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वह चला क्रिकेट मैच देखने


अपने गंजू को भी पता नहीं क्या धुन सवार हुई कहने लगा-”क्रिकेट मैच देखने स्टेडियम जाऊंगा। आप चलेंगे”
हमने कहा-”अखबार पढ़ते हो?”
वह बोला-”नहीं! इस बेकार के काम में मैं नहीं पड़ता, और जो पड़ते हैं उन पर रहम खाता हूँ। क्या सुबह-सुबह बुरी खबरें पढ़ना?”
हमने पूछा-”टीवी पर न्यूज चैनल देखते हो।”
गंजू बोला-”नहीं। उस पर इतने सारे मनोरंजक चैनल आते हैं, मुझ जैसा व्यक्ति क्यों समाचार देखने में वक्त गंवायेगा।”
हमने कहा-”हमारा दुर्भाग्य है की हम यह बेकार के काम करते हैं और उसमें मैचों को देखने वालों की जो हालत सुनते हैं उसके मद्देनजर स्टेडियम पर जाकर मैच देखने का साहस नहीं कर सकते।”
गंजू बोला-”ठीक है और कोई साथ ढूंढता हूँ। वह तो मेरा एक दोस्त बाहर चला गया इसलिए कोई साथ पाने के लिए आपके सामने प्रस्ताव रखा।”
हमने कहा-”इसके लिए शुक्रिया! तुम्हारा वह दोस्त भाग्यशाली है जो बच गया।”गंजू बोला-”आप नहीं चल रहे तो कोई और साथी ढूंढ लूंगा।”
हमने कहा-”हमारी तरफ से शुभकामनाएं स्वीकार कर लो। क्योंकि आजकल स्टेडियम के अन्दर जाकर क्रिकेट मैच देखना कोई सरल काम नहीं है।”
वह चला गया। हम भी भूल गए। मैच के अगले दिन हम सुबह देखा एक लड़का हाथ और सिर में पट्टी बांधे चला आ रहा है। वह हमारे सामने आकर खडा हो गया और नमस्कार की। पहले तो हमने उसे पहचाना नहीं फिर जब गौर से देखा तो एकदम मुहँ से चीत्कार निकल गई-”अरे गंजू तुम। यह क्या हाल बना रखा है। कहीं किसी ने पीट तो नहीं दिया।”
वह रुआंसे स्वर में बोला-”अपने यह नहीं बताया था कि इस तरह इतना बवाल भी मच सकता है। लोगों की इतनी भीड़ थी कि अन्दर जाने का मौका ही नहीं मिल पाया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया।” ”क्या तुम्हें भी मारा-“
हमने पूछा वह बोला-” नहीं, भागमभाग में गिर गया। इससे तो अच्छा तो घर पर मैच देखता। वहाँ तो सारा समय अन्दर घुसने की सोचता निकल गया।”
”तुमने अखबार या टीवी देखा, हो सकता है उसमें तुम्हारे गिर कर घायल होने का फोटो छपा हो।”
हमने पूछा वह एक दम खुश हो गया और बोला-”ऐसा हो सकता है। मैं अभी जाकर देखता हूँ। मैं मैदान में कोई मैच-वैच थोडे ही देखना चाहता था, बल्कि यह सोचकर जाना चाहता था कि कहीं दर्शकों में मेरा फोटो आ गया तो अपनी गर्ल फ्रेंड पर रुत्वा जमाऊंगा। इसलिए इतनी मेहनत की। अब अगर आप कह रहे हैं तो देखता हूँ अखबार या टीवी में अगर मेरी फोटो आयी होगी तो मजा आयेगा।”
वह चला गया और हम हैरानी से सोचते रहे कि वह क्रिकेट के बारे में जानता भी है कि नहीं क्योंकि इससे पहले कभी उसने क्रिकेट पर चर्चा नहीं की।”

उधार की बैसाखियाँ


आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता है वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा

इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा

ब्लोगर ने ऐसे मनाई दीपावली


ब्लोगर के रूप में उसकी यह पहली दीपावली थी और उसके दिमाग में ब्लोगरी स्टाइल में मनाने का विचार था। पत्नी बहुत देर से बाजार से पूजा सामग्री और मिठाई लाने की कह रही थी और वह कंप्यूटर के पास रखी कुर्सी पर बैठा टीवी पर समाचार देख रहा था-कंप्यूटर खुला हुआ था पर उसका ध्यान टीवी की तरह ही था। आखिर जब उसे टीवी पर भी लिखने का आइडिया नहीं मिला तो वह घर से निकलने लगा तो पत्नी ने कहा-”पूजा सामग्री और मिठाई लेना जा रहे हो न? जल्दी ले आओ। देखो कालोनी में सबने पूजा कर ली है और सब पटाखे जला रहे हैं। हमने ही देर कर दी है।”
ब्लोगर ने कहा-हाँ, जल्दी आऊँगा पर पहले कालोनी में सबको दीपावली की कमेन्ट दे आऊँ।”
वह चला गया और पीछे से कहती रह गई-”किसी को दीपावली की कमेन्ट नहीं बधाई देना।”
उसने सुना ही नहीं और चल पडा लोगों को दीपावली की कमेन्ट देने. उसने देखा बच्चे पटाखे जला रहे हैं तो लग गया अपनी कमेन्ट लगाने. बच्चे एक पटाखा जलाते तो वह तालियाँ बजाता और फिर उनसे कहता कि-”लाओ यार एक पटाखा मुझे दे दो तो मैं जलाकर तुम्हें दीपावली की कमेन्ट दे दूं।”
बच्चे पटाखा देते और कहते-” अंकल, एक ही देंगे, हमारे पास अधिक नहीं है।”
ब्लोगर कहता’-अरे कमेन्ट तो एक ही दूंगा, मुझे और लोगों के पास भी जाना है। मुझे और जगह भी तो दीपावली की कमेन्ट देनी है।
बच्चे अवाक होकर सोचते कि यह कमेन्ट क्या बला है? कुछ बच्चों ने इसलिए नहीं पूछा कि उनके समझ में नहीं आया तो कुछ अपना अज्ञान न प्रकट हो इसलिए नहीं पूछा। जिन बडे बच्चों को मालुम था तो वह उनके सम्मान करने की वजह से यह समझे कि मजाक कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह थी कि ब्लोगर इतने वर्षों से कालोनी में रह रहा था पर उसका यह मिलनसार रूप पहली बार सामने आया था। एक बच्चे के पास पटाखे काम थे उसने कहा-”अंकल, अपने ताली बजाकर कमेन्ट दे तो दी, अब पटाखा चलाने से क्या फायदा?”
ब्लोगर ने कहा-”अरे, उसका मतलब तो यह है कि कमेंट का कालम खोला। इतने बच्चे जला रहे हैं पर ताली तो मैंने तुम्हारे लिए ही बजाई थी।”
ऐसे ही वह चलता रहा और किसी जानपहचान वाले के घर के बाहर खडा होकर देखता लोग बुलाते–आईये, भाईसाहब। मुहँ मीठा कर जाइये।”
ब्लोगर अन्दर घुस जाता और दीपावली की कमेन्ट देता और मिठाई खाकर चला आता। उधर दूर से उनकी श्रीमती सब देख रहीं थीं और जब देखा कि वह सब चीजें आनी ही नहीं है तो वह खुद ही कालोनी की दुकानों से सब सामान खरीद लाई। उधर ब्लोगर अपना कमेन्ट कार्यक्रम समाप्त कर घर लौटा तो पत्नी की आंखों में गुस्सा देखकर डर गया और उल्टे पाँव घर से बाहर जाने को उद्यत होते हुए बोला-”अरे! मैं अपना सामान लाना तो भूल गया। अभी लाता हूँ।”
“क्या जरूरत है?”पत्नी ने कहा-”सबके घर तुम कमेन्ट दे आये अब अपने घर कौन आयेगा?’
”कोई आया तो?” ब्लोगर ने कहा।
पत्नी ने व्यंग्यात्मक रूप से कहा-”कह देना। मैंने दीपावली पर कोई पोस्ट बनायी नहीं तो कमेन्ट कहाँ से दोगे? कहाँ से मुहँ मीठा कराऊँ।तुम सबको कमेंट दे कर पटाखे जलाते और मिठाई खाते रहे, यह सोचा कि कोई तुम्हारे घर दीपावली की कमेन्ट देने भी आ सकता है। क्या जरूरत है सोचने की। ”
ब्लोगर सोच में पड़ गया और बोला-”नहीं, इससे तो अपना नाम फ्लॉप हो जायेगा।”
पत्नी ने दोनों हाथ नचाते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-”तो अभी कौनसा हिट चल रहा है?”
ब्लोगर फिर सोच में पड़ गया। फिर बोला-”नहीं, पर हमें अपनी पोस्ट तो तैयार रखनी चाहिए हो सकता है की कोई कमेन्ट देने आ आजाये। मैं जा रहा हूँ।” पत्नी ने कहा-”मत जाओ। जब तुम लोगों को केम्न्त देने में लगे थे तब मैं ले आई, आओ पहले पूजा करते हैं। फिर पोस्ट और कमेन्ट के मामले पर भी चर्चा करते हैं।
दोनों ने शांति से पूजा की। पूजा करने के बाद पत्नी फिर व्यंग्यात्मक लहजे में बोली-”अब लोगों को यह मिठाई अपनी पोस्ट मत बताना। मैं खुद ले आयी हूँ और कोई कमेन्ट देने आये मैं ही संभाल लूंगी तुम अपने कंप्यूटर रूम में ही रहना, बैठक में मत आना।”
ब्लोगर चुप हो गया और मन में यह सोचने लगा-”पोस्ट किसकी भी हो ब्लोग तो मेरा ही है। किसको पता चलेगा कि पोस्ट किसकी है। सब कमेन्ट तो मेरे नाम पर ही जायेंगे। अरे, अपने ब्लोग पर मैं कितने बडे लोगों के नाम की पोस्ट रखता हूँ पर कमेन्ट तो मुझे ही मिलते हैं। ” उसने कंधे उचकाए और लिखने बैठ गया।
नोट-यह काल्पनिक हास्य रचना है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी इससे मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा।

