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सम्मान वापसी और रचनात्मकता का वैचारिक संघर्ष-हिन्दी लेख


          अब हम उन्हें दक्षिणपंथी कहें या राष्ट्रवादी  जो अब पुराने सम्मानीय लेखकों के सामान वापसी प्रकरण से उत्तेजित हैं और तय नहीं कर पा रहे कि उनके प्रचार का प्रतिरोध कैसे करें?  इस लेखक को जनवादी और प्रगतिशील लेखक मित्र दक्षिणपंथी श्रेणी में रखते हैं। मूलत हम स्वयं  को भारतीय अध्यात्मिकवादी मानते हैं शायद यही कारण है कि दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी लेखकों से स्वभाविक करीबी दिखती है-यह अलग बात है कि थोड़ा आगे बढ़े तो उनसे भी मतभिन्नता दिखाई देगी।  एक बात तय रही कि दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अंतर्जालीय लेखकों से हमारी करीबी दिखेगी क्योंकि जिसे वह हिन्दू धर्म कहते हैं हम उसे भारतीय अध्यात्मिक समूह कहते हैं।  दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी वैचारिक युद्ध में जनवादियों और प्रगतिशीलों जैसी रचना शैली रखना चाहते हैं जो कि पश्चिम तकनीकी पर आधारित है जो कि कारगर नहीं हो पाती।

                                   पहले तो दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को अपने हृदय से यह कुंठा निकाल देना चाहिये कि वह जनवादी और प्रगतिशील लेखकों की तरह रचना नहीं लिख सकते। हम सीधी बात कहें नयी रचनायें होनी चहिये पर यह हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान नारे वालों के लिये बाध्यता नहीं है।  रामायण, महाभारत, भागवत, श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही वेद और उपनिषद जैसी पावन रचनायें पहले से ही अपना वजूद कायम किये हैं। संस्कृत साहित्य इस तरह अनुवादित हो गया है कि वह हिन्दी की मौलिक संपदा लगता है।  उसके बाद हिन्दी का मध्य काल जिसे स्वर्ण काल की रचनायें तो इतनी जोरदार हैं कि प्रगतिशील और जनवादी अपनी नयी रचनाओं के लिये पाठक एक अभियान की तरह इसलिये जुटाते हैं क्योंकि हमारा पूरा समाज अपनी प्राचीन रचनाओं से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है और सहजता से उसे नहीं भूलता।  इतनी ही नहीं आज का पाठक भी तुलसी, रहीम, कबीर, मीरा, सूर तथा अन्य महाकवियों की रचनाओं से इतना मंत्रमुग्ध है कि वह नयी रचना उनके समकक्ष देखना चाहता है।  प्रगतिशील और जनवादियोें को अपनी रचना जनमानस में लाने के लिये पहलीे पाठकों की स्मरण शक्ति ध्वस्त करना होती है इसलिये वह अनेक तरह के स्वांग रचते हैं जबकि दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को इसकी अपनी प्राचीन बौद्धिक संपदा के होते इसकी आवश्कता नहीं होती।  आपने देखा होगा कि कहीं अगर श्री मद्भागवत कथा होती है तो वह लोग उसके श्रवण के लिये स्वयं पहुंच जाते हैं पर कहीं कवि सम्मेलन हो तो उसका विज्ञापन करना पड़ता है। हमारी प्राचीन साहित्य संपदा इतनी व्यापक है कि वह पूरे जीवन पढ़ते और सुनते रहो वह खत्म नहीं होती सांसों की संख्या कम पड़ जाती है।  प्रगतिशील और जनवादी ऐसे मजबूत बौद्धिक समाज में सेंध लगाने के लिये संघर्ष करते हुए सम्मान, पुरस्कार, और कवि सम्मेलनों का खेल दिखाते हैं। उनकी सक्रियता उन्हें प्रचार भी दिलाती रही है। इतने संघर्ष के बावजूद यह लेखक पुराने बौद्धिक किले में सेंध नहीं लगा सके यह निराशा तो उनके मन में ही थी इस पर अब उन्हें प्रचार माध्यमोें से मिलने वाला समर्थन भी बदले हुए समय में कम होता जा रहा है। प्रचार माध्यम आजकल दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी विद्वानों के कथित विवादास्पद बयानों पर बहसे अधिक करने लगे हैं और प्रगतिशीलों और जनवादियों को लगता है कि यही पांच साल चला तो उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।  मनुस्मृति के एक श्लोक और रामचरित मानस के एक दोहे का हिन्दी में अर्थ से अनर्थ कर इन लोगों ने समूची प्राचीन रचनाओं को ही भ्रष्ट प्रचारित कर पिछले साठ वर्षों से अपना पाठक समाज जुटाया जो अब इनसे दूर होने लगा है।

                                   प्रगतिशील और जनवादियों की रचनायें समाज को टुकड़ों में बांटकर देखती हैं।  पुरुष महिला, युवा बूढ़ा, गरीब अमीर, अगड़ा पिछड़ा और सवर्ण, मजदूर मालिक और बेबस और शक्तिशाली के बीच संघर्ष तथा समस्या  के बीच यह लोग पुल की तरह अपनी जगह बनाते हैं।  जनवादी रचनायें समाज में मानवीय स्वभाववश चल रहे संघर्षों में कमजोर पक्ष को राज्य या जनसंगठन के आधार पर विजयी दिखाती हैं तो प्रगतिशील  रचनायें संघर्ष तथा समस्या को कागज पर लाकर समाज या राज्य को सोचने के लिये सौंपती भर हैं। विजय या निराकारण कोई उपाय वहीं नहीं बतातीं।  भारतीय अध्यात्मिकवादी इन संघर्षों और समस्याओें को सतह पर लाते हैं पर वह समाज में चेतना लाकर उसे स्वयं ही जूझने के लिये प्रेरित करते हैं। एक अध्यात्मिकवादी लेखन के अभ्यासी के नाते हमें यह लगने लगा है कि अपने प्राचीन ज्ञान से परे रहने के कारण ही हमारे राष्ट्र में संस्कारों, संस्कृति आज सामाजिक संकट पैदा हुआ है।  अभी एक फिल्म आयी थी ओ माई गॉड। उसकी कहानी को हम अध्यात्मिकवादी रचना मान सकते हैं क्योंकि वह चेतना लाने की प्रेरणा देती है न कि समस्या को अधूरा छोड़ती है।

