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पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों पर दंड का मामला-आलेख (punishment to pakistani cricket player-hindi article)


पैसे का खेल हो या पैसे से खेल हो, दोनों स्थितियों उसके उतार चढ़ाव को समझना कठिन हो जाता है क्योंकि कहीं न कहीं बाजार प्रबंधन उसे प्रभावित अवश्य करता है। हम यहां बात क्रिकेट की कह रहे हैं जो अब खेल बल्कि एक सीधे प्रसारित फिल्म की तरह हो गया है जिसमें खिलाड़ी के अभिनय को खेलना भी कहा जा सकता है। इस चर्चा का संदर्भ यह है कि पाकिस्तान के सात खिलाड़ियों को दंडित कर दिया गया है।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है। भारत में आयोजित एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में-जिसमें विभिन्न देशों के खिलाड़ियों को नीलामी में खरीदकर अंतर्राष्ट्रीय होने का भ्रम पैदा किया जाता है-पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया। उस समय पाकिस्तान के प्रचार माध्यमों से अधिक भारतीय प्रचार माध्यमों में अधिक गम जताया गया। अनेक लोगों ने तो यहां तक कहा कि दोनों देशों के बीच मित्रता स्थापित करने वालों के प्रयासों को इससे धक्का लगेगा-जहां धन की महिमा है जिसकी वजह से बुद्धिजीवियों  लोगों की राजनीतिक सोच भी कुंद हो जाती है।
भारतीय फिल्मों एक अभिनेता ने-उसके भी भारतीय फिल्म उद्योग में नंबर होने का भ्रम अक्सर पैदा किया जाता है-तो यहां तक सवाल पूछा था कि आखिर बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीतने वाले पाकिस्तान के किसी खिलाड़ी को इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये क्यों नहीं खरीदा गया?
दिलचस्प बात यह कि यह अभिनेता स्वयं एक ऐसे ही क्लब स्तरीय टीम का स्वामी है जो इस प्रतियोगिता में भाग लेती है। उसका प्रश्न पूछना एकदम हास्यास्पद तो था ही इस बात को भी प्रमाणित करता है कि धन से खेले जाने वाले इस खेल में वह एक टीम का नाम का ही स्वामी है और उसकी डोर तो बाजार के अदृश्य प्रबंधकों के हाथ में है। बहरहाल अब तो सवाल उन लोगों से भी किया जा सकता है जो बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता विजेता का हवाला देकर पाकिस्तान के खिलाड़ियों को न बुलाने की आलोचना कर रहे थे या निराशा में सिर पटक रहे थे। कोई देश के समाजसेवकों पर तो कोई पूंजीपतियों पर बरस रहा था।
पाकिस्तान ने एक ही झटके में सात खिलाड़ियों को दंडित किया है। इनमें दो पर तो हमेशा के लिये ही अतंराष्ट्रीय प्रदर्शन पर रोक लगा दी है। आधिकारिक रूप से टीम के आस्ट्रेलिया में कथित खराब प्रदर्शन को जिम्मेदार बताया गया है। कुछ अखबारों ने तो यहां तक लिखा है कि इन पर मैच फिक्सिंग का भी आरोप है-इस पर संदेह इसलिये भी होता है क्योंकि आजीवन प्रतिबंध लगाने के पीछे कोई बड़ा कारण होता है। यदि खराब प्रदर्शन ही जिम्मेदार था तो टीम से सभी को हटाया जा सकता है दंड की क्या जरूरत है? दुनियां में हजारों खिलाड़ी खेलते हैं और टीमें किसी को रखती हैं तो किसी को हटाती हैं। दंड की बात तो वहां आती है जहां खेल में अपराध का अहसास हो।
जिस टीम और खिलाड़ियों ने पाकिस्तान को विश्व विजेता बनाया उनको एक दौरे में खराब प्रदर्शन पर इतनी बड़ी सजा मिली तब खराबा प्रदर्शन की बात पर पर कौन यकीन कर सकता है?
फिर पाकिस्तान की विश्व विजेता छबि के कारण उसके खिलाड़ियों को भारत में क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में शामिल न करने की आलोचना करने वाले अब क्या कहेंगे? उस समय उन्होंने जो हमदर्दी दिखाई गयी थी क्या अब वह जारी रख सकते हैं यह कहकर कि उनको टीम से क्यों निकाला गया? फिर भारतीय धनपतियों पर संदेह करने का कारण क्या था क्योंकि उस समय पाकिस्तान की टीम आस्ट्रयेलिया में दौरे पर थी और उसका प्रदर्शन अत्यंत खराब और विवादास्पद चल रहा था तब भला उसके खिलाड़ियों को कैसे वह बुलाते? क्योंकि उनका खेल खराब चल ही रहा था साथ ही वह तमाम तरह के विवाद भी खड़े कर रहे थे तब भला कोई भारतीय धनपति कैसे जोखिम उठाता?
वैसे अगर कोई बुद्धिमान पाकिस्तान पर बरसे तो उसका विरोध नहीं करना चाहिये। कम से कम इस खेल में हमारा मानना है कि दोनों देशों की मित्रता असंदिग्ध (!) है। अगर कुछ पीड़ित पाकिस्तान खिलाड़ियों के समर्थन में कोई प्रचार अभियान छेड़े तो भी मान्य है। मामला खेल का है जिसमें पैसा भी शामिल है और मनोरंजन भी! हैरान की बात तो यह है कि जिन खिलाड़ियों के भारत न आने पर यहीं के कुछ बुद्धिजीवी, नेता तथा समाजसेवक विलाप कर रहे थे-कुछ शरमा भी रहे थे-उनको टीम से हटाने में पाकिस्तान क्रिकेट अधिकारियों को जरा भी शर्म नहीं आयी। कितनी विचित्र बात है कि क्रिकेट के मामले में भी उन्होंने भारत के कुछ कथित बुद्धिजीवियों से अपनी दोस्ती नहीं निभाई जिसका आसरा अक्सर किया जाता है।
एक मजे की बात यह है कि पाकिस्तान के आस्ट्रेलिया दौरे पर खराब प्रदर्शन की जांच करने वाली वहां की एक संसदीय समिति की सिफारिश पर ऐसा किया गया है। जाहिर तौर उसमें वहां के राजनीतिज्ञ होंगे। ऐसे में वहां के भी उन राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रिया भी देखने लायक होगी जो अपने कथित विश्व विजेताओं-अजी काहे के विश्व विजेता, दुनियां में आठ देश भी इस खेल को नहीं ख्ेालते-को भारत में बुलाने पर गर्म गर्म बयान दे रहे थे। अब उनको भी क्या शर्म आयेगी?
हमारा मानना है कि क्रिकेट कितना भी लोकप्रिय हो पर उसमें पैसे का भी  खेल  बहुत है। जहां पैसा है वहां प्रत्यक्ष ताकतें अप्रत्यक्ष रूप से तो अप्रत्यक्ष ताकतें प्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव दिखाती हैं और यही इन खिलाड़ियों के दंड की वजह बना। वजह जो बतायी जा रही है उस पर यकीन करना ही पड़ेगा क्योंकि हम जैसे आम लोगों के लिये पर्दे के पीछे झांकना तो दूर वहां तक पहुंचना भी कठिन है। जो खास लोग पर्दे के पीछे झांकने की ताकत रखते हैं वह सच छिपाने में भी माहिर होते हैं इसलिये वह कभी सामने नहीं आयेगा! टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपी खबरों के आधार पर तो अनुमान ही लगाये जा सकते हैं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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जज़्बात एक शय है-.हिन्दी शायरी


