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हैती का भूंकप, ज्योतिष,पूंजीवाद और साम्यवाद-हिन्दी लेख


हैती में भूकंप, ज्योतिष, पूंजीवाद और समाजवाद जैसे विषयों में क्या साम्यता है। अगर चारों को किसी एक ही पाठ में लिखना चाहेंगे तो सब गड्डमड्ड हो जायेगा। इसका कारण यह है कि भूकंप का ज्योतिष से संबंध जुड़ सकता है तो पूंजीवाद और समाजवाद को भी एक साथ रखकर लिखा जा सकता है पर चार विषयों के दोनों समूहों को मिलाकर लिखना गलत लगेगा, मगर लिखने वाले लिख रहे हैं।
पता चला कि हैती में भूकंप की भविष्यवाणी सही निकली। भविष्यवक्ताओं को अफसोस है कि उनकी भविष्यवाणी सही निकली। पूंजीवादी देश हैती की मदद को दौड़ रहे हैं पर साम्यवादी बुद्धिजीवी इस हानि के लिये पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को जिम्मेदार बता रहे हैं। दावा यहां तक किया गया है कि पहले आये एक भूकंप में साम्यवादी क्यूबा में 10 लोग मरे जबकि हैती यह संख्या 800 थी-उस समय तक शायद पूंजीवादी देशों की वक्र दृष्टि वहां नहीं पड़ी थी। अब इसलिये लोग अधिक मरे क्योंकि पूंजीवाद के प्रभाव से वहां की वनसंपदा केवल 2 प्रतिशत रह गयी है। अभिप्राय यह है कि पूंजीवादी देशों ने वहां की प्रकृति संपदा का दोहन किया जिससे वहां भूकंप ने इतनी विनाशलीला मचाई।
इधर ज्योतिष को लेकर भी लोग नाराज हैं। पता नहीं फलित ज्योतिष और ज्योतिष विज्ञान को लेकर भी बहस चल रही है। फलित ज्योतिष पीड़ित मानवता को दोहन करने के लिये है। ऐसे भी पढ़ने को मिला कि अंक ज्योतिष ने-इसे शायद कुछ लोग खगोल शास्त्र से भी जोड़ते है’ फिर भी प्रगति की है पर फलित ज्योतिष तो पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है।
एक साथ दो पाठ पढ़े। चारों का विषय इसलिये जोड़ा क्योंकि हैती के भूकंप की भविष्यवाणी करने वाले की आलोचना उस साम्यवादी विचारक ने भी बिना नाम लिये की थी। यहां तक लिखा कि पहले भविष्यवाणी सही होने का दावा कर प्रचार करते हैं फिर निराशा की आत्मस्वीकृति से भी उनका लक्ष्य ही पूरा होता है। इधर फलित ज्योतिषियों पर प्रहार करता हुए पाठ भी पढ़ा। उसका भी अप्रत्यक्ष निशाना वही ज्योतिष ब्लाग ही था जिस पर पहले हैती के भूकंप की भविष्यवाणी सत्य होने का दावा फिर अपने दावे के सही होने को दुर्भाग्यपूणी बताते हुए प्रकाशित हुई थी। चार तत्व हो गये पर पांचवा तत्व जोड़ना भी जरूरी लगा जो कि प्रकृति की अपनी महिमा है।
मगर यह मजाक नहीं है। हैती में भूकंप आना प्राकृतिक प्रकोप का परिणाम है पर इतनी बड़ी जन धन हानि यकीनन मानवीय भूलों का नतीजा हो सकती है। हो सकता है कि साम्यवादी विचारक अपनी जगह सही हो कि पूंजीवाद ने ही हैती में इतना बड़ा विनाश कराया हो। ऐसी प्राकृतिक विपदाओं पर होने वाली हानि पर अक्सर प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी अपने हिसाब से पूंजीवाद और साम्राज्यवादी को निशाना बनाते हैं। उनको अमेरिका और ब्रिटेन पर निशाना लगाना सहज लगता है। वह इससे आगे नहीं जाते क्योंकि प्रकृति को कुपित करने वालों में वह देश भी शामिल हैं जो ऐसे बुद्धिजीवियों को प्रिय हैं। हमारा तो सीधा आरोप है कि वनों की कटाई या दोहन तो उन देशों में भी हो रहा है जो साम्यवादी होने का दावा करते हैं और इसी कारण कथित वैश्विक तापवृद्धि से वह भी नहीं बचे।
