एक बच्चे के पैदा होने पर
घर में खुशी का माहौल छा जाता है
भागते हैं घर के सदस्य इधर-उधर
जैसी कोई आसमान से उतरा हो
ढूढे जाते हैं कई काम जश्ने मनाने के लिए
आदमी व्यस्त नजर आता है
एक देह से निकल गयी आत्मा
शव पडा हुआ है
इन्तजार है किसी का, आ जाये तो
ले जाएं और कर दें आग के सुपुर्द
तमाम तरह के तामझाम
रोने की चारों तरह आवाजें
कई दिन तक गम मनाना
दिल में न हो पर शोक जताना
आदमी व्यस्त नजर आता है
निभा रहे हैं परंपराएं
अपने अस्तित्व का अहसास कराएं
चलता है आदमी ठहरा हैं मन
बंद हैं जमाने के बंदिशों में
लगता है आदमी काम कर रहा है
पर सच यह है कि वह भाग रहा है
अपने आपसे बहुत दूर
जिंदा रहने के बहाने तलाशता
आदमी व्यस्त नजर आता है
————————–
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मंडप में पहुंचने से पहले ही
दूल्हे ने दहेज़ में
मोटर साइकल देने की माँग उठाई
उसके पिता ने दुल्हन के पिता को
इसकी जानकारी भिजवाई
मच गया तहलका
दुल्हन के पिता ने
आकर दूल्हे से किया आग्रह
शादी के बाद मोटर साइकल देने का
दिया आश्वासन
पर दूल्हे ने अपनी माँग
तत्काल पूरी करने की दोहराई
मामला बिगड़ गया
दूल्हे के साथ आए बरातियों ने
दुल्हन पक्ष की कंगाल कहकर
जमकर खिल्ली उडाई
दूल्हन का बाप रोता रहा ख़ून के आंसू
दूल्हे का जमकर हंसता रहा
आख़िर कुछ लोगों को आया तरस
और बीच-बचाव के लिए दोनों की
आपस में बातचीत कराई
मोटर साइकल जितने पैसे
नकद देने पर सहमति हो पाई
दुल्हन के सहेलियों ने देखा मंजर
पूरी बात उसे सुनाई
वह दनदनाती सबके सामने आयी
और बाप से बोली
‘पापा आपसे शादी से पहले ही
मैंने शर्त रखी थी कि मेरे
दूल्हे के पास होनी चाहिए कार
पर यह तो है बेकार
मोटर साईकिल तक ही सोचता है
क्या खरीदेगा कार
मुझे यह शादी मंजूर नहीं है
तोड़ तो यह शादी और सगाई’
अब दूल्हा पक्ष पर लोग हंस रहे थे
‘अरे, लड़का तो बेकार है
केवल मोटर साइकिल तक की सोचता है’
बाद में क्या करेगा अभी से ही
दुल्हन के बाप को नोचता है
क्या करेंगे ऐसा जमाई’
बात बिगड़ गयी
अब लड़के वाले गिडगिडाने लगे थे
अपनी मोटर साइकल की माँग से
वापस जाने लगे थे
दूल्हा गया दुल्हन के पास
और बोला
‘मेरी शराफत समझो तुम
मोटर साइकल ही मांगी
मैं कार भी माँग सकता था
तब तुम क्या मेरे पास हवाई जहाज
होने का बहाना बनाती
अब मत कराओ जग हँसाई’
दुल्हन ने जवाब दिया
‘ तुम अभी भी अपनी माँग का
अहसान जता रहे हो
साइकिल भी होती तुम्हारे पास
मैं विवाह से इनकार नहीं करती
आज मांग छोड़ दोगे फिर कल करोगे
मैंने तुममें देखा है कसाई’
दूल्हा अपना मुहँ लेकर लॉट गया
इस तरह शादी नही हो पायी
——————-
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यूं तो शराब के कई जाम हमने पिये
दर्द कम था पर लेते थे हाथ में ग्लास
उसका ही नाम लिये
कभी इसका हिसाब नहीं रखा कि
दर्द कितना था और कितने जाम पिये
कई बार खुश होकर भी हमने
पी थी शराब
शाम होते ही सिर पर
चढ़ आती
हमारी अक्ल साथ ले जाती
पीने के लिये तो चाहिए बहाना
आदमी हो या नवाब
जब हो जाती है आदत पीने की
आदमी हो जाता है बेलगाम घोड़ा
झगड़े से बचती घरवाली खामोश हो जाती
सहमी लड़की दूर हो जाती
कौन मांगता जवाब
आदमी धीरे धीरे शैतान हो जाता
बोतल अपने हाथ में लिये
शराब की धारा में बह दर्द बह जाता है
लिख जाते है जो शराब पीकर कविता
हमारी नजर में भाग्यशाली समझे जाते हैं
