आखिर तिब्बत के निर्वासित धार्मिक नेता दलाई लामा ने भी वहां की बिगड़ी हालत के लिये चीन को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। इससे पूर्व मैंने अपने लेख में यह संदेह जाहिर किया था कि चीन के शासक वहां के हालत बिगाड़ कर अपने सैन्य ठिकानों सुदृढ़ एवं विस्तृत करने का बहाना ढूंढ रहे हो सकते हैं। अब दलाई लामा ने जिस तरह उनका जिस तरह कटघरे में खड़ा किया है उसे जरूर देखना चाहिए।
दलाई लामा ने तो यहां बैठकर वहां के लोगों से शांति की अपील की थी फिर भी वहां क्यों हिंसा हो रही है? चीन के सम्राज्यवादी शासकों ने सांस्कृतिक क्रांति के बाद से ही चारों तरह एक तरह से आतंक की अभेद्य दीवार अपने देश में बना रखी है और उसे देख कर नहीं लगता कि वहां उसके शासकों की नजर के बिना किसी आंदोलन को चलाना तो दूर उसकी सोच भी नही सकता होगा। उसके पड़ौसी देशों में भी किसी की हिम्मत नहीं है कि उसके अंदर चल रही असंतुष्ट गतिविधियों को प्रत्यक्ष क्या अप्रत्यक्ष समर्थन भी दे सके।
एसा लगता है कि चीन की जनता को भले ही बाहर की हवा न लगी हो पर उसके नेता अब दूसरे देश के नेताओं से राजनीति का सबक सीख गये हैं। जब संपूर्ण देश में अशांति का माहौल हो तो किसी क्षेत्र विशेष में फैले अंसतोष को हवा दो ताकि लोगो का ध्यान उस ओर चला जाये। वहां फिर बलप्रयोग करो ताकि देश की जनता वाहवाही करे और दुश्मन डर जाये। यह आंदोलन चीनी नेताओं के इशारे पर उन नेताओं ने शुरू किया होगा जिन्हें चीन के राजनयिकों ने उपकृत किया होगा या ऐसा करने का आश्वासन दिया होगा-हालांकि इसमें उनके लिये जोखिम भी कम नहीं है क्योंकि जब चीन जब वहां अपना काम पूरा कर लेगा तब उनका भी वैसा ही हश्र होगा जैसा अन्य विरोधियों का होता आया है।
वैसे भी इस समय तिब्बतियों को स्वतंत्रता मिलना तो दूर स्वायत्ता मिलना भी कठिन है और अगर ऐसा कोई आंदोलन वहां चल रहा है तो उसे केवल पश्चिमी राष्ट्रों का मूंहजुबानी समर्थन ही मिल सकता है इससे अधिक कुछ आशा नही की जा सकती। भारत से बड़ा उपभोक्ता बाजार चीन का है और उसे पाने की होड़ सभी पश्चिमी राष्ट्रों में है। इसके अलावा सामरिक दृष्टि से चीन इतना ताकतवर है कि कोई उस पर हमला नहीं कर सकता। ऐसे में तिब्बत की चीन से मुक्ति अभी तो संभव नहीं है। ऐसे में वहां चल रहे कथित आंदोलन का लंबे समय तक चलना संभव नहीं है। इसके बावजूद विश्व के सभी देशों को उस पर नजर रखना ही चाहिए क्योंकि वह अपनी सामरिक शक्ति बढ़ायेगा जो कि विश्व के लिये हितकर नहीं है। अभी तक चीन ने तिब्बत को अपनी सैन्य छावनी बनाकर रखा हुआ है और अब वह वहां अपने देश के अन्य इलाकों से लोग लाकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहता है। उसके कथित विकास के दावे खोखले हैं और चूंकि अब प्रचार माध्यम इतने व्यापक हो गये हैं इसलिय कोई देश अपने लोगों को दूसरे देशों से मिलने वाली जानकारी रोक नहीं सकता और निश्चित रूप से वहां की सरकार की जनता में असलियत अब खुल रही होगी और उससे विचलित वहां की सरकार उनका ध्यान बंटाने के लिये यह नाटक कर रही है-दलाई लामा के आरोप से तो यही लगता है।
तिब्बत में चीन के खिलाफ कथित आन्दोलन मुझे तो एक छद्म मामला लग रहा है। चीन में नाम मात्र की भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है और ऐसे आन्दोलन वहीं पनपते हैं जहाँ थोडी बहुत कोई बोलने और समझने की गुंजायश हो। चीन में जिस तरह लोगों की बोलने की आजादी को कसकर दबाया गया है उसके चलते यह संभव भी नहीं है।
चीन एक भयभीत राष्ट्र है और भय से क्रूरता का जन्म होता है। चीन ने इलेक्ट्रोनिक क्षेत्र में काफी तरक्की है और ऐसे में उसके न चाहने के बावजूद विदेशी प्रचार माध्यमों की पहुंच वहाँ के लोगों तक हुई है, और अब सामान्य लोग जागरूक हो रहे हैं। चीन के बारे में विश्व बहुत कम जानकारी उपलब्ध है पर जितनी उपलब्ध है वह उसकी कड़वी जमीनी वास्तविकताओं को दर्शाती है। उसकी विकास दर बहुत अधिक हैं पर उसमें कितना काला और सफ़ेद है यह अलग चर्चा का विषय है। कुल मिलाकर चीन में भी एक आम जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग नाखुश है और लगता है कि तिब्बत में चीन के प्रमुख एक काल्पनिक दुश्मन खडा कर जनता का ध्यान बंटाने का प्रयास कर रहे है। भारत में रह रहे दलाई लामा ने वहाँ के लोगों से हिंसा से दूर रहने की अपील की है पर चीन तो शांति प्रदर्शन को भी सेना से कुचलने में लगा है। उसे शांतिपूर्ण आन्दोलन भी स्वीकार्य नहीं है। चीन को भय ने क्रूर बना दिया है।
