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अंधेरे की तरफ बढ़ता देश-हिन्दी क्षणिकायें


महंगाई पर लिखें या
बिज़ली कटौती पर
कभी समझ में नहीं आता है,
अखबार में पढ़ते हैं विकास दर
बढ़ने के आसार
शायद महंगाई बढ़ाती होगी उसके आंकड़ें
मगर घटती बिज़ली देखकर
पुराने अंधेरों की तरफ
बढ़ता यह देश नज़र आता है।
———–
सर्वशक्तिमान को भूलकर
बिज़ली के सामानों में मन लगाया,
बिज़ली कटौती बन रही परंपरा
इसलिये अंधेरों से लड़ने के लिये
सर्वशक्तिमान का नाम याद आया।
———–
पेट्रोल रोज महंगा हो जाता,
फिर भी आदमी पैदल नहीं नज़र आता है,
लगता है
साफ कुदरती सांसों की शायद जरूरत नहीं किसी को
आरामों में इंसान शायद धरती पर जन्नत पाता है।
———-

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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महंगाई और बिज़ली कटौती-हिन्दी क्षणिकायें (mahangai aur bijli katauti-hindi vyangya kavitaen)

लोहप्रेम-व्यंग्य कविताऐं


जब नदी बनकर बही समंदर
लोहे का बना हो गया लकड़ी का
हर घर उसमें बह गया,
जिस जीवन का मतलब नहीं समझते थे,
तबाही का परवाना लेकर आया
बाढ़ का पानी कह गया।
पैट्रोल गाड़ी चला सकता है
पर जीवन नहीं,
लोहे लंगर के बने ढांचे
फंसे रहे सड़क पर
अपने पैसे पर इतराने वालों!
जिसे रौंदा तुमने हर पल अपने पांव तले
चढ़कर आया वह पानी तुम्हारे सिर
जिसमें तुम्हारा लोहप्रेम ढह गया।
———
जल को तुम न जलाओ
वरना वह तुम्हें बहा ले जायेगा,
जिंदगी के आधार को सस्ता न समझना
वरना आग की तरह जलाने लगेगा
जब सिर पर चढ़ा चला आयेगा।
———

कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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जज़्बात एक शय है-.हिन्दी शायरी


इंसान के जज्ब़ात शर्त से
और समाज के सट्टे के भाव से
समझे जाते हैं।
नये जमाने में
जज़्बात एक शय है
जो खेल में होता बाल
व्यापार में तौल का माल
नासमझी बन गयी है
जज़्बात का सबूत
जो नहीं फंसते जाल में
वह समझदार शैतान समझे जाते हैं
……………………….
एक दोस्त ने फोन पर
दूसरे दोस्त से
‘क्या स्कोर चल रहा है
दूसरा बिना समझे तत्काल बोला
‘यार, ऐसा लगता है
मेरी जेब से आज फिर
दस हजार रुपया निकल रहा है।’
……………………………..
छायागृह में चलचित्र के
एक दृश्य में
नायक घायल हो गया तो
एक महिला दर्शक रोने लगी।
तब पास में बैठी दूसरी महिला बोली
‘अरे, घर पर रोना होता है
इसलिये मनोरंजन के लिये यहां हम आते हैं
पता नहीं तुम जैसे लोग
घर का रोना यहां क्यों लाते हैं
अब बताओ
क्या सास ने मारकर घर से निकाला है
या बहु से लड़कर तुम स्वयं भगी
जो हमारे मनोरंजन में खलल डालने के लिये
इस तरह जोर जोर से रोने लगी।’
……………………………….
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हैती का भूंकप, ज्योतिष,पूंजीवाद और साम्यवाद-हिन्दी लेख


हैती में भूकंप, ज्योतिष, पूंजीवाद और समाजवाद जैसे विषयों में क्या साम्यता है। अगर चारों को किसी एक ही पाठ में लिखना चाहेंगे तो सब गड्डमड्ड हो जायेगा। इसका कारण यह है कि भूकंप का ज्योतिष से संबंध जुड़ सकता है तो पूंजीवाद और समाजवाद को भी एक साथ रखकर लिखा जा सकता है पर चार विषयों के दोनों समूहों को मिलाकर लिखना गलत लगेगा, मगर लिखने वाले लिख रहे हैं।
पता चला कि हैती में भूकंप की भविष्यवाणी सही निकली। भविष्यवक्ताओं को अफसोस है कि उनकी भविष्यवाणी सही निकली। पूंजीवादी देश हैती की मदद को दौड़ रहे हैं पर साम्यवादी बुद्धिजीवी इस हानि के लिये पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को जिम्मेदार बता रहे हैं। दावा यहां तक किया गया है कि पहले आये एक भूकंप में साम्यवादी क्यूबा में 10 लोग मरे जबकि हैती यह संख्या 800 थी-उस समय तक शायद पूंजीवादी देशों की वक्र दृष्टि वहां नहीं पड़ी थी। अब इसलिये लोग अधिक मरे क्योंकि पूंजीवाद के प्रभाव से वहां की वनसंपदा केवल 2 प्रतिशत रह गयी है। अभिप्राय यह है कि पूंजीवादी देशों ने वहां की प्रकृति संपदा का दोहन किया जिससे वहां भूकंप ने इतनी विनाशलीला मचाई।
इधर ज्योतिष को लेकर भी लोग नाराज हैं। पता नहीं फलित ज्योतिष और ज्योतिष विज्ञान को लेकर भी बहस चल रही है। फलित ज्योतिष पीड़ित मानवता को दोहन करने के लिये है। ऐसे भी पढ़ने को मिला कि अंक ज्योतिष ने-इसे शायद कुछ लोग खगोल शास्त्र से भी जोड़ते है’ फिर भी प्रगति की है पर फलित ज्योतिष तो पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है।
एक साथ दो पाठ पढ़े। चारों का विषय इसलिये जोड़ा क्योंकि हैती के भूकंप की भविष्यवाणी करने वाले की आलोचना उस साम्यवादी विचारक ने भी बिना नाम लिये की थी। यहां तक लिखा कि पहले भविष्यवाणी सही होने का दावा कर प्रचार करते हैं फिर निराशा की आत्मस्वीकृति से भी उनका लक्ष्य ही पूरा होता है। इधर फलित ज्योतिषियों पर प्रहार करता हुए पाठ भी पढ़ा। उसका भी अप्रत्यक्ष निशाना वही ज्योतिष ब्लाग ही था जिस पर पहले हैती के भूकंप की भविष्यवाणी सत्य होने का दावा फिर अपने दावे के सही होने को दुर्भाग्यपूणी बताते हुए प्रकाशित हुई थी। चार तत्व हो गये पर पांचवा तत्व जोड़ना भी जरूरी लगा जो कि प्रकृति की अपनी महिमा है।
मगर यह मजाक नहीं है। हैती में भूकंप आना प्राकृतिक प्रकोप का परिणाम है पर इतनी बड़ी जन धन हानि यकीनन मानवीय भूलों का नतीजा हो सकती है। हो सकता है कि साम्यवादी विचारक अपनी जगह सही हो कि पूंजीवाद ने ही हैती में इतना बड़ा विनाश कराया हो। ऐसी प्राकृतिक विपदाओं पर होने वाली हानि पर अक्सर प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी अपने हिसाब से पूंजीवाद और साम्राज्यवादी को निशाना बनाते हैं। उनको अमेरिका और ब्रिटेन पर निशाना लगाना सहज लगता है। वह इससे आगे नहीं जाते क्योंकि प्रकृति को कुपित करने वालों में वह देश भी शामिल हैं जो ऐसे बुद्धिजीवियों को प्रिय हैं। हमारा तो सीधा आरोप है कि वनों की कटाई या दोहन तो उन देशों में भी हो रहा है जो साम्यवादी होने का दावा करते हैं और इसी कारण कथित वैश्विक तापवृद्धि से वह भी नहीं बचे।
अब विश्व में तापमान बढ़ने की बात कर लें। हाल ही मे पड़ी सर्दी ने कथित शोधकर्ताओं के होश उड़ा दिये हैं। पहले कह रहे थे कि प्रथ्वी गर्म हो रही है और अब कहते हैं कि ठंडी हो रही है। भारत के कुछ समझदार कहते हैं कि प्रकृति अपने ढंग से अपनी रक्षा भी करती है इसलिये गर्मी होते होते ही सर्दी होने लगी। दूसरी भी एक बात है कि भले ही सरकारी क्षेत्र में हरियाली कम हो रही है और कालोनियां बन रही हैं पर दूसरा सच यह भी है कि निजी क्षेत्र में पेड़ पौद्ये लगाने की भावना भी बलवती हो रही है। इसलिये हरित क्षेत्र का संकट कभी कभी कम होता लगता है हालांकि वह संतोषजनक नहीं है। गैसों का विसर्जन एक समस्या है पर लगता है कि प्रकृत्ति उनके लिये भी कुछ न कुछ कर रही है इसी कारण गर्मी होते होते सर्दी पड़ने लगी।
मुख्य मुद्दा यह है कि परमाणु बमों और उसके लिये होने वाले प्रयोगों पर कोई दृष्टिपात क्यों नहीं किया जाता? चीन, अमेरिका और सोवियत संघ ने बेहताश परमाणु विस्फोट किये हैं। इन परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी हानि पहुंची है उसका आंकलन कोई क्यों नही करता? हमारी स्मृति में आज तक गुजरात का वह विनाशकारी भूकंप मौजूद है जो चीन के परमाणु विस्फोट के कुछ दिन बाद आया था। इन देशों ने न केवल जमीन के अंदर परमाणु विस्फोट किये बल्कि पानी के अंदर भी किये-इनके विस्फोटों का सुनामी से कोई न कोई संबंध है ऐसा हमारा मानना है। यह हमारा आज का विचार नहीं बल्कि गुजरात भूकंप के बाद ऐसा लगने लगा है कि कहीं न कहीं परमाणु विस्फोटों का यह सिलसिला भी जिम्मेदारी है जो ऐसी कयामत लाता है। साम्यवादी विचारक हमेशा ही अमेरिका और ब्रिटेन पर बरस कर रह जाते है पर रूस के साथ चीन को भी अनदेखा करते हैं।
हमारा मानना है कि अगर यह चारों देश अपने परमाणु प्रयोग बंद कर सारे हथियार नष्ट कर दें तो शायद विश्व में प्रकृति शांत रह सकती है। विश्व में न तो पूंजीवाद चाहिये न समाजवाद बल्कि सहजवाद की आवश्यकता है। साम्राज्यवादी के कथित विरोधी देश इतने ही ईमानदार है तो क्यों पश्चिमी देशों की वीजा, पासपोर्ट और प्रतिबंधों की नीतियों पर चल रहे हैं। चीन क्यों अपने यहां यौन वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगा रहा है जैसे कि अन्य देश लगाते हैं। वह अभी भी आदमी का मूंह बंद कर उसे पेट भरने के लिये बाध्य करने की नीति पर चल रहा है।
जहां तक ज्योतिष की बात है तो अपने देश का दर्शन कहता है कि जब प्रथ्वी पर बोझ बढ़ता है तो वह व्याकुल होकर भगवान के पास जाती है और इसी कारण यहां प्रलय आती है। वैसे पश्चिम अर्थशास्त्री माल्थस भी यही कहता था कि ‘जब आदमी अपनी जनंसख्या पर नियंत्रण नहीं करती तब प्रकृति यह काम स्वयं करती है।’ यह सब माने तो ऐसे भूकंप और सुनामियां तो आती रहेंगी यह एक निश्चिम भविष्यवाणी है। प्रसिद्ध व्यंगकार स्वर्गीय श्री शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि ‘हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि किसी को हमें मारने की फुरसत नहीं है। मारने वालों के पास हमसे बड़े लक्ष्य पहले से ही मौजूद है।’
इसी तर्ज पर हम भी यह कह सकते हैं कि धरती बहुत बड़ी है और वह क्रमवार अपनी देह को स्वस्थ कर रही है और जहां हम हैं वहां का अभी नंबर अभी नहीं आया है। कभी तो आयेगा, भले ही उस समय हम उस समय यहां न हों।

