं होते और यही सोचकर आदमी घबड़ाता है कि इतनी सारी माया का आनंद नही लिया तो क्या जीवन जिया। अभी मैंने श्रीगीता पर लिखना शुरू नहीं किया है और जब उसके श्लोकों की वर्तमान संदर्भ में व्याख्या करूंगा तो वह अत्यंत दिल्चस्प होगी। यकीन करिये वह ऐसी नहीं होगी जैसी आपने अभी तक सुनी। आजकल मैं हर बात हंसता हूं क्योंकि लोगों को ढोंग और पाखंड मुझे साफ दिखाई देते है। कहता इसलिये नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्त के अलावा इस श्रीगीता का ज्ञान किसी को न दें।

मंदिरों मे भगवान का नाम लेने जरूर लोग जाते हैं पर मन में तो माया का ही रूप धारण किये जाते हैं। मन में भगवान है तो माया भी वहीं है उसी तरह मंदिर में भी है वहां भी आपके मन के अनुसार ही सब है। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये लोग वहां जाते हैं तो कुछ लोग दर्शन करने चले जाते हैं तो कुछ लोग ऐसे ही चले जाते है। खेलती माया है और आदमी को गलतफहमी यह कि मै खेल रहा हूं । काम कर रही इंद्रियां पर मनुष्य अपने आप को कर्ता समझता है।

असल बात बहुत छोटी है। सांईबाबा संत थे और एक तरह से फक्कड़ थे। उनका रहनसहन और जीवन स्तर एकदम सामान्य था पर उनका नाम लेलेकर लोगों ने अपने घर भर लिये और अब अगर यह रायल्टी का मामला है तो भी है तो माया का ही मामला। कई जगह उनके मंदिर है और मैं अगर किसी दूसरे शहर में गुरूवार को होता हूं तो भी उनके मंदिर का पता कर वहां जरूर जाता हूं। मंदिरों में तो बचपन से जाने की आदत है पर मैं केवल इसलिये भगवान की भक्ति करता हूं कि मेरी बुद्धि स्थिर रहे और किसी पाप से बचूं। फिर तो सारे काम अपने आप होते है। कई मंदिरों पर संपत्ति के विवाद होते हैं और तो और वहां के सेवकों के कत्ल तक हो जाते हैं। यह सब माया का खेल है। अब अगर यह मामला बढ़ता है तो बहुत सारे विवाद होंगे। कुछ इधर बोलेंगे तो कुछ उधर। हम दृष्टा बनकर देखेंगे। वैसे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान सोने की खदान है और कुछ लोग इसको बदनाम करने के लिये भी ऐसे मामले उठा सकते हैं जिससे यह धर्म और बदनाम हो कि देखो इस धर्म को मानने वाले कैसे हैं? जानते हैं क्यों? अध्यात्म और धर्म अलग-अलग विषय है और जिस तरह विश्व में लोग माया से त्रस्त हो रहे हैं वह इसी ज्ञान की तरफ या कहंे कि श्रीगीता के ज्ञान की तरफ बढ़ेंगे। उनको रोकना मुश्किल होगा। इसीलिये उनके मन में भारतीय लोगों की छबि खराब की जाये तो लोग समझें कि देखो अगर इनका ज्ञान इस सत्य के निकट है तो फिर यह ऐसे क्यों हैं?
मैं महापुरुषों के संदेश भी अपने विवेक से पढ़कर लिखता हूंे ताकि कल को कोई यह न कहे कि हमारे विचार चुरा रहा है। यकीन करिय एक दिन ऐसा भी आने वाला है जब लोग कहेंगे कि हमारा इन महापुरुषों के संदशों पर भी अधिकार है क्योंकि हमने ही उनको छापा है। यह गनीमत ही रही कि गीताप्रेस वालों ने भारत के समस्त ग्रंथों को हिंदी में छाप दिया नहीं तो शायद इनके अनुवाद पर भी झगड़े चलते और हर कोई अपनी रायल्टी का दावा करता। जिस तरह यह मायावी विवाद खड़े किये जा रहे हैं उसके वह आशय मै नहीं लेता जो लोग समझते हैं। मेरा मानना है कि ऐसे विवाद केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान को बदनाम करने के लिये किये जाते है। मुख्य बात यह है कि इसके लिये प्रेरित कौन करता है? यह देखना चाहिए। पत्रकारिता के मेरे गुरू जिनको मैं अपना जीवन का गुरू मानता हूं ने मुझसे कहा था कि तस्वीर तो लोग दिखाते और देखते हैं पर तुम पीछे देखने की करना जो लोग छिपाते हैं। देखना है कि यह विवाद आखिर किस रूप में आगे बढ़ता है क्योंकि श्री सत्य सांई बाबा विश्व में असंख्य लोगों के विश्व के केंद्र में है और जिस तरह यह मामला चल रहा है लोगों को उनसे विरक्त करने के प्रयासों के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।

‘चक दे इंडिया’ नहीं ‘सच देख इंडिया’-व्यंग्य


बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं ‘चक दे इंडिया’। जब देखों कोई थोड़ी बहुत अच्छी खबर होती है गूंजने लगता है टीवी चैनलों पर ‘चक दे इंडिया’‘। एक काल्पनिक कहानी पर फिल्म बनी जिसमें भारतीय महिला हाकी टीम को विश्वविजेता बता कर पूरे देश को भरमाने की कोशिश की गयी। सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों में भारत किसी भी खेल में विश्व कप जीता नहीं था पर एक फिल्म में काल्पनिक रूप से मिली जीत को भी एक सच की तरह भुनाया गया। भ्रम पैदा कर लोगों की भावनाओं से जुड़े व्यवसाय में किस तरह कमाई हो सकती है ऐसा उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिल सकता।

अनेक विज्ञापन वाले अपने माडल कों किसी काल्पनिक प्रतियोगिता में जितवाकर अपने द्वारा विज्ञापित वस्तु दिखाते हुए उससे गंवाने लगते हैं ‘चक दे इंडिया’। कोई ‘रीयल्टी शो’ होता है तो उसमें कई बार प्रतियोगी गाने लगते हैं तो कई बार उस शो की समप्ति पर विजेता के सम्मान में भी गाया जाता है ‘चक दे इंडिया’। धीरे धीरे लोग इसे भूलने लगे थे पर क्रिकेट के बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीतने पर तो जैसे प्रचार माध्यमों की उचट कर लग गयी। जिसे देखो वही बजाये जा रहा था। यहीं से उनको अवसर मिला। क्रिकेट में उसके बाद कोई भी छोटी मोटी जीत मिली तो यही गाना चैनलों पर सुनाई देता है। जब हार जाती है तो उसके लिये कोई मातमी धुन बजना चाहिए पर एसा कोई भी नहीं करता जबकि फिल्मों ने कई ऐसे मातमी गीत और संगीत के कार्यक्रम बना रखे हैं। जब टीम पिट जाती है उस समय अपने खिलाडि़यों को थोड़ा बहुत कोसकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं।

काल्पनिक कहानियों से कुछ नहीं होता। फिल्म और उसके गीत क्षणिक रूप से आनंद प्रदान करते है, पर जीवन के लिये वह निरर्थक हैं। पहले लोग फिल्म देखकर भूल जाते थे और जो गाने जीवन के लिये थोड़ा बहुत अर्थ रखते थे तो उसे गुनागनाने लगते थे पर आज के प्रचार माध्यम तो उन गानों को भुनाने के लालायित रहते हैं। कई बार तो समाचार पत्र पत्रिकाएं अपने किसी सकारात्मक लेख या समाचार को प्रभावी बनाने के लिये लिख देते है ‘चक दे इंडिया’ ।

वैसे देखा जाये तो बजाय ‘चक दे इंडिया की जगह होना चाहिए ‘सच देख इंडिया‘। सच तो यह है कि इस लेखक को गीत नहीं लिखना आता वरना लिख देता ‘सच देख इंडिया’। अगर प्रयास भी किया तो तुक मिलाने के चक्कर में शब्द गड़बड़ा जायेंगे और अगर उनको ठीक रखने का प्रयास किया तो तुक नहीं बनेगी। चलिये इस पर एक गीतनुमा एक हास्य कविता लिखने का प्रयास करके देखते हैं।