                                   प्रगतिशील और जनवादी सुकरात, शेक्सपियर और जार्ज बर्नाड शॉ जैसे पश्चिमी रचनाओं को समाज में लाये। उनका लक्ष्य तुलसी, कबीर, रहीम, मीरा, सूर की स्मृतियां विलोपित करना था। ऐसा नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि पश्चिम में विद्वान नहीं हुए पर उनकी रचनायें वह रामायण, भागवत, महाभारत, रामचरित मानस और गुरुग्रंथ साहिब जैसी व्यापक आधार वाली नहीं हैं। इसके अलावा चाणक्य और विदुर जैसे दार्शनिक हमारे पास रहे हैं।  ऐसे में सुकरात और स्वेट मार्डेन जैसे पश्चिमी दार्शनिकों को बौद्धिक जनमानस में वैसी जगह नहीं मिल पायी जैसी कि प्रगतिशील और जनवादी चाहते थे। महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे देश में काव्यात्मक शैली अधिक लोकप्रिय रही है। एक श्लोक या दोहे में ऐसी बात कही जाती है जिसमें ज्ञान और विज्ञान समा जाता है। गद्यात्मक रचनायें अधिक गेय नहीं रही जबकि प्रगतिशील और जनवादी इस विधा में अधिक लिखते हैं। जनवादी और प्रगतिशील भारतीय समाज के अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार करते हैं पर उससे बचने का मार्ग वह नहीं बताते। उनकी प्रहारात्मक शैली समाज में चिढ़ पैदा करती है। जबकि हम देखें कि यह कार्य भगवान गुरुनानकजी संतप्रवर कबीर, और कविवर रहीम ने भी किया पर उन्होंने परमात्मा के नाम स्मरण का मार्ग भी बताया।  समाज उन्हें आज भी प्रेरक मानता है। इसलिये यह कहना कि भारतीय समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है गलत है।

                                   दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की ताकत देश में वर्षों से प्रवाहित अध्यात्मिक ज्ञान ही है जिसके अध्ययन करने पर ही ऐसी तर्कशक्ति मिल सकती जिससे  प्रगतिशील और जनवादियों से बहस के चुनौती दी जा सके।  इस लेखक ने अनुभव किया है कि जनवादी  बहस के समय भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के नाम से ही चिढ़ते हैं।  मनुस्मृति में उनके अवर्णों और स्त्री के प्रति अपमान ही नज़र आता है।  जबकि उसी मनुस्मृति में स्त्री के साथ जबरन संपर्क करने वाले को ऐसी कड़ी सजा की बात कही गयी है जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब हम ऐसे तर्क देते हैं तो वह मुंह छिपाकर भाग जाते है।  एक मजेदार बात यह कि जनवादी हिन्दू धर्म के अलावा सभी धर्मों मेें गुण मानते हैं।  यह राज हमारे आज तक समझ में नहीं आया पर अब लगने लगा है कि उनके पास भारतीय बौद्धिक समाज में पैठ बनाने के लिये यह नीति अपनाने को अलावा कोई चारा भी नहीं है।  दूर के ढोल सुहावने की तर्ज पर ही  वह पाश्चात्य विचाराधारा के सहारे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते है।

                                   इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा के लोगों अब ऐसे अध्यात्मिक अभ्यासियों को  साथ लेना चाहिये जो गृहस्थ होने के साथ ही लेखन कार्य में सक्रिय हों। पेशेवर धार्मिक शिखर पुरुषों के पास केवल ज्ञान के नारे रट्टे हुए हैं और वह आस्था पर चोट की आड़ लेकर आक्रामक बने रहते हैं।  हमने जब मनुस्मृति और विदुर के संदेश लिखना प्रारंभ किये थे तब टिप्पणीकर्ताओं ने साफ कर दिया था कि आप किसी सम्मान की आशा न करें क्योंकि आप धाराओं से बाहर जाकर काम कर रहे हैं। हम करते भी नहीं।  सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में वातावरण रहा है उसके चलते मनुस्मृति के संदेशों की व्याख्या करने वालो को सम्मानित करने का अर्थ हैं अपने पांव कुल्हारी मारना।  हम आज भी नहीं चाहेंगे कि हमें सम्मान देकर मनुवादी होने का कोई दंश झेले पर दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अब अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ायें-यह हमारी कामना है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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xबाहूबली फिल्म की सफलता पर चर्चा-हिन्दी लेख