पर्व का एक दिन बीत गया


एक दीपावली का पर्व और बीत गया। लोगों ने इस पर अपने सामर्थ्यानुसार आनंद उठाया। कई लोगों के पास इसको मनाने के लिए या तो समय नहीं रहा होगा या पैसा-पर दोनों ने इसके आने की खुशी का अहसास किया होगा क्योंकि कहीं न कहीं एक मन होता है जो भूखे, प्यासे और कष्ट झेलकर भी आनंद उठाता है। हर आदमी में पांच तत्वों की देह में मन, बुद्धि और अंहकार की प्रकृतियां रहती हैं और उनके दासत्व का बोध सामान्य मनुष्य को नहीं होता है।
जब तक विज्ञान और समाचार माध्यम इतने प्रबल नहीं थे तब तक कुछ जानकारी नहीं हो पाती थी पर अब तो हर चीज पता लग जाती है। मिठाई के नाम विष भी हो सकता है क्योंकि नकली खोया बाजार में बिक रहा है, और पटाखे भयानक ढंग से पर्यावरण प्रदूषण फैलाते हैं, पर यह लगा नहीं कि लोगों का इस पर ध्यान है। इतना ही नहीं खुले में रखी मिठाई में कितने दोष हो सकते हैं यह सब जानते हैं पर न इस पर खरीदने वाला और न बेचने वाला सोचने के लिए तैयार दिखा। कोई चीज थोडी देर के लिए बाहर रख दो उस पर कितनी मिटटी जमा हो जाती है इसका पता तब तक नहीं लगता जब तक वह प्रतिदिन उपयोग की न हो। रात को बाहर किये गए वाहन-जैसे कार, स्कूटर, और साईकिल सुबह कितने गंदे हो जाते है लोगों को पता है क्योंकि सुबह जाते समय वह उस पर कपडा मारकर उसे साफ करते हैं। वह यह नहीं सोचते कि इतनी देर खुले में रखे मिठाई कितनी गंदी हो गयी होगी।
खुशी मनाना है बस क्योंकि कहीं खुशी मिलती नहीं है। त्यौहार क्या सिर्फ खुशियाँ मनाने के लिए ही होते? क्या कुछ पल बैठकर चिंतन और मनन नहीं करना चाहिए। क्या पुरुषार्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित है? क्या त्यौहार पर अमीर केवल इसके लिए प्रसन्न हों कि उन पर लक्ष्मी की कृपा है और गरीब इसलिए केवल दुखी हो कि उसके पास पैसा नहीं है। समाज में सहकारिता की भावना समाप्त हो गई है और यह मान लिया है कि गरीबों का कल्याण केवल राज्य करेगा और समाज के शक्तिशाली वर्ग का कोई दायित्व नहीं है। पहले धनी लोग अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और आसपास के लोगों पर अपने दृष्टि बनाए रखते थे पर अब यहाँ पहले जैसा कुछ नहीं रहा। जाति,भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर बने समाज या समूह बाहर से मजबूत दिख रहे हैं पर अन्दर से खोखले हो चुके हैं।