अब विश्व में तापमान बढ़ने की बात कर लें। हाल ही मे पड़ी सर्दी ने कथित शोधकर्ताओं के होश उड़ा दिये हैं। पहले कह रहे थे कि प्रथ्वी गर्म हो रही है और अब कहते हैं कि ठंडी हो रही है। भारत के कुछ समझदार कहते हैं कि प्रकृति अपने ढंग से अपनी रक्षा भी करती है इसलिये गर्मी होते होते ही सर्दी होने लगी। दूसरी भी एक बात है कि भले ही सरकारी क्षेत्र में हरियाली कम हो रही है और कालोनियां बन रही हैं पर दूसरा सच यह भी है कि निजी क्षेत्र में पेड़ पौद्ये लगाने की भावना भी बलवती हो रही है। इसलिये हरित क्षेत्र का संकट कभी कभी कम होता लगता है हालांकि वह संतोषजनक नहीं है। गैसों का विसर्जन एक समस्या है पर लगता है कि प्रकृत्ति उनके लिये भी कुछ न कुछ कर रही है इसी कारण गर्मी होते होते सर्दी पड़ने लगी।
मुख्य मुद्दा यह है कि परमाणु बमों और उसके लिये होने वाले प्रयोगों पर कोई दृष्टिपात क्यों नहीं किया जाता? चीन, अमेरिका और सोवियत संघ ने बेहताश परमाणु विस्फोट किये हैं। इन परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी हानि पहुंची है उसका आंकलन कोई क्यों नही करता? हमारी स्मृति में आज तक गुजरात का वह विनाशकारी भूकंप मौजूद है जो चीन के परमाणु विस्फोट के कुछ दिन बाद आया था। इन देशों ने न केवल जमीन के अंदर परमाणु विस्फोट किये बल्कि पानी के अंदर भी किये-इनके विस्फोटों का सुनामी से कोई न कोई संबंध है ऐसा हमारा मानना है। यह हमारा आज का विचार नहीं बल्कि गुजरात भूकंप के बाद ऐसा लगने लगा है कि कहीं न कहीं परमाणु विस्फोटों का यह सिलसिला भी जिम्मेदारी है जो ऐसी कयामत लाता है। साम्यवादी विचारक हमेशा ही अमेरिका और ब्रिटेन पर बरस कर रह जाते है पर रूस के साथ चीन को भी अनदेखा करते हैं।
हमारा मानना है कि अगर यह चारों देश अपने परमाणु प्रयोग बंद कर सारे हथियार नष्ट कर दें तो शायद विश्व में प्रकृति शांत रह सकती है। विश्व में न तो पूंजीवाद चाहिये न समाजवाद बल्कि सहजवाद की आवश्यकता है। साम्राज्यवादी के कथित विरोधी देश इतने ही ईमानदार है तो क्यों पश्चिमी देशों की वीजा, पासपोर्ट और प्रतिबंधों की नीतियों पर चल रहे हैं। चीन क्यों अपने यहां यौन वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगा रहा है जैसे कि अन्य देश लगाते हैं। वह अभी भी आदमी का मूंह बंद कर उसे पेट भरने के लिये बाध्य करने की नीति पर चल रहा है।
जहां तक ज्योतिष की बात है तो अपने देश का दर्शन कहता है कि जब प्रथ्वी पर बोझ बढ़ता है तो वह व्याकुल होकर भगवान के पास जाती है और इसी कारण यहां प्रलय आती है। वैसे पश्चिम अर्थशास्त्री माल्थस भी यही कहता था कि ‘जब आदमी अपनी जनंसख्या पर नियंत्रण नहीं करती तब प्रकृति यह काम स्वयं करती है।’ यह सब माने तो ऐसे भूकंप और सुनामियां तो आती रहेंगी यह एक निश्चिम भविष्यवाणी है। प्रसिद्ध व्यंगकार स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरसत नहीं है। मारने वालों के पास हमसे बड़े लक्ष्य पहले से ही मौजूद है।’
इसी तर्ज पर हम भी यह कह सकते हैं कि धरती बहुत बड़ी है और वह क्रमवार अपनी देह को स्वस्थ कर रही है और जहां हम हैं वहां का अभी नंबर अभी नहीं आया है। कभी तो आयेगा, भले ही उस समय हम उस समय यहां न हों।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दूसरे के तय वैचारिक नक्शे पर चर्चा घर सजाते हैं-आलेख