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दीपावली का पर्व निकल गया-आलेख


होश संभालने के बाद शायद जिंदगी में यह पहली दिवाली थी जिसमें मिठाई नहीं खाई। कभी इसलिये मिठाई नहीं खाते थे कि बस अब दिवाली आयेगी तो जमकर खायेंगेे। हमें मिठाई खाने का शौक शुरु से रहा है और कुछ लोग मानते हैं कि मिठाई के शौकीन झगड़ा कम करते हैं क्योंकि उनकी वाणी में मधुरता आ जाती है। हम भी इस बात को मानते हैं पर वजह दूसरी है। दरअसल अधिक मीठा खाने वाले मोटे हो जाते हैं इसलिये उनके झगड़ा करने की ताकत कम होती है। अगर कहीं शारीरिक श्रम की बात आ जाये तो हांफने लगते हैं। हमारे साथ भी यही होता रहा है, अलबत्ता हमने शारीरिक श्रम खूब किया है और साइकिल तो आज भी चलाते हैं। हां, यह सच है कि मोटे अपने खाने की चिंता अधिक करते हैं क्योंकि उनके खाली पेट मेें जमा गैस उनको सताने लगती है जिसे हम भूख भी कहते हैं। इसके बावजूद हम मानते हैं कि मोटे लोग शांतिप्रिय होते हैं-कहने वाले कहते रहें कि डरपोक होते हैं पर यह सच है कि कोई उन पर आसानी से हाथ डालने की भी कोई नहीं सोचता।
दिवाली के अगली सुबह बाजार में निकले तो देखा कि बाजार में मिठाईयां बिक रही थीं। बिकने की जगह देखकर ही मन दुःखी हो रहा था। इधर हम घर पर ही जब कभी खाने की कोई सामग्री देखने को मिलती है तो उसे हम स्वतः ही प्लेट से ढंकने लगते हैं। मंगलवार हनुमान जी का प्रसाद ले आये और अगर कभी उसका लिफाफा खुला छूट गया तो फिर हम न तो खाते हैं न किसी को खाने देते हैं। मालुम है कि आजकल पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अनेक प्रकार की खतरनाक गैसें और कीड़े हवा में उड़कर उसे विषाक्त कर देते हैं। ऐसे में बाजार में खुली जगह पर रखी चीज-जिसके बारे में हमें ही नहीं पता होता कि कितनी देर से खुले में पड़ी है-कैसे खा सकते हैं। पिछले सात वर्षों से योग साधना करते हुए अब खान पान की तरह अधिक ही ध्यान देने लगे हैं तब जब तक किसी चीज की शुद्धता का विश्वास न हो उसे ग्रहण नहीं करते। यही कारण है कि बीमार कम ही पड़ते हैं और जब पड़ते हैं तो दवाई नहीं लेते क्योंकि हमें पता होता है कि हम क्या खाने से बीमार हुए हैं? उसका प्रभाव कम होते ही फिर हमारी भी वापसी भी हो जाती है।
बाजार में सस्ती मिठाईयां गंदी जगहों के बिकते देखकर हम सोच रहे थे कि कैसे लोग इसे खा रहे होंगे। कई जगह डाक्टरों की बंद दुकानें भी दिखीं तब तसल्ली हो जाती थी कि चलो आज इनका अवकाश है कल यह उन लोगों की मदद करेंगी जो इनसे परेशान होंगे। वैसे मिठाई के भाव देखकर इस बात पर यकीन कम ही था कि वह पूरी तरह से शुद्ध होंगी।
ज्यादा मीठा खाना ठीक नहीं है अगर आप शारीरिक श्रम नहीं करते तो। शारीरिक श्रम खाने वाले के लिये मीठा हजम करना संभव है मगर इसमें मुश्किल यह है कि उनकी आय अधिक नहीं होती और वह ऐसी सस्ती मिठाई खाने के लिये लालायित होते हैं। संभवतः सभी बीमार इसलिये नहीं पड़ते क्योंकि उनमें कुछ अधिक परिश्रमी होते हैं और थोड़ा बहुत खराब पदार्थ पचा जाते हैं पर बाकी के लिये वह नुक्सानदेह होता है। वैसे इस बार अनेक हलवाईयों ने तो खोये की मिठाई बनाई हीं नहीं क्योंकि वह नकली खोए के चक्कर में फंसना नहीं चाहते थे। इसलिये बेसन जैसे दूध न बनने वाले पदार्थ उन्होंने बनाये तो कुछ लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था कि जिस प्रकार के मीठे में मिलावट की संभावना है उसे खरीदा ही न जाये।
पटाखों ने पूरी तरह से वातावरण को विषाक्त किया। अब इसका प्रभाव कुछ दिन तो रहेगा। अलबत्ता एक बात है कि हमने इस बार घर पर पटाखों की दुर्गंध अनुभव नहीं की। कुछ लोगों ने शगुन के लिये पटाखे जलाये पर उनकी मात्रा इतनी नहीं रही कि वह आसपास का वातावरण अधिक प्रदूषित करते। महंगाई का जमाना है फिर अब आज की पीढ़ी-कहीं पुरानी भी- लोग टीवी और कंप्यूटर से चिपक जाती है इसलिये परंपरागत ढंग से दिवाली मनाने का तरीका अब बदल रहा है।
अपनी पुरानी आदत से हम बाज नहीं आये। घर पर बनी मिठाई का सेवन तो किया साथ ही बाजार से आयी सोहन पपड़ी भी खायी। अपने पुराने दिनों की याद कभी नहीं भूलते। अगर हमसे पूछें तो हम एक ही संदेश देंगे कि शारीरिक श्रम को छोटा न समझो। दूसरा जो कर रहा है उसका ख्याल करो। उपभोग करने से सुख की पूर्ण अनुभूति नहीं होती बल्कि उसे मिल बांटकर खाने में ही मजा है। इस देश में गरीबी और बेबसी उन लोगों की समस्या तो है जो इसे झेल रहे हैं पर हमें भी उनकी मदद करने के साथ सम्मान करना चाहिए। ‘समाजवाद’ तो एक नारा भर है हमारे पूरे अध्यात्मिक दर्शन में परोपकार और दया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ताकि समाज स्वतः नियंत्रित रहे। यह तभी संभव है जब अधिक धन वाले अल्प धन वालों की मदद बिना प्रचार के करें। कहते हैं कि दान देते समय लेने वाले से आंखें तक नहीं मिलाना चाहिए। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि हमारे यहां के नये बुद्धिजीवी डंडे और नियम कें जोर पर ऐसा करना चाहते हैं। इसके लिये वह राज्य को मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आग्रह करते हैं। इसका प्रभाव यह हुआ है कि समाज के धनी वर्ग ने सभी समाज कल्याण अब राज्य का जिम्मा मानकर गरीबों की मदद से मूंह फेर लिया है और हमारे सामाजिक विघटन का यही एक बड़ा कारण है।
खैर, इस दीपावली के निकल जाने पर मौसम में बदलाव आयेगा। सर्दी बढ़ेगी तो हो सकता है कि मौसम बदलने से भी बीमारी का प्रभाव बढ़े। ऐसे में यह जरूरी है कि सतर्कता बरती जाये।
इधर ब्लाग पर अनेक टिप्पणीकर्ता लिखते हैं कि आप अपना फोटो क्यों नहीं लगाते? या लिखते हैं कि आप अपना फोन नंबर दीजिये तो कभी आपके शहर आकर आपके दीदार कर ले। हम दोनों से इसलिये बच रहे हैं कि कंप्यूटर पर लिखने की वजह से हमारा पैदल चलने का कार्यक्रम कम हो गया है इसलिये पेट अधिक बाहरं निकल आया है। फोटो भी अच्छा नहीं खिंच रहा। इसलिये सोचा है कि कल से योगासन का समय बढ़ाकर अपना चेहरा मोहरा ठीक करें तो फोटो खिंचवाकर लगायेंगे और नंबर भी ब्लाग पर लिखेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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इसलिये सोचना ही बंद-आलेख (mor thinking is not good-hindi lekh)


