वह दूसरे के उजड़ने पर ही
अपने घर भर पाते हैं
इसलिये ही मददगार कहलाते हैं
बसे रहें शहर
उनको कभी नहीं भाते हैं
टकीटकी लगाये रहते हैं
वह आकाश की तरफ
यह देखने के लिये
कब धरती पर कहर आते है
जब बरसते हैं वह
उनके चेहरे खिल जाते हैं
…………………………….
संवेदनाओं की नदी अब सूख गयी है
कहर के शिकार लोगों पर आया था तरस
मन में उपजी पीड़ाओं ने
मदद के लिये उकसाया
पर उनके लुटने की खबर से
अपने दिल में स्पंदन नहीं पाया
लगा जैसे संवेदना की नदी सूख गयी है
कौन कहर का शिकार
कौन लुटेरा
देखते देखते दिल की धड़कनें जैसे रूठ गयी हैं
…………………………………….
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेख के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका
लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in साहित्य, हिंदी शायरी, kavita, sahitya, shayri, vyangya
|
Tagged कहर, शिकार, साहित्य, हिंदी शायरी, hindi, kavita, sahitya, shayri, vyangya
|
अर्थाधीतांश्च यैवे ये शुद्रान्नभोजिनः
मं द्विज किं करिध्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः
जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता, उसी प्रकार जिस विद्वान ने धन कमाने के लिए वेदों का अध्ययन किया है वह कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वेदों का माया से कोई संबंध नहीं है। जो विद्वान प्रकृति के लोग असंस्कार लोगों के साथ भोजन करते हैं उन्हें भी समाज में समान नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आजकल अगर हम देखें तो अधिकतर वह लोग जो ज्ञान बांटते फिर रहे हैं उन्होंने भारतीय अध्यात्म के धर्मग्रंथों को अध्ययन किया इसलिये है कि वह अर्थोपार्जन कर सकें। यही वजह है कि वह एक तरफ माया और मोह को छोड़ने का संदेश देते हैं वही अपने लिये गुरूदक्षिणा के नाम भारी वसूली करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे साधु और संत इस देश में होते भी अज्ञानता, निरक्षरता और अनैतिकता का बोलाबाला है क्योंकि उनके काम में निष्काम भाव का अभाव है। अनेक संत और उनके करोड़ों शिष्य होते हुए भी इस देश में ज्ञान और आदर्श संस्कारों का अभाव इस बात को दर्शाता है कि धर्मग्रंथों का अर्थोपार्जन करने वाले धर्म की स्थापना नही कर सकते।
सच तो यह है कि व्यक्ति को गुरू से शिक्षा लेकर धर्मग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही करना चाहिए तभी उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है पर यहंा तो गुरू पूरा ग्रंथ सुनाते जाते और लोग श्रवण कर घर चले जाते। बाबऔं की झोली उनके पैसो से भर जाती। प्रवचन समाप्त कर वह हिसाब लगाने बैठते कि क्या आया और फिर अपनी मायावी दुनियां के विस्तार में लग जाते हैं। जिन लोगों को सच में ज्ञान और भक्ति की प्यास है वह अब अपने स्कूली शिक्षकों को ही मन में गुरू धारण करें और फिर वेदों और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू करें क्योंकि जिन अध्यात्म गुरूओं के पास वह जाते हैं वह बात सत्य की करते हैं पर उनके मन में माया का मोह होता है और वह न तो उनको ज्ञान दे सकते हैं न ही भक्ति की तरफ प्रेरित कर सकते हैं। वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।
——————————————
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेख के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका
लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, हिंदी साहित्य, chankya niti, dharm, gyan, Relegion
|
Tagged adhyatm, ज्ञान, विद्वान, विधि, सन्यासी, साधना, हिंदी साहित्य, chankya niti, dharm, gyan, hindi, Relegion
|
लुब्धस्यासंविभागित्वान्न युद्धयन्तेःलुजीविनः
लुब्धानुजीवितैरेव दानभिन्र्नौनर््िनहन्यते
लोभी के धन देने के कारण उसके अनुजीवी (धन लेकर काम करने वाले) युद्ध नहीं करते हैं और लोभी दान न देने के कारण उनके द्वारा ही मार दिया जाता है।
सन्त्यज्जते प्रकृतिभिर्विरक्तप्रकृतिर्युधि
सुखाभिज्जयो भवति विषयेऽप्यतिसक्त्मान्
जो राजा युद्ध से विरक्त होता है उसे सभी छोड़ जाते हैं और जो विषयों में अति आसक्ति पुरुष है उसे बड़े आराम से जीत लिया जाता है।
अनेकचित्तमन्त्रस्तु द्वेष्यो भवति मन्त्रणाम्
अनवस्थितचित्तत्वात्कायै तैः स उपेक्ष्यते
अनेक मंत्रियों की सम्मति के कारण राजा का मन दूषित हो जाता है और अनवस्थित चित्त होने से कार्य में मंत्री उसकी उपेक्षा कर देते हैं।
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, हिंदी साहित्य, Relegion
|
Tagged adhyatm, आसक्ति, इंद्रियां, ज्ञान, युद्ध, विद्वान, सम्मति, हिंदी साहित्य, hindi, manu smruti, Relegion, yuddh
|
बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि
कविवर रहीम कहते है इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।
आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। यह तो केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।
समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, सत्संग, समाज, हिन्दू, dharm, dohe, gyan, hindu, sandesh
|
Tagged adhyatm, सत्संग, समाज, हिन्दू, darshan, dharm, dohe, gyan, hindi, hindu, rahim, sandesh
|
शक्यो वारयितं जलेन हुतभुक् छत्त्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशितांकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ
व्याधिर्भैषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगग्र्विषम्
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्
हिंदी में भावार्थ-आग का पानी से धूप का छाते से, मद से पागल हाथी का अंकुश से, बैल और गधे का डंडे से, बीमारियों का दवा से और विष का मंत्र के प्रयोग निवारण किया जा सकता है। शास्त्रों के अनेक विकारों और बीमारियों के प्रतिकार का वर्णन तो है पर मूर्खता के निवारण के लिये कोई औषधि नहीं बताई गयी है।
येषा न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मत्र्यलोके भुवि भारतूवा
मनुष्य रूपेणः मृगाश्चरन्ति।।
हिंदी में भावार्थ-जिन मनुष्यों में दान देने की प्रवृत्ति, विद्या, तप,शालीनता और अन्य कोई गुण नहीं है और वह इस प्रथ्वी पर भारत के समान है। वह एक मृग के रूप में पशु की तरह अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
——————————————–
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, अध्यात्म, धर्म, dharm, gyan, hindu, Relegion
|
Tagged adhyatm, astha, अध्यात्म, ज्ञान, दान, धर्म, विद्या, शालीनता, bhrutahari, dharm, family, gyan, hindi, hindu, Relegion
|
आकीर्ण मण्डलं सव्र्वे मित्रैररिभिरेव च
सर्वः स्वार्थपरो लोकःकुतो मध्यस्थता क्वचित्
सारा विश्व शत्रु और मित्रों से भरा है। सभी लोग स्वार्थ से भरे हैं ऐसे में मध्यस्थ के रूप में निष्पक्ष व्यवहार कौन करता है।
भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्यूपीडयेत्
अत्यन्तं विकृतं तन्यात्स पापीयान् रिमुर्मतः
यदि अपना भला करने वाला मित्र भोग विलास में लिप्त हो तो उसे त्याग देना चाहिए। जो अत्यंत बुरा करने वाला हो उस पापी मित्र को दंडित अवश्य करना चाहिए।
मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्यजेत्
त्यजन्नभूतदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हि
अपने मित्र के बारे में अनेक प्रकार से विचार करना चाहिए। अगर उसमें दोष दिखाई दें तो उसका साथ छोड़ देने में ही अपना हित समझें। अगर ऐसे दुर्गुणी मित्र का साथ नहीं त्यागेंगे तो तो उससे अपने ही धर्म और अर्थ की हानि होती है।
———————————————
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, अध्यात्म, धर्म, संस्कार, हिंदू, dharm, gyan, hindu
|
Tagged adhyatm, astha, athshastra, अध्यात्म, ज्ञान, धर्म, संस्कार, हिंदू, dharm, gyan, hindi, hindu, kautilya, sanskar
|
पैशुन्यं साहसं मोहं ईष्र्याऽसूयार्थ दूषणम।
वाग्दण्डवं च पारुष्यं क्रोधजोऽपिगणोऽष्टकः।।
मनुष्य में क्रोध से आठ दोष उत्पन्न होते हैं
1.दूसरे की चुगली करना 2.दुस्साहस 3.ईष्र्या करना 4.अन्य व्यक्तियों में दोष देखना 5.दूसरों के पैसे को हड़पना 7.अभद्र शब्दों का प्रयोग करना 8.अन्य लोगों के साथ दुव्र्यवहार करना
द्वयोरष्येतयार्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं त्यनेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ।।
विद्वान लोगों का कहना है कि जो दोष काम और क्रोध से उत्पन्न होते हैं वही लालय से भी पैदा होते हैं। अतः सभी लोगों को अपनी लालच की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखना चाहिए।
————————
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेख के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका
लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, शब्द, dharm, hindu
|
Tagged adhyatm, अध्यात्म धर्म, अभद्र, काम, चुगली, दुस्साहस, शब्द, dharm, hindi, hindu, kam, sanskar, shabd
|
संरक्षणार्थ जन्तुनां रात्रवहनि वा सदा
शरीरस्यात्यये चैव समीक्ष्य वसंधां चरेत्
सन्यासी को रात दिन तकलीफ उठाते हुए भी दूसरे मनुष्यों की रक्षा करना चाहिए। उसका इतना ज्ञानी होना चाहिए कि छोटे से जीव पर दया करे ।
प्राणायामः ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः
व्याहृति प्रणवैर्युक्ताः दोषाः प्राणस्य निग्रहात्
विद्वान और ज्ञानी जनों का तीनों विधियों-प्रणव,ओम,व्याहृति-द्वारा किये गये प्राणायाम को भी तप माना जाना चाहिए।
दह्नान्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मलाः
तथेन्द्रियांणां दह्नान्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहातफ
अग्नि में सोना, चांदी आदि धातुओं को डालने से जिसे प्रकार उनकी अशुद्धता दूर हो जाती है उसी प्रकार प्राणायाम की साधना करने से इंद्रियों के सारे पाप तथा विकार समाप्त हो जाते हैं।
—————————————-
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेख के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका
लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in adhyatm, हिंदी साहित्य
|
