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सोने कितना सोना है-हिन्दी चिंत्तन लेख एवं कविता (sona kitna sona hai-hindi chinttan article and poem)


इस संसार की रचना सत्य और माया के संयोग से हुई है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन करें तो सत्य का कोई न रंग है, न रूप है, न चाल है चेहरा है और न ही उसका कोई नाम है न पहचान है। इसके विपरीत माया अनेक रंगों वाली है क्योंकि वह संसार को बहुत सारे रूप प्रदान करती है। वह पंचतत्वों से हर चीज बनाती है पर सबका रूप रंग अलग हो जाता है। इस धरती के अधिकतर लोग अपने मस्तिष्क में सत्य के तत्वज्ञान का संग्रह करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि वह माया के रंग और रूप से मोहित हैं।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य को क्या चाहिये? खाने को रोटी, पहने को कपड़े और रहने के लिये आवास! मगर इससे वह संतुष्ट नहीं होता। रोटी का संग्रह वह पेट में अधिक नहीं कर सकता। पेट में क्या वह लोहे की पेटी में भी कई दिन तक नहीं रोटी नहीं रख सकता। इसलिये गेंहूं खरीदकर रख लेता है। सब्जियां भी वह छह सात दिन से अधिक अपने यहां नहीं रख सकता। उसे हमेशा ताजी खरीदनी पड़ती हैं। इसे खरीदने के लिये चाहिये उसे मुद्रा।
मुद्रा यानि रुपया या पैसा। देखा जाये तो यह रुपया और पैसा तो झूठी माया में भी झूठा है। जितने में नोट या सिक्के का निर्माण होता है उससे अधिक तो उनका मूल्य होता है। राज्य के यकीन पर उसका मूल्य अधिक होता है। राज्य का यह वादा रहता है कि अगर कोई उस नोट या सिक्के का धारक उसके पास लायेगा तो वह उतने मूल्य का उसे सोना प्रदान करेगा। इस हिसाब से हम कह सकते हैं कि इस धरती पर माया का ठोस स्वरूप में सोना सबसे अधिक प्रिय है। सोना ठोस तथा दीर्घायु है पर उसका प्रतिनिधित्व कागज का जो नोट करता है वह समय के साथ पुराना पड़ जाता है। अब सोने का भी उपयोग समझ लें। उसे खाकर कोई पेट नहीं भर सकता। पेटी में रखकर लोग खुश रहते हैं कि उनका वह बड़ा सहारा है। यह सोच अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है। अगर कोई आपत्ति आ जाये तो उसी सोने को बाजा़ार में बेचकर फिर कागज के उसका प्रतिनिधित्व करने वाले रुपये या सिक्के प्राप्त करने पड़ते हैं। कहां दीर्घायु सोना अपने से अल्पजीवी कागज पर आश्रित हो जाता है।
एक विद्वान ने कहा था कि भारत में इतना सोना है कि सारी दुनियां एक तरफ और भारत एक तरफ। यकीन नहीं होता पर जिस तरह यहां गड़े धन मिलते हैं इस पर यकीन तो होता है कि यह देश हमेशा ही सोने का गुलाम रहा है। स्त्रियां गहने पहनती हैं। माता पिता दहेज में अपनी बेटी को गहने इस विश्वास के साथ देते हैं कि जब पहनेगी तो अपने मायके तथा ससुराल के में श्रीवृद्धि होगी। यदि कहीं उसे आर्थिक आपदा का सामना करना पड़ा तो वह सोना पितृतुल्य सेवा करेगा। उसके बाद कुछ लोग इस आशा से सोना करते हैं कि वही असली मुद्रा है। जैसे जैसे आदमी की दौलत बढ़ती है वह नोट और सिक्के की बजाय सोने की ईंटें रखने लगता है।
वह सोना सबको प्रिय है जो प्रत्यक्ष रूप से प्यास लगने पर पानी का एक घूंट नहीं पिला सकता और भूख लगने पर एक दाना भी नहीं खिला सकता मगर जिस अनाज से पेट भरता है उसे हमारे देश का आदमी पांव तले रौंदता है और जिस पानी से प्यास बुझती है उसे मुफ्त में बहाता है। सोना भारत में नहीं पैदा होता पर वह बड़ी मात्रा में इसलिये यहां है कि यहां प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा है। दुनियां में भारत ही ऐसा देश है जहां भूजलस्तर सबसे ऊपर है। इसलिये यहां अधिकांश भाग में हरियाली बरसती है। जहां सोना या पेट्रोल पैदा होता है वहां रेत के पहाड़ हैं। लोग पानी को सोने की तरफ खर्च करते हैं।
माया स्वयं सक्रिय है और आदमी को भी सक्रिय रखती है। अपने आंख, कान, नाक और मुख को बाहरी दृश्यों में व्यस्त आदमी आत्म चिंतन नहीं करता। उसे अंदर झांकने से भय लगता है। कहीं न बोलने वाला सत्य बोलने लगा तो क्या कहेगा? न देखने वाला सत्य क्या देखेगा? उसके लिये लिये अंदर झांकने की सोचना भी कठिन है। ऐसे में वह माया के खेल में फंसा रहना ही वह जिंदगी समझता है। धीरे धीरे वह सत्य से इतना दूर हो जाता है कि लूट और मज़दूरी की कमाई का अंतर तक नहीं समझता। अनेक भ्रष्टाचारियों के यहां छापे मारने पर एक से दस किलो तक सोना मिला। इन घटनाओं से यह बात साबित हो गयी है कि हमारे देश में चिंतन की कमी है। यही कारण है कि दूसरे के मुंह में जाता निवाला भी लोग छीनकर उसे सोने में बदलते हैं।
प्रस्तुत है एक छोटी कविता
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वाह ने माया तेरा खेल,
कभी बिठाती महल में
कभी पहुंचाती जेल।
इंसान है इस भ्रम में जिंदा है
कि वह तुझसे खेल रहा है,
अपनी अल्मारी और खातों में
कहीं रुपया तो कही सोना ठेल रहा है,
ज़माने का लहू चूसकर
अपने घर सजा रहा है,
नचाती तू हैं
पर लगता इंसान को कि वह तुझे नचा रहा है,
अपने आगोश में तू भी फंसाये रहती है
इस दुनियां के इंसानो को
फिर सोने के घरों से निकालकर
लोहे की सलाखों के पीछे पहुंचाकर
निकाल देती है पूरी जिंदगी का तेल।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