कार्ल मार्क्स ने कहा था इस दुनिया में दो वर्ग हैं पर अमीर और गरीब। सच कहा था पर भारत में आज के संदर्भ में ही सही था-क्योंकि उस समय एक वर्ग और था जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता था। इस वर्ग में बुद्धिजीवी और विद्वान भी शामिल थे-और उनका समाज में अमीर और गरीब दोनों वर्ग के लोग भरपूर सम्मान करते थे। जिन्होंने कार्ल मार्क्स की राह पकडी उनका उद्देश्य यही था कि किसी तरह मध्यम वर्ग का सफाया कर गरीब का भला किया जा सके और उन्होने अपने लिए एक बौद्धिक वर्ग बनाया जिसने उनका रास्ता बनाया। अब सब जगह केवल दो ही वर्ग रह गए हैं अमीर और गरीब। जिसके पास धन है सब उसकी मुहँ की तरफ देख रहे हैं। दुनिया धनिकों की मुट्ठी में है और विचारवान और बुद्धिमान होने के लिए धन का होना जरूरी हो गया।
परिणाम सामने हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्धिमान और विचारवान लोग नहीं है पर उनकी कोई सुनता नहीं है, टीवी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं में केवल धनिक लोगों की चर्चा और प्रचार है। उनमें हीरो-हीरों की चर्चा है। बस वही हैं सब कुछ। लोगों की सोचने की शक्ति को निष्क्रिय रखने के लिए मनोरंजन के नाम पर ऐसी विषय सामग्री प्रस्तुत की जा रही है कि वह उससे अलग कुछ सोच ही नही सकता। यह खरीदो और वह बेचो-ऐसे प्रचार के चक्र व्यूह में घिरा आदमी बौद्धिक लड़ाई में हारा हुआ लगता है।
फिर भी इस देश में कुछ ऐसा है कि झूठ अधिक समय तक नहीं चलता इस दिपावली के त्यौहार से यही सन्देश मिलता है कि लोग सच को पसंद करते है और यह उम्मीद करना चाहिऐ कि धीरे -धीरे लोग सच के निकट आयेंगे और झूठ को असली पटाखे की तरह जला देंगे -और तब नकली पटाखे जलाकर पर्यावरण प्रदूषण नहीं फैलाएंगे।

जिन्दगी के रास्ते


कुछ ख्वाब थे जो हकीकत नहीं बने
कुछ सपने थे जो सच नहीं बने
जिन्दगी के रास्ते हैं ऊबड़-खाबड़
आदमी अपने कदम चाहे जैसे बढाए
ऐसे रास्ते बिलकुल नहीं बने
ख्यालों में चाहे जैसा सजा ले
रास्ते पर आरामगाहें मिल जाएं
ऐसे यहाँ जहाँ नहीं बने
सच के रास्ते पर चलना है
यही पक्का इरादा है जिनका
वह कभी गिरते नहीं
अपनी मंजिलों की तरफ
सीना तानकर आगे बढ़तें हैं
यह रास्ते उनके लिए अपने बने

जब सोना लगे पीतल, पानी से अधिक शीतल


सुबह टीवी पर एक खबर दिखाई गयी की महंगाई की वजह से हीरे के व्यापार में भारी मंदी चल रही है और व्यापारी इस वजह से परेशान हैं। यह समाचार देखकर एक सज्जन ने दूसरे से पूछा की”- यार, एक बात समझ में नहीं आई की महंगाई की वजह से हीरों का व्यापार तो ठप्प है, सोने के भाव कैसे उच्चतम स्तर तक पहुंच गया है। इससे तो अच्छा है आदमी अपना पैसा हीरो इन्वेस्ट करे। आखिर उन्हें भी सोने की तरह बहुमूल्य माना जाता है।”

