Category Archives: hindi article

संत कबीरदास के दोहे-भगवान के साथ चतुराई मत करो


सिहों के लेहैंड नहीं, हंसों की नहीं पांत
लालों की नहीं बोरियां, साथ चलै न जमात

संत शिरोमणि कबीर दास जी के कथन के अनुसार सिंहों के झुंड बनाकर नहीं चलते और हंस कभी कतार में नहीं खड़े होते। हीरों को कोई कभी बोरी में नहीं भरता। उसी तरह जो सच्चे भक्त हैं वह कभी को समूह लेकर अपने साथ नहीं चलते।

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेही निराधार का गाहक गोपीनाथ

कबीरदास जी का कथन है कि चतुराई से परमात्मा को प्राप्त करने की बात तो व्यर्थ है। जो भक्त उनको निस्पृह और निराधार भाव से स्मरण करता है उसी को गोपीनाथ के दर्शन होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों ने तीर्थ स्थानों को एक तरह से पर्यटन मान लिया है। प्रसिद्ध स्थानों पर लोग छुट्टियां बिताने जाते हैं और कहते हैं कि दर्शन करने जा रहे हैं। परिणाम यह है कि वहां पंक्तियां लग जाती हैंं। कई स्थानों ंपर तो पहले दर्शन कराने के लिये बाकायदा शुल्क तय है। दर्शन के नाम पर लोग समूह बनाकर घर से ऐसे निकलते हैं जैसे कहीं पार्टी में जा रहे हों। धर्म के नाम पर यह पाखंड हास्याप्रद है। जिनके हृदय में वास्तव में भक्ति का भाव है वह कभी इस तरह के दिखावे में नहीं पड़ते।
वह न तो इस समूहों में जाते हैं और न कतारों के खड़े होना उनको पसंद होता है। जहां तहां वह भगवान के दर्शन कर लेते हैं क्योंकि उनके मन में तो उसके प्रति निष्काम भक्ति का भाव होता है।

सच तो यह है कि मन में भक्ति भाव किसी को दिखाने का विषय नहीं हैं। हालत यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर किसी सच्चे भक्त का मन जाने की इच्छा भी करे तो उसे इन समूहों में जाना या पंक्ति में खड़े होना पसंद नहीं होता। अनेक स्थानों पर पंक्ति के नाम पर पूर्व दर्शन कराने का जो प्रावधान हुआ है वह एक तरह से पाखंड है और जहां माया के सहारे भक्ति होती हो वहां तो जाना ही अपने आपको धोखा देना है। इस तरह के ढोंग ने ही धर्म को बदनाम किया है और लोग उसे स्वयं ही प्रश्रय दे रहे हैं। सच तो यह है कि निरंकार की निष्काम उपासना ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और उसी से ही परमात्मा के अस्तित्व का आभास किया जा सकता है। पैसा खर्च कर चतुराई से दर्शन करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।
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कुदरत का करिश्मा-हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें (kudrat ka karishma-hindi vyangya kavitaen)


नदियां यूं ही नहीं देवियां कही जाती हैं,
तभी तक सहती हैं
अपने रास्तों पर आशियानों बनना
जब तक इंसानों की तरह सहा जाता है,
बादलों से बरसा जो थोड़ा पानी
उफनती हुई अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाती हैं।
——–
यह कुदरत का ही करिश्मा है कि
विकास के मसीहाओं को भी
उसका सहारा मिल जाता है,
जब तक आगे बढ़ने का सहारा मिलता है
झूठे आंकडों से
वह अपनी छाती फुलाते हैं
बरसती है जब कहर की बाढ़
खुलती है पोल
तब दोष देते हैं कुदरत को
फिर राहत से कमाई की उम्मीद में
उनका चेहरा अधिक खिल जाता है।
———–

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना-हिन्दी व्यंग्य कविता


दूसरे की आस्था को कभी न आजमाना,
शक करता है तुम पर भी यह ज़माना।
अपना यकीन दिल में रहे तो ठीक,
बाहर लाकर उसे सस्ता न बनाना।
हर कोई लगा है दिखाने की इबादत में
फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना।
सिर आकाश में तो पांव जमीन पर हैं,
हद में रहकर, अपने को गिरने से बचाना।।
अपनी राय बघारने में कुशल है सभी लोग,
जिंदगी की हकीकत से हर कोई अनजाना।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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विश्व में भारत से संदेश अध्यात्मिक ज्ञान से ही फैल सकता है, किसी फिल्म से नहीं-हिन्दी लेख (hindi film aur adhyatmik gyan-hindi article)


एक टीवी एंकर को एक बहुचर्चित अभिनेता की फिल्म इतनी अच्छी लगी कि उसे वह पूरे विश्व में संदेश भेजती हुई दिखाई दे रही है-उसने अपने अंतर्जाल पर निज पत्रक में यहां तक लिख दिया कि ऐसी फिल्म भारत में ही बन सकती थी और यह भी कि हमारा देश फिर पूरे विश्व में अच्छा संदेश भेजने में सफल रहा है। यह एंकर जिस चैनल से संबंधित है उसने पिछले दिनों उस अभिनेता और उसकी फिल्म के प्रचार में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी। विशुद्ध रूप से वह व्यवसायिक प्रचार था और एंकर कहीं न कहीं तहेदिल से अपने कार्य में जुटा था।
जब कोई आदमी व्यवसाय करता है तो रोटी के प्रति उसका समर्पण उसे उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार बना देता हैं-यहां तक कि उसके कृत्रिम विचार भी उससे प्रभावित होकर मौलिक स्वरूप धारण कर लेते हैं। जब वह एंकर बड़ी शिद्दत से उस अभिनेता को महानायक और फिल्म को अद्वितीय करने के व्यवसायिक प्रयास में लगा रहा होगा तब मस्तिष्क में स्थापित विचार इतनी गहराई तक उतर गया कि वह उससे निकल ही नहीं सकता था। हम यहां उसके व्यवसाय या विचार व्यक्त करने की शैली पर आपत्ति नहीं कर रहे बल्कि यह बात कह रहे हैं कि कोई भी फिल्म, किताब या व्यक्ति भारत का तब तक संदेशवाहक नहीं हो सकता जब उसके मस्तक पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का तिलक नहीं लगा हो। भारत की पहचान आधुनिक गीत नहीं बल्कि लोकगीत ही होते हैं। आज भी विश्व में भारत की पहचान राम, कृष्ण, शिव, गांधी और यहां के सहृदय नागरिकों का सहज भाव है। भारत के संदेश वाहक बाबा रामदेव तो हो सकते हैं क्योंकि उनके द्वारा योगशिक्षा को व्यवसायिक रूप देकर विश्व में लोकप्रिय बनाया परंतु एक सामयिक फिल्म और उसका अभिनेता कतई नहीं हो सकता। बाबा रामदेव भारत की प्रमाणिक योग पद्धति का प्रचार कर रहे हैं जो कभी प्राचीन नहीं हो सकती जबकि किसी फिल्म की आयु इतनी बड़ी नहीं हो सकती।
उस एंकर ने जो विचार व्यक्त किये उसमें कोई आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। जिस तरह हम लोग कार्यालय या दुकान से घर आकर भी तत्काल वहां में उपजे भावों से मुक्त नहीं हो पाते वही उनके साथ भी हुआ होगा। वह उस फिल्म को हिट बताने के लिये निरंतर व्यवसायिक प्रचार में जुटे रहे। उनको अपने नायक को महानायक बताने के लिये कुछ भटके लोग खलनायक के रूप में मिल गये। फिल्म तीन दिन तक सफलता से चली तो उनकी वजह से! वरना तो वह पहने ही दिन अच्छी शुरुआत के लिये तरस जाती-कम से कम इस फिल्म को देखकर आने वाले अन्य अंतर्जाल लेखकों के शब्द पढ़कर तो ऐसा ही लगता है। वैसे तीन बाद उस फिल्म का प्रचार भी अब प्रभावी नहीं लग रहा।
दूसरी बात यह कि हम प्रचार माध्यमों को दोष क्यों दें? उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये येनकेन प्रकरेण कार्यक्रम के साथ पैसे भी बनाने हैं और यह लक्ष्य उनको क्रिकेट, फिल्म तथा अन्य प्रदर्शन आधारित व्यवसायों से बहुत आसानी से प्राप्त हो जाता है। जो लोग उनकी आलोचना करते हैं उनको व्यवसाय के स्वभाव को भी समझना चाहिये। सवाल यह है कि इस तरह के प्रचार से लोग प्रभावित हुए कि नहीं! जो आलोचना कर रहे हैं वह देखने गये कि नहीं! साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि इतने सारे लोग अपना पैसा खर्च करने गये जिसकी फिल्म निर्माताओं, वितरकों, माल मालिकों तथा उनसे प्रश्रय पाने वाले प्रचार माध्यमों को जरूरत होती है। अगर आप कह रहे हैें कि उन्होंने लोगों को भ्रमित किया तो इसका उत्तर है कि आप जान जागरण के लिये अहिंसक प्रयास क्यों नहीं करते। इसकेे विपरीत फिल्म का कथित रूप से प्रदर्शन या तोड़फोड़ के द्वारा नकली विरोध कर उसका प्रचार करने वालों का समर्थन करते हैं! नतीजा यह होता है कि कुछ लोग ही फिल्म देखने जाते हैं तो वह भी नायक का दर्जा पाने के लिये प्रचार माध्यमों में विजय का प्रतीक उंगलियों को वी की आकृत्ति में प्रस्तुत करते नजर आते हैं।
इस लेखक ने न फिल्म देखी न देखने का इरादा है। अलबत्ता कहानी पढ़ी। उसके नायक जैसा कोई पात्र इस धरती पर सचमुच अगर है तो वाकई एक भावुक व्यक्ति होने के नाते इस लेखक को उससे सहानुभूति होगी । अल्लहड़, मस्तमौला तथा दूसरे के दुःख दर्द में सहानुभूति जताने वालों को यहां मनोरोगी माना जाता है। अगर कहानी वैसी है तो ठीक है। जहां तक फिल्म का सवाल है उस पर इतना बावेला बचना ठीक नहंी था। जिन लोगों को लगता है कि वह फिल्म गलत है उन्हें चाहिये कि वह प्रतिवाद स्वरूप फिल्म बनाने के लिये दूसरों को प्रेरणा दें या खुद बनायें। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना ठीक नहीं है। तर्क से वही लोग घबड़ाते हैं जिनके पास ज्ञान नहीं और जिनके पास ज्ञान है वह किसी के अपशब्द से भी विचलित नहीं होते। किसी के अभिव्यक्त विचार से अगर आप असहमत हैं तो उस पर अपनी अभिव्यक्ति इस तरह मजबूत ढंग से रखें कि सामने वाले के हाथ से तोते उड़ जायें। जब दूसरे के विचार पर हाय हाय और हो हो करते हैं तो वह इस बात का प्रमाण है कि विचार रहित विकारवान पुरुष हैं। आखिरी बात यह कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से ही कोई संदेश निकलकर विश्व में फैल सकता ह न कि किसी फिल्म से।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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तीन श्वान शिशु-आलेख (three child of dog-hindi article)


उसे कई बार समझा चुका था कि ‘ घर से बाहर आते जाते समय मेरे स्कूटर से दूर रहे, वरना कुचला जायेगा।’

आज सुबह भी उससे कहा-‘मान जा प्यारे,  मुझे डर लगता है कि कहीं आगे पीछे करते हुए मेरे स्कूटर के पहिये के नीचे न आ जाये। भाग यहां से।’

कई बार श्रीमती जी उसे हटातीं तो कई बार मैं उसके हटने के इंतजार में खड़ा रहता, मगर यह सावधानी इस मायने ही काम आयी कि उस श्वान शिशु की मृत्यु हमारे स्कूटर से नहीं हुई। आज शाम को घर पहुंचा तो अकेला भूरे रंग का जीवित शिशु घर के अंदर दरवाजे पर पड़ा था। उसे अनेक बार हट हट किया पर वह लापरहवा दिखा। इससे पहले उससे कुछ कहता श्रीमती जी ने बताया कि ‘इसके साथ वाला पिल्ला घर के सामने से ही गुजर रही एक स्कूल बस के नीचे आ गया।

सुबह का मंजर याद आया जब वह मासूम हमारी झिड़की सुनकर स्कूटर से दूर हट कर रास्ता दे रहा था।