बिना धन के कहीं भी आतंकवाद का अभियान चल ही नहीं सकता और वह केवल धनाढ़यों से ही आता है। आतंकवाद एक व्यापार की तरह संचालित है और इसका कहीं न कहीं किसी को आर्थिक लाभ होता है। आतंकवाद को अपराधी शास्त्र से अलग रखकर बहस करने वाले जालबूझकर ऐसा करते हैं क्योंकि तब उनको जाति,भाषा,वर्ण,क्षेत्र और संस्कारों की अलग अलग व्याख्या करते हैं और अगर वह ऐसा नहीं करेंगे फिर एकता का औपचारिक संदेश देने का अवसर नहीं मिलेगा और वह आम आदमी के मन में अपनी रचात्मकता की छबि नहीं बना पायेंगें

कोई भी अपराध केवल तीन कारणों से होता है-जड़,जोरू और जमीन। आधुनिक विद्वानों ने आतंकवाद को अपराध से अलग अपनी सुविधा के लिये मान लिया है क्योंकि इससे उनको बहसें करने में सुविधा होती है। एक तरह से वह अपराध की श्रेणियां बना रहे हैं-सामान्य और विशेष। जिसमें जाति,भाषा,धर्म या मानवीय संवेदनाओंं से संबंधित विषय जोड़कर बहस नहीं की जा सकती है वह सामान्य अपराध है। जिसमें मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पर बहस हो सकती है वह विशेष अपराध की श्रेणी में आतेे हैं। देश के विद्वनों, लेखकों और पत्रकारों में इतना बड़ा भ्रम हैं यह जानकार अब आश्चर्र्य नहीं होता क्योंकि आजकल प्रचार माध्यम इतने सशक्त और गतिशील हो गये हैं कि उनके साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क निरंतर बना रहता है। निरंतर देखते हुए यह अनुभव होने लगा कि प्रचार माध्यमों का लक्ष्य केवल समाचार देना या परिचर्चा करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि हर पल अपने अस्तित्व का अहसास कराना भी है।
हत्या,चोरी,मारपीट डकैती या हिंसा जैसे अपराघ भले ही जघन्य हों अगर मानवीय संवदेनाओं से जुड़े विषय-जाति,धर्म,भाषा,वर्ण,लिंग या क्षेत्र से-जुड़े नहीं हैं तो प्रचार माध्यमों के लिये वह समाचार और चर्चा का विषय नहीं हैं। अगर सामान्य मारपीट का मामला भी हो और समूह में बंटे मानवीय संवदेनाओं से जुड़े होने के कारण सामूहिक रूप से प्रचारित किया जा सकता है तो उसे प्रचार माध्यमों में अति सक्रिय लोग हाथोंहाथ उठा लेते हैं। चिल्ला चिल्लाकर दर्शकों और पाठकों की संवदेनाओं को उबारने लगते हैं। उनकी इस चाल में कितने लोग आते हैं यह अलग विषय है पर सामान्य लोग इस बात को समझ गये हैं कि यह भी एक व्यवसायिक खेल है।

यह प्रचार माध्यमों की व्यवसायिक मजबूरियां हैं। उनको भी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि मानवीय संवेदनाओं को दोहन करने के लिये ऐसे प्रयास सदियों से हो रहे हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण भारतीय ज्ञान की अनदेखी तो वह लोग भी करते हैं जो उसे मानते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान की जगह धर्म के रूप में सार्वजनिक कर्मकांडों के महत्व का प्रतिपादन बाजार नेे ही किया है। कहीं यह कर्मकांड शक्ति के रूप में एक समूह अपने साथ रखने के लिये बनाये गये लगते हैं। मुख्य बात यह है कि हमें ऐसे जाल में नहीं फंसना और इसलिये इस बात को समझ लेना चाहिये कि अपराध तो अपराध होता है। हां, दूसरे को हानि पहुंचाने की मात्रा को लेकर उसका पैमाना तय किया जा सकता है पर उसके साथ कोई अन्य विषय जोड़ना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है। जैसे चोरी, और मारपीट की घटना डकैती या हत्या जैसी गंभीर नहीं हो सकती पर डकैती या हत्या को किसी धर्म, भाषा,जाति और लिंग से जोड़ने के अर्थ यह है कि हमारी दिलचस्पी अपराध से घृणा में कम उस पर बहस मेें अधिक है।
बाजार और प्रचार का खेल है उसे रोकने की बात करना भी ठीक नहीं है मगर आम आदमी को यह संदेश देना जरूर आवश्यक लगता है कि वह किसी भी प्रकार के अपराध में जातीय,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय संवेदनाएं न जोड़े-अपराध चाहे उनके प्रति हो या दूसरे के प्रति उसके प्रति घृणा का भाव रखें पर अपराधी की जाति,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय आधार को अपने हृदय और मस्तिष्क में नहीं रखें।

एक बात हैरान करने वाली है वह यह कि यह विद्वान लोग विदेश से देश में आये आतंकियों के जघन्य हमले और देश के ही कुछ कट्टरपंथी लोगों द्वारा गयी किसी एक स्थान पर सामान्य मारपीट की घटना में को एक समान धरातल पर रखते हुए उसमें जिस तरह बहस कर रहे हैं उससे नहीं लगता कि वह गंभीर है भले ही अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति या आलेख लिखते समय वह ऐसा प्रदर्शित करते हों। इस बात पर दुःख कम हंसी अधिक आती है। मुख्य बात की तरफ कहीं कोई नहीं आता कि आखिर इसके भौतिक लाभ किसको और कैसे हैं-यानि जड़ जोरु और जमीन की दृष्टि से कौन लाभान्वित है। बजाय इसके वह मानवीय संवेदनाओं से विषय लेकर उस पर बहस करते हैं।

आतंकवाद विश्व में इसलिये फैल रहा है कि कहीं न कहीं विश्व मेें उनको राज्य के रूप में सामरिक और नैतिक समर्थन मिल जाता है। कहीं राज्य खुलकर सामरिक समर्थन दे रहे हैं तो कही उनके अपराधों से मूंह फेरकर उनको समर्थन दिया जा रहा है। एक होकर आतंकवाद से लड़ने की बात तो केवल दिखावा है। जिस तरह अपने देश में बंटा हुआ समाज है वैसे ही विश्व में भी है। हमारे यहां सक्रिय आतंकवादी पाकिस्तान और बंग्लादेश से पनाह और सहायता पाते हैं और विश्व के बाकी देश इस मामले में खामोश हो जाते हैं। वह तो अपने यहां फैले आतंकवाद को ही वास्तविक आतंकवाद मानते हैंं। वैसे ऐसी बहसें तो वहां भी होती हैं कि कौनसा धर्म आतंकवादी है और कौनसा नहीं या किसी धर्म के मानने वाले सभी आतंकवादी नहीं होते। यह सब बातें कहने की आवश्यकता नहीं हैं पर लोगों को व्यस्त रखने के लिये कही जातीं हैं। इससे प्रचार माध्यमों को अपने यहां कार्यक्रम बनाने और उससे अपना प्रचार पाने का अवसर मिलता है। आतंकवाद से लाभ का मुख्य मुद्दा परिचर्चाओं से गायब हो जाता है और वहां यहां तो आतंकवादी संगठनों की पैतरेबाजी की चर्चा होती है या फिर धार्मिक,जाति,भाषा, और लिंग के आधार बढि़या और लोगों को अच्छे लगने वाले विचारों की। आतंकवादियों के आर्थिक स्त्रोतों और उनसे जुड़ी बड़ी हस्तियों से ध्यान हटाने का यह भी एक प्रयास होता है क्योंकि वह प्रचार माध्यमों के लिये अन्य कारणों से बिकने वाले चेहरे भी होते हैं।

