Category Archives: hindi sahitya

बैचेन रहने की आदत है साहित्यक चोरी देखकर-हिन्दी व्यंग्य (baocjen rahne ki aadat hai sahityak chori dekhkar)


लिखना तथा एक तिवारी जी नामक हिन्दी पटकथा लेखक पर संयोग ऐसा बन गया कि हमें अपना नाम जोड़कर भी इस लेख को लिखना पड़ रहा है क्योंकि इंतजार है उस ब्लाग लेखक के उत्तर का जिसने बिना कांट छांट किये हमारी एक कविता को अपने ब्लाग पर बिना नाम के छाप दिया और हमने उस पर अपनी टिप्पणी लिख कर मामले के निपटारे की मांग की है।
हिन्दी में रचनाकार नहीं है, यह नारा बहुत दिनों से सुन रहे हैं-इस नारे में बाज़ार, राज्य तथा प्रचार व्यवसाय के जुड़े लोगों के जो वह बुद्धिजीवी लगाते हैं जो केवल आलेख लिखते हैं वह भी प्रायोजन मिलने पर। इधर राखी का इंसाफ धारावाहिक विवाद में फंसा तो एक राखी का स्वयंवर धारावाहिक का एक पटकथा लेखक सामने आया जिसने यह दावा किया है कि वह उसकी चुराई हुई है। स्थिति यह है कि उसने आत्महत्या करने की धमकी दे डाली है जैसे कि राखी के इंसाफ में ताने से प्रेरित होकर झांसी के एक लक्ष्मण युवक ने कर ली है।
तिवारी नाम धारी उसे लेखक का दावा था कि जब उसने अपनी पटकथा का होने का दावा किया तो उसे धमकाया गया और कहा गया कि ‘इसकी नायिका एक तरह से पूरे मीडिया की बेटी है। इसलिये उससे पंगा मत लो।’
हमें उस तिवारी नामधारी लेखक से सहानुभूति है। ऐसा लगता है कि वह सच बोल रहा होगा क्योंकि फिल्मों के बारे में मिली यह पहली शिकायत नहीं है। हमारे एक चौरसिया नाम के एक मित्र कहानीकार हैं। उन्होंने कम से कम पच्चीस वर्ष पूर्व एक कलात्मक फिल्म में अपनी कहानी चोरी होने की बात कही थी। तब हंसी आयी थी पर इसमें कोई शक नहीं था चौरसिया जी उच्च दर्जे के कहानीकार हैं। इधर हमने यह भी देखा कि एक अखबार हमारे ही चिंतनों को जस का तस छापता रहा है। जब नाम छापने को कहते हैं कि तो जवाब मिलता है कि ब्लाग का नाम छापने की परंपरा नहीं है। नाम छापने को कहा गया तो जवाब मिला कि अपने संपादक से कहेंगे कि आपकी रचनायें नहीं ले।
कितनी तुच्छ मानसिकता है उन लोगों की जो हिन्दी की खा रहे हैं। हिन्दी लेखक उनकी नज़र में है क्या? क्या खौफ है कि नाम छापेंगे तो लेखक अमिताभ बच्चन बन जायेगा और उसे साबुन, क्रीम या मोटरसाइकिल के विज्ञापन मिलने लगेंगे। मजे की बात है कि नामा न देने की बात स्वीकार तो हिन्दी लेखक कर ही लेते हैं कि क्योंकि उनको पता है कि हिन्दी लेखन और पूंजीपतियों के बीच जो दलाल हैं वह अपना ही पेट मुश्किल से भर पाते हैं पर नाम न देने की बात हमारे समझ में नहीं आयी। स्थिति यह हो गयी है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं के पास अब साफ सुथरी हिन्दी लिखने वाले ही नहीं बचे। महंगाई बढ़ रही है कि हिन्दी के अखबार की कीमत आज भी दो ढाई रुपये से अधिक नहीं है। अब तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लिये पाठक और दर्शक एक तरह से गूंगी फौज हो गयी है जिसके सहारे वह उच्च स्तर पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं वरना आम आदमी में उनकी कोई पकड़ नहीं है। आजकल तो हर आदमी टीवी की तरह मुंह किये बैठा है। इसलिये ही स्थानीय स्तर पर टीवी चैनलों ने अपने पंाव फैला दिये हैं। अखबार छपने की संख्या और उसे पढ़ने वालों की संख्या में बहुत अंतर है। उससे भी अधिक अंतर तो पढ़ने वाले और उस अखबार से हमदर्दी रखने और पढ़ने वालों के बीच है। मतलब यह कि पहले लोग न केवल अखबार पढ़ते थे बल्कि उसे मानसिक हमदर्दी भी रखते थे। यह अब नहंी है।
हिन्दी ब्लाग पर लिखना और लिखवाना आसान नहीं है। अगर किसी लेखक से लिखने को कहो तो वह कहता है कि रचना चोरी हो जायेगी। मतलब यह कि लिखने को तैयार नहीं है और जो लिख रहे हैं वह चोरी का शिकार हो रहे हैं। लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी के ब्लाग केवल ब्लाग लेखक ही पढ़ रहे हैं और अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। जबकि इस लेखक के गांधी और ओबामा पर लिखे पाठों के अनेक एक स्तंभकार ने चोरी किये जो कि इसका प्रमाण है कि कथित बुद्धिजीवी भी अब अंतर्जाल पर अपनी सामग्री टटोल रहे हैं। यह शायद मजाक लगता हो पर सच यही है कि कुछ ब्लाग लेखकों का नाम बाहर नहीं लिया जा रहा पर सच यही है कि उनके पाठ दूरगामी मार वाले हैं और बुद्धिजीवी उनसे प्रभावित हैं। हिन्दी ब्लाग पर कूड़ा लिखा जा रहा है तो बताईये बाहर कौनसा सदाबाहर साहित्य लिखा पढ़ने को मिल रहा है। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठकों की टिप्पणियां इस तरह की आती हैं कि ‘गजब! आप ऐसा भी सोच और लिख सकते हैं।’
लोगों के पास चिंतन नहीं है, दावा चाहे कितने भी करें। नारों पर लिखते हैं और वाद सजाते हैं। फिर उसमें किसी न किसी की तारीफ या निंदा का बिगुल बजाते हैं। फिल्म वालों के पास तो काल्पनिकता और यथार्थ का समन्वय करने की कभी शक्ति ही नहीं दिखी है क्योंकि वहां के निर्माता और निर्देशक हिन्दी लेखकों को स्वतंत्रता न देकर लिपिक बना लेते हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को लिपिक की तरह ही देखा जाता है। स्थिति यह है कि अधिकतर हिन्दी अखबार अब अंग्रेजी शब्दों के मोह में फंस गये हैं। प्रबंधन करना नहीं आया तो अब मैनेजमेंट करने लगे हैं। क्या खाक करेंगे? प्रबंधन हो या मैनेजमेंट बिना चिंतन और मनन के नहीं होते। हिन्दी का खाकर उसे मिटाने की योजना या साजिश रची गयी है। कहते हैं कि हिन्दी को विश्व स्तर पर पहुंचाना है। क्या खाक पहुंचायेंगे खुद को आती नहीं है। फिर दावा कि हम भाषाविद हैं? क्या खाक हैं एक ढंग की कविता नहीं लिख सकते। हम जैसी कि चुराने का मन हो? कुछ गुस्सा और कुछ हंसी! इस भाव से हम यह लेख लिख रहे हैं क्योंकि चोरी का सदमा है तो खुशी इस बात की है कि हम अच्छा लिख रहे हैं।
आईये पहले उस ब्लाग का नाम देखें। उससे पहले देखकर आयें कि उसने हमारी टिप्पणी का क्या किया? उसने न टिप्पणी प्रकाशित की और न ही जवाब दिया। हम भी उसका नाम नहीं लिख रहे। उसकी बेवसाईट का पता रख लिया है। ऐसा लगता है कि बिचारा रोमन में हिन्दी लिखता है और यह उसकी पहली ऐसी रचना है जो देवानगारी में है। हम उसे बदनाम नहीं करना चाहते पर उम्मीद है कि भाई लोग इसे पढ़कर उसे समझायेंगे। वैसे वह  हमारी टिप्पणियाँ नहीं छाप रहा पर रोमन लिपि में अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर रहा  है । हम यह सब  इसलिए रहे हैं क्योंकि बैचेन रहने की आदत ऐसे नहीं जाएगी। यहाँ यह भी बता दें हमारी रचना छापने का दाम पूछकर एक हज़ार और न पूछना पर दो हज़ार है और हम इसकी विधिवत माग करेंगे। इस लेख का लिखने का दंड अलग से वसूल करेंगे।  
हमारी   रचना यह है 
————————-
बैचेन रहने की  आदत 
लोगों की हमेशा बेचैन रहने की
आदत ऐसी हो गयी है कि
जरा से सुकून मिलने पर भी
डर जाते हैं,
कहीं कम न हो जाये
दूसरों के मुकाबले
सामान जुटाने की हवस
अभ्यास बना रहे लालच का
इसलिये एक चीज़ मिलने पर
दूसरी के लिये दौड़ जाते हैं
। 
—————————
हमारा लिंक यह हैं
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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घर के भागीरथ-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ghar ke bhagirath-hindi vyangya kavitaen)


ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं,
जो विकास की गंगा घर घर पहुंचायें,
सभी बन गये हैं अपने घर के भागीरथ
जो तेल की धारा
बस!
अपने घर तक ही लायें,
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने के लिये
केवल आले में चिराग जलायें।
————-
तमाशों में गुज़ार दी
पूरी ज़िदगी
तमाशाबीन बनकर।
कहीं दूसरे की अदाओं पर हंसे और रोए,
कहीं अपने जलवे बिखेरते हुए, खुद ही उसमें खोए,
हाथ कुछ नहीं आया
भले ही रहा ज़माने को दिखाने के लिये
सीना तनकर।
—————

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विकास और लोग-व्यंग्य कविता (vikas aur log-hindi vyangya kavita)


गरीबी हटाओ, देश बचाओ,
भ्रष्टाचार भगाओ, विकास लाओ,
जैसे नारे सुनते हुए बरसों बीत गये
मगर हालात हैं कि सुधरे नहीं।
हर बरस बजट के तीर जनकल्याण के अंधेरे में
कुछ इस तरह चलते कि
जहां पहुंचंे वहां गरीब नज़र नहीं आता,
रंगेहाथों पकड़े गये रिश्वत लेते कई
मगर हर कोई अपने हाथ सफेद कर बरी हो जाता,
तालाब खुदते गये काग़जों पर
लबालब हो गयी कई लोगों की जेबें
परवाह किसे है यहां देखने की
प्यासों ने पानी के बर्तन भरे कि नहीं।
नतीज़ा यही है कि देश कर रहा है विकास
लोग खड़े है वहीं की वहीं।
—————-

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पहरेदारी का हिस्सा-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (pahredari ka hissa-hindi vyangya kavitaen)


कत्ल के पेशेवरों ने ले ली
शहर भर की पहरेदारी,
तय किया पुराने हमपेशा सफेदपोशों को
खंजर घौंपने की छूट के साथ
अपनी कमाई में देंगे हिस्सेदारी।
———
खज़ाने की चाब़ी ठगों के हाथ में देकर
मालिक अब बेफिक्र हो गये हैं,
हेराफेरी में हाथ काले नहीं होंगे
मिलेगा कमाई से पूरा हिस्सा
यह देखकर
सफेदपोश चैन की नींद सो गये हैं।
————

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भाषण-हिन्दी लघु कथा (bhashan-hindu laghkatha)


वह अपने भाषण में गरज़ रहे थे-‘आज हमारे शहर की कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब है। कोई भी सुरक्षित नहीं है। माता बहिनों को घर से निकलते हुए डर लगता है। कोई आदमी अधिक पैसा जेब में रखकर डरता सड़क पर चलता है। अरे, पर कई लोग तो इसलिये पैसे जेब में रखकर निकलते हैं कि कोई लुटेरा लूटने के लिये हथियार लेकर रास्ते में खड़ा हो और न देने पर निराशा में कहीं हमला न कर बैठै। हा……..हा….’’
एक श्रोता बोल पड़ा-‘आप क्यों कानून व्यवस्था की फिकर करते हैं। आपके साथ तो चार बंदूकधारी पहरेदार है न! कोई खतरा नहीं है फिर कानून व्यवस्था की स्थिति खराब कैसे हैं?’
इससे पहले कि वह कुछ कहते उनके चेले चपाटों ने मंच से उतरकर उस श्रोता पर अपने हाथ साफ कर दिये। वहां खड़े अन्य श्रोताओं ने उसको अधिक पिटने से बचाया।
तब वह बोले-‘अरे भाई, देख लिया न कितनी कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है! यह देखो बंदूकधारी पहरेदार खड़े देखते रहे और तुम पिटते रहे। वैसे मेरे चेलों के लिये यह शर्म की बात है।’
फिर वह अपने चेलों ने बोले-‘हट जाओ, ऐसे किसी पर हमला नहीं करना चाहिये। तुम्हें अपनी दमदार आदमी की छबि बनानी है ताकि लोग डरें तो भाई मुझे भले आदमी की छबि बनानी है। एक बात याद रखना हमारी छबि खराब हुई तो तुम्हारी भी बनने वाली नहीं है।’
फिर वह उस श्रोता से बोले-‘हमारा उद्देश्य हम जैसे बड़े लोगों से नहीं तुम जैसे आम आदमी की सुरक्षा और अन्य परेशानियों से है। तुम इतना नहीं समझते! आइंदा ध्यान रखना वरना ऐसे हादसे होते रहेंगे। बड़े लोग भले हों पर उनके चेले चपाटे भी वैसे हों यह जरूरी नहीं है, और कानून व्यवस्था के खराब होने का मतलब तो तुम समझ ही गये होगे।’
वह श्रोता दुःखी मन से वहां से चला गया और भाषण जारी रहा।

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असली दोस्त वही जो महंगाई में निभाता है-हिन्दी हास्य कविता (asli dost aur mahanagai-hindi hasya kavita)


आशिक ने अपने दोस्त से कहा
‘‘यार, महंगाई बढ़ गयी है,
माशुका की मांगें पूरी करते करते
जेब कंगाली की सीढ़िया चढ़ रही है,
अब पेट्रोल होता जा रहा है महंगा,
होटलों में बैरे पेश करते हैं महंगे बिल
तब हो जाता है उनसे पंगा,
यह महंगाई तो मोहब्बत को मार डालेगी,
इस संसार में केवल नफरत को ही पालेगी
मुझे अपनी चिंता नहीं
माशुका का ख्याल आता है,
कैसे करेगी मेरे बिना गुजर
यह सोचकर दिल भर आता है।’’

दोस्त ने कहा
‘‘कैसी बात करते हो यार,
अपनी दोस्ती है, न कि व्यापार,
महंगाई में मोहब्बत महंगी हो सकती है
पर दोस्ती कभी नहीं थकती है,
तुम्हारा दर्द सुनकर मेरा दिल भर आया
इतने दिन तुमने क्यों छिपाया,
घबड़ाओ नहीं अपनी माशुका के घर का पता दो,
‘मैं उससे निभाऊंगा’ तुम जाकर उसे अभी बता दो,
जो तुमने उसे ऐश कराए,
मैं उससे ज्यादा कराऊंगा
ताकि उसे तुम्हारी याद न आए,
अरे, वही दोस्त संसार में नाम पाता है,
जो महंगाई में भी दिल के साथ दोस्ती  निभाता है।’’
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विश्व कप फुटबाल में भविष्यवाणी का खेल-हास्य व्यंग्य (world cup footbal aur jyotish-hasya vyangya)