                              अंग्रेजी संस्कारों ने हमारे देश में रविवार को सामान्य अवकाश का दिन बना दिया है। रविवार के दिन सुबह भजन या अध्यात्मिक सत्संग प्रसारित करने वाले टीवी चैनल खोलकर देखें तो वास्तव में शांति मिलती है। चैनल ढूंढने  के लिये रिमोट दबाते समय अगर कोई समाचार चैनल लग जाये तो दिमाग में तनाव आने लगता है-उसमें वही भयानक खबरें चलती हैं जो एक दिन पहले दिख चुकी हैं- और जब तक मनपसंद चैनल तक पहुंचे तक वह बना ही रहता है।  बाद में भजन या सत्संग के आनंद से मिले अमृत पर ही उस तनाव का निवारण हो पता है।

                              वैसे तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार सभी दिन हरि के माने जाते हैं पर अंग्रेजों ने गुलामी से मुक्ति देते समय शिक्षा, राजकीय प्रबंध व्यवस्था तथा रहन सहन के साथ ही भक्ति में भी अपने सिद्धांत सौंपे जिसे हमारे सुविधाभोगी शिखर पुरुषों से सहजता से स्वीकार कर लिय।  जैसा कि नियम है शिखर पुरुषों  का अनुसरण  समाज करता ही है।  हमें याद है पहले अनेक जगह मंगलवार को दुकानें बंद रहती थीं।  वणिक परिवार का होने के नाते मंगलवार हमारा प्रिय दिन था।  बाद में चाकरी में रोटी की तलाश शुरु हुई तो रविवार का दिन ही अध्यात्मिक के लिये मिलने लगा।  इधर हमारे धार्मिक शिखर पुरुषों-उनके अध्यात्मिक ज्ञानी होने का भ्रम कतई न पालें-ने जब देखा कि उनके पास आने वाली भीड़ में नौकरी पेशा तथा बड़ा व्यवसाय या उद्योग चलाने वाले ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो रविवार के दिन ही  अवकाश लेते हैं तो उन्होंने उसे ही मुख्य दिवस बना दिया।

                              इधर प्रचार माध्यम भी रविवार के दिन ‘सुपर संडे’ बनाने का प्रयास करते हैं और उनके स्वामियों के प्रायोजित अनेक संगठन इसी दिन कोई प्रदर्शन आदि कर उनके लिये प्रचार सामग्री बनाते हैं या फिर कोई बंदा सनसनीखेज बयान देता है जिससे उन्हें सारा दिन प्रचारित कर बहस चलाने का अवसर मिल जाता है।  अन्ना आंदोलन और चुनाव के दौरान इन प्रचार माध्यमों को ऐसे अवसर खूब मिले पर अब लगता है कि अब शायद ऐसा नहीं हो पा रहा है। फिर भी महिलाओं के प्रति धटित अपराध अथवा धार्मिक नेताओं के बयानों से यह अपने विज्ञापन प्रसारण के बीच सनसनीखेज सामग्री निकालने का प्रयास कर रहे हैं। यह अलग बात कि जम नहीं पा रहा है।

                              इधर बाहुबली फिल्म की सफलता के अनेक अर्थ निकाले जा रहे हैं।  यह अवसर भी प्रचार माध्यम स्वयं देते है-यह पता नहीं कि वह अनजाने में करते हैं या जानबुझकर-जब बॉलीवुड के सुल्तान और बादशाह से बाहूबली फिल्म के नायक की चर्चा कर रहे हैं। तब अनेक लोगों के दिमाग में यह बात आती तो है कि अक्षय कुमार, अजय देवगन, सन्नी देयोल, अक्षय खन्ना और सुनील शेट्टी जैसे अभिनेता भी हैं जो फिल्म उद्योग को भारी राजस्व कमा कर देते हैं।  अक्षय कुमार के लिये इनके पास कोई उपमा ही नहीं होती।  यह अभिनेता अनेक बार आपस में काम कर चुके हैं पर उसकी चर्चा इतने महत्व की नहीं होती जैसी सुल्तान और बादशाह के आपस में अभिवादन करने पर ही हो जाती है।  अंततः फिल्म और टीवी भावनाओं पर ही अपना बाज़ार चमकाते हैं और इससे जुड़े लोगों का पता होना चाहिये कि उनके इस तरीके पर समाज में जागरुक लोग रेखांकित करते हैं।  सभी तो उनके मानसिक गुलाम नहीं हो सकते। हम ऐसा नहीं सोचते पर ऐसा सोचने वाले लोगों की बातें सुनी हैं इसलिये इस विशिष्ट रविवारीय लेख में लिख रहे हैं।

हरिओम, जय श्रीराम, जय श्री कृष्ण

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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मुट्ठी में आता तो किलो कई सुख भर लेते-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


पैसे की भूख में इंसान

दिल के जज़्बातों से नीयत चुराकर

नालायकी से हाथ मिला देता है।

दूसरे की भूख मिटाने के लिये

जिस हाथ से बनाता खाना

उसी से कंकड़ मिला देता है।

अपनी जिम्मेदारी के लिये

थामे है जिस हाथ में कलम

वही रिश्वत से मिला देता है।

कहें दीपक बापू अपने हाथ में

आदर्श का झंडा उठाये है हर इंसान

मौका पड़ते ही बेईमानी से मिला देता है।

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मुट्ठी में अगर आता सुख तो हम कई किलो भर लेते,

खरीदे गये सामान से मिलता मजा तो ढेर घर में भर लेते।

कहें दीपक बापू सोए तो आलस चले तो थकान ने घेरा

रोज पैदा होती नयी चाहत पर कामयाबी से मन भरता नहीं

वरना हम उम्मीदों का भारी बोझ अपने कंधे पर धर लेते।

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टकटकी लगाये हम उनकी नज़रों में आने का इंतजार करते हैं,