प्रसंगवश अमेरिका के नये राष्ट्रपति को भी यहां के प्रचार माध्यमों ने अपना लाड़ला बना दिया जैसे कि वह हमारे देश का आतंकवाद भी मिटा डालेंगे। भारत से अमेरिका की मित्रता स्वाभाविक कारणों से है और वहां के किसी भी राष्ट्रपति से यह आशा करना कि वह उसके लिये कुछ करेंगे निरर्थक बात है। यहां यह भी याद रखने लायक है कि ओबामा ने भारत के अंतरिक्ष में चंद्रयान भेजने पर चिंता जताई थी। शायद उनको मालुम हो गया होगा कि वहां से जो फिल्में उसने भेजीं हैं वह इस विश्व को पहली बार मिली हैं और अभी तक अमेरिकी वैज्ञानिक भी उसे प्राप्त नहीं कर सके थे। बहरहाल आतंकवादियों की पैंतरे बाजी पर चर्चा करते हुए विद्वान बुद्धिजीवी और लेखक जिस तरह मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पैंतरे के रूप में आजमाते हैं वह इस बात को दर्शाता है कि वह भी अपने आर्थिक लाभ और छबि में निरंतरता बनाये रखने के लिये एक प्रयास होता है। वह बनी बनायी लकीर पर चलना चाहते हैं और उनके पास अपना कोई मौलिक और नया चिंतन नहीं है। वह दूसरे के द्वारा तय किये गये वैचारिक नक्शे पर ही अपने चर्चा घर सजाते हैं।
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कैसे होगा चंद्रमा की जमीन का बंटवारा-व्यंग्य आलेख


अब चंद्रमा पर धरती पर तमाम देशों के अधिकार की बात शुरु हो गयी है। अखबार में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार कुछ जागरुक लोगों मांग की है कि जिस तरह विश्व के अनेक देशों के अंतरिक्ष यान चंद्रमा के चक्कर लगा रहे हैं और वह सभी भविष्य में अपना वहां अधिकार वहां की जमीन पर जमा सकते हैं इसलिये एक कानून बना कर भविष्य में किसी विवाद से बचना चाहिए। एक बात तय है कि चंद्रमा पर पहुंचने वाले वही देश होंगे जो आर्थिक और तकनीकी दोनों ही दृष्टि से संपन्न हों। इस विश्व में ऐसे देशोें की संख्या पंद्रह से बीस ही होगी अधिक नहीं।

चंद्रमा की जमीन पर अधिकार को लेकर नियम बनाने वालों की मांग करने वालों का कहना है कि जिस तरह हर देश के समुद्र और आकाश का बंटवारा हुआ है वैसे ही चंद्रमा की जमीन का बंटावारा होना चाहिये। अब सवाल यह है कि समुद्र और आकाश का बंटवारा तो देशों की सीमा के आधार पर हुआ है जो कभी बदलते नहीं है पर चंद्रमा तो घूमता रहता है। फिर अपने आकाश और समुद्री सीमा की रक्षा के लिये सभी देश अपने यहां सेना रखते हैं पर चंद्रमा पर अपने क्षेत्र की रक्षा करने के लिये तभी समर्थ हो पायेंगे जब वहां पहुंच पायेंगे। बहरहाल इसलिये संभावना ऐसी ही हो सकती है कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनमें ही यह बंटवारा हो।

अगर चंद्रमा की जमीन का बंटावारा हुआ तो उसका आधार यह भी बनेगा कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनके देशों का क्षेत्रफल देखते हुए उसी आधार पर चंद्रमा की जमीन भी तय हो जाये। यानि समर्थवान देशोंे का क्षेत्रफल एक इकाई मानकर उसे चंद्रमा की पूरी जमीन के क्षेत्रफल से तोला जायेगा। उसके आधार पर जिसका हिस्सा बना वह उसका मालिक मान लिया जायेगा।

बाकी देशों का तो ठीक है भारत का क्षेत्रफल तय करने में भारी दिक्कत आयेगी भले ही भारत को उसी आधार पर चंद्रमा पर जमीन मिले जितना उसका क्षेत्रफल है। यह समस्या चीन और पाकिस्तान से ही आयेगी। चीन कहेगा कि अरुणांचल के क्षेत्र बराबर की जमीन भारत के हिस्से से कम कर उसे दी जाये तो पाकिस्तान कहेगा कि कश्मीर बराबर हिस्से की जमीन उसे दी जाये और वह उसे चीन को देगा। पाकिस्तान अभी चंद्रमा पर स्वयं पहुंचने की स्थिति में नहीं है।

