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राम और रावण के बीच युद्ध अवश्यंभावी था-आज दशहरा पर हिन्दी लेख (ram aur rawan ke beech yuddha avashyambhavi tha-hindi lekh on today dashahara)


         आज पूरे देश में दशहरे का त्यौहार मनाया जा रहा है। जिस दिन भगवान श्रीराम जी ने रावण का वध किया उसी दिन को ‘दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। पर्व मनाना और उससे निकले संदेश को समझना अलग अलग विषय हैं। ऐसे अवसर पर अपने इष्ट का स्मरण कर उनके चरित्र का स्मरण करने से पर्व मनाने में मजा आता है। देखा यह गया है की धार्मिक चित्तक समाज के सदस्यों को समाज समय पर एकत्रित होकर आध्यात्मिक चित्तन के लिए पर्वों जैसे अवसरों का निर्माण करते हैं बाज़ार उसे उत्सव जैसा बनाकर उपभोग की वस्तुएं बेचने का मार्ग बना लेता है, इस कारण ही चित्तन की बजाय उल्लास मनाने की प्रवृति पैदा होती है।
क्या राम और रावण के बीच केवल सीता की मुक्ति के लिये हुआ था? इस प्रश्न का उत्तर एक प्रतिप्रश्न है कि क्या अगर रावण सीता का अपहरण नहीं करता तो उनके बीच युद्ध नहीं होता?
         अगर तत्कालीन स्थितियों का अध्ययन करें तो यह युद्ध अवश्यंभावी था और रावण ने सीता का अपहरण इसी कारण किया कि भगवान श्रीराम अगर सामान्य मनुष्य हैं तो पहले तो सीता जी को ढूंढ ही न पायेंगे और उनके विरह में अपने प्राण त्याग देंगे। यदि पता लग भी गया और उनको वापस लाने के युद्ध करने लंका तक आये तो उन्हें मार दिया जायेगा। अगर भगवान हैं तो भी उनकी आजमायश हो जायेगी।
         जब भगवान राम लंका तक पहुंच गये तब रावण को आभास हो गया था कि भगवान श्री राम असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर तब वह उनसे समझौता करने की स्थिति में वह नहीं रहा था क्योंकि श्री हनुमान जी ने लंका दहन के समय उसके पुत्र अक्षयकुमार का वध कर दिया था। यह पीड़ा उसे शेष जीवन सहजता ने नहीं बिताने देती। ऐसे में युद्ध तो अवश्यंभावी था।
       अगर रावण श्रीसीता का अपहरण नहीं भी करता तो भी अपनी बनवास अवधि बिताने के लियें दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे श्रीराम जी से उसका युद्ध होना ही था। आखिर यह युद्ध क्यों होना था? इसे जरा आज के संदर्भ में देखें तो पता चलेगा कि अब फिर वैसे ही हालत निमित हो गये हैं हालांकि अब कोई न रावण जैसा ताकतवर दुष्ट है न ही भगवान श्रीराम जैसा शक्तिशाली और पराक्रमी।
          दरअसल रावण भगवान शिव का भक्त था और उसे अनेक प्रकार वरदान मिले जिससे वह अजेय हो गया। अपने अहंकार में न वह केवल भगवान शिव को भूल गया बल्कि अन्य ऋषियों, मुनियों, और तपस्वियों की दिनचर्या में बाधा डालने लगा था। वह उनके यज्ञ और हवन कुंडों को नष्ट कर देता और परमात्मा के किसी अन्य स्वरूप का स्मरण नहीं करने पर मार डालता। इसके लिये उसने बकायदा अपने सेवक नियुक्त कर रखे थे जिनका वध भगवान श्री राम के हाथ से सीता हरण के पूर्व ही हो गया था।
         भगवान श्रीराम को रावण की पूजा पद्धति से कोई बैर नहीं था। वह तो भगवान शिव जी भी आराधना करते थे। वह दूसरे की पूजा पद्धति को हेय और इष्ट को निकृष्ट कहने की रावण प्रवृत्ति के विरुद्ध थे। भगवान श्रीराम की महानता देखिये उन्होंने रावण के शव को उसकी परंपराओं के अनुसार ही अंतिम संस्कार की अनुमति दी। कहने का तात्पर्य यह है कि अपना धर्म-उस समय धर्म का कोई नाम नहीं था इसलिये पूजा पद्धति भी कह सकते हैं-दूसरे पर लादने के विरुद्ध थे और यही कारण है कि उन्होंने अपने संदेशों में किसी खास पूजा पद्धति की बात नहीं कही है। इसके विरुद्ध अहंकारी रावण दूसरों की पूजा पद्धति में न केवल विघ्न डालता वरन् आश्रम और मंदिर भी तोड़ डालता था। श्री विश्वामित्र अपने यज्ञ और हवन में उसके अनुचरों की उद्दंडता को रोकने के लिये श्रीराम को दशरथ जी से मांग लाये थे और उसी दिन ये ही राम रावण का युद्ध शुरु हो गया था।
       रावण लोभ, लालच और दबाव के जरिये दूसरों पर अपना धर्म-पूजा पद्धति-लादना चाहता था। उसने दूसरी मान्यताएं मानने वाले समाजों की स्त्रियों का अपहरण कर उनको अपने राजमहल में जबरन रखा। उन पर लोभ, लालच, डर और मोह का जाल डालकर उनको अपने वश में किया ताकि दूसरा समाज तिरस्कृत हो। उसने श्रीसीता जी को भी साधारण स्त्री समझ लिया जो उसके आकर्षण में फंस सकती थी और यही गलती उसे ले डूबी पर इसका यह भी एक पक्ष भी है कि अन्य मान्यताओं के लोगों का वह जिस तरह विरोध कर रहा था अंततः उसे एक दिन श्रीराम जी समक्ष युद्ध करने जाना ही था।
         आज हम देखें तो हालत वैसे ही हैं। हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्मिक दर्शन ही धर्म हैं पर उसका कोई नाम नहीं है जबकि अन्य धर्मों में कर्मकांडों को भी उसके साथ जोड़ा जाता है। धर्म का अर्थ कोई विस्तृत नहीं है। निष्काम भाव से कर्म करना, निष्प्रयोजन दया करना, समस्त जीवों के प्रति समान भाव रखते हुए अपने इष्ट का ही स्मरण करना उसका एक रूप है। अन्य धर्मों में उससे मानने की अनेक शर्तें हैं और यह पहनने, ओढ़ने, नाम रखने और अभिवादन के तरीकों पर भी लागू होती हैं।
         इतिहास में हम देखें तो हमारे देश में किसी धर्म का नाम लेकर युद्ध नहीं हुआ बल्कि उसके तत्वों की स्थापना का प्रयास हुआ। धर्म के अनुसार ही राजनीति होना चाहिये पर राजनीतिक शक्ति सहारे धर्म चलाना गलत है। आज हो यह रहा है कि लालच, लोभ, मोह, और दबाव डालकर लोगों को न केवल अपना इष्ट बल्कि नाम तक बदलवा दिया जाता है। पूजा पद्धति बदलवा दी जाती है। यह सब अज्ञान और मोह के कारण होता है। इस तरह कौन खुश रह पाता है?
       चाणक्य और कबीर भी यही कहते हैं कि अपना इष्ट या वर्ग बदलने से आदमी तनाव में जीता है। हमने भी देखा है कि अनेक लोग अपना नाम, इष्ट और वर्ग बदल जाते हैं पर फिर भी उसकी चर्चा करते है जबकि होना चाहिये कि वह फिर अपने नाम, इष्ट और वर्ग की बात तक न करें। कहने को तो वह यह कहते हैं कि यह सब बदलाव की वजह से उनको धन, सफलता और सम्मान मिला पर भौतिक उपलब्धियों से भला कोई खुश रह सकता है?

       दशहरे के इस पावन पर्व पर हमें अपने इष्ट भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुए उनके चरित्र पर भी विचार करना चाहिए तभी पर्व मनाने का मजा है। इस अवसर पर हम अपने पाठकों, ब्लाग मित्रों और सहृदय सज्जनों के बधाई देते हैं।यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीरदास के दोहे-भगवान के साथ चतुराई मत करो


सिहों के लेहैंड नहीं, हंसों की नहीं पांत
लालों की नहीं बोरियां, साथ चलै न जमात

संत शिरोमणि कबीर दास जी के कथन के अनुसार सिंहों के झुंड बनाकर नहीं चलते और हंस कभी कतार में नहीं खड़े होते। हीरों को कोई कभी बोरी में नहीं भरता। उसी तरह जो सच्चे भक्त हैं वह कभी को समूह लेकर अपने साथ नहीं चलते।

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेही निराधार का गाहक गोपीनाथ

कबीरदास जी का कथन है कि चतुराई से परमात्मा को प्राप्त करने की बात तो व्यर्थ है। जो भक्त उनको निस्पृह और निराधार भाव से स्मरण करता है उसी को गोपीनाथ के दर्शन होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों ने तीर्थ स्थानों को एक तरह से पर्यटन मान लिया है। प्रसिद्ध स्थानों पर लोग छुट्टियां बिताने जाते हैं और कहते हैं कि दर्शन करने जा रहे हैं। परिणाम यह है कि वहां पंक्तियां लग जाती हैंं। कई स्थानों ंपर तो पहले दर्शन कराने के लिये बाकायदा शुल्क तय है। दर्शन के नाम पर लोग समूह बनाकर घर से ऐसे निकलते हैं जैसे कहीं पार्टी में जा रहे हों। धर्म के नाम पर यह पाखंड हास्याप्रद है। जिनके हृदय में वास्तव में भक्ति का भाव है वह कभी इस तरह के दिखावे में नहीं पड़ते।
वह न तो इस समूहों में जाते हैं और न कतारों के खड़े होना उनको पसंद होता है। जहां तहां वह भगवान के दर्शन कर लेते हैं क्योंकि उनके मन में तो उसके प्रति निष्काम भक्ति का भाव होता है।

