ख्याल कभी सच नहीं होते
आदमी की सोच में बसते ढेर सारे
पर ख्याल कभी असल नहीं होते।
कत्ल का ख्याल आता है
कई बार दिल में
पर सोचने वाले सभी कातिल नहीं होते।
धोखे देने के इरादे सभी करते
पर सभी धोखेबाज नहीं होते।
हैरानी है इस बात की
कत्ल और धोखे के ख्याल भी
अब बीच बाजार में बिकने लगे हैं
सच की पहचान वाले लोग भी अब कहां होते।।
…………………………..
आदमी का दिमाग काफी विस्तृत है और इसी कारण उस अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाता है। यह दिमाग उसे अगर श्रेष्ठ बनाता है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर उस पर कोई कब्जा कर ले तो वह गुलाम भी बन जाता है। इसलिये इस दुनियां में समझदार आदमी उसे ही माना जाता है जो बिना अस्त्र शस्त्र के दूसरे को हरा दे। अगर हम यूं कहे कि बिना हिंसा के किसी आदमी पर कब्जा करे वही समझदार है। हम इसे अहिंसा के सिद्धांत का परिष्कृत रूप भी कह सकते हैं।
अंग्रेजों ने भारत को डेढ़ सौ साल गुलाम बनाये रखा। वह हमेशा इसे गुलाम बनाये नहीं रख सकते थे इसलिये उन्होंने ऐसी योजना बनायी जिससे इस देश में अपने गोरे शरीर की मौजूदगी के बिना ही इस पर राज्य किया जा सके। इसके लिये उन्होंने मैकाले की शिक्षा पद्धति का सहारा लिया। बरसों से बेकार और निरर्थक शिक्षा पद्धति से इस देश में कितनी बौद्धिक कुंठा आ गयी है जिसे अभी दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम सच का सामना में देखा जा सकता है।
‘आप अपने पति का कत्ल करना चाहती थीं?’
‘आप अपनी पत्नी को धोखा देना चाहते थे?’
पैसे मिल जायें तो कोई भी कह देगा हां! हैरानी है कि समाचार चैनल कह रहे हैं कि ‘हां, कहने से पूरा हिन्दुस्तान हिल गया।’
सबसे बड़ी बात यह है कि लोग सच और ख्याल के बीच का अंतर ही भूल गये हैं। कत्ल का ख्याल आया मगर किया तो नहीं। अगर करते तो जेल में होते। अगर धोखे का ख्याल आया पर दिया तो नहीं फिर अभी तक साथ क्यों होते?
वह यूं घबड़ा रहे हैं
जानते हैं कि झूठ है सब
फिर भी शरमा रहे हैं।
सच की छाप लगाकर ख्याल बेचने के व्यापार से
वह इसलिये डरे हैं कि
उसमें अपनी जिंदगी के अक्स
उनको नजर आ रहे हैं।
कहें दीपक बापू
ख्यालों को हवा में उड़ते
सच को सिर के बल खड़े देखा है
कत्ल और धोखे का ख्याल होना
और सच में करना
अलग बात है
ख्याल तो खुद के अपने
चाहे जहां घुमा लो
सच बनाने के लिये जरूरत होती है कलेजे की
साथ में भेजे की
अक्ल की कमी है जमाने के
इसलिये सौदागर ख्याल को सच बनाकर
बाजार में बेचे जा रहे हैं।
ख्यालों की बात हो तो
हम एक क्या सौ लोगों के कत्ल करने की बात कह जायें
सामना हो सच से तो चूहे को देखकर भी
मैदान छोड़ जायें
पैसा दो तो अपना ईमान भी दांव पर लगा दें
सर्वशक्तिमान की सेवा तो बाद में भी कर लेंगे
पहले जरा कमा लें
बेचने वालों पर अफसोस नहीं हैं
हैरानी है जमाने के लोगों पर
जो ख्वाबों सच के जज्बात समझे जा रहे हैं
शायद झूठ में जिंदा रहने के आदी हो
हो गये हैं सभी
इसलिये ख्याली सच में बहे जा रहे हैं।
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एक टीवी चैनल पर प्याज के बढती कीमतों पर लोगों के इन्टरव्यू आ रहे थे, और चूंकि उसमें सारा फोकस मुंबई और दिल्ली पर था इसलिये वहाँ के उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों से बातचीत की जा रही थी। प्याज की बढती कीमतें देश के लोगों के लिए और खास तौर से अति गरीब वर्ग के लिए चिंता और परेशानी का विषय है इसमें कोई संदेह नहीं है पर जिस तरह उसका रोना उसके ऊंचे वर्ग के लोग रोते हैं वह थोडा अव्यवाहारिक और कृत्रिम लगता है। उच्च और मध्यम वर्ग के लोग यही कह रहे थे किश्प्याज जो पहले आठ से दस रूपये किलो मिल रहा था वह अब पच्चीस रूपये होगा। इसे देश का गरीब आदमी जिसका रोटी का जुगाड़ तो बड़ी मुशिकल से होता है और वह बिचारा प्याज से रोटी खाकर गुजारा करता है, उसका काम कैसे चलेगाश्?
अब सवाल है कि क्या वह लोग प्याज की कीमतों के बढने से इसलिये परेशान है कि इससे गरीब सहन नहीं कर पा रहे या उन्हें खुद भी परेशानी है? या उन्हें अपने पहनावे से यह लग रहा था कि प्याज की कीमतों के बढने पर उनकी परेशानी पर लोग यकीन नहीं करेंगे इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपने साक्षात्कार को प्रभावी बना रहे थे। हो सकता है कि टीवी पत्रकार ने अपना कार्यक्रम में संवेदना भरने के लिए उनसे ऐसा ही आग्रह किया हो और वह भी अपना चेहरा टीवी पर दिखाने के लिए ऐसा करने को तैयार हो गये हौं। यह मैं इसलिये कह रहा हूँ कि एक बार मैं हनुमान जी के मंदिर गया था और उस समय परीक्षा का समय था। उस समय कुछ भक्त विधार्थी मंदिर के पीछे अपने रोल नंबर की पर्ची या नाम लिखते है ताकि वह पास हो सकें। वहां ऐक टीवी पत्रकार एक छात्रा को समझा रहा थाश्आप बोलना कि हम यहाँ पर्ची इसलिये लगा रहे हैं कि हनुमान जीं हमारी पास होने में मदद करें।श्
उसने और भी समझाया और लडकी ने वैसा ही कैमरे की सामने आकर कहा। वैसे उस छात्र के मन में भी वही बातें होंगी इसमें कोई शक नहीं था पर उसने वही शब्द हूबहू बोले जैसे उससे कहा गया था।
प्याज पर हुए इस कार्यक्रम में जैसे गरीब का नम लिया जा रहा था उससे तो यही लगता था कि यह बस खानापूरी है। मेरे सामने कुछ सवाल खडे हुए थे-
क्या इसके लिए कोई ऐसा गरीब टीवी वालों को नहीं मिलता जो अपनी बात कह सके। केवल उन्हें शहरों में उच्च और मध्यम वर्ग के लोग ही दिखते हैं, और अगर गरीब नहीं दिखते तो यह कैसे पता लगे कि गरीब है भी कि नहीं। जो केवल प्याज से रोटी खाता है उसका पहनावा क्या होगा यह हम समझ सकते हैं तो यह टीवी पत्रकार जो अपने परदे पर आकर्षक वस्त्र पहने लोगों को दिखाने के आदी हो चुके हैं क्या उससे सीधे बात कराने में कतराते हैं जो वाकई गरीब है। उन्हें लगता है कि गरीब के नाम में ही इतनी ही संवेदना है कि लोग भावुक हो जायेंगे तो फिर फटीचर गरीब को कैमरे पर लाने की क्या जरूरत है। जो गरीब है उसे बोलने देना का हक ही क्या है उसके लिए तो बोलने वाले तो बहुत हैं-क्या यही भाव इन लोगों का रह गया है। आजादी के बाद से गरीब का नाम इतना आकर्षक है कि हर कोई उसकी भलाई के नाम पर राजनीति और समाज सेवा के मैदान में आता है पर किसी वास्तविक गरीब के पास न उन्हें जाते न उसे पास आते देखा जाता है। जब कभी पैट्रोल और डीजल की दाम बढ़ाये जाते है तो मिटटी के तेल भाव इसलिये नही बढाए जाते क्योंकि गरीब उससे स्टोव पर खाना पकाते हैं। जब कि यह वास्तविकता है कि गरीबों को तो मिटटी का तेल मिलना ही मुश्किल हो जाता है। देश में ढ़ेर सारी योजनाएं गरीबों के नाम पर चलाई जाती हैं पर गरीबों का कितना भला होता है यह अलग चर्चा का विषय है पर जब आप अपने विषय का सरोकार उससे रख रहे हैं तो फिर उसे सामने भी लाईये। प्याज