यह पश्चिम वाले भी उतने ही अजूबा हैं जितने हमारे देश के लोग। उतने ही अंधविश्वास और अज्ञानी जितने हमारे यहां बसते हैं। पहले अक्सर यह सुनने और पढ़ने को मिलता था कि पश्चिम में भारतीय लोगों के प्रति अच्छी धारणा व्याप्त नहीं है। भारत को वहां के लोग सन्यासियों, सांपों और संकीर्ण मानसिकता वाला मानते हैं। बात अपने समझ में तब भी नहीं आयी और अब भी नहीं आती क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन के बारे की कई इमारतों में भूत होने की बातें भी पढ़ने को मिलती हैं। इसके अलावा उनके उतने ही अंधविश्वासी होने के प्रमाण मिलते रहे हैं जितने हमारे यहां के लोग हैं। कई बड़े नामी गिरामी लोगों को भूत दिखने के दावे किये जाते हैं। अपने यहां तोते की भविष्यवाणियों पर हंसने वाले यह पश्चिमी देश अब एक समुद्रीजीव ऑक्टोपस पकड़ लाये हैं जिसके बारे में दावा यह कि 2010 के विश्व कप फुटबाल के मैचों के बारे में सही भविष्यवाणी कर रहा है। आठ पांव वाले इस जीव को पकड़ना ही पर्यावरणवादियों को ललकारने जैसा है पर पश्चिम में सब चलता है।
जहां तक फुटबाल खेल का सवाल है वह भी हमने खूब देखा पर यह टीवी और अखबार वाले उसमें भी फिक्सिंग जैसी बातें होने की बात कहते हैं इस कारण उसमें अरुचि हो गयी। जब तक क्रिकेट में फिक्सिंग की बात नहीं थी तब तक उसे खूब देखा पर एक बार जब दिमाग में मैच फिक्स होने की बात आयी तो उसे छोड़ दिया। फुटबाल भी खूब देखा पर उसमें भी यही बात आयी तो यह शायद पहला विश्व कप है जिसके मैच नहीं देखे। अर्र्जेटीना, फृ्रांस, ब्राजील और ब्रिटेन की टीमें देखते देखते बाहर हो गयी। इनको हमेशा ललकारने वाली जर्मनी की टीम का हारना भी कम चौंकाने वाला नहीं था। स्पेन और हालैंड की टीमें फायनल खेलेंगी। फुटबाल कोई क्रिकेट की तरह अवसर का खेल नहीं है पर हैरानी की बात है कि उसे भी अब इसी दृष्टि से देखा जायेगा। क्रिकेट में अनफिट खिलाड़ी चल सकता है पर फुटबाल में यह संभव नहीं है पर लगता है कि सटोरियों और पूंजीपतियों के दबाव के चलते अब वह भी विज्ञापनों के बोझ तले दब गया है। शायद यही कारण है कि दुनियां की जानी मानी टीमें अपने साथ हारने के लिये अनफिट खिलाड़ी जायी थी ताकि समय पड़ने पर मनोमुताबिक परिणाम निकाले जा सकें-कहते हैं न कि दूध का जला छांछ को भी फूंक फूंक कर पीता है इसलिये क्रिकेट को देखकर यह बात अनुमान से ही लिखी जा रही है। जर्मनी जिस तरह प्रतियोगिता में आगे बढ़ रहा था उसे देखते हुए उसका एकदम बाहर हो जाना शक पैदा करेगा ही-जो टीम एक मैच में चार गोल करती है दूसरे मैच में एक गोल को तरस जाती है तो सोचना स्वभाविक क्योंकि आखिर यह क्रिकेट नहीं है।
आक्टोपस को पॉल बाबा भी कहा जा रहा है-पता नहीं इस शब्द का उपयोग विदेशी प्रचार माध्यम कर रहे हैं कि नहीं पर भारत में तो यही नाम दिया गया है। पॉल बाबा ने फुटबाल में फायनल मैच में जर्मनी के हारने की भविष्यवाणी की थी। जर्मनी हार गया तो अब यह कहना कठिन है कि उन्होंने अपने देश के ऑक्टोपस ज्योतिषी की भविष्यवाणी का सम्मान किया या फिर उन दांव लगाने वालों को निपटाया जो उसकी भविष्यवाणी पर भरोसा नहंी कर रहे थे। अब इस पॉल बाबा ने स्पेन के जीतने की भविष्यवाणी की है। चूंकि हमने मैच नहीं देखे पर पिछली टीमों की स्थिति देखते हुए हमारा दावा है कि यह फाइनल मैच हालैंड वाले जीतेंगे। वजह! हालैंड के खिलाड़ी दुनियां में सबसे जीवट वाले माने जाते हैं। फायनल मैच अगर हमारे अनुकूल समय के अनुसार हुआ तो जरूर देखेंगे और नहीं हुआ तो अखबार में तो रोज इस बारे में पढ़ते ही हैं।
इधर पूर्व में भी एक तोता ज्योतिषी आ गया है जिसका दावा है कि यह मैच हालैंड जीतेगा। अब यह सट्टे वालों पर निर्भर है कि वह कितना इस खेल को प्रभावित कर पाते हैं। क्रिकेट में तो उनको बहुत मौका होता है पर फुटबाल में यह संभव नहीं होता कि बीच में जाकर प्रयास किये जायें या फिर अंपायर से दो चार गलत निर्णय करा लें।
वैसे सट्टे वाले भी आजकल भविष्यवाणी करते दिखते हैं तो भविष्यवाणी करने वाले भी अपना प्रभाव जमाने के लिये यह एक तरह से सट्टा खेलते हैं। सट्टे का का संबंध भविष्य के अनुमानों से है तो ज्योतिष का भी यही आधार हैै। अनेक लोग ज्योतिष नहीं जानते पर भविष्यवाणी करते हैं। सही निकली तो पौबाहर नहीं तो भाग्य का सहारा लेकर कह दिया कि ‘अमुक कारण से यह विपरीत परिणाम आया।’
अलबत्ता जैसे प्रचार माध्यमों की सक्रियता से विश्व निकट आ रहा है उससे अब पता लग रहा है कि सारे विश्व में सभी लोगों की मानसिकता एक जैसी है। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता की याद आ ही जाती है। वैसे एक अध्यात्मिक और सामयिक लेखक होने के नाते दोनों विषयों को मिलाना नहीं चाहिए पर आदमी की प्रवृत्तियों का क्या करें? जो हर खेल में प्रकट होती हैं और उनकी पहचान श्रीगीता में वर्णित प्रकृत्तियों से मेल खाती है। आदमी में दैवीय और आसुरी प्रवृत्तियां होती हैं। दैवीय प्रकृत्ति जहां सत्कर्म में लगाती है वहीं आसुरी प्रकृत्ति प्रमाद, मोह, लोभ तथा काम की तरफ ही प्रेरित करती है। ऐसे में हमें अपना अध्यात्मिक ज्ञान स्वर्ण संदेशों से सराबोर दिखाई देता है और उनका उल्लेख करने को लोभ व्यंग्य लिखते हुए भी छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
मान लीजिये ऑक्टोपस ज्योतिषी यान पॉल बाबा की भविष्य सही साबित भी हुई और स्पेन जीत गया तो भी हम उसे दैवीय नहीं आसुरी चमत्कार मानेंगे। साफ कहें तो कहीं न कहीं फिक्सिंग    का संदेह होगा। कभी कभी तो लगता है कि अध्यात्मिक लेखक होने के नाते हास्य व्यंग्य जैसी रचनायें न लिखें पर ज्योतिष तो वैसे भी अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ा विषय माना जाता है और जब उसको लेकर हास्यास्पद स्थिति बनायी जाये तो फिर उस पर लिखा भी वैसा ही जा सकता है। अब खेलों में भविष्यवाणी हो रही है तो कहना ही पड़ता है कि भविष्यवाणी एक खेल हो गया है।
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नतीजा यह कि कोई सुखी नहीं-हास्य व्यंग्य (natija yah ki koyee sukhi nahin-hasya vyanaya)


पश्चिमी वैज्ञानिकों ने एक शोध किया है जिसके अनुसार लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक तनाव ग्रस्त रहते हैं। 24 देशों के 19 हजार लोगों पर यह शोध किया गया है। इससे पता चलता है कि लोग अपने वेतन कम होने से नहीं बल्कि दूसरे की ज्यादा है इससे ज्यादा परेशान हैं। अब यह पता नहीं कि इसमें अपना देश शामिल है कि नहीं पर इतना संतोष है कि 23 दूसरे देश भी इसमें शामिल हैं जहां अपनी तरह के लोग रहते हैं। अगर अकेले अपने देश की बात होती तो कितना तनाव बढ़ता यह समझ ही सकते हैं।
आश्चर्य इस बात का है कि पश्चिमी विज्ञान तथा शिक्षा संस्थाओं को हर चीज के लिये अनुसंधान की आवश्यकता होती है। वह आज जिस विषय पर शोध कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं उस पर हमारे देश की राय बहुत पुरानी है। यही कारण है कि हमारे देश के अध्यात्मिक महापुरुष हमेशा ही ईर्ष्या और द्वेष से दूर रहने की बात करते हैं-यह अलग बात है कि लोग सुनते खूब हैं पर उस पर अमल नहीं करते।
अपने यहां तो इस संबंध में अनेक कथायें हैं। एक भक्त की भक्ति पर सर्वशक्तिमान प्रसन्न हो गये और उससे वरदान मांगने को कहा। उसने कहा कि ‘भगवान मेरे पड़ौस में सभी बड़े लोग रहते हैं एक में ही तुच्छ आदमी यहां फंसा हूं। अतः ऐसा कुछ करिये कि मैं भी सभ्रांत वर्ग में आ जाऊं।’
सर्वशक्तिमान ने कहा‘तथास्तु! मगर पड़ौस की समस्या तो भाग्य से आई है उसे मैं बदल नहीं सकता। अलबत्ता तुम्हारा कल्याण करने का मेरा दायित्व है। इसलिये तुम्हारे पास ढेर सारा धन आयेगा। तुम जैसी चाहत करोगे वैसा होगा पर पड़ौसी के पास उससे दुगुना जायेगा। इसे मैं बदल नहीं सकता।’
सर्वशक्तिमान ने वरदान दिया और गायब हो गये।
उस भक्त ने कहा-‘मुझे अपनी पत्नी के लिये दो कंगन चाहिए।’
तत्कला कंगन वहां प्रकट हो गये, मगर पड़ौसन के घर चार गये।
भक्त ने कहा-‘मुझे एक कार चाहिये।
कार आ गयी वह वातनुकूलित पर पड़ौसी के पास दो पहुंच गयी।
भक्त अपनी उपलब्धि में यह भूल गया कि पड़ौसी उसकी तपस्या का बिना किसी मेहनत के दोगुना लाभ उठा रहा है।
इधर पत्नी कंगन लेकर पड़ौसन के पास पहुंची और इतराती हुई बोली-‘‘हमारे वो दो कंगन लाये हैं। साथ में एक जोरदार वातानुकूलित कार भी खरीदी है।’
पड़ौसन बोली-उंह! मेरे पति चार कंगन ले आये हैं और दो कार खरीदी हैं। हमारे से तो तुुम्हारी तुलना न कल थी और न आज है।’
भक्त की पत्नी तो जैसे जमीन पर आकर गिरी। घर आकर पति से लड़ते हुए बोली-‘चाहे कुछ भी हो जाये। हम फकीर हो जायें पर पड़ौसी अधिक अमीर नहीं बनना चाहिये।’
भक्त सहम गया उसने पहले तो अपने कंगन और कार गायबी की जिससे पड़ौसी को दुगुनी हानि हुई। अब उसने कहा कि-‘मेरी एक आंख फूट जाये, एक हाथ निकल जाये।’
पड़ौसी की दोनों आंखें चली गयी और हाथ भी। ऐसा प्राकृतिक संकट देखकर सर्वशक्तिमान प्रकट हुए और भक्त से बोल -‘यार, भ्रमित होकर तुम्हें वरदान दे गया था सो वापस ले रहा हूं। इस तरह की खुराफात करना हमारे धर्म के विरुद्ध है। ये ले अपनी एक आंख और एक हाथ ताकि पड़ौसी संकट से मुक्त हो जाये।’
भक्त को गुस्सा आया और वह बोला-‘यह क्या? आंख और हाथ मेरे हैं अगर में उनको त्याग रहा हूं तो उससे आपका क्या मतलब?’’
सर्वशक्तिमान बोले-‘यह महान त्याग है, पर मेरे पास दूसरा वरदान देने का अधिकार नहीं है क्योंकि घर से निकलते हुए पत्नी ने मुझे चेता दिया था कि अगर अब ऐसा हुआ तो घर में घुसने नहीं दूंगी।’
पुरानी कहानी है जिसे हास्य रूप में प्रस्तुत किया गया है। पश्चिम वैज्ञानिक अगर भारतीय अध्यात्म दर्शन तथा पंचतंत्र में से कहानियां उठाकर देखें तो उनको अनेक प्रकार के प्रयोग करने के लिये पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मगर उनसे क्या कहें देश के बुद्धिजीवियों के ही बुरे हाल हैं सभी विदेशियों के प्रशंसक हैं। अपने अध्यात्म ज्ञान में तो उनको पोंगापंथी दिखाई देती है। अब देखना इसी पश्चिमी निष्कर्ष पर बुद्धिजीवी समाज बहस करता दिखेगा। जहां तक हम जैसे आम लोगों का सवाल है ऐसे अनेक निष्कर्षों से अपने महापुरुषों की कृपा से पहले से ही अवगत है। यही कारण है कि दूसरे के सुख को देखकर मुंह फेर लेते हैं कि कहीं अपने दुःख न याद आने लगें। वह सुख उससे छोड़ दे इसकी तो कामना भी नहीं करते। इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इससे केवल अपना खून जलता है। इस सच को भी जानते हैं कि भारत में गरीबी, बेकारी और भ्रष्टाचार चाहे कितना भी है पर लोग दुःखी इस बात से अधिक हैं कि उनके आसपास के लोग सुखी हैं। नतीजा यह है कि कोई सुखी नहीं है।
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दिल्लगी-हिन्दी शायरी (dillagi-hindi shayari)