सच तो यह है कि मन में भक्ति भाव किसी को दिखाने का विषय नहीं हैं। हालत यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर किसी सच्चे भक्त का मन जाने की इच्छा भी करे तो उसे इन समूहों में जाना या पंक्ति में खड़े होना पसंद नहीं होता। अनेक स्थानों पर पंक्ति के नाम पर पूर्व दर्शन कराने का जो प्रावधान हुआ है वह एक तरह से पाखंड है और जहां माया के सहारे भक्ति होती हो वहां तो जाना ही अपने आपको धोखा देना है। इस तरह के ढोंग ने ही धर्म को बदनाम किया है और लोग उसे स्वयं ही प्रश्रय दे रहे हैं। सच तो यह है कि निरंकार की निष्काम उपासना ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है और उसी से ही परमात्मा के अस्तित्व का आभास किया जा सकता है। पैसा खर्च कर चतुराई से दर्शन करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

बुरे आदमी से संगत सांप पालने से अधिक दुःखदायी-हिन्दी संदेश


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com

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नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।

उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
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इसलिये सोचना ही बंद-आलेख (mor thinking is not good-hindi lekh)


अखबार में खबर छपी है कि ‘ब्रिटेन ने माना है कि तेल के व्यापार की वजह से बम विस्फोट के एक आरोपी को छोड़ना पड़ा-यह आरोपी रिहा होकर मध्य एशियाई देश में पहुंच गया जहां उसका भव्य स्वागत हुआ।
इधर टीवी पर एक खबर देखी कि पड़ौसी देश हमारे देश में भीड़ में आधुनिक हथियार प्रयोग कर आम आदमी का कत्लेआम करने के लिये आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है।
उधर नेपाल में माओवादियों द्वारा पशुपतिनाथ मंदिर में भारतीय पुजारियेां की पिटाई कर दी।
कुछ खबरें पहले भी इधर हम सुनते रहे हैं कि नक्सलवादियों ने सुरंग बिछाकर पुलिस कर्मियों को मार डाला।
कहने का तात्पर्य यह है कि आतकंवाद और हिंसक अभियान एक भूत की तरह हैं जो कभी पकड़ाई नहीं आयेगा क्योंकि उसने अपने ऊपर ढेर सारे मुखौटे-जाति, धर्म, भाषा, विचार तथा क्षेत्र के नाम पर-लगा रखे हैं। यह भूत सर्वशक्तिमान जितना ही ताकतवर दृष्टिगोचर होता है क्योंकि वह धनपतियों को कमाने तो विलासियों को धन गंवाने के अवसर मुहैया कराने के साथ ही बुद्धिजीवियों को विचार व्यक्त करने तथा समाज सेवकों को पीड़ितों की सहानुभूति जताकर प्रचार पाने के लिये भरपूर अवसर देता है।
किसी भी निरपराध की हत्या करना पाप है और इस जघन्य अपराध के लिये हर देश में कड़े कानून हैं पर आतंकवादी अपराधी नहीं बल्कि आतंकवादी का तमगा पाते हैं। उनको समाज विशिष्टता प्रदान कर रहा है। ऐसे में जाति, भाषाओं, समूहों और विचारों के आधार पर बने समूहों के अपराधिक तत्व अब विशिष्टता हासिल करने के लिये उनके नाम का उपयोग कर रहे हैं।
दुनियां भर के टीवी चैनल और अखबार आतंकवादियों के कृत्यों से भरी हुई हैं। हत्यायें और अपराध तो रोज होते हैं पर जिसके साथ जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र का नाम जुड़ा है उससे विशिष्टता प्राप्त हो जाती है। कुछ लोगों को यह भ्रम है कि उन समूहों के सामान्य लोग भी अपने अपराधी तत्वों की सहायता कर रहे हैं-इसे विचार को भूलना होगा क्योंकि उनके पास अपनी घर गृहस्थी का संघर्ष भी कम नहीं होता। संभव है कि कुछ सामान्य सज्जन लोग भी अपने समूहों के नाम पर अपराध कर रहे अपराधियों में अपनी रक्षा का अनुभव कर रहें तो उन्हें भी अपना विचार बदल लेना चाहिये।
आंतकवाद एक व्यवसाय जैसा हो गया लगता है। चूंकि सामान्य अपराधी होने पर समाज के किसी वर्ग का समर्थन या सहानुभूति नहीं मिलती इसलिये अपराधिक तत्व उनके नाम का सहारा लेकर एतिहासिक नायक बनने के लिये ऐसे प्रयास करते हैं। इस अपराध से उनको आर्थिक यकीनन लाभ होने के साथ प्रसिद्धि भी मिलती है क्योंकि उनके नाम टीवी और अखबार में छाये रहते हैं।
इस समय विश्व में अनेक ऐसे अनैतिक व्यवसाय हैं जिनको करने के लिये सभी देश की सरकारों और प्रशासन का ध्यान हटाना जरूरी लगता होगा तभी ऐसी वारदातों निरंतर की जा रही है ताकि वह चलते रहें।


आम आदमी चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र का हो वह अपनी औकात जानता है-भले ही अपने समूह के साथ होने का भ्रम पालना उसे अच्छा लगता है।
पिछले दिनों एक दिलचस्प खबर आई थी कि भारत की खुफिया एजंसियां देश में सभी भागों में सक्रिय सभी आतंकवादी संगठनों के मुखौटा संगठनों की जांच कर रही हैं। यह मुखौटा संगठन किसी आतंकवादी के मारे या पकड़े जाने पर भीड़ जुटाकर उसके समर्थन में आते हैं और इसके अलावा समय समय पर उनका वैचारिक समर्थन भी करते हैं। यह चेतना देखकर प्रसन्नता हुई।
संभव है कुछ बुद्धिजीवी केवल शाब्दिक विलासिता के लिये अनजाने में ऐसे आतंकवादियों की कथित विचाराधारा-यकीन मानिए यह उनका दिखावा मात्र होता है-के पक्ष में लिख जाते हों और उनके मन में ऐसी किसी हिंसा का समर्थन करने वाली बात न हो पर इसके बावजूद कुछ बुद्धिजीवी रंगे सियार हैं जो केवल उनके हित साधने के लिये प्रचार माध्यमों में जूझते रहते हैं। कभी कभी तो लगता है कि उनको बकायदा इसके लिये नियुक्त किया गया है।
हम आम लेखक हैं किसी को रोक नहीं सकते और न ही हमारे प्रतिवाद पर कोई ध्यान देता पर इसका आशय यह नहीं है कि लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये अनाप शनाप लिखने लगें। सच बात तो यह है कि प्रचार के शिखर पर वही लेखक छाये हुए हैं जिनको कहीं न कहीं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़े व्यवसाययिक घरानों, कथित धार्मिक संगठनों और फिर सामाजिक संस्थाओं (?) से कुछ न कुछ लाभ अवश्य मिलता होगा। जब कहीं दो कंपनियां इतनी ताकतवर हो सकती हैं कि किसी आतंकवादी को छुड़ाने के लिये ब्रिटेन जैसे ताकतवर देश की सरकार को बाध्य कर सकती हैं तो उनके प्रभाव को समझा जा सकता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अपराध और व्यापार एक दूसरे का सहारा हो गये हैं और कथित धर्मों, जातियों, भाषाओं के समूहों के आकर्षक नाम एक पट्टिका की तरह लगा देते हैं। यह सभी जानते हैं कि मानव मन की यह कमजोरी है कि वह अपनी जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम से बहुत मोह रखता है। इससे प्रचार माध्यमों का काम भी चलता है और उनको प्रचार भी मिलता है।
ऐसे में अपने साथी लेखकों और पाठकों से हम एक ही बात कह सकते हैं कि भई, तुम इस जाल में मत फंसो। यह एक ऐसा चक्क्र है जिसे समझने के लिये पैनी दृष्टि होना चाहिये।’ वैसे सच तो यह है कि इतनी सारी घटनायें और खबरे हैं कि एक सिरे से सोचेंगे तो दूसरे सिरे पर सोच ही बदल जायेगी। इसलिये सोचना ही बंद कर दो। मगर आदमी के पास बुद्धि है तो सोचेगा ही। हम तो धर्म जाति, भाषाओं के समूहों को ही भ्रामक मानते हैं। अमीर के लिये सभी दौड़े आते हैं गरीब की तरफ कोई नहीं झांकता। आदमी की स्थिति यह है कि अपना गरीब रिश्तेदार मर जाये तो उसकी अर्थी पर भी न जाये पर पराया अमीर भी मर जाये तो उसके शोक पर आंसु बहाता है ताकि समाज उसे संवदेनशील समझे।
जाने अनजाने कभी भी अपने समूह के नाम हिंसक तत्वों के प्रति हृदय में भी संवेदना नहीं लायें क्योंकि यह सभी समूह केवल अमीरो के लिये बने हैं। फिर क्या करें? अगर आप लेखक हैं तो कुछ सड़ी गली कवितायें लिखकर दिल बहला लीजिये और अगर आप पाठक हैं तो फिर उन बुद्धिजीवियों पर भी हंसें जो वैचारिक बहसें ऐसे करते हैं जैसे कि उनके समाज उनकी कल्पनाओं पर ही चलते है।
इसके अलावा अपने अंदर से भेदात्मक बुद्धि को परे कर दें जो अपने साथ अच्छा व्यवहार करे और उससे समय पर सहयोग की उम्मीद हो उसे अपना ही साथी समझें-जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर एकता की कोशिशों का आव्हान करने वालों के अपने स्वार्थ होते हैं जिसमें आम आदमी का स्थान केवल एक वस्तु के रूप में होता है।
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मंदिरों पर गौरव की अनुभूति-आलेख (hindu temple in the middle east-hindi lekh)