Tagged adhyatm, इंद्रियां, ज्ञान, विद्वान, विधि, सन्यासी, साधना, हिंदी साहित्य, hindi, pranayam, sadhana
|
पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी अभी हुई हैं यह मानना कठिन है। जिस तरह वहाँ के समीकरण बन रहे हैं उससे तो ऐसा लगता है कि पुराने नेताओं के आपसी विवाद फ़िर उभर का आयेंगे। वहाँ पीपीपी (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) की संभावना लग रही हैं। हालांकि नवाज शरीफ की पार्टी का अभी पीपीपी को समर्थन है पर उसके प्रमुख आसिफ जरदारी की कोशिश अन्य दलों को भी अपने साथ लेकर चलने की है। इस प्रयास में उन्होंने एम क्यू एम (मुहाजिर कौमी मूवमेंट) के प्रमुख अल्ताफ हुसैन से बातचीत की है। ऐसा लगता है कि इससे उनका अपने प्रांत सिंध में इसका विरोध हो रहा है।
वर्डप्रेस के ब्लॉग पर मेरी कुछ श्रेणियां अंग्रेजी में हैं जहाँ से जाने पर पाकिस्तानी ब्लोगरों के ब्लॉग दिखाई देते हैं। कल मैंने उनके एक ब्लॉग को पढा उसमें आसिफ जरदारी से एम क्यू एम को साथ न चलने चलने का सुझाव दिया गया। नवाज शरीफ से चूंकि चुनाव पूर्व ही सब कुछ तय है इसलिए पीपीपी के लिए अपने सबसे जनाधार वाले क्षेत्र में इसका कोई विरोध नहीं है पर एम क्यू एम का सिंध में बहुत विरोध है क्योंकि सिंध मूल के लोगों से मुहजिरों से धर्म के नाम पर एकता आजादी के बाद कुछ समय तक रही पर साँस्कृतिक और भाषाई विविधता से अब वहाँ संघर्ष होता रहता है। मुहाजिर उर्दू को प्रधानता देते हैं जबकि सिन्धी अपनी मातृभाषा को प्यार करते हैं। इसके अलावा सिंध मूल के लोगों में मुस्लिम सूफी विचारधारा से अधिक प्रभावित रहे हैं और उन पर पीर-पगारो का वर्चस्व रहा है। इसलिए सांस्कृतिक धरातल पर सिन्धियों और मुहाजिरों में विविधता रही है। इसलिए ही सिंध में मुहाजिरों की पार्टी एम.क्यू.एम. से किसी प्रकार का तात्कालिक लाभ के लिए किया गया तालमेल पीपीपी को अपने जनाधार से दूर भी कर सकता है और हो सकता है अगले चुनाव में-जिसकी संभावना राजनीतिक विशेषज्ञ अभी से व्यक्त कर रहे हैं- अपने लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है।
पाकिस्तानी ब्लोगरों के विचारों से तो यही लगता है कि वह लोग एम.क्यू.एम से पीपीपी का समझौता पसंद नहीं करेंगे। इधर यह भी संकट है कि अगर नवाज शरीफ पर ही निर्भर रहने पर पीपीपी की सरकार को उनकी वह मांगें भी माननी पड़ेंगी जिनका पूरा होना पार्टी को पसंद नहीं है। शायद यही वजह है कि अभी तक वहाँ ऊहापोह के स्थिति है।
इन चुनावों का मतलब यह कतई नहीं है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल होने के बावजूद स्थिर रहेगा। इसके लिए पाकिस्तान के नेताओं को लोकतंत्र की राजनीति के मूल सिद्धांत पर चलना होगा’ लोकतंत्र में अपने विरोधी को उलझाए रहो पर उसे ख़त्म मत करो, क्योंकि उसे ख़त्म करोगे तो दूसरा आ जायेगा और हो सकता है कि वह पहले से अधिक भारी भरकम हो’।
मियाँ नवाज शरीफ ने बेनजीर को बाहर भागने के लिए मजबूर किया। राष्ट्रपति पद से लेघारी को हटाया और अपना एक रबर स्टांप राष्ट्रपति बिठाया पर नतीजा क्या हुआ? मुशर्रफ जैसा विरोधी आ गया जिसने लोकतंत्र को ही ख़त्म कर दिया। इसलिए अब राजनीति कर रहे नेताओं का यह सब चीजे समझनी होंगी क्योंकि अभी वहाँ लोकतंत्र मजबूत होने बहुत समय लगेगा और नेताओं के आपसी विवाद फ़िर सेना को सत्ता में आने का अवसर प्रदान करेंगे।
तुम्हारे अंतर्मन में पल रहे दर्द