दिल लगाने के ठिकाने
अब नहीं ढूंढते
क्योंकि दिल्लगी बाज़ार की शय बन गयी है,
मोहब्बत का पाखंड अब
खुश नहीं कर पाता
क्योंकि जहां बहता है जज़्बातों का दरिया
वह मतलब की बर्फ जम गयी है।
———
आसमान के उड़ने की चाहत में
इतनी ऊंची छलांग मत लगाओ
कि जमीन पर गिरने पर
शरीर को इतने घाव लग जायें
जिन्हें भर न पाओ।
दूर जाना अपने मकसद के लिये उतना ही
कि साबित अपने ठिकाने पर लौट आओ।
———

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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फिर गिर सकती है क्रिकेट की लोकप्रियता-हिन्दी आलेख (t-twenty world cricket cup-hindi article)


तय किया था कि हम बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में भारत आस्ट्रेलिया का मैच देखेंगे, मगर नहीं देख पाये। क्रिकेट दर्शन से हमने तौबा कर ली थी पर कहते हैं कि न आदमी अपनी आदत से बाज़ नहीं आता। क्रिकेट मैच चला देते हैं और इधर इंटरनेट पर भी बैठ जाते हैं-अपने आपको तसल्ली देते हैं कि हम क्रिकेट मैच नहीं देख रहे। अलबत्ता यह तय बात है कि अब देखते भी हैं तो देशों के बीच के मैच देखते हैं-यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिताऐं हमारी नज़र में दोयम दर्जे की है। एक तरह से सस्ते बज़ट की फिल्मों की तरह-प्रमाण यह है कि सुनने में आया है कि अब इन पर वैसे ही मनोरंजन कर लगाने की तैयारी हो रही हैं जैसा फिल्मों पर लगता है।
बहुत समय बाद किसी मैच को देखने का ख्याल आया पर बिज़ली ने वह भी छीन लिया। पूरे आठ घंटे कालोनी की बिजली गायब रहीं-इसमें बीस ओवर क्या पचास ओवर का मैच भी निपट जाता है। हमने भी भुला दिया और रात को कालोनी के पार्क में घूमने चले गये। मगर कहते हैं न कि सब कुछ आपके हिसाब से नहंी चलता। क्रिकेट मैच हमने देखना छोड़ा और जब देखने का विचार किया तो वह दिखाई नहीं दिया। फिर उसका ख्याल छोड़ा तो फिर वह भी लौट कर आया। हमारे जैसे परेशान चार पांच युवक उस पार्क में भी आये। उनमें से एक मोबाईल पर स्कोर किसी से पूछ रहा था-‘ मैच का क्या चल रहा है।’
वहां से जवाब आया तो वह अपने साथियों को बता रहा था‘सोलह ओवर में 160 रन!
हमने सोचा कि शायद बीसीसीआई की टीम का होगा। खुश हुए, चलो आज जीत तो दूसरे मैच में भी मजा आयेगा। तब देखेंगें।
इसी बीच दूसरा बोल पड़ा-‘लगता है कहीं आज तो इंडिया की टीम हार न जाये।’
उसने भारत शब्द उपयोग नहीं किया यह सुनकर अच्छा लगा क्योंकि तब यह सदमे जैसा लगता।
मतलब यह स्कोर आस्ट्रेलिया का था। हमारा मन फक हो गया। फिर पार्क के चक्कर काटने लगे।
घर आये तब भी अंधेरा था। न कंप्यूटर खोल सकते थे और न ही टीवी देख सकते थे। ऐसे में अपना ट्रांजिस्टर निकाला और उस पर दिल्ली दूरदर्शन का स्टेशन लगाया। बीसीसीआई का स्कोर था चार विकेट पर 24 रन! फिर शायद पांचवें खिलाड़ी के आउट होने की आवाज सुनाई दी। बीसीसीआई की टीम हार की तरफ बढ़ रही थी ट्रांजिस्टर बंद कर दिया। बाद में एक दो बार खोला तो उद्घोषकों की चर्चा में बीसीसीआई के बुरे प्रदर्शन की बात सुनाई दी।
बीसीसीआई की टीम हारी। सच बात तो यह है कि इस टीम के अगले दौर में पहुंचने की संभावनायें अब बहुत कम है। दो साल पहले बीसीसीआई की टीम ने बीस ओवरीय प्रतियोगता का विश्व कप जीता था तब भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता लगभग खत्म होने के कगार पर थी पर उसे जीवनदान मिल गया जिससे क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं का जन्म हुआ और वह कमाई का धंधा बना। भारत देश इस क्रिकेट का कितना बड़ा सहारा है यह इनाम वितरण के समय दिखने वाले कंपनियों के बोर्ड देखकर समझा जा सकता है जिनमें से अधिकतर भारत के व्यापार जगत में सक्रिय हैं। अनेक लोग क्लब स्तरीय प्रतियोगता के आयोजन पर होने वाली धाधलियों से बहुत नाराज हैं पर देश की नयी पीढ़ी का इससे जुड़ाव जिस ढंग से हुआ है वह आश्चर्यजनक है। इसके बावजूद यह सच है कि यह देश विजय को सलाम करता है। अगर इस विश्व कप में बीसीसीआई की टीम हारती है तो एक बार फिर क्रिकेट की लोकप्रियता गिर सकती है।
कुछ लोग बीसीसीआई की टीम को समग्र भारत का प्रतिनिधि नहंी मानते। इसका कारण यह है कि उस पर कुछ खास क्षेत्रों के लोगों का प्रभाव अधिक है। दूसरा यह भी कि क्लब स्तरीय प्रतियोगिता आयोजित करने वाली जो समिति है वह बीसीसीआई की है पर उसे अलग दिखाया गयां जो कि एक मजाक था। इस समिति ने भारत में अनुमति न मिलने पर पर दक्षिण अफ्रीका में प्रतियोगिता की। इसका सीधा मतलब यह है कि बीसीसीआई और उसकी समितियां कंपनियों की तरह है जो केवल व्यापार में रुचि रखती हैं। अब किसी कंपनी में सभी कर्मचारी भारतीय हों पर वह संपूर्ण देश की प्रतिनिधि तो नहीं हो जाते। अलबत्ता क्रिकेट अब फिल्म की तरह मनोरंजन हो गया है इसलिये इसमें उसी तरह उतार चढ़ाव आयेंगे। इसलिये यह वेस्टइंडीज में होने वाली बीस ओवरी प्रतियोगिता भले ही मनोरंजन न हो पर भारत में उसका आधार तो यही है। टीम विश्व जीतेगी तो ही लोग अगली फिल्म देखने को तैयार होंगे। बहरहाल पूरी शिद्दत के साथ क्रिकेट मैच देखने का अब हमारा इरादा नहीं रहा और इसका कारण आस्ट्रेलिया से इस तरह हार जाना है। अगर बीसीसीआई की टीम खाली हाथ लौटती है तो यकीनन फिर क्रिकेट की लोकप्रियता गिरेगी इसमें संदेह नहीं है।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कभी गाड़ी नाव पर चढ़ी, कभी नाव गाड़ी पर पड़ी-हिन्दी व्यंग्य और हास्य कविता (naav aur gaadi-hindi vyangya and hasya kavita)