दूसरे ने जवाब दिया-”लगता है तुम अखबार नहीं पढ़ते हो वरना यह सवाल तुम कभी नहीं करते। बहुमूल्य वाली तो बात जाओ भूल। हीरों से नल की टोंटी नहीं बनती इसलिए लोग उसे नहीं खरीदते। और जिसे इनवेस्टमेंट कह रहे हो उसे तो केवल अपनी आय छिपाने और उससे भी और पैसा कमाने की विधा है। अब कुछ लोग अपनी आय छिपाने के लिए सोने की टोंटी लगाते हैं ताकि बाहर से आने वाले को पीतल के लगें। कुछ जगह छापे डालने वाले लोगों ने यह देखा है मैंने ऐसी खबरें टीवी पर देखीं और अखबारों में पढी हैं।”

ऐसी खबरें कुछ दिन पहले टीवी पर आयीं थीं और लोगों को हैरानी हुई थी। कहाँ तो पहले लोग पीतल का सामान इस तरह इस्तेमाल करते थे जैसे वह सोने के हों और अब सोने की नल टोंटियाँ इस तरह बनायी जा रहीं जैसे की वह पीतल की लगें और उनके अमीर होने का शक किसी को न हो। हीरे का व्यापार मंदा है पर सोने का नहीं है उससे तो यही लगता है कि सामान्य आदमी के पास इतना पैसा नहीं है और जिनके पास है वह उसे छिपाने के लिए प्रयासरत हैं और हीरा बहुत चमकदार होता है उसे कहीं भी रखें अपनी चमक नहीं खोयेगा और आदमी कि पोल खोल देगा। और सोने की टोंटियाँ बनाए या कुर्सी के हत्थे धीरे-धीरे सोना अपनी चमक खोने लगता है इसलिए किसी को अधिक संदेह नहीं होता है। हाँ, जो लगवा रहे हैं उन्हें बड़ा आनंद मिलता होगा। अपने घर आया मेहमान जब नल से हाथ धोता होगा और कहता होगा-”क्या अच्छी टोंटी है। क्या सोने की है।”

मालिक जबाब देता होगा-”नहीं पीतल की हैं. मैंने ठेकेदार से कहा था कि नल की टोंटी ऐसी लाना कि सोने की तरह लगें. मैंने खुद खडे होकर मकान बनवाया इसलिए हर माल बढिया क्वालिटी का लगा है.”
मेहमान को टोंटी सोने जैसे लगी उसने पूछा। फिर उससे झूठ बोला और फिर अपनी आत्म प्रवंचना की वह अलग। इस तरह तीन प्रकार से सुख मिला। सोने की टोंटी होना , झूठ बोलना और आत्मप्रवंचना तीनों बातों से आदमी को बहुत सुखद लगता है। सोने के आभूषण लोग इसलिए पहनते हैं अन्य व्यक्ति उसे देखकर और आकर्षित हों-और जब सोना दिख ही रहा है और वह धन छिपाने में मदद भी कर रहा है तो सुख तो दूना हो ही जाता है।

जिन लोगों ने सोने की टोंटियाँ बनवाईं होंगीं उन्हें नल खोलकर पानी पीने से अधिक शीतलता तो इस अनुभूति से होगी कि सोने की टोंटी से निकला पानी पी रहे हैं। यह अलग बात है कि दूसरे को वह डर के मारे पीतल की बताते होंगे-और झूठ बोलने का आनंद भी उठाते होंगे। समय की बलिहारी है कभी लोग सोने की जगह पीतल का उपयोग करते थे और अब यहाँ कुछ लोग पीतल की जगह सोने को लगवा रहे हैं और सच बताने का साहस नहीं करते। वैसे आजकल हमारे जैसे अज्ञानी लोगों की संख्या अधिक है जिन्हें सोने और पीतल का अंतर एक अनजाने में पता नहीं चलता और अगर कहीं पीतल की जगह सोने की लगी हो तो उस पर ध्यान नहीं देंगे। अब जब कुछ ऐसे समाचार देखे और सुने हैं तो कहना ही पड़ता है कि माया का खेल निराला है वह आदमी के सिर पर चढ़ती है तो उसे मायावी बना देती है और सोने को पीतल जैसा और पानी से अधिक शीतल बना देती है।

