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धनवान समाज से हिन्दी भाषा के विकास की अपेक्षा न करें-14 सितम्बर पर हिन्दी दिवस पर विशेष लेख


      14 सितम्बर हिन्दी दिवस के अवसर पर ऐसा पहली बार हुआ है जब हिन्दी टीवी चैनल इस पर उत्सव मनाकर अपने विज्ञापन प्रसारण का समय पार लगा रहे हैं।  एक टीवी चैनल ने तो अपना मंच फिल्मी अंदाज में तैयार कर हिन्दी भाषा के आधार पर व्यवसायिक करने वाले लोगों को आमंत्रित किया।  उसमें तमाम विद्वान अपने तर्क दे रहे थे।  एक विद्वान ने स्वीकार किया कि हिन्दी भाषा का आधार किसान और मजदूर हैं।  हम जैसे मौलिक लेखक मानते हैं कि हिन्दी सामान्य जनमानस की चहेती भाषा है और विशिष्ट लोगों के राष्ट्रभाषा या मातृभाषा बचाने के प्रयास दिखावटी हैं।  इस चर्चा में बाज़ार या व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रचलित हिन्दी पर चर्चा हुई।  कुछ विद्वानों का मानना था कि बाज़ार हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ रहा है तो अन्य की राय थी ऐसा कुछ नहीं है और हिन्दी भाषियों को उदार होना चाहिये।

      हिन्दी दिवस पर इस तरह की चर्चायें होती रहती हैं पर पहली बार ऐसी चर्चा टीवी चैनल पर हुई।  इसमें समाचार पत्र पत्रिकाओं में शीर्षकों तथा विषय सामग्रंी के साथ  में अंग्रेजी शब्दों के उपयोग पर भी विचार हुआ।  इस तरह की प्रवृत्ति ठीक है या नहीं यह एक अलग विषय है पर इसका पाठकों पर जो प्रभाव हो रहा है उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अक्सर लोग यह शिकायत करते हैं कि अंग्रेजी अखबार हिन्दी से अधिक महंगे हैं।  अगर हम इसके पीछे के कारण जाने तो समझ में आयेगा कि चूंकि लोग अखबारों को अंग्रेजी भाषा ज्ञान बनाये रखने के लिये पढ़ते हैं इसलिये उनकी प्रसार संख्या मांग से कम होती है।  मांग आपूर्ति के नियमानुसार  वह  महंगे दाम पर भी बिक जाते हैं। जबकि हिन्दी प्रकाशनों की संख्या अधिक है तो पाठक संभवत उस मात्रा में उपलब्ध नहीं है। एक समय हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकायें लोकप्रिय थीं पर इसका कारण उनकी विषय सामग्री कम उसके अध्ययन से  हिन्दी भाषा को आत्मसात करने की प्रवृत्ति लोगों में अधिक थी।  लोग साहित्यक किताबों की बजाय समाचार पत्र पत्रिकाओं पर हिन्दी ज्ञान के लिये निर्भर रहना पंसद करे थे। अब अगर कोई व्यक्ति हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं के अध्ययन से हिन्दी भाषा आत्मसात करने की बात सोच भी नहीं सकता।  हिन्दी समाचार पत्र यह मानकर चल रहे हैं कि युवा वर्ग हिन्दी नहीं जानता इसलिये अपने विशिष्ट पृष्ठों में अंग्रेजी शब्दों का अनावश्यक  उपयोग करते हैं। हमें पता नहीं कि इसका उन्हें लाभ है या नहीं पर हम जैसे पाठक ऐसी सामग्री को पढ़ने में भारी असहजता अनुभव करते हैं।  हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं ने अपने पाठकों का मानस समझा नहीं जो कि अध्यात्म प्रवृत्ति का है। यही कारण है कि देश भर के प्रतिष्ठित धार्मिक संस्थाओं की पत्र पत्रिकायें आजकल लोगों के घरों में अधिक मिलती है और हिन्दी के व्यवसायिक प्रकाशनों को ग्राहक उसी तरह ढूंढने पर रहे हैं जैसे कि कपड़े वाला ढूंढता है। एक समय सामाजिक, राजनीतिक, महिला, बाल तथा मनोरंजन के विषयों वाली पत्रिकायें अक्सर लोगों के घर में मिल जाती थीं पर आजकल यह नहीं होता। कह सकते हैं कि इसके लिये आधुनिक संचार माध्यमों जिम्मेदार हैं पर सवाल उठता है कि आखिर अध्यात्मिक पत्र पत्रिकाओं पर यह नियम लागू क्यों नहीं होता? हिन्दी व्यवसायिक प्रकाशनों के प्रबंधकों को इसके लिये आत्म मंथन करना चाहिये कि इतना बड़ा जनसमूह होते हुए भी उनके प्रकाशनों से लोग क्यों मुंह मोड़ रहे हैं। कहीं यह भाषा के लिये आयी उनकी प्रतिबद्धता की कमी तो नहीं है?