अखबार में खबर छपी है कि ‘ब्रिटेन ने माना है कि तेल के व्यापार की वजह से बम विस्फोट के एक आरोपी को छोड़ना पड़ा-यह आरोपी रिहा होकर मध्य एशियाई देश में पहुंच गया जहां उसका भव्य स्वागत हुआ।
इधर टीवी पर एक खबर देखी कि पड़ौसी देश हमारे देश में भीड़ में आधुनिक हथियार प्रयोग कर आम आदमी का कत्लेआम करने के लिये आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है।
उधर नेपाल में माओवादियों द्वारा पशुपतिनाथ मंदिर में भारतीय पुजारियेां की पिटाई कर दी।
कुछ खबरें पहले भी इधर हम सुनते रहे हैं कि नक्सलवादियों ने सुरंग बिछाकर पुलिस कर्मियों को मार डाला।
कहने का तात्पर्य यह है कि आतकंवाद और हिंसक अभियान एक भूत की तरह हैं जो कभी पकड़ाई नहीं आयेगा क्योंकि उसने अपने ऊपर ढेर सारे मुखौटे-जाति, धर्म, भाषा, विचार तथा क्षेत्र के नाम पर-लगा रखे हैं। यह भूत सर्वशक्तिमान जितना ही ताकतवर दृष्टिगोचर होता है क्योंकि वह धनपतियों को कमाने तो विलासियों को धन गंवाने के अवसर मुहैया कराने के साथ ही बुद्धिजीवियों को विचार व्यक्त करने तथा समाज सेवकों को पीड़ितों की सहानुभूति जताकर प्रचार पाने के लिये भरपूर अवसर देता है।
किसी भी निरपराध की हत्या करना पाप है और इस जघन्य अपराध के लिये हर देश में कड़े कानून हैं पर आतंकवादी अपराधी नहीं बल्कि आतंकवादी का तमगा पाते हैं। उनको समाज विशिष्टता प्रदान कर रहा है। ऐसे में जाति, भाषाओं, समूहों और विचारों के आधार पर बने समूहों के अपराधिक तत्व अब विशिष्टता हासिल करने के लिये उनके नाम का उपयोग कर रहे हैं।
दुनियां भर के टीवी चैनल और अखबार आतंकवादियों के कृत्यों से भरी हुई हैं। हत्यायें और अपराध तो रोज होते हैं पर जिसके साथ जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र का नाम जुड़ा है उससे विशिष्टता प्राप्त हो जाती है। कुछ लोगों को यह भ्रम है कि उन समूहों के सामान्य लोग भी अपने अपराधी तत्वों की सहायता कर रहे हैं-इसे विचार को भूलना होगा क्योंकि उनके पास अपनी घर गृहस्थी का संघर्ष भी कम नहीं होता। संभव है कि कुछ सामान्य सज्जन लोग भी अपने समूहों के नाम पर अपराध कर रहे अपराधियों में अपनी रक्षा का अनुभव कर रहें तो उन्हें भी अपना विचार बदल लेना चाहिये।
आंतकवाद एक व्यवसाय जैसा हो गया लगता है। चूंकि सामान्य अपराधी होने पर समाज के किसी वर्ग का समर्थन या सहानुभूति नहीं मिलती इसलिये अपराधिक तत्व उनके नाम का सहारा लेकर एतिहासिक नायक बनने के लिये ऐसे प्रयास करते हैं। इस अपराध से उनको आर्थिक यकीनन लाभ होने के साथ प्रसिद्धि भी मिलती है क्योंकि उनके नाम टीवी और अखबार में छाये रहते हैं।
इस समय विश्व में अनेक ऐसे अनैतिक व्यवसाय हैं जिनको करने के लिये सभी देश की सरकारों और प्रशासन का ध्यान हटाना जरूरी लगता होगा तभी ऐसी वारदातों निरंतर की जा रही है ताकि वह चलते रहें।


आम आदमी चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र का हो वह अपनी औकात जानता है-भले ही अपने समूह के साथ होने का भ्रम पालना उसे अच्छा लगता है।
पिछले दिनों एक दिलचस्प खबर आई थी कि भारत की खुफिया एजंसियां देश में सभी भागों में सक्रिय सभी आतंकवादी संगठनों के मुखौटा संगठनों की जांच कर रही हैं। यह मुखौटा संगठन किसी आतंकवादी के मारे या पकड़े जाने पर भीड़ जुटाकर उसके समर्थन में आते हैं और इसके अलावा समय समय पर उनका वैचारिक समर्थन भी करते हैं। यह चेतना देखकर प्रसन्नता हुई।
संभव है कुछ बुद्धिजीवी केवल शाब्दिक विलासिता के लिये अनजाने में ऐसे आतंकवादियों की कथित विचाराधारा-यकीन मानिए यह उनका दिखावा मात्र होता है-के पक्ष में लिख जाते हों और उनके मन में ऐसी किसी हिंसा का समर्थन करने वाली बात न हो पर इसके बावजूद कुछ बुद्धिजीवी रंगे सियार हैं जो केवल उनके हित साधने के लिये प्रचार माध्यमों में जूझते रहते हैं। कभी कभी तो लगता है कि उनको बकायदा इसके लिये नियुक्त किया गया है।
हम आम लेखक हैं किसी को रोक नहीं सकते और न ही हमारे प्रतिवाद पर कोई ध्यान देता पर इसका आशय यह नहीं है कि लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये अनाप शनाप लिखने लगें। सच बात तो यह है कि प्रचार के शिखर पर वही लेखक छाये हुए हैं जिनको कहीं न कहीं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़े व्यवसाययिक घरानों, कथित धार्मिक संगठनों और फिर सामाजिक संस्थाओं (?) से कुछ न कुछ लाभ अवश्य मिलता होगा। जब कहीं दो कंपनियां इतनी ताकतवर हो सकती हैं कि किसी आतंकवादी को छुड़ाने के लिये ब्रिटेन जैसे ताकतवर देश की सरकार को बाध्य कर सकती हैं तो उनके प्रभाव को समझा जा सकता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अपराध और व्यापार एक दूसरे का सहारा हो गये हैं और कथित धर्मों, जातियों, भाषाओं के समूहों के आकर्षक नाम एक पट्टिका की तरह लगा देते हैं। यह सभी जानते हैं कि मानव मन की यह कमजोरी है कि वह अपनी जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम से बहुत मोह रखता है। इससे प्रचार माध्यमों का काम भी चलता है और उनको प्रचार भी मिलता है।
ऐसे में अपने साथी लेखकों और पाठकों से हम एक ही बात कह सकते हैं कि भई, तुम इस जाल में मत फंसो। यह एक ऐसा चक्क्र है जिसे समझने के लिये पैनी दृष्टि होना चाहिये।’ वैसे सच तो यह है कि इतनी सारी घटनायें और खबरे हैं कि एक सिरे से सोचेंगे तो दूसरे सिरे पर सोच ही बदल जायेगी। इसलिये सोचना ही बंद कर दो। मगर आदमी के पास बुद्धि है तो सोचेगा ही। हम तो धर्म जाति, भाषाओं के समूहों को ही भ्रामक मानते हैं। अमीर के लिये सभी दौड़े आते हैं गरीब की तरफ कोई नहीं झांकता। आदमी की स्थिति यह है कि अपना गरीब रिश्तेदार मर जाये तो उसकी अर्थी पर भी न जाये पर पराया अमीर भी मर जाये तो उसके शोक पर आंसु बहाता है ताकि समाज उसे संवदेनशील समझे।
जाने अनजाने कभी भी अपने समूह के नाम हिंसक तत्वों के प्रति हृदय में भी संवेदना नहीं लायें क्योंकि यह सभी समूह केवल अमीरो के लिये बने हैं। फिर क्या करें? अगर आप लेखक हैं तो कुछ सड़ी गली कवितायें लिखकर दिल बहला लीजिये और अगर आप पाठक हैं तो फिर उन बुद्धिजीवियों पर भी हंसें जो वैचारिक बहसें ऐसे करते हैं जैसे कि उनके समाज उनकी कल्पनाओं पर ही चलते है।
इसके अलावा अपने अंदर से भेदात्मक बुद्धि को परे कर दें जो अपने साथ अच्छा व्यवहार करे और उससे समय पर सहयोग की उम्मीद हो उसे अपना ही साथी समझें-जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर एकता की कोशिशों का आव्हान करने वालों के अपने स्वार्थ होते हैं जिसमें आम आदमी का स्थान केवल एक वस्तु के रूप में होता है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