वह उदासीन हैं फिर भी हम उस यार पर मरते हैं।

कहें दीपक बापू कोई हमदर्द बने यह चाहत नहीं हमारी

दिल से घुटते लोग सीना तानते पर तन्हाई से डरते है।ं

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रिश्ते बनते जरूर कुदरत से मगर निभाये मतलब से जाते हैं,

कहीं काम से दाम मिलते कहंी दाम से काम बनाये जाते हैं।

नीयत के खेल में खोटे लोग भी खरे सिक्के जैसे सजते

वफा की चाहत में बदहवास लोग शिकार बनाये जाते हैं।

कहें दीपक बापू दिल के सौदागर जिस्मफरोशी नहीं करते

मोहब्बत के जाल में कमजोर दिमाग लोग फंसाये जाते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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भारत को इंडिया से जूझता पाया-हिन्दी व्यंग्य कविता


15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस का
महत्व हम नहीं समझे
या कोई हमें समझा नहीं पाया।

जिस अंग्रेजी भाषा से लड़ी हिन्दी
राष्ट्रभाषा के सम्मान के लिये
हमने उसे आज तक लड़ते पाया।

स्वदेशी का नारा लगा था
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
खोई नहीं उसकी यादें
यदाकदा उसे अब भी सुनते पाया।

अंग्रेजों के गुलामी और मालिक के खेल
क्रिकेट को मनोरंजन का धर्म बना लिया
पागलों की तरह लोगों को
गेंद की तरह उसके पीछे भागते पाया।

आज अंग्रेजों की धरती पर गये लोग
इतराते हैं उनकी तरह
भारत को इंडिया से जूझते पाया।

कहते हैं कि जो अंग्रेजी नहीं पढ़ेगा
वह तरक्की की राह नहीं चलेगा
समझ में नहीं आता
अंग्रेजों को किसने कब कैसे क्यों और कहां
इस देश से भगाया।

कहें दीपक सभी के साथ
हम भी भारत माता की जय का
नारा लगा लेते हैं
हम ढूंढते उसका अपना घर
जिसका पता किसी ने नहीं बताया।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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सहज और असहज योग से जुड़ाव सभी का है-श्रीमद्भागवत गीता के आधार पर चिंत्तन लेख


      श्रीमद्भागवत गीता की चर्चा बहुत होती है पर इसके ज्ञान की समझ और फिर उसकी बताई राह पर चलने वाले कितने हैं इस पर कोई विचार नहीं करता। अभी हमने टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में श्रीमद्भागवत गीता पर बहुत चर्चा देखी और सुनी।  एक माननीय न्यायाधीश ने श्रीमद्भागवत गीता के विषय को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव दिया।  उस पर देश में कोहराम मच गया है।  इस बहस में कुछ सवाल ऐसे उठे जिन पर हंसी आई तो कुछ जवाब ऐसे आये जिन पर आश्चर्य हुआ। जैसा कि हम जानते हैं कि टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में केवल प्रायोजित तथा धनिकों से सम्मानित बुद्धिजीवियों की बात को ही महत्व मिलता है।  अंतर्जाल पर हम जैसे असंगठित, मौलिक तथा फोकटिया लेखकों का अपने पैसे खर्च कर भड़ास निकालने का अवसर मिलता है यही कम नहीं है मगर पंरपरागत प्रचार माध्यमों में आये विद्वान नाम के साथ नामा पाने के लिये कृत्रिम भड़ास से सजे हुए आते हैं। इस तरह की बहसों में एक बात मुख्य रूप से मानी गयी कि यह केवल हिन्दूओं का ही  ग्रंथ है।

      हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये श्रीमद्भागवत गीता का महत्व इतना है कि वह इसके शब्दों के शाब्दिक, लाक्षणिक तथा व्यंजनात्मक तीनों विधाओं के अर्थ को न केवल सहजता से समझते हैं वरन् उसे आत्मसात करने का प्रयास भी करते हैं।  कम से कम यह लेखक तो यह अनुभव करता है कि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों को लेकर लोग इतने गंभीर नहीं लगते जितनी इसकी पवित्रता को स्वीकार करने के पाखंड में व्यस्त हैं।

      जिन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात किया है या प्रयास कर रहे हैं वह जानते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता जीवन जीने की वैसी ही कला है जैसी कि योग साधना को माना जाता है।  पतंजलि योग सूत्र के रूप में हमारे पास देह, मन और विचारों के विकार निकालने की विद्या है।  अगर कोई सांसरिक विषयों से संपर्क न रखकर पूर्ण सन्यासी जीवन बिताये तो पतंजलि योग उसके लिये महान विज्ञान है। श्रीमद्भागवत गीता में यह बताया जाता है कि सांसरिक विषयों के साथ जुड़कर भी सहज भाव से जीवन जी सकते हैं। कहा जाता है कि  श्रीमद्भागवत गीता में वेदों का पूर्ण सार है। ठीक उसी तरह पतंजलि योग के भी सूत्रों का सार उसमें हैं।  श्रीमद्भागवत गीता कुछ सिखाती नहीं है वरन्  सांसरिक विषयों का सच बताती है।  यह विश्व का अकेला ऐसा  ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान भी है।  इस लेखक की मान्यता यह है कि इस संसार में योग जाने अनजाने हर व्यक्ति कर रहा है।  कुछ लोग अज्ञान के अभाव में सांसरिक विषयों का सत्य मानकर उनसे जुड़ते हैं। यह जुड़ना योग ही है पर उससे इंसान असहज होता है।  जहां विषय आकर्षित कर मनुष्य को अपने साथ संयोग कराते हैं वह वह विवश होता है पर योग का ज्ञान रखने वाले अपनी आवश्यकता के अनुसार चलते हैं।  वह विषयों से जुड़ते हैं फिर अपन मन वहां से हटा लेते हैं।  इसके विपरीत अज्ञानी मनुष्य विषयों का बोझ उठाये सारी जिंदगी रोते हुए गुजारते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता पर चलने वाले सहज योग के पथ पर चलते हैं और जो नहीं समझते वह असहज पथ पर चल ही रहे हैं।