सच देख इंडिया, सच देख इंडिया
ख्वाब देखा तो सच से मूंह फेर लिया
सच देख इंडिया
परदे पर देखा होगा, अपने लिये विश्व कप
पर कीर्तिमानों में देश को जीरो ने घेर लिया
सच देख इंडिया
हाकी में नहीं जा रही इंडिया की टीम
सच में कभी नहीं जमती, देश के जीत की थीम
सच देख इंडिया
दुनियां भर के खिलाड़ी दिखायेंगे बीजिंग में अपने जौहर
इंडिया में बैठकर देखेंगे, परायों को बीबी और शौहर
सच देख इंडिया
सास-बहु सीरियल में सुनकर धमाके दिल बहालाआगे
शहर में होने वाले असली धमाकों से कान नहीं बचा पाओगे
काल्पनिक कहानियां कितना भी डरायें
सच भयानक दृश्यों से ज्यादा डरावनी नहीं होती
उनमें कितना भी खूबसूरत अहसास हो
जिंदगी इतनी खुशनुमा भी नहीं होती
सच देख इंडिया
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हां, यह सच है कि यह गीत की तरह नहीं लिखा पर जब कड़वे सच हों तो शब्दों को बाहर आने देने से रोकना भी अच्छा नहीं लगता नहीं तो वह रुके हुए पानी की तरह अंदर ही अंदर गंदा होकर हृदय को खोखला कर देते हैं। कभी ‘ये है मेरा इंडिया’ तो कभी ‘मेड इन इंडिया’ तो कभी ‘चक दे इंडिया’ जैसे फिल्मी वाक्यों को जीवन में दोहराते रहने से सच नहीं बदल जायेगा। एक अजीब माहौल है। यहां दर्द है, संवेदना है और अभिव्यक्ति के साधन है पर फिर भी वह सब कुछ हो रहा है जिसे नहीं होना चाहिए। पहले कथा कहानियां सुनाकर इस देश को भ्रमित किया गया और फिल्म की काल्पनिक कहानियों से कुछ वाक्यांश लेकर उसमें देश के लोगों का दिल और दिमाग भटकाना एक व्यापार हो सकता है पर इससे पूरी कौम मानसिक रूप से कितनी कमजोर हो गयी है जो इंतजार करती है किसी घटना का ताकि उस संवेदना व्यक्त की जा सकें। आम आदमी का समझ में तो आ सकता है पर जिन लोगों खेल और समाज के संबंध में कुछ करने का दायित्व है उनकी नाकामी एक चिंता का विषय है। लोग अपनी तकलीफों के साथ जी रहे हैं उसे भुलाने के लिये वह इन काल्पनिक कहानियों में मन बहला रहे हैं पर समाज और राष्ट्र को आगे ले जाने वाला चिंतन और अध्ययन का भाव उनमें लुप्त होता जा रहा है। फिल्मी वाक्यांशों से इस देश की वास्तविकता नहीं बदल सकती। इसके लिये पहले ‘चक दे इंडिया’ की जगह कहना पड़ेगा ‘सच देख इंडिया’
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

मरे मुद्दों की राख अंतर्जाल पर मत सजाओ-आलेख


प्रचार माध्यमों पर निरंतर आ रही जानकारियों ने देश के लोगों को आंदोलित किया है। सभी कहते हैं कि अंतर्जाल का जमाना है। सब इस परिवर्तन को दर्शाती कहानियों, आलेखों और कविताओं को पढ़ना चाहते हैं। वह अपनी आंखों से बदलते इस विश्व को देखने के साथ उसके बारे में पढ़ना चाहते है।
अंतर्जाल पढ़ने वाले लोग निराश है। जो लिख रहे हैं वह सारी सुविधाओं होने के बावजूद पुराने विषयों पर ही लिख रहे हैंं। वही वाद और नारे लगाने के साथ उसमें लिपटी कवितायें और कहानियां लिखे रहे हैं। लिखने वालों के पास ज्ञान की गहराई का अभाव है। टीवी चैनलों और अखबारों में अनेक लेखक चर्चित हैं मगर आम आदमी की वाणी पर किसी का नहीं है।
कई कवि और शायर अपनी रचनाओं को जबरन हृदयस्पर्शी बनाने का प्रयास करते हैं-उनके शब्दों का उपयोग यह स्पष्ट कर देता है। चंद घटनाओं को कविता का रूप देते हैं जिनको पहले ही लोग समाचारों पढ़ कर भूल चुके हैं। वह इन घटनाओं को ऐसे लिखते हैं जैसे उससे देश का इतिहास बदला हो। लोग अपनी कहानियों और व्यंग्यों में उन हिंसक मुद्दों को जीवंत बनाने का प्रयास कर रहे हैं जो चंद जगहों पर हुईं। देश के बहुत से लोगों ने उसे केवल समाचारों में पढ़ा। कई लेखक और कवि अभी भी उन पर लिख रहे हैं। उनको मुगालता है कि अतर्जाल पर लोकप्रियता मिल जायेगी। कुछ लोग उनकी किताबों की चर्चा करते हैं कि शायद उन्हें भी उसका कुछ अंश यहां मिल जायें। वह अंतर्जाल पर लिख रहे कवियों और लेखकों को अपने जैसा ही मानते हैं और उनका प्रचार करने से भय लगता है।
आखिर उनका उद्देश्य क्या है? वह खुद नहीं जानते। बस लिखना है। लोगों की संवेदनाओं को उबारने से शायद उनको लोकप्रियता मिल जाये। बेकार की कोशिश! लोगों की संवेदनायें मरी नहीं हैं यह एक सच है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि लोगों ने प्रचार माध्यमों से इस सच का जान लिया है कि यहां कई घटनायें पहले से तय की जाती हैं। लड़ाईयों भी फिक्स होती हैंं। एक लेखक, कवि या शायर किसी समाचार पर एक कविता लिख देता है। वह कहता है कि मैं सैक्यूलर हूं और यह घटना उसके लिये खतरा है। दूसरा उस पर उबलता है। कहीं गुस्से और तो कहीं झगड़े होते हैं। कहीं विवाद होते हैं। ऐसे कवियों और शायरों के नाम अखबारों मे आते हैं जिनको कोई जानता नहीं। उनके विरोधी भी ऐसे ही हैं। मगर लोग सच जानते हैं कि आजकल सभी जगह फिक्सिंग है।

किसी आम आदमी से पूछिये तो वह बेहिचक कह देगा कि‘यह सब नाटक है।
मगर कवि और शायर है कि मुगालते में लिखे जा रहे हैं। लोग उम्मीद कर रहे थे कि अंतर्जाल पर कुछ नया पढ़ने को मिलेगा। मगर नही,ं यहां तो उन्हीं घिसे पिटे वाद और नारों पर चलने वाले गुरूओं के शिष्यों की जमात आ गयी है-जिनके पास न स्वतंत्र विचार हैं न मौलिकता से लिखने की क्षमता। समाचार पत्रों से उठाये गये विषयों को ही यहां रख रहे हैं। ऐसे लोग आत्ममुग्ध हैं उनको पता ही नहीं है कि लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है। वह कुछ नया पढ़ना चाहते हैं। मगर इस पर उन्हें सोचने की फुरसत ही कहां? वह तो अखबार पढ़ा और फिर उस पर लिखने बैठ जाते हैं। अंतर्जाल पर कई नये लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं पर कोई उनका लिखा अपने अंतर्जालीय पृष्ठों पर नहीं लिखता। कहीं से किताबों के अंश ले आये तो कभी किसी विदेशी कि कविता छाप दी। बस! वही ढर्रा! जिस पर देश चलता आ रहा है।

आम आदमी जानता है कि जहां तक अध्यात्म का प्रश्न है हमारे पुराने ग्रंथों में अपार सामग्री है। उसके बाद भी संतगण-तुलीसदास, कबीरदास, मीरा, रहीम और सूर- उनके लिये बहुत कुछ लिख गये हैं। अब और क्या लिख पायेगा पर वर्तमान सामाजिक परिवेश और अंतर्जाल से संबंधित अच्छी कहानियां, व्यंग्य और लेख पढ़ने को मिल जाये तो अच्छा है-लोग ऐसा सोचते हैं।
अंतर्जाल पर लिखने वाले इस नयी विधा पर कोई कहानी क्यों नहीें लिखते? क्या अंतर्जाल पर उनके पास कोई पात्र नहीं हैं या वहां कोई कहानियां नहीं बनती। मगर वाद और नारों पर चले इस देश का समाज चला तो फिर लेखक भी ऐसे ही हैं। कोई नई कल्पना करने की बजाय वह उपलब्ध विषयों पर ही लिखते हैं। अपने देश के किसी व्यक्ति द्वारा सुझाया गया विषय उनको मंजूर नहीं है। उन्हें तो अमेरिका और ब्रिटेन के अंग्रेज लेखकों द्वारा खोजे गये विषयों पर ही लिखना पसंद है। अंतर्जाल पर पढ़ने वाले लोगों को यह देखकर निराशा होती है कि अभी वहां स्वतंत्र रूप से कोई नहीं लिख पा रहा जबकि उसे यहां उस पर कोई बंधन नहीं है। अंतर्जाल लेखकों को पुराने विषयों से हटकर नये विषय चुने होंगे। उन्हें अपना मौलिक लेखन करना होगा वरना वह पिछड़ जायेंगे। ध्यान देने की बात है कि अब आप लिख किसी भी भाषा में रहे हैं पर उसे अन्य किसी भाषा का व्यक्ति भी पढ़ सकता है। पुराने वाद और नारों से दूर हो जाओ। पुराने हिंसक और तनाव के मुद्दों पर अब इस देश का आदमी नहीं भड़कता। वह जानता है कि आजकल कई मुद्दे बनाये जाते हैं। उन मरे मुद्दों की राख उठाकर अंतर्जाल पर मत सजाओ।