वह एक ब्राह्म्ण लेखक का पाठ था-ऐसा उन्होंने अपने पाठ में स्वयं ही बताया था। उसने बताया कि राजस्थान के सीमावर्ती गांवों में विभाजन के समय आये सिंधी किस तरह अपनी संस्कृति को संजोये हुए हैं। एक सिंधी ने उससे कहा कि ‘आपमें और हममें बस इतना अंतर है कि हम अभी कुछ समय पहले वहां से आये हैं और आप तीन चार सौ साल पहले बाहर से आये हैं।’
उस लेखक ने इसी आधार पर अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा कि बाहर से कितने ही आक्रांता इस देश के लूटने आये पर यहां के लोगों ने उनके विचारों में नयापन होने के कारण स्वीकार किया। यहां नित नित नये समाज बने। उस लेखक ने यह भी लिखा है कि इस समाज की यह खूबी है कि वह नये विचारों को ग्रहण करने को लालायित रहता है।
उस लेखक और इस पाठ के लेखकों में विचारों की साम्यता लगी और ऐसा अनुभव हुआ कि इस देश के इतिहास में कई ऐसी सामग्री हैं जिनका विश्लेषण नये ढंग से किया जाना चाहिये। हुआ यह है कि मैकाले की शिक्षा पद्धति से शिक्षित इस देश बौद्धिक समाज दूसरे द्वारा थोपे गये विषयों पर विचार भी उनके ढंग से करता है। पिछले तीस चालीस वर्ष के समाचार पत्र पत्रिकायें उठाकर देख लीजिये इतिहास की गिनी चुनी घटनाओं के इर्दगिर्द ही नये ढंग से विचार ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे नया हो।
अधिकतर तो हम पिछले बासठ वर्ष के इतिहास पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो कभी कभी हजारों वर्ष पीछे चले जाते हैं। इन सबमें हम अपना गौरव ढूंढने से अधिक कुछ नहीं करते। इससे कभी निराशा का भाव आता है। दरअसल हमारी समस्या यह है कि हम यथास्थिति से आत्ममुग्ध हैं और उसमें अपना गौरव ढूंढना ही अधिक सुविधाजनक लगता है।
इसमें एक गौरव पूर्ण बात कही जाती है कि हिन्दू धर्म कभी इतना विस्तृत था कि उसका विस्तार मध्य एशिया तक था। मध्य एशिया में बने हिन्दू मंदिरों को अपना गौरव बताने की यह प्रवृत्ति हमारे देश में बहुत है। इसके पीछे वास्तविकता क्या है और नये संदर्भों में हम उसे कैसे देखें? यह विचार करने का साहस कोई विद्वान नहीं करता। आईये हम कुछ इस पर प्रकाश डालें।

एक पश्चिमी विद्वान ने खोजकर बताया था कि मनुष्य की उत्पति दक्षिण अफ्रीका में हुई। वह वहां बिल्कुल बंदरों की तरह था। उसके बाद वह भारत आया और वहां उसने ज्ञान प्राप्त किया फिर वह मध्य एशिया में गया जहां उसने सभ्यता का नया स्वरूप प्राप्त किया। फिर वह भारत की तरफ लौटा और बौद्धिक रूप से परिष्कृत होकरउसके बाद अन्य स्थानों पर गया। हम इसे अगर सही माने तो आज भी कुछ नहीं बदला। भारत आकर इंसान ने यहां की आबोहवा मेें राहत अनुभव की और अपने प्रयोग से उसने सत्य का ज्ञान प्राप्त किया। उसके प्रचार के लिये वह मध्य एशिया में गया जहां उसे सांसरिक और भौतिकता का ज्ञान भी मिला। दोनों ही ज्ञानों में संपन्न होने के बाद वह पूरे विश्व में फैला। इसमें एक बात निश्चित रही कि जिस तत्व ज्ञान की वजह से भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु है उसका आभास इसी धरती पर होता है। मुश्किल यह है कि तत्व ज्ञान अत्यंत सूक्ष्म और संक्षिप्त है और बाह्य रूप से उसका आकर्षण दिखता नहीं है। जब इंसान अपने अंदर की आंखों खोले तभी उसका महत्व उसे अनुभव हो सकता है।

भारत में हमेशा ही प्रकृति की कृपा रहने के साथ जनसंख्या का भी घनत्व हमेशा अधिक रहा है इसलिये यहां हमेशा आदमी खातापीता रहा हैं इसके विपरीत अन्य देशों में इतना प्राकृतिक कृपा नहीं है इसलिये यहां का भौतिक आकर्षण विदेशियों को हमेशा ही यहां खींच लाता है। इनमें कुछ पर्यटक के रूप में आते हैं तो कोई आक्रांता के रूप में।
विदेशों से यहां आवागमन हमेशा रहा है और तय बात है कि विदेशों से जो लोग आये उनकी सभ्यता भी यहां मिलती गयी। यही कारण है कि हम अनेक समाजों के कर्मकांडों में विविधता देखते हैं। इतिहासकारों के अनुसार भारत में मूर्तिपूजा का प्रवृत्ति मध्य एशिया से आयी है। उनकी बात में दम इसलिये भी नजर आती है कि भारतीय धर्म ग्रंथों मेें यज्ञ हवन आदि की चर्चा तो होती है पर मूर्ति पूजा यहां के मूल धर्म का भाग हो ऐसा नहीं लगता। रामायण काल में भी रावण द्वारा यज्ञों में विध्वंस पैदा करने की घटनाओं की चर्चा होती है पर मंदिर आदि पर हमला कहीं हुआ हो इसकी जानकारी नहीं मिलती।
श्रीगीता में भी द्रव्य यज्ञ और ज्ञान यज्ञ की चर्चा होती है। द्रव्य यज्ञ से आशय वही यज्ञ हैं जिनमें धन का व्यय होता है और निश्चित रूप से उनका आशय उन यज्ञों से है जिनमें भौतिक सामग्री का प्रयोग होता है।
इतिहास में इस बात की चर्चा होती है कि मध्य एशिया में किसी समय अनेक देवी देवताओं की पूजा होती थी और इस कारण वहां सामाजिक वैमनस्य भी बहुत था। लोग अपने देवी देवताओं को श्रेष्ठ बताने के लिये आपस में युद्ध करते थे। इन देवी देवताओं की संख्या भारत में वर्तमान में प्रचलित देवी देवताओं से कई गुना अधिक थी।
इतिहासकारों के अनुसार वहां एक राजा हुआ जो सूर्य का उपासक था। उसने सूर्य को छोड़कर अन्य देवी देवताओं की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया। दरअसल उसका मानना था कि सूर्य ही सृष्टि का आधार है और वही पूज्यनीय है। उसने अन्य देवी देवताओं के मंदिर और मूर्तियां तुड़वा दीं। इससे लोग नाराज हुए और उसे इतिहास का क्रूर राजा माना गया। बाद में उस राजा की हत्या हो गयी। इतिहासकार मानते हैं कि भले ही उसकी जनता उससे नाराज थी पर उसने यह सत्य स्थापित तो कर ही दिया कि इस सृष्टि का स्वामी एक परमात्मा है।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि उस राजा के मरने के बाद फिर पुनः विभिन्न देवी देवताओं की पूजा होने लगी। नतीजा फिर आपसी संघर्ष बढ़ने लगे और यह तब तक चला जब तक वहां एक ईश्वर का सिद्धांत ताकत के बल पर स्थापित नहीं हो गया।
दरअसल हम इतिहास पर विचार करें तो मूर्ति पूजकों और उनके विरोधियों का संघर्ष वहीं से होता भारत तक आ पहुंचा। भारत में इसे अधिक महत्व नहीं मिला क्योंकि यहां तत्व ज्ञान हमेशा ही अपना काम करता रहता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में पूरी तरह वर्णित है। इसके अलावा एक अन्य बात यह भी है कि भारतीय समाज मानता है कि समय समय पर महापुरुष पैदा होकर समाज सुधार के लिये कुछ न कुछ करते रहते हैं और उनका यह विश्वास गलत नहीं है। आधुनिक काल में कबीर, तुलसी, रहीम, मीरा, रैदास तथा अन्य संत कवियों ने अपनी रचनाओं ने केवल तत्व ज्ञान का प्रचार किया बल्कि भक्ति के ऐसे रस का निर्माण किया जिसके सेवन से यह समाज हमेशा ही तरोताजा रहता है। इसके विपरीत जहां नवीन विचारों के आगमन पर रोक है वह समाज जड़ता को प्राप्त हो गये हैं।
पूर्व में ऋषियों मुनियों और तपस्वियों द्वारा खोजे गये तत्व ज्ञान तथा आधुनिक काल के संत कवियों के भक्ति तत्व का प्रचार हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं। अगर हम यह कहते हैं कि मध्य एशिया में फैले मंदिर हमारे गौरव हैं तो यह भी याद रखिये वह मंदिर हमारे तत्वज्ञान और भक्ति भाव का प्रतीक नहीं है। इसके अलावा सूर्य मंदिरों का मध्य एशिया में होना तो कोई अजूबा नहीं है क्योंकि वहां कभी उनकी पूजा होती है। हम उनके साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को नहीं जोड़ सकते क्योंकि उनके साथ आपसी खूनी संघर्षों का इतिहास भी जुड़ा है। कहने को तो भारत में भी विभिन्न धार्मिक मतों को लेकर विवाद होते रहे हैं पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि इसको लेकर किसी ने किसी पर हमला किया हो।
हमारी वर्तमान सभ्यता, संस्कृति और धर्म अनेक तरह के प्रयोगों के दौर से होते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है। इसके आधार स्तंभ तत्व ज्ञान और भक्ति ही हमारी वास्तविक पहचान है। एक बात याद रखिये इतिहासकार कहते हैं कि दक्षिण अफ्रीका से चलकर इंसान भारत में ज्ञानी हुआ और फिर प्रचार के लिये मध्य एशिया में गया जहां उसे अन्य ज्ञान मिला। वह उसे प्राप्त कर यहां लौटा फिर पूरी तरह से परिष्कृत होकर अन्य जगह पर गया। इसका आशय यह है कि अतीत का गौरव जो हमारे देश में यहीं को लोगों की तपस्य और परिश्रम से निर्मित हुआ है वही श्रेष्ठ है और उससे आगे की सीमा का गौरव तो धूल धुसरित हो गया है। यह वहां रहे लोगों को तलाशना है उस पर हमें गर्व करना बेकार है। इसलिये कहीं मध्य एशिया के पुराने मंदिर ही नहीं बल्कि पश्चिम देशों में बनने वाले मंदिरों में अपने धर्म का गौरव ढूंढना का प्रयास किसी को अच्छा लग सकता है पर अघ्यात्मिक ज्ञानी जानते हैं कि यह केवल एक क्षणिक मानसिक सुख है और इसका उस ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है जिसकी वजह से यह देश विश्व का अध्यात्मिक गुरु माना जाता है।
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वैचारिक महाभारत की आवश्यकता-आलेख (baba shri ramdev,shri shri ravishankar & shri gita)