इंसान के जज्ब़ात शर्त से
और समाज के सट्टे के भाव से
समझे जाते हैं।
नये जमाने में
जज़्बात एक शय है
जो खेल में होता बाल
व्यापार में तौल का माल
नासमझी बन गयी है
जज़्बात का सबूत
जो नहीं फंसते जाल में
वह समझदार शैतान समझे जाते हैं
……………………….
एक दोस्त ने फोन पर
दूसरे दोस्त से
‘क्या स्कोर चल रहा है
दूसरा बिना समझे तत्काल बोला
‘यार, ऐसा लगता है
मेरी जेब से आज फिर
दस हजार रुपया निकल रहा है।’
……………………………..
छायागृह में चलचित्र के
एक दृश्य में
नायक घायल हो गया तो
एक महिला दर्शक रोने लगी।
तब पास में बैठी दूसरी महिला बोली
‘अरे, घर पर रोना होता है
इसलिये मनोरंजन के लिये यहां हम आते हैं
पता नहीं तुम जैसे लोग
घर का रोना यहां क्यों लाते हैं
अब बताओ
क्या सास ने मारकर घर से निकाला है
या बहु से लड़कर तुम स्वयं भगी
जो हमारे मनोरंजन में खलल डालने के लिये
इस तरह जोर जोर से रोने लगी।’
……………………………….
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महान बुझे चिराग-व्यंग्य चिंतन (mahan bujhe chira-hindi vyangya chitan)


महान होने का मतलब क्या होता है? कम से कम हम इसका आशय तो उसी व्यक्ति से लेते हैं जिसने अपनी मेहनत, लगन तथा चिंतन के आधार पर कोई ऐसी उपलब्धि हासिल की हो जिससे समाज का भला हुआ हो या उसे फिर गौरवान्वित किया हो। अगर किसी ने नित्य प्रतिदिन अपना स्वाभावाविक कर्तव्य पूरा करते हुए केवल अपने लिये ही उपलब्धि प्राप्त की हो तो उसे महान कतई नहीं माना जा सकता। समाज हमेशा ही अपनी रक्षा, विकास तथा निर्देशन के लिये महान आत्माओं का धारण करने वाली देहों को देखकर अपना मन प्रसन्न करना चाहता है।
यही से शुरु होता है वह खेल जिसे बाजार अपने ढंग से खेलता है। अपने देश में महान लोगों की इज्जत होती है पर महान होना कोई आसान काम नहीं है। महान बनते बनते लोगों ने अपने घर और व्यवसाय तक त्याग डाले। उनकी तपस्या ने समाज को जो दिया वह एक अक्षुण्ण संपदा बन गया। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता। कहते हैं न कि हजारों साल धरती जब तरसती है तब कहीं जाकर उसकी झोली में एक दो दिलदार आकर गिरता है।
मगर बाजार क्या करे? उसे तो रोज कोई न कोई महान आदमी चाहिए। देवता नहीं तो राक्षस, दानी न मिले तो अपराधी और समाज को लिये कुछ न करने वाला न मिले तो अपने लिये करने वाला भी चलेगा। बाजार की ताकत इतनी अधिक है कि अगर कोई स्वयं वाकई महान काम कर चुका हो तो भी उसके मुंह से दूसरे का नाम महान के रूप में रखवा ले।
किसी अपराधी को खूंखार कहना भी उसकी एक तरह से प्रशंसा करना है। जब विदेश में बैठे अपराधी भारतीय प्रचार माध्यमों में अपने साथ ‘खूंखार’ की उपाधि लगते हुए देखतेे होंगे तो खुश होते होंगे। अपराधी तो अपराधी होता है-छोटा क्या बड़ा क्या, खूंखार क्या रहम दिल क्या?
अगर यहां चलते फिरते किसी दादा से कहो कि तुम अपराधी हो तो वह लड़ने दौड़ेगा। अगर आप उससे कहो कि तुम खूंखार अपराधी हो तो वह हंसकर कहेगा-‘तो मुझसे डरते क्यों नहीं।’
टीवी चैनलों पर रोज हर क्षेत्र में महानतम नाम आते हैं। बाजार अपने लिये ही कई ऐसी प्रतियोगितायें कराता है जिसमें विजेता के नाम पर उसे महानतम लोग मिल जाते हैं। विश्व सुंदरी और अन्य खेल प्रतियोगिताओं में उसे ऐसी महानतम हस्तियां हर वर्ष मिल जाती हैं। उनके देश को क्या मिला? इससे बाजार मतलब नहीं रखता। प्रचार तंत्र भी इसी बाजार का अभिन्न हिस्सा है। यही प्रचारतंत्र उससे विज्ञापन पाता है तो उसके सौदागरों को भी महान धनी, दानी, और होशियार बताकर प्रशंसा प्रदान करता है। ऐसे में यह कहना कठिन होता है कि प्रचार तंत्र बाजार को चला रहा है या बाजार उसको। कल्पित नायकों की फौज महानतम बन गयी है। फिल्मों के नायक और खेलों के खिलाड़ियों में अब अधिक अंतर नहीं दिखाई देता। फिल्मी हस्तियां क्रिकेट मैच करवा रही हैं तो क्रिकेट खिलाड़ी कही रैम्प पर नाचते हैं तो कहीं टीवी चैनलों पर हास्य प्रतियोगिताओं के निर्णायक बन रहे हैं। सब महानतम हैं। भारत में कोई पैदा हुआ पर काम करता है अमेरिका में। उसे नोबल पुरस्कार मिला तो बस प्रचारतंत्र लग जाता है उसे महानतम बताने में। जैसे कि उसे इस देश ने ही बनाया।
कई बार तो समझ में नहीं आता कि आखिर यह महान हो कैसे गये। अरे, भई अपने लिये तो सभी उपलब्धियां जुटाते हैं। कोई अधिक तो कोई कम! अभी उस दिन एक क्रिकेट खिलाड़ी के बीस बरस पूरा होने पर सारा प्रचारतंत्र फिदा था। अब भी उसे भुना रहा है। इधर हमें याद आ रहा है कि भारत ने एक दिवसीय क्रिकेट प्रतियोगिता में विश्व कप 1983 में जीता था जिससे 26 बरस हो गये। फिर भारत ने बीस ओवरीय प्रतियोगिता में विश्व कप जीता तो उसका वह सदस्य नहीं था। उसने एक बार भी भारत को विश्व कप नहीं जितवाया मगर उसे बाजार महान बना रहा है। उसके नाम पर एक भी बड़ी प्रतियोगिता नहीं है मगर वह महानतम है क्योंकि वह बड़े शहर में रहता है जहां फिल्मों में कल्पित नाायक का अभिनय करने वाले बड़े बड़े अभिनेता रहते हैं। यह बड़ा शहर मुंबई भारत की देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है-यह विवादास्पद है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बागडोर आज भी किसानों की पैदावर के हाथ में मानी जाती है, अगर बरसात समय पर न हो या अकाल पड़े तो उसके बाद इस देश की क्या हालत होगी यह समझी जा सकती है। कभी कभी तो लगता है कि देश का पैसा वहां जा रहा है न कि वहां से देश के अन्य भागों में आ रहा है। यह सही है कि नये अर्थतंत्र के आधार मुंबई में है और वही इस प्रचार तंत्र का आधार हैं। यही कारण है कि भारतीय बाजार और प्रचारतंत्र के मसीहा वहीं बसते हैं। इधर उस खिलाड़ी को महानतम बताने के लिये कोई ठोस वजह नहीं मिल रही थी तो उससे अपने भारतीय होने के गौरव का बयान दिलवाया फिर उसका विरोधी एक वयोवृद्ध शख्सियत से करवा लिया जिससे उसे खिलाड़ी से कहा कि‘ तुम तो अपनी पिच संभालो।’
बस प्रचारतंत्र में बवाल मच गया। मचना ही था क्योंकि यही तो बाजार चाहता था। अब उसे खिलाड़ी की राष्ट्रभक्ति के गुणगान किये जाने लगे। अगले ही दिन उस वयोवृद्ध शख्सियत का बयान आया कि उसने तो यह केवल प्रचारतंत्र में अपने ही एक प्रतिद्वंद्वी पर बढ़त बनाने के लिये दिया था। क्या गजब की योजनाएं बनती हैं कि देखकर दिल दिमाग दंग रह जाते हैं। एक भी विश्व कप उसके नाम पर नहीं है तो आखिर उस खिलाड़ी की महानता को आगे बाजार कैसे चलाता? सो उस पर देशभक्त का लेबल लगाकर उसके नायकत्व को आगे जारी रखने का यह प्रयास अद्भुत है! फिल्म अभिनेता महान, सुंदरियां महान, खिलाड़ी महान और धर्म का सौदा करने वाले संत महान! समाज जस का तस! अपने अंधेरों से जूझता हुआ इस इंतजार में कि ‘कब कोई उसको रौशनी देगा।
टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं अध्यात्मिक चर्चाएं और सड़कों पर सभायें होती हैं। नैतिकता और आदर्श का ऐसा प्रचार कि देखकर लगता है कि हम स्वर्ग में रह रहे हैं। जब सत्य से वास्ता पड़ता है तो लगता है कि यह कोई नरक हैं जहां गलती से आ गये। पिछले चार सौ सालों की एतिहासिक गाथाओं में अनेक महानतम लोगों की चर्चा आती है पर देश का क्या? जब रहीम, तुलसी, कबीर और गुरुनानक जी की वाणी को पढ़ते हैं तो लगता है कि समाज उस समय भी ऐसा ही था। इतना ही अंधेरा था। उनकी वाणी आज भी रौशनी की तरह जलती है पर लोगों को शायद अंधेरा ही पंसद है या उनको पता ही नहीं कि रौशनी होती क्या है?
किसे दोष दें। कल्पित नायकों की गाथा सुनाते हुए प्रचार तंत्र को या उसे सुनकर भावुक होते हुए आम लोगों को। बाजार तो वही बेचेगा जो लोगों को पंसद आयेगा। लोगों को क्या अंधेरा ही पसंद है। पता नहीं! मगर सभी अंधे नहीं है। कुछ लोगों में चिंतन है जो इस बात को समझते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो संतों और महापुरुषों की वाणी की रौशनी इस तरह आगे चलती हुई नहीं जाती। बाजार के महानतम उसके सामने बुझे चिराग जैसे दिखते हैं।