तुम्हारे मस्तिष्क चल रहे द्वंद से
बन रहे काव्यात्मक शब्द
चौराहे पर जब सुने जाएं
तो लोग स्तब्ध रह जाएं
ऐसी जोरदार कविता लिखो
फल सब्जी की तरह शब्दों की
दलाली करने वालों के तंबू
तुम्हारे तेज से उखाड़ने लगें
असल माल की जगह
नक़ल माल बेचने की तरह
अपने शब्द बेचने वालों को
तुमसे होने लगे ईर्ष्या
ऐसी जोरदार कविता लिखो
दिखते हैं बाहर से ताक़तवर
अन्दर से हैं एकदम खोखले
लोग उनकी छबि से व्यर्थ डरते है
इसलिए उधार के लिए शब्दों लेकर
कुछ लोग उन पर राज्य करते हैं
तुम अपने पसीन से नहाए
जो तुम्हारे दिल में गायें
छद्म रूप धरने वालों को डरा सकें
ऐसी जोरदार कविता लिखो
जजबातों का व्यापार करते हैं
उनके दिल होते हैं खाली
लिखने-पढ़ने के लिए
शब्दों को ऐसे बिछाएं जैसे भोजन की थाली
तुम्हारे शब्दों के प्रहार से
विचलित हो जाएं
जहाँ से निकलें तुहरे शब्द निकलें
उस रास्ते को वह छोड़ दें
ऐसी जोरदार कविता लिखो
एक अंग्रेज ने हिन्दी भाषा और संस्कार सीखने के अपना एक गुरु बनाया जब वह हिन्दी सीख चुका तो गुरु ने उससे कहा की अब तुम जाकर व्यवहारिक अनुभव प्राप्त करो। भारत के टीवी चैनल पर सामाजिक कार्यक्रमों को देखो और इससे तुम्हारी हिन्दी और संस्कार दोनों में ही बहुत अनुभव प्राप्त होगा।
अंग्रेज शिष्य चला गया और फिर कुछ दिन बाद लौट आया और बोला-”गुरुजी, मैने भारत के सारे हिन्दी चैनल देखे पर उसमें जो सामाजिक सीरियल हैं वह तो हारर शो अधिक लगते हैं और उनमें हिन्दी कम और अंग्रेजी अधिक होती है। वहाँ तो ऐसा लगता है की हम अंग्रेजों को दिखाने के लिए सीरियल बनाते हैं। उनको देखकर जितनी हिन्दी और वहाँ के संस्कार जितना सीखा हूँ वह और भूल जाऊंगा।”
गुरूजी ने कहा-”अच्छा कुछ हिन्दी फिल्मों को देखो, उससे तुम्हें लाभ होगा।
शिष्य उनसे आज्ञा लेकर चला गया और फिर कुछ दिन बाद लौटा और बोला-”गुरूजी, उसमें तो हमारी फिल्मों की कहानी की नक़ल होती है और हिन्दी भी वैसी नहीं है जैसी आपने सिखाई है।गांधी के सन्देश को गांधीगिरी कहते है और मुझे मजाक लगता है।”
गुरूजी ने कहा-“अच्छा तुम वहाँ के अखबार और पत्रिकाएँ पढा करो। उसमें तुम्हें कुछ ज्ञान और अनुभव जरूर प्राप्त होगा।
शिष्य वहाँ से चला गया-”उनमें तो केवल मारपीट की खबरें और जो वहाँ से हमारे देश में आकर जो व्यापार करते हैं उन लोगों की तारीफों की खबरें ही छपतीं हैं। उससे क्या सीख पाऊंगा? ”
गुरूजी ने कहा-”तुम नये ज़माने के हो और कंप्यूटर भी जानते हो, इसलिए अंतर्जाल पर हिन्दी के ब्लोगरों को पढो।”
इस बार तो शिष्य उसी दिन लौट आया और बोला-”एक तो यह उन्होने कई वर्ग बना रखे हैं समझ में नहीं आ रहा किसको पढूं, और एक जगह तो मैंने शीर्षक में ही गाली देखी तो में लौट आया।”
गुरूजी ने अपना माथा पीट लिया और कहा-”मेरे ख्याल से तो हिन्दी तो तुम्हारी अब वैसे ही बहुत अच्छी हो गयी है क्योंकि तुम्हें पता लग गया है कि हिन्दी में भारत के ही लोग कहाँ गलती कर रहे हैं और संस्कार भी तुम्हारे अन्दर वैसे ही अच्छे है क्योंकि तुम्हें वह लोग पसंद नहीं आ रहे जो तुम्हारे समाज के पदचिन्हों पर चल रहे हैं। इसलिए अब तुम्हें अब और कुछ सीखने की जरूरत नहीं है।”
शिष्य चला गया तो गुरूजी आकाश की तरफ देखकर बोले-”अच्छा ही हुआ, यह बहुत कुछ मुझे सीखा गया वरना में अपने देश के लोगों के बारे में ग़लतफ़हमी पालकर अपने शिष्यों को भटकाता रहता।
नोट-यह एक काल्पनिक हास्य-व्यंग्य रचना है.