कभी समलैंगिकता तो कभी सच का सामना, युवक युवतियों के बिना विवाह साथ रहने और इंटरनेट पर यौन सामग्री से संबंधित सामग्री पर प्रतिबंध जैसे विषयों पर जूझ रहे अध्यात्मिक गुरुओं और समाज चिंतकों को देखकर लगता है कि वैचारिक रूप से इस देश में खोखलापन पूरी तरह से घर कर चुका है। इसलिये बाबा रामदेव अगर योग के बाद अगर ज्ञान को लेकर कोई वैचारिक धर्मयुद्ध छेड़ते हैं तो वह एक अच्छी बात होगी। आज के युग में अस्त्रों शस्त्रों से युद्ध की बजाय एक वैचारिक महाभारत की आवश्यकता है। समलैंगिकता और सच का सामना जैसे विषयों पर देश के युवाओं का ध्यान जाये उससे अच्छा है कि उनको अध्यात्मिक वाद विवाद की तरफ लाना चाहिये। पहले शास्त्रार्थ हुआ करता था और यही शास्त्रार्थ अब आधुनिक प्रचार माध्यमों में आ जाये तो बहुत बढ़िया है।

अध्यात्मिक विषयों पर लिखने में रुचि रखने वाले जब बेमतलब के मुद्दों पर बहस देखते हैं तो उनके लिये निराशा की बात होती है। बहुत कम लोग इस बात को मानेंगे कि इसी शास्त्रार्थ ने ही भारतीय अध्यात्म को बहुत सारी जानकारी और ज्ञान दिया है और उसके दोहराव के अभाव में अध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोगों को एकतरफा ही ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि अनेक साधु संत शास्त्रार्थ करने की बजाय अकेले ही प्रवचन कर चल देते हैं। अपनी बात कहने के बाद उस पर उनसे वाद विवाद की कोई सुविधा नहीं है। दरअसल उनके पास ही मूल ज्ञान तत्व का अभाव है।

आचार्य श्रीरामदेव ने भी आज इस बात को दोहराया कि श्रीगीता के उपदेशो की गलत व्याख्या की जा रही है। यह लेखक तो मानता है कि श्रीगीता से आम आदमी को परे रखने के लिये ही कर्मकांडोें, जादू टोने और कुरीतियों को निभाने के लिये आदमी पर जिम्मेदारी डाली गयी। समाज और धर्म के ठेकेदारों ने यह परंपरायें इस तरह डाली कि लोग आज भी इनको बेमन से इसलिये निभाते हैं क्योंकि अन्य समाज यही चाहता है। अपने अध्यात्म ज्ञान से हमारे देश का शिक्षित वर्ग इतना दूर हो गया है कि वह अन्य धर्मों के लोगों द्वारा रखे गये कुतर्कों का जवाब नहीं दे पाता।

विदेशों में प्रवर्तित धर्मों के मानने वाले यह दावा करते हैं कि उनके धर्म के लोगों ने ही इस देश को सभ्यता सिखाई। वह विदेशी आक्रांतों का गुणगान करते हुए बताते हैं कि उन्होंने यहां की जनता से न्यायप्रियता का व्यवहार किया। अपने आप में यह हास्याप्रद बात है। आज या विगत में जनता की राजनीति में अधिक भूमिका कभी नहीं रही। भारत के राजा जो विदेशी राज्यों से हारे वह अपने लोगों की गद्दारी के कारण हारे। सिंध के राजा दाहिर को हराना कठिन काम था। इसलिये ईरान के एक आदमी को उसके यहां विश्वासपात्र बनाकर भेजा गया। अपने लोगों के समझाने के बावजूद वह उस विश्वासपात्र को साथ रखे रहा। उसी विश्वासपात्र ने राजा दाहिर को बताया कि उसकी शत्रु सेना जमीन के रास्ते से आ रही है जबकि वह आयी जलमार्ग से। इस तरह राजा दाहिर विश्वास में मारा गया। यहां के लोग सीधे सादे रहे हैं इसलिये वह छलकपट नहीं समझते। दूसरा यह है कि जो अध्यात्मिक ज्ञान और योग साधना उनको सतर्क, चतुर तथा शक्तिशाली बनाये रख सकती है उससे समाज का दूर होना ही इस देश का संकट का कारण रहा है। दरअसल सभ्य हमारा देश पहले हुआ विदेश में तो बाद में लोगों ने बहुत कुछ सीखा जिसके बारे में हमारे पूर्वज पहले ही जान चुके थे। पर हमारा देश अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण ही कभी आक्रामक नहीं रहा जबकि विदेशी लोग उसके अभाव में आक्रामक रहें। फिर जितनी प्रकृत्ति की कृपा इस देश में कहीं नहीं है यह इतिहास विपन्न देशों द्वारा संपन्न लोगों को लूटने के साथ भी जोड़ा जा सकता है। इसलिये अनेक इतिहासकार कहते भी है कि जो भी यहां आया वह लूटने ही आया।

फिर कुछ आक्रामक लोग अपने साथ अपने साथ मायावी ज्ञान उनको प्रचार करने वाले कथित सिद्ध भी ले आये जिनके पास चमत्कार और झूठ का घड़ा पूरा भरा हुआ था। आश्चर्य की बात है कि अन्य धर्म के लोग जब बहस करते हैं तो कोई उनका जवाब नहीं देता। हां, जो गैर भारतीय धर्मों पर गर्व करते हैं कभी उनसे यह नहीं कहा गया कि ‘आप अपने धर्म पर इतरा रहे हो पर आपके कथित एतिहासिक पात्रों ने जो बुरे काम किये उसका जिम्मा वह लेंगे। क्या इस देश के राजाओं, राजकुमारों और राजकुमारियों के साथ उनके एतिहासिक पात्रों द्वारा की गयी अमानुषिक घटनाओं को सही साबित करेंगे? उन्हों बताना चाहिये कि मीठा खा और कड़वा थूक की नीति धार्मिक चर्चाओं में नहीं चलती।

धार्मिक प्रवचनकर्ता ढेर सारा धन बटोर रहे हैं। इस पर हमें आपत्ति नहीं करेंगे क्योंकि अगर माया के खेल पर बहस करने बैठे तो मूल विचार से भटक जायेंगे। पर यह तो देखेंगे कि साधु और संत अपने प्रवचनों और उपदेशों से किस तरह के भक्त इस समाज को दे रहे हैं। केवल खाली पीली जुबानी भगवान का नाम लेकर समाज से परे होकर आलस्य भाव से जीवन बिताने वाले भक्त न तो अपना न ही समाज का भला कर सकते हैं। भक्ति का मतलब है कि आप समाज के प्रति भी अपने दायित्वों का पालने करें। श्रीगीता का सार आप लोगों ने कई बार कहीं छपा देखा होगा। उसमें बहुत अच्छी बातें लिखी होती है पर उनका आशय केवल सकाम भक्ति को प्रोत्साहन देना होता है और उनका एक वाक्य भी श्रीगीता से नहीं लिया गया होता। हां, यह आश्चर्य की बात है और इस पर चर्चा होना चाहिये। बाबा रामदेव और श्रीरविशंकर दो ऐसे गुरु हैं जो वाकई समाज को सक्रिय भक्त प्रदान कर रहे हैं-इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनकी आलोचना करने वाले बहुत हैं। यही आलोचक ही कभी सच का सामना तो कभी समलैंगिक प्रथा पर जोरशोर से विरोध करने के लिये खड़े होते हैं। योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और श्रीगीता का अध्ययन करने वाले भक्त कभी इन चीजों की तरफ ध्यान नही देते। हमें ऐसा समाज चाहिये जिसके बाह्य प्रयासों से बिखर जाने की चिंता होने की बजाय अपनी इच्छा शक्ति और दृढ़ता से अपनी जगह खड़े का गर्व हमारे साथ हो। कम से कम बाबा रामदेव और श्रीरविश्ंाकर जैसे गुरुओं की इस बात के लिये प्रशंसा की जानी चाहिये कि वह इस देश में ऐसा समाज बना रहे हैं जो किसी अन्य के द्वारा विघटन की आशंका से परे होकर अपने वैचारिक ढांचे पर खड़ा हो। बाबा श्रीरामदेव द्वारा धर्म के प्राचीन सिद्धांतों पर प्रहार करने से यह वैचारिक महाभारत शुरु हो सकता है और इसकी जरूरत भी है। आखिर विदेशी और देशी सौदागर देश के लोगों का ध्यान अपनी खींचकर ही तो इतना सारा पैसा बटोर रहे हैं अगर उस पर स्वदेशी विचाराधारा का प्रभाव हो तो फिर ऐसी बेवकूफ बनाने वाली योजनायें स्वतः विफल हो जायेंगी।
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श्रीगीता संदेश-स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद तामसी धारणाशक्ति के प्रतीक (gita sandesh in hindi)


यथा स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुमेंधा धृति सा पार्थ तामसी।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य में जिस धारणा शक्ति में स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद व्याप्त होते हैं उसे तामसी धारणाशक्ति कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पंचतत्वों से बनी यह देह नश्वर है पर मनुष्य अपना पूरा जीवन इसकी रक्षा करते हुए बिता देता है। यह देह जो कभी इस संसार को छोड़ देगी-इस सत्य से मनुष्य भागता है और इसी कारण उसे भय की भावना हमेशा भरी होती है। मनुष्य कितना भी धन प्राप्त कर ले पर फिर भी उसमें यह भय बना रहता है कि कभी वह समाप्त न हो जाये। परिणामतः वह निरंतर धन संग्रह में लगता है। भगवान की सच्ची भक्ति करने की बजाय वह दिखावे की भक्ति करता है-कहीं वह स्वयं को तो कहीं वह दूसरों को दिखाकर अपने धार्मिक होने का प्रमाण जुटाना ही उसका लक्ष्य रहता है।
दिन रात वह अपनी उपलब्धियों के स्वप्न देखता है। अगर आपको रात का सपना सुबह याद रहे तो इसका अर्थ यह है कि आप रात को सोये नहीं-निद्रा का सुख आपसे दूर ही रहा। लोग इसके विपरीत रात के स्वप्न याद रखकर दूसरों को सुनाते हैं। दिन में भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति का हर मनुष्य हर पल सपना देखता है। जो उसके पास है उससे संतुष्ट नहीं होता।