उस अकेले भूरे जीवित शिशु को देखा। उसकी माता भी बाहर सो रही थी।  पता नहीं दरवाजे पर पहुंचते ही उन दोनों के अनमने पन का अहसास कैसे हो गया।’ घर के दरवाजे के अंदर बैठा भूरा शिशु बड़ी मुश्किल से दूर हटा जबकि पहले तेजी से हटता था।

जीवन की अपनी धारा है।  लोग सोचते हैं कि जीवन केवल मनुष्य के लिये ही है जबकि पशु, पक्षी तथा अन्य जीव जंतु भी इसे जीते हैं।

हमारे पोर्च में लगा लोहे का दरवाजा किसी भी पशु के लिये दुर्लंघ्य हैं।  उसमें लगी लोहे की एक छड़ का निचला हिस्से का जोड़ टूट गया है। कई दिनों से  की सोची पर इतने छोटे काम के लिये मशीन लाने वाला नहीं मिल पाया है।  यह काम करने पर जोर इसलिये भी नहीं दिया क्योंकि उससे कुछ खास समस्या नहीं रही।

जब सर्दियों का जोर तेजी से प्रारंभ हुआ तब एक रात दरवाजा बजने की आवाज सुनकर हम पति पत्नी बाहर निकले।  दरवाजे पर सो रही मादा श्वान के अलावा कोई  दिखाई नहीं दिया।  तब पोर्च में ही रखे तख्त और दरवाजे के बीच  में खाली पड़े  कोने पर नजर पड़ी तो वहां से तीन श्वान शिशु एक दूसरे पर पड़े हुए  कातर भाव से हमारी तरफ देख रहे थे।

सर्दी बहुत तेज थी।  उनका जन्म संभवत दस से बीस दिन के बीच का रहा होगा-शायद पच्चीस दिन भी।  ठंड से कांपते हुए उन श्वान शिशुओं ने जीवन की तलाश दरवाजे की सींखचों के बीच किया होगा जो टूटी हुई छड़ ने उनको प्रदान किया।

हमारा एक प्रिय श्वान चार वर्ष पहले सिधार गया था।  उसके बाद हमने किसी श्वान को न पालने का फैसला किया। मगर यह जीवन है इसमें फैसले बदलते रहते हैं।  हमने तय किया कि इनमें से किसी को पालेंगे नहीं पर पूरी सर्दी भर इनको यहां आने से रोकेंगे भी नहीं।  हमने एक पुरानी चादर ली और उस कोने में डाल दी ताकि शिशु उस परसो सकें-एक बात याद रखें श्वान को ऊपर से सर्दी नहीं लगती बल्कि पेट पर ही लगती है क्योंकि वह बाल नहीं होते।  

श्वान शिशुओं ने सुबह पोर्च को गंदा कर दिया, गुस्सा आया पर फिर भी सर्दियों में उनको आसरा देने का फैसला बदला नहीं।  तीनों शिशुओं में एक भूरा था दो अन्य के शरीर पर भूरे पर की कहीं धारियां थी पर थे काले रंग के। बच्चे इतनी आयु के थे कि वह मां के दूध पीने के साथ ही ठोस पदार्थ भी ले रहे थे। उनको हम ही नहीं हमारे पड़ौसी भी कुछ न कुछ खाने को देते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि मोहल्ले की साझा जिम्मेदारी बन गयी थी तीनों की सेवा। दिन में वह बाहर मां के साथ घूमते और रात के उसी रास्ते से अंदर आते और जाते।  शाम को  हमारे वापस आने पर अंदर स्कूटर दाखिल होने  पर परेशानी आती फिर भी उनको बाहर नहीं निकालते। तीसरे दिन एक काला श्वान शिशु घिसटता हुआ आया। उसकी कमर पर किसी ने प्रहार किया था।  तब  पास रहने वाले एक ही डाक्टर से गोलियां लेकर उसे दूध में पिलायी तब वह ठीक हुआ।  हालांकि भूरा शिशु उसे पीने नहीं दे रहा था। इसलिये उसे भगाने के लिये भी प्रयास करना पड़ा।

चौथे दिन छत पर योग साधना करने के पश्चात् हमने पास ही खाली पड़े प्लाट पर झांका तो मादा श्वान अपने उसी शिशु के साथ सो रही थी। श्रीमतीजी ने गौर से देखा और कहा -‘ऐसा लग रहा है कि यह काला वाला मर गया।’

हमने कहा-‘नहीं, हो सकता है कि सो रहा हो।’

शाम को पता लगा कि मादा श्वान शिशु उसी काले शिशु का शव खा रही थी। मोहल्ले के लोगों ने उससे छुड़ाकर किसी मजदूर से कहकर उसे दूर फिंकवा दिया।  हमने श्रीमती जी से कहा-‘यकीनन वह बच्चा खा नहीं रही होगी बल्कि उसे जगाने का प्रयास कर रही होगी। श्वान को काम करने के लिये बस मुंह ही तो है। हो सकता है कि मादा श्वान को लगता हो कि इस तरह नौंचने यह जाग जायेगा। वह बिचारी क्या जाने कि यह मर गया है?’

पंद्रह दिन हो गये।  इधर सर्दी भी कम हो गयी। चादर हमने दरवाजे के बाहर  ही डाल दी। फिर भी जीवित दोनों शिशु अंदर आते जाते रहे।  काला शिशु हमेशा ही भूरे से कमजोर रहा।  अब तो ऐसा लगता था कि जैसे कि दोनों की उम्र में भी अंतर हो।  अनेक बार  पपड़ी या अन्य चीज काले शिशु के मुंह से भूरे रंग वाला छीन लेता था।  काले वाले को कुछ देकर उसके खिलाने के लिये भूरे वाले को भगाने का प्रयास भी करना पड़ता था।

पोर्च के बाद वाले दरवाजे कभी खुले होते तो कमरे में सबसे अधिक काला शिशु ही आता था।  एक बार तो वह कंप्यूटर कक्ष तक आ गया था। आज स्कूटर निकालने के लिये दरवाजा खोला और थोड़ी देर अंदर आया तो वह घुस आया। उसे चिल्लाकर भगाया।  उसका भागना याद आता है

शाम को वह भूरा शिशु ही शेष रह गया।  दरअसल काले शिशु जीवन जीना तो चाहते थे पर किसी से छीनकर नहीं जबकि यह भूरा शिशु आक्रामक है।

जब काले शिशु की मौत हुई तो आसपास की महिलाओं को भारी तकलीफ हुई क्योंकि यही जीव का स्वभाव है कि जो उसके पास रहता है उसके प्रति मन में मोह आ ही जाता है।  पास पड़ौस के लोगों ने उसे भी कहीं दूर फिंकवाने का इंतजाम किया। साथ के कपड़ा और नमक भी उसे दफनाने के लिये दिया गया।  हमेशा ही आक्रामक रहने वाला भूरा शिशु कुछ उदास दिख रहा है। वह शायद लंबा जीवन जियेगा। संभवतः तीन  शिशु कुदरत ने इसलिये ही  साथ भेजे क्योंकि सर्दी में एक दूसरे के सहारे वह जी सकें।  भूरा शिशु हमेशा ही दोनों अन्य शिशुओं के ऊपर सोता था। दोनों काले शिशुओं में भूरे की अपेक्षा  आक्रामकता का नितांत अभाव दिखता था।  ऐसा लगता था कि वह काले शिशु केवल भूरे के जीवन का मार्ग प्रशस्त करने के लिये ही आये हैं। अब भूरे शिशु को शायद गर्मी के आवश्यकता नहीं रही और कुदरत ने उसे भेजा गया सामान वापस ले लिया। 

हमने उसे पालने का फैसला नहीं किया पर कौन जानता है कि आगे क्या होगा। उस भूरे शिशु की आंखों में उदासी का भाव देखकर सोचता हूं कि अब उसे किस पर डाटूंगा क्योकि वह खाने के लिये अकेला बचा है और अपनी मां को दी गयी चीज उससे छीनता नहीं है।  दोनों दरवाजा खोलने पर हमारी तरफ देखते हैं तब लगता है कि उनकी आंखों में  उसी काले शिशू के बाहर होने की आशा झांक रही है। उनको लगता है कि वह अंदर कहीं घुस गया है और निकलेगा जैसे कि पहले डांटने पर हमेशा ही भाग कर निकलता था।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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बुरे आदमी से संगत सांप पालने से अधिक दुःखदायी-हिन्दी संदेश


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।

उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
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हैती का भूंकप, ज्योतिष,पूंजीवाद और साम्यवाद-हिन्दी लेख