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जीवन जिन्दा दिल होकर जियो-हिन्दी शायरी


दिल का कोई सौदा नहीं होता
जिस पर आता उसी का होता
चलते है जो जीवन मे साथ
निभाते हैं हर समय
चाहे न चलते हों राह पर हाथ में डालकर हाथ

अपने मन की आंखें बंद कर लो
नींद स्वयं ही आ जाती है
जो संभाला कोई ख्याल तो
फिर गायब हो जाती है
सोने से मिला सुख नहीं मिलता
जिसके लिये बनी है रात
गीत-संगीत के तोहफों से
बिखरी पड़ी है दुनियां
अपने कानों से मीठी आवाज सुनने के लिये
क्या किसी से शब्द और आवाज मांगना
इस जीवन में किससे आशा
और किससे निराशा
जिनसे उम्मीद करोगे
बनायेंगे तमाशा
जीवन को जिंदा दिलों की तरह जियो
जब तक न छोड़े अपना साथ
…………………………………..
दीपक भारतदीप

आदमी ताउम्र उठाता है भ्रमों का बोझ-कविता साहित्य


हर पल लोगों के सामने
अपना कद बढाने की कोशिश
हर बार समाज में
सम्मान पाने की कोशिश
आदमी को बांधे रहती है
ऐसे बंधनों में जो उसे लाचार बनाते