सभी जानते हैं कि इस संसार में जो आया है उसे एक दिन यह छोड़ना है पर फिर भी अपने सगे संबंधी के मरने पर वह दुःखी होता है। न हो तो भी जमाने को दिखाने के लिये शोक व्यक्त करता है।
यह देह कभी स्वस्थ होती है तो कभी अस्वस्थ हो जाती है। इस दैहिक विपत्ति से बड़े बड़े योगी मुक्त नहीं हो पाते पर मनुष्य के शरीर में जब पीड़ा होती है तब वह विषाद में सब भूल जाता हैं वह पीड़ा उसके मस्तिष्क और विचारों में ग्रहण लगा देती है। देह में यह परेशान मौसम, खान पान या परिश्रम से कभी भी आ सकती है और जैसे ही उसका प्रभाव कम हो जाता है वैसे ही मनुष्य स्वस्थ हो जाता है पर इस बीच वह भारी विषाद में पड़ा रहता है।
थोड़ा धन, संपदा और शक्ति प्राप्त होने से मनुष्य में अहंकार आ जाता है। उसे लगता है कि बस यह सब उसके परिश्रम का परिणाम है। सब के सामने वह उसका बखान करता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम दृष्टा की तरह इस संसार को देखें। गुण ही गुणों को बरतते हैं अर्थात हमारे अंदर सपनें, शोक, भय, विषाद और मद की प्रवृत्ति का संचालन वाले तत्व प्रविष्ट होते हैं जिनका अनुसरण यह देह सहित उसमें मौजूद इंद्रियां करती हैं। जब हम दृष्टा बनकर अपने अंदर की चेष्टाओं और क्रियाओं को देखेंगे तब इस बात का आभास होगा कि हम देह नहीं बल्कि आत्मा हैं।
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श्री गीता से-दूसरे के रोजगार का नाश करना तामस प्रकृत्ति का परिचायक (shri gita sandesh in hindi)


अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्रीच कर्ता तामस उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
युक्ति के बिना कार्य करने वाला, प्राकृत ( संसार की शिक्षा प्राप्त न करने वाला), स्तब्ध (इस संसार की भौतिकता को देखकर हैरान होने वाला, दुष्ट, किसी की कृति (जीविका) का नाश करने वाला, शोक करने वाला और लंबी चौड़ी योजनायें बनाकर काम करने वाला तामस प्रवृत्ति का कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर उत्पात मचाने वाले दूसरों पर आक्रमण करते हैं। दूसरे का रोजगार उनसे सहन नहीं होता और वह उसका नाश करने पर आमादा हो जाते हैं। सबसे हैरानी की बात तो तब होती है कि श्रीगीता को पवित्र मानने वाले लोग यह काम बेझिझक करते हैं। थोड़ी थोड़ी सी बात पर रास्ता जाम करना, दुकानें-बसें जलाना तथा राह चलते हुए लोगों और अपने रोजगार का कर्तव्य निभा रहे सुरक्षा जवानों पर पत्थर फैंकना कोई अच्छी बात नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में आंदोलन चलते हैं पर उनको चलाने का अहिंसक तरीका भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बता ही दिया है-जैसे सत्याग्रह और बहिष्कार। आज सारी दुनियां उनको मानती है पर इसी देश में जरा जरा सी बात पर हिंसा का तांडव दिखाई देता है। इस तरह युक्ति रहित आंदोलन तामसी प्रवृत्ति का परिचायक हैं।

नैतिक और धार्मिक सहिष्णुता और दृढ़ता हमारे भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति है। जीवन मरण तो सभी के साथ लगा रहता है। मुख्य बात यह है कि कोई मनुष्य किस तरह जिया-उसने सात्विक, राजस या तामस
में से किस प्रवृत्ति को उसने अपनाया। इस देश की विचारधारा को इतनी चुनौती मिलती हैं पर फिर भी वह अक्षुण्ण बनी हुई क्योंकि वह उस सृष्टि के उस सत्य को जानती है जिस पर पश्चिम अब काम कर रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूह के सदस्यों की संख्या अधिक है या कम-देखा तो यह जाता है कि उस समूह के सदस्य किस प्रवृत्ति-सात्विक, राजस या तामस-के हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर कोई दूसरा मनुष्य हमसे अलग भी हो तो भी उसकी जीविका का नाश करना अधर्म है-हमें यह नहीं देखना चाहिये कि उसका समूह या वह क्या करता है बल्कि इस बात पर दृष्टि रखना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं? हमारा और समूह का आचरण दृढ़ और धर्म पर आधारित होना चाहिये और यह निश्चय शक्तिशाली बना सकता है।
आज के कठिन युग में जहां तक हो सके दूसरे को रोजगार में सहायता देना चाहिये। इसके लिये अपनी तरफ से कोई प्रयास करना पड़े तो झिझकना नहीं चाहिये। यह न कर सकें तो कम से कम इतना तो करना चाहिये कि दूसरे के रोजगार का नाश न हो।
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भर्तृहरि नीति शतक-रोजी पाने वाले से प्रणाम पाकर आदमी को अंहकार का बुखार चढ़ जाता है (ahankar ka bukhar-adhyatmik sandesh)


स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।

न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
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विवाद करने वाले श्री राम का चरित्र नहीं पढ़ते-आलेख