पहले वह सुधरे


पहले कौन सुधरे? यहाँ हर कोई एक दूसरे से सुधर जाने की उम्मीद करता है पर कोई स्वयं सुधरना नहीं चाहता। सामने वाला सुधर जाये तो हम भी सुधर जाएं यही शर्त हर कोई लगाता है। बरसों से अनेक प्रकार से विश्व में सुधार वादी आन्दोलन चलते रहे हैं पर कोई सुधार कहीं परिलक्षित नहीं हो रहा है। लोगों को सुधारने के लिए अनेक पुस्तकें लिखीं गयीं हैं और वह इतनी बृहद रचनाएं हैं कि उन्हें कोई पढ़ना ही नहीं चाहता और इसलिए जो इनको पढ़ते हैं वह विद्वान् बन जाते हैं लोगों का मार्गदर्शन करते हुए वाह-वाही लूटते हैं। अपने हिसाब से उसकी व्याख्या कर लोगों को बताते हैं और लोग उनकी बात सुनकर खुश हो जाते हैं और मान लेते हैं कि उसमें यही लिखा होगा। ऐसी हालत में लोगों का सुधारने और मार्ग दर्शन का ठेका लेने वालों की हमेशा चांदी रही है। दिन-ब-दिन लोगों में नैतिक,वैचारिक और सामाजिक आचरण में गिरावट आयी है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि बिगाड़ अधिक आ रहा है।
ग्राहक कहता है कि व्यापारी सुधर जाये और अच्छी चीज दे और दाम भी सही बताये। व्यापारी कहता है कि ग्राहक सुधर जाये। जनता कहती है कि हमारे नेता सुधर जाये, और नेता कहते हैं कि लोग अपने आप में सुधार लायें क्योंकि वही तो सबको चुनती है और सही चुनाव करे तो हमें भी ऐसे लोग मिलेंगे तो हम सही काम करेंगे। गुरु कहे चेला सुधरे तो सही शिक्षा दें सकें और चेले कहते हैं कि गुरु अगर सही शिक्षा दे तो हम भटके ही क्यों?
पाकिस्तान की जनता कहे मुशर्रफ जाएं तो शांति हो और मुशर्रफ कहते हैं कि शांति हो मुझे जिन्दगी की गारंटी हो जाये तो में चला जाऊंगा। इराक़ में लोग कहें अमेरिका की सेना हमारे यहाँ से चली जाये तो हम खामोश हो जायेंगे और अमेरिका कहता हैकि पहले लोग खामोश हो जाएं तो हम अपनी सेना वहां से हटा लें। मतलब सुधार का कहीं से छोर पकड़ सकते हो पर उसे अपने हाथ में अधिक देर नहीं रख सकते। महात्मा गांधी ने कहा अहिंसक आन्दोलन के जरिये सब किले फतह कर सकते हैं पर जिनके हाथ में बंदूकें हैं वह कहते हैं है कि पहले किला फतह कर लें तो अहिंसक हो जायेंगे। अब भला किस्में साहस है कि उन्हें समझाए कि यही तो वक्त है गांधी जी के मार्ग का अनुसरण करने का। ऐसा इसलिए सब जगह हो रहा है कि लोग अपने धर्म ग्रंथों को नहीं पढ़ते और उनके पढे हुए तथाकथित विद्वानों की बात को सच मानते हैं। लोग कहते हैं कि टाइम नहीं है। वैसे टीवी देखने, अखबार पढ़ने और परनिंदा करने में लोग कितना समय नष्ट करते हैं पर धर्म ग्रंथों की बात करो तो कहेंगे उसमे क्या है पढ़ने को? वह तो बुढापे में पढेंगे। वह स्वयं नहीं पढ़ते तो बच्चों की रूचि भी नहीं होती। नतीजा सामने है। लोग बातें तो संस्कारों कें करते हैं पर वह कहाँ से आयें यह कोई नहीं बताता।
कोई कहता है कि ‘संस्कारवान बहू चाहिए’ तो कोई कहता है कि हमें ‘संस्कारवान दामाद चाहिए’। पहली तो यह बात कि संस्कार का क्या मतलब है? यह कोई स्पष्ट नहीं करता। दूसरे उनसे पूछों कि क्या तुमने अपने घर परिवार में संस्कार स्थापित करने का क्या प्रयास किया है?
लोग अपनी सफाई में कुछ कहते रहें पर यह वास्तविकता यह है कि लोग अपने घर में इंजीनियर, डाक्टर, और अफसर बनाने के कारखाने तो लगाना चाहते हैं पर कोई ‘संस्कारवान’ बनाने का प्रयास नहीं करते। सब एक दूसरे से यह आशा करते हैं कि वह सुधर जाये। ससुराल वाले कहें बहू और दामाद सुधर जाएं और वह कहें ससुराल वाले सुधर जाएं। पति कहे पत्नी सुधर कर सब सहती जाये और पत्नी कहे पति अपने आप में सुधार लाये और मूहं बंद और कान खोलकर हमारी पूरी बात सुनता जाये।
सुधार का कोई सिरा पकडो तो लोग शिकायतों का पुलिंदा थमा देते है, जिन्हें देखकर दिमाग चकरा जाये और सच्चे सुधारक तो अपने कान पकड़ लेते हैं शायद इसलिए सुधार लाना अब एक पेशा हो गया है। समाज में सुधार लाने के लिए तमाम लोग अपनी दूकान खोले बैठे हैं। नतीजा यह है कि कहीं भी बातें खूब होती हैं पर सुधार कहीं दिखाई नहीं देता।