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ब्लाग लोकतंत्र का पांचवां नहीं चौथा स्तंभ ही है-आलेख (blog is forth pillar-hindi article)


भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या सात करोड़ से ऊपर है-इसका सही अनुमान कोई नहीं दे रहा। कई लोग इसे साढ़े बारह करोड़ बताते हैं। इन प्रयोक्ताओं को यह अनुमान नहीं है कि उनके पास एक बहुत बड़ा अस्त्र है जो उनके पास अपने अनुसार समाज बनाने और चलाने की शक्ति प्रदान करता है-बशर्ते उसके उपयोग में संयम, सतर्कता और चतुरता बरती जाये, अन्यथा ऐसे लोगों को इस पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जायेगा जो समाज को गुलाम की तरह चलाने के आदी हैं।

यह इंटरनेट न केवल दृश्य, पठन सामग्री तथा समाचार प्राप्त करने के लिये है बल्कि हमें अपने फोटो, लेखन सामग्री तथा समाचार संप्रेक्षण की सुविधा भी प्रदान करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम केवल प्रयोक्ता नहीं निर्माता और रचयिता भी बन सकते हैं। अनेक वेबसाईट-जिनमें ब्लागस्पाट तथा वर्डप्रेस मुख्य रूप से शामिल हैं- ब्लाग की सुविधा प्रदान करती हैं। अधिकतर सामान्य प्रयोक्ता सोचते होंगे कि हम न तो लेखक हैं न ही फोटोग्राफर फिर इन ब्लाग की सुविधा का लाभ कैसे उठायें? यह सही है कि अधिकतर साहित्य बुद्धिजीवी लेखकों द्वारा लिखा जाता है पर यह पुराने जमाने की बात है। फिर याद करिये जब हमारे बुजुर्ग इतना पढ़े लिखे नहीं थे तब भी आपस में चिट्ठी के द्वारा पत्राचार करते थे। आप भी अपनी बात इन ब्लाग पर बिना किसी संबंोधन के एक चिट्ठी के रूप में लिखने का प्रयास करिये। अपने संदेश और विचारों को काव्यात्मक रूप देने का प्रयास हर हिंदी नौजवान करता है। इधर उधर शायरी या कवितायें लिखवाकर अपनी मित्र मंडली में प्रभाव जमाने के लिये अनेक युवक युवतियां प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं कई बार अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये तमाम तरह के किस्से भी गढ़ते हैं। यह प्रयास अगर वह ब्लाग पर करें तो यह केवल उनकी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक रूप ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि समाज को ऐसी ताकत प्रदान करेगा जिसकी कल्पना वह नहीं कर सकते।