हम तो कभी नहीं पीकर लिख पाते हैं
जब पीते थे तो कई बार ख्याल आता लिखने का
मगर शब्द साथ छोड़ जाते थे
कभी लिखने का करते थे जबरन प्रयास
तो हाथ कांप जाते थे
जाम पर जाम पीते रहे
दर्द को दर्द से सिलते रहे
इतने बेदर्द हो गये थे
कि अपने मन और तन पर ढेर सारे घाव ओढ़ लिये
जो ध्यान लगाना शूरू किया
छोड़ चली शराब साथ हमारा
दर्द को भी साथ रहना नहीं रहा गवारा
पल पल हंसता हूं
हास्य रस के जाम लेता हूं
घाव मन पर जितना गहरा होता है
फिर भी नहीं होता असल दिल पर
क्योंकि हास्य रस का पहरा होता है
दर्द पर लिखकर क्यों बढ़ाते किसी का दर्द
कौन पौंछता है किसके आंसू
दर्द का इलाज हंसी है सब जानते हैं
फिर भी नहीं मानते हैं
दिल खोलकर हंसो
मत ढूंढो बहाने जीने के लिये
………………………
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घर भरा है समंदर की तरह
दुनियां भर की चीजों से
नहीं है घर मे पांव रखने की जगह
फिर भी इंसान बेचैन है
चारों तरफ नाम फैला है
जिस सम्मान को भूखा है हर कोई
उनके कदमों मे पड़ा है
फिर भी इंसान बेचैन है
लोग तरसते हैं पर
उनको तो हजारों सलाम करने वाले
रोज मिल जाते हैं
फिर भी इंसान बेचैन है
दरअसल बाजार में कभी मिलता नहीं
कभी कोई तोहफे में दे सकता नहीं
अपने अंदर ढूंंढे तभी मिलता चैन है
———————
अर्थशास्त्र के ‘मांग और आपूर्ति का नियम’
उन्होंने कुछ इस तरह समझाया
‘जब कारखाने में चीज बनती हो
पर बाजार में नहीं दिखती हो
तो समझो मांग कुछ ज्यादा है
अगर मिलती हो वह काला बाजार में तो
समझ लो आपूर्ति है कम
सफेद बाजार को उन्होंने
आज के अर्थशास्त्र से बाहर का विषय बताया
………………………………………
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बाजार भी भला कभी
काले और सफेद होते
सौदागर की नीयत जैसी
वैसे ही उसके नाम होते
छिपकर कोई नहीं करता अब
हर शय के सौदे सरेआम होते
खरीददार की मजी नहीं चलती
सफेद बाजार में माल नहीं मिलता
चाहे दूने और चौगुने दाम होते
……………………………….
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अपने मन में है बस व्यापार
बाहर ढूंढते हैं प्यार
मन में ख्वाहिश
सोने, चांदी और धन
के हों भण्डार
पर दूसरा करे प्यार
मन की भाषा में हैं लाखों शब्द
पर बोलते हुए जुबान कांपती है
कोई सुनकर खुश हो जाये
अपनी नीयत पहले यह भांपती है
हम पर हो न्यौछावर
पर खुद किसी को न दें सहारा
बस यही होता है विचार
इसलिए वक्त ठहरा लगता है
छोटी मुसीबत बहुत बड़ा कहर लगता है
पहल करना सीख लें
प्यार का पहला शब्द
पहले कहना सीख लें
तो जिन्दगी में आ जाये बहार
—————–
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उधार की बैसाखियाँ
आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा
इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा
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मेरी नाव डुबोने वाले बहुत हैं
पर उनकी याद कभी नहीं आती
मझधार में भंवर के बीच आकर जो
किनारे तक पहुंचा जाते
फिर नजर नहीं आते
ऐसे मित्रों की याद मुझे सताती
घाव करने के लिए इस जहां में बहुत हैं
जो बदन से रिसता लहू देखकर
जोर से मुस्कराते हैं
जिन्होंने घावों को सहलाया
जब तक दूर नहीं हुआ दर्द
अपना साथ निभाया
फिर ऐसे गायब हुए कि दिखाई न दिए
आँखें उनको देखने को तरस जाती हैं
इस जिन्दगी के खेल बहुत हैं