हैती में भूकंप, ज्योतिष, पूंजीवाद और समाजवाद जैसे विषयों में क्या साम्यता है। अगर चारों को किसी एक ही पाठ में लिखना चाहेंगे तो सब गड्डमड्ड हो जायेगा। इसका कारण यह है कि भूकंप का ज्योतिष से संबंध जुड़ सकता है तो पूंजीवाद और समाजवाद को भी एक साथ रखकर लिखा जा सकता है पर चार विषयों के दोनों समूहों को मिलाकर लिखना गलत लगेगा, मगर लिखने वाले लिख रहे हैं।
पता चला कि हैती में भूकंप की भविष्यवाणी सही निकली। भविष्यवक्ताओं को अफसोस है कि उनकी भविष्यवाणी सही निकली। पूंजीवादी देश हैती की मदद को दौड़ रहे हैं पर साम्यवादी बुद्धिजीवी इस हानि के लिये पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को जिम्मेदार बता रहे हैं। दावा यहां तक किया गया है कि पहले आये एक भूकंप में साम्यवादी क्यूबा में 10 लोग मरे जबकि हैती यह संख्या 800 थी-उस समय तक शायद पूंजीवादी देशों की वक्र दृष्टि वहां नहीं पड़ी थी। अब इसलिये लोग अधिक मरे क्योंकि पूंजीवाद के प्रभाव से वहां की वनसंपदा केवल 2 प्रतिशत रह गयी है। अभिप्राय यह है कि पूंजीवादी देशों ने वहां की प्रकृति संपदा का दोहन किया जिससे वहां भूकंप ने इतनी विनाशलीला मचाई।
इधर ज्योतिष को लेकर भी लोग नाराज हैं। पता नहीं फलित ज्योतिष और ज्योतिष विज्ञान को लेकर भी बहस चल रही है। फलित ज्योतिष पीड़ित मानवता को दोहन करने के लिये है। ऐसे भी पढ़ने को मिला कि अंक ज्योतिष ने-इसे शायद कुछ लोग खगोल शास्त्र से भी जोड़ते है’ फिर भी प्रगति की है पर फलित ज्योतिष तो पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है।
एक साथ दो पाठ पढ़े। चारों का विषय इसलिये जोड़ा क्योंकि हैती के भूकंप की भविष्यवाणी करने वाले की आलोचना उस साम्यवादी विचारक ने भी बिना नाम लिये की थी। यहां तक लिखा कि पहले भविष्यवाणी सही होने का दावा कर प्रचार करते हैं फिर निराशा की आत्मस्वीकृति से भी उनका लक्ष्य ही पूरा होता है। इधर फलित ज्योतिषियों पर प्रहार करता हुए पाठ भी पढ़ा। उसका भी अप्रत्यक्ष निशाना वही ज्योतिष ब्लाग ही था जिस पर पहले हैती के भूकंप की भविष्यवाणी सत्य होने का दावा फिर अपने दावे के सही होने को दुर्भाग्यपूणी बताते हुए प्रकाशित हुई थी। चार तत्व हो गये पर पांचवा तत्व जोड़ना भी जरूरी लगा जो कि प्रकृति की अपनी महिमा है।
मगर यह मजाक नहीं है। हैती में भूकंप आना प्राकृतिक प्रकोप का परिणाम है पर इतनी बड़ी जन धन हानि यकीनन मानवीय भूलों का नतीजा हो सकती है। हो सकता है कि साम्यवादी विचारक अपनी जगह सही हो कि पूंजीवाद ने ही हैती में इतना बड़ा विनाश कराया हो। ऐसी प्राकृतिक विपदाओं पर होने वाली हानि पर अक्सर प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी अपने हिसाब से पूंजीवाद और साम्राज्यवादी को निशाना बनाते हैं। उनको अमेरिका और ब्रिटेन पर निशाना लगाना सहज लगता है। वह इससे आगे नहीं जाते क्योंकि प्रकृति को कुपित करने वालों में वह देश भी शामिल हैं जो ऐसे बुद्धिजीवियों को प्रिय हैं। हमारा तो सीधा आरोप है कि वनों की कटाई या दोहन तो उन देशों में भी हो रहा है जो साम्यवादी होने का दावा करते हैं और इसी कारण कथित वैश्विक तापवृद्धि से वह भी नहीं बचे।
अब विश्व में तापमान बढ़ने की बात कर लें। हाल ही मे पड़ी सर्दी ने कथित शोधकर्ताओं के होश उड़ा दिये हैं। पहले कह रहे थे कि प्रथ्वी गर्म हो रही है और अब कहते हैं कि ठंडी हो रही है। भारत के कुछ समझदार कहते हैं कि प्रकृति अपने ढंग से अपनी रक्षा भी करती है इसलिये गर्मी होते होते ही सर्दी होने लगी। दूसरी भी एक बात है कि भले ही सरकारी क्षेत्र में हरियाली कम हो रही है और कालोनियां बन रही हैं पर दूसरा सच यह भी है कि निजी क्षेत्र में पेड़ पौद्ये लगाने की भावना भी बलवती हो रही है। इसलिये हरित क्षेत्र का संकट कभी कभी कम होता लगता है हालांकि वह संतोषजनक नहीं है। गैसों का विसर्जन एक समस्या है पर लगता है कि प्रकृत्ति उनके लिये भी कुछ न कुछ कर रही है इसी कारण गर्मी होते होते सर्दी पड़ने लगी।
मुख्य मुद्दा यह है कि परमाणु बमों और उसके लिये होने वाले प्रयोगों पर कोई दृष्टिपात क्यों नहीं किया जाता? चीन, अमेरिका और सोवियत संघ ने बेहताश परमाणु विस्फोट किये हैं। इन परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी हानि पहुंची है उसका आंकलन कोई क्यों नही करता? हमारी स्मृति में आज तक गुजरात का वह विनाशकारी भूकंप मौजूद है जो चीन के परमाणु विस्फोट के कुछ दिन बाद आया था। इन देशों ने न केवल जमीन के अंदर परमाणु विस्फोट किये बल्कि पानी के अंदर भी किये-इनके विस्फोटों का सुनामी से कोई न कोई संबंध है ऐसा हमारा मानना है। यह हमारा आज का विचार नहीं बल्कि गुजरात भूकंप के बाद ऐसा लगने लगा है कि कहीं न कहीं परमाणु विस्फोटों का यह सिलसिला भी जिम्मेदारी है जो ऐसी कयामत लाता है। साम्यवादी विचारक हमेशा ही अमेरिका और ब्रिटेन पर बरस कर रह जाते है पर रूस के साथ चीन को भी अनदेखा करते हैं।
हमारा मानना है कि अगर यह चारों देश अपने परमाणु प्रयोग बंद कर सारे हथियार नष्ट कर दें तो शायद विश्व में प्रकृति शांत रह सकती है। विश्व में न तो पूंजीवाद चाहिये न समाजवाद बल्कि सहजवाद की आवश्यकता है। साम्राज्यवादी के कथित विरोधी देश इतने ही ईमानदार है तो क्यों पश्चिमी देशों की वीजा, पासपोर्ट और प्रतिबंधों की नीतियों पर चल रहे हैं। चीन क्यों अपने यहां यौन वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगा रहा है जैसे कि अन्य देश लगाते हैं। वह अभी भी आदमी का मूंह बंद कर उसे पेट भरने के लिये बाध्य करने की नीति पर चल रहा है।
जहां तक ज्योतिष की बात है तो अपने देश का दर्शन कहता है कि जब प्रथ्वी पर बोझ बढ़ता है तो वह व्याकुल होकर भगवान के पास जाती है और इसी कारण यहां प्रलय आती है। वैसे पश्चिम अर्थशास्त्री माल्थस भी यही कहता था कि ‘जब आदमी अपनी जनंसख्या पर नियंत्रण नहीं करती तब प्रकृति यह काम स्वयं करती है।’ यह सब माने तो ऐसे भूकंप और सुनामियां तो आती रहेंगी यह एक निश्चिम भविष्यवाणी है। प्रसिद्ध व्यंगकार स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरसत नहीं है। मारने वालों के पास हमसे बड़े लक्ष्य पहले से ही मौजूद है।’
इसी तर्ज पर हम भी यह कह सकते हैं कि धरती बहुत बड़ी है और वह क्रमवार अपनी देह को स्वस्थ कर रही है और जहां हम हैं वहां का अभी नंबर अभी नहीं आया है। कभी तो आयेगा, भले ही उस समय हम उस समय यहां न हों।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आंसुओं का व्यापार-हिन्दी शायरी


हमदर्दी जताने की कला
हमें कभी नहीं आई
किसी का दर्द देखकर
मन रोया मन भर आंसु
पर आंखें दरिया न बन पाई।
शायद लोग दिमाग से सोचते हैं
इसलिये हमदर्दी के शब्द जल्दी ढूंढ लेते
दिल तक नहीं पहुंचता
दूसरे का दर्द
कर लेते हैं दिखावे में कमाई।
नहीं करना सीखा पाखंड
इसलिये दूसरे के घाव पर मरहम लगाकर भी
अपने लिये ओढ़ लेते हैं तन्हाई।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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पेशेवर बौद्धिक विलासी- हिन्दी आलेख (peshevar buddhi vilasi)


हिटलर तानाशाह पर उसने जर्मनी पर राज्य किया। कहते हैं कि वह बहुत अत्याचारी था पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसने हर जर्मनी नागरिक का मार दिया। उसके समय में कुछ सामान्य नागरिक असंतुष्ट होंगे तो तो कुछ संतुष्ट भी रहेंगे। कहने का मतलब यह कि वह एक तानाशाह पर उसके समय में जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग शांति से रह रहा था। सभी गरीब नहीं थे और न ही सभी अमीर रहे होंगे। इधर हम दुनियां के अमीर देशों में शुमार किये जाने वाले जापान को देखते हैं जहां लोकतंत्र है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां की सारी जनता अपनी व्यवस्था से खुश होगी। वहां भी अमीर और गरीब होंगे।
किसी राज्य में प्रजाजनों में सभी अमीर होंगे तो भी सभी संतुष्ट नहीं होंगे सभी गरीब होंगे तो सभी असंतुष्ट भी नहीं होंगे। कहने का मतलब यही है कि राज्य की व्यवस्था तानाशाही वाली है या प्रजातंात्रिक, आम आदमी को मतलब केवल अपने शांतिपूर्ण जीवन से है। अधिकतर लोग अपनी रोजी रोटी के साथ ही अपने सामाजिक जीवन में दायित्व निर्वाह के साथ ही धाार्मिक, जातीय, भाषाई तथा क्षेत्रीय समाजों द्वारा निर्मित पर्वों को मनाकर अपना जीवन अपनी खुशी और गमों के साथ जीते हैं। अलबत्ता पहले अखबार और रेडियो में समाचार और चर्चाओं से सामान्य लोगों को राजनीतिक दृष्टि विकसित होती थी । अब उनके साथ टीवी और इंटरनेट भी जुड़ गया है। लोग अपने मनपसंद विषयों की सामग्री पढ़ते, देखते और सुनते है और इनमें कुछ लोग भूल जाते हैं तो कुछ थोड़ी देर के लिये चिंतन करते है जो कि उनका एक तरह से बुद्धि विलास है। सामान्य आदमी के पास दूसरे की सुनने और अपनी कहने के अलावा कोई दूसरा न तो उपाय होता है न सक्रिय येागदान की इच्छा। ऐसे में जो खाली पीली बैठे बुद्धिजीवी हैं जो अपना समय पास करने के लिये सभाओं और समाचारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जिनके साथ अब टीवी चैनल भी जुड़ गये हैं। इनकी बहसों पेशेवर बौद्धिक चिंतक भाग लेते हैं। ऐसा नहीं है कि चिंतक केवल वही होते हैं जो सार्वजनिक रूप से आते हैं बल्कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चिंतन की अभिव्यक्ति केवल अपने व्यक्ति गत चर्चाओं तक ही सीमित रखते हैं।
ऐसे जो गैर पेशेवर बुद्धिजीवी हैं उनके लिये अपना चिंतन अधिक विस्तार नहीं पाता पर पेशेवर बुद्धिजीवी अपनी चर्चा को अधिक मुखर बनाते हैं ताकि प्रचार माध्यमों में उनका अस्तित्व बना रहे। कहते हैं कि राजनीति, पत्रकारिता तथा वकालत का पेशा अनिश्चिताओ से भरा पड़ा है इसलिये इसमें निरंतर सक्रियता रहना जरूरी है अगर कहीं प्रदर्शन में अंतराल आ गया तो फिर वापसी बहुत मुश्किल हो जाती है। यही कारण है कि आधुनिक लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ पत्रकारिता-समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों तथा रेडियो- में अपनी उपस्थित दर्ज कराने के लिये पेशेवर बौद्धिक चिंतक निरंतर सक्रिय रहते हैं। यह सक्रियता इतनी नियमित होती है कि उनके विचार और अभिव्यक्ति का एक प्रारूप बन जाता है जिसके आगे उनके लिये जाना कठिन होता है और वह नये प्रयोग या नये विचार से परे हो जाते हैं। यही कारण है कि हमारे देश के बौद्धिक चिंतक जिस विषय का निर्माण करते हैं उस पर दशकों तक बहस चलती है फिर उन्हें स्वामित्व में रखने वाले राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष अपना नाम निरंतर चर्चा में देख प्रसन्न भी होते हैं। इधर अब यह भी बात समाचार पत्र पत्रिकाओं में आने लगी है कि इन्हीं बौद्धिक चिंतकों के सामाजिक, आर्थिक शिखर पुरुषों से इतने निकट संबंध भी होते हैं कि वह अपनी व्यवसायिक, राजनीतिक तथा अन्य गतिविधियों के लिये उनसे सलाह भी लेते हैं-यह अलग बात है कि इसका पता वर्षों बाद स्वयं उनके द्वारा बताये जाने पर लगता है। यही कारण है कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव की बात तो सभी करते हैं पर जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके पास कोई चिंतन नहीं है और उनके आत्मीय बौद्धिक लोगों के पास चिंतन तो है पर उसमें बदलाव का विचार नहीं है। बदलाव लाने के लिये सभी तत्पर हैं पर स्वयं कोई नहीं लाना चाहता क्योंकि उसे उसमें अपने अस्तित्व बने रहने की गुंजायश नहीं दिखती।
लार्ड मैकाले वाकई एतिहासिक पुरुष है। उसने आज की गुलाम शिक्षा पद्धति का अविष्कार भारत पर अपने देश का शासन हमेशा बनाये रखने के लिये किया था पर उसने यह नहीं सोचा होगा कि उसके शासक यह देश छोड़ जायेंगे तब भी उनका अभौतिक अस्तित्व यहां बना रहेगा। इस शिक्षा पद्धति में नये चिंतन का अभाव रहता है। अगर आपको कोई विचार करना है तो उसके लिये आपके सामने अन्य देशों की व्यवस्था के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे या फिर विदेशी विद्वानों का ज्ञान आपके सामने रखा जायेगा। भारतीय सामाजिक सदंर्भों में सोचने की शक्ति बहुत कम लोगों के पास है-जो कम से कम देश में सक्रिय पेशेवर बुद्धिजीवियों के पास तो कतई नहीं लगती है।
इसका कारण यही है कि संगठित प्रचार माध्यमों-प्रकाशन संस्थान, टीवी चैनल और रेडियो-पर अभिव्यक्ति में भी एक तरह से जड़वाद हावी हो गया है। आपके पास कोई बड़ा पद, व्यवसाय या प्रतिष्ठा का शिखर नहीं है तो आप कितना भी अच्छा सोचते हैं पर आपके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा जितना पेशेवर बौद्धिक चिंतकों को दिया जाता है। आप बहुत अच्छा लिखते हैं तो क्या आपक पत्र संपादक के नाम पत्र में छपेगा न कि किसी नियमित स्तंभ में। कई बार टीवी और रेडियो पर जब सम सामयिक विषयों पर चर्चा सुनते हैं तो लोग संबंधित पक्षों पर आक्षेप, प्रशंसा या तटस्थता के साथ अभिव्यक्त होते हैं। किसी घटना में सामान्य मनुष्य की प्रकृतियों और उसके कार्यों के परिणाम के कारण क्या हैं इस पर कोई जानकारी नहीं देता। एक बात याद रखना चाहिये कि एक घटना अगर आज हुई है तो वैसी ही दूसरी भी कहीं होगी। उससे पहले भी कितनी हो चुकी होंगी। ऐसे में कई बार ऐसा लगता है कि यह विचार या शब्द तो पहले भी सुने चुके हैं। बस पात्र बदल गये। ऐसी घटनाओं पर पेशेवर ंिचंतकोें की बातें केवल दोहराव भर होती है। तब लगता है कि चितकों के शब्द वैसे ही हैं जैसे पहले कहे गये थे।
चिंताओं की अभिव्यक्ति को चिंतन कह देना अपने आप में ही अजीब बात है। उनके निराकरण के लिये दूरगामी कदम उठाने का कोई ठोस सुझाव न हो तो फिर किसी के विचार को चिंतन कैसे कहा जा सकता है। यही कारण है कि आजकल जिसे देखो चिंता सभी कर रहे हैं। सभी को उम्मीद है कि समाज में बदलाव आयेगा पर यह चिंतन नहीं है। जो बदलाव आ रहे हैं वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से हैं न कि किसी मानवीय या राजकीय प्रयास से। हालांकि यह लेखक इस बात से प्रसन्न है कि अब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शिखर पर कुछ ऐसे लोग सक्रिय हैं जो शांति से काम करते हुए अभिव्यक्त हो रहे हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। फिर मुश्किल यह है कि बौद्धिक चिंतकों का भी अपना महत्व है जो प्रचार माध्यमों पर अपनी ढपली और अपना राग अलापते हैं। फिर आजकल यह देखा जा रहा है कि प्रचार माध्यमों में दबाव में कार्यकारी संस्थाओं पर भी पड़ने लगा है।
आखिरी बात यह है कि देश के तमाम बुद्धिजीवी समाज में राज्य के माध्यमों से बदलाव चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है राज्य का समाज में कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिये। समाज के सामान्य लोगों को बुद्धिहीन, आदर्शहीन तथा अकर्मण्य मानकर चलना अहंकार का प्रमाण है। एक बात तय रही कि दुनियां में सभी अमीर, दानी ओर भले नहीं हो सकते। इसके विपरीत सभी खराब भी नहीं हो सकते। राजनीतिक, आर्थिक, और सामजिक शिखर पर बैठे लोग भी सभी के भाग्यविधाता नहीं बल्कि मनुष्य को निचले स्तर पर सहयेाग मिलता है जिसकी वजह वह चल पाता है। इसलिये देश के बुद्धिजीवी अपने विचारों में बदलाव लायें और समाज में राज्य का हस्तक्षेप कम से कम हो इसके लिये चिंतन करें-कम से कम जिन सामाजिक गतिविधियों में दोष है पर किसी दूसरे पर इसका बुरा प्रभाव नहीं है तो उसे राज्य द्वारा रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
भारत के सर्वश्रेष्ठ व्यंगकार स्वर्गीय शरद जोशी जी ने अपने एक व्यंग्य में बरसों पहले लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरतस नहीं है। जो लोग यह काम करते हैं उनके पास लूटमार करने के लिये बहुत अमीर और बड़े लोग मौजूद हैं ऐसे में हम पर वह क्यों दृष्टिपात करेंगे।’ कहने का तात्पर्य यह है कि आम आदमी इसलिये जिंदा है क्योंकि सभी आपस में मिलजुलकर चलते हैं न कि राज्य द्वारा उनको कोई प्रत्यक्ष मदद दी जाती है। ऐसे में समाज सहजता से चले और उसमें आपसी पारिवारिक मुद्दों पर कानून न हो तो ही अच्छा रहेगा क्योंकि देखा यह गया है कि उनके दुरुपयोग से आपस वैमनस्य बढ़ता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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तयशुदा लड़ाई-हिन्दी लघुकथा (fix religion war-hindi short story)


