Tag Archives: आध्यात्म

वादों का मेला-हिंदी व्यंग्य कविता


भरोसा देकर थोड़ी देर के साथी हमारा दिल लूट जाते हैं,

मतलब तक साथ निभाते सभी फिर छूट जाते हैं।

हार बार बाज़ार में सजता है कुंभ की तरह वादों का मेला,

सपने सामने दिखाते पीछे छिपाकर चालाकी गुरु और चेला,

मंच पर वक्ता बदलते है मगर जुबां से बात एक ही सुनाते,

शब्दों का जादू जिनका चल जाये वह कीमत लेकर भुनाते,

जहान को बदलने का नारा सुनते हुए लोगों के कान पक गये,

न हालात बदले न वादों की शक्ल सौदागर आते रोज नये,

कहें दीपक बापू ऊंची बातें करते हैं छोटी नीयत के लोग

हम तो एक कान से सुनते दूसरे से निकाले जाते हैं।

———–

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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योग साधना में नियम का बहुत महत्व है-हिन्दी चिंत्तन लेख


                        इस बार की दीपावली के दो दिन हमारे लिये दैहिक दृष्टि से सुखद नहीं रहे।  धनतेरस की शाम से चला बुखार और जुकाम नाम के विकारों का संयुक्त अभियान रविवार शाम तक हमें हैरान किये रहा।  योग साधना का अभ्यास इतना ही इसमें काम आया कि हमने अपने घरेलु उपायों से इसे थामे रखा।  इन्हेलर से एक दो बार नाम को साफ करने का प्रयास किया तो वह भी उल्टा पड़ा। कहा जाता है कि जुकाम तीन दिन तक तो रहता ही है। यह सही हो सकता है पर चिकित्सक से इलाज कराते हुए आदमी तो तसल्ली तो रहती है कि उसे कोई दूसरा ठीक कर लोग। इन्हेलर ने जुकाम को जाम कर दिया तो वह ज्यादा उग्र हो उठा।  बहरहाल हमने जिन उपायों से जुकाम और बुखार का इलाज किया वह सार्वजनिक करना यूं भी ठीक नहीं है क्योंकि हमारे पास कोई चिकित्सीय प्रमाणपत्र नही है।  चार पांच तरीके तो उपयोग किये ही एक बार विक्स की गोली भी मन को शांत करने के लिये ले ही ली।

                        एक साथी ने प्रश्न किया-‘‘तुम्हें जुकाम कैसे हुआ? तुम तो रोज योगसाधना करते हो।’’

                        हमने कहा कि’’हमेशा ही योगसाधना थोड़े ही करते हैं। फिर हम नियम से कभी विचलित न हों ऐसे कोई सिद्ध भी नहीं है।’’

                        वह बोला-‘‘यह ठीक है पर तुम तो ज्ञानी भी हो।

                        हमने कहा-‘‘यह ठीक है कि हम कभी कभी ज्ञान बघारते हैं पर हम उसके भी साधक है, कोई सिद्ध नहीं! ज्ञानी का प्रमाण पत्र हमें दूसरा क्या देगा हमें स्वयं ही स्वीकार्य नहीं है।

                        योग साधना का आशय केवल प्राणायाम और आसन से ही नहीं होता वरन् उसमें नियम का भी बहुत महत्व है। नियम या नीति के विपरीत चलने का परिणाम विकार के रूप में प्रकट होता है।  दिपावली के दिनों में जब खाद्य विशेषज्ञ चिल्लाकर यह बता रहे हों कि हर जिले में इतना दूध नहीं होता जितना खोया मिल रहा है, इसलिये मिलावटी या नकली होने की पूरी संभावना है। जवाब यह भी हो सकता है कि दूसरे जिले से असली भी तो आ सकता है इसलिये नकली खोया नहीं भी हो सकता है। यह अत्यंत मूर्खतपूर्ण जवाब होगा क्योंकि यहां पूरे देश की बात हो रही है। हर जिले में ऐसा नहीं हो सकता।  दूध उत्पादन के बनिस्बत हर जिले में  उससे कई गुना खोया बाज़ार में दिख रहा है।

                        हमने जिस दुकानदार से मिठाई खरीदी उसकी छवि मध्यम स्तर की है इसलिये सब बात पर यकीन था कि शुद्ध सामान मिलेगा।  खाने के बाद जो प्रतिक्रिया हुई उससे मन दुःखी हो गया। हमने एक साथी से इस बात की चर्चा की तो उसने यह शंका जाहिर की कि खोया नकली न हो पर संभव है मिठाई रखी हुई हो। हमें सच पता नहीं पर उस मिठाई ने एक नहीं दो दिन परेशान किया।  मतलब वह दुकानदार नकली सामान न दे पर रखा हुआ दे सकता है यही उसकी मध्यम स्तर छवि का परिचायक है।