भगवान श्री राम की महिमा विचित्र है। बड़े ऋषि, मुनि तथा संत यही कहते हैं कि उनकी भक्ति के बिना उनको समझा नहीं जा सकता और भक्ति के बाद भी कोई जान ले इसकी गारंटी नहीं है। राम अपने भक्तों की परीक्षा इतने लंबे समय तक लेते हैं कि वह हृदय में बहुत व्यथा अनुभव करता है। मगर जब परिणाम देते हैं तो भले ही क्षणिक सुख मिले पर वह पूरी पीड़ा को हर लेता है। हम बात कर रहे हैं अयोध्या में राम मंदिर मसले पर अदालती फैसले की। अभी यह मसला ऊंची अदालत में जा सकता है-ऐसी संभावना दिखाई देती है- इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि राम मंदिर बनना तय है। हम यहां अदालत के फैसले पर टीका टिप्पणी नहीं कर रहे पर इस मसले को भावनात्मक रूप से भुनाकर लेख लिखकर या बयान देकर प्रसिद्ध बटोरने वालों की हालत देखकर हंसी आती है। यह सभी लोग इस पर होने वाली बहस के लाभों से वंचित होने पर रुदन कर रहे हैं हालांकि दावा यह कि वह तो राम मंदिर विरोधियों के साथ हुए अन्याय का विरोध कर रहे हैं। जो लोग राम मंदिर समर्थक हैं उनकी बात हम नहीं कर रहे पर जो इसके नाम पर सर्वधर्मभाव की कथित राज्यीय नीति बचाने के लिये इसका विरोध करते हैं उनका प्रलाप देखने लायक है। उनका रुदन राम भक्तों को सुख का अहसास कराता है।
याद आते हैं वह दिन कथित सभी धर्मों की रक्षा की नीति की आड़ में राम भक्तों को अपमानित करते रहते थे। उनके बयान और लेख हमेशा राम मंदिरों का दिल दुखाने के लिये होते थे ताकि राम मंदिर विरोधियों से उनको निरंतर बोलने और लिखने के लिये प्रायोजन मिलता रहे। मुश्किल यह है कि ऐसे बुद्धिजीवी आज़ादी के बाद से ही छद्म रूप से भारत हितैषी संस्थाआंें से प्रयोजित रहे। हिन्दी के नाम पर इनको इनाम तो मिलते ही हैं साथ ही हिन्दी को समृद्ध करने के नाम पर अन्य विदेशी भाषाओं से अनुवाद का काम भी मिलता है। यह अपने अनुवादित काम को ही हिन्दी का साहित्य बताते रहे हैं। अब आप इनसे पूछें कि हर देश की सामाजिक पृष्ठभूमि तथा भौगोलिक स्थिति अलग अलग होती है तो वहां के पात्र या विचाराधाराऐं किस आधार पर यहां उपयुक्त हो सकती हैं? खासतौर से जब हमारे समाज में अभी तक धर्म से कम ही धन की प्रधानता रही है।
बहरहाल अब इनका रुदन राम भक्तों की उस पीड़ा को हर लेता है जो इन लोगों ने कथित रूप से सभी धर्म समान की राज्यीय नीति की आड़ में उसका समर्थन करते हुए नाम तथा नामा पाने के लिये बयान देकर या लेख लिखकर दी थी। हालांकि इनकी रुदन क्षमता देखकर हैरानी हो रही है कि वह बंद ही नहीं होता। गाहे बगाहे अखबार या टीवी पर कोई न कोई आता ही रहता है जो राम मंदिर बनने की संभावनाओं पर रुदन करता रहता है। कहना चाहिये कि राम भक्तों की हाय उनको लग गई है। सच कहते हैं कि गरीब की हाय नहीं लेना चाहिए। भारत में गरीब लोगों की संख्या ज्यादा है पर इनमें अनेक भगवान राम मंदिर में अटूट आस्था रखते हैं। यह लोग किसी का प्रायोजन नहीं कर सकते जबकि राम मंदिर विरोधियों में यह क्षमता है कि वह बुद्धिजीवी और प्रचार कर्मियों को प्रायोेजित कर सकते हैं। ऐसे में अल्पधनी राम भक्त सिवाय हाय देने के और क्या कर सकते थे? कहते हैं जो होता है कि राम की मर्जी से होता है। राम से भी बड़ा राम का नाम कहा जाता है। यही कारण है कि राम मंदिर के विरोधी भी राम का नाम तो लेते हैं इसलिये उन पर माया की कृपा हो ही जाती है। अलबत्ता अंततः राम भक्तों की हाय उनको लग गयी कि अब उनका रुदन सुखदायी रूप में प्रकट हुआ।
इस पर प्रस्तुत है एक हास्य कविता
————————–
जब से राम मंदिर बनने की संभावना
सभी को नज़र आई है,
विरोधियों की आंखों से
आंसुओं की धारा बह आई है।
कहते हैं कि चलती रहे जंग यह
हमें आगे करना और कमाई है,
उनका कहना है कि न राम से काम
न वह जाने सीता का नाम,
बस, मंदिर नहीं बने,
ताकि लोग रहें भ्रम में
और विदेशी विचाराधाराओं की आड़ में
उनकी संस्थाओं का तंबु तने,
मंदिर में जो चढ़ावा जायेगा,
हमारी जेब को खाली कराऐगा,
इसलिये सभी धर्मो की रक्षा के नाम पर
राम मंदिर न बनने देने की कसम उन्होंने खाई है,
जिसके जीर्णोद्धार की संभावनाओं ने
मिट्टी लगाई है।
कौन समझाये उनको
राम से भी निराला है उनका चरित्र
उन्होंने कभी नाव लादी गाड़ी पर
कभी गाड़ी नाव पर चढ़ाई है।
————

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विदुर दर्शन-प्रजा को आजीविका न देने वाला राष्ट नष्ट हो जाता है (kingdom and public-hindu dharma sandesh)


आजीव्यः सर्वभूतानां राजा पज्र्जन्यवद्भुवि।
निराजीव्यं त्यजन्त्येनं शुष्कवृक्षभिवाउढजाः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा मेघों के समान सब प्राणियों को आजीविका देता है। जो राजा प्रजा को आजीविका नहीं दे पाता उसका साथ सभी छोड़ जाते हैं, जिस प्रकार पेड़ को पक्षी छोड़ जाते हैं।
उत्थिता एवं पूज्यन्ते जनाः काय्र्यर्थिभिर्नरःै।
शत्रुवत् पतितं कोऽनुवन्दते मनावं पुनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति कार्य सिद्धि की अभिलाषा रखते हैं वह उत्थान की तरफ बढ़ रहे पुरुष का सम्मान करते हैं और जो पतन की तरफ जाता दिखता है उसे त्याग देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में अपनी भौतिक उपलब्धियों को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिये। यदि आप धनी है पर समाज के किसी काम के नहीं है तो कोई आपका हृदय से सम्मान नहीं करता। जिस तरह जो राजा अपनी प्रजा को रोजगार नहीं उपलब्ध कराता उसे प्रजा त्याग देती है वैसे ही अगर धनी मनुष्य समाज के हित पर धन व्यय नहीं करता तो उसे कोई सम्मान नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अगर आप समाज के शिखर पुरुष हैं तो जितना हो सके अपने आसपास और अपने पर आश्रित निर्धनों, श्रमिकों और बेबसों पर रहम करिये तभी तो आपका प्रभाव समाज पर रह सकता है वरना आपके विरुद्ध बढ़ता विद्रोह आपका समग्र भौतिक सम्राज्य भी नष्ट कर सकता है।
हमारे प्राचीन महापुरुष अनेक प्रकार की कथा कहानियों में समाज में समरसता के नियम बना गये हैं। उनका आशय यही है कि समाज में सभी व्यक्ति आत्मनियंत्रित हों। जिसे आज समाजवाद कहा जाता है वह एक नारा भर है और उसे ऊपर से नीचे की तरफ नारे की तरह धकेला जाता है जबकि हमारे प्राचीन संदेश मनुष्य को पहले ही चेता चुके हैं कि राजा, धनी और प्रभावी मनुष्य को अपने अंतर्गत आने वाले सभी लोगों को प्रसन्न रखने का जिम्मा लेना चाहिए। उनका आशय यह है कि समाजवाद लोगों में स्वस्फूर्त होना चाहिये जबकि आजकल इसे नारे की तरह केवल राज्य पर आश्रित बना दिया गया है। इस सामाजिक समरसता के प्रयास की शुरुआत भले ही राज्य से हो पर समाज में आर्थिक, सामाजिक, और प्रतिष्ठत पदों पर विराजमान लोगों को स्वयं ही यह काम करना चाहिये। इसके लिये हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों से जीवन के नियम सीखें न कि पश्चिम या पूर्व से आयातित नारे गाते हुए भ्रम में रहना चाहिए। केवल नारे लगाने से गरीब या कमजोर का उद्धार नहीं होता बल्कि इसके लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये। जो राज्य अपने गरीब, असहाय तथा तकलीफ पड़े आदमी या समूह की सहायता नहीं करता वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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बहुत सारी खुशियां भी हैं इस जहां में -व्यंग्य चिंतन


