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योग साधना को दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा बनायें-हिन्दी चिंत्तन लेख


            एक योग और सामान्य मनुष्य में क्या अंतर होता है? अनेक लोगों के दिमाग में यह सवाल आता है। इसका कारण यह है कि योगी भी आम मनुष्य की तरह दो आंख, दो कान, दो नासिका, दो हाथ तथा दो पांव भी एक योगी तरह ही  दिखते है कोई नया अंग उसमें नहीं जुड़ता।  वह अपने अंगों का उपयोग भी सामान्य लोगों की तरह करता है।  ऐसे में दोनों अंतर कैसे दिखे? सच यह है कि  योगी और सामान्य मनुष्य में अंतर कार्यशौली, भावों की अभिव्यक्ति के तरीके तथा व्यवहार में दृढ़ता से प्रकट होता है।

            जहां सामान्य मनुष्य बाह्य दबाव में काम करता है वहीं योगी स्वतः संचालित होता है।  कोई आकर्षण या रोमांचित दृश्य सामने उपस्थित होने पर सामान्य मनुष्य की आंखें फटी रह जाती हैं।  किसी मधुर या कटु स्वर से संपर्क होने पर कान विशेष रूप से सक्रिय हो जाते हैं। कहीं सुगंध होने पर नासिका उसे अधिक से अधिक ग्रहण करने के लिये प्रेरित होती है।  बढ़िया खाना मिलने पर जीभ आवश्यकता से अधिक उदरस्थ करने के लिये तत्पर होती है।  इसके विपरीत एक योग साधक या सिद्ध की इंद्रियां आंतरिक नियंत्रण में काम करती हैं।  वह बाहरी दबाव में कभी उत्तजित होकर सक्रिय नहीं होता। जहां सामान्य मनुष्य खुशी पर उत्तेजना और निराशा में अवसाद के वश में होता है वहीं योग साधक दोनों से निवारण का उपाय ध्यान आदि के माध्यम से करता है।

            अनेक योग साधक यह शिकायत करते हैं कि उनकी साधना में बाहरी दबाव से बाधा आती है। जब वह कहीं किसी सामाजिक समारोह में जाते हैं तब सामान्य मनुष्यों के बीच असहजता के वातावरण में उन्हें भी स्वयं को जोड़ना पड़ता है।  ऐसे लोगों को यह समझना चाहिये कि यह स्वाभाविक रूप से होगा। वैसे योग साधकों को श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान और विज्ञान के साथ ही गुण विभाग का अध्ययन नियमित रूप से करना चाहिये। इससे उन्हें इस विश्व के मूल तत्वों को समझने का अवसर मिलेगा। तब  त्रिगुणमयी माया के बंधन में बंधे सामान्य मनुष्य समुदाय के व्यवहार से क्षुब्ध नहीं होंगे।  नियमित अभ्यास से योग साधक धीमे धीमे त्रिगुणमयी माया के प्रभाव से परे होते जाते हैं और उन्हें सामाजिक तथा पारिवारिक परंपराओं का खोखलापन नज़र आने लगता है।  प्रारंभ में यह स्थिति  भयावह लगती है। हृदय कांपने लगता है पर कालांतर में यह अनुभव होता है कि वह इस जीवन में प्रतिदिन एक सपना देखते हैं। कई घटनायें सपने की तरह होती है। घटती हैं तब हम उनमें स्वयं सक्रिय होते हैं पर जब बीत जाती हैं तब उसकी यादें ही साथ रह जाती हैं।

