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शिष्य की जीवन नैया पर लगाने वाले गुरु बहुत कम है-गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिंदी लेख


         22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है।  भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्ंयंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में  ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।  दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है।  यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने  त्याग का भाव होना चाहिये।  त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।

          हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं।  श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें।  इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य  अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है।  सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं।  अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है।  इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है।  समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं।  शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि

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बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।

सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो  शिष्य को पार लगा सकते हैं।

जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।

कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।

    सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान  ग्रहण या धारण नहीं कर पाते।  जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।

           सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो।  जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं।  अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है।  ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता।  अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी।  इसलिये शरीर से  गुरु का होना जरूरी नहीं है। 

     अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी  गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं।  सच्चे गुरु यही चाहते हैं।  सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

पाकिस्तान में ऊहापोह की स्थिति


पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी अभी हुई हैं यह मानना कठिन है। जिस तरह वहाँ के समीकरण बन रहे हैं उससे तो ऐसा लगता है कि पुराने नेताओं के आपसी विवाद फ़िर उभर का आयेंगे। वहाँ पीपीपी (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) की संभावना लग रही हैं। हालांकि नवाज शरीफ की पार्टी का अभी पीपीपी को समर्थन है पर उसके प्रमुख आसिफ जरदारी की कोशिश अन्य दलों को भी अपने साथ लेकर चलने की है। इस प्रयास में उन्होंने एम क्यू एम (मुहाजिर कौमी मूवमेंट) के प्रमुख अल्ताफ हुसैन से बातचीत की है। ऐसा लगता है कि इससे उनका अपने प्रांत सिंध में इसका विरोध हो रहा है।

वर्डप्रेस के ब्लॉग पर मेरी कुछ श्रेणियां अंग्रेजी में हैं जहाँ से जाने पर पाकिस्तानी ब्लोगरों के ब्लॉग दिखाई देते हैं। कल मैंने उनके एक ब्लॉग को पढा उसमें आसिफ जरदारी से एम क्यू एम को साथ न चलने चलने का सुझाव दिया गया। नवाज शरीफ से चूंकि चुनाव पूर्व ही सब कुछ तय है इसलिए पीपीपी के लिए अपने सबसे जनाधार वाले क्षेत्र में इसका कोई विरोध नहीं है पर एम क्यू एम का सिंध में बहुत विरोध है क्योंकि सिंध मूल के लोगों से मुहजिरों से धर्म के नाम पर एकता आजादी के बाद कुछ समय तक रही पर साँस्कृतिक और भाषाई विविधता से अब वहाँ संघर्ष होता रहता है। मुहाजिर उर्दू को प्रधानता देते हैं जबकि सिन्धी अपनी मातृभाषा को प्यार करते हैं। इसके अलावा सिंध मूल के लोगों में मुस्लिम सूफी विचारधारा से अधिक प्रभावित रहे हैं और उन पर पीर-पगारो का वर्चस्व रहा है। इसलिए सांस्कृतिक धरातल पर सिन्धियों और मुहाजिरों में विविधता रही है। इसलिए ही सिंध में मुहाजिरों की पार्टी एम.क्यू.एम. से किसी प्रकार का तात्कालिक लाभ के लिए किया गया तालमेल पीपीपी को अपने जनाधार से दूर भी कर सकता है और हो सकता है अगले चुनाव में-जिसकी संभावना राजनीतिक विशेषज्ञ अभी से व्यक्त कर रहे हैं- अपने लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है।
पाकिस्तानी ब्लोगरों के विचारों से तो यही लगता है कि वह लोग एम.क्यू.एम से पीपीपी का समझौता पसंद नहीं करेंगे। इधर यह भी संकट है कि अगर नवाज शरीफ पर ही निर्भर रहने पर पीपीपी की सरकार को उनकी वह मांगें भी माननी पड़ेंगी जिनका पूरा होना पार्टी को पसंद नहीं है। शायद यही वजह है कि अभी तक वहाँ ऊहापोह के स्थिति है।
इन चुनावों का मतलब यह कतई नहीं है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल होने के बावजूद स्थिर रहेगा। इसके लिए पाकिस्तान के नेताओं को लोकतंत्र की राजनीति के मूल सिद्धांत पर चलना होगा’ लोकतंत्र में अपने विरोधी को उलझाए रहो पर उसे ख़त्म मत करो, क्योंकि उसे ख़त्म करोगे तो दूसरा आ जायेगा और हो सकता है कि वह पहले से अधिक भारी भरकम हो’।
मियाँ नवाज शरीफ ने बेनजीर को बाहर भागने के लिए मजबूर किया। राष्ट्रपति पद से लेघारी को हटाया और अपना एक रबर स्टांप राष्ट्रपति बिठाया पर नतीजा क्या हुआ? मुशर्रफ जैसा विरोधी आ गया जिसने लोकतंत्र को ही ख़त्म कर दिया। इसलिए अब राजनीति कर रहे नेताओं का यह सब चीजे समझनी होंगी क्योंकि अभी वहाँ लोकतंत्र मजबूत होने बहुत समय लगेगा और नेताओं के आपसी विवाद फ़िर सेना को सत्ता में आने का अवसर प्रदान करेंगे।