नाखुश लोगों से दूर नहीं जाने देती
जो तसल्ली देते हैं
उनको आँखों से दूर ले जाती है
शायद इसलिए दुनिया रंगरंगीली कहलाती हैं
——————————-
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अब तो मुद्दे जमीन पर नहीं बनते
हवा में लहराये जाते
राई से विषय पहाड़ बताये जाते
मसले अंदर कमरे में कुछ और होते
बाहर कुछ और बताये जाते
चर्चा होती रहे पब्लिक मेंं
पर समझ मेंं न आये किसी के
ऐसे ही विषय उड़ाये जाते
कहें महाकवि दीपक बापू
‘कई बार विषयों का पहाड़ खोदा
कविता जैसी निकली चुहिया
भाई लोग उस पर हंसी उड़ाये जाते
बहुत ढूंढा पढ़ने को मिला नहीं
होती कहीं कोई डील है
इसमें कुछ लोगों को है गुड फील
किसी को लगती पांव में कील है
कोई समझा देता तो
न लिखने का होता गिला नहीं
कोई खोजी पत्रकार नहीं
जैसा मिला वैसा ही चाप (छाप) दें
हम तो खोदी ब्लागर ठहरे
विषयों का पहाड़ खोदते पाताल तक पहुंच जाते
कोई जोरदार पाठ बनाये जाते
पर पहले कुछ बताता
या फिर हमारे समझ में आता
तो कुछ लिख पाते
इसलिये केवल हास्य कविता ही लिखते जाते
क्या फायदा विषय का पहाड़ खोदने से
जब केवल निकले चुहिया
उसे भी हम पकड़ नहीं पाते
(दीपक भारतदीप, लेखक एवं संपादक)
………………………………………………………………..
दीपक भारतदीप द्धारा
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आया फंदेबाज और बोला
‘क्या दीपक बापू किक्रेट भूल गये देखना
पता नहीं तुम्हें अब यहां
क्रिकेट मैच चल रहे हैं
तुम्हारे नेत्र उनका आनंद उठाने की बजाय
कंप्यूटर में जल रहे हैं
क्यों नहीं कुछ मजा उठाते’
सुन कर पहले उदास हुए
फिर टोपी लहराते हुए कहें दीपक बापू
‘जजबातों में बहकर देख लिया
जिनकी जीत पर हंसे
और हारने पर रोए
उनके खिलवाड़ को सहकर देख लिया
कमबख्तों ने पहले राष्ट्रप्रेम जगाने के लिये
आजादी के गाने सुनवाये
और हमारे जजबातों से खूब पैसे बनाये
अब क्रिकेट हो गया बाकी सब जगह कंगाल
विदेशी खिलाड़ी हो रहे बेहाल
किसी भी तरह इस देश में ही कमाना है
पर बाहर ही तो रखना अपना खजाना है
इसलिये देश में अंदर ही बंटने के लिये
देश की बजाय टीमों के नाम की भक्ति के लिये
नये-नये मनोरंजक तराने बनवाये
अब तो देशप्रेम उनको सांप की तरह
डसने लगता है
क्योंकि विदेशी नाराज न हो जायें
इससे शरीर उनका कंपता है
हमें तो लगने लगा है कि
इतिहास में ही आडम्बर भरा पड़ा है
गुलामी का दैत्य तो अब भी यहीं खड़ा है
कभी इस देश को एक करने के लिये
सब जगह नारे लगे
अब बांटने के लिये सितारे लगे
पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में
मनोरंजन के नाम पर बांटा जा रहा है
देशप्रेम से शायद व्यापार नहीं होता
विश्व के सबसे उपभोक्ता यहीं हैं
उनको बांटने से ही कई लोगों का
बेड़ा पार यहीं होता
देशप्रेम हम नहीं छोड़ पाते
उसके नाम के बिना क्रिकेट में सुख नहीं पाते
लोग उसे भुलाने के लिये
बन रहे हैं बैट बाल के खेल में
पेश कर रहे हैं नृत्य और गाने
उसे देखेंगे शोर के दीवाने
हास्य कविता लिखेंगे हम जैसे सयाने
अब हम क्रिकेट से मनोरंजन नहीं उठाते
……………………………………
क्रिकेट में अब देशप्रेम का सुख नहीं उठाते-हास्य कविता
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मेरा लिखा शब्द तेरे लिखे शब्द से भारी
मैंने जो पढा व्याकरण
तेरी भाषा भी उसमें सिमट जायेगी सारी
मेरी भाषा का तू भी हो जा आज्ञाकारी