      श्रीमद्भागवत गीता की विषय सामग्री को पढ़ने और पढ़ाने से अधिक समझने की आवश्यकता है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि इस संसार में असहज पथ पर चलने वाले लोगों को ज्ञान देना कठिन है और जो सहज हैं उन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं है। दूसरे को तो तब सुधारें जब स्वयं सिद्धि प्राप्त कर लें मगर श्रीमद्भागवत गीता के रम जाने पर होता यह है कि जितनी बार उसे पढ़ो लगता है कि नित्य कोई नयी बात निकल रही है।  एक बात तय रही जिसने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात कर लिया वह कभी प्रचार नहीं करेगा।  इसका पहले हमें अनुमान नहीं था पर जैसे जैसे प्रचार माध्यमों में चर्चा देखते हैं तो इस देश में श्रीमद्भागवत के महत्व का जिस तरह बखान होता है तब यह लेखक उन लोगों को देखना चाहता है जिन्हें सिद्धहस्त कहा जा सके। अभी तक यह लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सका। छोटे शहर का  होने का कारण इस देश में कला, धर्म, साहित्य, पत्रकारित तथा अन्य विषयों का मार्ग दर्शन करने वाले बड़े शहरों जैसे विद्वानों का दर्जा इस लेखक को मिलना संभव नहीं है यह बात निराशा पैदा करने वाली लगती है पर श्रीमद्भागवत गीता का ऐसा प्रभाव है कि यही बात आत्मविश्वास पैदा भी करती है कि किसी प्रकार भौतिक उपलब्धि न होने की संभावना अध्यात्मिक साधना की सच्ची प्रेरणा बनती है।  इस विषय पर लेखक ने पहले भी अपने ब्लॉग पर लिखा है।  आगे भी लिखेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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हिंदी भाषा का महत्व पूछने की नहीं वरन देखने की जरूरत-हिंदी दिवस पर विशेष लेख


                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।

                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।

                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।

                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?

                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।

                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लििश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।

                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।

                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी है।ं पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहंी बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।

                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्र्रेजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीक, नहंी बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 

                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाया या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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जिंदगी के सवाल-हिंदी व्यंग्य कविता


गर्मी है तो अकाल है,

बरसात है तो बाढ़

सर्दी है तो भी बवाल है,

जिंदगी में कदम-दर-कदम खड़ा सवाल है।

कहें दीपक बापू

हरियाली पर सीमेंट की चादर छा रही है,

कुदरती तोहफों  की लूट

सभी को भा रही है,

किसी को तिजोरी में

किसी को बैंक खाते में

दौलत के भंडार जुटाने हैं,

धर्म के नाम पर पाखंड दिखाकर

अपने घर के लोग लुभाने हैं,

दिल के दीवानों की

रूह मर गयी है

अक्ल पर मतलब की परत

चढ़ गयी है,

उम्मीद का आसमान अपने कंधे पर

रखना हमने सीख लिया है

इसलिये वफा के नाम पर

धोखे का होता नहीं कभी मलाल है।

——

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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गुलामी अब भी चालू है-हिन्दी हास्य व्यंग्य


