22 जुलाई 2013 को गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाना स्वाभाविक है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्ंयंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये। दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है। यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने त्याग का भाव होना चाहिये। त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।
हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा का लाभ पेशेवर धार्मिक प्रवचनकर्ताओं ने खूब लाभ उठाया है। यह पेशेवर लोग अपने इर्दगिर्द भीड़ एकत्रित कर उसे तालियां बजवाने के लिये सांसरिक विषयों की बात खूब करते हैं। श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित गुरु सेवा करने के संदेश वह इस तरह प्रयारित करते हैं जिससे उनके शिष्य उन पर दान दक्षिण अधिक से अधिक चढ़ायें। इतना ही नहीं माता पिता तथा भाई बहिन या रिश्तों को निभाने की कला भी सिखाते हैं जो कि शुद्ध रूप से सांसरिक विषय है। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हर मनुष्य अपना गृहस्थ कर्तव्य निभाते हुए अधिक आसानी से योग में पारंगत हो सकता है। सन्यास अत्यंत कठिन विधा है क्योंकि मनुष्य का मन चंचल है इसलिये उसमें विषयों के विचार आते हैं। अगर सन्यास ले भी लिया तो मन पर नियंत्रण इतना सहज नहीं है। इसलिये सरलता इसी में है कि गृहस्थी में रत होने पर भी विषयों में आसक्ति न रखते हुए उनसे इतना ही जुड़ा रहना चाहिये जिससे अपनी देह का पोषण होता रहे। गृहस्थी में माता, पिता, भाई, बहिन तथा अन्य रिश्ते ही होते हैं जिन्हें तत्वज्ञान होने पर मनुष्य अधिक सहजता से निभाता है। हमारे कथित गुरु जब इस तरह के सांसरिक विषयों पर बोलते हैं तो महिलायें बहुत प्रसन्न होती हैं और पेशेवर गुरुओं को आजीविका उनके सद्भाव पर ही चलती है। समाज के परिवारों के अंदर की कल्पित कहानियां सुनाकर यह पेशेवक गुरु अपने लिये खूब साधन जुटाते हैं। शिष्यों का संग्रह करना ही उनका उद्देश्य ही होता है। यही कारण है कि हमारे देश में धर्म पर चलने की बात खूब होती है पर जब देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध तथा शोषण की बढ़ती घातक प्रवृत्ति देखते हैं तब यह साफ लगता है कि पाखंडी लोग अधिक हैं।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
बहुत गुरु भै जगत में, कोई न लागे तीर।
सबै गुरु बहि जाएंगे, जाग्रत गुरु कबीर।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस जगत में कथित रूप से बहुत सारे गुरू हैं पर कोई अपने शिष्य को पार लगाने में सक्षम नहीं है। ऐसे गुरु हमेशा ही सांसरिक विषयों में बह जाते हैं। जिनमें त्याग का भाव है वही जाग्रत सच्चे गुरू हैं जो शिष्य को पार लगा सकते हैं।
जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।
कीच कीच के घोवते, दाग न छूटै कीव।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जो गुरु केवल गृहस्थी और सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनके शिष्य कभी अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण या धारण नहीं कर पाते। जिस तरह कीचड़ को गंदे पानी से धोने पर दाग साफ नहीं होते उसी तरह विषयों में पारंगत गुरु अपने शिष्य का कभी भला नहीं कर पाते।
सच बात तो यह है कि हमारे देश में अनेक लोग यह सब जानते हैं पर इसके बावजूद उनको मुक्ति का मार्ग उनको सूझता नहीं है। यहां हम एक बात दूसरी बात यह भी बता दें कि गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिये कि वह देहधारी हो। जिन गुरुओं ने देह का त्याग कर दिया है वह अब भी अपनी रचनाओं, वचनों तथा विचारों के कारण देश में अपना नाम जीवंत किये हुए हैं। अगर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही उनके विचारों पर ध्यान किया जाये तो भी उनके विचारों तथा वचनों का समावेश हमारे मन में हो ही जाता है। ज्ञान केवल किसी की शक्ल देखकर नहीं हो जाता। अध्ययन, मनन, चिंत्तन और श्रवण की विधि से भी ज्ञान प्राप्त होता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण कर ही धनुर्विधा सीखी थी। इसलिये शरीर से गुरु का होना जरूरी नहीं है।
