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राष्ट्रमंडल खेल तमाशे की तरह लगते हैं-हिन्दी लेख (commanwelth game in newdelhi-hindi article)


दिल्ली में होने वाले कॉमनवैल्थ तमाम कारणों से चर्चा में है। जिस तरह वहां निर्माण कार्य हुआ है और तैयारी चल रही है उससे विदेशों से आये प्रतिनिधिमंडल संतुष्ट नहीं है तो भारत में अनेक खेल विशेषज्ञ तमाम तरह के सवाल उठा रहे हैं। बहरहाल हम यहां कॉमनवैल्थ खेलों के महत्व की ही चर्चा करेंगे जिसको बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है।
देश में खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों की कमी नहीं है। दुनियां के प्रसिद्ध खेलों के -फुटबाल, क्रिकेट, शतरंज, टेनिस, टेबल टेनिस, बैटमिंटन तथा हॉकी-प्रशंसकों की यहां भरमार है। इसके अलावा भी कम लोकप्रिय खेलों में भी दिलचस्पी है। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि बहुत कम खेल प्रेमी हैं जिनकी दिलचस्पी राष्ट्रमंडल खेलों में होगी। दिल्ली में खेल होंगे इसलिये भारत के प्रचार माध्यम-टीवी चैनल, रेडियो तथा अखबार-इसका प्रचार खूब करेंगे पर यकीनन दर्शकों की दिलचस्पी उनमें कम ही होगी। भारत में अगर विज्ञापन और प्रायोजक कंपनियों को ध्यान रखने की बजाय आम दर्शक और पाठक को देखकर कार्यक्रमों का प्रसारण तथा समाचार का प्रकाशन हो तो संभव है कि कोई माध्यम इनको प्रसारित करने का जोखिम नहीं उठायेगा। लोगों के पास मनोरंजन के साधन अधिक हैं पर उनकी रुचियां सीमित हैं इसलिये ही क्रिकेट जैसे खेल को देखते हैं पर उनकी संख्या बहुत कम है। सच तो यह है कि क्रिकेट अब जिंदा ही विज्ञापन तथा कंपनियों की वजह से है।
इसके अलावा हम भारतीयों की आदत है कि कोई भी द्वंद्व तो देखने में रुचि तो रखते हैं पर महारथियों का स्तर भी देखना नहीं भूलते। इसलिये खेल की दुनियां में महारथ रखने वाले अमेरिका, चीन, सोवियत संघ, जापान तथा जर्मनी जैसे राष्ट्रों की अनुपस्थिति इन खेलों का महत्व स्वाभाविक रूप से कम कर देती है। दूसरी बात यह भी है कि राष्ट्रवादी खेल प्रेमियों के लिये कॉमनवैल्थ खेलों का आयोजन करता तो दूर की बात इनमें शामिल होना भी अंग्रेजों की गुलामी ढोने जैसा है क्योंकि इसमें केवल वही देश शामिल होते हैं जो कभी ब्रिटेन के गुलाम रहे हैं। जो लोग इन खेलों के आयोजन से विश्व में भारतीय की छबि अच्छी होने के दावे कर रहे हैं उन्हें यह बात याद रखना चाहिए कि गुलाम की कभी छबि अच्छी नहीं होती। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय क्रिकेट खेल इसमें शामिल नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत अच्छे पदक जीतेगा पर इससे भारतीय खेलप्रेमी ओलंपिक में अपने देश की स्थिति को भुला नहीं सकते जहां एक स्वर्ण पदक जीतने के बाद दूसरा नसीब नहीं हुआ और कांस्य या रजत पदक के टोटे पड़ गये। दूसरी बात यह है कि जो राष्ट्रमंडल के आयोजन से देश में खेल तथा खिलाड़ियों के विकास की बात कर रहे हैं वह यह भी बता दें कि पिछले आयोजन के बाद कितना विकास हुआ? उल्टे पाकिस्तानी ने हॉकी में इतनी बुरी शिकस्त दी कि उसकी कड़वी यादें भुलाने में भी समय लगा। कॉमनवैल्थ के दौरान ही अगर कोई बीसीसीआई की टीम कहीं क्रिकेट मैच खेलती हो तो फिर शायद प्रचार माध्यम भी इसे महत्व न दें।
जहां तक खेलों के विकास की बात है तो वह पैसे खर्च कर नहीं  आता। देश का इतना पैसा इन खेलों पर खर्च हो रहा है पर इससे उनमें विकास होगा यह सोचना भी बेकार है क्योंकि इधर अपने देश के ही खिलाड़ी धनाभाव की शिकायत कर रहे हैं। खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाये बगैर कभी खेलों का विकास नहीं हो सकता। यह सही है कि पैसा सब कुछ नहीं होता पर वह आदमी में आत्मविश्वास का पैदा करने वाला एक बहुत बड़ा तत्व है।
कहने का मतलब यह है कि इन खेलों का आयोजन भारत में हो या बाहर भारतीय खेल प्रेमियों की इनमें दिलचस्पी कम ही है। इसलिये यह आशा करना ही व्यर्थ है कि इससे खेलों का विकास होगा या खिलाड़ियों का मनोबल ऊंचा उठेगा। यह पता नहीं बाकी देशों में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों की क्या स्थिति रहती है पर अपने देश के खेल प्रेमी इसमें यही सोचकर शामिल होंगे कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। कहने का मतलब यह कि उनमें परायेपन का ऐसा बोध रहेगा। इस बात को वही आदमी समझ सकता है जो स्वयं खिलाड़ी हो या खेल प्रेमी हो। उनके लिये यह आयोजन गुलामी के तमाश से अधिक कुछ नहीं है
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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मजदूर दिवस-श्रमिकों के साथ सम्माजनक व्यवहार करें (mazdoor divas, diwas or may day-a special hindi article


भारत में मजदूर दिवस मनाने की कोई परंपरा नहीं है, अलबत्ता यहां विश्वकर्मा जयंती मानी जाती है जिसे करीब करीब इसी तरह का ही माना जा सकता है। यह पाश्चात्य सभ्यता द्वारा प्रदाय अधिकतर दिवसों को खारिज करता है यथा माता दिवस, पिता दिवस, मैत्री दिवस, प्र्रेम दिवस तथा नारी दिवस। मजदूर दिवस भी पश्चिम से ही आयातित विचारधारा से जुड़ा है पर इसे मनाने का समर्थन करना चाहिये।  दरअसल इसे तो बहुत शिद्दत से मनाना चाहिए। 
आधुनिक युग में कार्ल मार्क्स को मजदूरों का मसीहा कहा जाता है। उनके नाम पर मजदूर दिवस मनाया जाता है तो इसमें मजदूर या श्रम शब्द जुड़ा होने से संवेदनायें स्वभाविक रूप जाग्रत हो उठती हैं।  एक बात याद रखिये आज  भारत में जो हम नैतिक, अध्यात्म, तथा तथा देशप्रेम की भावना का अभाव लोगों में देख रहे हैं वह शारीरिक श्रम को निकृष्ट मानने की वजह से है।  हर कोई सफेद कालर वाली नौकरी चाहता है और शारीरिक श्रम करने से शरीर में से  पसीना निकलने से घबड़ा रहे हैं।  भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों की प्रकार के  स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि शरीर को जितना चलायेंगे उतना ही स्वस्थ रहेगा तथा जितना सुविधाभोगी बनेंगे उतनी ही तकलीफ होगी। 
सबसे बड़ी बात यह है कि गरीब और श्रमिक को तो एक तरह से मुख्यधारा से अलग मान लिया गया है।  संगठित प्रचार माध्यमो में-टीवी चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं-इस तरह के प्रसारण तथा प्रकाशन देखने को मिलते हैं जैसे कि श्रम करना एक तरह से घटिया लोगों का काम है।  संगठित प्रचार माध्यमों को इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह आधुनिक बाज़ार के विज्ञापनों पर ही अपना साम्राज्य खड़े किये हैं। यह बाजार सुविधाभोगी पदार्थों का निर्माता तथा विक्रेता है। स्थिति यह है कि फिल्म और टीवी चैनलों के अधिकतर कथानक अमीर घरानों पर आधारित होते हैं जिसमें नायक तथा नायिकाओं को मालिक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।  उनमें नौकर के पात्र भी होते हैं पर नगण्य भूमिका में। क्हीं नायक या नायिका मज़दूर या नौकर की भूमिका में दिखते हैं तो उनका पहनावा अमीर जेसा ही होता है।  फिर अगर नायक या नायिका का पात्र मजदूर या नौकर है तो कहानी के अंत में वह अमीर बन ही जाता है।  जबकि जीवन में यह सच नज़र नहीं आता।  ऐसे अनेक उदाहरण समाज में  देखे जा सकते हैं कि जो मजदूर रहे तो उनके बच्चे भी मज़दूर बने।  आम आदमी इस सच्चाई के साथ जीता भी है कि उसकी स्थिति में गुणात्मक विकास भाग्य से ही आता है
कार्ल मार्क्स मजदूरों का मसीहा मानने पर विवाद हो सकता है पर पर देश के बुद्धिमान लोगों को अब इस बात के प्रयास करना चाहिये कि हमारी आने वाली पीढ़ी में श्रम के प्रति रूझान बढ़े। यहां श्रम से हमारा स्पष्ट आशय अकुशल श्रम से है-जिसे छोटा काम भी कहा जा सकता है। कुशल श्रम से आशय इंजीनियरिंग, चिकित्सकीय तथा लिपिकीय सेवाओं से है जिनको करने के लिये आजकल हर कोई लालायित है।  इसी अकुशल श्रम को सम्मान की तरह देखने का प्रयास करना चाहिये।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पास या साथ काम करने वाले श्रमजीवी को कभी असम्मानित या हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। मनुष्य मन की यह कमजोरी है कि वह धन न होते हुूए भी सम्मान चाहता है।  दूसरी बात यह है कि श्रमजीवी मजदूरों के प्रति असम्माजनक व्यवहार से उनमें असंतोष और विद्रोह पनपता है जो कालांतर में समाज के लिये खतरनाक होता है।  यही श्रमजीवी और मजदूरी ही धर्म की रक्षा में प्रत्यक्ष सहायक होता है। यही कारण है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में सभी को समान दृष्टि से देखने की बात कही जाती है।    इस विषय पर दो वर्ष पूर्व एक लेख यहां प्रस्तुत है। इसी लेख को कल सैकंड़ों पाठकों द्वारा देखने का प्रयास किया इसलिये इसे इस पाठ के नीचे भी प्रस्तुत किया जा रहा है।

आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी। ऐसा नहीं है कि हमारे दर्शन में मजदूरों के लिए कोई सन्देश नहीं है पर उसमें मनुष्य में वर्गवाद के वह मन्त्र नहीं है जो समाज में संघर्ष को प्रेरित करते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन द्वारा प्रवर्तित जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो उसमें पूंजीपति मजदूर और गरीब अमीर को आपस में सामंजस्य स्थापित करने का सन्देश है। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
न द्वेष्टयकुशर्ल कर्म कुशले नातुषज्जजते।
त्यागी सत्तसमाष्टिी मेघावी छिन्नसंशयः।।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”

श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
स्वै स्वै कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।
सव्कर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।
अपने अपने स्वाभाविक कार्ये में तत्परता से लगा मनुष्य भक्ति प्राप्त करते हुए उसमें सिद्धि प्राप्त लेता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि प्राप्त करता है उस विधि को सुन।

यतः प्रवृत्तिभूंतानां वेन सर्वमिद्र ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्तपति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है ।
श्री गीता में ही हेतु रहित दया का सन्देश तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्री माने जाते है जिन के विचारों पर गरीबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”।
शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं तो कहीं न कहीं समाज में विघटन के बीज बोते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीगीता में अपने स्वाभाविक कर्मों में अरुचि न दिखाने का संदेश दिया गया है। सीधा आशय यह है कि कोई भी काम छोटा नहीं है और न तो अपने काम को छोटा और न किसी भी छोटा काम करने वाले व्यक्ति को हेय समझना चाहिये। ऐसा करना बुद्धिमान व्यक्ति का काम नहीं करना चाहियैं। कई बार एसा होता है कि अनेक धनी लोग किसी गरीब व्यक्ति को हेय समझ कर उसकी उपेक्षा करते हैं-यह तामस प्रवृत्ति है। उसी तरह किसी की मजदूरी कम देना या उसका अपमान केवल इसलिये करना कि वह गरीब है, अपराध और पाप है। हमेशा दूसरे के गुणों और व्यवहार के आधार पर उसकी कोटि तय करना चाहिये।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है उसके व्यवसाय और आर्थिक शक्ति पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था पर वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं।
कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विश्व में भारत से संदेश अध्यात्मिक ज्ञान से ही फैल सकता है, किसी फिल्म से नहीं-हिन्दी लेख (hindi film aur adhyatmik gyan-hindi article)


एक टीवी एंकर को एक बहुचर्चित अभिनेता की फिल्म इतनी अच्छी लगी कि उसे वह पूरे विश्व में संदेश भेजती हुई दिखाई दे रही है-उसने अपने अंतर्जाल पर निज पत्रक में यहां तक लिख दिया कि ऐसी फिल्म भारत में ही बन सकती थी और यह भी कि हमारा देश फिर पूरे विश्व में अच्छा संदेश भेजने में सफल रहा है। यह एंकर जिस चैनल से संबंधित है उसने पिछले दिनों उस अभिनेता और उसकी फिल्म के प्रचार में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी। विशुद्ध रूप से वह व्यवसायिक प्रचार था और एंकर कहीं न कहीं तहेदिल से अपने कार्य में जुटा था।
जब कोई आदमी व्यवसाय करता है तो रोटी के प्रति उसका समर्पण उसे उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार बना देता हैं-यहां तक कि उसके कृत्रिम विचार भी उससे प्रभावित होकर मौलिक स्वरूप धारण कर लेते हैं। जब वह एंकर बड़ी शिद्दत से उस अभिनेता को महानायक और फिल्म को अद्वितीय करने के व्यवसायिक प्रयास में लगा रहा होगा तब मस्तिष्क में स्थापित विचार इतनी गहराई तक उतर गया कि वह उससे निकल ही नहीं सकता था। हम यहां उसके व्यवसाय या विचार व्यक्त करने की शैली पर आपत्ति नहीं कर रहे बल्कि यह बात कह रहे हैं कि कोई भी फिल्म, किताब या व्यक्ति भारत का तब तक संदेशवाहक नहीं हो सकता जब उसके मस्तक पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का तिलक नहीं लगा हो। भारत की पहचान आधुनिक गीत नहीं बल्कि लोकगीत ही होते हैं। आज भी विश्व में भारत की पहचान राम, कृष्ण, शिव, गांधी और यहां के सहृदय नागरिकों का सहज भाव है। भारत के संदेश वाहक बाबा रामदेव तो हो सकते हैं क्योंकि उनके द्वारा योगशिक्षा को व्यवसायिक रूप देकर विश्व में लोकप्रिय बनाया परंतु एक सामयिक फिल्म और उसका अभिनेता कतई नहीं हो सकता। बाबा रामदेव भारत की प्रमाणिक योग पद्धति का प्रचार कर रहे हैं जो कभी प्राचीन नहीं हो सकती जबकि किसी फिल्म की आयु इतनी बड़ी नहीं हो सकती।
उस एंकर ने जो विचार व्यक्त किये उसमें कोई आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। जिस तरह हम लोग कार्यालय या दुकान से घर आकर भी तत्काल वहां में उपजे भावों से मुक्त नहीं हो पाते वही उनके साथ भी हुआ होगा। वह उस फिल्म को हिट बताने के लिये निरंतर व्यवसायिक प्रचार में जुटे रहे। उनको अपने नायक को महानायक बताने के लिये कुछ भटके लोग खलनायक के रूप में मिल गये। फिल्म तीन दिन तक सफलता से चली तो उनकी वजह से! वरना तो वह पहने ही दिन अच्छी शुरुआत के लिये तरस जाती-कम से कम इस फिल्म को देखकर आने वाले अन्य अंतर्जाल लेखकों के शब्द पढ़कर तो ऐसा ही लगता है। वैसे तीन बाद उस फिल्म का प्रचार भी अब प्रभावी नहीं लग रहा।
दूसरी बात यह कि हम प्रचार माध्यमों को दोष क्यों दें? उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये येनकेन प्रकरेण कार्यक्रम के साथ पैसे भी बनाने हैं और यह लक्ष्य उनको क्रिकेट, फिल्म तथा अन्य प्रदर्शन आधारित व्यवसायों से बहुत आसानी से प्राप्त हो जाता है। जो लोग उनकी आलोचना करते हैं उनको व्यवसाय के स्वभाव को भी समझना चाहिये। सवाल यह है कि इस तरह के प्रचार से लोग प्रभावित हुए कि नहीं! जो आलोचना कर रहे हैं वह देखने गये कि नहीं! साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि इतने सारे लोग अपना पैसा खर्च करने गये जिसकी फिल्म निर्माताओं, वितरकों, माल मालिकों तथा उनसे प्रश्रय पाने वाले प्रचार माध्यमों को जरूरत होती है। अगर आप कह रहे हैें कि उन्होंने लोगों को भ्रमित किया तो इसका उत्तर है कि आप जान जागरण के लिये अहिंसक प्रयास क्यों नहीं करते। इसकेे विपरीत फिल्म का कथित रूप से प्रदर्शन या तोड़फोड़ के द्वारा नकली विरोध कर उसका प्रचार करने वालों का समर्थन करते हैं! नतीजा यह होता है कि कुछ लोग ही फिल्म देखने जाते हैं तो वह भी नायक का दर्जा पाने के लिये प्रचार माध्यमों में विजय का प्रतीक उंगलियों को वी की आकृत्ति में प्रस्तुत करते नजर आते हैं।
इस लेखक ने न फिल्म देखी न देखने का इरादा है। अलबत्ता कहानी पढ़ी। उसके नायक जैसा कोई पात्र इस धरती पर सचमुच अगर है तो वाकई एक भावुक व्यक्ति होने के नाते इस लेखक को उससे सहानुभूति होगी । अल्लहड़, मस्तमौला तथा दूसरे के दुःख दर्द में सहानुभूति जताने वालों को यहां मनोरोगी माना जाता है। अगर कहानी वैसी है तो ठीक है। जहां तक फिल्म का सवाल है उस पर इतना बावेला बचना ठीक नहंी था। जिन लोगों को लगता है कि वह फिल्म गलत है उन्हें चाहिये कि वह प्रतिवाद स्वरूप फिल्म बनाने के लिये दूसरों को प्रेरणा दें या खुद बनायें। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना ठीक नहीं है। तर्क से वही लोग घबड़ाते हैं जिनके पास ज्ञान नहीं और जिनके पास ज्ञान है वह किसी के अपशब्द से भी विचलित नहीं होते। किसी के अभिव्यक्त विचार से अगर आप असहमत हैं तो उस पर अपनी अभिव्यक्ति इस तरह मजबूत ढंग से रखें कि सामने वाले के हाथ से तोते उड़ जायें। जब दूसरे के विचार पर हाय हाय और हो हो करते हैं तो वह इस बात का प्रमाण है कि विचार रहित विकारवान पुरुष हैं। आखिरी बात यह कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से ही कोई संदेश निकलकर विश्व में फैल सकता ह न कि किसी फिल्म से।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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ब्लाग लोकतंत्र का पांचवां नहीं चौथा स्तंभ ही है-आलेख (blog is forth pillar-hindi article)


भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या सात करोड़ से ऊपर है-इसका सही अनुमान कोई नहीं दे रहा। कई लोग इसे साढ़े बारह करोड़ बताते हैं। इन प्रयोक्ताओं को यह अनुमान नहीं है कि उनके पास एक बहुत बड़ा अस्त्र है जो उनके पास अपने अनुसार समाज बनाने और चलाने की शक्ति प्रदान करता है-बशर्ते उसके उपयोग में संयम, सतर्कता और चतुरता बरती जाये, अन्यथा ऐसे लोगों को इस पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जायेगा जो समाज को गुलाम की तरह चलाने के आदी हैं।

यह इंटरनेट न केवल दृश्य, पठन सामग्री तथा समाचार प्राप्त करने के लिये है बल्कि हमें अपने फोटो, लेखन सामग्री तथा समाचार संप्रेक्षण की सुविधा भी प्रदान करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम केवल प्रयोक्ता नहीं निर्माता और रचयिता भी बन सकते हैं। अनेक वेबसाईट-जिनमें ब्लागस्पाट तथा वर्डप्रेस मुख्य रूप से शामिल हैं- ब्लाग की सुविधा प्रदान करती हैं। अधिकतर सामान्य प्रयोक्ता सोचते होंगे कि हम न तो लेखक हैं न ही फोटोग्राफर फिर इन ब्लाग की सुविधा का लाभ कैसे उठायें? यह सही है कि अधिकतर साहित्य बुद्धिजीवी लेखकों द्वारा लिखा जाता है पर यह पुराने जमाने की बात है। फिर याद करिये जब हमारे बुजुर्ग इतना पढ़े लिखे नहीं थे तब भी आपस में चिट्ठी के द्वारा पत्राचार करते थे। आप भी अपनी बात इन ब्लाग पर बिना किसी संबंोधन के एक चिट्ठी के रूप में लिखने का प्रयास करिये। अपने संदेश और विचारों को काव्यात्मक रूप देने का प्रयास हर हिंदी नौजवान करता है। इधर उधर शायरी या कवितायें लिखवाकर अपनी मित्र मंडली में प्रभाव जमाने के लिये अनेक युवक युवतियां प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं कई बार अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये तमाम तरह के किस्से भी गढ़ते हैं। यह प्रयास अगर वह ब्लाग पर करें तो यह केवल उनकी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक रूप ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि समाज को ऐसी ताकत प्रदान करेगा जिसकी कल्पना वह नहीं कर सकते।

आप फिल्म, क्रिकेट,साहित्य,समाज,उद्योग व्यापार, पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनल तथा उन अन्य क्षेत्रों को देखियें जिससे बड़े वर्ग द्वारा छोटे वर्ग पर प्रभाव डाला जा सकता है वहां पर कुछ निश्चित परिवारों या गुटों का नियंत्रण है। यहां प्रभावी लोग जानते हैं कि यह सभी प्रचार साधन उनके पास ऐसी शक्ति है जिससे वह आम लोगों को अपने हितों के अनुसार संदेश देख और सुनाकर उनको अपने अनुकूल बनाये रख सकते हैं। क्रिकेट में आप देखें तो अनेक वर्षों तक एक खिलाड़ी इसलिये खेलता  है क्योंकि उसे पीछे खड़े आर्थिक शिखर पुरुष उसका व्यवसायिक उपयोग करना चाहते हैं। फिल्म में आप देखें तो अब घोर परिवारवाद आ गया है। सामान्य युवकों के लिये केवल एक्स्ट्रा में काम करने की जगह है नायक के रूप में नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार के शिखरों पर जड़ता है। आप पत्र पत्रिकाओं में अगर लेख पढ़ें तो पायेंगे कि उसमें या तो अंग्रेजी के पुराने लेखक लिख रहे हैं या जिनको किसी अन्य कारण से प्रतिष्ठा मिली है इसलिये उनके लेखन को प्रकाशित किया जा रहा है। पिछले पचास वर्षों में कोई बड़ा आम लेखक नहीं आ पाया। यह केवल इसलिये कि समाज में भी जड़ता है। याद रखिये जब राजशाही थी तब यह कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’, पर लोकतंत्र में ठीक इसका उल्टा है। इसलिये इस जड़ता के लिये सभी आम लोग जिम्मेदार हैं पर वह शिखर पर बैठे लोगों को दोष देकर अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं कि ‘क्या किया जा सकता है।’

इस इंटरनेट पर जरा गौर करें। अक्सर आप लोग देखते होंगे कि समाचार पत्र पत्रिकाओं में में उसकी चर्चा होती है। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि इनमें से कई ऐसे आलेख होते हैं जिनको इंटरनेट पर ब्लाग से लिया जाता है-जब किसी का नाम न दिखें तो समझ लें कि वह कहीं न कहीं इंटरनेट से लिया गया है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि अधिकतर इंटरनेट प्रयोक्ता केवल फोटो देखने या अपने पढ़ने के लिये बेकार की सामग्री पढ़ने में व्यस्त हैं। उनकी तरफ से हिंदी भाषी लेखकों के लिये प्रोत्साहन जैसा कोई भाव नहीं है। ऐसा कर आप न अपना समय जाया कर रहे हैं बल्कि अपने समाज को जड़ता से चेतन की ओर ले जाने का अवसर भी गंवा रहे हैं। वह वर्ग जो समाज को गुलाम बनाये रखना चाहता है कि फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियों के फोटो देखकर आप अपना समय नष्ट करें क्योंकि वह तो उनके द्वारा ही तय किये मुखौटे हैं। आपके सामने टीवी और समाचार पत्रों में भी वही आ रहा है जो उस वर्ग की चाहत है। ऐसे में आपकी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं था तो झेल लिये। अब इंटरनेट पर ब्लाग और ट्विटर के जरिये आप अपना संदेश कहीं भी दे सकते हैं। इस पर अपनी सक्रियता बढ़ाईये। जहां तक इस लेखक का अनुभव है कि एक एस. एम. एस लिखने से कम मेहनत यहां पचास अक्षरों का एक पाठ लिखने में होती है। जहां तक हो सके हिंदी में लिखे गये ब्लाग और वेबसाईट को ढूंढिये। स्वयं भी ब्लाग बनाईये। भले ही उसमें पचास शब्द हों। लिखें भले ही एक माह में एक बार। अगर आप समाज के सामान्य आदमी है तो बर्हिमुखी होकर अपनी अभिव्यक्ति दीजिये। वरना तो समाज का खास वर्ग आपके सामने मनोरंजन के नाम पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर आपको अंतर्मुखी बना रहा है ताकि आप अपनी जेब ढीली करते रहें। आप किसी से एस. एम. एस. पर बात करने की बजाय अपने ब्लाग पर बात करें वह भी हिंदी में। ऐसे टूल उपलब्ध हैं कि आप रोमन में लिखें तो हिंदी हो जाये और हिंदी में लिखें तो यूनिकोड में परिवर्तित होकर प्रस्तुत किये जा सकें।
याद रखें इस पर अपनी अभिव्यक्ति वैसी उग्र या गालीगलौच वाली न बनायें जैसी आपसी बातचीत में करते हैं। ऐसा करने का मतलब होगा कि उस खास वर्ग को इस आड़ में अपने पर नियंत्रण करने का अवसर देना जो स्वयं चाहे कितनी भी बदतमीजी कर ले पर समाज को तमीज सिखाने के लिये हमेशा नियंत्रण की बात करते हुए धमकाता है।
प्रसंगवश यहां यह भी बता दें कि यह ब्लाग भी पत्रकारिता के साथ ही चौथा स्तंभ है पांचवां नहीं जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं। सीधी सी बात है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और पत्रकारिता चार स्तंभ हैं। इनमें सभी में फूल लगे हैं। विधायिका में अगर हम देखें तो संसद, विधानसभा, नगर परिषदें और ग्राम पंचायतें आती हैं। कार्यपालिका में मंत्री, संतरी,अधिकारी और लिपिक आते हैं। न्याय पालिका के विस्तारित रूप को देखें तो उसमें भी माननीय न्यायाधीश, अधिवक्ता, वादी और प्रतिवादी होते हैं। उसी तरह पत्रकारिता में भी समाचार पत्र, पत्रिकायें, टीवी चैनल और ब्लाग- जिसको हम जन अंतर्जाल पत्रिका भी कह सकते हैं- आते हैं। इसे लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ केवल अभिव्यक्ति के इस जन संसाधन का महत्व कम करने के लिये प्रचारित किया जा रहा है ताकि इस पर लिखने वाले अपने महत्व का दावा न करे।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के ब्लाग जगत में आपकी सक्रियता ही इंटरनेट या अंतर्जाल पर आपको प्रयोक्ता के साथ रचयिता बनायेगी। जब ब्लाग आम जन के जीवन का हिस्सा हो जायेगा तक अब सभी क्षेत्रों में बैठे शिखर पुरुषों का हलचल देखिये। अभी तक वह इसी भरोसे हैं कि आम आदमी की अभिव्यक्ति का निर्धारण करने वाला प्रचारतंत्र उनके नियंत्रण में इसलिये चाहे जैसे अपने पक्ष में मोड़ लेंगे। हालांकि अभी हिंदी ब्लाग जगत अधिक अच्छी हालत में नहीं है- इसका कारण भी समाज की उपेक्षा ही है-तब भी अनेक लोग इस पर आंखें लगाये बैठे हैं कि कहीं यह माध्यम शक्तिशाली तो नहीं हो रहा। इसलिये पांचवां स्तंभ या रचनाकर्म के लिये अनावश्यक बताकर इसकी उपेक्षा न केवल स्वयं कर रहे हैं बल्कि समाज में भी इसकी चर्चा इस तरह कर रहे हैं कि जैसे इसको बड़े लोग-जैसे अभिनेता और प्रतिष्ठत लेखक-ही बना सकते हैं। जबकि हकीकत यह है कि अनेक ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपने रोजगार से जुड़े काम से आने के बाद यहां इस आशा के साथ यहां लिखते हैं कि आज नहीं तो कल यह समाज में जनजन का हिस्सा बनेगा तब वह भी आम लोगों के साथ इस समाज को एक नयी दिशा में ले जाने का प्रयास करेंगे। इसलिये जिन इंटरनेट प्रयोक्ताओं की नजर में यह आलेख पड़े वह इस बात का प्रचार अपने लोगों से अवश्य करें। याद रखें यह लेख उस सामान्य लेखक है जो लेखन क्षेत्र में कभी उचित स्थान न मिल पाने के कारण यह लिखने आया है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चंद्रयान-1 की चंद्रमा पर पानी की खोज-इसे कहते हैं सच्ची कामयाबी (chandrayan-1-Discovery of water on the moon – this is called a true success)