श्रीराम द्वारा रावण वध के बाद श्रीलंका से वापस आने पर श्रीसीता जी की अग्नि परीक्षा लेने का प्रसंग बहुत चर्चित है। अक्सर भारतीय धर्म की आलोचना करने वाले इस प्रसंग को उठाकर नारी के प्रति हमारे समाज के खराब दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं। दरअसल समस्या वही है कि आक्षेप करने वाले रामायण पढ़ें इसका तो सवाल ही नहीं पैदा होता मगर उत्तर देने वाले भी कोई इसका अध्ययन करते हों इसका आभास नहीं होता। तय बात है कि कहीं भी चल रही बहस युद्ध में बदल जाती है। इन बहसों को देखकर ऐसा लगता है कि किसी भी विद्वान का लक्ष्य निष्कर्ष निकालने से अधिक स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है।
यह लेखक मध्यप्रदेश का है और यहां के लोग ऐसी लंबी बहसों में उलझने के आदी नहीं है। कभी कभी तो लगता है कि देश में चल रहे वैचारिक संघर्षों से हम बहुत दूर रहे हैं और अब अंतर्जाल पर देखकर तो ऐसा लगता है कि बकायदा कुछ ऐसे संगठन हैं जिन्होंने तय कर रखा है कि भारतीय धर्म की आलोचना कर विदेशी विचाराधाराओं के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास करते रहेंगे। उनका यह कार्य इतना योजनाबद्ध ढंग से है कि वह बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में भारतीय धर्म के प्रति अरुचि पैदा करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि इससे वह भारतीय समाज को अस्थिर कर सकते हैं। हालांकि उनकी यह योजना लंबे समय में असफल हो जायेगी इसमें संशय नहीं है।
आईये हम उस प्रसंग की चर्चा करें। नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने रामायण नहीं पढ़ी। श्रीसीता जी जब रावण वध के बाद श्रीराम के पास आयी तो वह उनको देखना भी नहीं चाहते थे-इसे यह भी कह सकते हैं कि वह इतनी तेजस्वी थी कि एकदम उन पर दृष्टि डालना किसी के लिये आसान नहीं था। वहां श्रीरामजी ने उनको बताया कि चूंकि वह दैववश ही रावण द्वारा हर ली गयी थी और उनका कर्तव्य था कि उसकी कैद से श्रीसीता को मुक्त करायें। अब यह कर्तव्य सिद्ध हो गया है इसलिये श्रीसीता जी जहां भी जाना चाहें चली जायें पर स्वयं स्वीकार नहीं करेंगे।
यह आलोचक कहते हैं कि श्रीसीता के चरित्र पर संदेह किया। यह पूरी तरह गलत है। दरअसल उन्होंने श्रीसीता से कहा कि ‘रावण बहुत क्रूर था और आप इतने दिन वहां रही इसलिये संदेह है कि वह आपसे दूर रह पाया होगा।’
तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीराम ने श्रीसीता के नहीं बल्कि रावण के चरित्र पर ही संदेह किया था। बात केवल इतनी ही नहीं है। रावण ने श्रीसीता का अपहरण किया तो उसके अंग उनको छू गये। यह दैववश था। श्रीराम जी का आशय यह था कि इस तरह उसने अकेले में भी उनको प्रताड़ित किया होगा-श्रीसीता जी के साथ कोई जबरदस्ती कर सके यह संभव नहीं है, यह बात श्रीराम जानते थे।
भगवान श्रीराम और सीता अवतार लेकर इस धरती पर आये थे और उनको मानवीय लीला करनी ही थी। ऐसे में एक वर्ष बाद मिलने पर श्रीराम का भावावेश में आना स्वाभाविक था। दूसरा यह कि श्रीसीता से तत्काल आंख न मिलाने के पीछे यह भी दिखाना था कि उनको स्वयं की गयी गल्तियां का भी आभास है। एक तो वह अच्छी तरह जानते थे कि वह मृग सोने का नहीं बल्कि मारीचि की माया है। फिर भी उसके पीछे गये। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि श्रीसीता जी उनको किसी भी प्रकार की हिंसा करने से रोकती थीं। सोने का वह मृग भी श्रीसीता ने जीवित ही मांगा था। एक तरह से देखा जाये तो श्रीसीता अहिंसा धर्म की पहली प्रवर्तक हैं। श्रीसीता जी के रोकने के बावजूद श्रीराम धर्म की स्थापना के लिये राक्षसों का वध करते रहे। उसकी वजह से रावण उनका दुश्मन हो गया और श्रीसीता जी को हभी उसका परिणाम भोगना पड़ा। मानव रूप में भगवान श्रीराम यही दिखा रहे थे कि किस तरह पति की गल्तियों का परिणाम पत्नी को जब भोगना पड़ता है और फिर पति को अपनी पत्नी के सामने स्वयं भी शर्मिंदा होना पड़ता है।
मानव रूप में कुछ अपनी तो कुछ श्रीसीता की गल्तियों का इंगित कर वही जताना चाहते थे कि आगे मनुष्यों को इससे बचना चाहिये।
भरी सभा में श्रीसीता से भगवान श्रीराम ने प्रतिकूल बातें कही-इस बात पर अनेक आलोचक बोलते हैं पर सच बात तो यह है कि श्रीसीता ने भी श्रीराम को इसका जवाब दिया है। उन्होंने श्रीराम जी से कहा-‘आप ऐसी बातें कर रहे हैं जो निम्नश्रेणी का पुरुष भी अपनी स्त्री से नहीं कहता।’
इतनी भरी सभा में श्रीसीता ने जिस तरह श्रीराम की बातों का प्रतिकार किया उसकी चर्चा कोई नहीं करता। सभी के सामने अपने ही पति को ‘निम्न श्रेणी के पुरुषों से भी कमतर कहकर उन्होंने यह साबित किया कि वह पति से बराबरी का व्यवहार करती थीं। श्रीराम दोबारा कुछ न कह सके और इससे यह प्रमाणित होता है कि वह उस लीला का विस्तार कर रहे थे।
यहां यह याद रखने लायक बात है कि श्रीसीता अग्नि से सुरक्षित निकलने की कला संभवतः जानती थी और यह रहस्य श्रीराम जी को पता था। जब श्री हनुमान जी ने लंका में आग लगायी तब वह श्रीसीता की चिंता करने लगे। जब अशोक वाटिका में पहुंचे तो देखा कि केवल श्रीसीताजी ही नहीं बल्कि पूरी अशोक वाटिका ही सुरक्षित है। तब उनको आभास हो गया कि श्रीसीता कोई मामूली स्त्री नहीं है बल्कि उनका तपबल इतना है कि आग उनके पास पहुंच भी नहीं सकती। श्रीसीता को पुनः स्त्री जाति में एक सम्मानीय स्थान प्राप्त हो इसलिये ही श्रीराम ने इस रहस्य को जानते हुए ही इस तरह का व्यवहार किया।
श्रीराम ने गलती की थी कि वह जानते हुए भी मारीचि के पीछे गये। रक्षा के लिये उन्होंने अपने छोटे भाई श्रीलक्ष्मण को छोड़ा। जब श्रीराम जी का बाण खाकर मारीचि ‘हा लक्ष्मण’ कहता हुआ जमीन पर गिरा तब उनको समझ में आया कि वह क्या गलती कर चुके हैं।
उधर श्रीलक्ष्मण भी समझ गये कि मरने वाला मारीचि ही है पर श्रीसीता ने उन पर दबाव डाला कि वह अपने बड़े भाई को देखने जायें। श्रीलक्ष्मण जाने को तैयार नहीं थे श्रीसीता ने भी उन पर आक्षेप किये। यह आक्षेप लक्ष्मण जी का चरित्र हनन करने वाले थे। भगवान श्रीराम इस बात से भी दुःखी थे और उन्हें इसलिये भी श्रीसीता के प्रति गुस्सा प्रकट किया।
यह आलेख नारी स्वतंत्रय समर्थकों को यह समझाने के लिये नहीं किया गया कि कथित रूप से वह भगवान श्रीराम पर श्रीसीता के चरित्र पर लांछन लगाने का आरोप लगाते हैं जबकि भगवान श्रीराम ने कभी ऐसा नहीं किया। उल्टे उन्होंने उनके प्रिय भ्राता श्रीलक्ष्मण पर आक्षेप किये थे। हमारा आशय तो भारतीय धर्म के समर्थकों को यह समझाना है कि आप जब बहस में पड़ते हैं तो इस तरह के विश्ेलषण किया करें। रामायण पर किसी भी प्रकार किसी भी स्त्री के चरित्र पर संदेह नहीं किया गया। जिन पर किया गया है उनमें रावण और श्रीलक्ष्मण ही हैं जो पुरुष थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि ग्रंथों में परिवार और समाज को लेकर अनेक प्रकार के पात्र हैं उनमें मानवीय कमजोरियां होती हैं और अगर न हों तो फिर सामान्य मनुष्य के लिये किसी भी प्रकार संदेश ही नहीं निकल पायेगा। फिर पति पत्नी का संबंध तो इतना प्राकृतिक है कि दोनों के आपसी विवाद या चर्चा में आये संवाद या विषय लिंग के आधार पर विचारणीय नहीं होते। मुख्य बात यह होती है कि इन ग्रंथों से संदेश किस प्रकार के निकलते हैं और उसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ता है? श्रीसीता जी एकदम तेजस्वी महिला थी। लंका जलाने के बाद श्रीहनुमान ने उनसे कहा कि ‘आप तो मेरी पीठ पर बैठकर चलिये। यह राक्षण कुछ नहीं कर सकेंगे।’
श्रीसीता ने कहा-‘मैं किसी पराये मर्द का अंग अपनी इच्छा से नहीं छू सकती। रावण ने तो जबरदस्ती की पर अपनी इच्छा से मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूंगी। दूसरा यह है कि मैं चाहती हूं कि मेरे पति की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो। वह होगी क्योंकि तुम जैसे सहायक हों तब उनकी जीत निश्चित है।’
इससे आप समझ सकते हैं कि श्रीसीता कितनी दृढ़चरित्र से परिपूर्ण हो गयी थी कि अवसर मिलने पर भी वह लंका से नहीं भागी चाहे उनको कितना भी कष्ट झेलना पड़ा। वह कोमल हृदया थी पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बिचारी या अबला थी।
नारी स्वतंत्रय समर्थकों ने हमेशा ही इस मसले को उठाया है और यह देखा गया है कि भारतीय धर्म समर्थक इसका जवाब उस ढंग से नहीं दे पाते जिस तरह दिया जाना चाहिये। अक्सर वह लोग श्रीसीता को अबला या बेबस कहकर प्रचारित करते हैं जबकि वह दृढ़चरित्र और तपस्वी महिला थी। वह भगवान श्री राम की अनुगामिनी होने के साथ ही उनकी मानसिक ऊर्जा को बहुत बड़ा स्त्रोत भी थीं। भगवान श्रीराम महान धनुर्धर पुरुष थे तो श्रीसीता भी ज्ञानी और विदुषी स्त्री थी। यही कारण है कि पति पत्नी की जोड़ी के रूप में वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन के मूल आधार कहलाते हैं।
शेष फिर कभी
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रामनवमी:राम से भी बड़ा है राम का नाम-आलेख (ramnavmi-ram se bhi bada ram ka nam)


भारतीय अध्यात्म में भगवान श्रीराम के स्थान को कौन नहीं जानता? आज रामनवमी है और हर भारतीय के मन में उनके प्रति जो श्रद्धा है उसको प्रकट रूप में देख सकते है। आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में भगवान श्रीराम की जो छवि है वह अद्वितीय है पर उनके जीवन चरित्र को लेकर आए दिन जो वाद-विवाद होते हैं और मैं उनमें उभयपक्षीय तर्क देखता हूं तो मुझे हंसी आती है। वैसे देखा जाये तो भगवान श्रीराम जी ने अपने जीवन का उद्देश्य अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना बताया पर उससे उनका आशय यह था कि आम इंसान शांति के साथ जीवन व्यतीत कर सके और तथा भगवान की भक्ति कर सके। उन्होंने न तो किसी प्रकार के धर्म का नामकरण किया और न ही किसी विशेष प्रकार की भक्ति का प्रचार किया।

मेरा यह आलेख किश्तों में आएगा इसलिये यह बता दूं कि मैं बाल्मीकि रामायण के आधार पर ही लिखने वाला हूं। मैं अपनी बुद्धि और विवेक से अपने वह तर्क रखूंगा जो भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र के अध्ययन से मेरे दिमाग में आते हैं। मेरा मौलिक चिंतन है और भगवान श्रीराम के चरित्र की व्याख्या करने वालों के मैं कई बार अपने को अलग अनुभव करता हूं। मैने अपने स्कूल की किताबें और बाल्मीकि रामायण की पढ़ाई एक साथ शुरू की और मेरे लेखक बन जाने का कारण भी यही रहा। शायद इसलिये जब मै भगवान श्रीराम के बारे में कई बार किसी की कथा सुनता हूं तो मुझे लगता है कि लोगों का भटकाया जा रहा है। कथा इस तरह होती है कि सुनाने वाला अपना अधिक महत्व प्रतिपादित करता है और उसमें भगवान श्रीराम के प्रति भक्ति कम दृष्टिगोचर होती है। शायद यही वजह है कि भगवान श्रीराम के चरित्र की आलोचना करने वाले लोगों का वह सही ढंग से मुकाबला नहीं कर पाते। कभी तो इस बात की अनुभूति होती है कि श्रीराम के जीवन चरित्र सुनाने वाले भी उसके बारे में किताबी ज्ञान तो रखते हैं पर मन में भक्ति नहीं होती उनका उद्देश्य कथा कर अपना उदरपूति करना होता है।

कई बार मेरे सामने ऐसा भी होता है कि जब भगवान श्रीराम के चरित्र की व्याख्या जब अपने मौलिक ढंग से करता हूं तो लोग प्रतिवाद करते हैं कि ऐसा नहीं वैसा। वह तो भगवान थे-आदि। कुल मिलाकर मनुष्य के रूप में की गयी लीला को भी लोग भगवान का ही सामथर््य मानते है। लोग अपने को विश्वास अधिक दिलाना चाहते हैं कि वह भगवान श्रीराम के भक्त हैं न कि विश्वास के साथ भक्ति करते हैं। अगर देखा जाय तो भक्ति का चरम शिखर अगर किसी ने प्राप्त किया है तो उनके सबसे बड़ा नाम संत कबीर और तुलसीदासजी का है-इस क्रम में मीरा और सूर भी आते हैं। ज्ञानियों में चरम शिखर के प्रतीक हम बाल्मीकि और वेदव्यास को मान सकते हैं। भगवान को पाने के दोनों मार्ग- भक्ति और ज्ञान- हैं। भगवान को दोनों ही प्रिय हैं पर ज्ञान के बारे में लोगों का मानना है कि भक्ति मार्ग मे रुकावट डालता है और जो आदमी भक्ति करता है और जब वह चरम पर पहुंचता है तो वह भी महाज्ञानी हो जाता है। बाल्मीकि और वेदव्यास ने ज्ञान मार्ग को चुना तो वह समाज को ऐसी रचनाएं दे गये कि सदियों तक उनकी चमक फीकी नहीं पड़ सकती और कबीर, तुलसी, सूर, और मीरा ने भक्ति का सर्वोच्च शिखर छूकर यह दिखा दिया है कि इस कलियुग में भी भगवान भक्ति में कितनी शक्ति है। किसी की किसी से तुलना नहीं हो सकती पर संत कबीर जी ने तो कमाल ही कर दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति और ज्ञान दोनों का समावेश इस तरह किया कि वर्तमान समय में एसा कोई कर सकता है यह सोचना भी कठिन है और यहीं से शुरू होते हैं विवाद क्योंकि लोग कबीर की तरह प्रसिद्ध तो होना चाहते हैं पर हो नहीं सकते इसलिये उनके इष्ट भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र पर टिप्पणियां करने लगते हैं।