पितृ दिवस पर नारियों की सहानुभुति-हास्य व्यंग्य


नारी स्वतंत्रता समिति की बैठक आनन फानन में बुलाई गयी। अध्यक्षा का फोन मिलते ही कार्यसमिति की चारों सदस्य उनके घर बैठक करने पहुंच गयी। चारों को देखकर अध्यक्षा बहुत खुश हो गयी और बोली-‘इसे कहते हैं सक्रिय समाज सेवा! एक फोन पर ही कार्यसमिति की चारों सदस्यायें पहुंच गयी।’
एक ने कहा-‘क्या बात है? आपने अचानक यह बैठक कैसे बुलाई। मैं तो आटा गूंथ रही थी। जैसे ही आपका मोबाइल पर संदेश मिला चली आयी। जब से इस समिति की कार्यसमिति मैं आयी हूं तब से हमेशा ही बैठक में आने को तैयार रहती हूं। बताईये काम क्या है?’
अध्यक्षा ने कहा-‘हां आपकी प्रतिबद्धता तो दिख रही है। आपने अपने हाथ तक नहीं धोये। आटे से सने हुए हैं, पर कोई बात नहीं। दरअसल आज मुझे इंटरनेट पर पता लगा कि आज ‘पितृ दिवस’ है। इसलिये सोचा क्यों न आज पुरुषों के लिये कोई सहानुभूति वाला प्रस्ताव पास किया जाये।’
यह सुनते ही दूसरी महिला नाराज हो गयी और वह अपने हाथ में पकड़ा हुआ बेलन लहराते हुए बोली-‘कर लो बात! पिछले पांच साल से पुरुष प्रधान समाज के विरुद्ध कितने मोर्चे निकलवाये। बयान दिलवाये। अब यह सफेद झंडा किसलिये दिखायें। इससे तो हमारी समिति का पूरा एजेंडा बदल जायेगा। आपकी संगत करते हुए इतना तो अहसास हो गया है कि जो संगठन अपने मूल मुद्दे से हट जाता है उसकी फिल्म ही पिट जाती है।’
अध्यक्षा ने उससे पूछा-‘क्या तुम रोटी बेलने की तैयारी कर रही थी।’
उसने कहा -‘हां, पर आप चिंता मत करिये यह बेलन आपको मारने वाली नहीं हूं। इसके टूटने का खतरा है। कल ही अपने पड़ौसी के लड़के चिंटू की बाल छत पर आयी मैंने उस गेंद को गुस्से में दूर उड़ाने के लिये बेलन मारा तो वह टूट गया। अब यह पुराना अकेला बेलन है जो मैं आपको मारकर उसके टूटने का जोखिम नहीं उठा सकती। वैसे आपके प्रस्ताव पर मुझे गुस्सा तो खूब आ रहा है।’
अध्यक्षा ने कहा-‘देखो! जरा विचार करो। आजकल वह समय नहीं है कि रूढ़ता से काम चले। अपनी समिति के लिये चंदा अब कम होता जा रहा है इसलिये कुछ धनीमानी लोगों को अपने ‘स्त्री पुरुष समान भाव’ से प्रभावित करना है। फिर 364 दिन तो हम पुरुषों पर बरसते हैं। यहां तक वैलंटाईन डे और मित्र दिवस जो कि उनके बिना नहीं मनते तब भी उन्हीं पर निशाना साधते हैं। एक दिन उनको दे दिया तो क्या बात है? मुद्दों के साथ अपने आर्थिक हित भी देखने पड़ते हैं। अच्छा तुम बताओ? क्या तुम अपने बच्चों के पिता से प्यार नहीं करती?’
तीसरी महिला-जो फोन के वक्त अपने बेटे की निकर पर प्र्रेस कर रही थी-उसे लहराते हुए बोली-‘बिल्कुल नहीं! आपने समझाया है न! प्यार दिखाना पर करना नहीं। बस! प्यार का दिखावा करती हैं। वैसे यह निकर सफेद है पर हमसे यह आशा मत करिये कि ‘पितृ दिवस’ पर इसे फहरा दूंगी। पहले तो यह बताईये कि इस पितृ दिवस पर पुरुषों के लिए हमदर्दी वाला प्रस्ताव पास करने का विचार यह आपके दिमाग में आया कैसे?’
अध्यक्षा ने कहा-‘ पहली बात तो यह है कि तुम मेरे सामने ही मेरे संदेश को उल्टा किये दे रही हो। मैंने कहा है कि अपने बच्चों के पिता से प्यार करो पर दिखाओ नहीं। दूसरी बात यह कि आजकल हमारी गुरुमाता इंटरनेट पर भी अपने विचार लिखती हैं। उन्होंने ही आज उस पर लिखा था ‘पितृ दिवस पर सभी पुरुषों के साथ हमदर्दी’। सो मैंने भी विचार किया कि आज हम एक प्रस्ताव पास करेंगे।’
चौथी महिला चीख पड़ी। उसके हाथ मे कलम और पेन थी वह गुस्सा होते हुए बोली-‘आज आप यह क्या बात कर रही हैं। आपकी बताई राह पर चलते हुए मैंने एक वकील साहब के यहां इसलिये नौकरी की ताकि उनके सहारे अपने आसपास पीड़ित महिलाओं की कानूनी सहायता कर सकूं। देखिये यह एक पति के खिलाफ नोटिस बना रही थी।’
अध्यक्षा ने एकदम चौंकते हुए कहा-‘अरे, क्या बात कर रही हो। पति तो एक ही होता है? उसे नोटिस क्यों थमा रही हो? मेरे हिसाब से तुम्हारा पति गऊ है।’
‘‘उंह…उंह….मैं अपने पति को बहुत प्यार करती हूं पर आपके कहे अनुसार दिखाती नहीं हूं। पर वह गऊ नहीं है। हां, यह नोटिस एक पीड़ित महिला के पति के लिये बना रही हूं।’चौथी महिला ने हंसते हुए कहा-‘खाना बनाते समय कई बार जब मेरे रोटी पकाते वक्त पीछे से बेलन दिखाते है और जब सामने देखती हूं तो रख देते है। मेरे बेटे ने एक बार उनकी अनुपस्थिति में बताया।’
अध्यक्षा ने कहा-‘पहले तो तुम रोटी पकाती थी न?’
चौथी वाली ने कहा-‘आपकी शिष्या बनने के बाद यह काम छोड़ दिया है। मेरे पति सुबह खाना बनाने और बच्चों को स्कूल भेजने के बाद काम पर जाते हैं और मैं सारा दिन समाज सेवा में आराम से बिताती हूं। आपने जो राह दिखाई उसी पर चलने में आनंद है पर यह आप आज क्या लेकर बैठ गयीं। हमें यह मंजूर नहीं है। अब अगर सफेद झंडे दिखाये तो मुझे रोटी पकानी पड़ेगी। नहीं बाबा! न! आप आज यह भूल जाईये। 364 दिन मुट्ठी कसी रही तो ठीक ही है। एक दिन ढीली कर ली तो फिर अगले 364 दिन तक बंद रखना कठिन होगा।’
अध्यक्षा ने कहा-‘तुम अपने घर पर यह मत बताना।’
पहली वाली ने कहा-‘पर अखबार में तो आप यह सब खबरें छपवा देंगी। हमारे पति लोग पढ़ लेंगे तो सब पोल खुल जायेगी।’
अध्यक्षा ने पूछा-‘कैसी नारी स्वतंत्रता सेनानी हो? क्या पति से छिपकर आती हो?’
दूसरी वाली ने कहा-‘नहीं! उनको पता तो सब है पर अड़ौस पड़ौस में ऐसे बताते हैं कि पतियों से छिपकर बाहर जाते हैं। अरे, भई इसी तरह तो हम बाकी महिलाओं को यह बात कह सकते हैं कि हम कितनी पीड़ित हैं और उनको अपने ही घरों में विद्रोह की प्रेरणा दे सकते हैं। अपना घर तो सलामत ही रखना है।’
अध्यक्षा ने कहा-‘भई, इसी कारण कह रही हूं कि आज पुरुषों के लिये संवेदना वाला प्रस्ताव करो। ताकि उनमें कुछ लोग हमारी मदद करने को तैयार हो जायें। यह सोचकर कि 364 दिन तो काले झंडे दिखाती हैं कम से कम एक दिन तो है जिस दिन हमारे साथ संवेदनाऐं दिखा रही हैं।’
तीसरी वाली ने अपनी हाथ में पकड़े सफेद नेकर फैंक दी और बोली-‘नहीं, हम आपकी बात से सहमत नहीं हैं।’
चौथी वाली ने कहा-‘आपके कहने पर इतना हो सकता है कि यह नोटिस आज नहीं कल बना दूंगी पर आप मुझसे किसी ऐसे प्रस्ताव पर समर्थन की आशा न करें।’
अध्यक्षा ने कहा-‘अच्छा समर्थन न करो। कम से कम कम एक प्रस्ताव तो लिखकर दो ताकि अखबार में प्रकाशित करने के लिये भेज सकूं। तुम्हें पता है कि मुझे केवल गुस्से में ही लिखना आता है प्रेम से नहीं।’
चौथी वाली महिला तैयार नहीं थी। इसी बातचीत के चलते हुए एक बुजुर्ग आदमी ने अध्यक्षा के घर में प्रवेश किया। वह उसके यहां काम करने वाली लड़की का पिता था। अध्यक्षा ने उसे देखकर अपने यह काम करने वाली लड़की को पुकारा और कहा-‘बेटी जल्दी काम खत्म करो। तुम्हारे पिताजी लेने आये हैं।’
वह लड़की बाहर आयी और बोली-‘मैडम मैंने सारा खत्म कर दिया है। बस, आप चाय की पतीली उतार कर आप स्वयं और इन मेहमानों को भी चाय पिला देना।’
लड़की के पिता ने कहा-‘बेटी, तुम सभी को चाय पानी पिलाकर आओ। मैं बाहर बैठा इंतजार करता हूं। आधे घंटे में कुछ बिगड़ नहीं जायेगा।’
लड़की ने कहा-‘बापू, आप भी तो मजदूरी कर थक गये होगे। घर देर हो जायेगी।’
लड़की के पिता ने कहा-‘कोई बात नहीं।
वह बाहर चला गया। लड़की चाय लेकर आयी। अध्यक्षा ने कहा-‘तुम एक कप खुद भी ले लो और पिताजी को भी बाहर जाकर दो।’
लड़की ने कहा-‘मैं तो किचन में चाय पीने के बाद कप धोकर ही बाहर जाऊंगी। मेरे बापू शायद ही यहां चाय पियें। इसलिये उनको कहना ठीक नहीं है। वह मुझसे कह चुके हैं कि किसी भी मालिक के घर लेने आंऊ तो मुझे पानी या चाय के लिये मत पूछा करो।’
लड़की और उसके पिताजी चले गये। उस समिति की सबसे तेजतर्रार सदस्या च ौथी महिला ने बहुत धीमी आवाज में अध्यक्षा से कहा-‘आप कागज दीजिये तो उस पर प्रस्ताव लिख दूं।’
फिर वह बुदबुदायी-‘पिता क्या कम तकलीफ उठाता है।’
ऐसा कहकर वह छत की तरफ आंखें कर देखने लगी। तीसरी वाली महिला ने वह सफेद निकर अपने हाथ में ले ली। दूसरी वाली महिला ने अपना बेलन पीछे छिप लिया और पहली वाली ग्लास लेकर अपना हाथ धोने लगी।
नोट-यह एक काल्पनिक व्यंग्य रचना है। इसका किसी व्यक्ति या घटना से कोई लेना देना नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा। यह लेखक किसी भी नारी स्वतंत्रता समिति का नाम नहीं जानता है न उसकी सदस्या से मिला है।
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जीन के गुण ही तो गुण में बरतते हैं-चिंत्तन आलेख


पश्चिमी विज्ञान मानव शरीर में स्थित जीन के आधार पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत करता है जबकि यही विश्लेषण भारतीय दर्शन ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं‘ के आधार पर करता है। पश्चिमी विश्लेषण मनुष्य के स्वभाव में उन जीनों के प्रभाव का वर्णन करते हैं जबकि भारतीय दर्शन उनको गुणों का परिणाम कहकर प्रतिपादित करता है।
मनुष्य की पहचान उसका मन है और देह में स्थित होने के कारण उसमें विद्यमान गुण या जीन से प्रभावित होता है इसमें संशय नहीं हैं। जब शरीर में कोई भीषण विकार या पीड़ा उत्पन्न होती है तब मन कहीं नहीं भाग पाता। उस समय केवल उससे मुक्ति की अपेक्षा के अलावा वह कोई विचार नहीं। करता। मन में विचार आते हैं कि ‘अमुक पीड़ा दूर हो जाये तो फिर मैं एसा कुछ नहीं करूंगा जिससे यह रोग फिर मुझे घेरे।’
कभी अपने आप तो कभी दवा से वह ठीक हो जाता है पर फिर उसका मन सब भूल जाता है। व्यसन करने वाले लोग इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। जब अपने व्यसन की वजह से भारी तकलीफ में होते हैं तब सोचते हैं कि अब इसका प्रभाव कम हो तो फिर नहीं करेंगे।’

ऐसा होता नहीं है। व्यसन कर प्रभाव कम हाते े ही वह फिर उसी राह पर चलते हैं। अपने ज्ञान के आधार पर मै यह कह सकता हूं कि‘शुरूआत में व्यसन आदमी किसी संगत के प्रभाव में आकर करता है फिर वही चीज-शराब और तंबाकू-मनुष्य के शरीर में अपना गुण या जीन स्थापित कर लेती है और आदमी उसका आदी हो जाता है। याद रहे वह गुण व्यसन करने से पहले उस आदमी में नहीं होता।