अगर संसार में कोई गुरु नहीं मिलता तो श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर किया जा सकता है। हमारे देश में कबीर और तुलसी जैसे महान संत हुए हैं। उन्होंने देह त्याग किया है पर उनका नाम आज भी जीवंत है। जब दक्षिणा देने की बात आये तो जिस किसी गुरु का नाम मन में धारण किया हो उसके नाम पर छोटा दान किसी सुपात्र को किया जा सकता है। गरीब बच्चों को वस्त्र, कपड़ा या अन्य सामान देकर उनकी प्रसन्नता अपने मन में धारण गुरू को दक्षिणा में दी जा सकती हैं। सच्चे गुरु यही चाहते हैं। सच्चे गुरु अपने शिष्यों को हर वर्ष अपने आश्रमों के चक्कर लगाने के लिये प्रेरित करने की बजाय उन्हें अपने से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको समाज के भले के लिये जुट जाने का संदेश देते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
दीपक भारतदीप द्धारा
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कभी समलैंगिकता तो कभी सच का सामना, युवक युवतियों के बिना विवाह साथ रहने और इंटरनेट पर यौन सामग्री से संबंधित सामग्री पर प्रतिबंध जैसे विषयों पर जूझ रहे अध्यात्मिक गुरुओं और समाज चिंतकों को देखकर लगता है कि वैचारिक रूप से इस देश में खोखलापन पूरी तरह से घर कर चुका है। इसलिये बाबा रामदेव अगर योग के बाद अगर ज्ञान को लेकर कोई वैचारिक धर्मयुद्ध छेड़ते हैं तो वह एक अच्छी बात होगी। आज के युग में अस्त्रों शस्त्रों से युद्ध की बजाय एक वैचारिक महाभारत की आवश्यकता है। समलैंगिकता और सच का सामना जैसे विषयों पर देश के युवाओं का ध्यान जाये उससे अच्छा है कि उनको अध्यात्मिक वाद विवाद की तरफ लाना चाहिये। पहले शास्त्रार्थ हुआ करता था और यही शास्त्रार्थ अब आधुनिक प्रचार माध्यमों में आ जाये तो बहुत बढ़िया है।
अध्यात्मिक विषयों पर लिखने में रुचि रखने वाले जब बेमतलब के मुद्दों पर बहस देखते हैं तो उनके लिये निराशा की बात होती है। बहुत कम लोग इस बात को मानेंगे कि इसी शास्त्रार्थ ने ही भारतीय अध्यात्म को बहुत सारी जानकारी और ज्ञान दिया है और उसके दोहराव के अभाव में अध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोगों को एकतरफा ही ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि अनेक साधु संत शास्त्रार्थ करने की बजाय अकेले ही प्रवचन कर चल देते हैं। अपनी बात कहने के बाद उस पर उनसे वाद विवाद की कोई सुविधा नहीं है। दरअसल उनके पास ही मूल ज्ञान तत्व का अभाव है।
आचार्य श्रीरामदेव ने भी आज इस बात को दोहराया कि श्रीगीता के उपदेशो की गलत व्याख्या की जा रही है। यह लेखक तो मानता है कि श्रीगीता से आम आदमी को परे रखने के लिये ही कर्मकांडोें, जादू टोने और कुरीतियों को निभाने के लिये आदमी पर जिम्मेदारी डाली गयी। समाज और धर्म के ठेकेदारों ने यह परंपरायें इस तरह डाली कि लोग आज भी इनको बेमन से इसलिये निभाते हैं क्योंकि अन्य समाज यही चाहता है। अपने अध्यात्म ज्ञान से हमारे देश का शिक्षित वर्ग इतना दूर हो गया है कि वह अन्य धर्मों के लोगों द्वारा रखे गये कुतर्कों का जवाब नहीं दे पाता।
विदेशों में प्रवर्तित धर्मों के मानने वाले यह दावा करते हैं कि उनके धर्म के लोगों ने ही इस देश को सभ्यता सिखाई। वह विदेशी आक्रांतों का गुणगान करते हुए बताते हैं कि उन्होंने यहां की जनता से न्यायप्रियता का व्यवहार किया। अपने आप में यह हास्याप्रद बात है। आज या विगत में जनता की राजनीति में अधिक भूमिका कभी नहीं रही। भारत के राजा जो विदेशी राज्यों से हारे वह अपने लोगों की गद्दारी के कारण हारे। सिंध के राजा दाहिर को हराना कठिन काम था। इसलिये ईरान के एक आदमी को उसके यहां विश्वासपात्र बनाकर भेजा गया। अपने लोगों के समझाने के बावजूद वह उस विश्वासपात्र को साथ रखे रहा। उसी विश्वासपात्र ने राजा दाहिर को बताया कि उसकी शत्रु सेना जमीन के रास्ते से आ रही है जबकि वह आयी जलमार्ग से। इस तरह राजा दाहिर विश्वास में मारा गया। यहां के लोग सीधे सादे रहे हैं