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Tag Archives: हिंदी कविता
रात भुलावा, सुबह छलावा-हिंदी कविता
चिल्ला चिल्ला कर वह
करते हैं एक साथ होने का दावा
यह केवल है छलावा
मन में हैं ढेर सारे सवाल
जिनका जवाब ढूंढने से वह कतराते
आपस में ही एक दूसरे के लिये तमाम शक
जो न हो सामने
उसी पर ही शुबहा जताते
महफिलों में वह कितना भी शोर मचालें
अपने आपसे ही छिपालें
पर आदमी अपने अकेलेपन से घबड़ाकर
जाता है वहां अपने दिल का दर्द कम करने
पर लौटता है नये जख्म साथ लेकर
फिर होता है उसे पछतावा
रात होते उदास होता है मन सबका
फिर शुरू होता है सुबह से छलावा
………………………………………….
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
धूल ने क्लर्क को सिखाया-हिंदी शायरी
बहुत दिन बाद ऑफिस में
आये कर्मचारी ने पुराना
कपडा उठाया और
टेबल-कुर्सी और अलमारी पर
धूल हटाने के लिए बरसाया
धूल को भी ग़ुस्सा आया
और वह उसकी आंखों में घुस गयी
क्लर्क चिल्लाया तो धूल ने कहा
‘धूल ने कहा हर जगह प्रेम से
कपडा फिराते हुए मुझे हटाओ
मैं खुद जमीन पर आ जाऊंगी
मुझे इंसानों जैसा मत समझो
कि हर अनाचार झेल जाऊंगी
इस तरह हमले का मैंने हमेशा
प्रतिकार किया है
बडों-बडों के दांत खट्टे किये हैं
जब भी कोई मेरे सामने आया ‘
—————
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
आजादी की चाहत
एक तरफ आजादी से उड़ने की चाहत
दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के काँटों में
फंसकर करते अपने को आहत
अपने क़दमों पर चलते हुए भी
अपनी अक्ल के मालिक होते हुए भी
तमाम तरह के बोझ उठाते हैं
समाज से जुड़ने बाबत
जमीन पर चलने वाले इंसान को
परिंदों की तरह पंख भी होते तो
कभी उड़ता नहीं
क्योंकि अपने मन में डाले बैठा है
सारे संसार को अपना बनाने की चाहत
हाथ में कुछ आने का नहीं
पर जूझ रहा है सब समेटने के लिए
नहीं माँगता कभी मन की तसल्ली या राहत
अगर चैन से चलना सीख लेता
अपने क़दमों को अपनी ही तय दिशा
पर चलने देता
तो ले पाता आजादी की सांस
पर जकड़ लिया झूठे रीतिरिवाज के
बन्धन अपने
और फिर भी पालता आजादी की चाहत
—————————-
जिन्दगी में आ जाये बहार
अपने मन में है बस व्यापार
बाहर ढूंढते हैं प्यार
मन में ख्वाहिश
सोने, चांदी और धन
के हों भण्डार
पर दूसरा करे प्यार
मन की भाषा में हैं लाखों शब्द
पर बोलते हुए जुबान कांपती है
कोई सुनकर खुश हो जाये
अपनी नीयत पहले यह भांपती है
हम पर हो न्यौछावर
पर खुद किसी को न दें सहारा
बस यही होता है विचार
इसलिए वक्त ठहरा लगता है
छोटी मुसीबत बहुत बड़ा कहर लगता है
पहल करना सीख लें
प्यार का पहला शब्द
पहले कहना सीख लें
तो जिन्दगी में आ जाये बहार
—————–
दिल और दिमाग
कुछ यूंही ख्याल कभी आता है
भला सबके बीच में भी
आदमी खुद को
अकेलेपन के साथ क्यों पाता है
शायद दिल नहीं समझता दिल की बात
अपनों और गैरों में फर्क कर जाता है
अपनों के बीच गैरों की फिक्र
और गैरों के बीच
अपनों की याद में खो जाता है
कभी बाद में तो कभी पहले दौड़ता है
पर वक्त की नजाकत नहीं समझ पाता है
दूसरों पर नजरिया तो दिमाग खूब बनाता
पर अपना ख्याल नहीं कर पाता है
बाहर ही देखता है
आदमी इसलिए अन्दर से खोखला हो जाता है
दिल के चिराग
ख्वाहिशें तो जिंदगी में बहुत होतीं हैं
पर सभी नहीं होतीं पूरी
जो होतीं भी हैं तो अधूरी
पर कोई इसलिए जिन्दगी में ठहर नहीं जाता
कहीं रौशनी होती है पर
जहाँ होता हैं अँधेरा
वीरान कभी शहर नहीं हो जाता
कोई रोता है कोई हंसता है
करते सभी जिन्दगी पूरी
सपने तो जागते हुए भी
लोग बहुत देखते हैं
उनके पूरे न होने पर
अपने ही मन को सताते हैं
जो पूरे न हो सकें ऐसे सपने देखकर
पूरा न होने पर बेबसी जताते हैं
अपनी नाकामी की हवा से
अपने ही दिल के चिराग बुझाते हैं
खौफ का माहौल चारों और बनाकर
आदमी ढूंढते हैं चैन
पर वह कैसे मिल सकता है
जब उसकी चाहत भी होती आधी-अधूरी
फिर भी वह जिंदा दिल होते हैं लोग
जो जिन्दगी की जंग में
चलते जाते है
क्या खोया-पाया इससे नहीं रखते वास्ता
अपने दिल के चिराग खुद ही जलाते हैं