आप फिल्म, क्रिकेट,साहित्य,समाज,उद्योग व्यापार, पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनल तथा उन अन्य क्षेत्रों को देखियें जिससे बड़े वर्ग द्वारा छोटे वर्ग पर प्रभाव डाला जा सकता है वहां पर कुछ निश्चित परिवारों या गुटों का नियंत्रण है। यहां प्रभावी लोग जानते हैं कि यह सभी प्रचार साधन उनके पास ऐसी शक्ति है जिससे वह आम लोगों को अपने हितों के अनुसार संदेश देख और सुनाकर उनको अपने अनुकूल बनाये रख सकते हैं। क्रिकेट में आप देखें तो अनेक वर्षों तक एक खिलाड़ी इसलिये खेलता  है क्योंकि उसे पीछे खड़े आर्थिक शिखर पुरुष उसका व्यवसायिक उपयोग करना चाहते हैं। फिल्म में आप देखें तो अब घोर परिवारवाद आ गया है। सामान्य युवकों के लिये केवल एक्स्ट्रा में काम करने की जगह है नायक के रूप में नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार के शिखरों पर जड़ता है। आप पत्र पत्रिकाओं में अगर लेख पढ़ें तो पायेंगे कि उसमें या तो अंग्रेजी के पुराने लेखक लिख रहे हैं या जिनको किसी अन्य कारण से प्रतिष्ठा मिली है इसलिये उनके लेखन को प्रकाशित किया जा रहा है। पिछले पचास वर्षों में कोई बड़ा आम लेखक नहीं आ पाया। यह केवल इसलिये कि समाज में भी जड़ता है। याद रखिये जब राजशाही थी तब यह कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’, पर लोकतंत्र में ठीक इसका उल्टा है। इसलिये इस जड़ता के लिये सभी आम लोग जिम्मेदार हैं पर वह शिखर पर बैठे लोगों को दोष देकर अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं कि ‘क्या किया जा सकता है।’

इस इंटरनेट पर जरा गौर करें। अक्सर आप लोग देखते होंगे कि समाचार पत्र पत्रिकाओं में में उसकी चर्चा होती है। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि इनमें से कई ऐसे आलेख होते हैं जिनको इंटरनेट पर ब्लाग से लिया जाता है-जब किसी का नाम न दिखें तो समझ लें कि वह कहीं न कहीं इंटरनेट से लिया गया है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि अधिकतर इंटरनेट प्रयोक्ता केवल फोटो देखने या अपने पढ़ने के लिये बेकार की सामग्री पढ़ने में व्यस्त हैं। उनकी तरफ से हिंदी भाषी लेखकों के लिये प्रोत्साहन जैसा कोई भाव नहीं है। ऐसा कर आप न अपना समय जाया कर रहे हैं बल्कि अपने समाज को जड़ता से चेतन की ओर ले जाने का अवसर भी गंवा रहे हैं। वह वर्ग जो समाज को गुलाम बनाये रखना चाहता है कि फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियों के फोटो देखकर आप अपना समय नष्ट करें क्योंकि वह तो उनके द्वारा ही तय किये मुखौटे हैं। आपके सामने टीवी और समाचार पत्रों में भी वही आ रहा है जो उस वर्ग की चाहत है। ऐसे में आपकी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं था तो झेल लिये। अब इंटरनेट पर ब्लाग और ट्विटर के जरिये आप अपना संदेश कहीं भी दे सकते हैं। इस पर अपनी सक्रियता बढ़ाईये। जहां तक इस लेखक का अनुभव है कि एक एस. एम. एस लिखने से कम मेहनत यहां पचास अक्षरों का एक पाठ लिखने में होती है। जहां तक हो सके हिंदी में लिखे गये ब्लाग और वेबसाईट को ढूंढिये। स्वयं भी ब्लाग बनाईये। भले ही उसमें पचास शब्द हों। लिखें भले ही एक माह में एक बार। अगर आप समाज के सामान्य आदमी है तो बर्हिमुखी होकर अपनी अभिव्यक्ति दीजिये। वरना तो समाज का खास वर्ग आपके सामने मनोरंजन के नाम पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर आपको अंतर्मुखी बना रहा है ताकि आप अपनी जेब ढीली करते रहें। आप किसी से एस. एम. एस. पर बात करने की बजाय अपने ब्लाग पर बात करें वह भी हिंदी में। ऐसे टूल उपलब्ध हैं कि आप रोमन में लिखें तो हिंदी हो जाये और हिंदी में लिखें तो यूनिकोड में परिवर्तित होकर प्रस्तुत किये जा सकें।
याद रखें इस पर अपनी अभिव्यक्ति वैसी उग्र या गालीगलौच वाली न बनायें जैसी आपसी बातचीत में करते हैं। ऐसा करने का मतलब होगा कि उस खास वर्ग को इस आड़ में अपने पर नियंत्रण करने का अवसर देना जो स्वयं चाहे कितनी भी बदतमीजी कर ले पर समाज को तमीज सिखाने के लिये हमेशा नियंत्रण की बात करते हुए धमकाता है।
प्रसंगवश यहां यह भी बता दें कि यह ब्लाग भी पत्रकारिता के साथ ही चौथा स्तंभ है पांचवां नहीं जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं। सीधी सी बात है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और पत्रकारिता चार स्तंभ हैं। इनमें सभी में फूल लगे हैं। विधायिका में अगर हम देखें तो संसद, विधानसभा, नगर परिषदें और ग्राम पंचायतें आती हैं। कार्यपालिका में मंत्री, संतरी,अधिकारी और लिपिक आते हैं। न्याय पालिका के विस्तारित रूप को देखें तो उसमें भी माननीय न्यायाधीश, अधिवक्ता, वादी और प्रतिवादी होते हैं। उसी तरह पत्रकारिता में भी समाचार पत्र, पत्रिकायें, टीवी चैनल और ब्लाग- जिसको हम जन अंतर्जाल पत्रिका भी कह सकते हैं- आते हैं। इसे लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ केवल अभिव्यक्ति के इस जन संसाधन का महत्व कम करने के लिये प्रचारित किया जा रहा है ताकि इस पर लिखने वाले अपने महत्व का दावा न करे।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के ब्लाग जगत में आपकी सक्रियता ही इंटरनेट या अंतर्जाल पर आपको प्रयोक्ता के साथ रचयिता बनायेगी। जब ब्लाग आम जन के जीवन का हिस्सा हो जायेगा तक अब सभी क्षेत्रों में बैठे शिखर पुरुषों का हलचल देखिये। अभी तक वह इसी भरोसे हैं कि आम आदमी की अभिव्यक्ति का निर्धारण करने वाला प्रचारतंत्र उनके नियंत्रण में इसलिये चाहे जैसे अपने पक्ष में मोड़ लेंगे। हालांकि अभी हिंदी ब्लाग जगत अधिक अच्छी हालत में नहीं है- इसका कारण भी समाज की उपेक्षा ही है-तब भी अनेक लोग इस पर आंखें लगाये बैठे हैं कि कहीं यह माध्यम शक्तिशाली तो नहीं हो रहा। इसलिये पांचवां स्तंभ या रचनाकर्म के लिये अनावश्यक बताकर इसकी उपेक्षा न केवल स्वयं कर रहे हैं बल्कि समाज में भी इसकी चर्चा इस तरह कर रहे हैं कि जैसे इसको बड़े लोग-जैसे अभिनेता और प्रतिष्ठत लेखक-ही बना सकते हैं। जबकि हकीकत यह है कि अनेक ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपने रोजगार से जुड़े काम से आने के बाद यहां इस आशा के साथ यहां लिखते हैं कि आज नहीं तो कल यह समाज में जनजन का हिस्सा बनेगा तब वह भी आम लोगों के साथ इस समाज को एक नयी दिशा में ले जाने का प्रयास करेंगे। इसलिये जिन इंटरनेट प्रयोक्ताओं की नजर में यह आलेख पड़े वह इस बात का प्रचार अपने लोगों से अवश्य करें। याद रखें यह लेख उस सामान्य लेखक है जो लेखन क्षेत्र में कभी उचित स्थान न मिल पाने के कारण यह लिखने आया है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कुंबले की दृढ़ता प्रशंसनीय