ऐसे कायदों पर चलने की कोशिश जो
सर्वशक्तिमान के बनाए बताये जाते
कई किताबों के झुंड में से
छांटकर लोगों को सुनाये जाते
झूठ भी सच के तरह बताते

सब जानते हैं कि भ्रम रचे गए हैं
आदमी को पालतू बनाने के लिए
उड़ न सके कभी आजाद पंछी की तरह
फिर भी कोई नहीं चाहता
अपने बनाए रास्ते पर
क्योंकि जहाँ तकलीफ हो वहाँ चिल्लाते
जहाँ फायदा हो वहाँ हाथ फैलाकर खडे हो जाते
समाज कोई इमारत नहीं है
पर आदमी इसमें पत्थर की तरह लग जाते

आदमी अकेला आया है
और अकेला ही जाता भी है
पर ताउम्र उठाता है ऐसे भ्रमों का बोझ
जो कभी सच होते नहीं दिख पाते
लोग पंछियों की तरह उड़ने की चाहत लिए
इस दुनिया से विदा हो जाते

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मरने की बाद जिंदा रहने के लिए-कविता साहित्य


अपने बुत वह बनवा रहे हैं
अपने मरने की बाद पूजने के लिए
भरोसा नहीं इस बात का कि
उनको बाद में कोई याद करेगा के नहीं
क्योंकि काम ही नहीं ऐसे किए

अपनों से अंहकार का व्यवहार
दूसरे का किया हमेशा तिरस्कार
बहुत है दूसरों को याद दिलाने के लिए
पर कोई ऐसा आईना बना ही नहीं
जो अपने छिद्र आदमी को दिखा सके
अपनी असलियत बताने के लिए

यही वजह है कि
हर आदमी उठाए जा रहा है
अपनी जिन्दगी का बोझ
बिना किसी का सहारा लिए
भीड़ तो बहुत जुटा लेता है
हर आदमी यहाँ पर
जिंदा रहने की कोशिश करता है
मरने की बाद जिंदा रहने के लिए
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आजादी की चाहत


एक तरफ आजादी से उड़ने की चाहत
दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के काँटों में
फंसकर करते अपने को आहत
अपने क़दमों पर चलते हुए भी
अपनी अक्ल के मालिक होते हुए भी
तमाम तरह के बोझ उठाते हैं
समाज से जुड़ने बाबत

जमीन पर चलने वाले इंसान को
परिंदों की तरह पंख भी होते तो
कभी उड़ता नहीं
क्योंकि अपने मन में डाले बैठा है
सारे संसार को अपना बनाने की चाहत
हाथ में कुछ आने का नहीं
पर जूझ रहा है सब समेटने के लिए
नहीं माँगता कभी मन की तसल्ली या राहत

अगर चैन से चलना सीख लेता
अपने क़दमों को अपनी ही तय दिशा
पर चलने देता
तो ले पाता आजादी की सांस
पर जकड़ लिया झूठे रीतिरिवाज के
बन्धन अपने
और फिर भी पालता आजादी की चाहत
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खजाना उसका दिल में है


जब भी अपनों से मन ऊब जाता
गैरों में अपनत्व ढूँढने आदमी चला जाता
अपनी ख्वाहिशों का बोझ उठाये है सभी
कोई आकर उतारे यही सोच चलता जाता
सच्चा प्यार ढूँढने सब निकलते
पर मतलब किसी के समझ में नहीं आता
आसामान से टपकती हैं उम्मीद
यही सोच ऊपर देखता चला जाता
जिन्दगी में खुशियों के लिए ढूँढता बहाने
ग़मों को बुलावा देकर आता
बाहर ढूंढें जिसको खजाना उसका दिल में है
इसे कोई-कोई शख्स ही जान पाता