ऐसी सोचे वाले कहते हैं कि
‘जैसा हम कहते हैं वैसा तू लिख
जैसा चाहें वैसा तू दिख’
अपने अहंकार की देखी
कई बार नाकामी
दो हजार सात तक झेली गुलामी
अभी तक छूटी नहीं वह बदनामी
फिर भी अपना नाम करने की खातिर
चाहे जब अकड़ दिखाते
अपने इलाके के शेर कहलाने वाले
हरिणों की तरह चहकते लोगों पर
अपने अस्तित्व का रुतवा जताते
पड़ जाये तगड़ा विदेशी शिकारी तो
उसके आगे नतमस्तक हो जाते
हाथ उठाकर मांगते उसकी मेहरबानी
और अपने असहाय आदमी पर गुर्राते
‘जैसा हम कहते हैं वैसा तू लिख
जैसा चाहें वैसा तू दिख’
अपनी संस्कृति, भाषा, और विचारधारा
के करते ढेर सारे दावे
कई वाद रचते
उनकी तरफ से कई नारे लगते
इससे आगे उनकी समझ नहीं जाती
कुछ आगे पूछों तो
इतिहास की किताबों में लिखे
खंडहर जैसे शब्द उठाकर दिखाते
‘हम ऐसे थे’ और वैसे थे”
अब का हाल पूछो तो लड़ जाते
बस एक ही बात दोहराते
‘जैसा हम कहते हैं वैसा तू लिख
जैसा चाहें वैसा तू दिख’
भाषा, संस्कृति और विचारधारा का
स्वरूप कभी स्पष्ट नहीं किया
किसी ने जो कुछ सुनाया
अपने रास्ते का नाम वही रख दिया
सदियों से चलता सिलसिला
जब थमने लगता है
वह उठा लेते हैं पत्थर की शिला
‘जैसा हम कहते हैं वैसा तू लिख-कविता साहित्य
जैसा चाहें वैसा तू दिख’
———————————-
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भीड़ में अपनों की तलाश
अपनों में आत्मीय की तलाश
कभी भी नहीं होती पूरी
दिल होता निराश
बाजार में खरीदने-बेचने निकले
क्यों करें सम्मान की आस
बिचोलियों से ही चलता बाजार
क्या अच्छा क्या बुरा
चीजों के होते अपने दाम
बेचो या खरीदों
धंधे हैं जिनके उनके लिए
सौदेबाजी के अलावा और क्या होता उनका काम
हाट में क्यों करें सम्मान की तलाश
बिकता है सब यहाँ
गद्य-पद्य और गीत-संगीत
पल भर के लिए मिलते मीत
पैसे से चाहे जिसका दिल लो जीत
जानने की कोशिश मत करो
असली है कि नकली प्रीत
जांचने कि कोशिश करेगी चिंता पैदा
बढता हुआ तनाव कर देगा
सुंदर देह का विनाश
फ़िर भी रास्ते हैं
बचने के लिए
इसे जीवन पथ पर
सहजता से चलने के लिए
कहीं चीजों की तरह सजने से
अच्छा होगा दृष्टा बन जाओ
सौदे में खरीदो खुशी मन की
उसके सृष्टा ख़ुद बन जाओ
आते-जाते देखो
लोगों की खुशिया और गम
कहीं प्रकाश कहीं तम
सब चीजें तुम्हारे सामने
खडी हो जायेंगे
जिनकी करते तुम तलाश
———————————-
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बरसों साथ पलता है ख्याल मन में
पर जब सच होकर सामने आता
पर जो देखते थे तब भी नजर नहीं आता
घड़ी का काँटा चलता जाये
मौसम भी बदलता जाये
पर हम खडे रहते वहीं
जहाँ हमारा ख्याल हमें ठहराता
कई बरस तक रहता है कोई ख्याल
जब सामने आता है तो
खुद ही होते बेहाल
उसका रूप वैसा नहीं होता
कभी-कभी तो उजड़ा रूप सामने आता
यह जिन्दगी एक सफर है
जिसका पहिया घूमता जाये
हमारे पाँव कहीं नहीं ठहरते
फिर भी ख्याल नहीं बदलते
अपने ख्याल पह ही अड़ते
कभी जो सच नहीं बन पाता
क्यों अपनी ख्याली दुनिया बनाते हैं
क्यों अपना जिस्म जलाते हैं
ख्यालों से करते जो दोस्ती
उनका कहीं ठिकाना नहीं बनता
बदलते वक्त के साथ बहते हैं
यह जीवन भी उनको रास आता
—————————-
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जो अपने ही बोले शब्द का समझ नहीं पाते अर्थ
वह देवताओं के सात्विक भाव में ही ढूंढते अनर्थ
लिखेंगे गीतों में गालियाँ, शोर को समझें तालियाँ