इस समय क्रिकेट जगत में जो खलबली मची है उसका कारण केवल एक ही लगता है वह यह कि कप्तान अनिल कुंबले का ही इसमें अधिक योगदान है। अगर यहाँ सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ होते तो सब कुछ आराम से हो जाता। टीम अभी भी आगे चली गयी होती। खेल भावना के नाम पर इन खिलाडियों ने अपना अपमान कई बार सहा है और तनाव में कई बार विकेट भी गंवाए हैं। अगर सौरभ होते वहीं कह सुनकर बात खत्म कर देते भले ही उनके खिलाड़ी मनोबल के साथ अपनी विकेट भी गँवा बैठते। कुल मिला कर सब कुछ खामोशी से होता।

नवजोत सिददू सही कहते हैं कि यह केवल हरभजन सिंह के अपमान का प्रश्न नहीं है क्योंकि आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी और प्रेस दोनों ही भारत का मजाक उडा रहे हैं। कुंबले कई बरसों से शांति से गेंदबाजी करते हैं और मैं उन्हें शेन वॉर्न और मुरलीधरन से अधिक अच्छा गेंदबाज मानता हूँ। वह न तो अपना समय अय्याशी में गुजारते हैं और न अधिक कोई नाटक करते हैं और आजकल मीडिया केवल उन्हीं लोगों का प्रचार करता है जो खेल से अधिक अन्य कार्यों में रूचि लेते हैं। बकनर ने एक बार नहीं कई बार भारतीय खिलाडियों के खिलाफ निर्णय दिए हैं और कई में मैच का रुख पलटा। अक्सर मैच फिक्सिंग को लेकर खिलाडियों पर संशय किया जाता है और कई खिलाड़ी अपनी सफाई भी देते हैं, पर अब यह संशय होता है कि कहीं दुनिया के कुछ अंपायर -जिनके गलत फैसले मानवीय गलती मान लिए जाते हैं-कहीं कुछ कारिस्तानी तो नहीं करते इस पर जांच होना चाहिए। एक नहीं ऐसे कई ऐसे मैच हैं जिनमें अंपायर के गलत फैसलों ने मैच का रुख पलटा है।
भारतीय टीम कभी भी कड़े फैसले नहीं ले पायी इसी कारण आज तक यह सब होता रहा है और क्रिकेट खेल अब यकीन करने लायक नहीं रहा है। अनिक कुंबले जो एक खामोश रहने वाले माने जाते है और ऐसे व्यक्ति बहुत खतरनाक होते हैं शायद आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी और मीडिया इसको समझ नहीं पाए। उन्होने सचिन और राहुल और जैसा कमजोर खिलाड़ी मान लिया और अब ऐसी स्थिति निमित हो गयी है जहाँ आईसीसीआई के लिए निकलना इतना आसान नहीं होगा क्योंकि अब ऐसी हालत में खुद बीसीसीआई भी उसकी मदद नहीं कर सकती क्योंकि यहाँ नर्म का पड़ने का मतलब है कि लोगों का क्रिकेट से विमुख होना जो शायद इसके व्यवासायिक ढाँचे के लिए बहुत हानिप्रद होगा।

कुंबले जो कि कहा जाता है कि अपने कैरियर के अन्तिम मुकाम पर खडे थे एकदम हीरो बन गए हैं। सचिन, राहुल, और सौरभ से कहीं आगे निकल गए हैं। इन लोगों ने कभी इस तरह ध्यान नहीं दिया कि किस तरह देश को क्रिकेट में अपमानित किया जाता रहा है और इसकी वजह से ही कई जगह यह मान लिया गया है कि भारतीयों में रीढ़ की हड्डी ही नहीं है। अगर अब बीसीसीआई अपनी दृढ़ता दिखती है तो इस का अन्य क्षेत्रों में भी सम्मान बढेगा। आप कहेंगे क्रिकेट से इसका कया संबंध? जनाब जो देखते हैं वह सब क्रिकेट नहीं खेलते बल्कि हर अपने-अपने व्यवसायों में भी रहते हैं और अगर उनकी सोच वहाँ हमारे देश के लिए नकारात्मक बनती है और हर आदमी अपने रोजमर्रा के काम में अपनी तयशुदा सोच के अनुसार ही कार्य करता है ।

आस्ट्रेलिया की तरफ से अंपायर भी खेल रहे हैं?


आस्ट्रेलिया में चल रही पांच दिवसीय क्रिकेट मैच में जिस तरह पहली पारी ढहने से अंपायर स्टीव बकनर ने जिस तरह कंगारुओं की जिस तरह बचाया उसे देखते हुए बहुत पहले पाकिस्तान की अंपायरिंग की याद आते है तब कहा जाता था की पाकिस्तान में तेरह खिलाडी खेलते हैं। जब से तीसरे देश के अंपायर रखने की परंपरा शुरू हुई है तब से उसके बारे में ऐसी चर्चा बंद हो गई पर अब किसी को विलेन तो रहना है वरना क्रिकेट में हीरो की कद्र कौन करेगा? किसी को विलेन बनाकर ही हीरो को लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर उनके जजबातों का फायदा उठाया जा सकता है।