माया और सत्य दोनों का खेल निराला है-आलेख


माया का खेल बहुत विचित्र है। तमाम तरह के विद्वानों के संदेश पढ़ने के बावजूद मुझे इस संबंध में एक बात कहीं भी पढ़ने को नहीं मिली जो मैं कहना चाहता हूं। मैं सोचता था कि अगर किसी विद्वान के संदर्भ देकर यह बात कहता तो शायद प्रभावी होती पर उस तरह का कथन नहीं मिला। जब कोई लेखक किसी किताब से पढ़कर लिखने का अभ्यस्त हो जाता है तब उसके सामने यही समस्या आती है कि अपने मन की बात कहने के लिए भी उसे किताब की जरूरत पढ़ती है। अगर वह नहीं मिलती तो उसे अपनी बात कहने के लिए किसी ऐसे मूड की आवश्यकता होती है जब वह उसे लिख सके।

कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में मुझे पढ़ने को मिला कि वैष्णो देवी के दर्शन पहले करने हों तो कुछ पैसे भुगतान कर किया जा सकता है। बाद में सामान्य भक्तों के विरोध के कारण यह निर्णय संभवतः अभी लागू नहीं हो पाया। वैसे यह कोई नई बात नहीं है कि किसी मंदिर में सर्वशक्तिमान के समक्ष प्रस्तुत होने के लिए लगी भक्तों की पंक्ति से अलग हटकर विशिष्ट भक्त के रूप में कुछ धन व्यय कर प्राथमिकता के आधार पर प्रवेश प्राप्त हो। कहीं यह सुविधा नियमों में शामिल की गयी है तो कहीं यह स्वाभाविक रूप से ऐसे होता है कि आभास भी नहीं होता। अर्थात भक्त में दो भेद हैं-एक सामान्य भक्त और दूसरा विशिष्ट भक्त। सामान्य भक्त इस बात को जानते हैं पर वह भी यह एक तरह से स्वीकार कर लेते हैं जिस पर भगवान की कृपा से माया अधिक है उसे प्रथम दर्शन का अधिकार प्राप्त है।

माया का खेल बहुत निराला है। सत्य का खेल उससे भी निराला है। माया इतना विस्तार रूप लेती है कि उसे अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए चरम पर आकर उसे सत्य की बराबरी करने की आवश्यकता अनुभव होती है। मगर सत्य तो सत्य है उसका माया से कोई वास्ता नहीं पर माया को धारण करने वाला भी वही सत्य है। धारण करने वाला स्वयं नहीं दिखता क्योंकि वह बुनियाद के पत्थर की तरह होता है जो दिखता नहीं है तो पुजता भी नहीं है। ऊपर खड़ी दीवारों को चमकदार रूप इसलिये दिया जाता है कि इमारत के अस्तित्व का बोध उनसे ही होता है। मायावी लोग भी सत्य की आड़ में कुछ ऐसा ही खेल खेलते हैं। उनको चाहिए बस माया पर सत्य और धर्म की आड़ में यह खेल इस तरह होता है कि समाज में भक्ति के नाम भ्रम पालने वाले लोग उसे सहजता से लेते है। आदमी के पास माया है पर मन में शांति नहीं है ऐसे में माया ही उसे प्रेरित करती है उन जगहों पर जाने के लिए और फिर माया अपनी शक्ति दिखाकर अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करती है।

एक नहीं अनेक बार मेरे सामने ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे हंसी के अलावा कुछ नहीं सूझता। मैं बचपन से ही अध्यात्मिक प्रवृत्ति का हूं और मंदिरों में जाता हूं। हां, मुझे वहां शंाति मिलती है पर फिर भी मेरी अंधविश्वासों और पाखंड में कोई यकीन नहीं नहीं। मंदिरों में शांति इसलिये मिलती है कि हम कुछ देर के लिए अपने तन और मन को इस दुनियां से अलग ले जाते हैं जिसे ध्यान का ही मैं एक स्वरूप मानता हूं। सत्संगों में भी जाने में मुझे संकोच नहीं है पर मैं किसी संत व्यक्ति विशेष में अपनी भावनाओं के साथ लिप्त नहीं होता।

मैं एक आश्रम में गया। वहां संत अपने दर्शन भक्तों के दे रहे थे। वहां भीड़ बहुत थी। मेरी पत्नी तो पंक्ति में लग गयी पर मैं बाहर ही खड़ा रह गया। हम दोनों भीड़ में ऐसे अवसरों अलग-अलग हो जाने के आदी हो चुके हैं। मैंने इधर-अधर निरीक्षण किया तो देखा कि कुछ लोग दीवार के दूसरी तरफ एक अन्य पंक्ति में खड़े हैं पर उनकी संख्या आधिकारिक पंक्ति से बहुत कम थी। वहां से कुछ लोग तमाम तरह के उपहार लेकर संत के दर्शन उनके निकट के सेवकों की अनुमति से सहजतापूर्वक करने जा रहे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके हाथों में कोई उपहार नहीं था पर वह भी प्रवेश कर रहे थे जो शायद उन सेवको के लिये अन्यत्र लाभ पहुंचाने वाले होंगे। मेरे लिए यह सामान्य बात होती है क्योंकि बचपन से अनेक बार ऐसे भेदभाव देखता आया हूं।
कुछ देर बाद मेरा एक परिचित वहां आया और मेरा अभिवादन किया। मैंने बातचीत करते हुए उससे पूछा-‘तुमने संत जी के दर्शन कर लिए होंगे?

वह एकदम सीना तानकर बोला-‘और क्या? मैंने तो विशिष्ट भक्तों की पंक्ति में खड़े होकर उनके दर्शन किए। ऐसे सामान्य भक्तों की पंक्ति में मैं खड़ा होने वाला नहीं था।’
मैं हंस पड़ा। भक्ति में इस तरह से अहंकार की बात कहने वाला भी वह पहला व्यक्ति नहीं था-इस तरह की विशिष्ट अनेक लोग अनेक अवसरों पर दिखा जाते हैं। बस घटना का स्थान ही बदला हुुआ होता है। मैंने उसके व्यक्तित्व की झूठी प्रशंसा करने में भी कोई कमी नहीं की। इसमें भी मेरा अपना दर्शन चलता है कि ‘अगर मेरे शब्दों से कोई प्रसन्न होता है तो उसमें क्या हर्ज है उससे कोई लाभ तो नहीं उठा रहा जो मुझे मानसिक संताप होगा। किसी की झूठी प्रशंसा कर लाभ उठाना ही मुझे अखरता है।
यह माया का खेल है जो परमात्मा के दर्शन करने का सामथर््य दिखाती है। संत शिरोमणि रविदास कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ मगर माया है कि मन चंगा नहीं रहने देती वह तो गंगा के तट पर दौड़ लगवाती है ताकि उसके अस्त्तिव की अनुभूति मनुष्य मन में बनी रहे। मेरा स्पष्ट मानना है कि आप औंकार से निरंकार की तरफ जाना ही सत्य को जानने की प्रक्रिया है-जिसे साकार से निराकार की और जाने वाला मार्ग भी कहते है। इन दैहिक चक्षुओं के द्वारा मूर्तियों को देखकर सर्वशक्तिमान का स्वरूप अपने मन में स्थापित कर ध्यान करते हुए निरंकार की तरफ हृदय को केंद्रित करना चाहिए।

आप देश के जितने भी प्रसिद्ध मंदिरों को देखते हैं वह सभी सुंदर प्राकृतिक स्थानों पर स्थित हैं। ऐसे अनेक स्थान जो प्रकृति की दृष्टि से संपन्न हैं पर वहां कोई मंदिर नहीं है तो वह भी पर्यटकों को आनंद देते हैं। जहां मंदिर हैं वहां ऐसे लोग अधिक जाते हैं जो हृदय में पर्यटन का भाव लिये होते हैं पर अपने आपको ही भक्ति का भ्रम देने लगते हैं। ऐसे मेें जो लोग इन स्थानों की देख रेख करते हैं उनके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। वह एक तरह से व्यवसायी हो जाते हैं पर फिर संत और सेवक कहलाने का श्रेय उनको मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि अध्यात्म और इस दिखावे की भक्ति में बहुत अंतर है। अध्यात्मिक भक्ति से आशय यह है कि वह आपके हृदय में स्थाई रूप से रहना चाहिए और आपको बाहर से किसी की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। जब बाह्य प्रेरणा से अपने अंतर्मन में भक्ति भाव पैदा होता है तो वह उसके परे हटते ही विस्मृत हो जाता है। यह आश्चर्य की बात है कि विश्व का सबसे स्वर्णिम अध्यात्म ज्ञान के सृजक संतों,ऋषियों, मुनियों और संतों के देश में सर्वाधिक भ्रमित लोग रहते हैं। इसे हम कह सकते हैं कि कांटों में ही गुलाब खिलता है और कमल को कीचड़ धारण करता है। भारतीय मनीषी शायद जीवन के रहस्यों को इसलिए भी जान पाये क्योंकि भ्रम और अंधविश्वासों के बीच जीने वालों की संख्या यहां प्रचुर मात्रा में है और वही उनके प्रेरक बनते रहे हैं। फिर दिया तले अंधेरा वाली बात नहीं भूलना चाहिए। यहां अध्यात्म-योग साधना, श्रीगीता का संदेश, कबीर, तुलसी, रहीम, चाणक्य, भृतहरि आदि मरीषियों रचनाएं-पूरे विश्व को चमत्कृत कर रहा है पर यहां अज्ञानता और अंधविश्वास भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।