वह वहां पहुंचकर भारत से तो नहीं लड़ सकता पर उसके मित्र ऐसे हैं जो उसके बिना चल ही नहीं सकते। फिर वह मित्र ऐसे हैं जो भारत को सहन नहीं कर सकते इसलिये वह पाकिस्तान को भले ही वहां न ले जायें पर उसका नाम लेकर भारत के लिये वहां भी संकट खड़ा कर सकते हैं।

वैसे देखा जाये तो जब से भारत ने चंद्रयान भेजा उसके खिलाफ गतिविधियां कुछ अधिक बढ़ ही गयीं हैं। कहने को अनेक देश भारत के साथ मित्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं पर उनके दिल में पाकिस्तान ही बसता है और उनके लिये यह मुश्किल है कि वह चंद्रमा पर उसे भूल जायें-खासतौर भारत उनके सामने चुनौती की तरह खड़ा हो।

इस विवाद में पाकिस्तान के मित्र निश्चित रूप से उसका पक्ष लेकर झगड़ा करेंगे। अगर बैठक चंद्रमा पर होगी तो वह कहेंगे कि चूंकि भारत यहां एक दावेदार है उसके विरोधी पाकिस्तान का मौजूद रहना आवश्यक है सो बैठक जमीन पर ही हो। जमीन पर होगी तो कहेंगे कि पहले आपस में तय कर लो कि ‘वहां की जमीन का बंटवारा कैसे हो?’
सोवियत संघ एतिहासिक गलती ने पाकिस्तान को अमृतपान करा लिया है इसलिये यह देश आज हर उस देश को प्रिय है जो कभी सोवियत संध के विरोधी थे। 31 वर्ष पूर्व सोवियत संघ ने अफगानिस्तन में घुसपैठ की थी तब पश्चिम के सोवियत विरोधियों के लिये पाकिस्तान ही एक सहारा बना और उसे खूब हथियार और पैसा मिलने लगा। उसने वहां आतंकवाद जमकर फैलाया। सोवयत संघ को वहां से हटना पड़ा और उसके बाद तो पाकिस्तान के पौबारह हो गये। एक तरह से पूरा अफगानिस्तान उसके कब्जे में आ गया। मगर हालत अब बदले हैं तो वहां फिर अफगानियों का शासन आ गया पर पाकिस्तान अपनी खुराफतों से वहां भी आतंक फैलाये हुए है। वह अफगानिस्तान को अपने हाथ से छिनता नहीं देख पा रहा हैं।

अखबारों में यह भी पढ़ने में आया कि वहां तो बच्चों को स्कूल में ही भारत विरोधी शिक्षा दी जाती है। कहने को तो सभी भारतीय चैनल कह रहे हैं कि सारी दुनियां पाकिस्तान की औकात देख रही है। हो सकता है कि यह सच हो पर इसका एक पक्ष दूसरा भी है कि ‘पाकिस्तान बाकी दुनियां की औकात भारतवासियों को दिखा रहा है कि देखो अपने आतंक से सभी घबड़ाते हैं पर दूसरे का यहां फैला आतंकवाद उनको बहुत भाता है। भारत को शाब्दिक रूप से सहानुभूति सभी ने दी है पर किसी में पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।

सभी देशों अब यह कह रहे हैं कि ‘आपस में बातचीत कर लो’। जब चंद्रमा पर जमीन का आवंटन होगा तब भी यही कहेंगे कि ‘पहले आपस में बातचीत कर लो।‘
इस तरह बाकी देश अपनी जमीन बांट लेंगे और भारत से कहेंगे कि ‘जब आपका पाकिस्तान से फार्मूला तय हो जाये तब जमीन आवंटित हो जायेगी।’

तब तक भारत क्या करेगा? उसके अंतरिक्ष यान क्या चंद्रमा की जमीन पर नहीं उतरेंगे? उतरेंगे तो सही पर उससे उसकी फीस मांगी जायेगी। जिस देश की जमीन पर उतरेगा उससे अनुमति मांगनी होगी। यह कहा जाये कि ‘आपका हक तो बनता है पर अभी आपको जमीन का आवंटन नहीं हुआ है।’

अगर हम तर्क देंगे कि ‘पाकिस्तान तो चंद्रमा पर पहुंच नहीं सकता तो उसके हक पर विवाद क्यों उठाया जा रहा है।’
दरअसल समस्या पाकिस्तान नहीं है। उसने अपनी स्थिति इस तरह बना ली है कि उसकी उपेक्षा तो कोई कर ही नहीं सकता। उसके पीछे फारस की खाड़ी तक फैले देश हैं जिनके पास तेल और गैस के कीमती भंडार हैं और बाकी अन्य ताकतवर देश उनके यहां पानी भरते हैं और वह सभी पाकिस्तान के बिना चल नहीं सकते।
कुल मिलाकर चंद्रमा पर जमीन विवाद में पाकिस्तान कोई कम संकट खड़े नहीं करेगा। उसके मित्र देश भी उसका फायदा उठाकर भारत की जमीन हथियाने का प्रयास करेंगे। हां, ऐसे में भारत के मित्र सोवियत संघ से ही उम्मीद की जा सकती है पर वहां भी उसने ऐसा कुछ किया तो पाकिस्तान के मित्र देश उसको चंद्रमा पर कर्ज या उधार के अंतरिक्ष यान देकर पहुंचा देंगे। वह हर हालात में लड़ेगा भारत ही। उसका एक ही आधार है भारत से लड़ना चाहे वह जमीन हो या चंद्रमा!’
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चंद्रयान-1 के प्रक्षेपण पर ओबामा का चिंतित होना स्वाभाविक-संपादकीय