खामोशी से बैर होता, वाणी से बोलें शब्द व्यर्थ
कान होते हुए बहरे , आंख के रहते हुए अंधे
भाषा और शब्द की सम्मान का क्या समझे अर्थ
अंग्रेजी पढे पर अपशब्दों में होता शक्ति का भ्रम
दूसरे का मजाक बनाएं, अपने दोष से मुहँ छिपाएं
ऐसे लोगों से वार्ता करना होता सदैव व्यर्थ
कहैं दीपक बापू ऐसे लोगों की कभी न सुनो
उपेक्षा के भाव से ही उन्हें हराने में होंगे समर्थ
हृदय में सूनापन लिए
बाहर तुम चकाचौंध में
प्यार क्यों ढूंढते हो
अपने मन की आँखों को बंद कर
इस भीड़ में कहाँ तुम
सुकून ढूंढते हो
अपनी जुबान से कहे लफ़्ज़ों का
मतलब तुम खुद नहीं जानते
दूसरे के कहे पर अपने दिल की
तसल्ली क्यों ढूंढते हो
हर पल पकाते हो मन में
तुम ख्याली पुलाव
दिल में सपने देखते हुए
उनमें करते हो
अपने बहलाने के लिए
चलते-फिरते खिलौने का चुनाव
कभी खिलौने में इन्सान तो
कभी इन्सान में खिलौना ढूंढते हो
अपने दिल और दिमाग
कर लिए हैं खुदगर्जी के
तंग कमरे में बन्द
अपने मतलब को पूरा करने के
हो गये हो पाबन्द
दूसरे के दिल और घरों में
फ़रिश्ते तुम क्यों ढूंढते हो
जिन्दगी एक अबूझ पहेली है
जो अपने लिए जीते हैं
उन्हें करती है मायूस
जो दूसरे के दिल का करें ख़्याल
अपने हाथों की मेहनत से
परायों को भी कर दें निहाल
उनकी यह सहेली है
तुम अपने ही हाल में
जिन्दगी की इस पहेली
का राज क्यों ढूंढते हो
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जब पीते थे तो कोई
बुलाता नहीं था
मांगते थे तो कोई
पिलाता नहीं था
जब छोड़ दीं तो
सब बुलाते हैं
जैसे मयखाना खोल लिया हो
बोतल खोल देते हैं
जैसे अमृत घोल दिया हो
वाह री मय तेरी माया
आज हम आगे तू पीछे
कभी आगे तू और मैं पीछे था
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कुछ पल का नशा
फिर ढ़ेर सारी हताशा
मय अगर अमृत जैसी होती
तो सारा जहां नशे में डूबा होता
ऊपर वाला कितना भी ताकत दिखाता
पर उसका जोर नहीं होता
जब मय नहीं है अमृत जैसी
तब यह हाल है कि
जो पीता है
उस पर चढ़ कर
इतना ऊपर उठा देती है
ऊपर वाला भुला देती है
अगर अमृत होती तो वह
खुद ऊपर वाला होता
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तुम रास्ते से हट जाओ
अपने ज़ज्बातों को बहकर आने दो
अल्फाजों का समंदर है अन्दर
उसे उफनते आने दो
कहने की कोशिश ना करो
शेरों को बाहर खुद आने दो
जो कोशिश की तुमने उन्हें
भाषा की जंजीरों से बाँधने की
वह पालतू हो जायेंगे
अपने मायने खो जायेंगे
तुम उन्हें आज़ाद बाहर आने दो
शब्दों में सौन्दर्य नहीं ढूंढ़ना
मतलब की खोज न करना
अल्फाजों को ज़ज्बातों से
खुद-बखुद जुड़ जाने दो
कविता और शेर लिखे नहीं जाते
खुद चले आते हैं
तुम रास्ता छोड़कर खडे हो जाओ
उन्हें बाहर आने दो
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कई बार सोचता हूँ कि
लिखना बंद कर दूं
अपने ज़ज्बातों से नज़रें फेर लूं
पर ऐसा नहीं कर पाता
गम हो या ख़ुशी
लिखने चला आता
फिर सोचता हूँ कि मैं खुद
कहॉ लिखता हूँ
यह तो अल्फाजों का समंदर है
जो ज़ज्बातों के तूफ़ान के साथ
बहकर बाहर आता
अब उन्हें रोकने की
कोशिश करना छोड़ दीं है
अपनी कविता के साथ इतना
रास्ता तय कर लिया
जो खुद नहीं कर पाता
मेरे शेर मन के पिंजरे से
जब भी बाहर आते
मैं खामोश रह जाता
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