अगर आप हमसे पूछें कि सबसे अधिक किस विषय पर लिखना पढ़ना बोझिल लगता है तो वह है अपने देवी देवताओं फूहड़ चित्र बनाने या उन पर हास्य प्रस्तुति करने वालों का विरोध का विषय ऐसा है जिस पर कुछ कहना बोझिल बना देता है। अगर कहीं ऐसा देख लेते हैंे तो निर्लिप्त भाव से देखकर मुख फेर लेते हैं। इसका कारण यह नहीं कि अपनी अभिव्यक्ति देने में कोई भय होता है बल्कि ऐसा लगता है कि एकदम निरर्थक काम कर रहे हैं। उनके कृत्य पर खुशी तो हो नहीं सकती, चिढ़ आती नहीं पर अगर केवल अभिव्यक्ति देनी है इसलिये उस पर लिखें तो ऐसा लगता है कि अपने को कृ़ित्रम रूप से चिढ़ाकर उसका ही लक्ष्य पूरा कर रहे हैं जिसमें हमें मिलना कुछ नहीं है। ऐसे में जब दूसरे लोग उनकी बात पर चिढ़कर अभिव्यक्त होते हैं तो लगता है कि वह ऐसे अप्राकृत्तिक लोगों का आसान शिकार बन रहे हैं-अपने कृत्यों से प्रचार पाना ही उन लोगों का लक्ष्य होता है भले ही उनको गालियां मिलती हों। उनका मानना तो यह होता है कि ‘बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ!’
भले ही कुछ लोग इससे सहमत न हों पर जब हम विचलित नहीं हो रहे तो दूसरों की ऐसी प्रवृत्ति पर कटाक्ष करने का अवसर इसलिये ही मिल पाता है। अभी दो प्रसंग हमारे सामने ऐसे आये जिनका संबंध भारतीय धर्मों या विचारधारा से नहीं है। वैसे यहां हम स्पष्ट कर दें कि हमारी आस्था श्रीमद्भागवत् गीता और योग साधना के इर्दगिर्द ही सिमट गयी है और इस देश का आम आदमी चाहे किसी भी धार्मिक विचाराधारा से जुड़ा हो हम भेद नहीं करते। हमारा मानना है कि हर धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूहों का आम इंसान अपने जीवन की तकलीफों से जूझ रहा है इसलिये वह ऐसे विवादों को नहीं देखना चाहता जो प्रायोजित कर उसके सामने प्रस्तुत किये जाते हैं। मतलब हम आम लेखक अपने आम पाठकों से ही मुखातिब हैं और उन्हें यह लेख पढ़ते हुए अपनी विचारधारायें ताक पर रख देना चाहिये क्योकि यह लिखने वाला भी एक आम आदमी है।
चीन की एक कंपनी ने किसी के इष्ट का चिन्ह चप्पल के नीचे छाप दिया। अब उसको लेकर प्रदर्शन प्रायोजित किये जा रहे हैं। उधर किसी पत्रिका में किसी के इष्ट को मुख में बोतल डालते हुए दिखाया गया है। उस पर भी हल्ला मच रहा है। इन गैर भारतीय धर्मो के मध्यस्थ-जी हां, हर धर्म में सर्वशक्तिमान और आम इंसान के बीच इस धरती पर पैदा हुआ ही इंसान मार्गदर्शक बनकर विचरता है जो तय करता है कि कैसे धर्म की रक्षा हो-भारत में पैदा हुए धर्मों पर अविकासवादी चरित्र, असहिष्णु, क्रूर तथा अतार्किक होने का आरोप लगाते हैं। हम उनके जवाब में अपनी सहिष्णुता, तार्किकता, विकासमुखी चरित्र या उदारता की सफाई देने नहीं जा रहे बल्कि पूछ रहे हैं कि महाशयों जरा बताओ तो सही कि अगर किसी ने चप्पल के नीचे या किसी पत्रिका में ऐसा चित्र छाप दिया तो तुम उसे देख ही क्यों रहे हो? और देख रहे हो तो हमारी तरह मुंह क्यों नहीं फेरे लेते।
ऐसा एक बार नहीं अनेक बार हुआ है कि भारतीय देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया पर हमने कभी भी उस इतना शोर नहीं मचाया। इतना ही नहीं सर्वशक्तिमान के स्वरूपों को पेंट या जींस पहनाकर की गयी प्रस्तुति का विरोधी करने वाले सहविचारकों को भी विरोध करने पर फटकारा और समझाया कि ‘यह सब चलता है।’
एक ने हमसे कहा था कि‘आप कैसी बात करते हो, किसी दूसरे समाज के इष्ट स्वरूप की कोई ऐसी प्रस्तुति करता तो पता लगता कि वह कैसे शोर मचा रहे हैं।’
हमने जवाब दिया कि ‘याद रखो, उनसे हमारी तुलना नहीं है क्योंकि हमारे देश में ही ब्रह्म ज्ञानी और श्रीगीता सिद्ध पैदा होते हैं। इनमें कई योगी तो इतने विकट हुए हैं कि आज भी पूरा विश्व उनको मानता है।’
सर्वशक्तिमान का मूल स्वरूप निराकार और अनंत है। जिसके हृदय प्रदेश में विराज गये तो वह हर स्वरूप में उसका दर्शन कर लेता है, भले ही वह धोते पहने दिखें या जींस! कहने का तात्पर्य यह है कि भक्ति की चरम सीमा तक केवल भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी ही पहुंच पाते हैं-यही कारण है कि भारत के सर्वशक्तिमान के स्वरूपों का कोई भद्दा प्रदर्शन प्रस्तुत करता है तो उस पर बुद्धिजीवियों का ही एक वर्ग बोलता है पर संत और साधु समाज उसे अनदेखा कर जाते हैं।
जाकी रही भावना जैसी! गुण ही गुणों बरतते हैं। शेर चिंघाडता है, कुत्ता भौंकता है और गाय रंभाती है क्योंकि यह उनके गुण है। हंसना और मुस्कराना इंसान को कुदरत का तोहफा है जिसका उसे इस्तेमाल करना चाहिये। भौंकने का जवाब भौंकने से देने का अर्थ है कि अपने ही ज्ञान को विस्मृत करना। हमारे यहां हर स्वरूप में भगवान के दर्शन में एक निरंकार का भाव होता है।
एक चित्रकार ने भारतीय देवी देवताओं के भद्दे चित्र बनाये। लोगों ने उसका विरोध कर उसे विश्व प्रसिद्ध बना दिया। अज्ञानता वश हम विरोध कर दूसरों का विश्व प्रसिद्ध बनाते जायें इससे अच्छा है कि मुंह फेरकर उनकी हवा निकाल दें। उस चित्रकार के कृत्य हमने भी विचार किया तब यह अनुभूति हुई कि उसका क्या दोष? जैसे संस्कार मिले वैसा ही तो वह चलेगा। बुढ़ापे में एक युवा फिल्म अभिनेत्री से आशिकी के चर्चे मशहुर करा रहा था? दरअसल भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से वह बहुत दूर था। जब भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से जुड़े समाज में पैदा हुए लोग ही भूल जाते हैं तो वह तो पैदा ही दूसरे समाज में हुआ था। उसका उसे यह लाभ मिला कि वह आजकल विदेश में ऐश कर रहा है क्योंकि उसे यह कहने का अवसर मिल गया है कि मुझे वहां खतरा है।’
कहने का तात्पर्य यह है कि हम विरोध कर दूसरे को लोकप्रिय बना रहे हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उपेक्षासन का वर्णन है। यह पढ़ा तो अब हमने पर चल इस पर बरसों से रहे हैं। दूसरे समाजों के लिये तो यह नारा है कि ‘और भी गम हैं इस जमाने में’, पर हमारा नारा तो यह है कि ‘बहुत सारी खुशियां भी हैं इस जहां में’। देखने के लिये इतनी खूबसूरत चेहरे हैं। यहां कोई पर्दा प्रथा नहीं है। हम लोग सभी देवताओं की पूजा करते हैं और उसका नतीजा यह है कि वन, जल, तथा खनिज संपदा में दुनियां की कोई ऐसा वस्तु नहंी है जो यहां नहीं पायी जाती। विश्व विशेषज्ञों का कहना है कि ‘भूजल स्तर’ सबसे अधिक भारत में ही है। जहां जल देवता की कृपा है वहीं वायु देवता और अग्नि देवता-जल में आक्सीजन और हाईड्रोजन होता है-का भी वास रहता है। इतनी हरियाली है कि मेहनत कर पैसा कमाओ तो स्वर्ग का आनंद यहीं ले लो उसके लिये जूझने की जरूरत नहीं है। लेदेकर संस्कारों की बात आती है और भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में योग साधना तथा मंत्रोच्चार के साथ एसी सिद्धि प्रदान करने की सुविधा प्रदान करता है कि दैहिक और मानसिक अनुभूतियां इतनी सहज हो जाती हैं कि उससे किसी भी अपने अनुकूल किसी अच्छी वस्तु, पसंदीदा आदमी, या प्रसन्न करने वाली घटना से संयोग पर परम आनंद की चीजें प्राप्त हो जाती हैं। बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो तथा बुरा मत कहो की तर्ज पर हमारे यहां लोग आसानी से चलते हैं न कि हर जरा सी बात पर झंडे और डंडे लेकर शोर मचाने निकलते हैं कि ‘हाय हमारा धर्म खतरे में है।’
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की महिमा ऐसी है कि यहां के आदमी बाहर जाकर भी इसे साथ ले जाते हैं और यहां रहने वाले दूसरे समाजों के आम लोग भी स्वतः उसमें समाहित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की यह खूबी है कि कुछ बाहर स्थापित विचारों को भले ही मानते हों पर उनमें संस्कार तो इसी जमीन से पैदा होते हैं। यही कारण है कि आम आदमी सभी समूहों के करीब करीब ऐक जैसे हैं पर उनको अलग दिखाकर द्वंद्व रस पिलाया जाये ताकि उनके जज़्बातों का दोहन हो सके इसलिये ही ऐसे शोर मचावाया जाता है। ऐसे लोगों का प्रयास यही रहता है कि आम आदमी एक वैचारिक धरातल पर न खड़ा हो इसलिये उनमें वैमनस्य के बीच रोपित किये जायें।
दरअसल प्रचार माध्यम आम आदमी के दुःख सुख तथा समस्याओं को दबाने के लिये ऐसे प्रायोजित कार्यक्रमों के जाल में फंस जाते हैं और इससे शोर का ही विस्तार होता है शांति का नहीं-जैसा कि वह दावा करते हैं।
इस लेखक का यह लेख उस गैरभारतीय धर्मी ब्लागर को समर्पित है जिसने अपने इष्ट पर कार्टून बनाने के विरोध में अपने समाज के ठेकेदारों द्वारा आयोजित प्रदर्शन पर व्यंग्य जैसी सामग्री लिखी थी। उसने बताया था कि किस तरह लोग उस प्रदर्शन में शामिल हुए थे कि उनको पता ही नहीं था कि माजरा क्या है? अनेक बार एक पत्रिका पर ब्लाग देखकर भी मन नहीं हुआ था पर उसके लेख ने ऐसा प्रेरित किया कि फिर लिखने निकल पड़े-क्योंकि पता लगा कि यह स्वतंत्र और मौलिक अभिव्यक्ति का एक श्रेष्ठ मार्ग है। अक्सर उसे ढूंढने का प्रयास करते हैं। संभावना देखकर अनेक ब्लाग लेखकों के तीन वर्ष पुराने पाठों तक पहुंच जाते हैं, पर अभी तक पता नहीं लगा पाये।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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आज बसंत पंचमी है-आलेख (today basat panchami-hindi article)