             ब्रिटेन के राजघराने की उनके देश में ही इतनी इज्जत नहीं है जितना हमारे देश के प्रचार माध्यम देते हैं। आधुनिक लोकतंत्र का जनक ब्रिटेन बहुत पहले ही राजशाही से मुक्ति पा चुका है पर उसने अपने पुराने प्रतीक राजघराने को पालने पोसने का काम अभी तक किया है। यह प्रतीक अत्यंत बूढ़ा है और शायद ही कोई ब्रिटेन वासी दुबारा राजशाही को देखना चाहेगा। इधर हमारे समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में सक्रिय बौद्धिक वर्ग इस राजघराने का पागलनपन की हद तक दीवाना है। ब्रिटेन के राजघराने के लोग मुफ्त के खाने पर पलने वाले लोग है। कोई धंधा वह करते नहीं और राजकाज की कोई प्रत्यक्ष उन पर कोई जिम्मेदारी नहीं है तो यही कहना चाहिए कि वह एक मुफ्त खोर घराना है। इसी राजघराने ने दुनियां को लूटकर अपने देश केा समृद्ध बनाया और शायद इसी कारण ही उसे ब्रिटेनवासी ढो रहे हैं। इसी राजघराने ने हमारे देश को भी लूटा है यह नहीं भूलना चाहिए।
               कायदा तो यह है कि देश को आज़ादी और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले हमारे प्रचारकगण इस राजघराने के प्रति नफरत का प्रसारण करें पर यहां तो उनके बेकार और नकारा राजकुमारों के प्रेम प्रसंग और शादियों की चर्चा इस तरह की जाती है कि हम अभी भी उनके गुलाम हैं। खासतौर से हिन्दी समाचार चैनल और समाचार पत्र अब उबाऊ हो गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल अपने विज्ञापनदाताओं के गुलाम हैं। इनके विज्ञापनदाता अपने देश से अधिक विदेशियों पर भरोसा करते हैं। यही कारण है कि कुछ लोगों के बारे में तो यह कहा जाता है कि वह यहां से पैसा बैगों में भरकर विदेश जमा करने के लिये ले जाते हैं। हैरानी होती है यह सब देखकर। अपने देश के सरकारी बैंक आज भी जनता के भरोसा रखते हैं पर हमारे देश के सेठ साहुकार विदेशों में पैसा रखने के लिये धक्के खा रहे हैं।
बहरहाल भारतीय सेठों का पांव भारत में पर आंख और हृदय ब्रिटेन और अमेरिका की तरफ लगा रहता है। कई लोगों को देखकर तो संशय होता है कि वह भारत के ही हैं या पिछले दरवाजे से भारतीय होने का दर्जा पा गये। अमेरिका की फिल्म अभिनेत्री को जुकाम होता है तो उसकी खबर भी यहां सनसनी बन जाती है। प्रचार माध्यमों के प्रबंधक यह दावा करते हैं कि जैसा लोग चाहते हैं वैसा ही वह दिखा रहे हैं पर वह इस बात को नही जानते कि उनको दिखाने पर ही लोग देख रहे हैं। उसका उन पर प्रभाव होता है। वह समाज में फिल्म वालों की तरह सपने बेच रहे हैं। विशिष्ट लोग की आम बातों को विशिष्ट बताने वाले उनके प्रसारण का लोगों के दिमाग पर गहरा असर होता है। ऐसा लगता है कि समाज में से पैसा निकालने की विधा में महारत हासिल कर चुके हमारे बौद्धिक व्यवसायी किसी नये सृजन की बजाय केवल परंपरागत रूप से विशिष्ट लोगों की राह पर चलने के लिये विवश कर रहे हैं।
                 यह भी लगता है कि सेठ लोगों की देह हिन्दुस्तानी है पर दिल अमेरिका या ब्रिटेन का है। उनको लगता है कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस उनके अपने देश हैं और उनकी तर्फ से वहां केवल धन वसूली करने के लिये पैदा हुए हैं। अगर यह सच नहीं है तो फिर विदेशी बैंकों में भारी मात्रा में भारत से पैसा कैसे जमा हो रहा है? सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों को विदेश बहुत भाता है और राष्ट्रीय स्तर की बात छोड़िये स्थानीय स्तर के शिखर पुरुष बहाने निकालकर विदेशों का दौरा करते हैं।
प्रचार प्रबंधकों को लगता है कि जिस तरह पश्चिमी देशों में भारत की गरीबी, अंधविश्वास तथा जातिवादपर आधारित कहानियां पसंद की जाती हैं उसी तरह भारत के लोगों को पश्चिम के आकर्षण पर आधारित विषय बहुत लुभाते हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन के बुढ़ा चुके राजघराने की परंपरा के वारिसों की कहानियां यहां सुनाई जाती हैं।
                 बहरहाल ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल बहुत कम खर्च पर अधिक और महंगे विज्ञापन प्रसारित कर रहे हैं। इन समाचार चैनलों के पास मौलिक तथा स्वरचित कार्यक्रम तो नाम को भी नहीं। स्थिति यह है कि सारे समाचार चैनल आत्मप्रचार करते हुए अधिक से अधिक समाचार देने की गारंटी प्रसारित करते हैं। मतलब उनको मालुम है कि लोग यह समझ गये हैं कि समाचार चैनलों का प्रबंधन कहीं न कहीं विज्ञापनदाताओं के प्रचार के लिये हैं न कि समाचारों के लिये। आखिर समाचार चैनलों को समाचार की गारंटी वाली बात कहनी क्यों पड़ी रही है? मतलब साफ है कि वह जानते हैं कि उनके प्रसारणों में बहुत समय से समाचार कम प्रचार अधिक रहा है इसलिये लोग उनसे छिटक रहे हैं या फिर वह समाचार प्रसारित ही कब करते हैं इसलिये लोगांें को यह बताना जरूरी है कि कभी कभी यह काम भी करते हैं। विशिष्ट लोगों की शादियों, जन्मदिन, पुण्यतिथियों तथा अर्थियों के प्रसारण को समाचार नहीं कहते। इनका प्रसारण शुद्ध रूप से चमचागिरी है जिसे अपने विज्ञापनदाताओं को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है न कि लोगों के रुझान को ध्यान में रखा जाता है।
                  शाही शादी जैसे शब्द हमारे देश के अंग्रेजी के देशी गुलामों के मुख से ही निकल सकते हैं भले ही वह अपने को बौद्धिक रूप से आज़ाद होने का दावा करते हों।
                 बहरहाल जिस तरह के प्रसारण अब हो रहे हैं उसकी वजह से हम जैसे लोग अब समाचार चैनलों से विरक्त हो रहे हैं। अगर किसी दिन घर में किसी समाचार चैनल को नहीं देखा और ऐसी आदत हो गयी तो यकीनन हम भूल जायेंगे कि हिन्दी में समाचार चैनल भी हैं। जैसे आज हम अखबार खोलते हैं तो उसका मुख पृष्ठ देखने की बजाय सीधे संपादकीय या स्थानीय समाचारों के पृष्ठ पर चले जाते हैं क्योंकि हमें पता है कि प्रथम प्रष्ठ पर क्रिकेट, फिल्म या किसी विशिष्ट व्यक्ति का प्रचार होगा। वह भी पहली रात टीवी पर देखे गये समाचारों जैसा ही होगा। समाचार पत्र अब पुरानी नीति पर चल रहे हैं। उनको पता नहीं कि उनके मुख पृष्ठ के समाचार छपने से पहले ही बासी हो जाते हैं। हिन्दी समाचार चैनलों को भी शायद पता नहीं उनके प्रसारण भी बासी हो जाते हैं क्योंकि वही समाचार अनेक चैनलों पर प्रसारित होता है जो वह कर रहे होते हैं। एक ही प्रसारण सारा दिन होता है। शादियों और जन्मदिनों का सीधा प्रसारण पहले और बाद तक होता है।
कितने मेहमान आने वाले हैं, कितने आ रहे हैं, कितनी जगहों से आ रहे हैं। फिर कब जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं जैसे जुमले सुने जा सकते हैं। संवाददाता इस तरह बोल रहे होते हैं जैसे आकाश से बिजली गिरने का सीधा प्रसारण कर रहे हों। वैसे ही टीवी अब लोकप्रियता खो रहा है। लोग मोबाइल और कंप्यूटर की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। खालीपीली की टीआरपी चलती रहे तो कौन देखने वाला है।