जब उतरा है शराब का नशा


शराब के नशे में वादे
कर वह सुबह भूल जाते हैं
पूरे करने की बात कहो तो
याद करने के लिए बोतल
मांगने लग जाते हैं
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आदमी पीता है शराब
या आदमी को शराब
यह एक यक्ष प्रश्न है
जिसका नहीं ढूंढ पाया
कोई भी जवाब
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सिर पर चढ़ती शराब
आदमी को शेर बना देती है
दौड़ता है इधर उधर बेलगाम
काबू में नहीं रहती जुबान
उतरती चूहा बना देती है
घबडा जाता है आदमी
ढूंढता है छिपने की जगह
अपने ही हाथ में नहीं रहती
अपने दिमाग की कमान
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शराब में डूबकर अगर जिन्दगी के
सफर में पार हो जाते
तो फिर फिर झूठी क़समें और
वादों को इस दुनिया में कहाँ देख पाते

उधार की रौशनी


धीरे अस्ताचल को जाता सूरज
अपनी रोशनी समेत लेता है
जहाँ भी धरती को अंधरे में
छोड़ता है उदासी से उसका
तेज मद्धिम होता चला जाता
‘कितना अँधेरा होगा इस धरती पर
यह सोचकर आँखें बंद कर लेता है’
फिर खोलकर देखता है
नीचे टिमटिमाते हुए छोटा दीपक
जो लहराते हुए अपनी रौशनी
जैसे कह रहा हों
”सुबह तक तुम्हारा कुछ काम
मेरा कंधा भी संभाल लेता है’
मुस्कराता हुआ सूरज सोचता है
‘चंद्रमा से तो यह दीपक भला
जो मेरा काम संभालने के लिए
मुझसे ही रोशनी उधार लेता है
छोटा दीपक होकर भी
जमीन पर अँधेरे से बखूबी लड़ लेता है .
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उधार लेकर
आंखों को चकाचौंध करने वाले
बल्बों से रोशन करना अपने घर
अब नहीं सुहाता
इससे तो अन्धेरे भले
जिनमें चैन तो आता
कुछ पल चिराग जलाकर
तसल्ली कर लो
सुबह सूरज सभी नकली
रौशनी को फीका कर जाता
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शाम-ढलते ढलते


शांति से अपने तेज को समेटता सूरज
दिन को विराम देता
रात्रि को आमंत्रण भेजता
कोई आवाज नहीं
दिन भर प्रकाश बिखेरा पर
अहंकार का भाव नहीं
आकाश में चंद्रमा की आने की आहट
अपना स्थान उसे देने में
कभी नही दिखाता घबराहट
चला जा रहा है अस्ताचल में कहीं

रोज उगते और डूबते उसे
देख कर भी
क्यों नहीं सीखता कि
उगना और डूबना इस सृष्टि की नियति है
इसे क्या घबडाना
बचने का क्यों ढूंढते बहाना
अपनी विरासत दूसरे के हाथ में
जाते देख शुरू करते हैं शोर मचाना
सदियों पुराना सच जानते हैं
पर भूलने का ढूंढते बहाना
कभी सोचा हैं कि
झूठ के पाँव होते नहीं
और यह बदल सकता नहीं

पहले अपने को बचाईये


अस्त्र-शस्त्र के सहारे अपनी देह की
सुरक्षा ढूंढते हुए बडे लोग
समाज में फैलता भय का रोग
बंदूक में भी गोली लगाईये
शीशी में भी भरकर आईये

भर ली है समाज की पूरी दौलत घर में
गरीबी के झुंड में अमीरी ऐसे घिरी
जैसे फंसी अधर में
कैसे न फैलें राजरोग
सुख को समझें भोग
कह गए दास कबीर
जब जल और धन बढ़ने लगे
तो उलीचते जाइये
पर अब दौलत से अंधे
और शौहरत से बहरे लोगों
क्या सुनाएं और पढाएं
आगे-आगे देखिये होता है क्या
अपनी कुर्सी तो दर्शकों में लगाईये
एक तरफ हैं भूख से
हिंसक जंग में लड़ने वाले
दूसरी तरफ हैं अपने सुख को ही
जगत का सुख मानने वाले
किसको कैसे समझाईये
चिंता के समान शत्रु नहीं
मधुमेह, उच्च रक्तचाप और
दिल की धक्-धक् से
पहले अपने को बचाईये