भारतीय चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह पर पानी की खोज की है-इसकी पुष्टि नासा ने कर दी है। चंद्रयान-एक में ‘मून मिलरोलाॅजी मैपर’ (मैप-3) लगाया गया था जिसे नासा ने लगाया था। इसके साथ ही अब चंद्रयान-2 में ऐसे यंत्र लगाये जा रहे हैं जो वह पानी उठाकर यहां लायेंगे। भारतीय विश्लेशणों ने विश्व में पहले से प्रचलित इन वैज्ञानिक धारणाओं को खंडित कर दिया है कि चंद्रमा सूखा है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने यह करिश्मा करके विश्व में यह साबित कर दिया है कि ‘हम भी किसी से कम नहीं’। साथ ही यह भी अब जाहिर होता जा रहा है कि भारतीय वैज्ञानिक संस्था इसरो और अमेरिका की नासा मिलकर काम कर रही हैं और यह संबंध दोनों की मित्रता को मजबूत कर रहा है। हालांकि भारत और अमेरिका के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों की चर्चा अक्सर होती है पर अंतरिक्ष और विज्ञान के क्षेत्र में जो यह मैत्री है वह दोनों के बीच एक प्रगाढ़ता को ठोस आधार प्रदान कर रही है-भारत के विरोधी भले ही अन्य बातों का बहाना करते हों पर उनके चिढ़ने की यह भी एक खास वजह है। इतना ही नहीं भारत में भी अमेरिका के विरोधी उससे अधिक मैत्रीपूर्ण संबंध रखने का विरोध करते हुए अन्य विषयों की चर्चा करते हैं पर उनके दिमाग में यही अतंरिक्ष विज्ञान संबंध होता है जिसको डर के मारे वह कहते नहीं हैं।
अतंरिक्ष विज्ञान में भारत का भविष्य उज्जवल है और यकीनन अनेक देश अपने देश के उपग्रह भेजने के लिये भारत से सहयोग प्राप्त करने के लिये तैयारी कर रहे होंगे। मुख्य समस्या पाकिस्तान और चीन के सामने हैं। पाकिस्तान के लिये तो यह संभव ही नहीं है कि वह भारत के सामने किसी भी स्तर पर सहयोग की याचना करे तो चीन के रणनीतिकारों के दिमाग में यह बात भरी हुई है कि हम अपनी श्रेष्ठता के साथ भारतीय प्रतिभाओं का दोहन करें। साफ्टवेयर क्षेत्र चूंकि निजी है इसलिये चीन वहां से मदद ले रहा है पर अंतरिक्ष विज्ञान में सहायता लेने का मतलब होगा कि वह राजनीतिक रूप से भारत के सामने झुके क्योंकि अंतरिक्ष क्षेत्र सरकारी है। भारत निजी क्षेत्रों से चीन को मिलने वाली सहायता तो नहीं रोक सकता पर जब तक चीन अपनी हेठी नहीं छोड़ेगा तब तक उसे अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग की अपेक्षा करनी ही नहीं चाहिए। चीन के विज्ञान क्षेत्र में प्रगति की चर्चा खूब होती है पर उसकी विश्व को कोई नई देन या अविष्कार नहीं मिला है। इधर पाकिस्तान तो एक उपनिवेश बन कर रह गया है-एक नहीं तीन देश उसे अपने अपनिवेश की तरह उपयोग करते हैं। हालांकि उसकेा मिसाइल, परमाणु तथा अन्य सामरिक सहायता धार्मिक आधार पर मिल जाती है। अंतरिक्ष में उधार और सहायता पर उसका काम चल रहा है। बस उसकी फिक्र है एक ही है कि किसी तरह भारत का रास्ता रोके। पहले अमेरिका और अब चीन उसको इसी उद्देश्य से सहायता करते हैं। मतलब यह है कि पाकिस्तान को भारत से दुश्मनी रखने मेें ही अनेक फायदे हैं इसलिये वह मित्रता रखने से रहा मगर चीन के सामने यह समस्या दूसरी है। मूलतः चीन एक छोटा देश है पर पूरा का पूरा तिब्बत देश और भारत की जमीन हड़पने के कारण उसका नक्शा बड़ा है-ऊन का व्यापार करने वाले तिब्बत शरणार्थियों द्वारा लगाये गये नक्शे पर तो यही विचार बनता है-और उसके रणनीतिकारों में अमेरिका जैसा सम्राज्यवादी बनने का सपना है और ऐसे में भारत की तरक्की उनको आतंकित किये देती है। इधर अपने ही देश में चीन की तरक्की और ताकत का भ्रम फैलाने वाले बहुत कथित बुद्धिमान लोग हैं जबकि उसके बाजार में बिकने वाले सामान आकर्षक दिखने के बावजूद घटिया होते हैं जिनकी कोई गारंटी होती है। भले ही उसक मुकाबले भारतीय उत्पाद कर्म आकर्षक और महंगे हैं पर उनके उपयोग की गारंटी तो होती है। भारत का चंद्रयान -एक भेजने के बाद उसने भी एक चंद्रयान भेजने की घोषणा कर अपने लोगों का दिल बहलाया था-क्योंकि उसे अपनी जनता का दिल बहाने के लिये भारत को लघु साबित करना पड़ता है-पर अभी उसने भेजा नहीं है।
चीन की घुसपैठ के समाचारों से व्यथित लोगों को यह समझ लेना चाहिये कि अंतरिक्ष तकनीक में भारत चीन से आगे है और अब यह संभव नहीं है कि वह भारत की तरफ अपने सैन्य कदम बढ़ा कर आतंकित कर सके। दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है कि चीन और पाकिस्तान के पास भारत को लेकर अधिक विकल्प नहीं है। वह भारत के साथ अपने संबंध न सामान्य बनायें बल्कि अधिक मैत्रीपूर्ण भी रहें यही अब उनके लिये बेहतर है वरना भविष्य में होना यह है कि भारत अंतरिक्ष, विज्ञान, स्वास्थ्य, इंटरनेट तथा सूचना के क्षेत्र में दूसरों की सहायता करता नजर आयेगा और उससे यकीनन विश्व में हमारा प्रभाव बढ़ेगा जबकि चीन और पाकिस्तान अपनी अकड़ के चलते हुए अंदर से ही टूटने के दौर में पहुंच सकते हैं।
कल भारतीय वैज्ञानिकों ने सात उपग्रह बीस मिनट में अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित किये। आज उनके द्वारा ‘चांद पर पानी की खोज’ के समाचार की पुष्टि हुई है और यह एक कदम है जो भारत ने महाशक्ति बनने की तरफ बढ़ाया है।
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे कहा जाता है उपलब्धि जो अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच प्राप्त की जाये। यह क्या कि किसी हिंदी फिल्म को विदेशी श्रेणी का आस्कर पुरस्कार मिल गया तो उस पर नाच रहे हैं या कोई भारतीय अमेरिका में धनपति बना या किसी उच्च पद पर पहुंचा तो उसे अपनी उपलब्धि मानकर गा रहे हैं। फिल्मों के नकली हीरो का गुणगाान कर रहे हैं। इससे अज्ञान बढ़ता है। हमारा दर्शन ज्ञान के साथ विज्ञान में भी उपलब्धि प्राप्त करने का भी संदेश देता हैं ऐसे में हमारे यह वैज्ञानिक ही देश के सच्चे नायक हैं। उनको सलाम करना चाहिये उनका गुणगान करना चाहिये क्योंकि उसी सत्य का रहस्योद्घाटन करते हैं जो बाद में ज्ञान बन जाता है और लोग उसकी राह चलत हैं। इसरो के वैज्ञानिकों को बधाई।
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विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त यह हिंदी ब्लाग/पत्रिका!