                        शुक्रवार शाम को मिठाई खरीदकर दो टुकड़े खाये।  उसके तत्काल बाद दैहिक स्थिति थोड़ी तनावपूर्ण लगी। रात तक उसने पूरी तरह घेर लिया। नींद आती जाती रही।  बहरहाल यह आसन और प्राणायाम का प्रभाव रहा कि शानिवार प्रातःकाल उठते समय थकावट नहीं लगी पर तनाव अनुभव हो रहा था।  योग साधना से निवृत होकर नहाधोकर चाय पी तो वह तनाव अधिक बढ़ गया।  बुुखार और जुकाम शांत भाव से आक्रामक दिख रहे थे। हमें लगा कि वायु विकार के कारण भी यह हो सकता है जो जुकाम के सहयोग से बना है।  दोपहर को खाने के बाद राहत अनुभव हुई पर दुर्भाग्य यह कि हमने सोचा कि फिर दो टुकड़े खा लिये।  उसके बाद बुखार तथा जुकाम ने आक्रामक रूप धारण कर लिया।  बहरहाल हमने नींद आराम से ली।  रविवार को गर्म पानी से नहाये।  ठंड लगने लगी थी।  होम्योपैथी की गोलियां  बुखार और जुकाम के विरुद्ध दागी। साथ ही तय किया कि अब मिठाई को हाथ नहीं लगायेंगे।  दिन में हमने दोनों विकारों के विरुद्ध  जवाबी हमला भी किया।  हमें लगा कि अगर यह मिठाई का असर है तो रविवार शाम तक ठीक हो जाना चाहिये।  हैरानी है शाम छह बजे होते होते हमारा शरीर यह बताने लगा कि विकार अब पीछे हटने लगे।  इससे हमारा मनोबल बढ़ा।  बीमारी के दौरान जो सबसे महत्वपूर्ण बात लगी वह यह कि आदमी का मनोबल ही उसे चलता है।  संघर्ष करते हुए हम निश्चित थे कि यह विकार दो दिन तक हैरान करेगा पर मनोबल गिरा हुआ था। सच कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है।  जब दैहिक शक्ति ने सकारात्मक संकेत दिये तो हमने अपने आपसे ही पूछा वह एक घंटे अंदर बैठा मन कौनसा था जो विचलित था और यह कौन है जो अब आश्वस्त होकर बाहर घूमने की प्रेरणा दे रहा है। यह मजे की बात है कि धूप में जाते हुए भी जो कदम लड़खड़ा रहे थे वही रात को तन कर खड़े थे।

                        हमने अनेक बार तय किया था कि जहां तक हो सके बाज़ार में तैयार खुली खाद्य पेय सामग्री से बचें रहें।  हमने देखा है कि जब बाज़ार का ऐसा सामान जो रखा जा सकता है उसे खाने पर हमें ऐसे ही जूझना पड़ता है।  कमाल इस बात का है कि बाज़ार से तैयार खुली खाद्य सामग्री। न खाने तक हमें कोई परेशानी नहीं होती। बीमार होने पर निकटवर्ती इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो हमने अपना नियम तोड़ा है।  बाज़ार में कभी खा लिया तो इस बात से डरे रहते हैं कि कहीं बीमार न पड़ जायें।  इसलिये कम ही खाते हैं पर दो बार निकल गये पर तीसरी बार  फंस ही जाते है।  स्थिति यह है कि हम पैक सामग्री की निर्माण अथवा पैक करने की तिथि देख लेते हैं।  हमारे कुछ विद्वान सही कहते हैं कि हमारे देश में भूखमरी बहुत है पर सच यह है कि यहां भूख की बनिस्पत बल्कि  खाकर मरने वाले लोगों की संख्या ज्यादा होती है।   मिलावटी, विषैले और नकली सामान खाकर मरने वाले लोगों की संख्या का अनुमान हमारे पास  नहीं है वरना वह भी कम नहीं हो सकती।