वह डंडा लेकर उस मैदान में लड़ने पहुंचे। यह मैदान ‘धर्मकुश्ती’ के लिये विख्यात था। मैदान के मध्य में उन दोनों ने अपने अपने धर्म का नाम लेकर लड़ाई शुरु की। पहले एक दूसरे पर डंडे से प्रहार करते-साथ में अपने धर्म की जय भी बोलते जाते। डंडे से डंडे टकराते। वह उनको चलाते चलाते थक गये तब वह डंडे फैंककर दोनों मल्लयुद्ध करने लगे। एक दूसरे पर घूंसे बरसाते जाते। काफी जमकर कुश्ती हुई। मगर कोई नहीं जीता। वह थककर वहीं बैठ गये। उनके हाथ पांव में घावों से रक्त भी बहता आ रहा था।
उनको प्यास लगी। वहीं से कुछ दूर मैदान के किनारे बने चबूतरे पर एक ज्ञानी भी बैठा था जिसके साथ पानी पिलाने वाला एक शिष्य था। अपने उसी शिष्य से उस ज्ञानी से कहा कि‘जाओ उनको पानी पिलाओ। अब वह थककर चूर होकर बैठे हैं।
वह पानी लेकर उनके पास पहुंचा और दोनों को ग्लास भरकर देने लगा। धर्मयोद्धाओं में से एक ने उससे पूछा-‘तुझे कैसे मालुम कि हमें पानी की प्यास लगी है।’
उस शिष्य ने कहा-‘यह मैदान धर्मकुश्ती के लिये विख्यात है। यहां आप जैसे अनेक लोग आते हैं। हमारे ज्ञानी जी यहां रोज आकर बैठते हैं क्योंकि उनको मालुम है कि यहां आकर धर्म कुश्ती करने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा पर प्यास तो योद्धाओं उनको लगेगी। वह परेशान न हों इसलिये मुझे भी साथ रखते हैं ताकि उनको पानी दे सकूं।’
दूसरे ने पूछा-‘तेरा धर्म क्या है?’
शिष्य ने जवाब दिया-‘पानी पिलाना।’
पहले ने कहा-‘यह भी कोई धर्म है?’
शिष्य ने कहा-‘हमारे गुरुजी कहते हैं कि आज के अक्षरज्ञानी विद्वानों ने कुश्ती प्रदर्शन के लिये धर्मों का नाम रख लिया है। मनुष्य का आचरण, व्यवहार, कर्म तथा विचार से ही पता लगता है कि वह धर्मी है या अधर्मी।
पहले धर्म के नाम पर बांटकर लोगों पहले राज्य किया जाता है आज व्यापार भी किया जाता है। आप यहां कुश्ती करने आये कल यह खबर सभी जगह चमकेगी तो बताओ खबरफरोशों   का धंधा हुआ कि नहीं।’
उन दोनों ने पानी पिया और सुस्ताने लगे। उसी समय एक आदमी आया और बोला-‘शांति रखो! शांति रखो। सभी धर्म एक समान है। सभी धर्म शांति, अहिंसा और प्रेम का संदेश देते हैं।’
इससे पहले वह महायोद्धा कुछ कहते वह चला गया। इस तरह चार लोग शांति संदेश देकर चले गये। एक महायोद्धा ने शिष्य से पूछा-‘यह लोग कौन हैं?’
शिष्य ने कहा-‘‘ इनके नाम भी कल अपनी खबर के साथ देख लेना। यह पंच लोग हैं जो इस बात का इंतजार करते हैं कि कब यहां कुश्ती हो और शांति संदेश सुनाने पहुंच जायें। यह शांति सन्देश देकर अपना धर्म निभाते  हैं।  वैसे यह भी लोग नहीं जानते कि धर्म क्या है?’
दूसरे महायोद्धा ने कहा-‘पर इनका शांति संदेश तो ठीक लगता है। तुम्हारे गुरु जी किस धर्म को मानते हैं’।’
शिष्य ने कहा-‘वह ज्ञानी हैं और वह कहते हैं कि हमारे महापुरुषों तो अच्छे आचरण, व्यवहार, कर्म तथा सुविचार को ही धर्म मानते हैं और इसके विपरीत अधर्म। मेरा धर्म है प्यासे को पानी पिलाना और उनका धर्म है ज्ञान देना।’
एक महायोद्धा ने कहा-‘हम उनसे ज्ञान लेना चाहते हैं।’
शिष्य ने कहा-‘यह उनका ज्ञान देने का समय नहीं है। वह तो यहां इसलिये आते हैं ताकि ऐसी कुश्तियों से कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें। यहां आकर योद्धा आपस में मूंहवाद भी करते हैं। अपने अपने तर्क देते हैं उन्हें सुनकर वह अपना मंतव्य निर्धारित करते हैं। अब आप बाहर जाकर अपने जख्मों का इलाज कराओ। वहां भी एक चिकित्सक हैं जो सेवा भाव से धर्म कुश्ती में घायल होने वालों का इलाज करते हैं।’
वह दोनों लड़खड़ाते हुए बाहर चल दिये। चलते चलते भी दोनों एक दूसरे को गालियां देते रहे।
इधर यह शिष्य अपने गुरू के पास लौटा। गुरू ने उससे पूछा-‘उनको ठीक ढंग से पानी पिलाये आये?’
‘हां, गुरुजी, मैंने अपना धर्म निभा दिया।’शिष्य ने कहा।
गुरुजी अपने ध्यान में लीन हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली तो इधर अचानक शिष्य की नजर उन दो डंडों पर पड़ी जो दोनों योद्धा उस मैदान में छोड़ गये थे। वह बोला-‘गुरूजी! उनके डंडे छूट गये हैं। वह ले जाकर उनको वापस कर आता हूं। वह जरूर उसी डाक्टर के पास होंगे।’
गुरुजी ने कहा-‘रहने दे! डंडे अब उनके किसी काम के नहीं है। वह दोनों शांत हो गये हैं। अगर डंडा हाथ में लेंगे तो कहीं उनकी आग फिर भड़क उठी तो गलत होगा। तेरा काम पानी पिलाना है न कि आग लगाना।’
शिष्य ने कहा-‘नहीं गुरुजी, आपने कहा है कि हर किसी की मदद करना चाहिये। इन डंडों को वापस करना अच्छा होगा।’
इससे पहले गुरुजी कुछ समझाते वह भाग कर चला गया। कुछ देर बाद शिष्य लौटा तो उसके बदन पर भी पट्टी बंधी हुई थी। गुरुजी के कारण पूछने पर वह बोला-‘वह दोनों अपने जख्मों पर पट्टी बंधवा चुके थे। जब मैंने जाकर उनको डंडे दिये तो दोनों ने यह कहते हुए मुझ पर डंडे बरसाये कि तू हमारी इजाजत के बगैर हमारी कुश्ती देख कैसे रहा था?’
गुरुजी ने कहा-‘मैंने तुझसे कहा था कि तेरा धर्म पानी पिलाना पर तू आग लगाने पहुंच गया। यह धर्म परिवर्तन करना ही तेरे लिये घातक रहा। तेरे संस्कारों में डंडा चलाना नहीं लिखा तो तू चला भी नहीं सकता। इसलिये उसे हाथ लगाना भी तेरे लिये अपराध है। फिर तू उन लोगों की संगत करने गया जिनके संस्कार तेरे ठीक विपरीत हैं। तू धर्म ईमानदारी से निभाता है उन धर्मकुश्ती करने वाले योद्धाओं से पानी पिलाने तक ही तेरा संबंध ठीक था। इससे आगे तो यही होना था।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

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प्रत्याशी पति-हिन्दी व्यंग्य लेख


उस दिन एक आटो रिक्शा से बार बार लाउडस्पीकर पर दोहराया जा रहा था कि अमुक महिला को पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाईये। पहली बार जब कान में यह शब्द गूंजा तो हमें पार्षद पद की जगह पति शब्द सुना ही दिया। फिर जब दूसरी बार ध्यान दिया तो पता लगा कि पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाने की अपील की जा रही है। स्थानीय निकायों में पचास प्रतिशत महिलाओं के लिये सुरक्षित रखे गये हैं। हमें इस निर्णय के श्रेष्ठ या गौण होने की मीमांसा नहीं कर रहे क्योकि एक आम आदमी के लिये बस इतना ही काफी है कि वह एक दिन मोहर लगाकर अपने काम में जुट जाये। हम भी यही करते हैं। जिस तरह फिल्म, व्यापार, और पत्रकारिता में नित परिवर्तन होते हैं क्योंकि इनका संबंध लोगों की रुचियों और मानसिकता को प्रभावित करने सै है तब खुली लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नीरसता के वातावरण को सरस बनाने के लिये इस तरह के परिवर्तन करना भी स्वाभाविक लगता हैं। भले ही यह प्रक्रिया एक व्यवसाय, फिल्म या पत्रकारिता जैसी न हो पर चूंकि लोगों में रुचि हमेशा बनी रहे इसलिये ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसका परिणाम भी परिलक्षित होता है।