अनाम और छद्मनामः कहीं अनुकूल तो कहीं प्रतिकूल-आलेख


अभी एक लेख समाप्त करते वक्त मेरे दिमाग में अपने ब्लाग पर आई टिप्पणियों को लेकर कुछ विचार थे। उस लेख में उसका व्यापक उल्लेख करना व्यर्थ था इसलिये अलग से यह आलेख लिख रहा हूं।

मैंने लिखा था कि प्रेम, मित्रता, स्नेह, और सद्भावना का कोई स्वरूप नहीं होता। कई बार तो ऐसा लगता है कि मेरे एक-दो मित्र ही है जो नाम बदल बदल कर टिप्पणी देते हैं। सोचते हैं कि एक ही नाम देखकर यह बोर न हो जाता हो। मैं इस सोच में रहा था कि क्या कोई महिला ब्लाग लेखिका भी जिसके मन में मेरे प्रति सद्भावना है जो नाम बदलकर मुझे प्रेरित करती है।
असल में हिंदी ब्लाग जगत की शूरूआत ही छद्म और अनाम ब्लाग लेखकों ने की होगी-ऐसा लगता है। कभी-कभी तो लगता है कि असली नाम तो बहुत कम होंगे उससे अधिक छद्म नाम होंगे।
मेरी स्थिति अन्य ब्लाग लेखकों से थोड़ी अलग है। कुछ ब्लाग लेखक छद्म नाम के लोगों की प्रतिकूल टिप्पणियों से परेशान हैं तो मैं अनुकूल टिप्पणियों को देखकर हैरान हो जाता हूं। कई बार ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपनी पोस्ट लेकर आते हैं और कहते हैं कि हम दो-तीन माह से ब्लाग जगत से दूर थे पर लगतार इसे देख रहे थे। अब लगातार लिखते रहेंगे। वगैरह..वगैरह। हिंदी ब्लाग सभी एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों पर मै निरंतर विचरण करता हूं। कई ब्लाग लेखक गायब हो जाते हैं। कई नये आते हैं।
कुछ ब्लाग लेखकों की शैली का अभ्यस्त हूं तो कई बार नये ब्लाग लेखकों से उनकी मिलती-जुलती शैली देखकर ऐसा लगता है कि कहीं वही पुराने वाले तो नहीं।

पिछले छह महीने में मेरा कुछ लोगों से संपर्क हुआ और उनसे आत्मीयता स्थापित हुई। उन्होंने कई नई जानकारियां दीं। कुछ उनसे सीखा। अचानक फिर कहां चले गये। कम से चार पांच ब्लाग लेखक तो मेरे ब्लाग पर इतनी प्रभावपूर्ण टिप्पणियां लिख गये कि मैंने अपने ब्लाग/पत्रिका पर पाठ ही लिख लिया। उनके ब्लाग फिर नहीं दिखे। कुछ आपत्तिजनक सामग्री वाले ब्लाग दिखे फिर वह गायब हो गये। ऐसे में यह संदेह/विश्वास होता है कि कुछ ऐसे ब्लाग लेखक हैं जिनके लिए लिखना एक तरह से व्यसन/आदत हो गयी है। अधिक लिखने से लेखक के ‘एक्सपोज‘ ( इसका हिंदी शब्द मुझे बासी ही समझ में आता है) होने का भय रहता है और लिखना भी जरूरी है शायद इसलिये कुछ नाम ब्लाग लेखक छद्म नाम से लिखते हैं। कुछ तो उस नाम से बकायदा निष्काम भाव से टिप्पणियां भी लिखते है। लड़ाई झगड़े और विवाद वाले पाठों पर ऐसे छद्म नाम वाले लेखकों का तो जमावड़ा ही हो जाता है। दो पक्ष में तो दो विपक्ष में दिखाई देते हैं।
मेरे मित्रों में ऐसे कितने ब्लाग लेखक हैं यह तो पता नहीं। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो क्योंकि उनकी टिप्पणियों में जो स्नेह, प्रेम, और सद्भावना भरी होती है उसके अधिक स्वरूप नहीं होते। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब मैं कुछ कड़ा या व्यंग्यात्मक पाठ लिख देता हूं और मुझे लगता है शायद इस पर अकेला पड़ जाऊंगा तब ऐसे मित्र टिप्पणियां रखते है यह बताने के लिऐ कि हमारी सहमति तुम्हारी साथ है। उनकी टिप्पणियों से एक संतोष मिलता है कि उस विषय पर अकेला नहीं हूं। बहरहाल अंतर्जाल पर अनाम, छद्मनाम और और वास्तविक नाम के लोग रहेंगे। उनकी भूमिका अपने अनुसार रहेगी। एक बात तय है कि केवल आलोचना ही छद्म नाम या अनाम होकर नहीं की जाती बल्कि प्रेम और स्नेह के लिये भी यही तरीका अपनाया गया है।

रामनवमी पर पिछले साल न पढा जा सका लेख अब प्रस्तुत



यह लेख मैने पिछले वर्ष रामनवमी पर कृतिदेव में लिखा था और इसका शीर्षक यूनिकोड में था। उस समय मेरा नारद पर कोई ब्लाग नहीं था पर वहां के सक्रिय ब्लागर -जिनका काम हिंदी के ब्लागरों को ढूंढना था- मेरे शीर्षक तो पढ़ पा रहे थे पर बाकी उनके पढ़ने में नहीं आ रहा था। मेरे बहुत सारे ऐसे लेखों पर बाद में अनेक ब्लागरों ने कहा था कि मैं उनको यूनिकोड में लाऊं पर बड़े लेख होने के कारण ऐसा नहीं कर सका। अब चूंकि कृतिदेव का यूनिकोड मिल गया है तो अपने ऐसे लेख प्रस्तुत कर रहा हूं।