                        कहते हैं कि भगवान जो करता है वह अच्छे के लिये ही करता है। भौतिक रूप से दीपावली पर लाभ होने की कामना पालने वाले बहुत हैं पर हम जैसे अध्यात्मिक ज्ञान साधक को इस दीपावली पर बीमार होकर चिंत्तन करने का अवसर मिला उससे लगता है कि योग माता ने मति फेरकर वह अवसर दिया। जैसे संदेश दिया हो कि आसन और प्राणायम पर न इतराओ नियम भी कोई विषय है जिस पर कुछ चिंत्तन करो। दीपावली के दिन तो खूब पटाखे छोड़े गये, मिठाईयां खायी गयीं और अनेक जगह कार्यक्रम आयोजित किये गये।  सोमवार की प्रातःकाल हमें यह पता लगा कि हमारे फेफड़ों में कोई संक्रमण जरूर हुआ है क्योंकि सारे आसन हो गये पर हास्यासन पहले की तरह नहीं हो सका या कहें कि कर ही  नही पायें।  इससे ज्यादा चिंता यूं नहीं हुई क्योंकि बाकी अंग सही काम कर रहे हैं। दूसरी बात यह भी कि हम हास्यासन नहीं करते होते तो यह पता ही नहीं लगता कि हमारे फेफड़ों में संक्रमण विद्यमान है।  हो सकता है ऐसे में मिठाई फिर खा लेते।  कम से कम अब सावधानी रखने का विचार तो आया।  इसलिये हम तो यह कहेंगे कि हमारे लिये यह दीपावली भी शुभ रही। 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

 

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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भरोसा देकर दिल लूटे जाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता


भरोसा देकर थोड़ी देर के साथी हमारा दिल लूट जाते हैं,

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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शराब से ज्यादा बुरा है कामयाबी का नशा-विदुरनीति के आधार पर चिंत्तन लेख


            हमारे देश में लोकतांत्रिक राज्य प्रणाली है जिसमें आमजनों के मत से चुने गये प्रतिनिधि राज्य कर्म पर नियंत्रण करते हैं।  इन्हें राजा या बादशाह अवश्य नहीं कहा जाता पर उनका काम उसी तरह का होता है। पदों के नाम अलग अलग होते हैं पर उन्हें राज्य कर्म में लगी व्यवस्था पर नियंत्रण का अधिकार प्राप्त होता है। पहले राजा की जिम्मेदारी होती थी कि वह प्रजा का पालन करे और वह इस जिम्मेदारी का अपनी योग्यता के अनुसार निभाते भी थे। उनमें कुछ योग्य थे तो कुछ आयोग्य। बहरहाल कम से कम उन पर प्रजा हित की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी होती थी।

            लोकतांत्रिक प्रणाली में जनप्रतिनिधि के पास कोई प्रत्यक्ष काम करने का दायित्व नहीं होता वरन् संविधान के अनुसार राज्य व्यवस्था के लिये संस्थायें होती हैं जिनकी वह केवल देखभाल करता है। एक तो उस पर प्रजा हित का प्रत्यक्ष दायित्व नहीं होता दूसरे उनके पद पर कार्य करने की अवधि निश्चित होती है। उसके पूर्ण होने पर उनको फिर प्रजा के समक्ष जाना होता है।  जिन लोगों को राज्य कर्म में उच्च पद पर प्रतिष्ठित होना है उन्हें लोकतंत्र में जनमानस में अपनी छवि बनाये रखने के लिये तमाम तरह के स्वांग करने ही होते हैं। इससे प्रचार माध्यम उन्हें अपनी यहां स्थान देकर अपना व्यवसाय चलाने के लिये विज्ञापन भी जुटाते हैं। जनमानस में छवि बनाये रखने के प्रयास और जल कल्याण के लिये प्रत्यक्ष कार्य न करने की सुविधा का जो अच्छी तरह लाभ उठाये वही सर्वाधिक लोकप्रिय होता है। इस लोकतांत्रिक प्रणाली में  अगर जनहित का काम न हो या भ्रष्टाचार का प्रकरण हो तो दूसरे पर दोष डालना और अगर अच्छा हो जाये तो अपनी वाहवाही करना राज्य कर्म में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों को सुविधाजनक लगता है।

            राज्य कर्म में लगे लोगों की प्रवृत्ति राजसी होती है।  जिसमें लोभ, क्रोधऔर अहंकार के साथ ही पद बचाये रखने का मोह और कामना गुण स्वयमेव उत्पन्न होते हैं।  हमारे यहां लोकतंत्र में आस्था रखने वाले राज्यकर्म में लोगों से सात्विक व्यवहार की आशा व्यर्थ ही करते हैं।  जिनके पास कोई राज्य कर्म करने के लिये नहीं है वह सात्विकता से यह काम करने का दावा करते है। जिनके पास है वह भी स्वयं को सात्विक प्रवृत्ति का साबित करने में लगे रहने हैं। इस तरह स्वांग लोकतंत्र में करना ही पड़ता है।  यह नहीं है कि राज्यकर्म में सात्विक लोग आते नहीं है पर वह ज्यादा समय तक अपना वास्तविक भाव नहीं बनाये रख पाते या फिर हट जाते हैं।

विदुर नीति में कहा गया है कि

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ऐश्वमदयापिष्ठा सदाः पानामदादयः।