इसलिये वह छलकपट नहीं समझते। दूसरा यह है कि जो अध्यात्मिक ज्ञान और योग साधना उनको सतर्क, चतुर तथा शक्तिशाली बनाये रख सकती है उससे समाज का दूर होना ही इस देश का संकट का कारण रहा है। दरअसल सभ्य हमारा देश पहले हुआ विदेश में तो बाद में लोगों ने बहुत कुछ सीखा जिसके बारे में हमारे पूर्वज पहले ही जान चुके थे। पर हमारा देश अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण ही कभी आक्रामक नहीं रहा जबकि विदेशी लोग उसके अभाव में आक्रामक रहें। फिर जितनी प्रकृत्ति की कृपा इस देश में कहीं नहीं है यह इतिहास विपन्न देशों द्वारा संपन्न लोगों को लूटने के साथ भी जोड़ा जा सकता है। इसलिये अनेक इतिहासकार कहते भी है कि जो भी यहां आया वह लूटने ही आया।
फिर कुछ आक्रामक लोग अपने साथ अपने साथ मायावी ज्ञान उनको प्रचार करने वाले कथित सिद्ध भी ले आये जिनके पास चमत्कार और झूठ का घड़ा पूरा भरा हुआ था। आश्चर्य की बात है कि अन्य धर्म के लोग जब बहस करते हैं तो कोई उनका जवाब नहीं देता। हां, जो गैर भारतीय धर्मों पर गर्व करते हैं कभी उनसे यह नहीं कहा गया कि ‘आप अपने धर्म पर इतरा रहे हो पर आपके कथित एतिहासिक पात्रों ने जो बुरे काम किये उसका जिम्मा वह लेंगे। क्या इस देश के राजाओं, राजकुमारों और राजकुमारियों के साथ उनके एतिहासिक पात्रों द्वारा की गयी अमानुषिक घटनाओं को सही साबित करेंगे? उन्हों बताना चाहिये कि मीठा खा और कड़वा थूक की नीति धार्मिक चर्चाओं में नहीं चलती।
धार्मिक प्रवचनकर्ता ढेर सारा धन बटोर रहे हैं। इस पर हमें आपत्ति नहीं करेंगे क्योंकि अगर माया के खेल पर बहस करने बैठे तो मूल विचार से भटक जायेंगे। पर यह तो देखेंगे कि साधु और संत अपने प्रवचनों और उपदेशों से किस तरह के भक्त इस समाज को दे रहे हैं। केवल खाली पीली जुबानी भगवान का नाम लेकर समाज से परे होकर आलस्य भाव से जीवन बिताने वाले भक्त न तो अपना न ही समाज का भला कर सकते हैं। भक्ति का मतलब है कि आप समाज के प्रति भी अपने दायित्वों का पालने करें। श्रीगीता का सार आप लोगों ने कई बार कहीं छपा देखा होगा। उसमें बहुत अच्छी बातें लिखी होती है पर उनका आशय केवल सकाम भक्ति को प्रोत्साहन देना होता है और उनका एक वाक्य भी श्रीगीता से नहीं लिया गया होता। हां, यह आश्चर्य की बात है और इस पर चर्चा होना चाहिये। बाबा रामदेव और श्रीरविशंकर दो ऐसे गुरु हैं जो वाकई समाज को सक्रिय भक्त प्रदान कर रहे हैं-इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनकी आलोचना करने वाले बहुत हैं। यही आलोचक ही कभी सच का सामना तो कभी समलैंगिक प्रथा पर जोरशोर से विरोध करने के लिये खड़े होते हैं। योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और श्रीगीता का अध्ययन करने वाले भक्त कभी इन चीजों की तरफ ध्यान नही देते। हमें ऐसा समाज चाहिये जिसके बाह्य प्रयासों से बिखर जाने की चिंता होने की बजाय अपनी इच्छा शक्ति और दृढ़ता से अपनी जगह खड़े का गर्व हमारे साथ हो। कम से कम बाबा रामदेव और श्रीरविश्ंाकर जैसे गुरुओं की इस बात के लिये प्रशंसा की जानी चाहिये कि वह इस देश में ऐसा समाज बना रहे हैं जो किसी अन्य के द्वारा विघटन की आशंका से परे होकर अपने वैचारिक ढांचे पर खड़ा हो। बाबा श्रीरामदेव द्वारा धर्म के प्राचीन सिद्धांतों पर प्रहार करने से यह वैचारिक महाभारत शुरु हो सकता है और इसकी जरूरत भी है। आखिर विदेशी और देशी सौदागर देश के लोगों का ध्यान अपनी खींचकर ही तो इतना सारा पैसा बटोर रहे हैं अगर उस पर स्वदेशी विचाराधारा का प्रभाव हो तो फिर ऐसी बेवकूफ बनाने वाली योजनायें स्वतः विफल हो जायेंगी।