————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
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वीडियो पर प्रयोग के लिए एक चर्चा का एकल प्रयास

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चिंत्तन और निष्कर्ष-हिन्दी कविता


चिंत्तन  कुछ यूं भटक गया है,

जिस रास्ते हम चले

वही है यह

तय नहीं कर पा रहे

लगता है कभी कभी

नहीं तय हो रही दूरी

लक्ष्य ही शायद आकाश में अटक गया है।

कहें दीपक बापू

महाबहसें सुनते सुनते

बुद्धि हो जाती कभी कभी कुंद

दूसरों की सोच सुनते सुनते

लगता है यूं

अपना निष्कर्ष ही कहीं टपक गया है।

————————————————–

लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
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सामाजिक हैं हम लोग-हिंदी कविता


हादसों पर मोमबत्तियां जलाकर

मातम मनाओ

बच्चों को यह सिखा दिया,

सामाजिक है हम लोग

सारे संसार को दिखा दिया।

कहें दीपक बापू

सड़क पर कराहता कोई घायल,

नहीं सुनता कोई चीख

डरते हैं सभी कोई मदद की न मांगे भीख,

मुंह फेर जाते हैं देखने वाले,

लगाकर अपनी सोच पर ताले,

ज़माने पर लगता है मतलबपरस्ती का आरोप

रौशनी से चकाचौंध सड़क पर

यूं मोमबत्तियां जलाकर

जख्मों से हमदर्दी जता रहे है,

सर्दी में अपने शरीर को सता रहे हैं,

रोने में हम भी नहीं किसी से कम

दुनियां को यह बता दिया,

न हल्दी लगे न फिटकरी

रंग आयेगा चोखा

यह नयी पीढ़ी को अच्छी तरह सिखा दिया।

—————————————-

लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

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सड़क पर फ़रिश्ते और शैतान-हिंदी व्यंग्य कविता


अपने कदम इस तरह बढ़ाओ

हादसे के खतरे कम रहें,

अपने होश काबू में रखो

हालातों से बेहोश होना अच्छा नहीं

जब जंग सामने हो

हाथ और पांव से बोलें

मुंह से कुछ न कहें।

कहें दीपक बापू

सड़क पर फरिश्ते भी चलते हैं,

शैतान भी खडे हैं जिनके दिल जलते हैं,

पता नहीं किसकी नीयत काली है किसकी सफेद

कौन प्यार करेगा कौन हमला

यह कहना मुश्किल है

दिल-ओ-दिमाग पर रखें काबू

जुल्म से जूझने को हमेशा तैयार रहें।

लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
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ज़िन्दगी के रास्ते-हिंदी कविता



ज़िन्दगी  के रास्ते पर अपने कदम कदम
फूंक फूंककर कर रखना
अगर पांव फिसले तो तुम्हारी चीत्कार
कोई नहीं सुन पायेगा,
भीड़ तो होगी चारों तरफ
मतलबपरस्ती में फंसी है सभी की सोच
अपने मसलों में उलझा है सभी का ध्यान
कोई बंद लेगा अपने कान
कोई अनुसनी कर चला जायेगा।
कहें दीपक बापू
ज़माने के लोग
सुनते नहीं है
इसका मतलब सभी को  समझना न बहरां
बस, उनके कान पर खुदगर्जी का है पहरा
अपनी दिल और दिमाग  की लगाम
अपने हाथ में रखना
गैर का क्या धोखा देंगे
अपना भी बेवफाई न कर पायेगा।
————————
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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ओलम्पिक में फिक्सिंग के खेल में भारत परास्त-हिन्दी लेख


भारत में ओलम्पिक की इज्जत लगभग खत्म ही हो जायेगी।  अभी तक कोई खिलाड़़ी जब अपनी हेकड़ी दिखाता है तो लोग उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तू ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ला सकता है?‘‘

जब तक भारत के बैटमिंटन और मुक्केबाजी के खिलाड़ी ओलम्पिक के क्वार्टन फाइनलों तक नहीं पहुंचे थे तब तक  भारत में लोग यह मानते थे कि हमारा देश खेल में फिसड्डी है। क्रिकेट में फिक्सिंग की बात सामने आयी पर ओलम्पिक की पवित्रता की विचार यह बना रहा है।  अब हालत वह नहीं है।

ओलम्पिक के दौरान दोनों ही प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग की बात सामने आयी और भारत के खिलाड़ियों के परिणामों पर इसका नकारात्मक प्रभाव दिखा।  स्थिति यह रही कि भारतीयों अपील की तो वह निरस्त हो गयी पर जापान और अमेरिका ने जब अपने परास्त  खिलाड़ियों के लिये प्रतिवाद प्रस्तुत किया तो उसे मानते हुए विजयश्री प्रदान की गयी।  यहां तक ठीक था पर अब पता लगा कि एक देश ने  मुक्केबाजी में दो स्वर्ण पदकों के लिये 78 करोड़ खर्च किये।  अब अमेरिका और जापान के प्रतिवाद भी इसलिये शंका के दायरे में आ गये हैं क्योंकि दोनो अमीर देश हैं। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये पैसा खर्च कर सकते हैं।