ऐश्वर्यमदत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते।।

            हिन्दी में भावार्थ-वैसे तो मादक पदार्थ के सेवन में नशा होता है पर उससे ज्यादा बुरा नशा वैभव का होता है। पद, पैसे तथा प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहता।

            अभी हाल ही में एक राज्य की विधानसभा के चुनावों में आम इंसानों को राजकीय कर्म में भागीदारी दिलाने का एक उच्च स्तरीय नाटक खेला गया। इस तरह के नाटक लोकतंत्र में जनमानस में अपनी छवि बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक होते हैं इसलिये इन्हें गलत मानना भी नहीं चाहिये।  एक दल के लोगों को आमजन का प्रतीक माना गया। इस दल के लोगों ने चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता में आने पर राजकीय भवन तथा वाहन न लेने की घोषणा की। दल अल्पमत में था और विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना था।  उससे पूर्व तक इसके लोगों ने परिवहन के लिये आमजनों की सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग किया।  ऐसा प्रचार हुआ कि यह लोग आमजन के वास्तविक हितैषी है।  यह प्रचार  दूसरे दलों पर समर्थन देने के लिये दबाव बनाने के रूप में किया गया।  बहुमत मिला तो अगले दिन ही सभी का रूप बदल गया।  जिन प्रचार माध्यमों ने इनकी धवल छवि का प्रचार किया वही अब नाखुश दिख रहे हैं।

            हो सकता है कि इससे कुछ आम बुद्धिजीवी निराश हों पर ज्ञान साधकों के लिये इसमें कुछ नया नहीं है। राजसी कर्म की यही प्रवृत्ति है।  सच बात तो यह है कि जो राजसी कर्म श्रेष्ठता से संपन्न  करता है उसे उसका फल भी मिलता है। दूसरी बात यह कि राजसी कर्म हमेशा ही फल की कामना से किये भी जाते हैं। सात्विक प्रकृत्ति के लोग कभी भी राज्य कर्म करने का प्रयास नहीं करते इसका मतलब यह नही है कि वह राजसी कर्म करते ही नहीं है। राजसी प्रकृत्ति का राज्य कर्म एक हिस्सा भर है।  व्यापार, कला या साहित्य में भौतिक फल की कामना करना भी राजसी प्रकृत्ति का ही है।  सात्विक प्रकृत्ति के लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की सीमा तक इनमें लिप्त रहते भी हैं पर वह कभी इस तरह का दावा नहीं करते कि निस्वार्थ भाव से व्यापार कर रहे हैं।

            कहने का अभिप्राय यह है कि प्रचार माध्यमों में लोकतंत्र के चलते अनेक प्रकार के नाटकीय दृश्य देखने को मिलते हैं।  एक तरह से यह दृश्य जीवंत फिल्मों की तरह होते हैं जिनमें अभिनय करने वाले स्वयं को सात्विक प्रकृत्ति का दिखाने का प्रयास करते हैं। ज्ञान साधकों को उनके अभिनय का अनुमान होता है पर आमजन अपना हृदय इन दृश्यों और पात्रों में लगा बैठते हैं जो कि बाद में उन्हें निराश करते हैं।  भारतीय अध्यात्म दर्शन के राजसी कर्म में लोगों का इस तरह कार्य करना और फल लेना कोई आश्चर्य की बात नही होती। राजसी कर्म करने वाले बुरे नहीं होते पर उनके सात्विक दावों पर कभी यकीन नहीं करना चाहिए।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

योगाभ्यासी को कोई बौद्धिक रूप से बंधुआ नहीं बना सकता-हिन्दी चिंत्तन लेख


            मनुष्य शब्द दो शब्दों के मेल से बना है मन तथा उष्णा। इसके संधि विच्छेद को समझें तभी दोनों की संधि का निहितार्थ समझा जा सकता है। उष्णा का अर्थ है गर्मी या ऊर्जा।  वैसे तो मन सभी जीवों का होता है पर दैहिक सीमाओं की वजह से अन्य जीवों के  मन की हलचल  कम ही होती है। मनुष्य के मन की ऊर्जा का विस्तार नहीं है जिससे उसकी दैहिक सक्रियता व्यापक दायरे में फैलती है इसलिये उसे ही मनुष्य संबोधन मिला।  तात्पर्य यह है कि मन उष्णा से तो मनुष्य मन से संचालित हो रहा है।  हम योग विद्या से जब इस रहस्य को समझते हैं तक हमारी मनस्थिति बदल जाती है। मन और उष्णा का संधि विच्छेद जानने की प्रक्रिया का नाम भी येाग है।