      इतना ही नहीं यह प्रकाशन समूह देश में रचना के पठन पाठन तथा सृजन की नयी प्रवृत्तियों के संवाहक भी नहीं बन पाये और दूसरी भाषाओं के रचनाकारों तथा रचनाओं को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत कर यह श्रेय तो लेते रहे हैं कि वह हिन्दी पाठक के लिये बेहतर विषय सामग्री प्रस्तुत की हैं पर आजादी के बाद एक भी लेखक का नाम इनके पास नहीं है जिसे उन्होंने अपने सहारे प्रतिष्ठा दिलाई हो।  क्या हिन्दी में बेहतर कहानियां नहीं लिखी जातीं या प्रभावी कविताओं की कमी है? यह सोच हिन्दी प्रकाशन समूहों के प्रबंधकों और संपादकों का हो सकता है पर यही उनके उस कम आत्मविश्वास का भी प्रमाण है जिसके कारण भारतीय जनमानस में हिन्दी प्रकाशनों की प्रतिष्ठा कम हुई है।

      आखिरी बात यह कि बाज़ार पर आक्षेप करना ठीक नहीं है। भाषा का संबंध भाव से और भाव का संबंध भूमि से होता है। भारत में हिन्दी ही सर्वोत्म भाषा है जो सहज चिंत्तन में सहायक होने के साथ ही उसके संवाद और उसके प्रेक्षण के लिये एक उचित माध्यम है। माने या माने पर इस सत्य से अलग जाकर हिन्दी के विकास पर बहस करना केवल औपचारिकत मात्र रह जाती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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इंसान को खिलौना समझाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


शिक्षा बन गयी व्यापार

विद्यालय सुविधाओं के

विज्ञापन और प्रचार पर चलते हैं।

पुस्तकें हो गयी सौदे की शय

छात्र अब पुत्र की तरह नहीं

ग्राहक की तरह पलते हैं।

अध्यापक सिखा और पढ़ा रहे

अंग्रेजी चाल का तरीका,

थोड़ा बहुत मनोरंजन का सलीका,

भविष्य में आनंद का सपना

छात्र गुलामी के सांचे में ढलते हैं।

कहें दीपक धर्म से परे शिक्षा

कभी समाज नहीं बना सकती

निकल आये हम भ्रम के मार्ग

अब अपनी करनी पर हाथ मलते हैं।

———————–

बचपन में मिले

जिनको महंगे खिलौने

खेल वह पाये नहीं।

बड़े होकर आम इंसानों से

खेलते सस्ते सपने दिखाकर

मगर वादे महंगे करते नहीं।

करते हैं सभी के भले की पहल

बना लेते अपने बड़े महल

दरियादिल की बनायी  छवि

दया दिमाग में जिनके भरी नहीं।

कहें दीपक बापू भाग्य से

करें शिकायत या कर्म का खेल

दर्शक की तरह देखते रहें

ऊंचाई पर खड़े जो लोग

नीचे नहीं देखते

बोलें तो सुन नहीं पाते

    शब्द हवा में खो जाते कहीं।

—————————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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मुट्ठी में आता तो किलो कई सुख भर लेते-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