इस बार की बसंत पंचमी में सर्दी का प्रकोप घेर कर बैठा है। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा कि मौसम समशीतोष्ण हुआ हो, अलबत्ता लगता है कि सर्दी थोड़ा कम है पर इतनी नहीं कि उसके प्रति लापरवाही दिखाई जा सके।
अगर पर्व की बात करें तो बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। यह मौसम खाने पीने और घूमने के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है-यानि पूरा माह आनंद के लिये उपयुक्त है। समशीतोष्ण मौसम हमेशा ही मनुष्य को आनंद प्रदान करता है। वैसे हमारे यहां भले ही सारे त्यौहार एक दिन मनते हैं पर उनके साथ जुड़े पूरे महीने का मौसम ही आनंद देने वाला होता है। ऐसा ही मौसम अक्टुबर में दिपावली के समय होता है। बसंत के बाद फाल्गुन मौसम भी मनोरंजन प्रदान करने वाला होता है जिसका होली मुख्य त्यौहार है। दिवाली से लेकर मकर सक्रांति तक आदमी का ठंड के मारे बुरा हाल होता है और ऐसे में कुछ महापुरुषों की जयंती आती हैं तब भक्त लोग कष्ट उठाते हुए भी उनको मनाते हैं क्योंकि उनका अध्यात्मिक महत्व होता है। मगर अपने देश के पारंपरिक पर्व इस बात का प्रमाण हैं कि उनका संबंध यहां के मौसम से होता है।
प्रसंगवश फरवरी 14 को ही आने वाले ‘वैलंटाईन डे’ भी आजकल अपने देश में नवधनाढ्य लोग मनाते हैं पर दरअसल मौसम के आनंद का आर्थिक दोहन करने के लिये उसका प्रचार बाजार और उसके प्रचार प्रबंधक करते हैं।
बसंत पंचमी पर अनेक जगह पतंग उड़ाकर आनंद मनाया जाता है हालांकि यह पंरपरा सभी जगह नहीं है पर कुछ हिस्सों में इसका बहुत महत्व है।
बहुत पहले उत्तर भारत में गर्मियों के दौरान बच्चे पूरी छूट्टियां पतंग उड़ाते हुए मनाते थे पर टीवी के बढ़ते प्रभाव ने उसे खत्म ही कर दिया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि पहले लोगों के पास स्वतंत्र एकल आवास हुआ करते थे या फिर मकान इस तरह किराये पर मिलते कि जिसमें छत का भाग अवश्य होता था। हमने कभी बसंत पंचमी पर पतंग नहीं उड़ाई पर बचपन में गर्मियों पर पतंग उड़ाना भूले नहीं हैं।

आज टीवी पर एक धारावाहिक में पंतग का दृश्य देखकर उन पलों की याद आयी। जब हम अकेले ही चरखी पकड़ कर पतंग उड़ाते और दूसरों से पैंच लड़ाते और ढील देते समय चरखी दोनों हाथ से पकड़ते थे। मांजा हमेशा सस्ता लेतेे थे इसलिये पतंग कट जाती थी। अनेक बाद चरखी पकड़ने वाला कोई न होने के कारण हाथों का संतुलन बिगड़ता तो पतंग फट जाती या कहीं फंस जाती। पतंग और माजा बेचने वालों को उस्ताद कहा जाता था। एक उस्ताद जिससे हम अक्सर पतंग लेते थे उससे एक दिन हमने कहा-‘मांजा अच्छा वाला दो। हमारी पतंग रोज कट जाती है।’
उसे पता नहीं क्या सूझा। हमसे चवन्नी ले और स्टूल पर चढ़कर चरखी उतारी और उसमें से मांजा निकालकर हमको दिया। वह धागा हमने अपने चरखी के धागे में जोड़ी। दरअसल मांजे की पूरी चरखी खरीदना सभी के बूते का नहीं होता था। इसलिये बच्चे अपनी चरखी में एक कच्चा सफेद धागा लगाते थे जो कि सस्ता मिलता था और उसमें मांजा जोड़ दिया जाता था।
बहरहाल हमने उस दिन पतंग उड़ाई और कम से कम दस पैंच यानि पतंग काटी। उस दिन आसपास के बच्चे हमें देखकर कर हैरान थे। अपने से आयु में बड़े प्रतिद्वंदियों की पंतग काटी। ऐसा मांजा फिर हमें नहीं मिला। यह पतंग उड़ाने की आदत कब चली गयी पता ही नहीं चला। हालांकि हमें याद आ रहा है कि हमारी आदत जाते जाते गर्मियों में इतने बड़े पैमाने पर पतंग उड़ाने की परंपरा भी जाती रही।
एक बात हम मानते हैं कि परंपरागत खेलों का अपना महत्व है। पहले हम ताश खेलते थे। अब ताश खेलने वाले नहीं मिलते। शतरंज तो आजकल भी खेलते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता होने के कारण साथी खिलाड़ी मिल जाते हैं। जितना दिमागी आराम इन खेलों में है वह टीवी वगैरह से नहीं मिलता। हमारे दिमागी तनाव का मुख्य कारण यह है कि हमारा ध्यान एक ही धारा में बहता है और उसको कहीं दूसरी जगह लगाना आवश्यक है-वह भी वहां जहां दिमागी कसरत हो। टीवी में आप केवल आंखों से देखने और कानों से सुनने का काम तो ले रहे हैं पर उसके प्रत्युत्तर में आपकी कोई भूमिका नहीं है। जबकि शतरंज और ताश में ऐसा ही अवसर मिलता है। मनोरंजन से आशय केवल ग्रहण करना नहीं बल्कि अपनी इंद्रियों के साथ अभिव्यकत होना भी है।
वैसे कल बसंत पंचमी पर लिखने का विचार आया था पर एक दिन पहले लिखने में हमें मजा नहीं आता। सुबह बिजली नहीं होती। हमारे घर छोड़ने के बाद ही आती है। इधर रात आये तो पहले सोचा कुछ पढ़ लें। एक मित्र के ब्लाग पर बसंत पंचमी के बारे में पढ़ा। सोचा उसे बधाई दें पर तत्काल बिजली चली गयी। फिर एक घंटा बाद लौटी तो अपने पूर्ववत निर्णय पर अमल के लिये उस मित्र के ब्लाग पर गये और बधाई दी। तब तक इतना थक चुके थे कि कुछ लिखने का मन ही नहीं रहा। वैसे इधर सर्दी इतनी है कि बसंत के आने का आभास अभी तो नहीं लग रहा। कुछ समय बाद मौसम में परिवर्तन आयेगा यह भी सच है। बसंत पंचमी का एक दिन है पर महीना तो पूरा है। इस अवसर पर ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई। उनके लिये पूरा वर्ष मंगलमय रहे।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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नया वर्ष और सितारों के सितारे-हिन्दी व्यंग्य लेख (happy new year and srar of star-hindi vyangya lekh)