अमेरिका में राष्ट्रपति के उम्मीदवार श्री ओबामा ने भारत के चंद्रयान भेजने पर चिंता जाहिर की और इसे अपने नासा संस्थान के लिये चुनौती बताया। उन्होंने कहा कि वह विजय प्राप्त कर नासा की प्रगति के लिये काम करेंगे। यह खबर दो दिन पुरानी है पर आज नयी खबर यह पढ़ने को मिली कि अमेरिका का चैदहवां बैंक दिवालिया हो गया। अमेरिका अभी तक आतंकवाद से परेशान था पर आर्थिक मंदी भी उसके लिये संकट बन गयी है ऐसे में भारत का चंद्रयान भेजने का दर्द वह उस तरह व्यक्त नहीं की जैसे कर सकता था।

कुछ लोगों को ओबामा साहब की यह चिंता कोई अधिक महत्वपूर्ण नहीं लगती होगी पर जिन लोगों ने खबरे पढ़ते हुए अपनी जिंदगी गुजार दी वह इस बात को बहुत महत्व दे रहे हैं यह अलग बात है कि उनके दिल की बात लिखने वाला कोई बुद्धिजीवी नहीं है। सच तो यह है कि आर्थिक विशेषज्ञ स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि वर्तमान मंदी से उबरने के लिये अमेरिका को कम से कम पांच वर्ष लग जायेंगे। अमेरिकी सरकार अपने यहां की मंदी से जूझ रही है और उसे इसके लिये बहुत कुछ करना है।
भारतीय बुद्धिजीवी इस समय आंतकवाद को लेकर इस बहस में उलझे है कि कौनसा भाषाई,धार्मिक या वैचारिक समूह अच्छा है और कौन खराब। उन्हें यह सब दिखाई नहीं दे रहा कि जिस अमेरिका की उदारीकरण की वह प्रशंसा करते थे वहां की सरकार आखिर अब अपना धन क्यों लगा रही है? इधर भारत के सार्वजनिक बैंक सुरक्षित हैं तो यहां को लेकर आर्थिक विशेषज्ञ चिंतित नहीं हैंं।

कहा जाता था कि भारत की सरकार की नियंत्रित प्रणाली के कारण विकास नहीं हो पा रहा है पर चंद्रयान-1 क प्रक्षेपण से यह स्पष्ट हो गया है कि यह केवल एक भ्रांत धारणा थी। इसने भारत की प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिये और उसकी बढ़ती वैज्ञानिक शक्ति से इस बात की संभावना बन रही है कि विश्व के अनेक गरीब और विकासशील राष्ट्र भारत की तरफ झुक सकते हैं ताकि उन्हें अपने लिये सस्ते में तकनीकी मदद मिल सके। देने को तो अमेरिका भी ऐसी सहायता देता है पर न केवल पूरा पैसा वसूल करता है बल्कि अपनी अनेक ऐसी शर्तें भी मनवाता है जो किसी सार्वभौमिक राष्ट्र के लिये तकलीफदेह होती हैं। अमेरिका के अलावा अन्य विकसित राष्ट्र भी अब भारत को बराबरी का दर्जा दे सकते हैं-इसके लिये संयुक्त राष्ट्रसंघ में स्थाई सीट होने की जरूरत अब कम ही लोग मानते हैंंं।

भारत ने नियंत्रित प्रणाली होते आर्थिक विकास किया और साथ विज्ञान में भी वह स्थान प्राप्त कर लिया जो अभी चीन के लिये भी थोड़ा दूर है-हालांकि वह भी जल्द ही अपना चंद्रयान अंतरिक्ष में भेजने वाला है। ऐसे में अमेरिका के लिये उस क्षेत्र में चुनौती मिल रही है जिस पर उसका एकाधिकार था। निजी क्षेत्र की हमेशा वकालत करने वाले भारत के बुद्धिजीवी यह सोचकर हैरान होंगे कि कुछ लोगों ने वहां दबे स्वर मेें भारत की तरह मिश्रित अर्थ व्यवस्था अपनाने की आवाज उठाई है। मिश्रित अर्थव्यवस्था का अगर संक्षिप्त मतलब यह है कि जनहित के कुछ व्यवसाय और सेवायें सीधे सरकार के नियंत्रण में रहें ताकि उससे देश की आम जनता के जनजीवन को कभी पटरी से न उतारा जा सके। भारत में वैसे अधिकतर लोग इसी तरह की अर्थव्यवस्था के ही समर्थक हैं, पर सरकार की नियंत्रण की सीमाओं पर क्षेत्रों की संख्या पर मतभेद रहे हैं। हालांकि कुछ बुद्धिजीवी इसके कड़े विरोधी है और यह तय बात है कि वह पूंजीपतियों के लिये लिखने और पढ़ने वाले हैं।