नारद का मोह न छोड़ें, पर दूसरी चौपालों पर भी जाएँ


पिछले तीन दिनों से नारद की फीड में गड़बड़ चल रही है पर इसके बावजूद लोग एक दुसरे को पढ़ रहे हैं और कमेन्ट भी दे रहे हैं, यह एक अच्छा संकेत है। कुछ लोगों ने परेशानी अनुभव की जिनमें मैं स्वयं भी शामिल हूँ पर कुछ नये एग्रीगेटरों के आने से अब नारद पर निर्भरता कम होगी और लिखने पढने वाले अब अपना काम चला सकते हैं।
नारद पर लिखे एक लेख में मैंने लिखा था कि ऐसे मंच और भी बनेंगे पर इतनी जल्दी यह सब होगा इसकी आशा मुझे नही थी। इसके बावजूद मुझे लग रहा है कि कुछ लोगों का या जानकारी नहीं है या फिर नारद के प्रति मोह है कि वह किसी और के बारे में नहीं सोच रहे है। नारद के प्रति मोह खत्म नहीं हो सकता यह बात मैं जानता हूँ क्योंकि में अपने सब मित्रों को दूसरी चौपालों पर देख रहा था और बीच-बीच में नारद पर भी जाता था कि कहीं चालू तो नहीं हो गया। कुछ लोगों ने तो निराशा में अपनी पोस्ट भी डाली और वह भी दूसरी चौपालों पर दिख रही थी और मैं सोच था कि क्या उसके रचनाकार को पता है कि उसकी रचना पढी जा रही है?
बहरहाल मुझे यह अच्छा लगा और मेरा विचार है कि नारद के ठीकठाक होते हुए भी हमें इन दूसरी चौपालों पर चहल-पहल करने की आदत डालनी चाहिए। पिछले दो तीन दिन से मैंने जितनी कमेन्ट डालीं है उन्ही चौपालों में डाली हैं। जिनके निज पत्रक वर्ड प्रेस पर हैं उन्हें तो वियुज से पता लग जाता है जिनके केवल ब्लागस्पाट पर हैं उन सबको शायद इसकी जानकारी नहीं होगी कि उनको दूसरी चौपालों पर भी देखा जा रहा है। मैंने इन चौपालों पर जाकर देखा उन्होने नारद से कई चीजें सीखकर उसमें काफी सुधार किया है। मैं देख रहा हूँ कुछ लोग जानते हैं पर सब इसे जानते हैं इसमें मुझे शक है क्योंकि अगर वर्डप्रैस के ब्लोग पर वियुज नहीं होते तो मुझे पता ही नहीं लगता। खैर! मैं अपने जैसे अल्प ज्ञानी लोगों को बता दूं कि लोग लोग ब्लोगवाणी, चिट्ठा जगत और हिंदी ब्लोग कॉम के बारे में लिखते तो हैं पर सरल भाषा में कोई नहीं बता रहा कि यह क्या है?
यह नारद जैसी चौपालें हैं जो आपके ब्लोग को लिंक कर चुकी हैं और उनकी साज़-सज्जा बहुत अच्छी है सबसे बडी बात इण्टरनेट पर हिंदी को फलती-फूलती देखने का हमारा भाव है उसकी तरफ इसे कदम माना जाना चाहिए। निरपेक्ष भाव से उन लोगों के परिश्रम की प्रशंसा करना चाहिए-और अपनी चहल -पहल वहाँ भी करना चाहिऐ क्योंकि हम सब वहां जाकर एक दुसरे को पढेंगे तो संपर्क सतत बना रहेगा। नारद के मित्र वहां भी है और मेरे लिए दो ही चीजें महत्वपूर्ण हैं मेरा लेखन। और मेरे मित्र मैंने इसी ब्लोग पर उन चौपालों के झंडे-डंडे लगा दिए हैं ताकि एक नहीं तो दूसरी जगह जा सकूं, बिना पढे मैं लिख सकूं यह मेरे लिए संभव नहीं है।
कुछ जानकर लोग कहेंगे यह क्या कचडा लिख दिया पर मैं बता दूं कि भारत एक व्यापक देश है सभी कंप्युटर के जानकार और अंगरेजी पढे लोग लेखक नहीं हैं उसी तरह सारे लेखक भी कंप्युटर और अंगरेजी के विशेषज्ञ नहीं हो सकते -अगर कंप्यूटर पर लिखने की कोई ऎसी शर्त होती तो मुझे आप लोग यहां पढ़ नही सकते थे।
यह तो थी तकनीकी रुप से अपने जैसे अल्प ज्ञानियों से अपनी बात! अब मैं अपने जैसे फ्लॉप निज-पत्रक लेखकों (ब्लोगार्स ) को भी यही कहूँगा कि नारद के बाद वहां भी चहल कदमी अवश्य करें । नारद के और वर्डप्रैस के हिट वहाँ नही चल सकते -उन्होने अधिक और नियमित पोस्ट लिखने वालों की सूची अलग जारी कर रखी है -आप अपने वियुज कितने भी जुटाये वहाँ हिट नियमित और अधिक लेखन से ही संभव है। वहाँ की सूची में आपको पता चल जाएगा कि कौन कितने पानी में हैं। मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता पर कभी कभी यह लगता है लोगों ने लेखन को मजाक बना लिया है। मैंने कई ऐसे लेखक देखे हैं जो निरपेक्ष भाव से अच्छी रचनाएं दे रहे हैं पर कभी कभी उन्हें लगता है कि उनकी उपेक्षा जा रही है-ऐसे लेखको को वहाँ लगेगा कि वहाँ उन्हें सही प्रस्तुत किया जा रहा है। उनकी हिट दिखाने का तरीका बहुत सही है।
आखरी बात एग्रीगेटरों से समय आ गया है कि वह जो आचार संहिता बनाएं हुये हैं तो उस पर चलें भी-जिन नियमों को बना रहे हैं उन्हें न स्वयं तोड़े न किसी को तोड़ने दें। आपस में प्रतिस्पर्धी नही पूरक बनें क्योंकि अभी सफर बहुत लंबा है । किसी लेखक के साथ पक्षपात न करें । सभी के प्रति समान दृष्टिकोण रखें-चाहे कोई उन्हें पसन्द हो या न हो। साथ ही आचरण और मान मर्यादा का उल्लंघन न हो यह उनकी जिम्मेदारी है । वह यह कहकर नहीं बच सकते कि हम किस-किस पर निगाह रखेंगें । और हाँ आलोचनाओं से उन्हें घबडाना चाहिए। जब आप सार्वजनिक काम करते हैं तो आपको जहाँ प्रशंसा मिलती है तो आलोचना झेलने के लिए भी तैयार रहना चाहिऐ।
जिस तरह में एग्रीगेट्रों से कह रहा हूँ वैसे ही मैं लेखकों से भी कह रहा हूँ कि वह भी सभी के प्रति समान दृष्टिकोण रखें और सभी चौपालों पर आवक-जावक करें। नारद का मोह हमारे मन से खत्म नहीं हो सकता पर उस पर दबाव खत्म करने के लिए यह जरूरी है। इससे एक तो आपके अन्दर ज्यादा से ज्यादा लिखने की इच्छा पैदा होगी और स्वत: अच्छी रचनाएं बाहर आयेंगी और दूसरा हमारे पास इतना समय ही नहीं रहेगा कि हिट और फ्लॉप का लेखा-जोखा रख सकें। अब हिट और फ्लॉप का मुकाबला रचना के स्तर और संख्या के आधार पर होने वाला है । मैं छुपाऊंगा नहीं आज यह रचना मैं अपनी संख्या बढाने के लिए ही लिख रहा हूँ-क्योंकि एक चौपाल पर संख्या के आधार पर रेटिंग हो रही है।

हरियाली मिटाकर रेगिस्तान बनाया


आसमान से बरसती आग में
झुलसता हुआ बदन
तरस जाता है ठंडी हवा के लिए
जहाँ तक दृष्टि जाती है
सूरज के शोले बिखरे दिखाई देते हैं
तरसे हैं चक्षु
धरती-पुत्र वृक्षों को देखने के लिए
शहर में खडे पत्थर के महलों में भी
खाली हैं बरतन
आदमी तरस रहा है पानी के लिए
आसमान में उड़ने के लिए
विकास का काल्पनिक विमान बनाया
अपने हाथ से ही हरियाली को मिटाया
अब खङा आदमी आकाश की ओर
टकटकी लगाए देख रहा है
पानी बरसने के लिए
———————-
बादल नहीं जाते जहाँ- जहां
ऐसे कई रेगिस्तान बन गये
हरियाली मिटाकर
रेगिस्तान बनाकर
आदमी खडा है इन्तजार में
पर बादल रेगिस्तान
समझकर बिन बरसे चले गये
—————————-

महायोगी की आलोचना से आत्मविश्लेषण करैं


भारत में आजकल एक फैशन हो गया है कि अगर आपको सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करनी हो तो हिंदू धर्म या उससे जुडे किसी संत पर आक्षेप कर आसानी से प्राप्त की जा सकती है। मुझे ऐसे लोगों से कोई शिक़ायत नहीं है न उनसे कहने या उन्हें समझाने की जरूरत है। अभी कुछ दिनों से बाबा रामदेव पर लोग प्रतिकूल टिप्पणी कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की होड़ में लगे है । इस समय वह भारत में ही नहीं वरन पूरे विश्व में लोकप्रिय हो रहे हैं ,और मुझे नहीं लगता कि आजादी के बाद कोई व्यक्ति इतनी लोकप्रियता हासिल कर सका हो। सूचना तकनीकी में हम विश्व में उंचे स्थान पर हैं पर वहां किसी व्यक्ति विशेष को यह सम्मान नहीं प्राप्त हो सका है। बाबा रामदेव ने हिंदूं धर्म से योगासन, प्राणायाम, और ध्यान की जो विद्या भारत में लुप्त हो चुकी थी उसे एक बार फिर सम्मानजनक स्थान दिलाया है, उससे कई लोगों के मन में कुंठा उत्पन्न हो गयी है और वह योजनापूर्वक उन्हें बदनाम आकर रहे हैं।
पहले यह मैं स्पष्ट कर दूं कि मैंने आज से चार वर्ष पूर्व जब योग साधना प्रारंभ की थी तब बाबा रामदेव का नाम भी नही सुना था। भारतीय योग संस्थान के निशुल्क शिविर में योग करते हुए लगभग डेढ़ वर्ष बाद मैंने उनका नाम सूना था। आज जब मुझसे कोई पूछता है “क्या तुम बाबा रामदेव वाला योग करते हो?
मैं उनसे कहता हूँ -“हाँ, तुम भी किया करो ।
कहने का तात्पर्य यह है इस समय योग का मतलब ही बाबा रामदेव के योग से हो गया है। मुझे इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है क्योंकि मैं ह्रदय से चाहता हूँ कि योग का प्रचार और प्रसार बढ़े । मैं बाबा रामदेव का भक्त या शिष्य भी नहीं हूँ फिर भी लोगों को यह सलाह देने में मुझे कोई झिझक नहीं होती कि वह उनके कार्यक्रमों को देखकर योग सीखें और उसका लाभ उठाएं । इसमें मेरा कोई निजी फायदा नहीं है पर मुझे यह संतुष्टि होती है कि मैं जिन लोगों से योग सीखा हूँ वह गुरू जैसे दिखने वाले लोग नहीं है पर उन्होने गुरूद्क्षिना में इसके प्रचार के लिए काम करने को कहा था। बाबा रामदेव का समर्थन करने के पीछे केवल योग के प्रति मेरी निष्ठा ही नहीं है बल्कि यह सोच भी है कि योग सिखाना भी कोई आसान काम नहीं -योग शिक्षा वैसे ही भारत में ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाई है और इसे विषय के रुप में स्कूलों में शामिल करने का बहुत विरोध हो रहा है ऐसे में लार्ड मैकाले की शिक्षा से स्वयं