क्रिकेट में आजकल स्टीव बकनर इस तरह का रोल निभाने के लिए तैयार हो रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के खिलाड़ी उनके पक्षपात का शिकार रहे हैं। बस एक अंतर है वह यह की पाकिस्तान के खिलाड़ी मुखर होकर आरोप लगाते है और भारतीय खिलाड़ी अपनी व्यावसायिक मजबूरियों के कारण चुप रह जाते हैं। जबकि जानते हैं कि यह खेल ही भारत की आर्थिक शक्ति के दम पर चल रहा है। स्टीव बकनर ने कल तो हद ही कर दी पता नहीं क्यों इतना खौफ था कि एंड्रू साइमंस को दो बार आऊट नहीं दिया। लगता है कि अब खिलाड़ी जो रोल नहीं निभा पा रहे या उसका जिम्मा अंपायरों पर डाला जाने वाला है, कोई खिलाडी जो आऊट होना चाहता है पर अंपायर दे नहीं रहा और कोई अच्छा खेल रहा है तो उसे गलत आउट दे दो।

कल के किस्से पर एक और किस्सा याद आया। कोलंबो में एक प्रतियोगिता में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों ही मैच हारना चाहते थे। अखबारों में उस समय प्रकाशित चर्चा के अनुसार उस मैच में दोनों की रूचि मैच जीतने पर मिलने वाली राशि से अधिक हारने पर दो नंबर में मिलने वाली राशि में अधिक थी-इस आरोप पर अखबारों पर में खूब चर्चा हुई थी। मैंने इसे पढा तो हंसी आयी। कल और आज जो स्टीव बकनर और सायमंड को देखकर उसी की याद आयी।

सायमंड ने तय कर लिया होगा कि-” यार इंडिया के खिलाफ बहुत बार अच्छा खेल लिया और खराब खेल कर सबको चौंका दो। फिर कभी भारत जाना है, कहीं ऐसा न हो कुंबले एंड कंपनी डर के मारे क्रिकेट खेलना छोड़ दें तो आगे कमाई कैसी होगी आखिर क्रिकेट चल तो भारत की वजह से रहा है। इस बार मौका दो ताकि आगे भी खेलते रहें।”

बकनर सोच रहा होगा-”ऐसे कैसे? आज मैं भी अपनी ताकत दिखा दूं। ऐसा तो नहीं यह कहीं अपना आऊट होना फिक्स कर आया हो। अगर कर आया होगा तो भारी कमीशन मिला होगा। कुछ कमीशन दे दो में इसे जाने देता हूँ।

ऐसा भी हो सकता है कि क्रिकेट के लिए कोई विलेन की जुगाड़ करना हो और उसके लिए बकनर तैयार हुए हों क्योंकि अगर उनके इस तरह के फैसले होते रहे तो लोग चिढ जायेंगे, और कहीं इसके बावजूद भारत की टीम जीती तो बस आ गया मजा। क्रिकेट को लोगों के बीच फिर एक लाइफ लाइन मिल जायेगी-जैसे ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में भारत के जीतने पर मिली। उसके बाद फिर भारत में क्रिकेट का खेल भारत में जनचर्चा का विषय बना था पर अब फिर लोग निराश हो गए हैं क्योंकि पुराने खिलाड़ी फिर उनके सामने आ गए हैं।

अब यह पता नहीं लग रहा है कि भारत के खिलाड़ी इस पर क्या करेंगे? कभी कहते हैं कि इसकी शिकायत करेंगे तो कभी कहते हैं नहीं करेगे? एक सवाल जो उठता है कि स्टीव बकनर का शिकार भारत के खिलाड़ी ही क्यों हो रहे हैं आस्ट्रेलिया के क्यों नहीं? इससे एक बात साफ जाहिर होती है कि वह समझता है कि विश्व की असली ताकत अभी गोरों के पास है और एशिया के देश कितने भी आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली हो जाएं पर नियंत्रण तो गोरों का ही चलेगा। इसलिए उनकी बजाते रहो ताकि काले लोगन को मौका मिलते रहें। उसके खिलाफ अधिक शिकायत करने वाले देश एशिया के हैं क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता। शायद भारत के खिलाड़ी भी कुछ कहने में डरते होंगे क्योंकि इंग्लेंड में अंपायर का विरोध करने पर अपने पडोसी देश पाकिस्तान के कप्तान इंजमाम उल हक़ का जो हश्र हुआ सबने देखा है। बहरहाल इतना तो कहा जा सकता है कि पहले पाकिस्तान के बारे में कहा जाता अब आस्ट्रेलिया के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि वह १३ खिलाडियों के साथ खेल रहा है।

क्रिकेट में कमा कौन नहीं रहा है?


भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्द के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री आई। एस। बिंद्रा ने कपिल देव पर आई। सी। एल। को पैसे के उद्देश्य से बनाने का आरोप लगाया। आजकल ऐक बात मजेदार बात यह है कि जिसे देखो वही पैसे कमाने में लगा हुआ है, पर बात नैतिकता की बात करता है। शायद यह हमारी मानसिकता है कि हम त्याग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं पर चाह्ते हैं कि दूसरे ऐसा करे ताकि हम उसकी पूजा करें-ताकि हम स्वयं माया ऐकत्रित करते रहें और समाज में अपना लौकिक सम्मान बनाये रखें। स्वयं तो लोग पैसा बनाते हैं पर कोई दूसरा करे तो सत्संग करने की सलाह देने लगते हैं.

मैं तो यह जानना चाहता हूं कि पैसे कौन नहीं चाह्ता है, यहां त्यागी कौन है।अगर कपिल देव ने अपनी संस्था पैसे कमाने के लिये बनाई है तो उसमें बुराई क्या है? और क्या कपिल देव ही केवल पैसा कमाएंगे? उनके साथ क्या जो लोग होंगे वह पैसे नहीं कमाएंगे? शायद बिंद्रा साह्ब को पता नहीं कि कई प्रतिभाशाली क्रिकेट खिलाडी धनाभाव के कारण आत्महत्या कर चुके हैं। वह कह रहे हैं कि कपिल देव देश में क्रिकेट के विकास का बहाना कर रहे हैं। वैसे देखा जाये तो देश में क्रिकेट ने जो ऊंचाई प्राप्त की है उसका पूरा श्रेय कपिल देव को ही जाता है। अगर १९८३ में अगर वह विश्व कप जीतने में अपना योगदान नहीं देते तो शायद इस देश में यह खेल लोकप्रिय भी नहीं होता। उसके बाद ही भारत में ऐकदिवसीय लोकप्रिय हुआ और उससे साथ ही जो खिलाडी उसमे ज्यादा सफ़ल बने उनहें हीरो का दर्जा मिला और साथ में मिले ढेर सारे विज्ञापन और पैसा और समाज में फ़िल्मी हीरो जैसा सम्मान। यही कारण है कि उसके बाद जो भी नवयुवक इस खेल की तरफ़ आकर्षित हुए वह इसलिये कि उनहें इसमें अपना चमकदार भविष्य दिखा। ऐक मजेदार बात यह है कि क्रिकेट का आकर्षण जैसे ही बढता गया वैसे ही फ़िल्मों में काम करने के लिये घर से भागने वाले लोगों की संख्या कम होती गयी क्योंकि क्रिकेट में भी उतना गलैमर आ गया जितना फ़िल्मों में था।ऐसा केवल इसमें खिलाडियों को मिलने वाले पैसे के कारण हुआ। अब यह पूरी तरह ऐक व्यवसाय बन चुका है।