सौम्यता, सहजता, सरलता और समभाव का प्रतीक हैं भगवान श्रीराम
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आज पूरे देश में रामनवमी का त्यौहार मनाया जा रहा है। राम हमारे देश के लोगों के हृदय के नायक है। यह स्वाभाविक ही है कि लोग राम का नाम सुनते ही प्रफुल्लित हो उठते हैं। राम की महिमा यह कि जिस रूप में उन्हें माना जाये उसी रूप में आपके हृदय में स्थित हो जाते है। राम उनके भी जो उनको माने और राम उनके भी जो उन्हें भजें और वह उनके भी हैं जो उन्हें अपने हृदय में धारण करें।
मैं बचपन से भगवान विष्णू की उपासना करता आया हू। स्वाभाविक रूप से भगवान श्री राम के प्रति भक्तिभाव है। इसका एक कारण यह भी रहा है कि मैं मूर्ति तो भगवान विष्णू की रखता हूं पाठ बाल्मीकी रामायण का करता हूं। कुल मिलाकर भगवान विष्णू ही मेरे हृदय में राम की तरह स्थित हैं। मतलब यह मेरे लिये भगवान राम ही भगवान विष्णू है। यह समभाव की प्रवृति मुझे भगवान राम के चरित्र से मिलती है।
भगवान राम के प्रति केवल भारत में ही बल्कि विश्व में भी उनकी अनुयायियों की भारी संख्या है। मतलब यह कि भगवान श्रीराम का चरित्र केवल देश की सीमाओं में नहीे सुना और सुनाया जाता है वरन् देश के बाहर भी उनके प्रति लोगों के मन में भारी श्रद्धा है। जब मै आज भारत के अंदर चल रहे हालातेों पर नजर डालता हूं तो लगता है लोग केवल नाम के लिये ही राम को जप रहे है। भगवान राम के चरित्र की व्याख्यायें बहुत लोग कर रहे है पर केवल लोगों में फौरी तौर पर भक्ति भाव जगाकर अपनी हित साधने तक ही उनकी कोशिश रहती है। मैं अक्सर जब परेशानी या तनाव में होता हूं तो उनका स्मरण करता हूं।
यकीन मानिए भगवान राम के मंदिर में जाकर कोई वस्तू या कार्यसिद्ध की मांग नहीं करता वरन् वह मेरे मन और बुद्धि में बने रहें इसीलिये उनके समक्ष नतमस्तक होता हूं। जब संकट में उन्हें याद करता हूं तो केवल इसीलिये कि मेरा घैर्य, आस्था और विश्वास बना रहे यही इच्छा मेरी होती है। थोड़ी देर बाद मुझे महसूस होता है कि वह शक्ति प्रदान कर रहे है।
भगवान श्रीराम का चरित्र कभी किसी अविश्वास और अकर्मणता का प्रेरक नहीं हो सकता। जो केवल इस उद्देश्य से भगवान राम को पूजते हैं कि उन पर कोई संकट न आये और उनके सारे कार्य सिद्ध हो जायें-वह राम का चरित्र न तो समझते है न उन्हें कभी अपने विश्वास को प्रमाणित करने का अवसर मिल पाता है।
भगवान श्री राम की कथा पढ़ना और सुनना अच्छी बात है पर उन्हें अपने हृदय में धारण कर ही जीवन में आनंद ले पाते है। ऐसे विरले ही होते है। भगवान राम के चरित्र में जो सौम्यता, सहजता, सहृदयता, समभाव और सदाशयता है वह विरले ही चरित्रों में मिल पाती है। यही कारण है कि भारत की सीमाओं के बाहर भी उनका चरित्र पढ़ा और सुना जाता है। अगर मनुष्य के रूप में की गयी उनकी लीलाओं का चर्चा की जाये तो वह कभी विचलित नहीं हुए। कैकयी द्वारा बनवास, सीताजी के हरण और रावण के साथ युद्ध में श्रीलक्ष्मण जी के बेहोश होने के समय उन्होंने जिस दृढ़ता का परिचय दिया वह विरलों में ही देखने को मिलती है। रावण के साथ युद्ध में एक ऐसा समय भी आया जब सभी राक्षसों को ऐसा लगा रहा था कि भगवान राम ही उनके साथ युद्ध कर रहे है। वह घबड़ा कर इधर उधर भाग रहे थे जहां जाते उन्हें राम देखते। मतलब यह कि राम केवल उनके ही नहीं है जो उनके पूजते बल्कि उनके भी है जो उन्हें नहीं पूजते-नहीं तो आखिर अपने शत्रूओं को दर्शन क्यों देते? यह उनके समभाव का प्रतीक है। क्या हम उन्हें मानने वाले ऐसा समभाव दिखा पाते है। कतई नहीं। यकीनन हमेें अब आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या केवल भगवान श्रीराम की मूर्ति लगाकर उनके प्रति दिखावे की आस्था प्रकट करना ही काफी है। हमें उनके पूर्ण स्वरूप का स्मरण कर उसे अपने मन और बुद्धि में स्थापित करना चाहिए। याद रहे मनुष्य की पहचान उसकी बुद्धि से है। अगर आप अपनी बुद्धि में अपने इष्ट को स्थापित करेंगे तो धीरे धीरे उन जैसे होते जायेंगे। एक विद्वान का मानना है कि मूर्ति पूजा का प्रत्यक्ष रूप से लाभ कुछ नहीं होता पर उसका यह फायदा जरूर होता है आदमी जब भगवान की पूजा करता है तो उसके हृदय में उनके गुणों का एक स्वरूप स्थापित होता है जो आगे चलकर उसका स्थायी हिस्सा बन जाता है। शर्त यही है वह आदमी उस समय किसी अन्य भाव का स्थान न दे।
इस दुनिया में हमेशा मूर्तिपूजा का विरोध करने वालों की संख्या ज्यादा रही है। दरअसल वह इससे होने वाले मनोवैज्ञानिक फायदों को नहीं जानते। प्रत्यक्ष रूप से तो इसका फायदा नही होता दिखता पर अप्रत्यक्ष रूप से जो व्यक्ति में शांति और दृढ़मा आती है उसको किसी पैमाने से मापना कठिन है। मुख्य बात है अपने अंदर भाव उत्पन्न करना। आखिर कोई भी व्यक्ति काम करता है तो उसके पीछे उसके विचार, संकल्प और निश्चयों के साथ ही चलता है। जब उनमें दोष है तो किसी सार्थक कार्य के संपन्न होने की आशा करना ही व्यर्थ है। अब लोग किसी और को तो नहीं अपने आपको धोखा देते है। मंदिरों में जाकर वह भगवान के सामने नतमस्तक तो होते है पर स्वरूप के अंतर्मन में ध्यान करने की कला में कितने दक्ष है यह तो वही जाने। अलबत्ता सबसे बड़ी बात राम की भक्ति के साथ उन्हें मन और बुद्धि में धारण भी जरूरी है। मूर्तियां तो उनका वह स्वरूप है जो आखों से ग्रहण करने के लिए स्थापित किया जाता है ताकि उसे हम अपने अंतर्मन में ले जा सके।
भगवान राम का चरित्र कभी न भुलाये जाने वाला चरित्र है। उनके प्रति अपार श्रद्धा के साथ उनके संदेशों पर चलने की जरूरत भी है। उन्होंने नैतिक आचरण, समभाव, सहजता और सरल दृष्टिकोण से जीवन जीने का जो तरीका प्रचारित किया उस पर चलने की जरूरत है। हमें समूह नहीं एक व्यक्ति के रूप में यह विचार करना चाहिए कि क्या हम उनके द्वारा निर्मित पथ पर चले रहे है या नहीं। दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है यह हमें नहीं सोचना चाहिए। भगवान श्रीराम को अपने हृदय में धारण करन चाहिए जिससे केवल न हम स्वयं बल्कि समाज को भी संकट से उबारने की शक्ति अर्जित कर सकें।

ओलम्पिक मशाल, शादी में गम जैसा हाल


भारत में ओलपिक मशाल को लेकर अजीब सा माहौल है। ऐसा लगता है कि जैसे गम के माहौल में शादी हो रही है। हमने कई बार देखा होगा कि कई बार एसा होता है कि किसी परिवार में शादी की तैयारी होती है और पता लगता कि वहां कोई निकटस्थ व्यक्ति का देहावसान हो गया तो फिर भी मूहूर्त की वजह से शादी तो होती है पर उस तरह खुशी की माहौल नहीं रहता जैसा कि सामान्य हालत में रहता है। वैसे तो हर ओलपिक के अवसर पर मशाल आती है पर इस बात चीन में होने वाले ओलंपिक खेलों को लेकर जिस तरह पूरे विश्व में विवाद उठ खड़ा हुआ है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। इधर चीन भी अपने आपको चर्चा के केंद्र में बनाये रखने के लिये तिब्बत में कथित आंदोलन का दमन कर दुनिया को अपनी ताकत दिखा रहा है। भारत में चीन को लेकर अधिक कोई रुझान नहीं है और उल्टे 1962 के बाद उसके खिलाफ लोगों में नाराजगी का माहौल तो रहता ही है उस कभी-कभी चीनी नेता भी अरुणांचल के मामले में कुटिलतापूर्ण टिप्पणियां कर आग में घी छिड़कने का काम करते है।

चीन तिब्बत का हिस्सा है या नहीं यह विवादास्पद प्रश्न है पर जिस तरह तिब्बती लोग पूरी दुनियां में इस मशाल का विरोध कर रहे हैं उससे यह तो संदेश मिल ही जाता है कि वहां के लोग बहंुत नाराज है। एक बात तय है कि चीन के लिये भारत की आम जनता में कोई सौहार्द का भाव नहीं है और न चीनी लोगों की भारत में दिलचस्पी है-क्योंकि चीन ने सरकारी तौर पर ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। इस समय जो आर्थिक और सामाजिक क्षे+त्रों में संबंध है उच्च वर्ग के लोगों तक ही सीमित है। चीन की तिब्बत नीति पर पश्चिमी देश कभी सहमत नहीे हए। भले ही वह औपचारिक रूप से सतत उसका विरोध नही करते। तिब्बत के विस्थापित लोग भारत में बड़े पेमाने पर हैं। कई शहरों में सर्दी के दौरान वह स्वेटर बेचने के लिए अस्थाई बाजार लगाते हैं। उसमें उनके द्वारा प्रदर्शित नक्शे में तिबबत का क्षेत्रफल देखा जाये तो उससे लगता है कि चीन इतना बड़ा देश नहीं है जितना उसे माना जाता है। वैसे भी तिब्बत के सांस्कृतिक और धार्मिक स्वरूप को देखा जाये तो चीन के अन्य समूदायों से उनकी कोई तुलना नहीं है। तिब्बत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या बहुत अधिक है और उनका झुकाव धर्म की तरफ है जबकि गरीबों और मजदूरों को शासन दिलवाने का सपना दिखाने वाले आज के चीनी शासक तो शुद्ध रूप से माया के भक्त हैं।।उनके लिये धर्म तो एक अफीम है। तिब्बत का इलाका हिमालय के लगता है और निश्चित रूप से वहां तमाम तरह की प्राकृतिक संपदा है जिसका दोहन चीन ने किया है वरना उसके पास था ही क्या? आज चीन विश्व की एक महाशक्ति है पर कई लोग उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं कई विशेषज्ञ तो कहते है कि चीन की समृद्धि के पीछे काला पैसा भी है।