तय करते हैं मस्ती से मंजिल की दूरी
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग
कहीं खुश दिखने की
तो कहीं अपना मुहँ बनाकर
अपने को दुखी दिखाने की कोशिश करते लोग
अपने जीवन में हर पल
अभिनय करने का है सबको रोग
अपने पात्र का स्वयं ही सृजन करते
और उसकी राह पर चलते
सोचते हैं’जैसा में अपने को दिख रहा हूँ
वैसे ही देख रहे हैं मुझे लोग’
अपना दिल खुद ही बहलाते
अपने को धोखा देते लोग
कभी नहीं सोचते
‘क्या जैसे दूसरे जैसे दिखना चाहते
वैसे ही हम उन्हें देखते हैं
वह जो हमसे छिपाते
हमारी नजर में नहीं आ जाता
फिर कैसे हमारा छिपाया हुआ
उनकी नजरों से बच पाता’
इस तरह खुद रौशनी से बचते
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग
————————
भीड़ और आदमी
अलग खडा नहीं रह सकता
इसलिये भीड़ में शामिल
हो जाता है आदमी
फिर वहीं तलाशता है
अपनी पहचान आदमी
भीड़ में सवाल-दर सवाल
सोचता मन में
भीड़ में शामिल पर अलग सोचता आदमी
भीड़ में शामिल लोगों में
अपने धर्म के रंग
अपनी जाति का संग
अपनी भाषा का अंग
देखना चाहता आदमी
अपनी टोपी जैसी सब पहने
और उसके देवता को सब माने
उसके सच को ही सर्वश्रेष्ठ जाने
अपनी शर्तें भीड़ पर थोपता आदमी
भीड़ में किसी की पहचान नहीं होती
यह जानकर उसे कोसता आदमी
अपने अन्दर होते विचारों में छेद
भीड़ में देखता सबके भेद
अपनी सोच पर कभी नहीं होता खेद
सबको अलग बताकर एकता की कोशिश
दूसरे की नस्ल पर उंगुली उठाकर
अपने को श्रेष्ठ साबित कराने का इरादा
असफल होने पर सबको समान
बताने का दावा
आदमी देता है भीड़ को धोखा
पर भीड़ का कोई रंग नहीं होता
कोई देवता उसकी पहचान नहीं बनता
कोई उसकी भाषा नहीं होती
कहा-सुना सब बेकार
तब हताश हो जाता है आदमी
भीड़ में शामिल होना चाहता है
अपनी शर्तें भूलना नहीं चाहता आदमी
अपने अंतर्द्वंदों से मुक्त नहीं हो पाता आदमी
—————————
अपने ही घर में ही नस्लभेद
जनसँख्या में लड़कों के
अनुपात में
लड़कियों की
संख्या कम रह गयी है
लडकी की भ्रूण में ही
ह्त्या की कहानी
घर-घर में बह रही है
पुरुष की जन्म देने वाली
नस्ल अब लुप्त होने की
तरफ बढ़ रही है
————–
पुत्र के जन्म-दिन पर
जश्न में डूब जाता है
पूरा परिवार
पुत्री के जन्म दिन पर
सबका चेहरा ऐसा हो जाता है
जैसे हों डूबती नाव के सवार
पर भ्रूण में कौन क़त्ल कराता है
कौन है जो उसके जीवन पर
सदैव कहर बरपाता है
प्रश्न उठता है बारंबार
माँ बचाना भी चाहे तो
बचा नहीं पाती
रिश्ते की कोई औरत ही
उसे भ्रूण ह्त्या के लिए
मजबूर करवाती
औरत ही बनती है भ्रूण की शत्रु
नाम तो आदमी का भी आता
पहले तो सहती थी औरत
जीवन भर पीडा
अब तू भ्रूण में भी होता है वार
———
पिता भी वही है
माता भी वही
पर बेटी पाती है
अपनी ही घर में
सम्मान ऐसा जैसे कि
पराया माल हो
पुत्र प्यार में ऐसे फूलता है
माँ-पिता की आंखों में
हीरे की तरह झूलता है
जैसे ‘आयातित कमाल’ हो
अपने ही शरीर से पैदा
जीव में नस्ल भेद करता समाज
भला क्यों न बेहाल हो
————-
बेजुबानो को किया घर से बेदखल-पर्यावरण
वह कहते है हमारे घर में
सांप बहुत निकलते हैं
पूरे इलाक़े में है आतंक
पूरे इलाक़े में है आतंक
हाथी और शेर आदमी पर
हमला करते हैं
कहीं फूंक रहा है ओझा मन्त्र
कहीं हो रही है सरकार से फरियाद
जंगल में मंगल का द्रश्य
अब प्रकट नहीं होता
बेजुबानों को घर से बेदखल कर
अपनी बस्ती बसाई है
जिनका मुजरिम है इन्सान
उनके खिलाफ ही कर रहा है फरियाद
सांप, हाथी और शेर वोटर नहीं है
उनकी मूक भाषा में कहे दर्द को
भला कौन सुनता है।
—————————-
पेड-पोधे काट दो
जंगली जानवर और जीव -जंतुओं को
घर से बेदखल कर दो
क्योंकि इंसानों की बस्ती का
बसना हर हाल में जरूरी है
यह धरती हम इंसानों के लिए है
पशु-पक्षी और जीव-जंतु के लिए
थोडी भी जमीन छोड़ना क्यों जरूरी है
ऐसे ही ख्यालो में इन्सान जीं रहा है
जिन बेजुबानों से दोस्ती करना थी
उनका ख़ून पी रहा है
नतीजा यह है कि पशु अब
इंसानों के भेष में आने लगे हैं
सांप उसके दिल में बिल बनाने लगे हैं
क्या करने इन्सान से बदला लेने
के लिए उनकी यह मजबूरी है।
——————————