स्थानीय चुनावों में वास्तव ही एक अलग किस्म का वातावरण दिखने लगा है। महिलायें चुनाव लड़ रही हैं, यह देखकर खुशी होती है पर कुछ ऐसी बातें होती हैं जो कभी हास्य तो कभी करुणा का भाव पैदा करती हैं। उस दिन एक मित्र रास्ते में मिले। वह पास के ही शहर में जा रहे थे। हमसे अभिवादन करने के बाद वह तत्काल बोले-‘‘यार, आज जरा जल्दी में हूं। घर जा रहा हूं। भाईसाहब पार्षद के लिये खड़े हुए हैं। उनके प्रचार का काम मैं ही देख रहा हूं। मेरा पूरा परिवार वहीं है और अब मैं भी जा रहा हूं।’
हमने कहा-‘अच्छा, चलो कोई बात नहीं, अगर आपके भाई पार्षद बन जायें तो अच्छी बात है।’
वह कुछ सोचते दिखे फिर बोले-दरअसल, भाईसाहब नहीं बल्कि भाभीजी खड़ी हैं। महिलाओं के लिये सुरक्षित स्थान है तो भाईसाहब तो खड़े नहीं हो सकते थे इसलिये उनको खड़ा करना पड़ा। वैसे हमारी भाभी तो अभी तक घर गृहस्थी संभालती आई हैं इसलिये भाई साहब को अपनी राजनीतिक जमीन पर उनको मैदान में उतारना पड़ा।’
जब वह अपनी बात कह रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई संकोच उनके मन में था जो चेहरे पर दिख रहा था।
एक अन्य मित्र ने भी अपना एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनके पड़ौस में ही एक महिला पार्षद पद की प्रत्याशी हैं। वह भी एक सामान्य गृहिणी हैं। अगर पड़ौसी चुनाव लड़ता तो कोई बात नहीं पर उसकी पत्नी चुनाव लड़ रही है और वह अपनी पड़ोसनों को भी प्रचार के लिये साथ लेती है। संयोग से उसी जगह उन्ही मित्र के एक पुराने परिचित की भी पत्नी चुनाव लड़ रही है। वह प्रत्याशी पति-हां, यही शब्द ठीक लगता है-उनके घर आया और बोला ‘‘यह तो मैं भी समझ रहा हूं कि पड़ौस की वजह से आपको उनका प्रचार करना ही है पर आप वोट मुझे ही देना।’
उन मित्र ने कहा-‘आपको!
वह प्रत्याशी थोड़ा हकलाते हुए बोले-हां, मतलब मेरी पत्नी के नाम पर मुहर लगाना।’
मतलब उनकी पत्नी के नाम पर मोहर लगाना उनको वोट देना ही था।
एक अन्य मित्र की एक रिश्तेदार चुनाव लड़ी रही है। वह तो साफ कह देती हे कि हमारा तो नाम है पर हमारे पति ही असल में चुनाव लड़ रहे हैं। वरना हम क्या जानते है इस राजनीति में।’
पुरुषों के मुकाबले महिलायें बहुत सरल और कोमल स्वभाव की होती हैं। छल, कपट, धोखा तथा बेईमानी से तो उनका करीब करीब नाता ही नहीं होता। मगर राजनीति का खेल अलग ही है। जो महिलायें राजनीति की अनुभवी हैं उनके लिये प्रचार वगैरह कोई असहज काम नहीं होता जबकि ऐसी सामान्य गृहणियां जो बरसों तक पर्दे में रही पर अब भले ही नाम के लिये प्रत्याशी बनती हैं तो उनको घर से बाहर निकलना ही पड़ता है। हालत यह हो जाती है कि जिन घरों में पर्द का बोलाबाला है वहां भी पुरुष अपनी राजनीतिक जमीन बचाने या बनाने के लिये इस परंपरा का त्याग करने के लिये प्रेरित करते है।
जगह जगह लगे बैनरों में प्रत्याशी महिलाओं के फोटो हैं। जिन महिलाओं ने अपनी राजनीतिक जमीन बनाय हैं वह तो अपना नाम ही लिखती हैं पर जिनको पति के नाम पर वोट चाहिये उनके नाम पीछे वह जुड़ा रहता है। जिनमें से तो कई ऐसी हैं जिनके परिवार वाले अगर कहीं उनके फोटो सार्वजनिक स्थान पर देखें तो आसमान सिर पर उठा डालें पर अब उनके पुरुष सदस्यों ने स्वयं ही लगाये हैं। फोटो में अधिकतर के सिर पर पल्लू हैं और मांग में सिंदूर भरा हुआ है। सच बात तो यह है कि सभी प्रत्याशी महिलायें भली हैं और अगर जैसा कि साफ सुथरी छबि की बात की जाती है तो सभी उस पर खरी उतरती हैं।
ऐसे में लगता है कि सभी जीत जायें मगर लोकतंत्र की भी सीमा है। वार्ड में एक को चुना जाना है और शहर का महापौर भी एक ही हो सकता है।
किसी भी महिला प्रत्याशी की आलोचना करने का मन भी नहीं करता। अगर पुरुष हो तो उस पर तो दस प्रकार की टिपपणियां की जा सकती हैं पर अपने घर की गृहस्थी को अपनी खून पसीने से सींच चुकी इन महिलाओं को इस तरह प्रचार के लिये जूझते देख मन द्रवित हो उठता है। संभव है कि इनमें कुछ महिलायें ऐसी हों जो घर का काम करने के बाद प्रचार के लिये जूझती हों। यह भी संभव है कि उन्होंने चुनाव के समय तक अपने मायके या ससुराल पक्ष से किसी को घर के काम के लिये बुलाया हो। इसके लिये उनके रिश्तेदार भी तैयार हुए हो। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि पुरुष आम तौर से घर के बाहर रहते हुए अपने संपर्क व्यापक दायरे में बनाये रहता है और जब वह चुनाव लड़ता है तब वह पड़ौसियों और रिश्तेदारों पर बोझ नहीं डालता। इसके विपरीत महिलायें घर में रहते हुए अपने आसपास आत्मीय रिश्ते बना लेती हैं। घर में सीमित महिलायें व्यापक दायरे में संपर्क नहीं बना पाती पर अपने आसपास के उनके आत्मीय रिश्ते पुरुषों के औपचारिक रिश्तों से अधिक मजबूत तथा सार्थक होते हैं इस कारण उनकी आदत भी हो जाती है कि जब कहीं सार्वजनिक कार्यक्रम होता है तो वह अपने पड़ौस और रिश्तदारेां के समूह के साथ ही वहां पहुंचती हैं। ऐसे में अगर सामान्य गृहस्थ महिलायें मैदान में उतरे और अपने रिश्तेदारों के साथ पड़ौसियों को मोर्चे पर लेकर न निकले यह संभव नहीं है। एक पुरुष को मित्र, रिश्तेदार और पड़ोसी कोई भी बहाना बनाकर मना कर सकता है पर महिलाओं को कौन मना कर सकता है क्योंकि उनके आत्मीय संबंध एक आदत बन जाते हैं। कई गृहणियों को यह पार्षद पद का संघर्ष बैठे बिठायें मुसीबत लगता होगा। यह अलग बात है कि कुछ इसे अपने आत्मीय लोगों के बीच व्यक्त करती होंगी तो कुछ नहीं।
वैसे सरकार या प्रशासन कोई अदृश्य संस्था नहीं है बल्कि उसे वेतनभोगी लोग ही चलाते हैं जो कि अपने हिसाब से सारा काम करते हैं। उनको अपने हिसाब से चलाना कोई आसान काम नहीं है। यह सामान्य गृहणियां इस प्रशासन तंत्र को केसे साधेंगी यह प्रश्न अपने आप में गौण है क्योंकि चुने जाने के बाद उनके पति ही ‘पार्षद पति’ बनकर यह काम संभाल लेगें। बाकी तो छोड़िये आसपास के लोग भी अपने पार्षद के नाम पर उनके पति की ही नाम लेंगे जैसे गांवों में अभी तक सरपंच का नाम पूछने पर बताया जाता है कि अमुक पुरुष है। बाद में पता लगता है कि औपचारिक रूप से उनकी पत्नी ही सरपंच है। कहने का तात्पर्य यह है कि बाद में यह गृहणियां किसी अन्य कार्य के तनाव से मुक्त रहती हैं। अलबत्ता चुनाव के समय उनके लिये यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी हो जाती है कि वह बाहर निकल कर अपने पति को पार्षद पति बनाने के लिये प्रयास करें ंवै से असली महारानी तो गृहणी ही होती है । पुरुष महाराजा हो साहूकार बाहर कितना भी कद्दावर दिखता हो पर घर में केवल पति का पत्नी होता है। दरअसल यह पार्षद पति शब्द एक ऐसी प्रत्याशी महिला के शब्दों से मिला जो स्वयं अपनी राजनीतिक जमीन बना चुकी है। उसके समर्थक ही कह रहे हैं कि ‘पार्षद पति’ नहीं बल्कि अपने यहां खुद काम करने वाला ‘पार्षद’ चुनो। बहरहाल लोकतंत्र में एक यह नजारा भी देखने में आ रहा है जिसे देखकर मन में उतार चढ़ाव तो आता ही है। शहरों में महिलाओं की यह भागीदारी दिलचस्प और रोमांचक तो दिखती है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अपनी भाषा, गूंगी भाषा-हास्य व्यंग्य (apni bhasha,goongi bhasha-hasya vyangya)