भारत में रह रहे तिब्बती ओलंपिक मशाल का विरोध कर रहे है तो उनसे सहानुभूति रखने वाले लोगों की भी कोई कमी यहां नही है। इसका कारण चीन की विस्स्तारवादी नीतियां ही हैं। अमेरिका पर तो तमान लोग सम्राज्यवादी होने के कई लोग आरोप लगाते हैं पर उसने किसी की जमीन हड़प कर रखी हो उसका केाई प्रमाण नहीं मिलता जबकि चीन ने पूरा एक देश ही हड़प कर रखा है और भारत के बहुत बड़े इलाके पर दावा जताता रहा है। वैसे तो अनेक बार ओलंपिक मशालें भारत आ चुकी हैं पर बहुत कम लोग उस पर ध्यान देते हैं। इस बार विवाद उठा है तो शायद लोगों का उस पर ध्यान अधिक गया है। हालांकि इस विरोध को कोई बड़ा समर्थन मिलने की आशा तो नहीं है क्योंकि एक आज के पूंजीवाद के युग में तिब्बती कोई अधिक स्थान नहीं रखते दूसरे इन्हीं खेलों से कई पूंजीपति भी जुड़े होते हैं और उनका अस्तित्व प्रत्यक्ष भले न दिखे पर अप्रत्यक्ष उनका प्रभाव बहत रहता है और वह किसी ऐसे विरोध को प्रायोजित नहीं करेंगें। वैसे भी ओलंपिक में भारत के खेल प्रमियों की रुचि अधिक नहीं रहती क्योंकि वहां एकाध खेल को छोड़कर वहां भारत की स्थिति नाम नाममात्र की रहती है और अब वह भी हाकी में ओलंपिक के लिये भारतीय हाकी टीम के क्वालीफाई न करने के कारण समाप्त हो गयी है। इस बार शायद इस मशाल की चर्चा भी नहीं होती अगर तिब्बतियों ने इसका विरोध नहीं किया होता। देश की प्रशासनिक संस्थाओं के पास राजनीतिक मर्यादाओं की वजह से इस मशाल को सुरक्षा देने के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं है पर यह देखना होगा कि निजी प्रचार माध्यम और संस्थाएं इसके बारे मे कैसा रवैया अख्तियार करतीं हैं।

आखिर दलाई लामा ने भी लगाया चीन पर तिब्बत की स्थिति बिगाड़ने का आरोप


आखिर तिब्बत के निर्वासित धार्मिक नेता दलाई लामा ने भी वहां की बिगड़ी हालत के लिये चीन को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। इससे पूर्व मैंने अपने लेख में यह संदेह जाहिर किया था कि चीन के शासक वहां के हालत बिगाड़ कर अपने सैन्य ठिकानों सुदृढ़ एवं विस्तृत करने का बहाना ढूंढ रहे हो सकते हैं। अब दलाई लामा ने जिस तरह उनका जिस तरह कटघरे में खड़ा किया है उसे जरूर देखना चाहिए।

दलाई लामा ने तो यहां बैठकर वहां के लोगों से शांति की अपील की थी फिर भी वहां क्यों हिंसा हो रही है? चीन के सम्राज्यवादी शासकों ने सांस्कृतिक क्रांति के बाद से ही चारों तरह एक तरह से आतंक की अभेद्य दीवार अपने देश में बना रखी है और उसे देख कर नहीं लगता कि वहां उसके शासकों की नजर के बिना किसी आंदोलन को चलाना तो दूर उसकी सोच भी नही सकता होगा। उसके पड़ौसी देशों में भी किसी की हिम्मत नहीं है कि उसके अंदर चल रही असंतुष्ट गतिविधियों को प्रत्यक्ष क्या अप्रत्यक्ष समर्थन भी दे सके।

एसा लगता है कि चीन की जनता को भले ही बाहर की हवा न लगी हो पर उसके नेता अब दूसरे देश के नेताओं से राजनीति का सबक सीख गये हैं। जब संपूर्ण देश में अशांति का माहौल हो तो किसी क्षेत्र विशेष में फैले अंसतोष को हवा दो ताकि लोगो का ध्यान उस ओर चला जाये। वहां फिर बलप्रयोग करो ताकि देश की जनता वाहवाही करे और दुश्मन डर जाये। यह आंदोलन चीनी नेताओं के इशारे पर उन नेताओं ने शुरू किया होगा जिन्हें चीन के राजनयिकों ने उपकृत किया होगा या ऐसा करने का आश्वासन दिया होगा-हालांकि इसमें उनके लिये जोखिम भी कम नहीं है क्योंकि जब चीन जब वहां अपना काम पूरा कर लेगा तब उनका भी वैसा ही हश्र होगा जैसा अन्य विरोधियों का होता आया है।

वैसे भी इस समय तिब्बतियों को स्वतंत्रता मिलना तो दूर स्वायत्ता मिलना भी कठिन है और अगर ऐसा कोई आंदोलन वहां चल रहा है तो उसे केवल पश्चिमी राष्ट्रों का मूंहजुबानी समर्थन ही मिल सकता है इससे अधिक कुछ आशा नही की जा सकती। भारत से बड़ा उपभोक्ता बाजार चीन का है और उसे पाने की होड़ सभी पश्चिमी राष्ट्रों में है। इसके अलावा सामरिक दृष्टि से चीन इतना ताकतवर है कि कोई उस पर हमला नहीं कर सकता। ऐसे में तिब्बत की चीन से मुक्ति अभी तो संभव नहीं है। ऐसे में वहां चल रहे कथित आंदोलन का लंबे समय तक चलना संभव नहीं है। इसके बावजूद विश्व के सभी देशों को उस पर नजर रखना ही चाहिए क्योंकि वह अपनी सामरिक शक्ति बढ़ायेगा जो कि विश्व के लिये हितकर नहीं है। अभी तक चीन ने तिब्बत को अपनी सैन्य छावनी बनाकर रखा हुआ है और अब वह वहां अपने देश के अन्य इलाकों से लोग लाकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहता है। उसके कथित विकास के दावे खोखले हैं और चूंकि अब प्रचार माध्यम इतने व्यापक हो गये हैं इसलिय कोई देश अपने लोगों को दूसरे देशों से मिलने वाली जानकारी रोक नहीं सकता और निश्चित रूप से वहां की सरकार की जनता में असलियत अब खुल रही होगी और उससे विचलित वहां की सरकार उनका ध्यान बंटाने के लिये यह नाटक कर रही है-दलाई लामा के आरोप से तो यही लगता है।

संबंध विच्छेद की प्रक्रिया आसान होना चाहिए-आलेख


कुछ ऐसी घटनाएँ अक्सर समाचारों में सुर्खियाँ बनतीं है जिसमें पति अपनी पत्नी की हत्या कर देता है
१। क्योंकि उसे संदेह होता है की उसके किसी दूसरे आदमी से उसके अवैध संबंध हैं।
२।या पत्नी उसके अवैध संबंधों में बाधक होती है।
इसके उलट भी होता है। ऐसी घटनाएँ जो अभी तक पाश्चात्य देशों में होतीं थीं अब यहाँ भी होने लगीं है और कहा जाये कि यह सब अपनी सभ्यता छोड़कर विदेशी सभ्यता अपनाने का परिणाम है तो उसका कोई मतलब नहीं है। यह केवल असलियत से मुहँ फेरना होगा और किसी निष्कर्ष से बचने के लिए दिमागी कसरत से बचना होगा।
हम कहीं न कहीं सभी लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर ही रहे हैं। फिर भी समाज में बदनामी का डर रहता है इसलिए पुराने आदर्शों की बात करते हैं पर विवाह और जन्म दिन के अवसर पर हम सब भूलकर उसी ढर्रे पर आ जाते हैं जिस पर पश्चिम चल रहा है।
मैं एक दार्शनिक की तरह समाज को जब देखता हूँ तो कई लोगों को ऐसे तनावों में फंसा पाता हूँ जिसमें आदमी का धन और समय अधिक नष्ट होता देखता हूँ। कई माँ-बाप अपने बच्चों की शादी कराकर अपने को मुक्त समझते हैं पर ऐसा होता नहीं है। लड़कियों की कमी है पर लड़के वालों के अंहकार में कमी नहीं है। हम इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लडकी के बाप के रूप में आदमी झुकता है लड़के के बाप के रूप में अकड़ता है। अपने आसपास जब कुछ लोगों को बच्चों के विवाह के बाद भी उनके तनाव झेलते हुए पाता हूँ तो हैरानी होती है।

रिश्ते करना सरल है और निभाना और मुश्किल है और उससे अधिक मुश्किल है उनको तोड़ना। कई जगह लडकी भी लड़के के साथ रहना नहीं चाहती पर लड़के वाले दहेज़ और अन्य खर्च की वापसी न करनी पड़े इसलिए मामले को खींचते हैं। कई जगह कामकाजी लडकियां घरेलू तनाव से बहुत परेशान होती हैं और वह अपने पति से अलग होना चाहतीं है पर यह काम उनको कठिन लगता है। लंबे समय तक मामला चलता है। कुछ घर तो ऐसे भी देखे हैं कि जिनका टूटना तय हो जाता है पर उनका मामला बहुत लंबा चला जाता है। दरअसल अधिकतर सामाजिक और कानूनी कोशिशे परिवारों को टूटने से अधिक उसे बचाने पर केन्द्रित होतीं है। कुछ मामलों में मुझे लगा कि व्यर्थ की देरी से लडकी वालों को बहुत हानि होती है। अधिकतर मामलों में लडकियां तलाक नहीं चाहतीं पर कुछ मामलों में वह रहना भी नहीं चाहतीं और छोड़ने के लिए तमाम तरह की मांगें भी रखतीं है। कुछ जगह लड़किया कामकाजी हैं और पति से नहीं बनतीं तो उसे छोड़ कर दूसरा विवाह करना चाहतीं है पर उनको रास्ता नहीं मिल पाता और बहुत मानसिक तनाव झेलतीं हैं। ऐसे मामले देखकर लगता है कि संबंध विच्छेद की प्रक्रिया बहुत आसान कर देना चाहिए। इस मामले में महिलाओं को अधिक छूट देना चाहिऐ। जहाँ वह अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं वह उन्हें तुरंत तलाक लेने की छूट होना चाहिए। जिस तरह विवाहों का पंजीयन होता है वैसे ही विवाह-विच्छेद को भी पंजीयन कराना चाहिए। जब विवाह का काम आसानी से पंजीयन हो सकता है तो उनका विच्छेद का क्यों नहीं हो सकता।