राम से बड़ा है राम का नाम। मतलब यह कि इस देश में राम से बड़ा तो कोई हो नहीं सकता पर आदमी में हवस होती है कि वह अपने मरने के बाद भी पुजता रहे और जब तक राम का नाम लोगों के हृदय पटल पर अंकित है तब तक अन्य कोई पुज नहीं सकता। गरीबी, बेकारी और तंगहाली गुजारते हुए इस देश में राम की महिमा अब भी गाई जाती है यह कई लोगों का स्वीकार्य नहीं है। इसलिये वह अनेक तरह के ऐसे विवाद खड़े करते हैं कि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो। इसलिये कई तरह के स्वांग रचते हैं। रामायण से कुछ अंश लाकर उसका नकारात्मक प्रचार करना, विदेशी पुस्तकों से उद्धरण लेकर अपने आपको आधुनिक साबित करना और उससे भी काम न बने तो वेदों से अप्रासंगिक हो चुके श्लोकांे का सामने लाकर पूरे हिंदू समाज पर प्रहार करना।

कहा जाता है कि श्रीगीता में चारों वेदों का सार है इसका मतलब यह कि जो उसमें नहीं है उस पर पुनर्विचार किया जा सकता है-वेदों की आलोचना करने वालों को यह मेरा संक्षिप्त उत्तर है और इस पर भी मैं अलग से लिखता रहूंगा। विदेशी पुस्तकों से उद्धरण लेकर यहां विद्वता दिखाने वालों को भी बता दूं कि संस्कृत और हिंदी के साथ देशी भाषाओं में जीवन के सत्य को जिस तरह उद्घाटित किया गया उसके चलते इस देश को विदेश से ज्ञान अर्जित करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अधिकतर विदेशी ज्ञान माया के इर्दगिर्द केंद्रित है इसलिए भी उनको महत्व नहीं मिलने वाला।

अब आता है रामायण या रामचरित मानस से अंश लेकर आलोचना करने वालों के सवाल का जवाब देने का तो ऐसे लोग अपने अधिकतर उद्धरण-जिसमें शंबुक वध और सीता का वनगमन आदि है- वह उत्तर रामायण से ही ले आते हैं जिसके बारे में अनेक विद्वान कहते हैं कि वह मूल रामायण का भाग नहीं लगता क्योंकि उसमें जो भाषा शैली वह भिन्न है और उसे किन्हीं अन्य विद्वानों ने जोड़ा है। अगर आप कहीं श्रीराम कथा को देखें तो वह अधिकतर भगवान श्रीराम के अभिषेक तक ही होती है-इससे ऐसा लगता है कि यह मसला बहुत समय से विवादास्पद रहा है। मुझे जिन लोगों ने रामायण और रामचरित मानस पढ़ते देखा वह भी मुझे उत्तर रामायण न पड़ने की सलाह दे गये। इसका आशय यह है कि मैं उत्तर वाले भाग पर कोई विचार नहीं बना पाता।
अब आते हैं मूल रामायण के उस भाग पर जिसमें इस पूरे संसार के लिये ज्ञान और भक्ति का खजाना है। शर्त यही है कि श्रद्धा और विश्वास से प्रातः उठकर स्वयं उसका अध्ययन, मनन, और चिंतन करो-किसी एक प्रक्रिया से काम नहीं चलने वाला। यह आलेख लंबा जरूर हो रहा है पर इसकी जरूरत मुझे अनुभव इसलिये हो रही है कि आगे जब संक्षिप्त चर्चा करूंगा तो उसमें मुझे इनको दोहराने की आवश्यकता नहीं होगी। अगर सब ठीकठाक रहा तो मैं उस हर तर्क को ध्यस्त कर दूंगा जो श्रीराम के विरोधी देते है।

उस दिन गैर हिंदू घार्मिक टीवी पर एक गैरहिंदू विद्वान तमाम तरह के कुतर्क दे रहा था। मैने हिंदी फोरम पर एक ब्लाग देखा जिसमें उसके उन तर्को पर गुस्सा जाहिर किया गया। उसमें यह भी बताया गया कि उन महाशय ने इंटरनेट पर भी तमाम उल्टीसीधी चीजें रख छोड़ीं है। उसने कहीं किसी हिंदू विद्वान से बहस की होगी। वहंा भी झगड़ा हुआ। मैं उस गैरहिंदू विद्वान का नाम नहीं लिखूंगा क्योंकि एक तो उसका नाम लिखने से वह मशहूर हो जायेगा दूसरे उसके तर्क काटने के लिये मेरे पास ठोस तर्क हैं। एक बात तय रही बाल्मीकि रामायण और श्रीगीता से बाहर दुनियां का कोई सत्य नहीं है और अगर कोई उनके बारे में दुष्प्रचार कर रहा है तो वह मूर्ख है और जो उसका तर्क की बजाय गुस्से से मुकाबला करना चाहता है वह अज्ञानी है। मुझे अपने बारे में नहीं पता पर मैं जो भी लिखूंगा इन्हीं महान ग्रंथों से ग्रहण किया होगा और अपनी विद्वता सिद्ध करने का मोह मैने कभी नहीं पाला यह तो छोड दिया अपने इष्टदेव पर-जहां वह ले चले वहीं चला जाता हूं।

रामनवमी के पावन पर्व पर इतना बड़ा लेख शायद मैं लिखने की सोचता भी नहीं अगर मेरे मित्र ब्लागर श्रीअनुनादसिंह के ब्लाग पर कृतिदेव का युनिकोड टुल नहीं मिलता। आजकल मैं फोरमों पर जाता हूं और यह जरूरी नहीं है कि मेरी पंसद के ब्लाग वहां मिल ही जायें पर अनुनाद सिंह का वह ब्लाग मेरी नजर में आ गया और मैने यह टूल वहां से उठाया और सफल रहा। अगर मैं उस दिन नहीं जा पाता या मेरी नजर से चूक जाता तो इतना बड़ा बिना हांफे लिखना संभव नहीं होता और होता भी तो आगे की कडियां लिखने की घोषणा नहीं करता। यह भगवान श्रीराम की महिमा है कि अपने भक्तों के लिये रास्ते भी बना देते हैं अगर वह यकीन करता हो तो। आज मैंने कोई विवादास्पद बात नहीं लिखी पर आगे भगवान श्रीराम के भक्तों के लिये दिलचस्प और उनके विरोधियों के विवादास्पद बातें इसमें आने वालीं हैं।
अपने सभी मित्र और साथी ब्लागरों के साथ पाठकों को रामनवमी की बधाई।

भगवान के नाम पर माया का खेल-आलेख


सांई बाबा के नाम पर रायल्टी वसूलने की बात सुनकर मैं बिल्कुल नहीं चौंका क्योंकि अभी और भी चौंकाने वाली खबरें आऐंगी क्योंकि जैसे-जैसे लोगों की बुद्धि पर माया का आक्रमण होगा सत्य के निकट भारतीय अध्यात्म उनको याद आयेगा उसके लिए अपना धीरज बनाये रखना जरूरी है। मैं प्रतिदिन अंर्तजाल पर चाणक्य, विदुर, कबीर, रहीम और मनु के संदेश रखते समय एकदम निर्लिप्त भाव में रहता हूं ताकि जो लिख रहा हूं उसे समझ भी सकूं और धारण भी कर सकूं। सच माना जाये तो योगसाधना के बाद मेरा वह सर्वश्रेष्ठ समय होता है उसके बाद माया की रहा चला जाता हूं पर फिर भी वह समय मेरे साथ होता है और मेरा आगे का रास्ता प्रशस्त करता है।

मुझे अपने अध्यात्म में बचपन से ही लगाव रहा है पर कर्मकांडों और ढोंग पर एक फीसदी भी वास्ता रखने की इच्छा नहीं रखता। सांई बाबा के मंदिर पर हर गुरूवार को जाता हूं और मेरा तो एक ही काम है। चाहे जहां भी जाऊं ध्यान लगाकर बैठ जाता हूं। सांईबाबा के मंदिर में हजारों भक्त आते और जाते हैं और सब अपने विश्वास के साथ माथा टेक कर चले जाते हैं। सांई बाबा के बचपन में कई फोटो देखे थे तो उनके गुफा या आश्रम के बाहर एक पत्थर पर बैठे हुए दिखाए जाते थे। मतलब उनके आसपास कोई अन्य आकर्षक भवन या इमारत नहीं होती थी। आज सांईबाबा के मंदिर देखकर जब उन फोटो को याद करता हूं तो भ्रमित हो जाता हूं। फिर सोचता हूं कि मुझे इससे क्या लेना देना। सांई बाबा की भक्ति और मंदिर अलग-अलग विषय हैं और मंदिरों में जो नाटक देखता हूं तो हंसता हूं और सोचता हूं कि क्या कभी उन संतजी ने सोचा होगा कि उनके नाम पर लोग हास्य नाटक भी करेंगे। अपनी कारें और मोटर सायकलें वहां पुजवाने ले आते हैं। वहां के सेवक भी उस लोह लंगर की चीज की पूजा कर उसको सांईबाबा का आशीर्वाद दिलवाते हैं। इसका कारण यह भी है कि सांईबाबा को चमत्कारी संत माना जाता है और लोगों की इसी कारण उनमें आस्था भी है।

अधिक तो मैं नहीं जानता पर मुझे याद है कि मुझे शराब पीने की लत थी और एक दिन पत्नी की जिद पर उनके मंदिर गया तो उसके बाद शुरू हुआ विपत्ति को दौर। पत्नी की मां का स्वास्थ्य खराब था वह कोटा चलीं गयीं और इधर मैं उच्च रक्तचाप का शिकार हुआ। अपनी जिंदगी के उस बुरे दौर में मैं हनुमान जी के मंदिर भी एक साथी को ढूंढकर ले गया। आखिर मैं स्वयं भी कोटा गया क्योंकि यहां अकेले रहना कठिन लग रहा था। वहां सासुजी का देहांत हो गया।

