प्रचार माध्यमों पर निरंतर आ रही जानकारियों ने देश के लोगों को आंदोलित किया है। सभी कहते हैं कि अंतर्जाल का जमाना है। सब इस परिवर्तन को दर्शाती कहानियों, आलेखों और कविताओं को पढ़ना चाहते हैं। वह अपनी आंखों से बदलते इस विश्व को देखने के साथ उसके बारे में पढ़ना चाहते है।
अंतर्जाल पढ़ने वाले लोग निराश है। जो लिख रहे हैं वह सारी सुविधाओं होने के बावजूद पुराने विषयों पर ही लिख रहे हैंं। वही वाद और नारे लगाने के साथ उसमें लिपटी कवितायें और कहानियां लिखे रहे हैं। लिखने वालों के पास ज्ञान की गहराई का अभाव है। टीवी चैनलों और अखबारों में अनेक लेखक चर्चित हैं मगर आम आदमी की वाणी पर किसी का नहीं है।
कई कवि और शायर अपनी रचनाओं को जबरन हृदयस्पर्शी बनाने का प्रयास करते हैं-उनके शब्दों का उपयोग यह स्पष्ट कर देता है। चंद घटनाओं को कविता का रूप देते हैं जिनको पहले ही लोग समाचारों पढ़ कर भूल चुके हैं। वह इन घटनाओं को ऐसे लिखते हैं जैसे उससे देश का इतिहास बदला हो। लोग अपनी कहानियों और व्यंग्यों में उन हिंसक मुद्दों को जीवंत बनाने का प्रयास कर रहे हैं जो चंद जगहों पर हुईं। देश के बहुत से लोगों ने उसे केवल समाचारों में पढ़ा। कई लेखक और कवि अभी भी उन पर लिख रहे हैं। उनको मुगालता है कि अतर्जाल पर लोकप्रियता मिल जायेगी। कुछ लोग उनकी किताबों की चर्चा करते हैं कि शायद उन्हें भी उसका कुछ अंश यहां मिल जायें। वह अंतर्जाल पर लिख रहे कवियों और लेखकों को अपने जैसा ही मानते हैं और उनका प्रचार करने से भय लगता है।
आखिर उनका उद्देश्य क्या है? वह खुद नहीं जानते। बस लिखना है। लोगों की संवेदनाओं को उबारने से शायद उनको लोकप्रियता मिल जाये। बेकार की कोशिश! लोगों की संवेदनायें मरी नहीं हैं यह एक सच है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि लोगों ने प्रचार माध्यमों से इस सच का जान लिया है कि यहां कई घटनायें पहले से तय की जाती हैं। लड़ाईयों भी फिक्स होती हैंं। एक लेखक, कवि या शायर किसी समाचार पर एक कविता लिख देता है। वह कहता है कि मैं सैक्यूलर हूं और यह घटना उसके लिये खतरा है। दूसरा उस पर उबलता है। कहीं गुस्से और तो कहीं झगड़े होते हैं। कहीं विवाद होते हैं। ऐसे कवियों और शायरों के नाम अखबारों मे आते हैं जिनको कोई जानता नहीं। उनके विरोधी भी ऐसे ही हैं। मगर लोग सच जानते हैं कि आजकल सभी जगह फिक्सिंग है।
किसी आम आदमी से पूछिये तो वह बेहिचक कह देगा कि‘यह सब नाटक है।
मगर कवि और शायर है कि मुगालते में लिखे जा रहे हैं। लोग उम्मीद कर रहे थे कि अंतर्जाल पर कुछ नया पढ़ने को मिलेगा। मगर नही,ं यहां तो उन्हीं घिसे पिटे वाद और नारों पर चलने वाले गुरूओं के शिष्यों की जमात आ गयी है-जिनके पास न स्वतंत्र विचार हैं न मौलिकता से लिखने की क्षमता। समाचार पत्रों से उठाये गये विषयों को ही यहां रख रहे हैं। ऐसे लोग आत्ममुग्ध हैं उनको पता ही नहीं है कि लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है। वह कुछ नया पढ़ना चाहते हैं। मगर इस पर उन्हें सोचने की फुरसत ही कहां? वह तो अखबार पढ़ा और फिर उस पर लिखने बैठ जाते हैं। अंतर्जाल पर कई नये लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं पर कोई उनका लिखा अपने अंतर्जालीय पृष्ठों पर नहीं लिखता। कहीं से किताबों के अंश ले आये तो कभी किसी विदेशी कि कविता छाप दी। बस! वही ढर्रा! जिस पर देश चलता आ रहा है।