कहीं अगर पति नहीं छोड़ना चाहता और पत्नी छोड़ना चाहती है उसको एकतरफा संबंध विच्छेद करने की छूट होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि समाज में इसे अफरातफरी फ़ैल जायेगी। ऐसा कहने वाले आँखें बंद किये बैठे हैं समाज की हालत वैसे भी कौन कम खराब है। अमेरिका में तलाक देना आसान है पर क्या सभी तलाक ले लेते हैं। देश में तलाक की संख्या बढ रही हैं और दहेज़ विरोधी एक्ट में रोज मामले दर्ज हो रहे हैं। इसका यह कारान यह है कि संबंध विच्छेद होना आसान न होने से लोग अपना तनाव इधर का उधर निकालते हैं। वैसे भी मैं अपने देश में पारिवारिक संस्था को बहुत मजबूत मानता हूँ और अधिकतर औरतें अपना परिवार बचाने के लिए आखिर तक लड़ती है यह भी पता है पर कुछ अपवाद होतीं है जो संबध विच्छेद आसानी से न होने से-क्योंकि इससे लड़के वालों से कुछ नहीं मिल पाता और लड़के वाले भी इसलिए नहीं देते कि उसे किसी के सामने देंगे ताकि गवाह हों-तमाम तरह की नाटकबाजी करने को बाध्य होतीं हैं। कुछ लड़कियों दूसरों के प्रति आकर्षित हो जातीं हैं पर किसी को बताने से डरती हैं अगर विवाह विच्छेद के प्रक्रिया आसान हो उन्हें भी कोई परेशानी नहीं होगी।

कुल मिलकर विवाह नाम की संस्था में रहकर जो तनाव झेलते हैं उनके लिए विवाह विच्छेद की आसान प्रक्रिया बनानी चाहिऐ। हालांकि देश के कुछ धर्म भीरू लोग जो मेरे आलेख को पसंद करते है वह इससे असहमत होंगें पर जैसा मैं वाद और नारों से समाज नहीं चला करते और उनकी वास्तविकताओं को समझना चाहिऐ। अगर हम इस बात से भयभीत होते हैं तो इसका मतलब हमें अपने मजबूत समाज पर भरोसा नहीं है और उसे ताकत से नियंत्रित करना ज़रूरी है तो फिर मुझे कुछ कहना नहीं है-आखिर साठ साल से इस पर कौन नियंत्रण कर सका।

तिब्बत मामले पर चीन से सतर्क रहना जरूरी-आलेख


तिब्बत में चीन के खिलाफ कथित आन्दोलन मुझे तो एक छद्म मामला लग रहा है। चीन में नाम मात्र की भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है और ऐसे आन्दोलन वहीं पनपते हैं जहाँ थोडी बहुत कोई बोलने और समझने की गुंजायश हो। चीन में जिस तरह लोगों की बोलने की आजादी को कसकर दबाया गया है उसके चलते यह संभव भी नहीं है।

चीन एक भयभीत राष्ट्र है और भय से क्रूरता का जन्म होता है। चीन ने इलेक्ट्रोनिक क्षेत्र में काफी तरक्की है और ऐसे में उसके न चाहने के बावजूद विदेशी प्रचार माध्यमों की पहुंच वहाँ के लोगों तक हुई है, और अब सामान्य लोग जागरूक हो रहे हैं। चीन के बारे में विश्व बहुत कम जानकारी उपलब्ध है पर जितनी उपलब्ध है वह उसकी कड़वी जमीनी वास्तविकताओं को दर्शाती है। उसकी विकास दर बहुत अधिक हैं पर उसमें कितना काला और सफ़ेद है यह अलग चर्चा का विषय है। कुल मिलाकर चीन में भी एक आम जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग नाखुश है और लगता है कि तिब्बत में चीन के प्रमुख एक काल्पनिक दुश्मन खडा कर जनता का ध्यान बंटाने का प्रयास कर रहे है। भारत में रह रहे दलाई लामा ने वहाँ के लोगों से हिंसा से दूर रहने की अपील की है पर चीन तो शांति प्रदर्शन को भी सेना से कुचलने में लगा है। उसे शांतिपूर्ण आन्दोलन भी स्वीकार्य नहीं है। चीन को भय ने क्रूर बना दिया है।

चीन ने जिस तरह तिब्बत में भारत के रवैये का स्वागत किया है और यह चौंकाने वाले बात है और इसमें सतर्कता रखने वाली बात है। हो सकता है कि चीन ने राजनीतिक दावपेंच का इस्तेमाल करते हुए तिब्बत में तनाव पैदा किया हो और वहाँ इस बहाने अपना सैन्य तंत्र मजबूत कर रहा हो ताकि कभी उसका भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सके।
वहाँ चीन अपनी सैन्य ताकत को इस तरह स्थापित कर सकता है कि भारत में घुसना आसान हो। बीच बीच में वह अरुणांचल पर अडियल रवैया अपनाकर वह इस बात का संकेत भी देता है कि उसका धीरज जवाब दे रहा है। यह इसलिए भी संदेहास्पद लग रहा है क्योंकि चीन में जो कठोर व्यवस्था है उसके चलते कोई भी उसके विद्रोहियों मदद नहीं कर सकता।

मूर्ख लिखते हैं और समझदार पढ़ते हैं-हास्य व्यंग्य


ब्लोगर अपने घर के बाहर पोर्च पर अपनी पत्नी के साथ खडा था। उसी समय दूसरा ब्लोग आकर दरवाजे पर खडा हो गया। पहला ब्लोगर इससे पहले कुछ कहता उसने अभिवादन के लिए हाथ उठा दिए-”नमस्ते भाभीजी।

पहला ब्लोगर उसकी इन हरकतों का इतना अभ्यस्त हो चुका था कि उसने अपनी उपेक्षा को अनदेखा कर दिया। वह कुछ उससे कहे गृहस्वामिनी ने उसका स्वागत करते हुए कहा-”आईये ब्लोगरश्री भाईसाहब। बहुत दिनों बाद आपका आना हुआ है।”

पहले ब्लोगर ने प्रतिवाद किया और कहा-”हाँ, अगर उस सम्मानपत्र की बात कर रही हो जो यह कहीं से छपवाकर लाया और तुमसे हस्ताक्षर कराकर ले गया था तो मैं बता दूं उससे यह तय करना मुश्किल है कि यह ब्लोगश्री है कि ब्लोगरश्री। अभी उस भ्रम का निवारण नहीं हुआ है। अभी इसके नाम के आगे किसी पदवी का उपयोग करना ठीक नहीं है।”

गृहस्वामिनी ने दरवाजा खोल दिया। दूसरा ब्लोगर अन्दर आते हुए बोला-”यार, आज तुमसे जरूरी काम पड़ गया इसलिए आया हूँ।”
पहले ब्लोगर ने कहा-”तुम कल आना। आज मुझे एक जरूरी पोस्ट लिखनी है।
गृहस्वामिनी ने बीच में हस्तक्षेप किया और कहा-”आप कंप्यूटर के पास बैठकर बात करिये। मैं तब तक चाय बनाकर लाती हूँ। घर आये मेहमान से ऐसे बात नहीं की जाती है। ”
पहले ब्लोगर को मजबूर होकर उसे अन्दर ले जाना पडा। दूसरे ब्लोगर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा–”मैं होली पर मूर्ख ब्लोगर सम्मेलन आयोजित करना चाहता हूँ। अपने शहर में तो बहुत कम लोग लिखते हैं कोई ऐसा शहर बताओ जहाँ लिखे वाले अधिक हों तो वहीं जाकर एक सम्मेलन कर लूंगा। तुम तो इंटरनेट पर लिखने वाले अधिकतर सभी ब्लोगरों को जानते हो.”
पहले ब्लोगर ने शुष्क स्वर में कहा-”हाँ, यहाँ तो तुम अकेले मूर्ख ब्लोगर हो। इसलिए कोई सम्मेलन नहीं हो सकता। किस शहर में मूर्ख ब्लोगर अधिक हैं मैं कैसे कह सकता हूँ।

दूसरा ब्लोगर बोला-”मैंने तुमसे कहा नहीं पर हकीकत यह है कि मेरी नजर में तुम एक मूर्ख ब्लोगर हो। जो ब्लोगर लिखते हैं वह मूर्ख और जो पढ़ते हैं वह समझदार हैं। समझदार ब्लोगर पढ़कर कमेन्ट लगाते हैं और कभी-कभी नाम के लिए लिखते हैं।”
पहले ब्लोगर ने कहा-”ठीक है। फिर इस मूर्ख ब्लोगर के पास क्यों आये हो? अपना काम बता दिया अब निकल लो यहाँ से।

दूसरा ब्लोगर बोला-”यार, मैं तो मजाक कर रहा था। जैसे होली पर मूर्ख कवि सम्मेलन होता है उसमें भारी-भरकम कवि भी मूर्ख कहलाने को तैयार हो जाते हैं। वैसे ही मैं ब्लोगरों का सम्मेलन करना चाहता हूँ।तुम तो मजाक में कहीं बात का बुरा मान गए.”