अगर कोई कहता है कि हम क्रिकेट के साथ नियमित रूप से सत्संग के कारण ही जुडे हैं तो सरासर झूठ बोल रहा है-चाहे वह खिलाडी हो या किसी संस्था का पदाधिकारी। फ़र्क केवल इतना होता है कि कुछ लोग अपने कमाने के साथ इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि दूसरे को भी कमाने का अवसर दिया जाये और अपने व्यवसाय में नैतिक सिद्धांतों का भी पालन किया जाये और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उनका उद्देश्य केवल अपने लिये माया जुटाना होता है और किसी नैतिक नियम को मानने की बात तो वह सोचते भी नहीं। समाज में ऐसे ही लोगों के संख्या ज्यादा है।जिस तरह पिछ्ले कई वर्षौं से भारतीय क्रिकेट टीम का चयन हुआ है उससे नवयुवक खिलाडियों में यह बात घर कर गयी है कि उसमें उनको आसानी से जगह नहीं मिल सकती।

इंग्लैंड गयी टीम का खेल देखकर तो यह साफ़ लगता है कि कई खिलाडी उसमें अपनी जगह व्यवसायिक कारणौं से बनाये हुये है। मैं हमेशा कहता हूं कि अगर किसी क्रिकेट खिलाडी कि फ़िटनेस देखनी है तो उससे क्षेत्ररक्षण और विकेटों के बीच दौड में देखना चाहिये। जहां तक बोलिंग और बैटिंग का सवाल है तो आपने देखा होगा कि कई जगह बडी उमर के लोग भी शौक और दिखावे के लिये मैचों का आयोजन करते हैं और उसमें बोलिंग और बैटिंग आसानी से कर लेते हैं पर फ़ील्डिंग और रन लेते समय उनकी दौड पर लोग हंसते है। आप मेरी इस बात पर हंसेंगे पर मेरा कहना यह है कि हमारे इस विशाल देश में लाखों युवक क्रिकेट खेल रहे हैं और रणजी ट्राफ़ी तथा अन्य राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेल रहे हैं ऐसा संभव नहीं है कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं है पर उनको मौका नहीं दिया जा रहा है। इंग्लैंड गयी टीम क्षेत्ररक्षण और रन लेने में बहुत कमजोर सबित हुई है जो कि १९८३ के विश्व कप में भारत की जीत के सबसे मजबूत पक्ष थे।

देश में युवा बल्लेबाज और गेंदबाजों की कमी नहीं है और क्षेत्ररक्षण और रन लेने की शक्ति और हौंसला युवा खिलाडियों में ही संभव है। अगर साफ़ कहूं तो अच्छी गेंदबाजी और बल्लेबाजी तो कोयी भी युवा क्रिकेट खिलाडी कर लेगा पर तेजी से रन लेना और दूसरे के शाट मारने पर उस गेंद के पीछे दौडना हर किसी के बूते का नहीं है।भारत में प्रतिभाशाली खिलाडियों की कमी नही है पर क्रिकेट के व्यवसाय से जुडे लोग केवल यही चाह्ते हैं कि वह सब उनके घर आकर प्रतिभा दिखायें तभी उन पर कृपा दृष्टि दिखायें।

कपिल देव कमायेंगे इसमें कोयी शक नही है पर मेरी जो इच्छा है कि वह देश के युवाओं में ही नये हीरो ढूंढें। शायद वह यही करने वाले भी हैं। अगर वह इन्हीं पुराने खिलाडियों में अपने लिये नयी टीम का सपना देख रहे हैं तो शायद उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी-क्योंकि अत: यह क्रिकेट ऐक शो बिजिनेस बन चुका है उसमें अब नए चेहरे ही लोगों में अपनी छबि बना सकते हैं।। मेरा तो सीधा कहना है कि कपिल देव न केवल खुद कमायें बल्कि छोटे शहरों और आर्थिक दृष्टि से गरीब परिवारों के प्रतिभाशाली युवा खिलाडियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चमका दें तो वह स्वयं भी सुपर हीरो कहलायेंगे-हीरो तो वह अब भी हैं क्योंकि १९८३ के बाद से भारत ने क्रिकेट में कोई विश्व कप नही जीता है। मैं कोई कपिल देव से कोई धर्मादा खाता खोलने की अपेक्षा नहीं कर रहा हूं क्योंकि क्रिकेट कोई दान पर चलने वाला खेल अब रहा भी नहीं है। विशेष रूप से कंपनियों के विज्ञापनों से होने वाले आय पर चलने वाले खेल में कम से कम इतनी व्यवसायिक भावना तो दिखानी चाहिये के खेलो, जीतो और कमाओ, न कि क्योंकि कमा रहे हो इसलिये खेलते रहो, टीम में बने रहो। यह ऐक गैर व्यवसायिक रवैया है यही कारण है कि दुनियां की किसी भी टीम से ज्यादा कमाने खिलाडी मैदान में फ़िसड्डी साबित हो रहे हैं। दुनियां में किसी भी देश में कोई भी ऐसी टीम खिलाडी बता दीजिये जो ज्यादा कमाते हैं और हारते भी हैं। मतलब साफ है कि क्रिकेट में कहीं भी किसी ने धर्मादा खाता नहीं खोल रखा है और यह संभव भी नहीं है। अत: कपिल देव को ऐसे आरोपों की परवाह भी नहीं करना चाहिऐ।

क्रिकेट में कमा कौन नहीं रहा है?


भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्द के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री आई. एस. बिंद्रा ने कपिल देव पर आई. सी. एल. को पैसे के उद्देश्य से बनाने का आरोप लगाया। आजकल ऐक बात मजेदार बात यह है कि जिसे देखो वही पैसे कमाने में लगा हुआ है, पर बात नैतिकता की बात करता है। शायद यह हमारी मानसिकता है कि हम त्याग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं पर चाह्ते हैं कि दूसरे ऐसा करे ताकि हम उसकी पूजा करें-ताकि हम स्वयं माया ऐकत्रित करते रहें और समाज में अपना लौकिक सम्मान बनाये रखें। मैं तो यह जानना चाहता हूं कि पैसे कौन नहीं चाह्ता है, यहां त्यागी कौन है।

