बहुत दिन बाद ऑफिस में
आये कर्मचारी ने पुराना
कपडा उठाया और
टेबल-कुर्सी और अलमारी पर
धूल हटाने के लिए बरसाया
धूल को भी ग़ुस्सा आया
और वह उसकी आंखों में घुस गयी
क्लर्क चिल्लाया तो धूल ने कहा
‘धूल ने कहा हर जगह प्रेम से
कपडा फिराते हुए मुझे हटाओ
मैं खुद जमीन पर आ जाऊंगी
मुझे इंसानों जैसा मत समझो
कि हर अनाचार झेल जाऊंगी
इस तरह हमले का मैंने हमेशा
प्रतिकार किया है
बडों-बडों के दांत खट्टे किये हैं
जब भी कोई मेरे सामने आया ‘
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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कुछ यूंही ख्याल कभी आता है
भला सबके बीच में भी
आदमी खुद को
अकेलेपन के साथ क्यों पाता है
शायद दिल नहीं समझता दिल की बात
अपनों और गैरों में फर्क कर जाता है
अपनों के बीच गैरों की फिक्र
और गैरों के बीच
अपनों की याद में खो जाता है
कभी बाद में तो कभी पहले दौड़ता है
पर वक्त की नजाकत नहीं समझ पाता है
दूसरों पर नजरिया तो दिमाग खूब बनाता
पर अपना ख्याल नहीं कर पाता है
बाहर ही देखता है
आदमी इसलिए अन्दर से खोखला हो जाता है
दिन भर ईंट, पत्थर और
सीमेंट का मसाला तस्सल सिर
पर रखकर ढोती वह औरत
रात्रि में प्लास्टिक की छत से ढंकी
झौंपडी के बाहर आंगन में
बबूल की लकड़ी से
अग्नि जलाकर
उस पर रोटी सेंकती वह औरत
सुबह चाय बनाते हुए
अपने बच्चे को
गोद में बैठाकर
उसे बडे स्नेह से
मुस्कान बिखेरती
और दूध पिलाती वह औरत
अपने अनवरत संघर्ष से
इस सृष्टी में जीवन को ही
सहजता से जीवनदान देती
चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती
अपनी शक्ति और सामर्थ्य का
प्रतीक है वह औरत