चीन ने जिस तरह तिब्बत में भारत के रवैये का स्वागत किया है और यह चौंकाने वाले बात है और इसमें सतर्कता रखने वाली बात है। हो सकता है कि चीन ने राजनीतिक दावपेंच का इस्तेमाल करते हुए तिब्बत में तनाव पैदा किया हो और वहाँ इस बहाने अपना सैन्य तंत्र मजबूत कर रहा हो ताकि कभी उसका भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सके।
वहाँ चीन अपनी सैन्य ताकत को इस तरह स्थापित कर सकता है कि भारत में घुसना आसान हो। बीच बीच में वह अरुणांचल पर अडियल रवैया अपनाकर वह इस बात का संकेत भी देता है कि उसका धीरज जवाब दे रहा है। यह इसलिए भी संदेहास्पद लग रहा है क्योंकि चीन में जो कठोर व्यवस्था है उसके चलते कोई भी उसके विद्रोहियों मदद नहीं कर सकता।
आज मैंने चिट्ठा जगत पर सत्येंद्र प्रसाद श्री वास्तव की एक कहानी पढी, और वह मुझे बहुत पसंद आयी। उनकी कहानी न केवल सार्थक है बल्कि एक संदेश भी देती है। मुझे ऎसी ही रचनाएं बहुत पसंद आती हैं । इससे ज्यादा अच्छी बात यह लगी कि अब इण्टरनेट पर भी सार्थक लेखन शुरू हो चूका है। मैंने पहले लेख में कहा था कि लेखक की रचना का समाज से सरोकार होना चाहिऐ और यह कहानी उसी का प्रमाण है। यहाँ इसका उल्लेख करना मुझे इसलिये जरूरी लगा कि क्योंकि जब मैं इस विधा में हूँ तो इससे जुडे कुछ पहलुओं की चर्चा करना जरूरी लगता है।
वास्तविक लेखक जब सृजन करने का विचार करता है तो वह स्वयं से परे होकर केवल रचना के पात्रों और तत्वों पर ही दृष्टि केंद्रित करता है-अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो उसकी रचना केवल एक अपनी डायरी या नॉट बनकर रह जायेगी समाज के सरोकार से परे होने के कारण उसे रचना तो हरगिज नहीं कहा जा सकता है। निज-पत्रक पर ऎसी कहानिया लिखना कोई आसान काम नहीं है -यह मैं जानता हूँ, पर जिसके हृदय में सृजनशीलता, उत्साह और अपने लेखन से प्रतिबद्धता का भाव है वही ऐसा कर सकते हैं। आने वाले समय में अच्छी कहानियाँ, व्यंग्य, सामयिक लेख और तमाम तरह की ज्ञान वर्धक जानकर हमें मिलती रहेंगी ऎसी हम आशा बढ रही है। उनके निज पत्रक का नाम भूख है। आप इसे जरूर पढ़ें ।
एक लेखक को अच्छा पाठक भी होना चाहिऐ, मैंने देखा है कि की लोग अपने लिखने पर ही अड़े रहते हैं और पढने के नाम पर कोरे होते हैं। ऐसे लोगों को मैं बता दूं कि आप पढ़ते हैं या नहीं यह आपकी रचना ही बता देती है-या अगर आप पढ़ते हैं तो कैसा पढ़ते हैं यह भी आपकी रचना जाहिर कर देती। कुछ लोग ऐसे हैं जो सीखते हैं पर सिखाने वाले का नाम जाहिर नहीं करते है और ऐसे चलते हैं जैसे जन्मजात सिद्ध हौं ,और वह कभी भी अपनी छबि नहीं बनाते। उन्हें कुछ रचनाएं बेहद पसंद आती हैं पर वह जाहिर नहीं करते। मैं उन लोगों में नहीं हूँ – जो मुझे पसन्द आता है वह खुले आम कह देता हूँ ताकि लोग जाने कि मेरी पसंद या नापसंद क्या है? इसमें भी कोई शक नहीं है कि श्रीवास्तव जीं स्वयं भी उच्च कोटि का साहित्य पढ़ते होंगे क्योंकि ऎसी रचना तभी संभव है। मैंने यहाँ उनका ब्लोग लिंक नहीं किया उसके दो कारण हैं एक तो यह कि उनसे मैंने अनुमति नहीं मांगी और दुसरे यह कि लोग लिंक ब्लोग को खोलकर पढ़ते नजर नहीं आते-इसके अलावा मैं चाहता हूँ कि हिंदी की साहित्यक समीक्षा की परंपराएँ यहां भी शुरू हौं जो लिखी जाती हैं पर कुछ अंशों के साथ ! यहाँ अपने पाठकों में उत्सुकता पैदा कर उन्हें उनके ब्लोग पर जाने के लिए प्रेरित करना चाहता हूँ।
इसके साथ ही मैं आशा करता हूँ कि श्रीवास्तव जी की सृजन शीलता की भूख और बढ़े ताकि इण्टरनेट पर हमें और भी रचनाएं देखने को मिलें।