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in आलेख, कहानी, व्यंग्य, हास्य, हिन्दी
|
Tagged आलेख, कहानी, व्यंग्य, हास्य, हिन्दी, hindi, kahaani, story
|
हमारे देश में तमाम तरह के नारे लगाए जाते हैं जिनमें एक है ‘समाजवाद लाओ’। इस नारे के साथ अनेक आन्दोलन चले और उनके अगूआओं ने अपने चारों और लोगों की भीड़ बटोरी पर अभी भी समाज में समरस्ता का भाव स्थापित नहीं हो पाया। जिन लोगों ने भीड़ एकत्रित कर शक्ति प्राप्त की उन्होने अपने और परिवार के लिए अकूत संपदा अर्जित कर ली इतना ही नहीं आज भी वह यही नारा लगा रहे हैं। गरीबों और शोषितों के दम पर शक्ति अर्जित करने का बावजूद वह उनका भला नहीं कर पाए। भारतीय धर्म ग्रंथों में दोष ढूँढने वाले उसके अच्छे पक्ष से मुहँ फेर लेते हैं क्योंकि उसमें कई ऐसे रहस्य है जो जीवन के मूल तत्वों के सत्य पक्ष को उदघाटित करते हैं और आदमी को फिर भ्रम में नही जाने देते। ऐसे ही श्रीगीता भी एक ऐसा पावन ग्रंथ है जिसमे ज्ञान के साथ विज्ञान भी हैं। मैंने यह लेख मजदूर दिवस पर लिखा था और आज जब इस पर मेरी दृष्टि पढी तो मैंने इसे अपन मुख्य पर रखने का निश्चय किया क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो मुझे इसी ब्लोग की वजह से अधिक जानते और मानते हैं।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”
श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्र माने जाते है जिन के विचारों पर गईबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिद्ध होगा।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया की वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे।मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आता था पर भक्ति भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in आध्यात्म, आलेख, धर्म, हिन्दी, हिन्दू, dharm, hindu
|
Tagged aadhyaatm, आध्यात्म, आलेख, धर्म, श्रीगीता, समाजवाद, हिन्दी, हिन्दू, dharm, hindi, hindu
|
एक दीपावली का पर्व और बीत गया। लोगों ने इस पर अपने सामर्थ्यानुसार आनंद उठाया। कई लोगों के पास इसको मनाने के लिए या तो समय नहीं रहा होगा या पैसा-पर दोनों ने इसके आने की खुशी का अहसास किया होगा क्योंकि कहीं न कहीं एक मन होता है जो भूखे, प्यासे और कष्ट झेलकर भी आनंद उठाता है। हर आदमी में पांच तत्वों की देह में मन, बुद्धि और अंहकार की प्रकृतियां रहती हैं और उनके दासत्व का बोध सामान्य मनुष्य को नहीं होता है।
जब तक विज्ञान और समाचार माध्यम इतने प्रबल नहीं थे तब तक कुछ जानकारी नहीं हो पाती थी पर अब तो हर चीज पता लग जाती है। मिठाई के नाम विष भी हो सकता है क्योंकि नकली खोया बाजार में बिक रहा है, और पटाखे भयानक ढंग से पर्यावरण प्रदूषण फैलाते हैं, पर यह लगा नहीं कि लोगों का इस पर ध्यान है। इतना ही नहीं खुले में रखी मिठाई में कितने दोष हो सकते हैं यह सब जानते हैं पर न इस पर खरीदने वाला और न बेचने वाला सोचने के लिए तैयार दिखा। कोई चीज थोडी देर के लिए बाहर रख दो उस पर कितनी मिटटी जमा हो जाती है इसका पता तब तक नहीं लगता जब तक वह प्रतिदिन उपयोग की न हो। रात को बाहर किये गए वाहन-जैसे कार, स्कूटर, और साईकिल सुबह कितने गंदे हो जाते है लोगों को पता है क्योंकि सुबह जाते समय वह उस पर कपडा मारकर उसे साफ करते हैं। वह यह नहीं सोचते कि इतनी देर खुले में रखे मिठाई कितनी गंदी हो गयी होगी।