      इस मन में तमाम तरह के विचार आते हैं और तय बात है कि इनका उद्गम स्थल बाहरी दृश्य, स्वर और अनुभूतियां हैं। कभी इस मन की हलचल को अनुभव करें।  जब हम टीवी चैनलों पर समाचार देखते हैं तो लगता है कि इस दुनियां में तमाम तरह के अच्छे और बुरे घटनाक्रम हो रहे हैं। अगर मन किसी सामाजिक धारावाहिक में लग जाये तो उसकी कहानी सच्ची लगती है। यदि किसी अध्यात्म चैनल को देखें तो मन में जीवन दर्शन के प्रति रुझान पैदा होता है। गीत संगीत का चैनल देखें तो बाकी तीनों विषयों से परे हो जाते हैं। अगर मान लीजिये कोई कार्टून वाला चैनल देखें तो फिर हम यह भूल जाते हैं कि वहां रेखायें खीचंकर पात्र सृजित किये गये हैं, हमें वह पात्र वास्तव में बोलते दिखते हैं और उन्हें स्वर देने वालो मनुष्यों पर कभी विचार नहीं आता।

      इस तरह हमारा मन बाहरी विषयों के पारंगत विद्वान सहजता से अपहृत कर लेते हैं। कहा जाता है कि आजकल मीडिया अत्यंत शक्तिशाली हो गया है।  इसका कारण यह है कि परिवार और समाज के दायरे संकुचित हुए हैं और आधुनिक संचार माध्यमों ने व्यक्ति की दैहिक क्रियाओं को सीमित कर दिया है जिसकी वजह से बाहरी विषयों पर उसकी निर्भरता बढ़ी है। इन्हीं विषयों पर प्रचार माध्यम अपना प्रसारण करते हैं और यह माना जाता है कि मनुष्य जो देखता और सुनता है वही ग्रहण कर अपना विचार बनाता है। प्रचार माध्यमों पर जो प्रसारण होता है उसका आम इंसानों पर जो प्रभाव है उस पर विस्तृत बहस की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह हम देख ही रहे हैं। यही कारण है कि जिन लोगों का प्रचार माध्यमों पर वर्चस्व है वह एक सुखद नायकत्व की अनुभूति करते हैं।  उन्हें लगता है कि वह अपनी छवि का नकदीकरण कर सकते हैं। उनका यह आत्मविश्वास गलत नहीं है। दरअसल हम एक आम इंसान के रूप में मानसिक रूप से बंधुआ हो गये हैं।  जो पर्दे पर दिखाया और सुनाया जा रहा है उसे पर अपना चिंत्तन नहीं करते।  यह मान लेते हैं कि वह सब कुछ वैसा ही है जैसा हम देख और सुन रहे हैं। यही वजह है कि प्रचार में छाये नायक अपनी छवि पर इतराते हैं। यह अलग बात है कि वह स्वयं भी इस प्रसारण के आम इंसान की की तरह शिकार होकर  इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि उनका अपनी कमियों पर ध्यान नहीं जाता।

      इस मन की शक्ति को समझने की कला है योग साधना।  ध्यान से जब हम अपनी अंतदृष्टि जाग्रत करते हैं तब हमारी विवेक शक्ति तीव्रता से काम करती है।  मन पर नियंत्रण करने की बात करना सहज है पर व्यवहारिक रूप से अत्यंत कठिन है।  जब कोई आदमी ध्यान में पारंगत हो जाता है तब वह बाहरी विषयों का मूल सत्य समझने लगता है। तब उसके मन का अपहृत कोई नहीं कर सकता। कोई विषय चाहे कितना भी रुचिकर क्यों न हो वह ज्ञान साधक मनुष्य को बंधुआ नहीं बन सकता।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

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poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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आम आदमी के हालात नहीं बदलते-हिंदी व्यंग्य कविता


 आम इंसानों के हालत कभी हमें बदलते नहीं दिखते,

भलाई के सौदागर तख्त पर बैठ जाते नये वादे लिखते।

कहें दीपक बापू नया चेहरा पर्दे पर ताजगी ले आता है,

अदायें होती पुरानी वह जल्दी स्वाद में बासी हो जाता है।

गरीब को अमीर बनाने की रोज बनती यहां  नयी योजना,

फिर भी सड़क पर कचड़े में भूखों को रोटी पड़ती है खोजना।

इतिहास पर लिखे गये ढेरों कागज की स्याही में नहाये हैं,

मेहनतकशों के पसीने से बने सोने सफेदपोश लुटेरों ने पाये हैं।

बैखौफ हैं बहशी इंसान पहरेदारों से कर ली यारी,

कसूरवारों चुका रहे हफ्ता नहीं आती फंसने की बारी।

खबरचियों को सनसनी पर बहस में चाहिये रोज मसाला,

ज़माने की भलाई के दावे कमाई के आगे नहीं टिकते।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

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मनु स्मृति संदेश-अधर्मियों की तरक्की देखकर दिल न जलाएं