बहरहाल भारत के बुद्धिजीवियों को अब यह समझ लेना चाहिये कि तमाम तरह के विवादों के बावजूद भारत अब विश्व महाशक्ति बनने की तरफ बढ़ रहा है और इस समय इस पर पर विराजमान अमेरिका और अन्य पश्चिमी राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्थाओं को लेकर जूझ रहे हैं। वैसे भारत के विश्व में सर्वशक्तिमान होने की बात का पहले भी अनेक लोग मखौल उड़ाते रहे हैं पर जिस तरह अमेरिका की मंदी ने वहां के हालात बिगाड़े हैं उससे ऐसा लगता है कि तमाम तरह के परिवर्तन इस विश्व में आ सकते हैं। अधिकतर लोगों को लगता है कि अमेरिका केवल हथियारों की वजह से ताकतवर है पर यह केवल अद्र्धसत्य है। अमेरिका के शक्तिशाली होने का कारण यह भी है कि अंतरिक्ष तकनीकी पर एकाधिकार होने के कारण अनेक देश उस निर्भर हैं और यही कारण है कि अपनी पूंजी भी वहीं लगाते हैं। यही कारण है कि अमेरिकी बैंक निजी होते हुए भी बहुत सारी पूंजी अर्जित कर लेते थे।

अब जिस तरह वहां बैंक दिवालिया हो रहे हैं उससे अमेरिका की साख पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि अमेरिका सरकार कब तक इन बैंकों को बचायेगी। इसके विपरीत भारतीय बैंकों पर सरकार का नियंत्रण है। हालांकि भारत में भी निजी बैंक अस्तित्व में आ गये हैं पर इस मंदी के कारण उनकी अभी कोई बृहद भूमिका नहीं है। यही कारण है कि भारत के आर्थिक विशेषज्ञ यहां की अर्थव्यवस्था को चिंतित नहीं है। अमेरिका में आर्थिक मंदी का प्रकोप है और ऐसे में अगर भारत से तकनीकी, विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में चुनौती मिलने वाली खबर मिलती है तो उस पर श्री ओबामा का चिंतित होना स्वाभाविक है।
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आर्थिक मंदी और निजीकरण का खेल-आलेख


भारत तो फिर भी इस आर्थिक मंदी से उबर लेगा पर अमेरिका के लिये यह एक बहुत बड़ी चुनौती रहने वाली है। इसका कारण यह है कि अमेरिकी कंपनियों के मुखिया चाह कोई भी हों पर उनमें एक बहुत बड़ी राशि विदेशी निवेशकों की हैं। इनमें अनेक भारतीय तो हैं पर साथ में चीन, जापान और खाड़ी देशों के अनेक धनीमानी रईस है। उस दिन अंतर्जाल पर एक ब्लाग ने आंकड़ा दिया था कि अमेरिका की कंपनियों में 36 प्रतिशत तो खाड़ी देशों के लोगों का है। उस ब्लाग पर लेखक ने लिखा था कि ईरान सहित खाड़ी देशों के मुखिया इसलिये अमेरिका से नाराज नहीं हैं कि वह आतंकवाद के विरुद्ध उनकी विचाराधारा का हनन कर रहा है। उनकी नाराजगी कारण यह है कि वह उनकी पूंजी के सहारे ही टिका हुआ है पर वैसा सम्मान उनका नहीं करता। यह एक राजनीतिक विषय हो सकता है पर एक बात तो पता लगती है कि अंग्रेजों की तरह अमेरिका भी दूसरे देशों के धन के कारण विश्व के आर्थिक और सामरिक शिखर पर है.

अब यह तो पता नहीं कि उस लेखक की बात में कितनी सच्चाई है पर उससे एक आभास तो हुआ कि अमेरिका की आर्थिक ताकत का मुख्य आधार ही विदेशी धन है। अमेरिका की बड़ी कंपनियों को करारा झटका लगा है। वहां की एक डूबती हुई बीमा कंपनी को सरकारी सहायता से बचाया गया। दुनियां की एक महाशक्ति और संपन्नता का प्रतीक अमेरिका जिस मंदी से जूझ रहा है उसके कारण अभी खोजना सहज नहीं हैं। एक बात तय है कि पूरे विश्व की औद्योगिक ताकत कुछ लोगों के हाथ में हैं और वह अपने हिसाब से रणनीति बनाकर अपने हित साध सकते हैं यह अलग बात है कि उसका असर आम आदमी पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता न दिखे पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता ही है।