शाम के समय दीपक बापू अपने घर से बाहर निकल एक निकट के उद्यान में हवा खाने पहुंचे। अंदर प्रवेश करने से पहले ही द्वार पर खड़े होकर उन्होंने देखा कि आदमी को देखा जिसकी पीठ उनकी तरफ थी। उसके बाल कंधे गर्दन तक लटके हुए थे। सिर और शरीर चैड़ा था। उसने चूड़ीदार पायजामा और चमकदार पीला कुर्ता पहने रखा था। दीपक बापू का अनुमान था कि वह आलोचक महाराज ही होंगे इसलिये वह अंदर जायें कि नहीं इस विचार में खड़े हो गये। वह नहीं चाहते थे कि आलोचक महाराज के कटु शब्द वहां घूम रहे अन्य लोगों के सामने सुनकर अपनी भद्द पिटवायें।
इससे पहले वह कोई निर्णय करते उस आदमी ने अपना मुंह फेर कर उनकी तरफ किया। दीपक बापू की घिग्घी बंध गयी। वह आलोचक महाराज ही थे। दीपक बापू खीसें निपोड़ते हुए उनके पास पहुंच गये और हाथ जोड़कर बोले-नमस्ते महाराज, यह आप तफरी के लिये आये हैं! अच्छा है, इससे तंदुरस्ती बढ़ती है।’
आलोचक महाराज ने बिना किसी भूमिका बांधे कहा-‘हम तो पहले ही तंदुरस्त हैं। देखो इतनी बड़ी देह के साथ ही समाज में भी हमारी इज्जत है! तुम्हारी तरह कीकड़ी कवि नहीं है कि अनजान होकर इधर बाग में टहलने आयें। हमें पता था कि तुम शाम को यहां आते हो इसलिये ही तुम्हारा इंतजार कर रहे थे।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज, अभी तो हम तफरी के मूड में हैं फिर कभी बात करेंगे।’
आलोचक महाराज बोले-‘वह फंदेबाज तुम्हारा दोस्त है न! उसे जरा समझा देना। अपने किये की माफी मांग ले वरना हम तुम्हारी कविताओं को अखबार में छपना बंद करवा देंगे।’
दीपक बापू ने अपनी टोपी उतारी और सिर पर हाथ फेराने लगे। आलोचक महाराज बोले-डर गये न!’
दीपक बापू बोले-‘नहीं डरे काहे को? हम तो यह सोच रहे हैं कि कहां आपने मुसीबत ले ली। फंदेबाज हमारे गले में दोस्त की तरह फंसा है वरना हमारा उससे क्या वास्ता? उसकी बेवकूफियों की वजह से हम हास्य कवितायें लिखते हैं वरना तो जोरदार साहित्यकार होते! आप उससे सुलह कर लीजिये वरना वह आपको परेशान करेगा। वैसे आपका झगड़ा हुआ किस बात पर था?’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हारी बात को लेकर। वह एक कार्यक्रम में पहुंच गया। वहां हमने तुम्हारा उदाहरण देकर नये कवियों को समझाया कि देखो उस फ्लाप दीपक बापू को! कभी एक विषय पर ढंग से नहीं लिखता। योजनाबद्ध ढंग से नहीं लिखता। बस वह फंदेबाज मंच पर चढ़ आया और हमें लात घूंसे दिखाने लगा। कुछ बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोल रहा था। हमने तो पहचान लिया क्योंकि उस लफंगे को कई बार तुम्हारे साथ साइकिल पर पीछे बैठे जाते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘शर्मनाक! उसने आप जैसे महान आदमी को अपनी गूंगी मातृभाषा में इतनी भद्दी गालियां दी। हम तो यह गालियां अपनी जुबान से भी नहीं निकाल सकते।’
आलोचक महाराज चैंके-‘वह गालियां दे रहा था! उसकी भाषा अपने समझ में नहीं आयी। हमने तो उसे कई बार अपनी भाषा में बोलते देखा है।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज उसकी मात्ृभाषा गूंगी है। उसी मेें वह आपको गालियां दे रहा था।
आलोचक महाराज-‘यह कौनसी भाषा है?’
दीपक बापू-‘हमें नहीं मालुम।’
आलोचक महाराज-‘तो तुम्हें मालुम क्या है?’
दीपक बापू-‘यही कि उसकी मातृभाषा गूंगी है। जब वह गुस्से में होता है तब यही भाषा बोलता है।’
आलोचक महाराज बोले-‘उसका मोबाइल नंबर दो। अभी उसको फोन करता हूं और जो शराब की बोतल के पैसे उसको दिये वापस मांगता हूं। मैंने यह सोचकर उस कार्यक्रम में उससे हंगामा फिक्स किया था कि वह तुम्हारा दोस्त है। इससे तुम्हें भी प्रचार मिल जायेगा और तुम कहते हो कि दोस्त नहीं है तो अब देखो उसकी क्या हालत करता हूं? हमें गूंगी भाषा में गालियां देता है। देखो तुम अपनी भाषा वाले हो। हमारा साथ देना। उसके खिलाफ बयान अखबार में देना। यह गूंगी भाषा वाला समझता क्या है?
दीपक बापू ने रुमाल आलोचक महाराज की तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘लीजिये महाराज, आवेश में आपका पसीना निकल रहा है। यह आपका हंगामा फिक्स था तो फिर हमेें काहे धमकाने आये।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘उसने यह शर्त रखी थी कि उसकी तरफ से तुम्हारे प्रति वफादारी का प्रमाण पत्र पेश करूं। मगर अब मामला भाषा का है। तुम हम एक हो जाते हैं।’
दीपक बापू बोले-‘कतई नहीं महाराज! आपका झगड़ा हुआ है और इसमें हम कतई नहीं पड़ेंगे। झगड़ा किसी बात पर और नाम जाति, भाषा और धर्म का लेकर लोगों को लड़ाने का प्रयास कम से कम हमारे साथ तो नहीं चलेगा। रहा अखबार में छपने का सवाल तो हम आपके पास नहीं लायेंगे अपनी रचना!
आलोचक महाराज बोले-‘नहीं तुम लाना! पर हम नहीं छपवायेंगे अखबार में। जब लाओगे और नहीं छपेगा तभी तो हमारे गुस्से का पता चलेगा? अपनी भाषा में हमारी जो इज्जत है उसकी परवाह न करने का परिणाम कैसे चलेगा तुमको?’
दीपक बापू बोले-‘महाराज हमें पता है! आप हमारी कविताओं के विषय चुराकर दूसरों को सुनाकर उनसे दूसरी रचनायें लिखवाते हो। आपके पास विषय चिंतन तो है ही नहीं। एकाध बार साल में कहीं रचना छपवाकर एहसान हम पर करते हैं! नमस्कार हम चलते हैं! वैसे आप इस विषय को यहीं बंद कर दें क्योंकि आपने यह राज उजागर कर ही दिया है कि वह हंगामा फिक्स था!’
दीपक बापू घर वापस चल पड़े। रात हो चली थी। इधर दारु की बोतल के साथ फंदेबाज भी उनको अपने ही घर के बाहर खड़ा मिला। उनको देखते ही बोला-‘आओ दीपक बापू। आज तुम्हारे लिये जोरदार खबर लाया हूं। आज मैंने आलोचक महाराज की क्या धुर उतारी है! तुम देखते तो वाह वाह कर उठते! इसी खुशी में यह बोतल खरीद कर अपने घर ले जा रहा था। सोचा तुम्हें बताता चलूं।’
दीपक बापू हंसकर बोले-‘हमें पता है! आलोचक महाराज ने गुस्से में बता दिया कि यह हंगामा फिक्स था! अब तुम अपनी सफाई मत देना।’
फंदेबाज बोला-‘उसने ऐसा किया? अभी जाकर उसकी खबर लेता हूं।’
दीपक बापू बोले-‘यह बोतल घर ले जाकर पीओ। वरना यह भी छिन जायेगी। वह बहुत गुस्से में हैं। वहां जो तुम बुर्र बुर्र और हुर्र हुर्र बोले रहे थे उसका मतलब उनके समझ में आ गया है।’
फंदेबाज बोला-‘पर वह तो मैं ऐसे ही कर रहा था1’
दीपक बापू-‘हमने उनसे कह दिया कि वह अपनी मात्ृभाषा गूंगी में आपको गालियां दे रहा था। तुम कहते भी हो कि मेरी मातृभाषा गूंगी है!’
फंदेबाज-‘वह तो इसलिये कि मेरी माताजी गूंगी है। यह कोई अलग से भाषा नहीं है। तुमने यह क्या आग लगाई।’
दीपक बापू बोले-‘लगाई तो तुमने! हमने तो बुझाई। दोनों ने हमारा नाम लेकर हंगामा किया और हमने दोनों की कराई लड़ाई।’
दीपक बापू अंदर चले गये इधर फंदेबाज बुदबुदाया-‘अब इसका क्या नशा चढ़ेगा! इनको तो पता चल गया कि यह हंगामा फिक्स था! फिर यह अपनी भाषा और गूंगी भाषा का मुद्दा चिपकाये आये हैं। वह आलोचक महाराज पूरा खब्ती है। खबरों में छपने के लिये वह कुछ भी कर सकता है। इससे पहले कि वह कुछ करे उसे समझाये आंऊ कि गूंगी कोई अलग से भाषा नहीं है। इस दीपक बापू का क्या? यह तो हास्य कविता लिखकर फारिग हो लेगा। मेरी शामत आयेगी। यह बोतल भी आलोचक महाराज को वापस कर आता हूं
वह तुरंत वहां से चल पड़ा।
————
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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आत्मप्रचार का प्रयास-आलेख (atma prachar ka prayas-hindi lekh)


अगर सभी लोग जीवन सहज भाव से व्यतीत करें तो शायद उनके बीच कोई विवाद ही न हो। मगर यह संभव नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग बाह्यमुखी होते हैं और उनमें कुछ ऐसे होते हैं जो अपने व्यवसाय के हित के लिये शोर शराबा करते हुए लोगों का ध्यान अपनी ओर बनाये रखते हैं। आज के आधुनिक युग में इंटरनेट, टीवी, एफ.एम. रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं में विज्ञापनों का भंडार है उनका लक्ष्य केवल एक ही है कि किसी तरह लोगों को उलझाये रखा जाये। ऐसे में श्रीगीता में वर्णित सहज ज्ञान योग ही वह शक्ति है जो व्यक्ति को आत्मकेंद्रित बनाकर दूसरों के जाल में फंसने से बचा सकती है। यही कारण है कि जितनी उपभोग की प्रवृत्तियां के साथ स्वाभाविक रूप से योग का प्रचार भी बढ़ रहा है। दरअसल यही योग भी एक विक्रय योग्य वस्तु बन गया है यही कारण कि विश्व विख्यात योग शिक्षक भी लोगों के केंद्र बिन्दू में आ गये हैं और लोग उनको अपने कार्यक्रमों में देखकर एक सुख की अनुभूति करते हैं। योग शिक्षक भारतीय धर्म के प्रतीक हैं और उन्होंने एक गैर हिन्दू कार्यक्रम में शामिल होकर यह सािबत भी किया कि
उनके लिये पूरा विश्व एक परिवार है। यहां योग गुरु को गलत ठहराना ठीक नहीं है पर कुछ सवाल ऐसे हैं उनके जवाब में हम ऐसे विचारों तक पहुंच सकते हैं जिनसे सहजयोग के सिद्धांत का विस्तार हो।

यह विश्व विख्यात योग शिक्षक कहने के लिये भले ही गैर हिन्दूओं के कार्यक्रम में गये हों पर वह सभी इसी देश के ही बाशिंदे हैं। मुख्य बात यह है कि इस तरह के कार्यक्रम में उनको बुलाकर आयोजक सिद्ध क्या करना चाहते हैं?
अधिक चर्चा से पहले एक बात स्पष्ट करें कि आम भारतीय अपनी रोजमर्रा के संघर्ष में ही व्यस्त है। किसी भी जाति, धर्म और भाषा समूह के आम आदमी के दिल में झांकिये वहां उसकी निज समस्यायें डेरा डाले बैठे रहती हैं। इनमें से कुछ लोग टीवी तो कुछ समाचार पत्रों में समाचार पढ़कर ऐसे जातीय, भाषाई और धार्मिक समूहों के सम्मेलनों की जानकारी पढ़ते हैं। अगर उनका भावनात्मक जुड़ाव होता है तो कुछ देर सोचकर भूल जाते हैं। आम आदमी में इतना सामथ्र्य नहीं है कि वह ऐसे कार्यक्रमों के लिये धन और समय का अपव्यय करे। मगर चूंकि उसकी सोच में जातीय, धार्मिक और भाषाई विभाजनों का बोध रहता है इसलिये उसका ध्यान आकर्षित करने के लिये उनके शिखर पुरुष ऐसी बैठकें कर अपनी शक्ति का बाहरी समाजों के सामने प्रदर्शन करते हैं। हर समूह के शिखर पुरुष ऐसी गतिविधियों से अपनी कथित समाज सेवा का प्रदर्शन करते हैं।

जिन लोगों ने यह कार्यक्रम किया वह एक भारतीय योग शिक्षक को बुलाकर अपने और बाहरी समाज के सामने अपनी शक्ति के प्रदर्शन करने के साथ ही अपनी छबि भी बनाना चाहते थे। वह जताना चाहते थे कि विश्व भर के प्रचार माध्यमों में छायी एक बड़ी हस्ती उनके कार्यक्रम में आयी। योग शिक्षक ने उनको क्या सिखाया या वह क्या सीखे यह इसी बात से पता चलता है कि अपने इसी सम्मेलन में एक गीत के विरुद्ध अपना निर्णय सुनाया। एक गीत से अपने समाज को डराने वाले यह लोग उस योग शिक्षक से क्या सीखे होंगे-यह आसानी से समझा जा सकता है। 1.10 अरब की इस आबादी में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। देश के एक प्रतिशत से भी कम लोग हैं जिनके पास धन अपार मात्रा में है। अगर हम आम और खास आदमी का अंतर देखें तो इतनी दूरी दिखाई देगी जितनी चंद्रमा से इस धरती की। आम आदमी के संघर्ष पर अधिक क्या लिखें? उसके दर्द का भी व्यापार होने लगा है। अगर हम जातीय, धार्मिक और भाषाई सम्मेलनों को देखें तो उसमें खास लोग और उनके अनुयायी शामिल होते हैं पर वह अपने समाज का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते हालांकि वह लोगा ऐसा भ्रम वह पैदा करते हैं। मुश्किल यह है कि यह मान लिया जाता है कि उनके पास ही समाज को नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये बाहरी समाज के शिखर पुरुष उनसे संबंध रखते हैं। आम आदमी का कोई संगठन नहीं होता तो जो बनाते हैं वह बहुत जल्दी खास बन जाते हैं उनका लक्ष्य भी यही होता है कि आम आदमी को भीड़ में भेड़ की तरह हांके।