पैसे की भूख में इंसान

दिल के जज़्बातों से नीयत चुराकर

नालायकी से हाथ मिला देता है।

दूसरे की भूख मिटाने के लिये

जिस हाथ से बनाता खाना

उसी से कंकड़ मिला देता है।

अपनी जिम्मेदारी के लिये

थामे है जिस हाथ में कलम

वही रिश्वत से मिला देता है।

कहें दीपक बापू अपने हाथ में

आदर्श का झंडा उठाये है हर इंसान

मौका पड़ते ही बेईमानी से मिला देता है।

————-

मुट्ठी में अगर आता सुख तो हम कई किलो भर लेते,

खरीदे गये सामान से मिलता मजा तो ढेर घर में भर लेते।

कहें दीपक बापू सोए तो आलस चले तो थकान ने घेरा

रोज पैदा होती नयी चाहत पर कामयाबी से मन भरता नहीं

वरना हम उम्मीदों का भारी बोझ अपने कंधे पर धर लेते।

————

टकटकी लगाये हम उनकी नज़रों में आने का इंतजार करते हैं,

वह उदासीन हैं फिर भी हम उस यार पर मरते हैं।

कहें दीपक बापू कोई हमदर्द बने यह चाहत नहीं हमारी

दिल से घुटते लोग सीना तानते पर तन्हाई से डरते है।ं

———–

रिश्ते बनते जरूर कुदरत से मगर निभाये मतलब से जाते हैं,

कहीं काम से दाम मिलते कहंी दाम से काम बनाये जाते हैं।

नीयत के खेल में खोटे लोग भी खरे सिक्के जैसे सजते

वफा की चाहत में बदहवास लोग शिकार बनाये जाते हैं।

कहें दीपक बापू दिल के सौदागर जिस्मफरोशी नहीं करते

मोहब्बत के जाल में कमजोर दिमाग लोग फंसाये जाते हैं।

————–

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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भारत को इंडिया से जूझता पाया-हिन्दी व्यंग्य कविता


15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस का
महत्व हम नहीं समझे
या कोई हमें समझा नहीं पाया।

जिस अंग्रेजी भाषा से लड़ी हिन्दी
राष्ट्रभाषा के सम्मान के लिये
हमने उसे आज तक लड़ते पाया।

स्वदेशी का नारा लगा था
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
खोई नहीं उसकी यादें
यदाकदा उसे अब भी सुनते पाया।

अंग्रेजों के गुलामी और मालिक के खेल
क्रिकेट को मनोरंजन का धर्म बना लिया
पागलों की तरह लोगों को
गेंद की तरह उसके पीछे भागते पाया।

आज अंग्रेजों की धरती पर गये लोग
इतराते हैं उनकी तरह
भारत को इंडिया से जूझते पाया।

कहते हैं कि जो अंग्रेजी नहीं पढ़ेगा
वह तरक्की की राह नहीं चलेगा
समझ में नहीं आता
अंग्रेजों को किसने कब कैसे क्यों और कहां
इस देश से भगाया।

कहें दीपक सभी के साथ
हम भी भारत माता की जय का
नारा लगा लेते हैं
हम ढूंढते उसका अपना घर
जिसका पता किसी ने नहीं बताया।
————–

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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सहज और असहज योग से जुड़ाव सभी का है-श्रीमद्भागवत गीता के आधार पर चिंत्तन लेख


      श्रीमद्भागवत गीता की चर्चा बहुत होती है पर इसके ज्ञान की समझ और फिर उसकी बताई राह पर चलने वाले कितने हैं इस पर कोई विचार नहीं करता। अभी हमने टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में श्रीमद्भागवत गीता पर बहुत चर्चा देखी और सुनी।  एक माननीय न्यायाधीश ने श्रीमद्भागवत गीता के विषय को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव दिया।  उस पर देश में कोहराम मच गया है।  इस बहस में कुछ सवाल ऐसे उठे जिन पर हंसी आई तो कुछ जवाब ऐसे आये जिन पर आश्चर्य हुआ। जैसा कि हम जानते हैं कि टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में केवल प्रायोजित तथा धनिकों से सम्मानित बुद्धिजीवियों की बात को ही महत्व मिलता है।  अंतर्जाल पर हम जैसे असंगठित, मौलिक तथा फोकटिया लेखकों का अपने पैसे खर्च कर भड़ास निकालने का अवसर मिलता है यही कम नहीं है मगर पंरपरागत प्रचार माध्यमों में आये विद्वान नाम के साथ नामा पाने के लिये कृत्रिम भड़ास से सजे हुए आते हैं। इस तरह की बहसों में एक बात मुख्य रूप से मानी गयी कि यह केवल हिन्दूओं का ही  ग्रंथ है।

      हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये श्रीमद्भागवत गीता का महत्व इतना है कि वह इसके शब्दों के शाब्दिक, लाक्षणिक तथा व्यंजनात्मक तीनों विधाओं के अर्थ को न केवल सहजता से समझते हैं वरन् उसे आत्मसात करने का प्रयास भी करते हैं।  कम से कम यह लेखक तो यह अनुभव करता है कि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों को लेकर लोग इतने गंभीर नहीं लगते जितनी इसकी पवित्रता को स्वीकार करने के पाखंड में व्यस्त हैं।

      जिन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात किया है या प्रयास कर रहे हैं वह जानते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता जीवन जीने की वैसी ही कला है जैसी कि योग साधना को माना जाता है।  पतंजलि योग सूत्र के रूप में हमारे पास देह, मन और विचारों के विकार निकालने की विद्या है।  अगर कोई सांसरिक विषयों से संपर्क न रखकर पूर्ण सन्यासी जीवन बिताये तो पतंजलि योग उसके लिये महान विज्ञान है। श्रीमद्भागवत गीता में यह बताया जाता है कि सांसरिक विषयों के साथ जुड़कर भी सहज भाव से जीवन जी सकते हैं। कहा जाता है कि  श्रीमद्भागवत गीता में वेदों का पूर्ण सार है। ठीक उसी तरह पतंजलि योग के भी सूत्रों का सार उसमें हैं।  श्रीमद्भागवत गीता कुछ सिखाती नहीं है वरन्  सांसरिक विषयों का सच बताती है।  यह विश्व का अकेला ऐसा  ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान भी है।  इस लेखक की मान्यता यह है कि इस संसार में योग जाने अनजाने हर व्यक्ति कर रहा है।  कुछ लोग अज्ञान के अभाव में सांसरिक विषयों का सत्य मानकर उनसे जुड़ते हैं। यह जुड़ना योग ही है पर उससे इंसान असहज होता है।  जहां विषय आकर्षित कर मनुष्य को अपने साथ संयोग कराते हैं वह वह विवश होता है पर योग का ज्ञान रखने वाले अपनी आवश्यकता के अनुसार चलते हैं।  वह विषयों से जुड़ते हैं फिर अपन मन वहां से हटा लेते हैं।  इसके विपरीत अज्ञानी मनुष्य विषयों का बोझ उठाये सारी जिंदगी रोते हुए गुजारते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता पर चलने वाले सहज योग के पथ पर चलते हैं और जो नहीं समझते वह असहज पथ पर चल ही रहे हैं।

      श्रीमद्भागवत गीता की विषय सामग्री को पढ़ने और पढ़ाने से अधिक समझने की आवश्यकता है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि इस संसार में असहज पथ पर चलने वाले लोगों को ज्ञान देना कठिन है और जो सहज हैं उन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं है। दूसरे को तो तब सुधारें जब स्वयं सिद्धि प्राप्त कर लें मगर श्रीमद्भागवत गीता के रम जाने पर होता यह है कि जितनी बार उसे पढ़ो लगता है कि नित्य कोई नयी बात निकल रही है।  एक बात तय रही जिसने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात कर लिया वह कभी प्रचार नहीं करेगा।  इसका पहले हमें अनुमान नहीं था पर जैसे जैसे प्रचार माध्यमों में चर्चा देखते हैं तो इस देश में श्रीमद्भागवत के महत्व का जिस तरह बखान होता है तब यह लेखक उन लोगों को देखना चाहता है जिन्हें सिद्धहस्त कहा जा सके। अभी तक यह लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सका। छोटे शहर का  होने का कारण इस देश में कला, धर्म, साहित्य, पत्रकारित तथा अन्य विषयों का मार्ग दर्शन करने वाले बड़े शहरों जैसे विद्वानों का दर्जा इस लेखक को मिलना संभव नहीं है यह बात निराशा पैदा करने वाली लगती है पर श्रीमद्भागवत गीता का ऐसा प्रभाव है कि यही बात आत्मविश्वास पैदा भी करती है कि किसी प्रकार भौतिक उपलब्धि न होने की संभावना अध्यात्मिक साधना की सच्ची प्रेरणा बनती है।  इस विषय पर लेखक ने पहले भी अपने ब्लॉग पर लिखा है।  आगे भी लिखेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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