भारत में निजीकरण के अंधभक्तों से इस समय अनेक सवाल पूछ जा सकते हैं-
1. जब शेयर बाजार में उथल पुथल होती है तब सरकार से यह अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह गिरते हुए भावों पर नियंत्रण करने का प्रयास करे। एक तरफ निजीकरण की वकालत दूसरी तरफ सरकार से अपेक्षायें क्या दोहरा मापदंड नहीं है?
2. हर बार सरकारी कर्मचारियों पर दोषारोपण करने वाले यह बतायें कि वह निजी क्षेत्रों में दी जाने वाली सब्सिडी को विरोध क्यों नहीं करते? जब निजी क्षेत्रों को सब्सिडी दी जाती है तो उसका सही उपयोग होने का क्या प्रमाण है? सरकारी कर्मचारियों पर भ्रष्टाचार और लापरवाही का ढेर सारे आरोप लगते हैं पर निजी क्षेत्र को तमाम तरह की सुविधायें सस्ती या मुफ्त दर देने से राजस्व की जो हानि होती है क्या वह कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतन से अधिक नहीं होती। निजी उद्योग या सेवा पर संकट आने पर एकदम कर्मचारियों की नौकरी खत्म कर दी गयी तो समाज के लोग उनसे सहानुभूति जताने लगे। यह ठीक बात है पर उन उद्योगों और सेवाओं के उच्च पदस्थ लोगों ने सरकार से कितनी मदद ली और उसका क्या किया?क्या उनके कामकाज में कोई दोष नहीं है। मंदी की वजह से निजी क्षेत्रों में नौकरी का संकट होने पर सरकार को प्रयास करने पड़ते हैं और तब कई अत्यावश्यक सेवाओं के निजीकरण की मांग पर सवाल उठना स्वाभाविक हैं।
3. कुछ सेवायें और उद्यम सरकारी संरक्षण में होने चाहिये-अब यह बात तय लगती है। अनेक आरोपों के बावजूद यह एक सत्य बात है कि निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों से महंगे और भविष्य सुरक्षित होने के कारण सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी पर आंच आने के भय से ठीक काम करते हैं।
अब बात अमेरिका की करें। अमेरिकी अगर अपना सामरिक साम्राज्य सी.आई.ए के सहारे चलाता है तो आर्थिक साम्राज्य इन्हीं कंपनियों के भरोसे ही पूरे विश्व में फैला है। अंग्रेज भी ईस्ट इंडिया कंपनी के सहारे हमारे भारत देश में आये और फिर राज्य करने के लिये फैल गये पर अमेरिकी की कई कंपनियों ने अप्रत्यक्ष रूप से पूरे विश्व में अपना जाल फैला रखा है भले ही प्रत्यक्ष रूप से उनका राज्य नहीं दिखता पर वहां के धनपति दूसरे देशों में अपना प्रभाव तो बनाये ही रहते हैं। अब जिस तरह उसकी कंपनियां दबाव में है उससे तो लगता है कि विश्व में राजनीतिक पटल पर भी उसे चुनौती मिलने वाली है। भारतीय कंपनियों कोई दबाव बना पायेंगी इसकी संभावना नहीं के बराबर है पर अमेरिका को राजनीति पटल पर चुनौती देने वाले चीन की कंपनियां एसा प्रयास कर सकती हैं जिससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो जाये।

हालांकि इस समय पूरे विश्व के शेयर बाजार संकट में है पर इससे वही देश अधिक संकट में होंगे जिनके शीर्षस्थ लोग वहां विनिवेश करते हैं। यहां यह बात याद रखनी चाहिये कि अनेक गरीब देशों में भी अब ऐसे शीर्षस्थ लोग हैं हो दिखाने के लिये भले ही अमेरिका के बैरी या आलोचक हों पर अपने देश के लोगों को खून की तरह चूसकर अपना पैसा अमेरिका में ही लगाते हैंं। अगर वह आर्थिक रूप से टूटे तो फिर अपने देशों की आम जनता से पैसा वसूल करेंगे। इसमें कई देश ऐसे हैं जहां तानाशाही है और वहां जो शीर्षस्थ लोगों की मनमानी होगी वह भला कौन रोक पायेगा?
अब देखना यह है कि अमेरिका अपने यहां आयी इस मंदी को थाम पाता है कि नहीं क्योंकि विश्व में फैले उसके आर्थिक और सामरिक साम्राज्य का ऐसी कंपनियां आधार है जिन्हें बचाने का वह प्रयास कर रहा है।
यहां निजीकरण पर थोड़ी चर्चा करना बुरा नहीं हैं। वैसे सरकार को व्यवसायिक कामकाज से दूर रहना चाहिये-ऐसा माना जाता है। पर जिस तरह निजीकरण के बाद आवश्यक उद्यमों और सेवाओं का जो परिणाम सामने आ रहा है उससे तो लगता है कि मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने वाले पूर्वज भी गलत नहीं थे। इसी के चलते इस देश ने प्रगति की पर निजीकरण के रास्ते पर चले हमारे देश की कितनी प्रगति है-यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों पर कुप्रबंध का शिकार होने के आरोप लगते हैं पर निजी क्षेत्र सुप्रबंध वाले हैं यह भी नहीं लगता। इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर हमारे देश के अनुकूल कौनसी व्यवस्था है। अनेक आथिक विशेषज्ञ अमेरिकी बैंकों जैसी हालत भारत की बैंकों की होने को खारिज करते हैं क्योंकि उनके पीछे सीधे सरकार खड़ी है। यह आत्मविश्वास आखिर उसी व्यवस्था की देन है जिसकी आलोचना की जाती है। एक बात निश्चित है कि कुप्रबंध की समस्या अगर सरकारी क्षेत्रों के साथ है तो निजी क्षेत्र की भी है। जिसका परिणाम अंतत: आम आदमी को ही भोगना पड़ता है। भारतील अर्थव्यवस्था का एस दुर्गुण है कुप्रबंध और यही विचार करते हुए अर्थव्यवस्था के स्वरूप में बदलाव लाने चाहिए न कि अमेरिका का अंधानुकरण करना चाहिए। क्या निजीकरण से वाकई आम आदमी को लाभ हुआ है? इस पर कभी विचार करते हुए लिखने का प्रयास इसी ब्लाग पर किया जायेगा।