इतने में गृहस्वामिनी चाय लेकर आ गए, साथ में प्लेट में बिस्किट भी थे।
दूसरा ब्लोगर बोला-”भाभीजी की मेहमाननवाजी का मैं कायल हूँ। बहुत समझदार हैं।
पहले ब्लोगर ने कहा-”हाँ, हम जैसे मूर्ख को संभाल रही हैं।”
दूसरा ब्लोगर ने कहा–”नहीं तुम भी बहुत समझदार हो। वर्ना इंटरनेट पर इतने सारे ब्लोग पर इतना लिख पाते। ”
वह चली गयी तो दूसरा ब्लोगर बोला-”देखो, तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी इज्जत रख ली।”
पहले ब्लोगर ने कहा–”मेरी कि अपनी। अगर तुम नहीं रखते तो अगली बार की चाय का इंतजाम कैसे होता।
दूसरे ब्लोगर ने कहा–”अब यह तो बताओं किस शहर में अधिक ब्लोगर हैं।
पहले ने कहा-”यहाँ कितने असली ब्लोगर हैं और कितने छद्म ब्लोगर पता कहाँ लगता है। ”
दूसरे ने कहा-”ठीक है मैं चलता हूँ। और हाँ इस ब्लोगर मीट पर एक रिपोर्ट जरूर लिख देना।तुम्हारे यहाँ आकर अगर कोई काम नहीं हुआ। मुझे मालुम था नहीं होगा पर सोचा चलो एक रिपोर्ट तो बन जायेगी।”
पहला ब्लोगर इससे पहले कुछ कहता, वह कप रखकर चला गया। गृहस्वामिनी अन्दर आयी और पूछा-”क्या बात हुई?”
पहले ब्लोगर ने कहा-”कह रहा था कि मूर्ख ब्लोगर लिखते हैं और समझदार पढ़ते हैं?”
गृहस्वामिनी ने पूछा-”इसका क्या मतलब?”
ब्लोगर कंधे उचकाते और हाथ फैलाते हुए कहा-”मैं खुद नहीं जानता। पर मैं उससे यह पूछना भूल गया कि इस ब्लोगर मीट पर हास्य कविता लिखनी है कि नहीं। अगली बार पूछ लूंगा।”

नोट-यह हास्य-व्यंग्य रचना काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है. अगर किसी से मेल हो जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा. इसका रचयिता किसी दूसरे ब्लोबर से नहीं मिला है।

कुछ इधर-उधर की-आलेख


जब अपने ब्लोग पर कोई टिप्पणीनहीं होती तो एक निराशा मन में घर कर जाती है और ऐसा लगता है कि हम व्यर्थ ही लिख रहे हैं। अगर मुझे शुरू से ही टिप्पणियाँ नहीं मिली होती तब शायद इस बारे में नहीं सोचता और न लिखता। शुरू में जब मैंने लिखना शुरू किया तो मुझे यह मालुम भी नहीं था कि इस तरह टिप्पणियाँ मिलेंगी और मैं भी लिखूंगा। फिर जब टिप्पणियाँ आनी शुरू हुईं तो मुझे हिन्दी में लिखने का आईडिया भी नहीं था। बाद में ब्लोग स्पॉट पर टाईप कर दूसरेब्लोग पर टिप्पणियाँ करने लगा। शुरू में मैं केवल औपचारिक रूप से कमेंट रखता पर अब पूरा पढ़कर उसके अंशों पर टिप्पणियाँ करता हूँ। टिप्पणियों को लेकर मेरे अन्दर कोई दुराग्रह नहीं है। जिस ब्लोग को पढता हूँ और उससे अगर प्रभावित होता हूँ तो इस बात की परवाह नहीं करता कि उस ब्लोगर ने मुझे कभी टिप्पणी दी कि नहीं और आगे देगा कि नहीं। मैंने आत्ममंथन किया और पाया कि यह विचार अपने अन्दर एक प्रकार की कुंठा पैदा करता है और उससे अपना रचना कर्म प्रभावित होता है।
मैं बहुत लिखने वालों में हूँ इसलिए यह आशा तो बिलकुल नहीं करता कि मेरे मित्र मुझे हर लिखे पर टिप्पणी दें क्योंकि मेरा यहाँ उद्देश्य अपनी बात आम पाठक तक पहुँचना है। इसके बावजूद अपनी लिखी पोस्ट पर कमेन्ट आयेगी कि नहीं मुझे पता होता है। कुछ पोस्ट लिखते ही मुझे पता लग जाता है कि इस पर कोई टिप्पणी नहीं आयेगी क्योंकि वह भले ही मेरी दृष्टि से बहुत अच्छी और उसे पढ़ने वालों की संख्या भी कमनहीं होती परउसमें कुछ ऐसी विवादस्पद बातें होतीं है कि लोग उनसे टिप्पणी करने से बचते हैं । हाँ कुछ ऐसी कवितायेँ हास्य या गंभीर सन्देश का भाव से सराबोर होतीं हैं और उनको पोस्ट करते समय मुझे पता लग जाता है कि कोई न कोई टिप्पणी जरूर आयेगी। आखिर जब मैं किसी से प्रभावित होकर दूसरों को कमेन्ट देने में परवाह नहीं करता तो कई और लोग भी हैं जो इस बात के परवाह नहीं करते कि मैं उनको कमेन्ट देता हूँ किनहीं।
अब मैं अपने लिखे पर ही अधिक ध्यान देता हूँ कि वह पढ़ने वालों को प्रभावित कर सके। कई बार कुछ लोगों को कमेन्ट न मिलने के शिकायत होती है उन्हें एक बात मैं कहना चाहता हूँ कि वह इस बात की परवाह न करें क्योंकि कमेन्ट न आना इस बात का प्रमाण नहीं है कि लोग हमसे चिढे हुए हैं या उपेक्षा कर रहे हैं। इसका कारण पोस्ट का प्रभावपूर्ण न होना भी हो सकता है और दिन और समय भी। दिन के समय ब्लोगर कम ही सक्रिय दिखते हैंकभी तो ऐसा लगता है कि सुबह और शाम अधिक उपलब्ध होते हैं दूसरे शादी और क्रिकेट के दिनों और समय में भी उनके सक्रियता कम दिखती है। ऐसे में कमेन्ट लगाने वालों की संख्या कम हो जाती है।
आखिरी बात यह कि जिन लोगों को यह शिकायत है कि कमेन्ट कम मिल रहीं है उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि वह स्वयं कमेन्ट कितनी देते हैं। अगर उनको लगता है कि उनको कम पढा जा रहा है तो इसके लिए भी वह खुद ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वह स्वयं भी ब्लोग को नहीं पढ़ रहे वरना उनको यह पता लगता कि यहाँ किस तरह के पाठक है और उनके प्रिय विषय क्या हैयहाँ एक बात समझ लेना चाहिऐ कि अधिकतर ब्लोगर उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और हल्का-फुल्का लिखकर उनको प्रभावित नहीं कर सकते-भले ही कुछ लोगों को औपचारिक रूप से कमेन्ट देते हों। कुछ लोग दूसरों के ब्लोग अपने यहाँ दिखाते हैं। शीर्षक के साथ अपनी एक लाइन जोड़ देते हैं। उनको एक नहीं बारह कमेन्ट होते हैं पर जिनके ब्लोग वहाँ है उनको कोई देखता भी नहीं है। एक प्रतिष्ठत ब्लोग पर मेरे एक नहीं तीन ब्लोग के शीर्षक थे पर मेरे ब्लोग पर एक भी पाठक वहाँ से नहीं आया और उस पर पंद्रह कमेन्ट थे। मतलब यह कि जिस तरह कमेन्ट आना अच्छी रचना होने का प्रमाण नहीं है उसी तरह उसका न आना भी खराब होने का प्रमाण नहीं है। हाँ अगर बहुत अच्छी है तो कई लोग बिना हिचक कमेन्ट देंगे ही-यही सोचकर लिखता जाता हूँ। लिखना और कमेन्ट लेना-देना दो अलग विधाएं हैं अत: दोनों के बारे में अपना दृष्टिकोण अलग-अलग समय पर अलग रखना होगा। कमेन्ट लिखने के लिए हम जैसे खुद हैं वैसे ही सब हैं । हिन्दी लेखन के लिए यह एक अलग और नया विषय है और इसमें किसी से उम्मीद करने की बजाय हमें भी इसलिए लिए तैयार करना होगा। हाँ अपने लिखे पर अवश्य ध्यान दें क्योंकि यह आगे आम पाठक द्वारा भी पढा जाने वाला है अत: अपने विषय का चयन करते समय इस बात का ध्यान भी अवश्य रखें ।