ओलम्पिक में भारत अनेक प्रतियोगिताओं में भाग भी नहीं लेता है।  उनमें भी फिक्सिंग वगैरह होती हो यहां पता लगाना मुश्किल है।  भारतीय मुक्केबाज एक के बाद एक बाहर हुए तो भारत में थोड़ी शर्मिंदगी अनुभव की गयी भले ही उनके हारने पर निर्णायकों के विरुद्ध प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया।  अब तो बीबीसी लंदन ने भी मान लिया है कि मुक्केबाजी में जमकर फिक्सिंग होती रही है।   भारतीय प्रचार माध्यमों की बात पर कोई भरोसा नहीं करता पर अंग्र्रेजों की राय तो यहां ब्रह्म वाक्य मान ली जाती है। यह अलग बात है कि इसके लिये हमारे प्रचार माध्यमों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार हैं।

बहरहाल अनेक लोग ओलम्पिक खेलों में दिलचस्पी लेते हैं,  भले ही उनको भारत में खेला नहीं जाता।  ओलम्पिक खेलों में ऐसे खेल और खिलाड़ियों को देखना का अवसर मिलता है जिनके हमारे यहां होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती।  इसका कारण यह है कि उन खेलों के लिये धन के साथ खिलाउि़यों को वैसे अवसर भी मिलना अभी हमारे देश में संभव नहीं है।  ऐसे खिलाड़ी पैदा नहीं होते बल्कि बनाये जाते हैं।  हमारे देश के बच्चों में खेल के प्रति रुझान बहुत रहता है पर उनके लिये वैसे अवसर कहां है जो अमीर देशों के पास हैं।  आधुनिक ओलम्पिक के बारे में कहा जाता है कि किसी देश के विकास तथा शक्ति  की नाप उसको मिले स्वर्ण पदकों से होती है।  इस मामले में चीन का विकास प्रमाणिक हो जाता है।

चीन के हमारे देश में बहुत प्रशंसक है और उन्हें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए। यह अलग बात है कि सामाजिक विशेषज्ञ चीन के इस विकास को अप्राकृतिक भी मानते है।  उस पर तानाशाही खेलों में भी कठोर व्यवस्था अपनाने का आरोप लगाते हैं।  अभी हाल ही में ऐसे समाचार भी आये जिसमें वहां के बच्चों को उनकी इच्छा जाने बिना  क्रूरतापूर्वक खिलाड़ी बनाया जाता है। इससे  एक बात तय रही कि आधुनिक खेल के खिलाड़ी पैदा नहीं होते उनको बनाया जाता है-धन का लोभ हो या प्रतिष्ठा पाने का मोह देकर उनको प्रेरित किया जाता है।

दरअसल हमें वैसे भी ओलम्पिक में अपने निराशाजनक प्रदर्शन पर अधिक कुंठा पालने की आवश्यकता नहीं है।  हॉकी में भारत अंतिम स्थान पर रहा इस भी पुराने खेल प्रेमियों को परेशान की जरूरत नहीं है।  दरअसल आज के अधिकांश खेल अपा्रकृतिक और कृत्रिम मैदान पर होते हैं।  जब तक हॉकी घास के मैदान पर खेली जाती थी तब तक भारत पाकिस्तान के आगे सब देश फीके लगते थे।  धीमे धीमें इस खेल को  कृत्रिम मैदान पर लाया गया।  यह कृत्रिम मैदान हर खिलाड़ी को नहीं मिल सकता और जो सामान्य मैदान पर खेलते हैं उनके लिये वह मैदान अनुकूल भी नहीं है।  मतलब यह कि कोई बच्चा हॉकी खिलाड़ी बनना चाहे तो पहले तो उसे मैदान खोजना पड़ेगा फिर हमारे यहां जो बच्चे बिना जूतों के खेल शुरु करते हैं उनके लिये अब हॉकी में पहले जूते होना जरूरी है क्योंकि कृत्रिम मैदान पर उनके बिना खेलना संभव नहीं है।  प्रसंगवश यहां बता दें कि क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर खेलने की बात हाती है पर अंग्रेज नहीं मानते। उनको इसका परंपरागत स्वरूप ही पंसद है।  अंग्रेजों में यह खूबी है कि वह अपनी परंपरा नहीं छोडते। एक तरह से कहें तो यह हमारा सौभाग्य है। अगर कहीं क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर प्रारंभ हो गया तो आप समझ लीजिये कि आजकल के बच्चों के लिये समय बिताने का  साधन गया।  सभी बड़े खिलाड़ी नहीं बनते पर बनने का ख्वाब लेकर अनेक बच्चे व्व्यस्त तो रहते हैं।  इसी तरह कुश्ती, तैराकी, जिम्नस्टिक, साइकिलिंग तथा अनेक खेल हैं जिनको सामान्य वर्ग के बच्चे आसानी से नहीं खेल सकते।

   मूल बात यह है कि हमारे देश में खेल को प्राकृतिक मैदान पर खेलने की आदत है।  बच्चों के लिये यह संभव नही है कि वह दूर दूर जाकर मैदान ढूंढे और खेलें।  ऐसे में ओलम्पिक हमारे लिये दूर के ढोल बन जाता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
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