रास्ता


अपने घर से बाजार
बाजार से अपने घर
रास्ता चलता हूँ दिन भर
कभी सोचता हूँ इधर जाऊं
कभी सोचता हूँ उधर जाऊं
सोच नहीं पाटा जाऊं किधर
रास्ते पर जाते हुए चौपाये
और आकाश में उड़ते पंछी
कितनी बिफिक्री से तय करते हैं
अपनी-अपनी मंजिल
मैं अपनी फिक्र छिपाऊँ तो कहाँ और किधर
रास्ते में पढ़ने वाले मंदिर में
जब जाकर सर्वशक्तिमान की
मूर्ति पर शीश नवाता हूँ
तब कुछ देर चैन पाता हूँ
लगता है कोई साथ है मेरे
क्यों जाऊं किधर

तिजोरी भरी दिल है खाली-व्यंग्य कविता


बंद तिजोरियों को सोने और रुपयों की
चमक तो मिलती जा रही है
पर धरती की हरियाली
मिटती जा रही है
अंधेरी तिजोरी को चमकाते हुए
इंसान को अंधा बना दिया है
प्यार को व्यापार
और यारी को बेगार बना दिया है
हर रिश्ते की कीमत
पैसे में आंकी जा रही है
अंधे होकर पकडा है पत्थर
उसे हाथी बता रहे हैं
गरीब को बदनसीब और
और छोटे को अजीब बता रहे हैं
दौलत से ऐसी दोस्ती कर ली है की
इस बात की परवाह नहीं कि
इंसान के बीच दुश्मनी बढ़ती जा रही है

शिखर के चरम पर


मन ने कहा उस शिखर पर
चढ़ जाओ
जहाँ से तुम सबको दिख सको
लोग की जुबान और तुम्हारा नाम चढ़ जाये
चल पडा वह उस ऊंचाई पर
जो किसी-किसी को मिल पाती है
जो उसे पा जाये
दुनिया उसी के गुण गाती है
जो देखे तो देखता रह जाये
मन को फिर भी चैन नही आया
शिखर के चरम पर
उसने अपने को अकेला पाया
अब मन ने कहा
‘उस भीड़ में चलो
यहाँ अकेलेपन का
डर और चिंता के बादल छाये’

वह घबडा गया
बुद्धि ने छोड़ दिया साथ
उसने सोचा
‘जब तक इस शिखर पर हूँ
लोग कर रहे हैं जय-जयकार
उतरते ही मच जायेगा हाहाकार
जो जगह छोड़ दी अब वहाँ क्यों जाये’
अब अंहकार भी अडा है सामने
शिखर के चरम पर खडा है वह
अपने ही मन से लड़ता जाये