योग शिक्षक बाकायदा उस वैचारिक सम्मेलन में गये जिसे गैर हिन्दू धर्मी लोगों का भी कहा जा सकता ह-हालांकि इस युग में यह शब्द ही मूर्खतापूर्ण लगता है पर पढ़ने वालों को अपनी बात समझाने के लिये लिखना ही पड़ता है। शायद योगाचार्य यह दिखाने के लिये गये होंगे कि इससे शायद देश में एकता का आधार मजबूत होगा। उन्होंने यह भी उम्मीद लगायी होगी कि इसमें वह उस समाज को कोई संद्रेश दे पायेंगे। उनका यह प्रयास एक सामान्य घटना बनकर रह गया क्योंकि वहां तो समाज के ऐसे शिखर पुरुषों का बाहुल्य था जो कि उनकी उपस्थिति को अपने कार्यक्रम का प्रभाव बढ़ाना चाहते थे। किसी दूसरे समुदाय के धर्माचार्य का संदेश ऐसे शिखर पुरुष कभी भी अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली का भाग नहीं बनाते। वह जानते हैं कि ऐसी जरा भी भी कोशिश उनका अपने समूह से नियंत्रण खत्म करेगी। एक व्यक्ति हाथ से निकला नहीं कि सारा समाज ही हाथ से निकल जायेगा। आखिर एक गीत से घबड़ाने वाले इतने साहसी हो भी कैसे सकते हैं।
भारतीय योग में केवल योगासन और प्राणायाम ही नहीं आते बल्कि मंत्रोच्चार भी होता है। मंत्रोच्चार में ऐसे शब्द है जिसमें देवी देवताओं की उपासना होती है-एक गीत से घबड़ाने वाले शिखर पुरुष भला दूसरे समूह के इष्टों का नाम अपने लोगों को कैसे लेने दे सकते हैं? कुल मिलाकर यह एक अर्थहीन प्रयास था। योगशिक्षक की उपस्थिति से उनकोकोई अंतर नहीं पड़ा पर आयोजकों के शिखर पुरुष एक अंतर्राष्ट्रीय हस्ती के पास बैठकर अपना वजन बढ़ाने में सफल रहे।

कहने का तात्पर्य यह है कि आम आदमी चाहे किसी भी जाति, भाषा या धर्म का हो उसके समूह के शिखर पुरुष प्रचार माध्यमों में छाये लोगों को अपने यहां बुलाकर अपना वजन बढ़ाते हैं भले ही वह उनके समुदाय का न हो-प्रचार माध्यमों में अपनी छबि बनाने के अलावा उनका कोई उद्देश्य नहीं होता। यह किसी एक समूह के साथ नहीं है बल्कि हर समूह में ऐसा हो रहा है। इसका कारण यह है कि आज की महंगाई, बेकारी, पर्यावरण प्रदूषण तथा सामाजिक कटुता ने आम आदमी को असहज बना दिया है। इसी असहजता को अधिक बढ़कार सभी समाजों को शिखर पुरुष उसे सांत्वना और साहस देने के नाम पर ऐसे सम्मेलन करते हैं पर उनका लक्ष्य केवल आत्म प्रचार करना होता है। जहां तक आदमी आदमी की जिंदगी का प्रश्न है तो वह कठिन से कठिन होती जा रही है और सभी समूहों शिखर पुरुषों के केवल अपने सदस्यों की संख्या की चिंता रहती है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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इस सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना-हास्य व्यंग्य (yah hindi sammelan-hindi hasya vyangya)


ब्लागर उस समय सो रहा था कि चेले ने आकर उसके हाथ हिलाकर जगाया। ब्लागर ने आखें खोली तो चेले ने कहा-‘साहब, बाहर कोई आया है। कह रहा है कि मैं ब्लागर हूं।’
ब्लागर एकदम उठ बैठा और बोला-‘जाकर बोल दे कि गुरुजी घर पर नहीं है।’
चेले ने कहा-’साहब, मैंने कहा था। तब उसने पूछा ‘तुम कौन हो’ तो मैंने बताया कि ‘मैं उनका शिष्य हूं। ब्लाग लिखना सीखने आया हूं’। तब वह बोला ‘तब तो वह यकीनन अंदर है और तुम झूठ बोल रहे हो, क्योंकि उसने सबसे पहले तो तुम्हें पहली शिक्षा यही दी होगी कि आनलाईन भले ही रहो पर ईमेल सैटिंग इस तरह कर दो कि आफलाईन लगो। जाकर उससे कहो कि तुम्हारा पुराना जानपहचान वाला आया है। और हां, यह मत कहना कि ब्लागर दोस्त आया है।’

ब्लागर बोला-‘अच्छा ले आ उसे।’
शिष्य बोला-‘आप   निकर छोड़कर पेंट  पहन लो। वरना क्या कहेगा।’
ब्लागर ने कहा-‘ क्या कहेगा ? वह कोई ब्लागर शाह है। खुद भी अपने घर पर इसी तरह तौलिया पहने  कई बार मिलता है। मैं तो फिर भी आधुनिक प्रकार की  नेकर पहने रहता  हूं, जिसे पहनकर लोग सुबह मोर्निंग वाक् पर जाते हैं।’
इधर दूसरे ब्लागर ने अंदर प्रवेश करते ही कहा-‘यह शिष्य कहां से ले आये? और यह ब्लागिंग में सिखाने लायक है क्या? बिचारे से मुफ्त में सेवायें ले रहे हो?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘अरे, यह तो दोपहर ऐसे ही सीखने आ जाता है। मैं तुम्हारी तरह लोगों से फीस न लेता न सेवायें कराता हूं। बताओ कैसे आना हुआ।’
दूसरे ब्लागर ने कंप्यूटर की तरफ देखते हुए पूछा-‘यह तुम्हारा कंप्यूटर क्यों बंद है? आज कुछ लिख नहीं रहे। हां, भई लिखने के विषय बचे ही कहां होंगे? यह हास्य कवितायें भी कहां तक चलेंगी? चलो उठो, मैं तुम्हारे लिखने के लिये एक जोरदार समाचार लाया हूं। ब्लागर सम्मेलन का समाचार है इसे छाप देना।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम खुद क्यों नहीं छाप देते। तुम्हें पता है कि ऐसे विषयों पर मैं नहीं लिखता।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘अरे, यार मैं अपने काम में इतना व्यस्त रहता हूं कि घर पर बैठ नहीं पाता। इसलिये कंप्यूटर बेच दिया और इंटरनेट कनेक्शन भी कटवा दिया। अब अपने एक दोस्त के यहां बैठकर कभी कभी ब्लाग लिख लेता हूं।’
पहले ब्लागर ने घूरकर पूछा-‘ब्लाग लिखता हूं से क्या मतलब? कहो न कि अभद्र टिप्पणियां लिखने के खतरे हैं इसलिये दोस्त के यहां बैठकर करता हूं। तुमने आज तक क्या लिखा है, पता नहीं क्या?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘क्या बात करते हो? आज इतना बड़ा सम्मेलन कराकर आया हूं। इसकी रिपोर्ट लिखना है।’
पहले ब्लागर ने इंकार किया तो उसका शिष्य बीच में बोल पड़ा-‘गुरुजी! आप मेरे ब्लाग पर लिख दो।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘अच्छा तो चेले का ब्लाग भी बना दिया! चलो अच्छा है! तब तो संभालो यह पैन ड्ाईव और कंप्यूटर खोलो उसमें सेव करो।’
शिष्य ने अपने हाथ में पैन ड्राईव लिया और कंप्यूटर खोला।
पहले ब्लागर ने पूछा-‘यह फोटो कौनसे हैं?
दूसरे ब्लागर ने एक लिफाफा उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा‘-जब तक यह इसके फोटो सेव करे तब तक तुम उसको देखो।
ब्लागर ने फोटो को एक एक कर देखना शुरु किया। एक फोटो देखकर उसने कहा-‘यह फोटो कहीं देखा लगता है। तुम्हारा जब सम्मान हुआ था तब तुमने भाषण किया था। शायद…………….’
दूसरे ब्लागर ने बीच में टोकते हुए कहा-‘शायद क्या? वही है।’
दूसरा फोटो देखकर ब्लागर ने कहा-‘यह चाय के ढाबे का फोटो। अरे यह तो उस दिन का है जब मेरे हाथ से नाम के लिये ही उद्घाटन कराकर मुझसे खुद और अपने चेलों के लिये चाय नाश्ते के पैसे खर्च करवाये थे। मेरा फोटो नहीं है पर तुम्हारे चमचों का…….’’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘अब मैं तुम्हारे इस चेले को भी चमचा कहूं तो तुम्हें बुरा लगेगा न! इतनी समझ तुम में नहीं कि ब्लागिंग कोई आसान नहीं है। जितना यह माध्यम शक्तिशाली है उतना कठिन है। लिखना आसान है, पर ब्लागिंग तकनीकी एक दिन में नहीं सीखी जा सकती। इसके लिये किसी ब्लागर गुरु का होना जरूरी है। सो किसी को तो यह जिम्मा उठाना ही है। तुम्हारी तरह थोड़े ही अपने चेले को घर बुलाकर सेवा कराओ। अरे ब्लागिंग सिखाना भी पुण्य का काम है। तुम तो बस अपनी हास्य कवितायें चिपकाने को ही ब्लागिंेग कहते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, यह तो है! यह तीसरा फोटो तो आइस्क्रीम वाले के पास खड़े होकर तुम्हारा और चेलों का आईस्क्रीम खाने का है। यह आईसक्रीम वाला तो उस दिन मेरे सामने रास्ते पर तुमसे पुराना उधार मांग रहा था। तब तुमने मुझे आईसक्रीम खिलाकर दोनों के पैसे दिलवाकर अपनी जान बचाई थी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘मेरे फोटो वापस करो।’
पहले ब्लागर ने सभी फोटो देखकर उसे वापस करते हुए कहा-‘यार, पर इसमें सभी जगह मंच के फोटो हैं जिसमें तुम्हारे जान पहचान के लोग बैठे हैं। क्या घरपर बैठकर खिंचवायी है या किसी कालिज या स्कूल पहुंच गये थे। सामने बैठे श्रोताओं और दर्शकों का कोई फोटो नहीं दिख रहा।’
दूसरे ब्लागर ने पूछा-‘तुम किसी ब्लागर सम्मेलन में गये हो?’
पहले ब्लागर ने सिर हिलाया-‘नहीं।’
दूसरा ब्लागर-‘तुम्हें मालुम होना चाहिये कि ब्लागर सम्मेलन में सिर्फ ब्लागर की ही फोटो खिंचती हैं। वहां कोई व्यवसायिक फोटोग्राफर तो होता नहीं है। अपने मोबाइल से जितने और जैसे फोटो खींच सकते हैं उतने ही लेते हैं। ज्यादा से क्या करना?
पहला ब्लागर-हां, वह तो ठीक है! ब्लागर सम्मेलन में आम लोग कहां आते हैं। अगर वह हुआ ही न हो तो?
दूसरे ब्लागर को गुस्सा आ गया-‘लाओ! मेरे फोटो और पैन ड्राइव वापस करो। तुमसे यह काम नहीं बनने का है। तुम तो लिख दोगे ‘ न हुए ब्लागर सम्मेलन की रिपोर्ट’।
पहला ब्लागर ने कहा-‘क्या मुझे पागल समझते हो। हालांकि तुम्हारे कुछ दोस्त कमेंट में लिख जाते हैं ईडियट! मगर वह खुद हैं! मैं तो लिखूंगा ‘छद्म सम्मेलन की रिपोर्ट!’
दूसरे ब्लागर को गुस्सा आ गया उसने कंप्यूटर में से खुद ही पेनड्राइव निकाल दिया और जाने लगा।
फिर रुका और बोला-‘पर इस ब्लागर मीट पर रिपोर्ट जरूर लिखना। हां, इस ब्लागर सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना। तुम जानते नहीं इंटरनेट लेखकों के सम्मेलन और चर्चाऐं कैसे होती हैं? इंटरनेट पर अपने बायोडाटा से एक आदमी ने अट्ठारह लड़कियों को शादी कर बेवकूफ बनाया। एक आदमी ने ढेर सारे लोगों को करोड़ों का चूना लगाया। इस प्रकार के समाचार पढ़ते हुए तुम्हें हर चीज धोखा लगती है। इसलिये तुम्हें समझाना मुश्किल है। कभी कोई सम्मेलन किया हो तो जानते। इंटरनेट पर कैसे सम्मेलन होते हैं और उनकी रिपोर्ट कैसे बनती है, यह पहले हमसे सीखो। सम्मेलन करो तो जानो।’
पहले ब्लागर ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा-ऐसे सम्मेलन कैसे कराऊं जो होते ही नहीं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘होते हैं, करना हमसे सीख लो।’
वह चला गया तो पहला ब्लागर सामान्य हुआ। उसने शिष्य से कहा-‘अरे, यार कम से कम उसके फोटो तो कंप्यूटर में लेना चाहिये थे।’
शिष्य ने कहा-‘ गुरुजी फोटो तो मैंने फटाफट पेनड्राइव से अपने कंप्यूटर से ले लिये।’
पहला ब्लागर कंप्यूटर पर बैठा और लिखने लगा। शिष्य ने पूछा’क्या लिख रहे हैं।
पहले ब्लागर ने कहा-‘जो उसने कहा था।’
शिष्य ने पूछा-‘यही न कि इस मुलाकात की बात लिख देना।’
ब्लागर ने जवाब दिया‘नहीं! उसने कहा था कि ‘इस सम्मेलन का जिक्र कहीं मत करना’।’’
……………………….
नोट-यह व्यंग्य पूरी तरह से काल्पनिक है। किसी घटना या सम्मेलन का इससे कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो यह एक संयोग होगा। इसका लेखक किसी दूसरे ब्लागर से ब्लागर से मिला तक नहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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ब्लाग लोकतंत्र का पांचवां नहीं चौथा स्तंभ ही है-आलेख (blog is forth pillar-hindi article)


भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या सात करोड़ से ऊपर है-इसका सही अनुमान कोई नहीं दे रहा। कई लोग इसे साढ़े बारह करोड़ बताते हैं। इन प्रयोक्ताओं को यह अनुमान नहीं है कि उनके पास एक बहुत बड़ा अस्त्र है जो उनके पास अपने अनुसार समाज बनाने और चलाने की शक्ति प्रदान करता है-बशर्ते उसके उपयोग में संयम, सतर्कता और चतुरता बरती जाये, अन्यथा ऐसे लोगों को इस पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जायेगा जो समाज को गुलाम की तरह चलाने के आदी हैं।

यह इंटरनेट न केवल दृश्य, पठन सामग्री तथा समाचार प्राप्त करने के लिये है बल्कि हमें अपने फोटो, लेखन सामग्री तथा समाचार संप्रेक्षण की सुविधा भी प्रदान करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम केवल प्रयोक्ता नहीं निर्माता और रचयिता भी बन सकते हैं। अनेक वेबसाईट-जिनमें ब्लागस्पाट तथा वर्डप्रेस मुख्य रूप से शामिल हैं- ब्लाग की सुविधा प्रदान करती हैं। अधिकतर सामान्य प्रयोक्ता सोचते होंगे कि हम न तो लेखक हैं न ही फोटोग्राफर फिर इन ब्लाग की सुविधा का लाभ कैसे उठायें? यह सही है कि अधिकतर साहित्य बुद्धिजीवी लेखकों द्वारा लिखा जाता है पर यह पुराने जमाने की बात है। फिर याद करिये जब हमारे बुजुर्ग इतना पढ़े लिखे नहीं थे तब भी आपस में चिट्ठी के द्वारा पत्राचार करते थे। आप भी अपनी बात इन ब्लाग पर बिना किसी संबंोधन के एक चिट्ठी के रूप में लिखने का प्रयास करिये। अपने संदेश और विचारों को काव्यात्मक रूप देने का प्रयास हर हिंदी नौजवान करता है। इधर उधर शायरी या कवितायें लिखवाकर अपनी मित्र मंडली में प्रभाव जमाने के लिये अनेक युवक युवतियां प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं कई बार अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये तमाम तरह के किस्से भी गढ़ते हैं। यह प्रयास अगर वह ब्लाग पर करें तो यह केवल उनकी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक रूप ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि समाज को ऐसी ताकत प्रदान करेगा जिसकी कल्पना वह नहीं कर सकते।

आप फिल्म, क्रिकेट,साहित्य,समाज,उद्योग व्यापार, पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनल तथा उन अन्य क्षेत्रों को देखियें जिससे बड़े वर्ग द्वारा छोटे वर्ग पर प्रभाव डाला जा सकता है वहां पर कुछ निश्चित परिवारों या गुटों का नियंत्रण है। यहां प्रभावी लोग जानते हैं कि यह सभी प्रचार साधन उनके पास ऐसी शक्ति है जिससे वह आम लोगों को अपने हितों के अनुसार संदेश देख और सुनाकर उनको अपने अनुकूल बनाये रख सकते हैं। क्रिकेट में आप देखें तो अनेक वर्षों तक एक खिलाड़ी इसलिये खेलता  है क्योंकि उसे पीछे खड़े आर्थिक शिखर पुरुष उसका व्यवसायिक उपयोग करना चाहते हैं। फिल्म में आप देखें तो अब घोर परिवारवाद आ गया है। सामान्य युवकों के लिये केवल एक्स्ट्रा में काम करने की जगह है नायक के रूप में नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार के शिखरों पर जड़ता है। आप पत्र पत्रिकाओं में अगर लेख पढ़ें तो पायेंगे कि उसमें या तो अंग्रेजी के पुराने लेखक लिख रहे हैं या जिनको किसी अन्य कारण से प्रतिष्ठा मिली है इसलिये उनके लेखन को प्रकाशित किया जा रहा है। पिछले पचास वर्षों में कोई बड़ा आम लेखक नहीं आ पाया। यह केवल इसलिये कि समाज में भी जड़ता है। याद रखिये जब राजशाही थी तब यह कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’, पर लोकतंत्र में ठीक इसका उल्टा है। इसलिये इस जड़ता के लिये सभी आम लोग जिम्मेदार हैं पर वह शिखर पर बैठे लोगों को दोष देकर अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं कि ‘क्या किया जा सकता है।’

इस इंटरनेट पर जरा गौर करें। अक्सर आप लोग देखते होंगे कि समाचार पत्र पत्रिकाओं में में उसकी चर्चा होती है। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि इनमें से कई ऐसे आलेख होते हैं जिनको इंटरनेट पर ब्लाग से लिया जाता है-जब किसी का नाम न दिखें तो समझ लें कि वह कहीं न कहीं इंटरनेट से लिया गया है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि अधिकतर इंटरनेट प्रयोक्ता केवल फोटो देखने या अपने पढ़ने के लिये बेकार की सामग्री पढ़ने में व्यस्त हैं। उनकी तरफ से हिंदी भाषी लेखकों के लिये प्रोत्साहन जैसा कोई भाव नहीं है। ऐसा कर आप न अपना समय जाया कर रहे हैं बल्कि अपने समाज को जड़ता से चेतन की ओर ले जाने का अवसर भी गंवा रहे हैं। वह वर्ग जो समाज को गुलाम बनाये रखना चाहता है कि फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियों के फोटो देखकर आप अपना समय नष्ट करें क्योंकि वह तो उनके द्वारा ही तय किये मुखौटे हैं। आपके सामने टीवी और समाचार पत्रों में भी वही आ रहा है जो उस वर्ग की चाहत है। ऐसे में आपकी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं था तो झेल लिये। अब इंटरनेट पर ब्लाग और ट्विटर के जरिये आप अपना संदेश कहीं भी दे सकते हैं। इस पर अपनी सक्रियता बढ़ाईये। जहां तक इस लेखक का अनुभव है कि एक एस. एम. एस लिखने से कम मेहनत यहां पचास अक्षरों का एक पाठ लिखने में होती है। जहां तक हो सके हिंदी में लिखे गये ब्लाग और वेबसाईट को ढूंढिये। स्वयं भी ब्लाग बनाईये। भले ही उसमें पचास शब्द हों। लिखें भले ही एक माह में एक बार। अगर आप समाज के सामान्य आदमी है तो बर्हिमुखी होकर अपनी अभिव्यक्ति दीजिये। वरना तो समाज का खास वर्ग आपके सामने मनोरंजन के नाम पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर आपको अंतर्मुखी बना रहा है ताकि आप अपनी जेब ढीली करते रहें। आप किसी से एस. एम. एस. पर बात करने की बजाय अपने ब्लाग पर बात करें वह भी हिंदी में। ऐसे टूल उपलब्ध हैं कि आप रोमन में लिखें तो हिंदी हो जाये और हिंदी में लिखें तो यूनिकोड में परिवर्तित होकर प्रस्तुत किये जा सकें।
याद रखें इस पर अपनी अभिव्यक्ति वैसी उग्र या गालीगलौच वाली न बनायें जैसी आपसी बातचीत में करते हैं। ऐसा करने का मतलब होगा कि उस खास वर्ग को इस आड़ में अपने पर नियंत्रण करने का अवसर देना जो स्वयं चाहे कितनी भी बदतमीजी कर ले पर समाज को तमीज सिखाने के लिये हमेशा नियंत्रण की बात करते हुए धमकाता है।
प्रसंगवश यहां यह भी बता दें कि यह ब्लाग भी पत्रकारिता के साथ ही चौथा स्तंभ है पांचवां नहीं जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं। सीधी सी बात है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और पत्रकारिता चार स्तंभ हैं। इनमें सभी में फूल लगे हैं। विधायिका में अगर हम देखें तो संसद, विधानसभा, नगर परिषदें और ग्राम पंचायतें आती हैं। कार्यपालिका में मंत्री, संतरी,अधिकारी और लिपिक आते हैं। न्याय पालिका के विस्तारित रूप को देखें तो उसमें भी माननीय न्यायाधीश, अधिवक्ता, वादी और प्रतिवादी होते हैं। उसी तरह पत्रकारिता में भी समाचार पत्र, पत्रिकायें, टीवी चैनल और ब्लाग- जिसको हम जन अंतर्जाल पत्रिका भी कह सकते हैं- आते हैं। इसे लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ केवल अभिव्यक्ति के इस जन संसाधन का महत्व कम करने के लिये प्रचारित किया जा रहा है ताकि इस पर लिखने वाले अपने महत्व का दावा न करे।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के ब्लाग जगत में आपकी सक्रियता ही इंटरनेट या अंतर्जाल पर आपको प्रयोक्ता के साथ रचयिता बनायेगी। जब ब्लाग आम जन के जीवन का हिस्सा हो जायेगा तक अब सभी क्षेत्रों में बैठे शिखर पुरुषों का हलचल देखिये। अभी तक वह इसी भरोसे हैं कि आम आदमी की अभिव्यक्ति का निर्धारण करने वाला प्रचारतंत्र उनके नियंत्रण में इसलिये चाहे जैसे अपने पक्ष में मोड़ लेंगे। हालांकि अभी हिंदी ब्लाग जगत अधिक अच्छी हालत में नहीं है- इसका कारण भी समाज की उपेक्षा ही है-तब भी अनेक लोग इस पर आंखें लगाये बैठे हैं कि कहीं यह माध्यम शक्तिशाली तो नहीं हो रहा। इसलिये पांचवां स्तंभ या रचनाकर्म के लिये अनावश्यक बताकर इसकी उपेक्षा न केवल स्वयं कर रहे हैं बल्कि समाज में भी इसकी चर्चा इस तरह कर रहे हैं कि जैसे इसको बड़े लोग-जैसे अभिनेता और प्रतिष्ठत लेखक-ही बना सकते हैं। जबकि हकीकत यह है कि अनेक ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपने रोजगार से जुड़े काम से आने के बाद यहां इस आशा के साथ यहां लिखते हैं कि आज नहीं तो कल यह समाज में जनजन का हिस्सा बनेगा तब वह भी आम लोगों के साथ इस समाज को एक नयी दिशा में ले जाने का प्रयास करेंगे। इसलिये जिन इंटरनेट प्रयोक्ताओं की नजर में यह आलेख पड़े वह इस बात का प्रचार अपने लोगों से अवश्य करें। याद रखें यह लेख उस सामान्य लेखक है जो लेखन क्षेत्र में कभी उचित स्थान न मिल पाने के कारण यह लिखने आया है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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