            अपने लोगों से मिलने बिछड़ने की प्रक्रिया से हम अनेक बार गुजरते हैं।  मिलते हैं तो खुशी और बिछड़ते हैं तो दुःख होता है। योग साधक जब श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो वह इस संसार में प्रतिदिन दिखने वाले स्वपन का यथार्थ समझ सकते हैं। यह ज्ञान साधना जीवन को रोमांचित करती है।  यह रोमांच ही जीवन का वास्तविक आंनद है। इसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब देह, मन और विचार विकाररहित हों।  ऐसा होने पर मन एक शक्तिशाली व्यक्ति की तरह हमारे साथ होता है तब हम जीवन में एक दृढ़ व्यक्तित्व की छवि के साथ चलते हैं।  यह छवि त्रिगुणमयी माया के बंधन में बंधे सामान्य मनुष्य से योग साधक से अलग करती है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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धनवान समाज से हिन्दी भाषा के विकास की अपेक्षा न करें-14 सितम्बर पर हिन्दी दिवस पर विशेष लेख


      14 सितम्बर हिन्दी दिवस के अवसर पर ऐसा पहली बार हुआ है जब हिन्दी टीवी चैनल इस पर उत्सव मनाकर अपने विज्ञापन प्रसारण का समय पार लगा रहे हैं।  एक टीवी चैनल ने तो अपना मंच फिल्मी अंदाज में तैयार कर हिन्दी भाषा के आधार पर व्यवसायिक करने वाले लोगों को आमंत्रित किया।  उसमें तमाम विद्वान अपने तर्क दे रहे थे।  एक विद्वान ने स्वीकार किया कि हिन्दी भाषा का आधार किसान और मजदूर हैं।  हम जैसे मौलिक लेखक मानते हैं कि हिन्दी सामान्य जनमानस की चहेती भाषा है और विशिष्ट लोगों के राष्ट्रभाषा या मातृभाषा बचाने के प्रयास दिखावटी हैं।  इस चर्चा में बाज़ार या व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रचलित हिन्दी पर चर्चा हुई।  कुछ विद्वानों का मानना था कि बाज़ार हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ रहा है तो अन्य की राय थी ऐसा कुछ नहीं है और हिन्दी भाषियों को उदार होना चाहिये।

      हिन्दी दिवस पर इस तरह की चर्चायें होती रहती हैं पर पहली बार ऐसी चर्चा टीवी चैनल पर हुई।  इसमें समाचार पत्र पत्रिकाओं में शीर्षकों तथा विषय सामग्रंी के साथ  में अंग्रेजी शब्दों के उपयोग पर भी विचार हुआ।  इस तरह की प्रवृत्ति ठीक है या नहीं यह एक अलग विषय है पर इसका पाठकों पर जो प्रभाव हो रहा है उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अक्सर लोग यह शिकायत करते हैं कि अंग्रेजी अखबार हिन्दी से अधिक महंगे हैं।  अगर हम इसके पीछे के कारण जाने तो समझ में आयेगा कि चूंकि लोग अखबारों को अंग्रेजी भाषा ज्ञान बनाये रखने के लिये पढ़ते हैं इसलिये उनकी प्रसार संख्या मांग से कम होती है।  मांग आपूर्ति के नियमानुसार  वह  महंगे दाम पर भी बिक जाते हैं। जबकि हिन्दी प्रकाशनों की संख्या अधिक है तो पाठक संभवत उस मात्रा में उपलब्ध नहीं है। एक समय हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकायें लोकप्रिय थीं पर इसका कारण उनकी विषय सामग्री कम उसके अध्ययन से  हिन्दी भाषा को आत्मसात करने की प्रवृत्ति लोगों में अधिक थी।  लोग साहित्यक किताबों की बजाय समाचार पत्र पत्रिकाओं पर हिन्दी ज्ञान के लिये निर्भर रहना पंसद करे थे। अब अगर कोई व्यक्ति हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं के अध्ययन से हिन्दी भाषा आत्मसात करने की बात सोच भी नहीं सकता।  हिन्दी समाचार पत्र यह मानकर चल रहे हैं कि युवा वर्ग हिन्दी नहीं जानता इसलिये अपने विशिष्ट पृष्ठों में अंग्रेजी शब्दों का अनावश्यक  उपयोग करते हैं। हमें पता नहीं कि इसका उन्हें लाभ है या नहीं पर हम जैसे पाठक ऐसी सामग्री को पढ़ने में भारी असहजता अनुभव करते हैं।  हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं ने अपने पाठकों का मानस समझा नहीं जो कि अध्यात्म प्रवृत्ति का है। यही कारण है कि देश भर के प्रतिष्ठित धार्मिक संस्थाओं की पत्र पत्रिकायें आजकल लोगों के घरों में अधिक मिलती है और हिन्दी के व्यवसायिक प्रकाशनों को ग्राहक उसी तरह ढूंढने पर रहे हैं जैसे कि कपड़े वाला ढूंढता है। एक समय सामाजिक, राजनीतिक, महिला, बाल तथा मनोरंजन के विषयों वाली पत्रिकायें अक्सर लोगों के घर में मिल जाती थीं पर आजकल यह नहीं होता। कह सकते हैं कि इसके लिये आधुनिक संचार माध्यमों जिम्मेदार हैं पर सवाल उठता है कि आखिर अध्यात्मिक पत्र पत्रिकाओं पर यह नियम लागू क्यों नहीं होता? हिन्दी व्यवसायिक प्रकाशनों के प्रबंधकों को इसके लिये आत्म मंथन करना चाहिये कि इतना बड़ा जनसमूह होते हुए भी उनके प्रकाशनों से लोग क्यों मुंह मोड़ रहे हैं। कहीं यह भाषा के लिये आयी उनकी प्रतिबद्धता की कमी तो नहीं है?