पश्चिमी विज्ञान कहता है कि आदमी में प्रेम, घृणा, आत्महत्या, चिढ़चिढ़ेपन तथा अन्य क्रियाओं के जीन होते हैं पर वह यह नहीं बताता कि वह जीन बनते कैंसे हैं? भारतीय दर्शन उसको स्पष्ट करता है कि मनुष्य में सारे गुण खाने-पीने के साथ ही दूसरों की संगत से भी आते हैं। मेरा मानना है कि मनुष्य सांसें लेता और छोड़ता है और उससे उसके पास बैठा आदमी प्रभावित होता है। हां, याद आता है कि पश्चिम के विज्ञानी भी कहते हैं कि सिगरेट पीने वाले अपने से अधिक दूसरे का धुंआ छोड़कर हानि पहुंचाते हैं। इसका अर्थ यह है कि विकार वायु के द्वारा भी आदमी में आते हैं। अगर आप किसी शराबी के पास बैठेंगे और चाहे कितनी भी सात्विक प्रवृत्ति के हों और उसकी बातें लगातार सुन रहे हैं तो उसकी कही बेकार की बातें कहीं न कहीं आपके मन पर आती ही है जो आपका मन वितृष्णा से भर देती है। इसके विपरीत अगर आप किसी संत के प्रवचन-भले ही वह रटकर देता हो-सुनते हैं तो आपके मन में एक अजीब शांति हो जाती है। अगर आप नियमित रूप से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें जिसे आप ठीक नहीं समझते तो ऐसा लगेगा कि वह आपके तनाव का कारण बन रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि पांच तत्वों-प्रथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु- से बनी यह देह इनके साथ सतत संपर्क में रहती है और उनके परिवर्तनों से प्रभावित होती है और इसके साथ ही उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृति भी प्रभावित होती है। इन परिवर्तनों से मनुष्य की देह में जीन या गुणों का निर्माण और विसर्जन होता है और वह उसका प्रदर्शन वह बाहर व्यवहार से कराते हैं।
पश्चिम के विद्वान इन जीन को लेकर विश्लेषण करते हुए उनके उपचार के लिए अनुसंधान करते हैं। अनेक तरह के आकर्षक तर्क और सुसज्तित प्रयोगशालाओं से निकले निष्कर्ष पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनते हैं और भारतीय अध्यात्म को पूरी तरह नकार चुके हमारे देश के विद्वान अखबार, टीवी चैनलो, रेडियो और किताबों उनका प्रचार कर यहां ख्याति अर्जित करते हैं। हां, लोग सवाल करेंगे कि भारतीय अध्यात्म में भला इसका इलाज क्या है?

हमारा अध्यात्म कहता है लोग तीन तरह के होते हैं सात्विक, राजस और तामस। यहां उनके बारे में विस्तार से चर्चा करना ठीक नहीं लगता पर जैसा आदमी होगा वैसा ही उसका भोजन और कर्म होगा। वैसे ही उसके अंदर गुणों का निर्माण होगा।

श्रीगीता के सातवों अध्याय के (श्लोक आठ) अनुसार आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा जो स्वभाव से ही मन को प्रिय हो ऐसा भोजन सात्विक को प्रिय होते हैं।

नौवें श्लोक के अनुसार कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक, दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।


दसवें श्लोक के अनुसार -अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट तथा अपवित्र है वह भोजन तामस को प्रिय होता है।

पश्चिम के स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार देह की अधिकतर बीमारियां पेट के कारण ही होती हैं। यही विज्ञान यह भी कहता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। हमारा अध्यात्म और दर्शन भी यही कहता है कि गुण ही गुण को बरतते है। इसके बावजूद पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म में मौलिक अंतर है। पश्चिमी विज्ञान शरीर और मन को प्रथक मानकर अलग अलग विश्लेषण करता है। वह मनुष्य की समस्त क्रियाओं यथा उठना, बैठना, चलना और कामक्रीडा आदि को अलग अलग कर उसकी व्याख्या करता है। इसके विपरीत भारतीय अध्यात्म या दर्शन मनुष्य को एक इकाई मानता है और उसके अंदर मौजूद गुणों के प्रभाव का अध्ययन करता है। अगर योग की भाषा के कहें तो सारा खेल ‘मस्तिष्क में स्थित ‘आज्ञा चक्र’ का है। पश्चिमी विज्ञान भी यह तो मानता है कि मानसिक तनाव की वजह से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और वह उनका इलाज भी ढूंढता है पर जिन मानसिक विकारों से वह उत्पन्न होते हैं और मनुष्य की देह में अस्तित्वहीन रहें ऐसा इलाज उसके पास नहीं है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान केवल धर्म प्रवचन के लिऐ नहीं है वह जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित है। यह मनुष्य के देह और मन में स्थित विकारों को दूर करने के लिए केवल शब्दिक संदेश नहीं देता बल्कि योगासन, प्राणायम और ध्यान के द्वारा उनको दूर करने का उपाय भी बताता है। अध्यात्म यानि हमारी देह में प्राणवान जीव आत्मा और उससे जानने की क्रिया है ज्ञान। अन्य विचाराधारायें आदमी को प्रेम, परोपकार और दया करने के का संदेश देती हैं पर वह देह में आये कैसे यह केवल भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान ही बताता हैं। अगर सुबह उठकर योगासन, प्राणायम, और ध्यान किया जाये तो देह में वह जीन या गुण स्वयं ही आते है जिनसे आदमी प्रेम, परोपकार और दया करने लगता है। देह और मन के विकार को निकाले बिना आदमी को सही राह पर चलने का उपदेश ऐसा ही है जैसे पंचर ट्यूब में हवा भरना।
अगर कोई आदमी बीमार होता है तो डाक्टर कहते हैं कि चिकनाई रहित हल्का भोजन करो जबकि भारतीय दर्शन कहता है कि चिकना, रसयुक्त स्थिर भोजन ही सात्विक है। इसका अर्थ यह है कि डाक्टर जिनको यह भोजन मना कर रहा है उनमें विकार ही इस सात्विक भोजन के कारण है। ऐसा भोजन करने के लिये परिश्रम करना जरूरी है पर आजकल धनी लोग इसे करते नहीं है। श्रीगीता कहती है कि अकुशल श्रम से सात्विक लोग परहेज नहीं करते। आजकल के लोग अकुशल श्रम करने में संकोच करते हैं और यही कारण है कि लोगों में आत्म्विश्वास की कमी होती जा रही है और ऐसे जीन या दुर्गुण उसमें स्वतः आ जाते हैं जो उसे झूठे प्रेम,पुत्यकार की भावना से उपकार और कपटपूर्ण दया में लिप्त कर देते हैं। कुल मिलाकर पश्चिमी विज्ञान की खोज जीन चलते हैं जबकि भारतीय दशैन की खोज ‘गुण ही गुण बरतते हैं। वैसे देखा जाये तो देश में जितनी अधिक पुस्तकें पश्चिमी ज्ञान से संबंधित है भारत के पुरातन ज्ञान उसके अनुपात में कम है पर वह वास्तविकता पर आधारित हैं। संत कबीर दास जी के अनुसार अधिक पुस्तकें पढ़ने से आदमी भ्रमित हो जाता है और शायद यही कारण है कि लोग भ्रमित होकर ही अपना जीवन गुजार रहे हैं। इस विषय पर इसी ब्लाग पर मै फिर कभी लिखूंगा क्योंकि यह आलेख लिखते समय दो बार लाईट जा चुकी है और मेरा क्रम बीच में टूटा हुआ था इसलिये हो सकता है कि विषयांतर हुआ हो पर उस दौरान भी मैं इसी विषय पर सोचता रहा था। बहुत सारे विचार है जो आगे लिखूंगा।

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चांदी के कप की खातिर- हास्य व्यंग्य कविताएँ


इतिहास में नाम दर्ज करने की
अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिये
वह किसी भी हद तक जाऐंगे।
कहीं जिंदा आदमी भूत बनाकर सजायेंगे
तो कहीं भूत को ही फरिश्ता बतायेंगे।।
………………………
चांदी के कप की खातिर
खेल में बन जाता है जंग का मैदान।
जीतने वाले की कद्र
उसके कारनामों से नहीं
चांदी से बढ़ती है शान।
पता नहीं किस पर सीना फुलाता है वह
अपने पसीने और घावों पर
या चांदी की चमक पर होकर हैरान।
……………………….
पांव हैं जमीन पर
किन्तु आकाश की तरफ है ध्यान।
जमीन से कोई सोना उगकर
पेट में नहीं जाता
सिर पर सजाने के लिये
कोई हीरा ऊपर से नहीं आता
दो पाटों की चक्की में
यूं ही पिस जाता है इंसान।

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कागज़ पर कलम से जूते न सजाओ-व्यंग्य कविता


अपनी कलम से कागज पर
काली स्याही से जूता शब्द
बार बार इस तरह न सजाओ
कि आकाश से झुंड के झुंड बरसने लगे।
इस नीली छतरी के नीचे
तुम्हारा सिर भी घूमता है
कभी वह उस पर न चमकने लगे।

सभी भी नासिका में दो सुराख है
जहां से अच्छी हवाओं के साथ
बुरी के आने के अंदेशे भी बहुत है
जूतों की दुर्गंध से
अपनी कलम को इतना न नहलाओ
कि उसकी आदत ही हो जाये
उसे सूंघने की
और तुम्हारा दिल सुगंध को तरसने लगे

इज्जत वही है जो बीच बाजार नहीं बिकती
घर की बात घर में रहे
चाहे इंसान जितन दर्द सहे
कमीज के नीचे बनियान फटी नहीं दिखती
अपने जूते के अंदर फटे मौजे
छिपा सकते हो तभी तक
जब तक पंगत में खाने नहीं बैठे
नजर पड़ जाती है जमाने की
तब अपनी ही आंखों में अपनी बेइज्जती दिखती
दूसरे पर उड़ते जूते देख
कभी न इतराओ
दौलत और शौहरत के साथी ही
आबरु का पहिया भी घूमता है
दुनियां की पहिये की तरह
दूसरे के बेआबरु होने पर हंसने वालों
जूते पांव तले ही सुहाते हैं
दूसरे की तरफ फैंकें जूते पर
हंसने की कोशिश मत करो
भला जूते कहां आदमी की पहचान कर पाते हैं
किसी के पांव के जूते बढ़ सकते हैं
तुम्हारी तरफ भी
क्या गुजरेगी तुम पर
जब जमाने भर के लोग मचलने लगे।