भीड़ में अकेलापन


घर में उसे अकेलापन डराने लगा
और वह भीड़ में पहुंचा
उससे बचने के लिए
वहाँ भी उसने सबको अकेले
अपने लिए ही सोचते देखा
भीड़ में सब बोल रहे थे
पर कोई खडा नहीं था सुनने के लिए
उसने सोचा वही
जब सब अपना दर्द सूना रहे हैं तो
स्वयं हीसबकी सुन लेता है
शायद बाद में कोई तैयार हो जाये
उसकी बात सुनने के लिए
सबकी बात सुनते वह हैरान हो गया
भूल गया कि उसका दर्द क्या था
जिसको लेकर वह इतना परेशान हो गया
वह चल पडा फिर अपने घर
दूसरों के दर्द की तस्वीर लिए
अब वह अकेला नहीं था
दूसरों की आपबीती भी उसके साथ थी
उसे अकेलेपन में समझाने के लिए

खुद से बेवफाई


जब भी मिले राह पर चलते हुए
कभी हमने उनके घर का पता पूछा नहीं
कई बार मुलाकात अकस्मात ही हुई
उनका हिसाब हमने रखा नहीं
जब भी मिले बहुत गर्मजोशी दिखाई
हर मौके पर काम आने की कसम खाई
रिश्ते का नाम दिया कभी मोहब्बत और
तो कभी कहा दोस्ती
हमने कभी नहीं मांगी सफाई
मिलना फिर बंद हो गया
समय-दर समय गुजरता रहा
हम राह तकते रहे
चेहरा उनका कभी नजर नहीं आया
हमने समझा हो गई जुदाई
कई बरस बाद फिर मिले उसी राह पर
चेहरा बुझा हुआ और
उम्र से अधिक लग रही थी काया
हमने जब वजह पूछी तो कहा
‘किसी के कहने पर बदला था रास्ता
चले उसी के कहने पर
ठोकरे थी नसीब में वही पायी
अपना नाम तक भूल गए
अपनी पहचान तक गंवाई
अपनी देह और दिल से उठाते रहे
अपने ही सपनों का बोझ
जो कभी नही बने सच्चाई
वह एक चमकीला पत्थर था जिसके पीछे
हमने अपनी उम्र गंवाई
वह क्या देता
हमने की खुद से बेवफाई

खालीपन


अब रिश्तों में लगता है
अजीब सा फीकापन
बडे बोझिल होते जाते हैं
उम्र के बढ़ते -बढते
जिनके साथ बीता था बचपन
जब लोग लगाते हैं
रीति-रिवाज निभाने की शर्तें
हो जाती हैं अनबन
इसलिये अपनों से ज्यादा
गैरों में ढूँढ रहा है आदमी अपनापन
वहाँ भी जब होती है
निभाने के लिए शर्तें
मुश्किल हो जाता है आगे बढना
तब आदमी सब से अलग
अकेले में ही बैठकर भरता है
कभी अच्छी तो कभी बुरी आदतों से
अपना खालीपन

मतलब के रिश्ते


जब काम था वह रोज
हमारे गरीबखाने पर आये
अब उन्हें हमें याद करने की
फुरसत भी नहीं मिलती
गुजरे पलों की उन्हें कौन याद दिलाये
हम डरते हैं कि
कहीं याद दिलाने पर
उन्हें अपने कमजोर पल न सताने लगें
वह यह सोचकर मिलने से
बहुत घबडाते हैं कि
हम उन्हें अपनी पुरानी असलियत का
कहीं आइना न दिखाने लगें
दूरियां है कि बढती जाएँ
टूटे-बिखरे रिश्तों को फिर जोड़ना
इतना आसान नहीं जितना लगता है
बात पहले यहीं अटकती हैं कि
आगे पहले कब और क्यों आये
अच्छा है मतलब से बने
रिश्तों को भूल ही जाएँ
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दिल के पास


दिल के पास हैं जो
उनकी शरीर से दूरी
का अहसास इतना नहीं सताता
जितना दिल के दूर
रहने वाले का पास होने पर डराता
राह पर चलते हुए कई हमसफर मिलते
पर सभी मन के मीत नही बनते
हर कोई अपनी मंजिल आते ही
अपना साथ छोड जाता
जो हमारे दिल को दे सुकून
उसे हम याद रखते
जिसे हम दे तसल्ली
वही हमें अपनी यादों का हिस्सा बनाता