अगर कपिल देव ने अपनी संस्था पैसे कमाने के लिये बनाई है तो उसमें बुराई क्या है? और क्या कपिल देव ही केवल पैसा कमाएंगे? उनके साथ क्या जो लोग होंगे वह पैसे नहीं कमाएंगे? शायद बिंद्रा साह्ब को पता नहीं कि कई प्रतिभाशाली क्रिकेट खिलाडी धनाभाव के कारण आत्महत्या कर चुके हैं। वह कह रहे हैं कि कपिल देव देश में क्रिकेट के विकास का बहाना कर रहे हैं। वैसे देखा जाये तो देश में क्रिकेट ने जो ऊंचाई प्राप्त की है उसका पूरा श्रेय कपिल देव को ही जाता है। अगर १९८३ में अगर वह विश्व कप जीतने में अपना योगदान नहीं देते तो शायद इस देश में यह खेल लोकप्रिय भी नहीं होता। उसके बाद ही भारत में ऐकदिवसीय लोकप्रिय हुआ और उससे साथ ही जो खिलाडी उसमे ज्यादा सफ़ल बने उनहें हीरो का दर्जा मिला और साथ में मिले ढेर सारे विज्ञापन और पैसा और समाज में फ़िल्मी हीरो जैसा सम्मान। यही कारण है कि उसके बाद जो भी नवयुवक इस खेल की तरफ़ आकर्षित हुए वह इसलिये कि उनहें इसमें अपना चमकदार भविष्य दिखा। ऐक मजेदार बात यह है कि क्रिकेट का आकर्षण जैसे ही बढता गया वैसे ही फ़िल्मों में काम करने के लिये घर से भागने वाले लोगों की संख्या कम होती गयी क्योंकि क्रिकेट में भी उतना गलैमर आ गया जितना फ़िल्मों में था।

ऐसा केवल इसमें खिलाडियों को मिलने वाले पैसे के कारण हुआ। अब यह पूरी तरह ऐक व्यवसाय बन चुका है। अगर कोई कहता है कि हम क्रिकेट के साथ नियमित रूप से सत्संग के कारण ही जुडे हैं तो सरासर झूठ बोल रहा है-चाहे वह खिलाडी हो या किसी संस्था का पदाधिकारी। फ़र्क केवल इतना होता है कि कुछ लोग अपने कमाने के साथ इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि दूसरे को भी कमाने का अवसर दिया जाये और अपने व्यवसाय में नैतिक सिद्धांतों का भी पालन किया जाये और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उनका उद्देश्य केवल अपने लिये माया जुटाना होता है और किसी नैतिक नियम को मानने की बात तो वह सोचते भी नहीं। समाज में ऐसे ही लोगों के संख्या ज्यादा है।

जिस तरह पिछ्ले कई वर्षौं से भारतीय क्रिकेट टीम का चयन हुआ है उससे नवयुवक खिलाडियों में यह बात घर कर गयी है कि उसमें उनको आसानी से जगह नहीं मिल सकती। इंग्लैंड गयी टीम का खेल देखकर तो यह साफ़ लगता है कि कई खिलाडी उसमें अपनी जगह व्यवसायिक कारणौं से बनाये हुये है। मैं हमेशा कहता हूं कि अगर किसी क्रिकेट खिलाडी कि फ़िटनेस देखनी है तो उससे क्षेत्ररक्षण और विकेटों के बीच दौड में देखना चाहिये। जहां तक बोलिंग और बैटिंग का सवाल है तो आपने देखा होगा कि कई जगह बडी उमर के लोग भी शौक और दिखावे के लिये मैचों का आयोजन करते हैं और उसमें बोलिंग और बैटिंग आसानी से कर लेते हैं पर फ़ील्डिंग और रन लेते समय उनकी दौड पर लोग हंसते है। आप मेरी इस बात पर हंसेंगे पर मेरा कहना यह है कि हमारे इस विशाल देश में लाखों युवक क्रिकेट खेल रहे हैं और रणजी ट्राफ़ी तथा अन्य राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेल रहे हैं ऐसा संभव नहीं है कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं है पर उनको मौका नहीं दिया जा रहा है। इंग्लैंड गयी टीम क्षेत्ररक्षण और रन लेने में बहुत कमजोर सबित हुई है जो कि विश्व कप में भारत की जीत के सबसे मजबूत पक्ष थे। देश में युवा बल्लेबाज और गेंदबाजों की कमी नहीं है और क्षेत्ररक्षण और रन लेने की शक्ति और हौंसला युवा खिलाडियों में ही संभव है। अगर साफ़ कहूं तो अच्छी गेंदबाजी और बल्लेबाजी तो कोयी भी युवा क्रिकेट खिलाडी कर लेगा पर तेजी से रन लेना और दूसरे के शाट मारने पर उस गेंद के पीछे दौडना हर किसी के बूते का नहीं है।

भारत में प्रतिभाशाली खिलाडियों की कमी नही है पर क्रिकेट के व्यवसाय से जुडे लोग केवल यही चाह्ते हैं कि वह सब उनके घर आकर प्रतिभा दिखायें तभी उन पर कृपा दृष्टि दिखायें।
कपिल देव कमायेंगे इसमें कोयी शक नही है पर मेरी जो इच्छा है कि वह देश के युवाओं में ही नये हीरो ढूंढें। शायद वह यही करने वाले भी हैं। अगर वह इन्हीं पुराने खिलाडियों में अपने लिये नयी टीम का सपना देख रहे हैं तो शायद उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी-क्योंकि अत: यह क्रिकेट ऐक शो बिजिनेस बन चुका है उसमें अब नए चेहरे ही लोगों में अपनी छबि बना सकते हैं।। मेरा तो सीधा कहना है कि कपिल देव न केवल खुद कमायें बल्कि छोटे शहरों और आर्थिक दृष्टि से गरीब परिवारों के प्रतिभाशाली युवा खिलाडियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चमका दें तो वह स्वयं भी सुपर हीरो कहलायेंगे-हीरो तो वह अब भी हैं क्योंकि १९८३ के बाद से भारत ने क्रिकेट में कोई विश्व कप नही जीता है। मैं कोई कपिल देव से कोई धर्मादा खाता खोलने की अपेक्षा नहीं कर रहा हूं क्योंकि क्रिकेट कोई दान पर चलने वाला खेल अब रहा भी नहीं है। विशेष रूप से कंपनियों के विज्ञापनों से होने वाले आय पर चलने वाले खेल में कम से कम इतनी व्यवसायिक भावना तो दिखानी चाहिये के खेलो, जीतो और कमाओ, न कि क्योंकि कमा रहे हो इसलिये खेलते रहो, टीम में बने रहो। यह ऐक गैर व्यवसायिक रवैया है यही कारण है कि दुनियां की किसी भी टीम से ज्यादा कमाने खिलाडी मैदान में फ़िसड्डी साबित हो रहे हैं। दुनियां में किसी भी देश में कोई भी ऐसी टीम खिलाडी बता दीजिये जो ज्यादा कमाते हैं और हारते भी हैं। मतलब साफ है कि क्रिकेट में कहीं भी किसी ने धर्मादा खाता नहीं खोल रखा है और यह संभव भी नहीं है। अत: कपिल देव को ऐसे आरोपों की परवाह भी नहीं करना चाहिऐ।