सबका दुख दर्द है एक जैसा


जब लगे हम लोगों में उपेक्षित हो रहे हैं
भीड़ में घिरे होकर भी
अकेले हो रहे हैं
तब समझ लो मन में ही
कई जगह है अपने ही भारीपन
जिसका बोझ हम ढो रहे हैं
भला कौन यहाँ किसकी परवाह करता है
सामने करें कोई तारीफ
पीठ फेरते ही वह जहर भी उगलता है
इस दुनिया में सबके साथ होते हादसे
जिसके साथ हो वही अपने साथ ही हुआ
समझता है
इसलिए सब भीड़ में अकेले हो रहे हैं
कौन किसको सम्मान देता है
बिना मतलब कौन किसको दान देता है
सब अपने आप में खो रहे हैं
सबका दर्द और दुख एक जैसा होता है
यह भ्रम है कि हम ही उसे ढो रहे हैं

दिल और दिमाग


कुछ यूंही ख्याल कभी आता है
भला सबके बीच में भी
आदमी खुद को
अकेलेपन के साथ क्यों पाता है
शायद दिल नहीं समझता दिल की बात
अपनों और गैरों में फर्क कर जाता है
अपनों के बीच गैरों की फिक्र
और गैरों के बीच
अपनों की याद में खो जाता है
कभी बाद में तो कभी पहले दौड़ता है
पर वक्त की नजाकत नहीं समझ पाता है
दूसरों पर नजरिया तो दिमाग खूब बनाता
पर अपना ख्याल नहीं कर पाता है
बाहर ही देखता है
आदमी इसलिए अन्दर से खोखला हो जाता है

अपनी जरूरतें दायरों में ही रखें


अपने लिए कहीं आसरा
ढूढने से अच्छा है
हम ही लोगों के सहारा बन जाएं
किसी से प्यार मांगे
इससे अच्छा है कि
हम लोगों को अपना प्यार लुटाएं
किसी से कुछ पाने की ख्वाहिश
पालने से अच्छा है कि
हम लोगों के हमदर्द बन जाएं
जिन्दगी में सभी हसरतें पूरी नहीं होती
कुछ अपने ही हिस्से का सुख काम करते जाएं
आकाश की लंबाई से अधिक है
चाहतों के आकाश का पैमाना
सोचें दायरों से बाहर हमेशा
पर अपनी जरूरतें
दायरों में ही रखते जाएं
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तब तक जलती रहेगी यह आग


पेट भरते ही भले लोग
सिगडी की बुझा देते आग
पर जिनके मन में है
दौलत और शौहरत की आग
वह कभी नहीं बुझती
वह कभी शहर तो कभी ग्राम में
गली और मुहल्ले में भड़काते हैं आग

हर गरीब को खिलाते ख्याली पुलाव
ऐसे रास्ते का पता देते
जिसकी मंजिल कहीं नहीं
बस है इधर से उधर घुमाव
दिन में गाली देते अमीर को
रात को करते हैं जुडाव
चारों और से रंगे हैं
पर उजियाले में नहीं दिखता दाग

अनपढ़ को देते सपनों की किताब
कंगाल को समझाते अमीरी का हिसाब
अपनी ताकत के नशे में झूमते
किसी से नहीं मिलता मिजाज
बाद में बुझाने के लिए जूझते नजर आते
पहले लगाते आग
यह कभी यहाँ जलेगी
कभी वहाँ लगेगी
जब तक आम आदमी में नही जागेगी
चेतना और जागरूकता की आग
तब तक जलती रहेगी यह नफरत की आग

उधार की बैसाखियाँ


आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता है वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा

इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा