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‘सच का सामना’ वह ख्याल से कर रहे होते-हास्य व्यंग्य और कवितायें (sach se samana-hindi vyangya aur kavitaen)


ख्याल कभी सच नहीं होते
आदमी की सोच में बसते ढेर सारे
पर ख्याल कभी असल नहीं होते।
कत्ल का ख्याल आता है
कई बार दिल में
पर सोचने वाले सभी कातिल नहीं होते।
धोखे देने के इरादे सभी करते
पर सभी धोखेबाज नहीं होते।
हैरानी है इस बात की
कत्ल और धोखे के ख्याल भी
अब बीच बाजार में बिकने लगे हैं
सच की पहचान वाले लोग भी अब कहां होते।।

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आदमी का दिमाग काफी विस्तृत है और इसी कारण उस अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाता है। यह दिमाग उसे अगर श्रेष्ठ बनाता है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर उस पर कोई कब्जा कर ले तो वह गुलाम भी बन जाता है। इसलिये इस दुनियां में समझदार आदमी उसे ही माना जाता है जो बिना अस्त्र शस्त्र के दूसरे को हरा दे। अगर हम यूं कहे कि बिना हिंसा के किसी आदमी पर कब्जा करे वही समझदार है। हम इसे अहिंसा के सिद्धांत का परिष्कृत रूप भी कह सकते हैं।
अंग्रेजों ने भारत को डेढ़ सौ साल गुलाम बनाये रखा। वह हमेशा इसे गुलाम बनाये नहीं रख सकते थे इसलिये उन्होंने ऐसी योजना बनायी जिससे इस देश में अपने गोरे शरीर की मौजूदगी के बिना ही इस पर राज्य किया जा सके। इसके लिये उन्होंने मैकाले की शिक्षा पद्धति का सहारा लिया। बरसों से बेकार और निरर्थक शिक्षा पद्धति से इस देश में कितनी बौद्धिक कुंठा आ गयी है जिसे अभी दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम सच का सामना में देखा जा सकता है।
‘आप अपने पति का कत्ल करना चाहती थीं?’
‘आप अपनी पत्नी को धोखा देना चाहते थे?’
पैसे मिल जायें तो कोई भी कह देगा हां! हैरानी है कि समाचार चैनल कह रहे हैं कि ‘हां, कहने से पूरा हिन्दुस्तान हिल गया।’
सबसे बड़ी बात यह है कि लोग सच और ख्याल के बीच का अंतर ही भूल गये हैं। कत्ल का ख्याल आया मगर किया तो नहीं। अगर करते तो जेल में होते। अगर धोखे का ख्याल आया पर दिया तो नहीं फिर अभी तक साथ क्यों होते?
वह यूं घबड़ा रहे हैं
जानते हैं कि झूठ है सब
फिर भी शरमा रहे हैं।
सच की छाप लगाकर ख्याल बेचने के व्यापार से
वह इसलिये डरे हैं कि
उसमें अपनी जिंदगी के अक्स
उनको नजर आ रहे हैं।
कहें दीपक बापू
ख्यालों को हवा में उड़ते
सच को सिर के बल खड़े देखा है
कत्ल और धोखे का ख्याल होना
और सच में करना
अलग बात है
ख्याल तो खुद के अपने
चाहे जहां घुमा लो
सच बनाने के लिये जरूरत होती है कलेजे की
साथ में भेजे की
अक्ल की कमी है जमाने के
इसलिये सौदागर ख्याल को सच बनाकर
बाजार में बेचे जा रहे हैं।
ख्यालों की बात हो तो
हम एक क्या सौ लोगों के कत्ल करने की बात कह जायें
सामना हो सच से तो चूहे को देखकर भी
मैदान छोड़ जायें
पैसा दो तो अपना ईमान भी दांव पर लगा दें
सर्वशक्तिमान की सेवा तो बाद में भी कर लेंगे
पहले जरा कमा लें
बेचने वालों पर अफसोस नहीं हैं
हैरानी है जमाने के लोगों पर
जो ख्वाबों सच के जज्बात समझे जा रहे हैं
शायद झूठ में जिंदा रहने के आदी हो
हो गये हैं सभी
इसलिये ख्याली सच में बहे जा रहे हैं।

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

प्रचार का मुकाबला प्रचार से ही संभव-आलेख


समाज को सुधारने की प्रयास हो या संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का सवाल हमेशा ही विवादास्पद रहा है। इस संबंध में अनेक संगठन सक्रिय हैं और उनके आंदोलन आये दिन चर्चा में आते हैं। इन संगठनों के आंदोलन और अभियान उसके पदाधिकारियेां की नीयत के अनुसार ही होते हैं। कुछ का उद्देश्य केवल यह होता है कि समाज सुधारने के प्रयास के साथ संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का प्रयास इसलिये ही किया जाये ताकि उसके प्रचार से संगठन का प्रचार बना रहे और बदले में धन और सम्मान दोनों ही मिलता रहे। कुछ संगठनों के पदाधिकारी वाकई ईमानदार होते हैं उनके अभियान और आंदोलन को सीमित शक्ति के कारण भले ही प्रचार अधिक न मिले पर वह बुद्धिमान और जागरुक लोगों को प्रभावित करते हैं।
ईमानदारी से चल रहे संगठनों के अभियानों और आंदोलनों के प्रति लोगों की सहानुभूति हृदय में होने के बावजूद मुखरित नहीं होती जबकि सतही नारों के साथ चलने वाले आंदोलनों और अभियानों को प्रचार खूब मिलता है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको अपने लिये भावनात्मक रूप से ग्राहकों को जोड़े रखने का एक बहुत सस्ता साधन मानते हैं। ऐसे कथित अभियान और आंदोलन उन बृहद उद्देश्यों को पूर्ति के लिये चलते हैं जिनका दीर्घावधि में भी पूरा होने की संभावना भी नहीं रहती पर उसके प्रचार संगठन और पदाधिकारियों के प्रचारात्मक लाभ मिलता है जिससे उनको कालांतर में आर्थिक और सामाजिक उपलब्धि प्राप्त हो जाती है।

मुख्य बात यह है कि ऐसे संगठन दीवारों पर लिखने और सड़क पर नारे लगाने के अलावा कोई काम नहीं करते। उनके प्रायोजक भी इसकी आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि उनके लिये यह संगठन केवल अपनी सुरक्षा और सहायता के लिये होते हैं और उनको समझाईश देना उनके लिये संभव नहीं है। अगर इस देश में समाज सुधार के साथ संस्कार और संस्कृति के लिये किसी के मन में ईमानदारी होती तो वह उन स्त्रोतों पर जरूर अपनी पकड़ कायम करते जहां से आदमी का मन प्रभावित होता है।
भाररीय समाज में इस समय फिल्म, समाचार पत्र और टीवी चैनलों का बहुत बड़ा प्रभाव है। भारतीय समाज की नब्ज पर पकड़ रखने वाले इस बात को जानते हैं। लार्ड मैकाले ने जिस तरह वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति का निर्माण कर हमेशा के लिये यहां की मानसिकता का गुलाम बना दिया वही काम इन माध्यमों से जाने अनजाने हो रहा है इस बात को कितने लोगों ने समझा है?
पहले हिंदी फिल्मों की बात करें। कहते हैं कि उनमें काला पैसा लगता है जिनमें अपराध जगत से भी आता है। इन फिल्मों में एक नायक होता है जो अकेले ही खलनायक के गिरोह का सफाया करता है पर इससे पहले खलनायक अपने साथ लड़ने वाले अनेक भले लोगों के परिवार का नाश कर चुका है। यह संदेश होता है एक सामान्य आदमी के लिये वह किसी अपराधी से टकराने का साहस न करे और किसी नायक का इंतजार करे जो समाज का उद्धार करने आये। कहीं भीड़ किसी खलनायक का सफाया करे यह दिखाने का साहस कोई निर्माता या निर्देशक नहीं करता। वैसे तो फिल्म वाले यही कहते हैं कि हम तो जो समाज में जो होता है वही दिखाते हैं पर आपने देखा होगा कि अनेक ऐसे किस्से हाल ही में हुए हैं जिसमें भीड़ ने चोर या बलात्कारी को मार डाला पर किसी फिल्मकार ने उसे कलमबद्ध करने का साहस नहीं दिखाया। संस्कारों और संस्कृति के नाम पर फिल्म और टीवी चैनलों पर अंधविश्वास और रूढ़वादितायें दिखायी जाती हैं ताकि लोगों की भारतीय धर्मों के प्रति नकारात्मक सोच स्थापित हो। यह कोई प्रयास आज का नहीं बल्कि बरसों से चल रहा है। इसके पीछे जो आर्थिक और वैचारिक शक्तियां कभी उनका मुकाबला करने का प्रयास नहीं किया गया। हां, कुछ फिल्मों और टीवी चैनलों के कार्यक्रमों का विरोध हुआ पर यह कोई तरीका नहीं है। सच बात तो यह है कि किसी का विरोध करने की बजाय अपनी बात सकारात्मक ढंग से सामने वाले के दुष्प्रचार पर पानी फेरना चाहिये।

एक ढर्रे के तहत टीवी चैनलों और फिल्मों में कहानियां लिखी जाती हैं। यह कहानी हिंदी भाषा में होती है पर उसको लिखने वाला भी हिंदी और उसके संस्कारों को कितना जानता है यह भी देखने वाली बात है। मुख्य बात यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों के पीछे जो आर्थिक शक्ति होती है उसके अदृश्य निर्देशों को ध्यान में रखा जाता है और न भी निर्देश मिलें तो भी उसका ध्यान तो रखा ही जाता है कि वह किस समुदाय, भाषा, जाति या क्षेत्र से संबंधित है। विरोध कर प्रचार पाने वाले संगठन और उनके प्रायोजक-जो कि कोई कम आर्थिक शक्ति नहीं होते-स्वयं क्यों नहीं फिल्मों और टीवी चैनलों के द्वारा उनकी कोशिशों पर फेरते? इसके लिये उनको अपने संगठन में बौद्धिक लोगों को शामिल करना पड़ेगा फिर उनकी सहायता लेने के लिये उनको धन और सम्मान भी देना पड़ेगा। मुश्किल यही आती है कि हिंदी के लेखक को एक लिपिक समझ लिया है और उसे सम्मान या धन देने में सभी शक्तिशाली लोग अपनी हेठी समझते हैं। यकीन करें इस लेखक के दिमाग में कई ऐसी कहानियां हैं जिन पर फिल्में अगर एक घंटे की भी बने तो हाहाकार मचा दे।

इस समाज में कई ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं जो प्रचार माध्यमों में सामाजिक एकता, समरसता और सभी धर्मों के प्रति आदर दिखाने के कथित प्रयास की धज्जियां उड़ा सकती है। प्यार और विवाह के दायरों तक सिमटे हिंदी मनोरंजन संसार को घर गृहस्थी में सामाजिक, धार्मिक और अन्य बंधन तोड़ने से जो दुष्परिणाम होते हैं उसका आभास तक नहीं हैं। आर्थिक, सामाजिक और दैहिक शोषण के घृणित रूपों को जानते हुए भी फिल्म और टीवी चैनल उससे मूंह फेरे लेते हैं। कटु यथार्थों पर मनोरंजक ढंग से लिखा जा सकता है पर सवाल यह है कि लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला कौन है? जो कथित रूप से समाज, संस्कार और संस्कृति के लिये अभियान चलाते हैं उनका मुख्य उद्देश्य अपना प्रचार पाना है और उसमें वह किसी की भागीदारी स्वीकार नहीं करते।
टीवी चैनलों पर अध्यात्मिक चैनल भी धर्म के नाम पर मनोरंजन बेच रहे हैं। सच बात तो यह है कि धार्मिक कथायें और और सत्संग अध्यात्मिक शांति से अधिक मन की शांति और मनोरंजन के लिये किये जा रहे हैं। बहुत लोगों को यह जानकर निराशा होगी कि इनसे इस समाज, संस्कृति और संस्कारों के बचने के आसार नहीं है क्योंकि जिन स्त्रोतों से प्रसारित संदेश वाकई प्रभावी हैं वहां इस देश की संस्कृति, संस्कार और सामाजिक मूल्यों के विपरीत सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। उनका विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला। इसके दो कारण है-एक तो नकारात्मक प्रतिकार कोई प्रभाव नहीं डालता और उससे अगर हिंसा होती है तो बदनामी का कारण बनती है, दूसरा यह कि स्त्रोतों की संख्या इतनी है कि एक एक को पकड़ना संभव ही नहीं है। दाल ही पूरी काली है इसलिये दूसरी दाल ही लेना बेहतर होगा।

अगर इन संगठनों और उनके प्रायोजकों के मन में सामाजिक मूल्यों के साथ संस्कृति और संस्कारों को बचाना है तो उन्हें फिल्मों, टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में अपनी पैठ बनाना चाहिये या फिर अपने स्त्रोत निर्माण कर उनसे अपने संदेशात्मक कार्यक्रम और कहानियां प्रसारित करना चाहिए। दीवारों पर नारे लिखकर या सड़कों पर नारे लगाने या कहीं धार्मिक कार्यक्रमों की सहायता से कुछ लोगों को प्रभावित किया जा सकता है पर अगर समूह को अपना लक्ष्य करना हो तो फिर इन बड़े और प्रभावी स्त्रोतों का निर्माण करें या वहां अपनी पैठ बनायें। जहां तक कुछ निष्कामी लोगों के प्रयासों का सवाल है तो वह करते ही रहते हैं और सच बात तो यह है कि जो सामाजिक मूल्य, संस्कृति और संस्कार बचे हैं वह उन्हीं की बदौलत बचे हैं बड़े संगठनों के आंदोलनों और अभियानों का प्रयास कोई अधिक प्रभावी नहीं दिखा चाहे भले ही प्रचार माध्यम ऐसा दिखाते या बताते हों। इस विषय पर शेष फिर कभी।
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क्या टीवी और रेडियो के समाचार उदघोषकों को पत्रकार माना जा सकता है-आलेख


समाचार टीवी चैनलों पर काम करने वाले अनेक उद्षोषक स्वयं को टीवी पत्रकार कहकर प्रचारित करते हैं पर यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि वहां उनकी पत्रकार के रूप में क्या भूमिका होती है? जहां तक समाचार पत्र पत्रिकाओं का सवाल है तो वहां काम करने वाले सभी पत्रकार नहीं कहलाते। वहां कंपोजिंग करने वाले आपरेटर या प्रूफरीडर भले ही स्वयं को पत्रकार कहते हैं पर तकनीकी रूप से वहां काम करने वाले सदस्य उनको इस तरह का दर्जा नहीं देते। लगता है कि उद्घोषक शब्द में वजन कम होने से पत्रकार शब्द का लोग अधिक उपयोग कर रहे हैं।

पत्रकार से आशय यह है कि जो समाचार और संवाद का प्रेषण,संकलन और संपादन का कार्य करने के साथ उस पर अपना नजरिया रखने की विद्या से जुड़े होते हैंं। इनमें संवाद प्रेषण करने वाले को संवाददाता कहा जाता है कि न कि पत्रकार। पत्रकार सीधे रूप से समाचार के संकलन और संपादन के साथ ही उस पर अपना विचार लिखने का काम करता है। समाचार या संपादकीय लिखने के बाद उसकी भूमिका समाप्त हो जाती है और उसके बाद कंपोजीटर और प्रूफरीडर काम देखते हैं। यह अलग बात है कि आजकल कई जगह हाकर भी संवाददाता की भूमिका निभाते हैं और जो नहीं निभाते वह भी अपने को पत्रकार कहते हैं।

टीवी या रेडियो पर समाचार को सुनाना कोई सरल या सहज कम काम नहीं हैं। उसमें भी मेहनत और कौशल की आवश्कयता होती है। रेडियो पर जिन लोगों ने देवकीनंदन पाडे,इंदू वाही और अशोक वाजपेयी की आवाज में समाचार सुन चुका हो वह जानता है कि यह एक कला है जो हरेक को नहीं आती। इसके बावजूद वह कभी अपने को रेडियो पत्रकार नहीं कहते थे क्योंकि वह समाचार प्रेषण, संकलन और संपादन की विधा से जुड़े हुए नहीं थे। यह एक वास्तविक तथ्य है कि पत्रकार का काम केवल इन्हीं चार विधाओं तक ही सीमित है। उसके बाद पाठक या दर्शक तक समाचार तक पहुंचाने वाले लोग पत्रकार की श्रेणी में नहीं आते। हो सकता है कि कुछ लोग समाचारों के दौरान अपने स्वर या शब्दों से लोगों के जज्बातों को उभारने का काम करने पर यह दावा करें कि वह अपने विचार देकर वही काम करते हैं जो संपादक अपने समाचार पत्र-पत्रिका में संपादकीय लिखकर करता है तो वह भी जमता नहीं।
कहीं आग लगी है तो उसके डरावने का बयान या कहीं बाढ़ आयी तो उसके नुक्सान के दृश्य दिखाते हुए वीभत्सापूर्ण शब्द का उपयोग लोगों के मर्म छेदने को संपादकीय लेखन से नहीं जोड़ा जा सकता। संपादकीय लेखन में संपादक अपना दृष्टिकोण कई तरह के स्त्रोतों के आधार पर लिखा जाता है और उसमें किसी एक घटना विशेष के साथ अन्य घटनाओं को भी समावेश किया जाता है जबकि टीवी के समाचार उद्घोषकों के लिये यह संभव नहीं होता।

हो सकता है कि कुछ समाचार उद्घोषक समाचार और संपादन के विद्याओं से जुड़े हों पर अभी तक समाचार पत्र पत्रिकाओं में उनके बारे में जो जानकारी पढ़ने को मिलती है उसके आधार पर तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह कहीं पत्रकारिता जैसा कुछ कर रहे हों। यह उनके साक्षात्कारों के आधार पर ही कहा जा सकता है जिसमें वह उनके नाम के आगे टीवी पत्रकार शब्द जुड़ा होता है पर पढ़ने पर यह पता ही नहीं लगता कि वह समाचार लेखन,प्रेषण,संकलन,और संपादन से किसी रूप में जुड़े हैं। उससे तो यही पता लगता है कि वह समाचार वाचन से जुड़े हैं। हां, उनके द्वारा लिये गये साक्षात्कारों को पत्रकारिता का हिस्सा माना जा सकता है बशर्ते वह प्रश्न आदि स्वयं तैयार करने के साथ ही मौलिक रूप कल्पना कर कार्यक्रम बनाते होंं और साथ में उस पर रख गया नजरिया उनका अपना हो। वैसे टीवी उद्घोषकों को देखकर लगता नहीं कि वह इतनी मेहनत करते होंगे क्योंकि क्योंकि कैमरे के समक्ष उनके जो चेहरे पर ताजगी दिखती है। समाचार संकलन और संपादन का काम करने के बाद इतनी ताजगी रहना संभव नहीं है। फिर उनको मेकअप रूप में तैयार होने का समय भी नहीं मिल सकता।

अनेक सम्मानीय लोग काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा की खातिर कहते हैं कि समाचार टीवी चैनलों सहित सभी प्रचार माध्यमों में देर रात तक महिलाओं की ड्यूटी नहीं लगाना चाहिये। देश में हुई कुछ घटनाओं को देखते हुए वह ऐसा कहते हैं। उनका यह तर्क भी है कि खबर सुनने वाले तो केवल खबर की विषय सामग्री सुनना ही पसंद करते हैं इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन सुना रहा है? उस दिन एक सज्जन कह रहे थे कि इतने मधुर स्वर वाले उद्घोषकों की आवाज में समाचार सुने और उनमें पुरुष भी थे। अब वह नहीं हैं तो क्या रेडियो पर समाचार नहीं सुन रहे?

एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो लिखा था कि पहले भी समाचार पत्रों में महिलायें काम करतीं थीं पर उनको शाम के बाद की ड्यूटी नहीं दी जाती थी। तब भी समय बुरा था तो आज तो और भी बुरा हो गया है तब भला क्यों महिलाओं की रात्रिकालीन ड्यूटी लगायी जाती है। वैसे इस मामले में किसी नियम बनाने की मांग की बजाय प्रबंधकों को स्वयं ही कोई आचार संहिता बनाना चाहिये।

हरेक के अपने अपने तर्क हैं। क्या कहा जा सकता हैं। दरअसल बात वहीं अटकती है कि कमाते तो सभी हैं पर व्यवसायिक दृष्टिकोण किसी किसी में होता है। हिंदी भाषा के लेखक भले ही कुछ न कमाते हों पर हिंदी भाषियों के मनोरंजन के नाम पर खूब कमाई है। प्रचार माध्यमों ने तय कर रखा है कि समाचार भी मनोरंजन की तरह परोसे जायें क्योंकि उनको अपनी सामग्री पर भरोसा नहीं है। इसलिये उनको लगता है कि सुंदर चेहरे देखकर ही कोई उनके समाचार सुनेगा। इसलिये आकर्षक चेहरे वाले पुरुष और महिलाओं को उद्घोषक बना देते हैं क्योंकि बाकी काम तो वहां के पत्रकारों को करना है। ऐसा लगता है कि टीवी के पत्रकार भी अपने को दोयम दर्जे का अनुभव करते हैं और यही कारण है कि टीवी समाचार अब समाचार कम मनोरंजन अधिक लगते हैं और जो लोग खबरें एक तरह से चाटने के आदी हैं उन्हें बहुत निराशा लगती है। बहुत लोग ऐसे हैं कि किसी अखबार के कोने में दबी रूस के साइबेरिया में बिल्ली द्वारा चूहा खा लेने की खबर को भी पढ़ना नहीं छोड़ते (यह बात एक मजाक की तरह कही जा रही है)। समाचार टीवी चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में दस मिनट भी समाचार नहीं देते। बाकी पचास मिनट तो उनकों हास्य,फिल्म और क्रिकेट के लिये चाहिये।

ऐसे पढ़ाकूओं को अगर यह पता लग जाये कि कहीं ब्लाग भी लिखा जा रहा है तो हो सकता है कि टीवी चैनलों को देखना छोड़ यहां अपनी भंडास निकालने लगें। न आता हो तो कहीं से टाइपिंग भी सीख आयेंगे। हिंदी टाईप नहीं चलती तो रोमन से अंग्रेजी लिखकर ही हिंदी लिख लेंगे। गुस्सा तो यहां भी निकलेगा कि यार कोई हमारे पढ़ने लायक कोई लिखता क्यों नहीं! भला किसमें बूता है कि इतनी खबरें लिख सके-यह समझाना उनको कठिन है। इस लेख का उद्देश्य किसी प्रकार की आलोचना करना नहीं है क्योंकि जो उद्घोषक यह काम कर रहे हैं वह तो प्रशंसनीय हैं पर जो नहीं कर रहे तो यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि उद्घोषणा के काम में भी परिश्रम और कौशल की आवश्यकता होती है। बात केवल इतनी है कि क्या उनको पत्रकार माना जा सकता है?
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गरीबों का नाम बहुत बड़ा, दर्शन होता है छोटा-हास्य व्यंग्य


एक टीवी चैनल पर प्याज के बढती कीमतों पर लोगों के इन्टरव्यू आ रहे थे, और चूंकि उसमें सारा फोकस मुंबई और दिल्ली पर था इसलिये वहाँ के उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों से बातचीत की जा रही थी। प्याज की बढती कीमतें देश के लोगों के लिए और खास तौर से अति गरीब वर्ग के लिए चिंता और परेशानी का विषय है इसमें कोई संदेह नहीं है पर जिस तरह उसका रोना उसके ऊंचे वर्ग के लोग रोते हैं वह थोडा अव्यवाहारिक और कृत्रिम लगता है। उच्च और मध्यम वर्ग के लोग यही कह रहे थे किश्प्याज जो पहले आठ से दस रूपये किलो मिल रहा था वह अब पच्चीस रूपये होगा। इसे देश का गरीब आदमी जिसका रोटी का जुगाड़ तो बड़ी मुशिकल से होता है और वह बिचारा प्याज से रोटी खाकर गुजारा करता है, उसका काम कैसे चलेगाश्?

अब सवाल है कि क्या वह लोग प्याज की कीमतों के बढने से इसलिये परेशान है कि इससे गरीब सहन नहीं कर पा रहे या उन्हें खुद भी परेशानी है? या उन्हें अपने पहनावे से यह लग रहा था कि प्याज की कीमतों के बढने पर उनकी परेशानी पर लोग यकीन नहीं करेंगे इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपने साक्षात्कार को प्रभावी बना रहे थे। हो सकता है कि टीवी पत्रकार ने अपना कार्यक्रम में संवेदना भरने के लिए उनसे ऐसा ही आग्रह किया हो और वह भी अपना चेहरा टीवी पर दिखाने के लिए ऐसा करने को तैयार हो गये हौं। यह मैं इसलिये कह रहा हूँ कि एक बार मैं हनुमान जी के मंदिर गया था और उस समय परीक्षा का समय था। उस समय कुछ भक्त विधार्थी मंदिर के पीछे अपने रोल नंबर की पर्ची या नाम लिखते है ताकि वह पास हो सकें। वहां ऐक टीवी पत्रकार एक छात्रा को समझा रहा थाश्आप बोलना कि हम यहाँ पर्ची इसलिये लगा रहे हैं कि हनुमान जीं हमारी पास होने में मदद करें।श्
उसने और भी समझाया और लडकी ने वैसा ही कैमरे की सामने आकर कहा। वैसे उस छात्र के मन में भी वही बातें होंगी इसमें कोई शक नहीं था पर उसने वही शब्द हूबहू बोले जैसे उससे कहा गया था।

प्याज पर हुए इस कार्यक्रम में जैसे गरीब का नम लिया जा रहा था उससे तो यही लगता था कि यह बस खानापूरी है। मेरे सामने कुछ सवाल खडे हुए थे-
क्या इसके लिए कोई ऐसा गरीब टीवी वालों को नहीं मिलता जो अपनी बात कह सके। केवल उन्हें शहरों में उच्च और मध्यम वर्ग के लोग ही दिखते हैं, और अगर गरीब नहीं दिखते तो यह कैसे पता लगे कि गरीब है भी कि नहीं। जो केवल प्याज से रोटी खाता है उसका पहनावा क्या होगा यह हम समझ सकते हैं तो यह टीवी पत्रकार जो अपने परदे पर आकर्षक वस्त्र पहने लोगों को दिखाने के आदी हो चुके हैं क्या उससे सीधे बात कराने में कतराते हैं जो वाकई गरीब है। उन्हें लगता है कि गरीब के नाम में ही इतनी ही संवेदना है कि लोग भावुक हो जायेंगे तो फिर फटीचर गरीब को कैमरे पर लाने की क्या जरूरत है। जो गरीब है उसे बोलने देना का हक ही क्या है उसके लिए तो बोलने वाले तो बहुत हैं-क्या यही भाव इन लोगों का रह गया है। आजादी के बाद से गरीब का नाम इतना आकर्षक है कि हर कोई उसकी भलाई के नाम पर राजनीति और समाज सेवा के मैदान में आता है पर किसी वास्तविक गरीब के पास न उन्हें जाते न उसे पास आते देखा जाता है। जब कभी पैट्रोल और डीजल की दाम बढ़ाये जाते है तो मिटटी के तेल भाव इसलिये नही बढाए जाते क्योंकि गरीब उससे स्टोव पर खाना पकाते हैं। जब कि यह वास्तविकता है कि गरीबों को तो मिटटी का तेल मिलना ही मुश्किल हो जाता है। देश में ढ़ेर सारी योजनाएं गरीबों के नाम पर चलाई जाती हैं पर गरीबों का कितना भला होता है यह अलग चर्चा का विषय है पर जब आप अपने विषय का सरोकार उससे रख रहे हैं तो फिर उसे सामने भी लाईये। प्याज की कीमतों से कोई मध्यम वर्ग कम परेशान नहीं है और अब तो मेरा मानना है कि मध्यम वर्ग के पास गरीबों से ज्यादा साधन है पर उसका संघर्ष कोई गरीब से कम नहीं है क्योंकि उसको उन साधनों के रखरखाव पर भी उसे व्यय करने में कोई कम परेशानी नहीं होती क्योंकि वह उनके बिना अब रह नहीं सकता और अगर गरीब के पास नहीं है तो उसे उसके बिना जीने की आदत भी है। पर अपने को अमीरों के सामने नीचा न देखना पडे यह वर्ग अपनी तकलीफे छिपाता है और शायद यही वजह है कि ऐक मध्यम वर्ग के व्यक्ति को दूसरे से सहानुभूति नहीं होती और इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपनी समस्या भी कह जाते है और अपनी असलियत भी छिपा जाते हैं। यही वजह है कि टीवी पर गरीबों की समस्या कहने वाले बहुत होते हैं खुद गरीब कम ही दिख पाते हैं। सच तो यह है कि गरीबों के कल्याण के नारे अधिक लगते हैं पर उनके लिये काम कितना होता है यह सभी जानते हैं।

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