                        विश्व के अधिकतर देशों में जो राजनीतक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थायें हैं उनमें सादगी, सदाचार तथा सिद्धांतों के साथ विकास करते हुए उच्चत्तम शिखर पर कोई सामान्य मनुष्य नहीं पहुंच सकता।  अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ का मानना था कि कोई भी व्यक्ति ईमानदारी से अमीर नहीं बन सकता। अंग्रेजों  ने अनेक देशों में राज्य किया।  वहां से हटने से पूर्व  अपने तरह की व्यवस्थायें निर्माण करने के बाद ही किसी देश को आजाद किया।  यही कारण है सभी देशों में आधुनिक राज्यीय, सामाजिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं के शिखर पर अब सहजता से कोई नहीं पहुंच पाता।  यही कारण है कि उच्च शिखर पर वही पहुंचते हैं जो साम, दाम, दण्ड और भेद सभी प्रकार की नीतियां अपनाने की कला जानते हैं। याद रहे यह नीतियां केवल राजसी पुरुष की पहचान है। सात्विक लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह उस राह पर चलें। वैसे भी शिखर वाली जगहों पर राजसी वृत्ति से काम चलता है। ऐसे में उच्च स्थान पर पहुंचने वालों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह निष्काम भाव से कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करें। 

मनु स्मृति में  कहा गया है कि

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अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

            हिन्दी में भावार्थ-अधर्म व्यक्ति अपने अधार्मिक कर्मों के कारण भले ही उन्नति करने के साथ ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता दिखे पर अंततः वह जड़ मूल समेत नष्ट हो जाता है।

            राजसी पुरुषों का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य क्षेत्रों में जो तेजी से विकास होता है उसे देखकर सात्विक प्रवृत्ति के लोग भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। खासतौर से युवा वर्ग को शिखर पुरुषों का जीवन इस तरह का तेजी से विकास की तरफ बढ़ता देखकर उनके आकर्षण का शिकार हो जाते हैं।  जिनकी प्रकृति सात्विक है वह तो अधिक देर तक इस पर विचार नहीं करते पर जिनकी राजसी प्रवृत्ति है वह अपना लक्ष्य ही यह बना लेते हैं कि वह अपने क्षेत्र में उच्च शिखर पर पहुंचे। न पहुंचे तो  कम से कम किसी बड़े आदमी की चाटुकारिता उसके नाम का लाभ उठायें।  यह प्रयास सभी को फलदायी नहीं होता। सच बात तो यह है कि कर्म और और उसके फल का नियम यही है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। देखा यह भी जाता है कि उच्च शिखर पर येन केन प्रकरेण पर पहुंचते हैं उनका पतन भी बुरा होता है।  इतना ही नहीं भले ही बाह्य रूप से प्रसन्न दिखें आंतरिक रूप से भय का तनाव पाले रहते हैं।  अतः दूसरों का कथित विकास देखकर कभी उन्हें अपना आदर्श पुरुष नहीं मानना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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पत्थर दिल इंसान-हिंदी व्यंग्य कविता


जल में बड़ी मछली छोटी को खा जायेगी यह तय है।

करिश्मा नहीं करती कुदरत चलने की उसकी अपनी लय है।

कहें दीपक बापू मजबूर इंसान कभी बगावत नहीं करता है,

पेट भरता जिसका आसनी से वही उसूलों का दम भरता है,

पत्थरों दिल इंसानों आगे शीश नवाकर की है जिन्होंने कमाई,

नही सह सकते कभी वह पसीना बहाने वाले मजबूर की बढ़ाई,

अपनी पेट की लड़ाई लड़ता इंसान दूसरे के लिये लगता फिक्रमंद,

पाखंड के ऐसे महला बनाता जहां सच का प्रवेश होता है बंद।

सभी अय्याशी का सामान चाहते पर कहने में उनको भय है,

ईमान सस्ते में बेचने वालों के लिये वफा बेकार की शय है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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भलाई करने के लिये सेवक-हिंदी व्यंग्य कविता


 

 

जनता की भलाई करने के लिये ढेर सारे सेवक आ जाते है,

 

शासक होकर करते ऐश बांटते कम ज्यादा मेवा खंद खा जाते हैं।

 

पहले जिनके चेहरे मुरझाये थे  सेवक बनकर खिल गये,

 

अंधेरों में काटी थी जिंदगी रौशन महल उनको मिल गये,

 

तख्त पर बैठे तो  रुतवा और रौब जमायें,

 

पद छोड़ते हुए अपने नाम के साथ शहीद लगायें,

 

कोई खास तो कोई आम दरबार लगाता है,

 

अहसान बांट रहा मुफ्त में हर बादशाह जताता है,

 