आम आदमी जानता है कि जहां तक अध्यात्म का प्रश्न है हमारे पुराने ग्रंथों में अपार सामग्री है। उसके बाद भी संतगण-तुलीसदास, कबीरदास, मीरा, रहीम और सूर- उनके लिये बहुत कुछ लिख गये हैं। अब और क्या लिख पायेगा पर वर्तमान सामाजिक परिवेश और अंतर्जाल से संबंधित अच्छी कहानियां, व्यंग्य और लेख पढ़ने को मिल जाये तो अच्छा है-लोग ऐसा सोचते हैं।
अंतर्जाल पर लिखने वाले इस नयी विधा पर कोई कहानी क्यों नहीें लिखते? क्या अंतर्जाल पर उनके पास कोई पात्र नहीं हैं या वहां कोई कहानियां नहीं बनती। मगर वाद और नारों पर चले इस देश का समाज चला तो फिर लेखक भी ऐसे ही हैं। कोई नई कल्पना करने की बजाय वह उपलब्ध विषयों पर ही लिखते हैं। अपने देश के किसी व्यक्ति द्वारा सुझाया गया विषय उनको मंजूर नहीं है। उन्हें तो अमेरिका और ब्रिटेन के अंग्रेज लेखकों द्वारा खोजे गये विषयों पर ही लिखना पसंद है। अंतर्जाल पर पढ़ने वाले लोगों को यह देखकर निराशा होती है कि अभी वहां स्वतंत्र रूप से कोई नहीं लिख पा रहा जबकि उसे यहां उस पर कोई बंधन नहीं है। अंतर्जाल लेखकों को पुराने विषयों से हटकर नये विषय चुने होंगे। उन्हें अपना मौलिक लेखन करना होगा वरना वह पिछड़ जायेंगे। ध्यान देने की बात है कि अब आप लिख किसी भी भाषा में रहे हैं पर उसे अन्य किसी भाषा का व्यक्ति भी पढ़ सकता है। पुराने वाद और नारों से दूर हो जाओ। पुराने हिंसक और तनाव के मुद्दों पर अब इस देश का आदमी नहीं भड़कता। वह जानता है कि आजकल कई मुद्दे बनाये जाते हैं। उन मरे मुद्दों की राख उठाकर अंतर्जाल पर मत सजाओ।
दीपक भारतदीप द्धारा
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हमारे देश में तमाम तरह के नारे लगाए जाते हैं जिनमें एक है ‘समाजवाद लाओ’। इस नारे के साथ अनेक आन्दोलन चले और उनके अगूआओं ने अपने चारों और लोगों की भीड़ बटोरी पर अभी भी समाज में समरस्ता का भाव स्थापित नहीं हो पाया। जिन लोगों ने भीड़ एकत्रित कर शक्ति प्राप्त की उन्होने अपने और परिवार के लिए अकूत संपदा अर्जित कर ली इतना ही नहीं आज भी वह यही नारा लगा रहे हैं। गरीबों और शोषितों के दम पर शक्ति अर्जित करने का बावजूद वह उनका भला नहीं कर पाए। भारतीय धर्म ग्रंथों में दोष ढूँढने वाले उसके अच्छे पक्ष से मुहँ फेर लेते हैं क्योंकि उसमें कई ऐसे रहस्य है जो जीवन के मूल तत्वों के सत्य पक्ष को उदघाटित करते हैं और आदमी को फिर भ्रम में नही जाने देते। ऐसे ही श्रीगीता भी एक ऐसा पावन ग्रंथ है जिसमे ज्ञान के साथ विज्ञान भी हैं। मैंने यह लेख मजदूर दिवस पर लिखा था और आज जब इस पर मेरी दृष्टि पढी तो मैंने इसे अपन मुख्य पर रखने का निश्चय किया क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो मुझे इसी ब्लोग की वजह से अधिक जानते और मानते हैं।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”
श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्र माने जाते है जिन के विचारों पर गईबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिद्ध होगा।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया की वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे।मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आता था पर भक्ति भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।
दीपक भारतदीप द्धारा
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