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अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्रीच कर्ता तामस उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-युक्ति के बिना कार्य करने वाला, प्राकृत ( संसार की शिक्षा प्राप्त न करने वाला), स्तब्ध (इस संसार की भौतिकता को देखकर हैरान होने वाला, दुष्ट, किसी की कृति (जीविका) का नाश करने वाला, शोक करने वाला और लंबी चौड़ी योजनायें बनाकर काम करने वाला तामस प्रवृत्ति का कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर उत्पात मचाने वाले दूसरों पर आक्रमण करते हैं। दूसरे का रोजगार उनसे सहन नहीं होता और वह उसका नाश करने पर आमादा हो जाते हैं। सबसे हैरानी की बात तो तब होती है कि श्रीगीता को पवित्र मानने वाले लोग यह काम बेझिझक करते हैं। थोड़ी थोड़ी सी बात पर रास्ता जाम करना, दुकानें-बसें जलाना तथा राह चलते हुए लोगों और अपने रोजगार का कर्तव्य निभा रहे सुरक्षा जवानों पर पत्थर फैंकना कोई अच्छी बात नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में आंदोलन चलते हैं पर उनको चलाने का अहिंसक तरीका भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बता ही दिया है-जैसे सत्याग्रह और बहिष्कार। आज सारी दुनियां उनको मानती है पर इसी देश में जरा जरा सी बात पर हिंसा का तांडव दिखाई देता है। इस तरह युक्ति रहित आंदोलन तामसी प्रवृत्ति का परिचायक हैं।
नैतिक और धार्मिक सहिष्णुता और दृढ़ता हमारे भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति है। जीवन मरण तो सभी के साथ लगा रहता है। मुख्य बात यह है कि कोई मनुष्य किस तरह जिया-उसने सात्विक, राजस या तामस
में से किस प्रवृत्ति को उसने अपनाया। इस देश की विचारधारा को इतनी चुनौती मिलती हैं पर फिर भी वह अक्षुण्ण बनी हुई क्योंकि वह उस सृष्टि के उस सत्य को जानती है जिस पर पश्चिम अब काम कर रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूह के सदस्यों की संख्या अधिक है या कम-देखा तो यह जाता है कि उस समूह के सदस्य किस प्रवृत्ति-सात्विक, राजस या तामस-के हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर कोई दूसरा मनुष्य हमसे अलग भी हो तो भी उसकी जीविका का नाश करना अधर्म है-हमें यह नहीं देखना चाहिये कि उसका समूह या वह क्या करता है बल्कि इस बात पर दृष्टि रखना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं? हमारा और समूह का आचरण दृढ़ और धर्म पर आधारित होना चाहिये और यह निश्चय शक्तिशाली बना सकता है।
आज के कठिन युग में जहां तक हो सके दूसरे को रोजगार में सहायता देना चाहिये। इसके लिये अपनी तरफ से कोई प्रयास करना पड़े तो झिझकना नहीं चाहिये। यह न कर सकें तो कम से कम इतना तो करना चाहिये कि दूसरे के रोजगार का नाश न हो।
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हमारे देश में तमाम तरह के नारे लगाए जाते हैं जिनमें एक है ‘समाजवाद लाओ’। इस नारे के साथ अनेक आन्दोलन चले और उनके अगूआओं ने अपने चारों और लोगों की भीड़ बटोरी पर अभी भी समाज में समरस्ता का भाव स्थापित नहीं हो पाया। जिन लोगों ने भीड़ एकत्रित कर शक्ति प्राप्त की उन्होने अपने और परिवार के लिए अकूत संपदा अर्जित कर ली इतना ही नहीं आज भी वह यही नारा लगा रहे हैं। गरीबों और शोषितों के दम पर शक्ति अर्जित करने का बावजूद वह उनका भला नहीं कर पाए। भारतीय धर्म ग्रंथों में दोष ढूँढने वाले उसके अच्छे पक्ष से मुहँ फेर लेते हैं क्योंकि उसमें कई ऐसे रहस्य है जो जीवन के मूल तत्वों के सत्य पक्ष को उदघाटित करते हैं और आदमी को फिर भ्रम में नही जाने देते। ऐसे ही श्रीगीता भी एक ऐसा पावन ग्रंथ है जिसमे ज्ञान के साथ विज्ञान भी हैं। मैंने यह लेख मजदूर दिवस पर लिखा था और आज जब इस पर मेरी दृष्टि पढी तो मैंने इसे अपन मुख्य पर रखने का निश्चय किया क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो मुझे इसी ब्लोग की वजह से अधिक जानते और मानते हैं।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”
श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्र माने जाते है जिन के विचारों पर गईबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिद्ध होगा।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया की वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे।मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आता था पर भक्ति भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।
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