कहें दीपक बापू इंसान का आसरा हमेशा रहा भगवान,

 

हुकुमतों का खेल तो चालाक ही समझ पाते हैं।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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शब्दों का जाल-हिंदी व्यंग्य कविता


ऊंचे सपने बेचना आसान है,

बाज़ार में खरीददारों की भीड़ लग जाती

बदहाल हर आम इंसान है।

कहें दीपक बापू

जितनी महंगाई बढ़ेगी

सस्ते सामान दिलाने के भाषण पर

भीड़ जुट जायेगी,

मिले न अन्न का दाना

शब्दों पर ही वाह वाह गायेगी,

बेईमानी पर सुनाओ ढेर सारी कथायें,

इसी तरह अपनी ईमानदारी बतायें,

प्यासे पर पानी की बरसात का करें वादा,

लूट लें तारीफ मुफ्त

न हो भले एक बूंद देने का इरादा,

भगवान भरोसे चला है देश हमेशा

पत्थरों पर पोता गया सौंदर्य प्रसाधन

सितारों जैसी बनी गयी उनकी शान है।

—————-

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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मुफ्त के मजे अलग ही होते हैं-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन लेख


हमारे देश में गरीब तो छोड़िये अमीर आदमी भी मुफ्त वस्तु की चाहत छोड़ नहीं चाहता।  अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूटने वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है।  कहीं भजन हो रहा है तो श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर अंगर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जायेगी। हालांकि कहा जाता है कि हम तो प्रसाद खाने जा रहे हैं। 

            हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिये लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुऐं मुफ्त देने की घोषणा करता है।  सच बात तो यह है कि लोकतंत्र में मतदाता का मत बहुत कीमती होता है पर लोग उसे भी सस्ता समझते हैं। यहां तक मतदान केंद्र तक जाने के कष्ट को कुछ लोग मुफ्त की क्रिया समझते है। वैसे हमारे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से अंाकलन न करें।

            पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधायें मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है।  जब प्रचार माध्यमों में आम इंसान की भलाई की कोई बात करता है तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर जाता है जहां खास लोग कोई समस्या पैदा नहीं करते वरन् आम इंसान के संकट का कारण आम इंसान ही निर्माण करता है।

            कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने  अथवा कहीं किसी सुविधा के लिये आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?

            जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौनसे आम इंसान की भलाई के नारे हमारे देश में बरसों से लगाये जा रहे हैं। यह नज़ारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने पीने के लिये गये प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोड़कर चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदाीर मुफ्त में निभाने से बचते हैं।  उन्हें लगता है कि यह उद्यान तथा पर्यटन स्थान उनके लिये हर तरह से मुफ्त हैं और वहां कचर्ड़ा  स्वचालित होकर हवा में उड़ जायेगा या फिर जो यहां से कमाता है वही इसकी जिम्मेदारी लेगा।

             हमारे एक मित्र को प्रातः उद्यान घूमने की आदत है।  वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवती उद्यान का पता लगाते हैं।  जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाये तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी देखो।  उनमें कितने  मु्फ्तखोर और मक्कार है यह भी देखना पड़ेगा। मैं अनेक शहरों के उद्यानों में जा चुका हूं वहां जब आये आम इंसानों के हाथ से  फैलाया कचड़ा देखता हूं तब गुस्सा बहुत आता है।

            वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं। सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। उस समय खास इंसानों को कोसने की बजाय मैं सोचता हूं कि आम इंसाना भी अवसर पाते ही पूरा लाभ उठाता है। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पान खाने पीने का सामान मिलावटी मिलने लगता है।  इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुफ्त लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वतः ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कडों देखने पर  यही कहेगा कि यहां भगवान को इतना लोग  मानते हैं उसकी दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं तब उनके विश्वास को कैसे प्रेरक माना जाये।  वह इतनी सारी निराशाजनक घटनायें बताते हैं कि लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाये।

            ऐसा नहीं है कि हम इस तरह के अनुभव नहीं कर पाये हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर इंटरनेट पर लिखने का वादा क्यों न पूरा किया जाये। हम जैसे लेखक इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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मुफ्त के माल से आशिकी-हिन्दी व्यंग्य लेख


            हमारे देश में गरीब तो छोड़िये अमीर आदमी भी मुफ्त वस्तु की चाहत छोड़ नहीं चाहता।  अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूटने वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है।  कहीं भजन हो रहा है तो श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर अंगर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जायेगी। हालांकि कहा जाता है कि हम तो प्रसाद खाने जा रहे हैं। 

            हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिये लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुऐं मुफ्त देने की घोषणा करता है।  सच बात तो यह है कि लोकतंत्र में मतदाता का मत बहुत कीमती होता है पर लोग उसे भी सस्ता समझते हैं। यहां तक मतदान केंद्र तक जाने के कष्ट को कुछ लोग मुफ्त की क्रिया समझते है। वैसे हमारे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से अंाकलन न करें।

            पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधायें मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है।  जब प्रचार माध्यमों में आम इंसान की भलाई की कोई बात करता है तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर जाता है जहां खास लोग कोई समस्या पैदा नहीं करते वरन् आम इंसान के संकट का कारण आम इंसान ही निर्माण करता है।

            कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने  अथवा कहीं किसी सुविधा के लिये आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?

            जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौनसे आम इंसान की भलाई के नारे हमारे देश में बरसों से लगाये जा रहे हैं। यह नज़ारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने पीने के लिये गये प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोड़कर चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदाीर मुफ्त में निभाने से बचते हैं।  उन्हें लगता है कि यह उद्यान तथा पर्यटन स्थान उनके लिये हर तरह से मुफ्त हैं और वहां कचर्ड़ा  स्वचालित होकर हवा में उड़ जायेगा या फिर जो यहां से कमाता है वही इसकी जिम्मेदारी लेगा।

             हमारे एक मित्र को प्रातः उद्यान घूमने की आदत है।  वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवती उद्यान का पता लगाते हैं।  जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाये तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी देखो।  उनमें कितने  मु्फ्तखोर और मक्कार है यह भी देखना पड़ेगा। मैं अनेक शहरों के उद्यानों में जा चुका हूं वहां जब आये आम इंसानों के हाथ से  फैलाया कचड़ा देखता हूं तब गुस्सा बहुत आता है।

            वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं। सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। उस समय खास इंसानों को कोसने की बजाय मैं सोचता हूं कि आम इंसाना भी अवसर पाते ही पूरा लाभ उठाता है। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पान खाने पीने का सामान मिलावटी मिलने लगता है।  इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुफ्त लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वतः ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कडों देखने पर  यही कहेगा कि यहां भगवान को इतना लोग  मानते हैं उसकी दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं तब उनके विश्वास को कैसे प्रेरक माना जाये।  वह इतनी सारी निराशाजनक घटनायें बताते हैं कि लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाये।

            ऐसा नहीं है कि हम इस तरह के अनुभव नहीं कर पाये हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर इंटरनेट पर लिखने का वादा क्यों न पूरा किया जाये। हम जैसे लेखक इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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ऊंचे सौदों के सपने बेचना आसान है-हिन्दी व्यंग्य कविता


ऊंचे सपने बेचना आसान है,

बाज़ार में खरीददारों की भीड़ लग जाती

बदहाल हर आम इंसान है।

कहें दीपक बापू

जितनी महंगाई बढ़ेगी

सस्ते सामान दिलाने के भाषण पर

भीड़ जुट जायेगी,

मिले न अन्न का दाना

शब्दों पर ही वाह वाह गायेगी,

बेईमानी पर सुनाओ ढेर सारी कथायें,

इसी तरह अपनी ईमानदारी बतायें,

प्यासे पर पानी की बरसात का करें वादा,

लूट लें तारीफ मुफ्त

न हो भले एक बूंद देने का इरादा,

भगवान भरोसे चला है देश हमेशा

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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इज्जत पर तीन क्षणिकायें


इज्जत के मायने अब बदल गये हैं,

अनमोल कहने के दिन ढल गये हैं।

कहें दीपक बापू ऊंचे दाम नहीं लगाये

ऐसे कई लोगों के हाथ जल गये हैं।

————-

खुला बाज़ार है इज्जत भी मिल जाती है,

महंगी बिकने की बात सभी को भाती है,

कहें दीपक बापू सस्ती खरीदने के फेर में

किसी की इज्जत मिट्टी में भी मिल जाती है।

——-

इज्जत न करो तो किसी पर गाली भी न बरसाओ,

अपनी अदाओं पर रखो नजर फिर न पछताओ,

कहें दीपक बापू सभी की इज्जत अनमोल है

सभी को  सलाम कर अपने को बचाओ।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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बाज़ार के सौदागर-हिंदी कविता (bazar ke saudagar-hindi kavita)


खूबसूरत चेहरे निहार कर

आंखें चमकने लगें

पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,

संगीत की उठती लहरों के अहसास से

कान लहराने लगें

मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।

जज़्बातों के सौदागर

दिल खुश करने के दावे करते रहें

उसकी धड़कन समझें यह जरूरी नहीं है।

कहें दीपक बापू

कर देते हैं सौदागर

रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी

आंखें चुंधिया जाती है,

दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,

संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते

शोर से कान फटने लगें,

इंसानी दिमाग में

खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,

अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये

दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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