धरती के सितारों को अपने सितारों की फिक्र नहीं जितनी कि उनके चेहरे, अदायें और मुद्रायें बेचने वालों को है। धरती के बाकी हिस्से का नहीं पता पर भारतीय धरती के सितारे तो दो ही बस्तियों में बसते हैं-एक है क्रिकेट और दूसरी है फिल्म। यही कारण है कि टीवी चैनल ज्योतिषियों को लाकर उनका भविष्य अपने कार्यक्रमों में दिखा रहे हैं। समाचार चैनलों को कुछ ज्यादा ही फिक्र है क्योंकि वह नव वर्ष के उपलक्ष्य में कोई प्रत्यक्ष कार्यक्रम नहीं बनाते बल्कि मनोरंजन चैनलों से उधार लेते हैं। इसलिये अगर इस साल का आखिरी दिन का समय काटना कहें या टालना या ठेलना उनके लिये दुरुह कार्य साबित होता दिख रहा है।
उनको इंतजार है कि कब रात के 12 बजें तो नेपथ्य-पर्दे के पीछे-कुछ संगीत को शोर तो कुछ फटाखों के स्वर से सजी पहले से ही तैयार धुनें बजायें और उसमें प्रयोक्ताओं को आकर्षित अधिक से अधिक संख्या में कर अपने विज्ञापनदाताओं को अनुग्रहीत करें-अनुग्रहीत इसलिये लिखा क्योंकि विज्ञापनदाताओं को तो हर हाल में विज्ञापन देना है क्योंकि उनके स्वामियों को भी इन समाचार चैनलों में अपने जिम्मेदार व्यक्तित्व और चेहरे प्रचार कराना है। इस ठेला ठेली में एक दिन की बात क्या कहें पिछले एक सप्ताह से सारे चैनल जूझ रहे हैं-नया वर्ष, नया वर्ष। ऐसे में समय काटना जरूरी है तो फिर क्रिकेट और फिल्म के सितारों का ही आसरा बचता है क्योंकि उनके विज्ञापनों में अधिकतर वही छाये रहते हैं।
अगर किसी सितारे की फिल्म पिट जाये तो भी उनके विज्ञापन पर गाज गिरनी है और किसी क्रिकेट खिलाड़ी का फार्म बिगड़ जाये तो भी उनको ही भुगतना है-याद करें जब 2007 में पचास ओवरीय क्रिकेट मैचों की विश्व कप प्रतियोगिता में भारत हारा तो लोगों के गुस्से के भय से सभी ने उनके अभिनीत विज्ञापनों कोे हटा लिया था और यह तब तक चला जब भारत को बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता जीतने का मौका नहीं दिया गया! उस समय बड़े बड़े नाम गड्ढे में गिर गये लगते थे पर फिर अब वही सामने आ गये हैं। जिनके भविष्य पूछे जा रहे हैं यह वही हैं जिनका 2007 में दस महीने तक लोग चेहरा तक नहीं देखना चाहते थे।
हैरानी होती है यह सब देखकर! कला, खेल, साहित्य, पत्रकारिता तथा अन्य आदर्श क्षेत्रों पर बाजार अपने हिसाब से दृष्टि डालता है और उस पर आश्रित प्रचार माध्यम वैसे ही व्यवहार करते हैं।
उद्घोषक पूछ रहा है कि ‘अमुक खिलाड़ी का नया वर्ष कैसा रहेगा?’ज्योतिषी बता रहा है‘ ग्रहों की दशा ठीक है। इसलिये उनका नया साल बहुत अच्छा रहेगा।’
नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक चैन की सांस ले रहा होगा-‘चलो, यार इसके विज्ञापन तो बहुत सारे हैं। इसलिये अपने ग्रह अच्छे हैं।’
फिर ज्योतिषी दूसरे खिलाड़ी के बारे में बोल रहा है-‘उसके ग्रह भारी हैं। अमुक ग्रह की वजह से उनके चोटिल रहने की संभावनायें हैं, हालांकि इसके बावजूद उनका प्रदर्शन अच्छा रहेगा।’
प्रचार प्रबंधक ने सोचा होगा-‘अरे यार, ठीक है चोटिल रहेगा तो भी खेलेगा तो सही! अपने विज्ञापन तो चलते रहेंगे। हमें क्या!
तीसरे खिलाड़ी के बारे में ज्योतिषी जब बोलने लगा तो उसके अधरों पर एक मुस्काल खेल गयी-शायद वह सोच रहे थे कि सारी दुनियां इस खिलाड़ी के भविष्यवाणी का इंतजार कर रही है और वह अपने मेहमान चैनल के सभी लोगों का खुश करने जा रहे हैं। वह बोले-‘यह खिलाड़ी तो स्वयं ही बड़ा सितारा है। इसके पास अभी साढ़े तीन साल खेलेने के लिये हैं। यह भी बढ़िया रहेंगे!’
उदुघोषक भी खुश हो गया क्योंकि उसे लगा होगा कि नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक इससे बहुत उत्साहित हुआ होगा। वह बीच में बोला-‘वह सितार क्या अगले वर्ष भी ऐसे ही कीर्तिमान बनाता रहेगा, जैसे इस साल बना रहा है।’
ज्योतिषी ने कहा-‘हां!’
वहां मौजूद सभी लोगों के चेहरे पर खुशी भरी मुस्कान की लहरें खेलती दिख रही थीं।
हमें भी याद आया कि हम पुराने ईसवी संवत् से नये की तरफ जा रहे हैं इसलिये बाजार और प्रचार के इस खेल में बोर होने से अच्छा है कि अपना कुछ लिखें। हमारी परवाह किसे है? हम ठहरे आम प्रयोक्ता! आम आदमी! विदेशों का तो पता नहीं पर यहां बाजार अपनी बात थोपता है। ऐसे ज्योतिष कार्यक्रम तीन महीने बाद फिर दिखेंगे जब अपना ठेठ देशी नया वर्ष शुरु होगा पर उस समय इतना शोर नहीं होगा। बाजार ने धीरे धीरे यहां अपना ऐजेंडा थोपा है। अरे, जिसे वह कीर्तिमान बनाने वाला सितारा कह रहे हैं उसके खाते में ढेर सारी निजी उपलब्धियां हैं पर देश के नाम पर एक विश्व कप नहीं है।
सोचा क्या करें! इधर सर्दी ज्यादा है! बाहर निकल कर कहां जायें! ऐसे में अपना एक पाठ ठेल दें। अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं है क्योंकि डर लगता है कि कोई ऐसा वैसा बता दे तो खालीपीली का तनाव हो जायेगा। जो खुशी आयेगी वह स्वीकार है और जो गम आयेगा उससे लड़ने के लिये तैयार हैं। फिर यह समय का चक्र है। न यहां दुःख स्थिर है न सुख। अगर हम भारतीय दर्शन को माने तो आत्मा अमर है इसका मतलब है कि जीवन ही स्थिर नहीं है मृत्यु तो एक विश्राम है। ऐसे में उस सर्वशक्तिमान को ही नमन करें जो सभी की रक्षा करता है और समय पड़ने पर दुष्टों का संहार करने के लिये स्वयं प्रवृत्त भी होता है।
बहरहाल याद तो नहीं आ रहा है पर उस दिन कहीं सुनने, पढ़ने या देखने को मिला कि कुंभ राशि में बृहस्पति महाराज का प्रवेश हो रहा है। बृहस्पति सबसे अधिक शक्ति शाली ग्रह देवता हैं और वाकई उसके बाद हमने महसूस किया जीवन के कमजोर चल रहे पक्ष में मजबूती आयी। वैसे नाम से हमारी राशि मीन पर जन्म से कुंभ है। इन दोनों का राशिफल करीब करीब एक जैसा रहता है। हमारे सितारों की फिक्र हम नहीं करते पर दूसरा भी क्यों करेगा क्योंकि हम सितारे थोड़े ही हैं। यह अलग बात है कि सितारे अपने सितारों की फिक्र नहीं भी करते हों-इसकी उनको जरूरत भी क्या है-पर उनके सहारे धन की दौलत के शिखर पर खड़ा बाजार और उसके सहारे टिका प्रचार ढांचे से जुड़े लोगों को जरूर फिक्र है वह भी इसलिये क्योंकि वह बिकती जो है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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