      इतना ही नहीं यह प्रकाशन समूह देश में रचना के पठन पाठन तथा सृजन की नयी प्रवृत्तियों के संवाहक भी नहीं बन पाये और दूसरी भाषाओं के रचनाकारों तथा रचनाओं को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत कर यह श्रेय तो लेते रहे हैं कि वह हिन्दी पाठक के लिये बेहतर विषय सामग्री प्रस्तुत की हैं पर आजादी के बाद एक भी लेखक का नाम इनके पास नहीं है जिसे उन्होंने अपने सहारे प्रतिष्ठा दिलाई हो।  क्या हिन्दी में बेहतर कहानियां नहीं लिखी जातीं या प्रभावी कविताओं की कमी है? यह सोच हिन्दी प्रकाशन समूहों के प्रबंधकों और संपादकों का हो सकता है पर यही उनके उस कम आत्मविश्वास का भी प्रमाण है जिसके कारण भारतीय जनमानस में हिन्दी प्रकाशनों की प्रतिष्ठा कम हुई है।

      आखिरी बात यह कि बाज़ार पर आक्षेप करना ठीक नहीं है। भाषा का संबंध भाव से और भाव का संबंध भूमि से होता है। भारत में हिन्दी ही सर्वोत्म भाषा है जो सहज चिंत्तन में सहायक होने के साथ ही उसके संवाद और उसके प्रेक्षण के लिये एक उचित माध्यम है। माने या माने पर इस सत्य से अलग जाकर हिन्दी के विकास पर बहस करना केवल औपचारिकत मात्र रह जाती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान यूं दिखायें-14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष हिन्दी व्यंग्य रचना


हमारी मातृभाषा हिन्दी है

आओ हम सब मिलकर

समूह में गायें।

वाणी से भले ही

निकलते हैं हिंग्लिश के शब्द

पर हमारे हृदय की साम्राज्ञी

हिन्दी भाषा है

सारे संसार को समझायें।

कहें दीपक बापू अंग्रेजी कालीन पर

भले चलते हैं हमारे कदम

उसके नीचे धूल की तरह

हिन्दी पड़ी हुई अभी

हमने उसे झाड़कर

बाहर नहीं फैंका

आओ यह बात स्वयं को

समझाकर आनंद मनायें।

———————-

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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