खुशी मनाना है बस क्योंकि कहीं खुशी मिलती नहीं है। त्यौहार क्या सिर्फ खुशियाँ मनाने के लिए ही होते? क्या कुछ पल बैठकर चिंतन और मनन नहीं करना चाहिए। क्या पुरुषार्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित है? क्या त्यौहार पर अमीर केवल इसके लिए प्रसन्न हों कि उन पर लक्ष्मी की कृपा है और गरीब इसलिए केवल दुखी हो कि उसके पास पैसा नहीं है। समाज में सहकारिता की भावना समाप्त हो गई है और यह मान लिया है कि गरीबों का कल्याण केवल राज्य करेगा और समाज के शक्तिशाली वर्ग का कोई दायित्व नहीं है। पहले धनी लोग अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और आसपास के लोगों पर अपने दृष्टि बनाए रखते थे पर अब यहाँ पहले जैसा कुछ नहीं रहा। जाति,भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर बने समाज या समूह बाहर से मजबूत दिख रहे हैं पर अन्दर से खोखले हो चुके हैं।
कार्ल मार्क्स ने कहा था इस दुनिया में दो वर्ग हैं पर अमीर और गरीब। सच कहा था पर भारत में आज के संदर्भ में ही सही था-क्योंकि उस समय एक वर्ग और था जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता था। इस वर्ग में बुद्धिजीवी और विद्वान भी शामिल थे-और उनका समाज में अमीर और गरीब दोनों वर्ग के लोग भरपूर सम्मान करते थे। जिन्होंने कार्ल मार्क्स की राह पकडी उनका उद्देश्य यही था कि किसी तरह मध्यम वर्ग का सफाया कर गरीब का भला किया जा सके और उन्होने अपने लिए एक बौद्धिक वर्ग बनाया जिसने उनका रास्ता बनाया। अब सब जगह केवल दो ही वर्ग रह गए हैं अमीर और गरीब। जिसके पास धन है सब उसकी मुहँ की तरफ देख रहे हैं। दुनिया धनिकों की मुट्ठी में है और विचारवान और बुद्धिमान होने के लिए धन का होना जरूरी हो गया।
परिणाम सामने हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्धिमान और विचारवान लोग नहीं है पर उनकी कोई सुनता नहीं है, टीवी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं में केवल धनिक लोगों की चर्चा और प्रचार है। उनमें हीरो-हीरों की चर्चा है। बस वही हैं सब कुछ। लोगों की सोचने की शक्ति को निष्क्रिय रखने के लिए मनोरंजन के नाम पर ऐसी विषय सामग्री प्रस्तुत की जा रही है कि वह उससे अलग कुछ सोच ही नही सकता। यह खरीदो और वह बेचो-ऐसे प्रचार के चक्र व्यूह में घिरा आदमी बौद्धिक लड़ाई में हारा हुआ लगता है।
फिर भी इस देश में कुछ ऐसा है कि झूठ अधिक समय तक नहीं चलता इस दिपावली के त्यौहार से यही सन्देश मिलता है कि लोग सच को पसंद करते है और यह उम्मीद करना चाहिऐ कि धीरे -धीरे लोग सच के निकट आयेंगे और झूठ को असली पटाखे की तरह जला देंगे -और तब नकली पटाखे जलाकर पर्यावरण प्रदूषण नहीं फैलाएंगे।
दीपक भारतदीप द्धारा
|
Also posted in alekh, आध्यात्म, संपादकीय, internet
|
Tagged alekh, आध्यात्म, इंटरनेट, दीपावली, पर्व, संपादकीय, हिंदी, friends, hindi, internet, sahity
|