यह एलेक्सा की चूक भी हो सकती है और सच भी कि इस ब्लाग को विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त है। पिछले सप्ताह यह सातवें नंबर पर था। इस समय यह विकिपीडिया के पीछे है। इसके लेखक ने ऐलेक्सा की टाॅप साईटस देखी तो वहां blogger.com रहा हैं और जब वहां क्लिक करते हैं तो ब्लाग खाता खोलने वाला ब्लाग सामने आ जाता है। एक बार इस लेखक ने टाप साईटस के लिये प्रयास किया तो एक जगह यह पता लगा कि भुगतान करने पर ही दसों साईटस का पता दिया जायेगा। इसका आशय यह है कि इन साईट में भी अन्य साईट छिपी हुई हैं। वहां क्लिक करने के बाद एक ईमेल भी आया कि शायद आप प्रक्रिया पूरी नहीं कर सके इसलिये दोबारा कर सकते हैं इसका आशय यह है कि यह ‘अनंत शब्दयोग’ चूंकि ब्लागर काम के अंतर्गत हैं इसलिये उसे सीधे नहीं दिखा रहे हैं-क्योंकि इससे उनको कोई लाभ नहीं होगा।

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बहरहाल उन्होंने हमें अनंत शब्दयोग का लिंक उठाने से नहीं रोका। हम तो यही मानकर चल रहे हैं कि यह सही होगा अगर गलत भी हुआ तो परवाह किसे है पर यह तो इतिहास में दर्ज हो गया कि एक हिंदी ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’ को 12 जुलाई 2009 रविवार के दिन विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त थी। अभी तक अनेक लेखक किसी हिंदी ब्लाग के एक लाख से नीचे आने पर ही खुश हो जाते हैं ऐसे में सभी हिंदी ब्लाग लेखकों को यह सोचकर खुशी होना चाहिये कि उनके बीच में ही सक्रिय ब्लाग विश्व की आठवीं वरीयता पा रहा है। जो बात इतिहास में दर्ज हो गयी तो हो गयी। क्रिकेट के खेल में अंपायर की भूमिका सभी जानते हैं कि एक बार स्टंप के बाहर जाती हुई गेंद पर उसने बल्लेबाज को एल.बी.डब्लयू. दे दिया तो दे ही दिया। यह ब्लाग विकिपीडिया के बाद आठवें नंबर पर रहा तो इसे अब कोई बदल नहीं सकता। अब यह ब्लाग हमेशा वहां बना रहेगा यह कहना कठिन है पर अब लेखक सोच रहा है कि क्यों न इस पर थोड़ा अधिक ध्यान दिया जाये और इसकी वरीयता ऊपर लायी जाये। यहां यह भी याद रखें कि हमें यह जानकारी दूसरी वेबसाईट से मिली थी तब हमने प्रयास कर देखा तो पाया कि इसको आठवी वरीयता प्राप्त होने की बात सच थी।
इस लेखक के बीस अन्य ब्लाग भी है-इसके अलावा दो जब्त हुए भी पड़े हैं-और उनमें सबसे अधिक वरीयता वर्डप्रेस के ब्लाग हिंदी पत्रिका को है जो कि 22 लाख के आसपास है। बहरहाल इस ब्लाग का इतना ऊंचा पहुंचने से खुश होने की जरूरत नहीं है। कल को यह गिरा तो अफसोस भी होगा। वैसे हमने गंभीरता से इधर उधर देखा तो लगा कि इन रैक देने वाली वेबसाईटों मेें कुछ ऐसा है जो अभी तक भारत में कोई नहीं समझ सका। फिर जो व्यूज बताने वाली वेबसाईटें हमने लगा रखी है वह सभी व्यूज बता पाती हैं यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता। बहरहाल देखते हैं आगे क्या होता है? वैसे कल हम एक लेख लिखकर यह आशा कर रहे थे कि कोई इसमें हमारी चूक बतायेगा पर यह नहीं हुआ। वैसे कोई हमें यह कहे कि हम गलती कर रहे हैं तो भी अफसोस नहीं खुशी होगी क्योंकि हमें अपना फ्लाप होना मंजूर है पर भ्रम में जीना नहीं। हम तो स्वयं ही धर्म, जाति, भाषा, और क्षेत्र के नाम पर समूह बनाकर भ्रम मेें जीते लोगों को यही संदेश देते हैं कि यह सब भ्रम है तब भला स्वयं कैसे यह मान सकते हैं कि सफलता के भ्रम में जियें। अगर यह सच भी हो तो भी हम लिखते रहेंगे क्योंकि अपनी सफलता पर इतराना आगे नाकामी को दावत देना है। हां, यह सच है कि अगर सफल हो गये तो हमारी बात को आधिकारिक माना जायेगा। खैर, आगे आगे देखिये होता है क्या? अगर यह स्थिति अगले कुछ दिन तक रहती है और इस सफलता को प्रमाणिक मान लिया जाता है तो कुछ तथ्य ऐसे भी हैं जो इस ब्लाग को आठवी वरीयता प्राप्त होने को सच मानते हैं और हम इन पर तभी लिखेंगे जब स्वयं संतुष्ट हो जायेंगे। संतुष्ट नहीं है इसलिये तो किसी को धन्यवाद तक ज्ञापित नहीं कर रहे। वैसे साईडबार में ऐलेक्सा से उठाया प्रमाणपत्र भी लगा दिया है। जिसे देखना हो देख ले। बस, यार कुछ उल्टा पुल्टा हो जाये तो हंसना नहीं क्योंकि हम तो वही लिख रहे हैं जो देख रहे हैं।
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इस ब्लाग की ऐलेक्सा में ट्रैफिक रैकिंग 8 हो सकती है?


यह दिलचस्प भी और अविश्वसनीय भी। अक्सर ब्लाग लेखक अपने ब्लाग के लिये ऐलेक्सा का प्रमाण देते हैं। इस लेखक ने भी वहां कई बार देखा है तो उसके ब्लाग हमेशा पिछड़े रहते हैं। मगर यह सबसे पुराना ब्लाग है ‘अनंत शब्दयोग’ जिसके बारे में एलेक्सा हमेशा कहता है कि इसके लिये डाटा उपलब्ध नहीं है। लेखक ने भी मान लिया कि उस पर बहुत लिखा जाता है इसलिये उसकी स्थिति यही हो सकती है। मगर ‘दीपक भारतदीप’ के नाम से सर्च करते हुए इस ब्लाग पर नजर पड़ी। वह वल्र्ड डोमेज से जुड़ा हुआ था। वहां खोलने पर पता लगा कि एलेक्सा में इसकी ट्रेफिक रैकिंग आठ है। लिंक 9 नंबर भी दिया था। जब एलेक्सा पर देखा गया तो फिर वही पुराना जवाब दिया गया।
बहरहाल हम यहां लिंक दे रहे हैं।

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ऐसा लगता है कि एलेक्सा बहुत ऊंची रैकिंग देता नहीं है या हम से ही कोई गलती हो गयी है। अलबत्ता हिंदी के ब्लाग लेखक लिखते हैं कि एक लाख की संख्या से अगर कोई नीचे हिंदी ब्लाग हो तो उसे भी अच्छा माना जाना चाहिये मगर यह तो दो अंकों से भी कम है। हम यहां दो लिंक दे रहे हैं। सुधि पाठक और ब्लाग लेखक इसे चेक करें। लेखक का यह दावा कतई नहीं है कि यह हिंदी का सबसे लोकप्रिय ब्लाग है क्योंकि इस अंतर्जाल की माया ही कुछ ऐसी है कि समझ में तो हमारे भी नहीं आती। बहरहाल यह आंकड़ा दिलचस्प है और इसे हम अपने मित्रों से ही बांट रहे हैं पर इस पर अभिभूत कतई नहीं है। अगर गलती हो जाये तो मजाक न बनायें यही अपेक्षा है। अगर यह सही है तो फिर लिखने लायक बहुत कुछ हमारे पास है वह भी लिख देंगे। नहीं तो यह पाठ यहां नहीं रहने देंगे। अपनी बेवकूफी कौन जगजाहिर करता है। यहां यह भी बता दें कि अभी हाल ही में एक पौर्न बेवसाईट को प्रतिबंधित किया गया था उसकी भी हमने एलेक्सा वाली रैकिंग एक जगह लिखी देखी थी 1124। ऐसे में इस ब्लाग की रैकिंग हमें चौंका सकती है।
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वैसे हम उस ब्लाग शब्दलेख सारथी की भी जानकारी दे रहे हैं जिससे हम सबसे अधिक हिट समझते हैं पर ऐलेक्सा में उसकी रैकिंग 81,50,877 है और दोनों ही वेबसाईट उसे प्रमाणित कर रही है। एक सवाल यह भी है कि क्या ऐलेक्सा उच्च रैकिंग वाले ब्लाग की जानकारी स्वयं कोई नहीं देता और दूसरों को कैसे जाती हैं। बहरहाल विस्तृत जानकारी मिल जाये तो आगे कुछ लिखे।
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नारियों के प्रति बढ़ते अपराध कन्या भ्रुण हत्याओं का परिणाम-आलेख


देश में प्रतिदिन ही महिलाओं के प्रति किये गये अपराध समाचारों की सुर्खियां बन रहे हैं। हालत यह हो गयी है कि एक दिन में पांच पांच समाचार आते हैं और जब अपराधी पकड़े जाते हैं तो यह याद रखना कठिन हो जाता है कि आखिर वह किस घटना के लिये पकड़े गये हैं। इस पर तमाम तरह के आलेख और रिपोर्ताज पढ़ने और सुनने के बाद यह नहीं लगता कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसे कन्या भ्रुण हत्याओं से जोड़कर देख पा रहा हो।
जो नियमित रूप से समाचार पत्र पत्रिकायें पढ़ते हैं उनको अच्छी तरह याद होगा जब आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व कन्याओं की भ्रुण हत्या का दौर शुरु हुआ था तब सामाजिक विशेषज्ञों ने स्पष्टतः आज के दृश्य की कल्पना कर बता दी थी। एक लंबे समय तक यह दौर चला फिर इसके लिये कानून भी बना पर सामाजिक विशेषज्ञ मानते हैं कि कन्याओं की भ्रुण हत्याओं का दौर बंद हुआ। हालत यह है कि एक समय तक पहली संतान के रूप में कन्या होना भी ठीक मानने वाले इस समाज में अब ऐसे भी लोग हैं जो पहली संतान के रूप में भी बेटा चाहते हैं और जरूरत पड़े तो कन्या भ्रुण हत्या करा देते हैं। ऐसी जानकारियां समाचार पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर आती रहती हैं।

महिलाओं पर तेजाब फैंकने या उनके साथ जोर जबरदस्ती की घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले अल्पज्ञानी बुद्धिजीवी हर घटना में अपराधी और पीड़िता की स्थितियों के आंकलन में लग जाते हैं। कुछ इसे गिरती कानूनी व्यवस्था ं तो कुछ इसे पहनावे और लड़कियों की आजादी को मानते हैं। इधर इंटरनेट पर ऐसी बहसें देखने को मिलती हैं जिससे लगता है कि वाद और नारों की राह पर चले लेखक और बुद्धिजीवी अपने चिंतन से कम अपने गुरुओं की सोच पर अधिक चलते हैं।
एक कहता है कि
1.लड़कियां उकसावे वाले कपड़े पहनती हैं।
2.वह एक नहीं अनेक लड़के मित्र बनाती हैं जिससे आपस में कभी न कभी तनाव बनता है।
3.माता पिता अपनी व्यस्तताओं के चलते लड़कियों की निगाहबानी नहीं कर पाते जिससे वह अपने युवावस्था के कारण ऐसी गलतियां कर बैठती हैं जो अततः उनके लिये घातक होती है।

दूसरा कहता है कि
1.समाज अभी भी असभ्य है उसका लड़की के प्रति नजरिया नहीं बदला।
2.जैसे जैसे धन की प्रचुरता बढ़ रही है लड़कियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं।
3. कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है और अपराधियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही नहीं हो रही। पुरुष समुदाय इसके लिये पूरी तरह से जिम्मेदार है।

हो सकता है कि ये सभी लेखक और बुद्धिजीवी सही हों पर वह इन घटनाओं के दृश्यव्य रूप पर ही अपना ध्यान केंद्रित करने से समस्या का हल नहीं हो सकता।
25 वर्ष पूर्व ही सामाजिक विशेषज्ञों ने कहा था कि जिस दहेज समस्या से पीड़ित होकर समाज कन्या भ्रुण हत्याओं के दौर को स्वीकार कर रहा है वह तो हल नहीं होगी बल्कि इससे उनके प्रति जो अपराध होंगे वह अधिक भयानक होंगे।
उनका कहना था कि
1.अभी लड़कियां पर्याप्त मात्रा में हैं इसलिये लड़के इधर उधर नजरें मारकर काम चलाते हैं। एक नहीं तो दूसरी नहंीं तो तीसरी। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके संपर्क में अधिक लड़कियां आती हैं और वह उनको देखते हैं इसलिये उनमें आक्रामकता नहीं आती। जब यह संख्या कम हो जायेगी तक एक लड़की पर अनेक लड़कों की नजर होगी। इससे आकर्षण में तीव्रता आयेगी और ऐसे में अगर लड़की की तरफ से उनको निराशा हाथ लगती है तो वह उस पर आक्रमण करेंगे।
2.रास्ते पर अनेक लड़कियों को होने से भी लड़के व्यस्त रहते हैं पर जब उनकी संख्या सीमित होगी तो वह चलते फिरते आक्रमण करेंगे।
3.दहेज प्रथा बिल्कुल हल नहीं होगी। उल्टे लड़कियां कम होने से उनके माता पिता अधिक अच्छा वर चाहेंगे। भारत में धन के असमान वितरण से वैसे ही समस्यायें बढ़ रही है। इधर जो अच्छे वर और घर होंगे वह अधिक दहेज की मांग करेंगे। इससे उल्टे इससे बेमेल विवाहों को प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि जिसके पास अधिक धन होगा वह अधिक धन और सुंदर लड़की की मांग करेगा इससे लड़कों की आयु बढ़ेगी और ऐसे में उनको छोटी आयु की लड़कियां भी ब्याह करने को मिल जायेंगी।

सामाजिक विशेषज्ञों की चेतावनी के लिये शब्द कुछ भी रहे हों पर उनका आशय यही था कि कम लड़कियां होने से एक ऐसा संकट आयेगा जिससे बचना कोई आसान काम नहीं होगा। हम यहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को ध्यान में रखते हुए एक बार अपने को दृष्टा और अपनी देह को पंच तत्वों से बनी एक वस्तु मान लें। अर्थात हम मान लें कि स्त्री पुरुष देह भी एक वस्तु हैं-नारीवादी लेखक इस बात तो ध्यान दें यहां यह बात आत्मा को दृष्टा मानकर कही जा रही है-तो भी मांग पूर्ति का नियम लागू होता है। पुरुष अधिक होंगे तो उनकी कम और स्त्री संख्या में कम है तो उसकी मांग अधिक होगी। आप अपने देश में जलस्त्रोतों पर पानी के लिये और सड़कों पर वाहन टकराने पर होने वाले हिंसक संघषों पर ध्यान दें तो पानी कम नहीं है बल्कि मांग बढ़ गयी है पर आपूर्ति उस ढंग से नहीं हो पाती। उसी तरह सड़कों पर वाहन अधिक हो गये हैं पर वह चौडी नहीं हुई उसी तरह आपको लगेगा कि स्त्री पुरुषों की संख्या में अनुपातिक अंतर ही इस संकट के लिये जिम्मेदार हैं। परिवार नियोजन रखना अच्छी बात है पर बच्चे की भ्रुण हत्या एक ऐसा अपराध है जिसका परिणाम तत्काल नहीं पता लगता पर आज समाज जिन हालतों में गुजर रहा है उससे हम समझ सकते हैं कि आखिर वह इस हालत में क्यों आया?
जब हर मनुष्य के दृष्टा होने की बात की है तो एक घटना याद आ रही है-नारीवादियों को शायद यह बुरी लगे पर वह इस लेखक के साथ वैचारिक धरातल पर खड़े हों तो सहमत होंगे। खासतौर से नारीवादी लेखिकाओं से अपेक्षा तो है कि वह इस घटना में आयु और उसकी प्रासंगिकता पर विचार करेंगी।
उस दिन एक सड़क पर यह लेखक अपने रात को नौ बजे स्कूटर पर आ रहा था कि एक जगह गड्ढा आ गया। वह बड़ा था और उससे दूर हटकर निकलने के लिये लेखक को रुकना पड़ा। सड़क पर कोई खास भीड़ नहीं थी। एक आदमी उसी गडढे के पास से गुजर रहा था। उसने इस लेखक से कहा-‘अच्छा हुआ यह गडढ़ा आपको दिख गया वरना इसमें कई गिर चुके हैं।’
यह लेखक जवाब में केवल हंस पड़ा। उसी समय दो लड़कियां वहां से गाड़ी पर निकली। तब वह सज्जन फिर बोले-‘पता नहीं आजकल माता पिता कैसे हैं। आप बताईये क्या इस तरह रात को लड़कियों को बाहर जाने की इजाजत दी जानी चाहिये? अरे, करोड़ो रुपये आदमी संभाल कर रखता है पर देखिये उससे कही अधिक कीमती इस तरह बिटियायें बाहर घूमने के लिये छोड़ देता है।’
लेखक ने पूछा-‘आप उनको जानते हैं?’
उन सज्जन ने कहा-‘नहीं! जिस तरह आजकल की घटनायें हो रही हैं उनको देखते हुए यह बात कह रहा हूं। अरे भई, आप ही बताईये जवान लड़कियों की रक्षा का उपाय उनके घरवालों को नहीं करना चाहिये?’
यह सही है कि युवा विवाहिताओं के प्रति भी अपराध होते हैं पर अविवाहित युवतियों के प्रति अपराध हमेशा ही भारी संकट का कारण बनता है।
आप अगर लेखक हैं तो सड़क पर खड़े होकर बहस नहीं कर सकते। कन्या भ्रुण हत्याओं के बारे में विशेषज्ञों की चेतावनी को अनदेखा करते हुए यह समाज जिस तरह आगे बढ़ता गया यह घटनायें उनका परिणाम है। इन घटनाओं की कोई भी वजह हो सकती है पर यह उसका नहीं बल्कि बरसों पहले चले इस रिवाज-हां, समाज में एक तरह से कन्या भ्रुण हत्या रिवाज ही बन गया है-का ही परिणाम है।
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हिंदी भाषा का प्रसार स्वाभाविक रूप से बढ़ेगा-आलेख


भीषण गर्मी के कारण पिछले कई दिनों से लिखने का मन नहीं हो रहा था। आज एक ब्लाग पर श्री बालसुब्रण्यम का पाठ पढ़ते हुए कुछ लिखने का मन हो उठा। उन्होंने अपने पाठ में हिंदी के विश्वभाषा बनने का प्रसंग उठाया था। उन्होंने अपने पाठ में बताया कि एक ईरानी छात्रा ने उनको हिंदी में ईमेल भेजकर उनसे हिंदी के व्याकरण के बारे में कुछ जानना चाहा था। उस ईरानी लड़की ने अंतर्जाल पर ही श्री बालसुब्रण्यम का पता ढूंढा था। श्री बालसुब्रण्यम के अनुसार वह स्वयं एक अनुवादक भी हैं। उन्होंने अपने व्यय पर ही एक किताब उस लड़की को भेज दी। उसका परिणाम भी अच्छा निकला। श्री बालसुब्रण्यम के उस पाठ पर कुछ टिप्पणियों भी थी जो इस का प्रमाण दे रही थी कि हिंदी अब एक विश्व भाषा बनने की तरफ अग्रसर है।

एक टिप्पणीकार ने एक विदेशी विद्वान का यह कथन भी उद्धृत किया कि भारतीयों ने अपने को रामायण और महाभारत की रचनाऐं कर बचाया है। श्रीबालसुब्रण्यम अपने पाठों में अक्सर अच्छी बातें लिखते हैं और जिनसे प्रेरित होकर लिखने का मन करता है।
अगर हम अंग्रेजी और हिंदी पर कोई संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहें तो बस यही कहा जा सकता है कि अंग्रेजी आधुनिक विज्ञान की भाषा है इसलिये उसका प्रचार प्रसार बहुत हुआ पर उसके अविष्कारों से ऊब चुके लोगों को अपने मन की शांति के लिये जिस अभौतिक अविष्कार की आवश्यकता है वह केवल अध्यात्मिक ज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है जिसकी भाषा हिंदी है इसलिये इसका प्रसार बढ़ेगा और इसमें अंतर्जाल भी सहायक होगा।
अंतर्जाल पर इस लेखक द्वारा लिखना प्रारंभ करना संयोग था। सच बात तो यह है कि अपने ब्लाग व्यंग्य, कहानियां और कवितायें लिखने के लिये प्रारंभ किया। इससे पूर्व इस लेखक ने कुछ पत्रिकाओं में प्राचीन गं्रथों और महापुरुषों पर संदेशों की वर्तमान संदर्भों की सार्थकता दिखाते हुए कुछ चिंतन लिखे। वह मित्रों और पाठकों ने बहुत पंसद किया और कुछ तो यह कहते थे कि तुम तो केवल इसी विषय पर लिखा करो। बहरहाल जब अंतर्जाल पर लिखना प्रारंभ किया तो अध्यात्मिक विषयों पर लिखने का मन में ऐसे ही विचार आया। तब उनको छदम नाम ‘शब्दलेख सारथी’ से लिखना शुरु किया। इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि लोग केवल चिंतन लिखने का आग्रह न करें। अध्यात्मिक विषयों पर लिखने से प्रसिद्धि होती है पर सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि तब आपसे सिद्ध होने का प्रमाणपत्र भी मांगा जाता है और यकीनन यह लेखक को कोई सिद्ध नहीं है। इसलिये छद्म नाम से लिखकर अपने मन की इच्छा को संतोष प्रदान करने के अलावा कोई ध्येय नहीं था। वह ब्लाग ब्लागस्पाट था और ऐसा लगा रहा था कि कोई ब्लाग वर्डप्रेस पर भी होना चाहिए तब अपने यथार्थ नाम से बने ब्लाग पर लिखना शुरू किया क्योंकि शैली एक जैसी थी इसलिये ही शब्दलेख सारथी पर भी असली नाम लिख दिया। बहरहाल यह अजीब अनुभव हुआ कि संत कबीर, रहीम, तुलसी, श्रीगीता, योग साधना, चाणक्य, विदुर, मनुस्मृति, तथा कौटिल्य का अर्थशास्त्र जैसे विषयों पर लिखने का मतलब यह होता है कि पाठ पठन और पाठकों के आवागमन की चिंता से मुक्त होना। पहले तो सारे ब्लाग पर ही अध्यात्म विषयों पर लिखा फिर तीन ब्लाग निश्चित कर दिये मगर आम पाठकों तक यह बात नहीं पहुंची और वह कुछ ऐसे ब्लाग पर टिप्पणियों में यह बात कह जाते हैं कि कबीर, रहीम तथा अन्य अध्यात्मिक विषयों पर और भी लिखें।
जहां तक पाठ पठन/पाठकों के आवगमन का प्रश्न है ऐसा कौनसा देश है जहां अध्यात्मिक विषयों वाले ब्लाग नहीं खुलते। उन जगहों पर भी जहां विदेशों में अन्य धर्मों के प्रसिद्ध स्थान हैं। अंगे्रजी टूल पर पढ़ने वाले अपनी प्रतिक्रिया देते हैं तो इस बात पर यकीन करना कठिन होता है कि उसने यह पढ़ा भी होगा। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठ पठन/पाठकों का आवागमन का संख्या में आंकलन किया जाये तो वह प्रतिदिन तेरह से सत्रह सौ के बीच होती है। गूगल की रैंकिंग में चार ब्लाग 4 अंकों के साथ सफलता की तरफ बढ़ रहे हैं इनमें दो केवल अध्यात्म विषयों पर केंद्रित हैं और जो दो अन्य भी है तो उनमें भी उनका योगदान समान रूप से दिखता है।
यह पाठ आत्म प्रचार के लिये नहीं है बल्कि अपना अनुभव मित्र ब्लाग लेखकों और पाठकों के साथ इस उद्देश्य से लिखा जा रहा है कि हिंदी को लेकर अपने मन से कुंठायें निकालें। न केवल अपने मन से भाषा कों लेकर बल्कि अपने धर्म और अपने मूल व्यक्तित्व-जिसको हिंदुत्व भी कह सकते हैं वह भी धर्म को लेकर नहीं-पर कोई कुुंठा न पालें। लोभ, लालच और भौतिकता के भ्रम ने हमें भ्रष्ट कर दिया है पर हमारा अध्यात्म ज्ञान जो कि संस्कृत के साथ अब हिंदी में भी उपलब्ध है दुनियां का सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञान हैं-कृपया इसे उन कर्मकांडों से न जोड़ें जो स्वर्ग में दिलाने के लिये होते हैं।
सच बात है कि हमारा सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान संस्कृत में हैं जिससे अनेक भाषायें पैदा हुई हैं पर हिंदी उसकी सबसे बड़ी बेटी मानी जाती है और उसमें समस्त ज्ञान-निष्काम भाव वाले हिंदी विद्वानों और धनपतियों की वजह से-हिंदी में उपलब्ध है। वैसे ही कुछ विद्वान कहते हैं कि हिंदी एक नयी भाषा है जो अपने पांव पसारेगी न कि सिमटेगी। भारत में विदेशों को देखकर अपनी हिंदी से अंग्रेजी को श्रेष्ठ मानना एक भ्रम है। इस चक्कर में अनेक लोग न तो हिंदी अच्छी सीख पाते हैं न ही अंग्रेजी। वह अच्छा कमा लेते हैं। उनकी इज्जत भी होती है पर उनका जुबान बंद रखना एक अच्छा विचार माना जाता है क्योंकि जब वह बोलते हैं तो समझ में नहीं आता। उनका चेहरा चमकता रहे इससे बाजार में सौदागर कमाते हैं। वह खेलते या दौड़ते हैं तो पैसा बरसता है पर उनके मूंह से शब्द निकलते ही उनके प्रशसंकों को चेहरा उतर जाता है। कम से कम वह विशुद्ध हिंदी भाषियों के समाज में उठने बैठने लायक नहीं रहते। कहा जाता है इस देश में अंग्रेजी केवल दो प्रतिशत लोग जानते हैं पर इस लेखक को शक है कि इसमें भी दो प्रतिशत लोगों को अंग्रेजी अच्छी आती होगी। अलबत्ता उनके हावभाव और शब्दों से दूसरे को बात समझ में आ जाती होगी इसलिये उनको जवाब मिल जाता है। वैसे भी इस लेखक ने अनेक बार टूलों से हिंदी का अंग्रेजी में अनुवाद कर दूसरों को भेजा है और उसका जवाब वैसा ही आया है जैसी कि अपेक्षा थी और इन टूलों के चलते अब अंग्रेजी में लिख पाने या हिंदी लेखक होने की कुंठा नहीं होती। यह यकीन हो गया है कि हिंदी निश्चित रूप से विश्व की भाषा बनेगी क्योंकि यह अध्यात्म की भाषा है। भारत में इसका क्या स्वरूप होगा कहना कठिन है? इस पर फिर कभी।
साभार
हिंदी सचमुच विश्व भाषा बन चुकी है
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दक्षिण एशिया के साहित्यकार आतंक पर सच लिख भी कहां पाये-आलेख


अभी हाल ही में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यकार सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें भारत, पाकिस्तान,श्रीलंका,बंग्लादेश तथा अन्य सदस्य देशों के नामचीन साहित्यकार शामिल हुए। जैसा कि संभावना थी कि इस इलाके में व्याप्त आतंकवाद भी इसमें चर्चा का विषय बना। जब इलाके में आतंकवाद का बोलबाला है तो यह स्वाभाविक भी है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्यकार इसी दर्पण की आंख की तरह देखने वाला होता है। इन साहित्यकारों ने आतंकवाद की निंदा की है और अपने देश के हिसाब से ही अपने विचार व्यक्त किये। पाकिस्तान के एक साहित्यकार ने बंग्लादेश में हाल ही में हुए विद्रोह में अपने देश का हाथ होने के आरोप का खंडन किया। बात यहीं पर ही अटक जाती है कि साहित्यकारों को क्या उसी नजरिये पर चलना चाहिये जिस पर उनका समाज या देश चल रहा है।

पहले तो यहां साहित्यकार और पत्रकार का भेद स्पष्ट करना जरूरी है। पत्रकार जो देखता है वही दिखाता और लिखता है पर साहित्यकार का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिये। पत्रकार कल्पना नहीं करता और न उसे करना चाहिये पर साहित्यकार को किसी घटना में तर्क के आधार पर कल्पना और अनुमान करने की शक्ति होना चाहिये। अपने समाज और देश के प्रति साहित्यकार की प्रतिबद्धता होना जरूरी है पर उसे अंधभक्ति से दूर रहना चाहिये। दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अपने देश में जो इनाम मिलते हैं वही उनकी प्रतिष्ठा का आधार बनते हैं पर सच तो यह है कि पूरे क्षे.त्र की हालत एक जैसी है और सभी जगह यह पुरस्कार लेखकों के संबंधों पर अधिक दिये जाते हैं और कई तो ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कार पा जाते हैं जिनको समाज में ही अहमियत नहीं दी जाती है। बहरहाल दक्षिण एशिया के साहित्यकारों को अब इस बात का भी मंथन करना चाहिये कि क्या वह वास्तव में ही समाज और देश के लिये महत्ती भूमिका निभा रहे है? दक्षिण एशिया की सभी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर उससे सामाजिक सरोकार कितने जुड़े हैं यह भी देखने की बात है।
हम दक्षिण एशिया के साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद पर लिखी गयी सामग्रियों पर ही विचार करें तो लगेगा कि वह यथार्थ से परे हैं। लेखक को कल्पना तो करना चाहिये पर उससे यथार्थ का बोध होता हो न कि वह झूठ लगने लगे। हमने केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही पढ़ा है। सभी को पढ़ना संभव नहीं है पर पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर इस संबंध में पढ़ते है तो लगता है सभी साहित्यकार एक जैसे ही है। हो सकता है कि कुछ अपवाद हों पर उनकी रचनायें अनुवादों को माध्यम से अधिक नहीं पढ़ने को मिल पाती।
अब साहित्यकारों द्वारा आतंकवाद की निंदा की गयी पर कितने ऐसे साहित्यकार हैं जो इस बात को समझते हैं कि आतंकवाद भले ही जाति,भाषा,क्षेत्र और धर्म के नाम झंडो तले अपना काम करता है पर वास्तव में वह एक व्यापार है। ऐसा व्यापार जिस पर भावना,श्रृंगार और अलंकार से शब्द सजाकर प्रस्तुत करना कभी कभी एकदम निरर्थक प्रक्रिया लगती है। आतंकवाद एक हाथी है जिसे साहित्यकार आंखें बंदकर पकड़ लेते हैं। कोई उसके सूंड़ को पकल लेता है तो कोई पूंछ-फिर उस पर अपनी व्याख्या करने लगता है। जिस तरह पहले किसी सुंदरी का मुखड़ा गढ़कर उसकी आंखें,नाक,कान,कमर,और बालों पर कवितायें और कहानी लिखी जाती थीं वैसे ही आतंकवाद का विषय उनके हाथ आ गया है। जिस तरह किसी सुंदरी के शारीरिक अंगों पर खूब लिख गया पर उसके व्यवहार,आचरण और ज्ञान पर कवि लिखने से बचते रहे वही हाल आतंकवाद का है। साहित्यकारों और लेखकों ने आतंकवादी घटनाओंे से हुई त्रासदी पर वीभत्स रस से सराबोर रचनायें खूब लिखीं। पाठक का दर्द खूब उबारा पर कभी इन घटनाओं के पीछे जो सौदागर हैं उसकी कल्पना किसी ने नहंी की। प्रसंगवश यहां हम मुंबई के खूंखार आतंकवादी कसाब की चर्चा करते हैं। 58 से अधिक बेकसूर लोगों का हत्यारा कसाब इंसान से कैसे राक्षस बना? क्या किसी पाकिस्तानी लेखक ने उसकी कल्पना करते हुए कोई लघुकथा या कविता लिखी। एक गरीब घर का लड़का जिसे उसका बाप आतंकवादी कैंप में यह कहकर भेजता है कि उसकी दो बहिनों की शादी के लिये पैसे मिलने के लिये यही एक रास्ता है। वह एक मामूली चोर डेढ़ से दो लाख रुपये की लालच में अपने देश के लिये योद्धा बनने को तैयार कैसे हो गया? उसमें इतनी क्रूरता कैसे आयी कि बंदूक हाथ में आते ही उसने 58 जाने बेहिचक ले ली? यही इंसान से राक्षस बना कसाब पकड़े जाने पर चूहे की तरह अपनी जान की भीख मांगने लगा। प्रचार माध्यम बता रहे हैं कि अब वह अपने किये पर पछता रहा है तब तो यह सवाल उठता ही है कि आखिर इस राक्षसीय कृत्य के लिये प्रेरित करने वाले कौनसे कारण थे?
कसाब के पीछे जो तत्व हैं उनके सच पर कितने पाकिस्तानी या भारतीय साहित्यकार लिख पाते हैं। कसाब और उसके साथी तो साँस लेते हुए ऐसे इंसान थे जो किन्ही राक्षसों के हथियार बने गये। मुख्य अपराधी कौन हैं? मुख्य अपराधी हैं वह जो इसके लिये धन मुहैया करवा रहे हैं। यह धन देने वाले तमाम तरह के अवैध धंधों में लिप्त हैं और प्रशासन और जनता का ध्यान उन पर न जाये इस तरह के आतंकवाद का प्रायोजन कर रहे हैं। यह सच कितने साहित्यकार लिख पाये? कसाब तो इंसानी रूप में एक बुत है या कहें कि रोबोट है।
पाकिस्तान साहित्यकारों में क्या इतनी हिम्मत है कि वह कसाब को केंद्रीय पात्र बनाकर कोई कहानी लिख सकें? नहीं! दरअसल दक्षिण एशियों के साहित्यकार नायकों पर लिखकर समाज की वाहवाही लूटना चाहते हैं पर खलनायकों के कृत्यों में पीछे समाज की जो स्वयं की कमियां हैं उसे उबारकर लोगों के गुस्से से बचना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि नायकों की विजय के पीछे अगर समाज है तो खलनायक की क्रूरता के पीछे भी इसी समाज के ही तत्व हैं। समाज की की खामियों को छिपाकर उससे अच्छा बताने से तात्कालिक रूप से प्रशंसा मिलती है शायद यही कारण है कि लोग उससे बचने लगे हैं। भारत में हालांकि अनेक लोग समाज की कमियों की व्याख्या करते हैं पर वह भी उसके मूल में नहीं जाते बल्कि सतही तौर पर देखकर अपनी राय कायम कर लेते हैं। नारी स्वातंत्रय पर लिखने वाले अनेक लेखक तो हास्यास्पद रचनायें लिखते हैं और उससे यह भी पता लगता है कि उनके गहन चिंतन की कमी है।

दक्षिण एशियाई देश भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,गरीबी,अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों के कारण विश्व में पिछडे हुए हैं और इसलिये यहां लोगों में कहीं न कहीं गुस्से की भावना है। दक्षिण एशिया की छबि विश्व में कितनी खराब है यह इस बात से भी पता चलता है कि ईरान के सबसे बड़े दुश्मन इजरायल ने भी उसे अपने लिये कम पाकिस्तान को अधिक संकट माना है जो कि दक्षिण एशिया का ही हिस्सा है। जब हम दक्षिण एशिया की बात करते हैं तो फिर भौगोलिक सीमाओं से उठकर विचार करना चाहिये पर जैसे कि सम्मेलन की समाचार पढ़ने को मिले उससे तो नहीं लगता कि शामिल लोग ऐसा कर पाये। सच बात तो यह है कि समाज और देश को दिशा देने का काम साहित्यकार ही कर पाते हैं क्योंकि वह पुरानी सीमाओं से बाहर निकलकर रचनायें करते हैं। सभी साहित्यकार ऐसा नहीं कर पाते जो पर जो करते हैं वही कालजयी रचनायें दे पाते हैं। अगर हम दक्षिण एशिया की स्थिति को देखें तो अब ऐसी कालजयी कृतियां कहां लिखी जा रही हैं जिससे समाज या देश में परिवर्तन अपेक्षित हो।
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