की कीमतों से कोई मध्यम वर्ग कम परेशान नहीं है और अब तो मेरा मानना है कि मध्यम वर्ग के पास गरीबों से ज्यादा साधन है पर उसका संघर्ष कोई गरीब से कम नहीं है क्योंकि उसको उन साधनों के रखरखाव पर भी उसे व्यय करने में कोई कम परेशानी नहीं होती क्योंकि वह उनके बिना अब रह नहीं सकता और अगर गरीब के पास नहीं है तो उसे उसके बिना जीने की आदत भी है। पर अपने को अमीरों के सामने नीचा न देखना पडे यह वर्ग अपनी तकलीफे छिपाता है और शायद यही वजह है कि ऐक मध्यम वर्ग के व्यक्ति को दूसरे से सहानुभूति नहीं होती और इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपनी समस्या भी कह जाते है और अपनी असलियत भी छिपा जाते हैं। यही वजह है कि टीवी पर गरीबों की समस्या कहने वाले बहुत होते हैं खुद गरीब कम ही दिख पाते हैं। सच तो यह है कि गरीबों के कल्याण के नारे अधिक लगते हैं पर उनके लिये काम कितना होता है यह सभी जानते हैं।
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माशुका ने शायर से कहा
‘बहुत बुरा समय था जब मैंने
अपनी सहेलियों के सामने
किसी शायर से शादी करने की कसम खाई
तुमने मेरे इश्क में कितने शेर लिखे
पर किसी मुशायरे में तुम्हारे शामिल होने की
खबर अखबार में नहीं आई
सब सहेलियां शादी कर मां बन गयीं
पर मैं उदास बैठी देखती हूं
अब तो कोई मशहूर शायर
देखकर शादी करनी होगी
नहीं झेल सकती ज्यादा जगहंसाई’
शायर खुश होकर बोला
‘लिखता बहुत हूं
पर सुनने वाले कहते हैं कि
उसमें दर्द नहीं दिखता
भला ऐसा कैसे हो
जब मैं तुम्हारे प्यार में
श्रृंगार रस में डुबोकर शेर लिखता
अब तो मेरे शेरों में दर्द की
नदिया बहती दिखेगी
जब शराब मेरे सिर पर चढ़कर लिखेगी
अपने प्यार से तुम नहीं कर सकी मुझे रौशन
मेहरबानी कर तोहफे में जल्दी दो जुदाई’
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हर सुबह उठाता हूँ
अखबार ताजा समझकर
पर पढने पर लगती है
बासी हर खबर
अखबार के हर प्रष्ठ पर
नजरें दौडाता हूँ
शायद कुछ नया पढने को मिल जाये
ऐसा कुछ हो
जो मन पर छा जाये
पर आता नहीं कुछ नया नजर
ह्त्या, डकैती, और लूट की खबरें
काले मोटे अक्षरों में सुर्ख़ियों में
छपी होती हैं
पात्र और नाम बदले रहते हैं
ऐसा लगता है मैंने पढी है
पहले भी कहीं यह खबर
बडे नाम वालों के बडे बयां
कुछ छोटे नाम वालों को
बडे बनाते बयां
समाज सेवा और जन कल्याण के
दावों की लंबी-चौड़ी सूची
सोचता हूँ कि कितनी मनगढ़त
और कितनी सत्य के निकट होगी खबर
मन को ललचाते, बहलाते और फुसलाते
विज्ञापनों का झुंड
सामने आ ही जाता है
चाहे बचाओ जितनी नज़र
विज्ञापन में वर्णित वस्तुओं के
बेचने के लिए
समर्थन देती छपती है एक खबर
सोचता हूँ कि अखबार न पढूं
पर बरसों पुरानी आदतें
ऐसे ही नहीं जातीं
भले ही मजा नहीं आता
फिर भी दौडा ही लेता हूँ
सरसरी नज़र
शायद कभी छपे अच्छी खबर