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मस्त राम……………की हिप हुर्र हुर्र


अपने कुछ ब्लाग/पत्रिका का नामकरण हमने मस्तराम के नाम पर आज कर ही दिया। आज होली का पर्व है और एक लेखक के नाते ऐसा समय हमारे लिये अकेले चिंतन करने का होता है। पिछले दो वर्षों से हम अंतर्जाल पर जूझ रहें पर अभी तक फ्लाप बने हुए हैं। हिंदी के सभी ब्लाग जबरदस्त हिट पाते जा रहे हैं और हम है कि ताकते रह जाते हैं।

यह बात यह ठीक है जो हिट हैं वह हमसे अच्छा और प्रासंगिक लिखते हैं पर और एक लेखक मन इस बात को कहां मानता है कि हम खराब लिखते हैं। इधर हमसे पुराने ब्लाग नित नयी बातें सामने रखकर विचलित कर देते हैं तो फिर दिमाग में आता है कि कोई ऐसी रणनीति बनाओ कि खुद भी हिट हो जायें। बहुत दिन से संकोच हो रहा था पर आज सारा संकोच त्याग कर अपने उन ब्लाग/पत्रिकाओं में अपने नाम के आगे मस्तराम शब्द जोड़ ही दिया जिन पर पहले लिखकर हटा लिया था।

दरअसल हुआ यूं कि पुराने ब्लाग लेखकों ने अपने पाठों में बताया कि इंटरनेट पर हिंदी विषयों के शब्द गूगल के सर्च इंजिनों में बहुत कम ढूंढे जाते जाते हैं-आशय यह है कि चाहे रोमन लिपि में हो या देवनागरी लिपि में लोग इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने के बहुत कम इच्छुक हैं। वैसे हमने स्वयं सर्च इंजिनों के ट्रैंड में जाकर यह बात पहले भी देखी थी और उसी आधार पर अपनी रणनीति बनाते रहे पर सफलता नहीं मिली। कल फिर गूगल के सर्च इंजिन ट्रैंड को देखा तो यथावत स्थिति दिखाई दी। वैसे हमने यह तो पहले ही देख लिया था कि मस्त राम शब्द की वजह से पाठक अधिक ही मिलते हैं। अपने एक ब्लाग पर हमने अपने नाम के आगे मस्त राम लिखकर छोड़ दिया तो देखा कि एक महीने तक नहीं लिखने पर भी वहां पाठक अच्छी संख्या में आते हैं और वह अपने अधिक पाठकों की संख्या के कीर्तिमान को स्वयं ही ध्वस्त करता जाता है जबकि सामान्य ब्लाग तरसते लगते हैं। हमारा यह ब्लाग बिना किसी फोरम की सहायता के ही 6500 से अधिक पाठक जुटा चुका है। एक अन्य ब्लाग भी तीन हजार के पास पहुंच गया था पर वहां से जैसे ही मस्तराम शब्द हटाया वह अपने पाठक खो बैठा।

ऐसे में सोचा कि जिन ब्लाग पर हमने ‘मस्त राम’ जोड़कर पाठक जुटाये और फिर हटा लिया तो क्यों न उनको पुराना ही रूप दिया जाये? एक मजे की बात यह है कि हमने मस्त राम का शब्द उपयोग किसी उद्देश्य को लेकर नहीं किया था। हमारी नानी हमको इसी नाम से पुकारती थी। जब ब्लाग@पत्रिका बनाना प्रारंभ किया तो बस ऐसे ही यह नाम उपयोग में लिया। बाद में समय के साथ अनेक अनुभव हुए तब पता लगा कि उत्तर प्रदेश में यह नाम अधिक लोकप्रिय रहा है और धीरे धीरे पूरे देश में फैल रहा है।
इस होली पर बैठे ठाले यह ख्याल आया कि क्यों न हम साल भर तक अपनी स्वर्गीय नानी द्वारा प्रदत्त प्यार का नाम मस्त राम का प्रयोग करते रहेंगे। वैसे वर्डप्रेस के हमारे अनेक ब्लाग स्वतः ही पाठक जुटा रहे हैं पर संख्या स्थिर हैं।

हमने अनेक शब्दों का प्रयोग करके देखा तो भारी निराशा हाथ लगी पर साथ में आशा की किरण जाग्रत हुई। लोगों का भगवान राम के प्रति लगाव है और सर्च इंजिनों में रोमन में उनका नाम लिखकर तलाश होती रहती है। जिन टैगों का हम उपयोग करते हैं उनका कोई ग्राफ नहीं मिला। तय बात है कि उनकी संख्या अधिक नहीं है। जहां तक मस्त राम का सवाल है तो हमारे सामान्य ब्लाग@पत्रिका में जो टैग मस्त राम के नाम पर है वहां भी पाठक पहुंचते हैं।
फिल्मी हीरोईनों के नाम पर सर्च इंजिनों में भारत के इंटरनेट सुविधाभोगी भीड़ लगाये हुए हैं। हैरानी होती है यह देखकर! टीवी, रेडियो और अखबारों में उनके नाम और फोटो देखकर भी उनका मन नहीं भरता। कहते हैं कि परंपरागत प्रचार माध्यमों से ऊबकर भारत के लोग इंटरनेट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं पर उनका यह रवैया इस बात को दर्शाता कि उनकी मानसिकता में बदलाव केवल साधन तक ही सीमित है साध्य के स्वरूप में बदलाव में उनकी रुचि नहीं हैं। अब इसके कारणों में जाना चाहिये। इसका कारण यह है कि हिंदी में मौलिक, स्वतंत्र और नया लिखने वाले सीमित संख्या में है। अभी तक लोग या तो दूसरों की बाहर लिखी रचनायें यहां लिख रहे हैं या अनुवाद प्रस्तुत कर अपना ब्लाग सजाते हैं। अगर मौलिक लेखक है तो शायद वह इतना रुचिकर नहीं है जितना होना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि अंतर्जाल पर दूसरे के लिखे की नकल चुरा लिये जाने का पूरा खतरा है दूसरा यह कि मौलिक लेखक के हाथ से लिखने और टाईप करने में स्वाभाविक रूप से अंतर आ जाता है। ऐसे में आम पाठकों की कमी से मनोबल बढ़ता नहीं है इसलिये बड़ी रचनायें लिखना समय खराब करना लगता है। जब यह पता लगता है कि हिंदी में नगण्य पाठक है तो ऐसे ब्लाग लेखक निराश हो ही जाते जिनके लिये यहां न नाम है न नामा। इतना ही नहीं कुछ वेबसाइटें तो ऐसी हैं जो ब्लाग लेखकों के टैग और श्रेणियों के सहारे सर्च इंजिनों में स्वयं को स्थापित कर रही हैं। हिंदी के चार फोरमों के लिये तो कोई शिकायत नहीं की जा सकती पर कुछ वेबसाईटें इस तरह व्यवहार कर रहीं हैं जैसे कि ब्लाग लेखक उनके लिये कच्चा माल हैं। यह सही है कि उनकी वजह से भी बहुत सारे पाठक आ रहे हैं पर सवाल यह है कि इससे ब्लाग लेखक को क्या लाभ है?

यह सच है कि अंतर्जाल पर हिंदी की लेखन यात्रा शैशवकाल में है। लिखने वाले भी कम है तो पढ़ने वाले भी कम। ऐसे में ब्लाग लेखक के लिये यह भी एक रास्ता है कि वह अपने लिखने के साथ ऐसे भी मार्ग तलाशे जहां उसे पाठक अधिक मिल सकें। यही सोचकर हमने होली के अवसर पर यही सोचा कि अब अपनी नानी द्वारा प्रदत्त नाम का भी क्यों न नियमित रूप से उपयोग करके देखें जिसकों लेकर अभी तक गंभीर नहीं थे। इस होली पर बोलो मस्त राम………………………………की हिप हुर्र हुर्र।

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किसी की भक्ति भी होती है सनसनीखेज खबर- हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)


जहां तक मेरी जानकारी है खबर में यही था कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद उम्मीदवार ओबामा अपनी जेब में रखने वाले पर्स में कुछ पवित्र प्रतीक रखते हैं और उसमें सभवतः हनुमान जी की मूर्ति भी है, पर इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है।
यह खबर देश के प्रमुख समाचार माध्यम ऐसे प्रकाशित कर रहे हैं जैसे कि कोई उनके हाथ कोई खास खबर लग गयी है और देश का कोई खास लाभ होने वाला है। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि जिस अखबार में मैंने यह खबर पढ़ी उसमें साफ लिखा था कि ‘इसकी पुष्टि नहंी हो पायी।‘

जिस तरह इस खबर का प्रचार हो रहा है उससे लगता है कि अगर इसकी पुष्टि हो जाये तो फिर ओबामा की तस्वीरों की यहां पूजा होने लगेगी। जब पुष्टि नहीं हो पायी है तब यह शीर्षक आ रहे हैं ‘हनुमान भक्त ओबामा’, ओबामा करते हैं हनुमान जी में विश्वास’ तथा ‘हनुमान जी की मूति ओबामा के पर्स में’ आदि आदि। एक खबर जिसकी पुष्टि नहीं हो पायी उसे जबरिया सनसनीखेज और संवेदनशीन बनाने का प्रयास। यह कोई पहला प्रयास नहीं है।
अगर मान लीजिये ओबामा हनुमान जी में विश्वास रखते भी हैं तो क्या खास बात है? और नहीं भी करें तो क्या? वैसे हम कहते हैं कि भगवान श्रीराम और हनुमान जी हिंदूओं के आराध्यदेव हैं पर इसका एक दूसरा रूप भी है कि विश्व में जितने भी भगवान के अवतार या उनके संदेश वाहक हुए हैं इन्हीं प्रचार माध्यमों से सभी जगह प्रचार हुआ है और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में जो आकर्षण है उससे कोई भी प्रभावित हो सकता है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और हनुमान के चरित्र विश्व भर में प्रचारित हैं और कोई भी उनका भक्त हो सकता है। श्रीरामायण और श्रीगीता पर शोध करने में कोई विदेशी या अन्य धर्म के लोग भी पीछे नहीं है।

ओबामा हनुमान जी भक्त हैं पर इस देश में असंख्य लोग उनके भक्त हैं। मैं हर शनिवार और मंगलवार को मंदिर अवश्य जाता हूं और वहां इतनी भीड़ होती है कि लगता है कि अपने स्वामी भगवान श्रीराम से अधिक उनके सेवक के भक्त अधिक हैं। कई जगह भगवान के श्रीमुख से कहा भी गया है कि मुझसे बड़ा तो मेरा सेवक और भक्त है-हनुमान जी के चरित्र को देखकर यह प्रमाणित भी होता है। भगवान श्रीराम की पूजा अर्चना के लिए कोई दिन नियत हमारे नीति निर्धारकों ने तय नहीं किया इसलिये उनके मंदिरों में लोग रोज आते जाते हैं और किसी खास पर्व के दिन पर ही उनके मंदिरों में भीड़ होती है और उस दिन भी हनुमान के भक्त ही अधिक आते हैं। यानि भारत के लोगों में हृदय में भगवान श्रीराम और हनुमान जी के लिये एक समान श्रद्धा है और उनकी कृपा भी है। फिर ओबामा को लेकर ऐसा प्रचार क्यों?

लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश बेकार है कि देखो हमारे भगवान सब जगह पूजे जा रहे हैं इसलिये फिक्र की बात नहीं है अभी किसी दूसरे देश में किसी पर की है कभी हम पर भी करेंगे। इस प्रचार तो वही प्रभावित होंगे कि जिनको मालुम ही नहीं भक्ति होती क्या है? भक्ति कभी प्रचार और दिखावे के लिये नहीं होती। इतना शोर मच रहा है कि जैसे ओबामा ने पर्स में हनुमान जी मूर्ति रख ली तो अब यह प्रमाणित हो गया है कि हनुमान जी वाकई कृपा करते हैं। मगर इस प्रमाण की भी क्या आवश्यकता इस देश में है? यहां ऐसे एक नहीं हजारों लोग मिल जायेंगे जो बतायेंगे कि किस तरह हनुमान जी की भक्ति से उनको लाभ होते हैं। जिन लोगों में भक्ति भाव नहीं आ सकता उनके लिये यह प्रमाण भी काम नहीं करेगा। भगवान श्रीराम के निष्काम भाव से सेवा करते हुए श्री हनुमान जी ने उनके बराबर दर्जा प्राप्त कर लिया-जहां भगवान श्रीराम का मंदिर होगा वहां हनुमान जी की मूर्ति अधिकतर होती है पर हनुमान जी मंदिर में भगवान श्रीराम की मूर्ति हो यह आवश्यक नहीं है- पर ओबामा उनकी तस्वीर पर्स में रखकर क्या बनने वाले हैं। पांच साल अधिक से अधिक दस साल अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के अलावा उनके पास कोई उपलब्धि नहीं रहने वाली है। तात्कालिक रूप से यह उपलब्धि अधिक लगती है पर इतिहास की दृष्टि से कोई अधिक नहीं है। अमेरिका के कई राष्ट्रपति हुए हैं जिनके नाम हमें अब याद भी नहीं रहते। फिर अगर उनके हाथ सफलता हाथ लगती है तो वह किसकी कृपा से लगी मानी जायेगी। जहां तक मेरी जानकारी है तीन अलग-अलग प्रतीकों की बात की जा रही है जिनमें एक हनुमान जी की मूर्ति भी है। फिर यह प्रचार क्यों?

भारत सत्य का प्रतीक है और अमेरिका माया का। माया जब विस्तार रूप लेती है तो मायावी लोग सत्य के सहारे उसे स्थापित करने का प्रयास करते हैं। जिनके पास इस समय माया है उनको अमेरिका बहुत भाता है इसलिये वहां की हर खबर यहां प्रमुखता से छपती है। अगर वह धार्मिक संवेदनशीलता उत्पन्न करने वाली हो तो फिर कहना ही क्या? एक बात बता दूं कि इस बारे में मैंने एक ही अखबार पढ़ा है और उसमें इसकी पुष्टि न करने वाली बात लिखी हुई। तब संदेह होता है कि यह सच है कि नहीं। और है भी तो मेरा सवाल यह है कि इसमें खास क्या है? क्या हनुमान जी की भक्ति करने वाले मुझ जैसे लोगों को किसी क्रे प्रमाण या विश्वास के सहारे की आवश्यकता है?

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शैतान कभी मर नहीं सकता-हास्य व्यंग्य


शैतान कभी इस जहां में मर ही नहीं सकता। वजह! उसके मरने से फरिश्तों की कदर कम हो जायेगी। इसलिये जिसे अपने के फरिश्ता साबित करना होता है वह अपने लिये पहले एक शैतान जुटाता है। अगर कोई कालोनी का फरिश्ता बनना चाहता है तो पहले वह दूसरी कालोनी की जांच करेगा। वहां किसी व्यक्ति का-जिससे लोग डरते हैं- उसका भय अपनी कालोनी में पैदा करेगा। साथ ही बतायेगा कि वह उस पर नियंत्रण रख सकता है। शहर का फरिश्ता बनने वाला दूसरे शहर का और प्रदेश का है तो दूसरे प्रदेश का शैतान अपने लिये चुनता है। यह मजाक नहीं है। आप और हम सब यही करते हैं।

घर में किसी चीज की कमी है और अपने पास उसके लिये लाने का कोई उपाय नहीं है तो परिवार के सदस्यों को समझाने के लिये यह भी एक रास्ता है कि किसी ऐसे शैतान को खड़ा कर दो जिससे वह डर जायें। सबसे बड़ा शैतान हो सकता है वह जो हमारा रोजगार छीन सकता है। परिवार के लोग अधिक कमाने का दबाव डालें तो उनको बताओं कि उधर एक एसा आदमी है जिससे मूंह फेरा तो वह वर्तमान रोजगार भी तबाह कर देगा। नौकरी कर रहे हो तो बास का और निजी व्यवसाय कर रहे हों तो पड़ौसी व्यवसायी का भय पैदा करो। उनको समझाओं कि ‘अगर अधिक कमाने के चक्कर में पड़े तो इधर उधर दौड़ना पड़ा तो इस रोजी से भी जायेंगे। यह काल्पनिक शैतान हमको बचाता है।
नौकरी करने वालों के लिये तो आजकल वैसे भी बहुत तनाव हैं। एक तो लोग अब अपने काम के लिये झगड़ने लगे हैं दूसरी तरफ मीडिया स्टिंग आपरेशन करता है ऐसे में उपरी कमाई सोच समझ कर करनी पड़ती है। फिर सभी जगह उपरी कमाई नहीं होती। ऐसे में परिवार के लोग कहते हैं‘देखो वह भी नौकरी कर रहा है और तुम भी! उसके पास घर में सारा सामान है। तुम हो कि पूरा घर ही फटीचर घूम रहा है।
ऐसे में जबरदस्ती ईमानदारी का जीवन गुजार रहे नौकरपेशा आदमी को अपनी सफाई में यह बताना पड़ता है कि उससे कोई शैतान नाराज चल रहा है जो उसको ईमानदारी वाली जगह पर काम करना पड़ रहा है। जब कोई फरिश्ता आयेगा तब हो सकता है कि कमाई वाली जगह पर उसकी पोस्टिंग हो जायेगी।’
खिलाड़ी हारते हैं तो कभी मैदान को तो कभी मौसम को शैतान बताते हैं। किसी की फिल्म पिटती है तो वह दर्शकों की कम बुद्धि को शैताना मानता है जिसकी वजह से फिल्म उनको समझ में नहीं आयी। टीवी वालों को तो आजकल हर दिन किसी शैतान की जरूरत पड़ती है। पहले बाप को बेटी का कत्ल करने वाला शैतान बताते हैं। महीने भर बाद वह जब निर्दोष बाहर आता है तब उसे फरिश्ता बताते हैं। यानि अगर उसे पहले शैतान नहीं बनाते तो फिर दिखाने के लिये फरिश्ता आता कहां से? जादू, तंत्र और मंत्र वाले तो शैतान का रूप दिखाकर ही अपना धंध चलाते हैं। ‘अरे, अमुक व्यक्ति बीमारी में मर गया उस पर किसी शैतान का साया पड़ा था। किसी ने उस पर जादू कर दिया था।’‘उसका कोई काम नहीं बनता उस पर किसी ने जादू कर दिया है!’यही हाल सभी का है। अगर आपको कहीं अपने समूह में इमेज बनानी है तो किसी दूसरे समूह का भय पैदा कर दो और ऐसी हालत पैदा कर दो कि आपकी अनुपस्थिति बहुत खले और लोग भयभीत हो कि दूसरा समूह पूरा का पूरा या उसके लोग उन पर हमला न कर दें।’
अगर कहीं पेड़ लगाने के लिये चार लोग एकत्रित करना चाहो तो नहीं आयेंगे पर उनको सूचना दो कि अमुक संकट है और अगर नहीं मिले भविष्य में विकट हो जायेगता तो चार क्या चालीस चले आयेंगे। अपनी नाकामी और नकारापन छिपाने के लिये शैतान एक चादर का काम करता है। आप भले ही किसी व्यक्ति को प्यार करते हैं। उसके साथ उठते बैैठते हैं। पेैसे का लेनदेन करते हैं पर अगर वह आपके परिवार में आता जाता नहीं है मगर समय आने पर आप उसे अपने परिवार में शैतान बना सकते हैं कि उसने मेरा काम बिगाड़ दिया। इतिहास उठाकर देख लीजिये जितने भी पूज्यनीय लोग हुए हैं सबके सामने कोई शैतान था। अगर वह शैतान नहीं होता तो क्या वह पूज्यनीय बनते। वैसे इतिहास में सब सच है इस पर यकीन नहीं होता क्योंकि आज के आधुनिक युग में जब सब कुछ पास ही दिखता है तब भी लिखने वाले कुछ का कुछ लिख जाते हैं और उनकी समझ पर तरस आता है तब लगता है कि पहले भी लिखने वाले तो ऐसे ही रहे होंगे।
एक कवि लगातार फ्लाप हो रहा था। जब वह कविता करता तो कोई ताली नहीं बजाता। कई बार तो उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया तक नहीं जाता। तब उसने चार चेले तैयार किये और एक कवि सम्मेलन में अपने काव्य पाठ के दौरान उसने अपने ऊपर ही सड़े अंडे और टमाटर फिंकवा दिये। बाद में उसने यह खबर अखबार में छपवाई जिसमें उसके द्वारा शरीर में खून का आखिरी कतरा होने तक कविता लिखने की शपथ भी शामिल थी । हो गया वह हिट। उसके वही चेले चपाटे भी उससे पुरस्कृत होते रहे।
जिन लड़कों को जुआ आदि खेलने की आदत होती है वह इस मामले में बहुत उस्ताद होते हैं। पैसे घर से चोरी कर सट्टा और जुआ में बरबाद करते हैं पर जब उसका अवसर नहीं मिलता या घर वाले चैकस हो जाते हैं तब वह घर पर आकर वह बताते हैं कि अमुक आदमी से कर्ज लिया है अगर नहीं चुकाया तो वह मार डालेंगे। उससे भी काम न बने तो चार मित्र ही कर्जदार बनाकर घर बुलवा लेंगे जो जान से मारने की धमकी दे जायेंगे। ऐसे में मां तो एक लाचार औरत होती है जो अपने लाल को पैसे निकाल कर देती है। जुआरी लोग तो एक तरह से हमेशा ही भले बने रहते हैं। उनका व्यवहार भी इतना अच्छा होता है कि लोग कहते हैं‘आदमी ठीक है एक तरह से फरिश्ता है, बस जुआ की आदत है।’
जुआरी हमेशा अपने लिये पैसे जुटाने के लिये शैतान का इंतजाम किये रहते हैं पर दिखाई देते हैं। उनका शैतान भी दिखाई देता है पर वह होता नहीं उनके अपने ही फरिश्ते मित्र होते हैं। आशय यह है कि शैतान अस्तित्व में होता नहीं है पर दिखाना पड़ता है। अगर आपको परिवार, समाज या अपने समूह में शासन करना है तो हमेशा कोई शैतान उसके सामने खड़ा करो। यह समस्या के रूप में भी हो सकता है और व्यक्ति के रूप में भी। समस्या न हो तो खड़ी करो और उसे ही शैतान जैसा ताकतवर बना दो। शैतान तो बिना देह का जीव है कहीं भी प्रकट कर लो। किसी भी भेष में शैतान हो वह आपके काम का है पर याद रखो कोई और खड़ा करे तो उसकी बातों में न आओ। यकीन करो इस दुनियां में शैतान है ही नहीं बल्कि वह आदमी के अंदर ही है जिसे शातिर लोग समय के हिसाब से बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।
एक आदमी ने अपने सोफे के किनारे ही चाय का कप पीकर रखा और वह उसके हाथ से गिर गया। वह उठ कर दूसरी जगह बैठ गया पत्नी आयी तो उसने पूछा-‘यह कप कैसे टूटा?’उसी समय उस आदमी को एक चूहा दिखाई दिया। उसने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा-‘उसने तोड़ा!’पत्नी ने कहा-‘आजकल चूहे भी बहुत परेशान करने लगे हैं। देखो कितना ताकतवर है उसकी टक्कर उसे कम गिर गया। चूहा है कि उसके रूप में शेतान?
वह चूहा बहुत मोटा था इसलिये उसकी पत्नी को लगा कि हो सकता है कि उसने गिराया हो और आदमी अपने मन में सर्वशक्तिमान का शुक्रिया अदा कर रहा कि उसने समय पर एक शैतान-भले ही चूहे के रूप में-भेज दिया।’याद रखो कोई दूसरा व्यक्ति भी आपको शैतान बना सकता है। इसलिये सतर्क रहो। किसी प्रकार के वाद-विवाद में मत पड़ो। कम से कम ऐसी हरकत मत करो जिससे दूसरा आपको शैतान साबित करे। वैसे जीवन में दृढ़निश्चयी और स्पष्टवादी लोगों को कोई शैतान नहीं गढ़ना चाहिए, पर कोई अवसर दे तो उसे छोड़ना भी नहीं चाहिए। जैसे कोई आपको अनावश्यक रूप से अपमानित करे या काम बिगाड़े और आपको व्यापक जनसमर्थन मिल रहा हो तो उस आदमी के विरुद्ध अभियान छेड़ दो ताकि लोगों की दृष्टि में आपकी फरिश्ते की छबि बन जाये। सर्वतशक्तिमान की कृपा से फरिश्ते तो यहां कई मनुष्य बन ही जाते हैं पर शैतान इंसान का ही ईजाद किया हुआ है इसलिये वह बहुत चमकदार या भयावह हो सकता है पर ताकतवर नहीं। जो लोग नकारा, मतलबी और धोखेबाज हैं वही शैतान को खड़ा करते हैं क्योंकि अच्छे काम कर लोगों के दिल जीतने की उनकी औकात नहीं होती।
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दर्द कितना था और कितने जाम पिये -हिंदी शायरी



यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये

कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये

शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये

जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
………………………

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गरीबों का नाम बहुत बड़ा, दर्शन होता है छोटा-हास्य व्यंग्य


एक टीवी चैनल पर प्याज के बढती कीमतों पर लोगों के इन्टरव्यू आ रहे थे, और चूंकि उसमें सारा फोकस मुंबई और दिल्ली पर था इसलिये वहाँ के उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों से बातचीत की जा रही थी। प्याज की बढती कीमतें देश के लोगों के लिए और खास तौर से अति गरीब वर्ग के लिए चिंता और परेशानी का विषय है इसमें कोई संदेह नहीं है पर जिस तरह उसका रोना उसके ऊंचे वर्ग के लोग रोते हैं वह थोडा अव्यवाहारिक और कृत्रिम लगता है। उच्च और मध्यम वर्ग के लोग यही कह रहे थे किश्प्याज जो पहले आठ से दस रूपये किलो मिल रहा था वह अब पच्चीस रूपये होगा। इसे देश का गरीब आदमी जिसका रोटी का जुगाड़ तो बड़ी मुशिकल से होता है और वह बिचारा प्याज से रोटी खाकर गुजारा करता है, उसका काम कैसे चलेगाश्?

अब सवाल है कि क्या वह लोग प्याज की कीमतों के बढने से इसलिये परेशान है कि इससे गरीब सहन नहीं कर पा रहे या उन्हें खुद भी परेशानी है? या उन्हें अपने पहनावे से यह लग रहा था कि प्याज की कीमतों के बढने पर उनकी परेशानी पर लोग यकीन नहीं करेंगे इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपने साक्षात्कार को प्रभावी बना रहे थे। हो सकता है कि टीवी पत्रकार ने अपना कार्यक्रम में संवेदना भरने के लिए उनसे ऐसा ही आग्रह किया हो और वह भी अपना चेहरा टीवी पर दिखाने के लिए ऐसा करने को तैयार हो गये हौं। यह मैं इसलिये कह रहा हूँ कि एक बार मैं हनुमान जी के मंदिर गया था और उस समय परीक्षा का समय था। उस समय कुछ भक्त विधार्थी मंदिर के पीछे अपने रोल नंबर की पर्ची या नाम लिखते है ताकि वह पास हो सकें। वहां ऐक टीवी पत्रकार एक छात्रा को समझा रहा थाश्आप बोलना कि हम यहाँ पर्ची इसलिये लगा रहे हैं कि हनुमान जीं हमारी पास होने में मदद करें।श्
उसने और भी समझाया और लडकी ने वैसा ही कैमरे की सामने आकर कहा। वैसे उस छात्र के मन में भी वही बातें होंगी इसमें कोई शक नहीं था पर उसने वही शब्द हूबहू बोले जैसे उससे कहा गया था।

प्याज पर हुए इस कार्यक्रम में जैसे गरीब का नम लिया जा रहा था उससे तो यही लगता था कि यह बस खानापूरी है। मेरे सामने कुछ सवाल खडे हुए थे-
क्या इसके लिए कोई ऐसा गरीब टीवी वालों को नहीं मिलता जो अपनी बात कह सके। केवल उन्हें शहरों में उच्च और मध्यम वर्ग के लोग ही दिखते हैं, और अगर गरीब नहीं दिखते तो यह कैसे पता लगे कि गरीब है भी कि नहीं। जो केवल प्याज से रोटी खाता है उसका पहनावा क्या होगा यह हम समझ सकते हैं तो यह टीवी पत्रकार जो अपने परदे पर आकर्षक वस्त्र पहने लोगों को दिखाने के आदी हो चुके हैं क्या उससे सीधे बात कराने में कतराते हैं जो वाकई गरीब है। उन्हें लगता है कि गरीब के नाम में ही इतनी ही संवेदना है कि लोग भावुक हो जायेंगे तो फिर फटीचर गरीब को कैमरे पर लाने की क्या जरूरत है। जो गरीब है उसे बोलने देना का हक ही क्या है उसके लिए तो बोलने वाले तो बहुत हैं-क्या यही भाव इन लोगों का रह गया है। आजादी के बाद से गरीब का नाम इतना आकर्षक है कि हर कोई उसकी भलाई के नाम पर राजनीति और समाज सेवा के मैदान में आता है पर किसी वास्तविक गरीब के पास न उन्हें जाते न उसे पास आते देखा जाता है। जब कभी पैट्रोल और डीजल की दाम बढ़ाये जाते है तो मिटटी के तेल भाव इसलिये नही बढाए जाते क्योंकि गरीब उससे स्टोव पर खाना पकाते हैं। जब कि यह वास्तविकता है कि गरीबों को तो मिटटी का तेल मिलना ही मुश्किल हो जाता है। देश में ढ़ेर सारी योजनाएं गरीबों के नाम पर चलाई जाती हैं पर गरीबों का कितना भला होता है यह अलग चर्चा का विषय है पर जब आप अपने विषय का सरोकार उससे रख रहे हैं तो फिर उसे सामने भी लाईये। प्याज की कीमतों से कोई मध्यम वर्ग कम परेशान नहीं है और अब तो मेरा मानना है कि मध्यम वर्ग के पास गरीबों से ज्यादा साधन है पर उसका संघर्ष कोई गरीब से कम नहीं है क्योंकि उसको उन साधनों के रखरखाव पर भी उसे व्यय करने में कोई कम परेशानी नहीं होती क्योंकि वह उनके बिना अब रह नहीं सकता और अगर गरीब के पास नहीं है तो उसे उसके बिना जीने की आदत भी है। पर अपने को अमीरों के सामने नीचा न देखना पडे यह वर्ग अपनी तकलीफे छिपाता है और शायद यही वजह है कि ऐक मध्यम वर्ग के व्यक्ति को दूसरे से सहानुभूति नहीं होती और इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपनी समस्या भी कह जाते है और अपनी असलियत भी छिपा जाते हैं। यही वजह है कि टीवी पर गरीबों की समस्या कहने वाले बहुत होते हैं खुद गरीब कम ही दिख पाते हैं। सच तो यह है कि गरीबों के कल्याण के नारे अधिक लगते हैं पर उनके लिये काम कितना होता है यह सभी जानते हैं।

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