को विद्धान की पदवी से अलंकृत कर स्वयंभू तो योग के नाम से बौखला जाते हैं, और उनके उलुलजुलुल बयानों को मीडिया में स्थान भी मिलता है। कुछ दिन पहले बाबा रामदेव के शिविर में एक बीमार व्यक्ति की मौत हो गयी थी तो मीडिया ने इस तरह प्रचारित करने का प्रयास किया जैसे वह योग्साध्ना से मरा हो, जबकि उसकी बिमारी उसे इस हाल में लाई थी। उस समय एक सवाल उठा था कि अंगरेजी पध्दति से सुसज्जित अस्पतालों में जब कई मरीज आपरेशन टेबल पर ही मर जाते हैं तो क्या इतनी चीख पुकार मचती है और कोई उन्हें बंद करने की बात करता है। ट्रकों, कारों, और मोटर सायाकिलों की टक्कर में सैंकड़ों लोग मर जाते हैं तो कोई यह कहता है इन्हें बंद कर दो? और इन वाहनों से निकलने वाले धुएँ ने हमारे पर्यावरण को इस क़दर प्रदूषित किया है जिससे लोगों में सांस की बीमारियाँ बढ गयी है तो क्या कोई यह कहने वाला है कि विदेशों से पैट्रोल का आयत बंद कर दो?
बाबा रामदेव ने हिंदूं धर्म से जुडी इस विधा को पुन: शिखर पर पहुंचाया है इसके लिए उन्हें साधुवाद देने की बजाय उनके कृत्य में छिद्र ढूँढने का प्रयास करने वाले लोग उनकी योग शिक्षा की बजाय उनके वक्तव्यों को तोड़ मरोड़ कर उसे इस तरह पेश करते हैं कि उसकी आलोचना के जा सके। जहाँ तक योग साधना से होने वाले लाभों का सवाल है तो उसे वही समझ सकता है जिसने योगासन, प्राणायाम , ध्यान और मत्रोच्चार किया हो। शरीर की बीमारी तो पता चलती है पर मानसिक और वैचारिक बीमारी का व्यक्ति को स्वयं ही पता नहीं रहता और योग उन्हें भी ठीक कर देता है। जहां तक उनकी फार्मेसी में निर्मित दवाओं पर सवाल उठाने का मामला है बाबा रामदेव कई बार कह चुके हैं वह बीमारियों के इलाज में दवा को द्वितीय वरीयता देते हैं, और जहाँ तक हो सके रोग को योग साधना से दूर कराने का प्रयास करते हैं। फिर भी कोई न कोई उनकी दवाए उठाकर लाता है और लगता है अपनी विद्वता दिखाने। आज तक कोई किसी अंगरेजी दवा का सैम्पल उठाकर नहीं लाया कि उसमे कितने साईट इफेक्ट होते हैं। इस देश में कितने लोग अंगरेजी बिमारिओं से मरे यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की।
अब रहा उनके द्वारा हिंदू धर्म के प्रचार का सवाल तो यह केवल उनसे ही क्यों पूछा जा रहा है? क्या अन्य धर्म के लोग अपने धर्म का प्रचार नहीं कर रहे हैं। मैं केवल बाबा रामदेव ही नहीं अन्य हिंदू संतों की भी बात करता हूँ । जो लोग उन पर सवाल उठाते हैं वह पहले अपना आत्म विश्लेषण करें तो उन्हें अपने अन्दर ढ़ेर सारे दोष दिखाई देंगे। दो या तीन घंटे तक अपने सामने बैठे भक्तो और श्रोताओं को-वह भी बीस से तीस हज़ार की संख्या में -प्रभावित करना कोई आसान काम नहीं है। यह बिना योग साधना, श्री मद्भागवत का अध्ययन और इश्वर भक्ती के साथ कडी तपस्या और परिश्रम के बिना संभव नहीं है । उनकी आलोचना केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो उन जैसा हो। इसके अलावा उनसे यह भी निवेदन है कि आलोचना से पहले कुछ दिन तक योग साधना भी करके देख लें ।

क्योंकि अब यहां चमत्कार नहीं होते?


भई लोगों अब तुम स्वयं चमत्कार करना सीख लो । तुम यहां कभी किसी से चमत्कार की उम्मीद मत करना, बेकार साबित होगी।

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