उसके बाद लौटे तो फिर हर गुरूवार को मंदिर जाने लगे। इधर मेरी मानसिक स्थिति भी खराब होती जा रही थी। ऐसे में पांच वर्ष पूर्व (तब तक बाबा रामदेव की प्रसिद्धि इतनी नहीं थी)एक दिन भारतीय योग संस्थान का शिविर कालोनी में लगा। संयोगवश उसकी शूरूआत मैंने गुरूवार को ही की थी।

यह मेरे जीवन की दूसरी पारी है। जिन दिनों शराब पीता था तब भी मैं भगवान श्री विष्णु, श्री राम, श्री कृष्ण, श्री शिवजी, श्रीहनुमान और श्रीसांईबाबा के के मंदिर जाता रहा और बाल्मीकि रामायण का भी पाठ करता । योगसाधना शुरू करने के बाद श्रीगीता का दोबारा अध्ययन शुरू किया और देखते देखते अंतर्जाल पर लिखने भी आ गया। मतलब यह कि ओंकार के साथ निरंकार की ही आराधना करता हूं। अपना यह जिक्र मैंने इसलिये किया कि इसमें एक संक्षिप्त कहानी भी है जिसे लोग पढ़ लें तो क्या बुराई है।

असल बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि भारतीय अध्यात्म का मूल रहस्य श्रीगीता में है और इस समय पूरे विश्व में अध्यात्म के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है। ‘अध्यात्म’ यानि जो वह जीवात्मा जो हमारा संचालन करता है। उससे जुडे विषय को ही अध्यात्मिक कहा जाता है। कई लोग सहमत हों या नहीं पर यह एक कटु सत्य है कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने आध्यात्म का रहस्य पूरी तरह जानकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया और कहीं अन्य इसकी मिसाल नहीं है। भारत की ‘अध्यात्मिकता’ सत्य के निकट नहीं बल्कि स्वयं सत्य है। यह अलग बात है कि विदेशियों की क्या कहें देश के ही कई कथित साधु संतों ने इसकी व्याख्या अपने को पुजवाने के लिये की । दुनियों में श्रीगीता अकेली ऐसी पुस्तक है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है और उसमें जो सत्य है उससे अलग कुछ नहीं है। लोग उल्टे हो जायें या सीधे चाहे खालीपीली नारे लगाते रहें, तलवारे चलाये या त्रिशूल, पत्थर उड़ाये या फूल पर सत्य के निकट नही जा सकते। अगर सत्य के निकट कोई ले जा सकता है तो बस श्रीगीता और भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथ। अपने देश के लोग कहीं पत्थरमार होली खेलते हैं तो कहीं फूल चढ़ाते हैं तो कही पशु की बलि देने जाते है कही कही तो शराब चढ़ाने की भी परंपरा है। श्रीगीता को स्वय पढ़ने और अपने बच्चों को पढ़ाने से डरते है कहीं मन में सन्यास का ख्याल न आ जाये जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने तो सांख्ययोग (सन्यास) को लगभग खारिज ही कर दिया है। हां उसे पढ़ने से निर्लिप्त भाव आता है और ढेर सारी माया देखकर भी आप प्रसन्न नहीं होते और यही सोचकर आदमी घबड़ाता है कि इतनी सारी माया का आनंद नही लिया तो क्या जीवन जिया। अभी मैंने श्रीगीता पर लिखना शुरू नहीं किया है और जब उसके श्लोकों की वर्तमान संदर्भ में व्याख्या करूंगा तो वह अत्यंत दिल्चस्प होगी। यकीन करिये वह ऐसी नहीं होगी जैसी आपने अभी तक सुनी। आजकल मैं हर बात हंसता हूं क्योंकि लोगों को ढोंग और पाखंड मुझे साफ दिखाई देते है। कहता इसलिये नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्त के अलावा इस श्रीगीता का ज्ञान किसी को न दें।

मंदिरों मे भगवान का नाम लेने जरूर लोग जाते हैं पर मन में तो माया का ही रूप धारण किये जाते हैं। मन में भगवान है तो माया भी वहीं है उसी तरह मंदिर में भी है वहां भी आपके मन के अनुसार ही सब है। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये लोग वहां जाते हैं तो कुछ लोग दर्शन करने चले जाते हैं तो कुछ लोग ऐसे ही चले जाते है। खेलती माया है और आदमी को गलतफहमी यह कि मै खेल रहा हूं । काम कर रही इंद्रियां पर मनुष्य अपने आप को कर्ता समझता है।

असल बात बहुत छोटी है। सांईबाबा संत थे और एक तरह से फक्कड़ थे। उनका रहनसहन और जीवन स्तर एकदम सामान्य था पर उनका नाम लेलेकर लोगों ने अपने घर भर लिये और अब अगर यह रायल्टी का मामला है तो भी है तो माया का ही मामला। कई जगह उनके मंदिर है और मैं अगर किसी दूसरे शहर में गुरूवार को होता हूं तो भी उनके मंदिर का पता कर वहां जरूर जाता हूं। मंदिरों में तो बचपन से जाने की आदत है पर मैं केवल इसलिये भगवान की भक्ति करता हूं कि मेरी बुद्धि स्थिर रहे और किसी पाप से बचूं। फिर तो सारे काम अपने आप होते है। कई मंदिरों पर संपत्ति के विवाद होते हैं और तो और वहां के सेवकों के कत्ल तक हो जाते हैं। यह सब माया का खेल है। अब अगर यह मामला बढ़ता है तो बहुत सारे विवाद होंगे। कुछ इधर बोलेंगे तो कुछ उधर। हम दृष्टा बनकर देखेंगे। वैसे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान सोने की खदान है और कुछ लोग इसको बदनाम करने के लिये भी ऐसे मामले उठा सकते हैं जिससे यह धर्म और बदनाम हो कि देखो इस धर्म को मानने वाले कैसे हैं? जानते हैं क्यों? अध्यात्म और धर्म अलग-अलग विषय है और जिस तरह विश्व में लोग माया से त्रस्त हो रहे हैं वह इसी ज्ञान की तरफ या कहंे कि श्रीगीता के ज्ञान की तरफ बढ़ेंगे। उनको रोकना मुश्किल होगा। इसीलिये उनके मन में भारतीय लोगों की छबि खराब की जाये तो लोग समझें कि देखो अगर इनका ज्ञान इस सत्य के निकट है तो फिर यह ऐसे क्यों हैं?
मैं महापुरुषों के संदेश भी अपने विवेक से पढ़कर लिखता हूंे ताकि कल को कोई यह न कहे कि हमारे विचार चुरा रहा है। यकीन करिय एक दिन ऐसा भी आने वाला है जब लोग कहेंगे कि हमारा इन महापुरुषों के संदशों पर भी अधिकार है क्योंकि हमने ही उनको छापा है। यह गनीमत ही रही कि गीताप्रेस वालों ने भारत के समस्त ग्रंथों को हिंदी में छाप दिया नहीं तो शायद इनके अनुवाद पर भी झगड़े चलते और हर कोई अपनी रायल्टी का दावा करता। जिस तरह यह मायावी विवाद खड़े किये जा रहे हैं उसके वह आशय मै नहीं लेता जो लोग समझते हैं। मेरा मानना है कि ऐसे विवाद केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान को बदनाम करने के लिये किये जाते है। मुख्य बात यह है कि इसके लिये प्रेरित कौन करता है? यह देखना चाहिए। पत्रकारिता के मेरे गुरू जिनको मैं अपना जीवन का गुरू मानता हूं ने मुझसे कहा था कि तस्वीर तो लोग दिखाते और देखते हैं पर तुम पीछे देखने की करना जो लोग छिपाते हैं। देखना है कि यह विवाद आखिर किस रूप में आगे बढ़ता है क्योंकि श्री सत्य सांई बाबा विश्व में असंख्य लोगों के विश्व के केंद्र में है और जिस तरह यह मामला चल रहा है लोगों को उनसे विरक्त करने के प्रयासों के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।

रहीम के दोहे:बन्दर कभी हाथी नहीं हो सकता


बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि

कविवर रहीम कहते है इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। यह तो केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।

समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।

भृतहरि शतकःसच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन


पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः

हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

भृतहरि शतक:स्त्री को अबला मानने वाले कवि विपरीत बुद्धि के



नूनं हि ते कविवरा विपरीत वाचो
ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् ।
याभिर्विलालतर तारकदृष्टिपातैः
शक्रायिऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः

इस श्लोक का आशय यह है कि जो कवि सुंदर स्त्री को अबला मानते हैं उनको तो विपरीत बुद्धि का माना जाना चाहिए। जिन स्त्रियों ने अपने तीक्ष्ण दृष्टि से देवताओं तक को परास्त कर दिया उनको अबला कैसे माना जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अधिकतर कवि और रचयिता स्त्री को अबला मानते हैं पर भर्तुहरि महाराज ने उसके विपरीत उन्हें सबला माना है। सुंदर स्त्री से आशय समूची स्त्री जाति से ही माना जाना चाहिए, क्योंकि स्त्री का सौंदर्य उसके हृदय में स्थित लज्जा और ममता भाव में है जो कमोवेश हर स्त्री में होती है। माता चाहे किसी भी रंग या नस्ल की हो बच्चे पर अपनी ममता लुटा देती है। बच्चा भी अपनी मां को बड़े प्रेम से निहारता है। पूरे विश्व मेंे अनेक कवि और लेखक नारी को अबला मानकर उस पर अपनी विषय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में बहुत अज्ञानी होते हैं। उन्हें अपनी रचना के समय यह आभास नहीं होता कि हर स्त्री का किसी न किसी पुरुष-जिसमें पिता, भाई, पति और रिश्ते-से संबंध होता है। वह सबके साथ निभाते हुए उनसे संरक्षण पाती है। जो लोग स्त्री को अबला मानकर अपनी रचना लिखते हैं वह वास्तव में अपने आसपास स्थित नारियों से अपने संबंधों पर दृष्टिपात किये बिना ही केवल नाम पाने के लिये लिखते हैं और इसी कारण आजकल पूरे विश्व में नारी को लेकर असत्य साहित्य की भरमार है। अनेक कहानियां और कवितायें नारियों को अबला और शोषित मानकर कर लिखीं जातीं हैं और उनमें सच कम कल्पना अधिक होती है। ऐसे लोग विपरीत बुद्धि के महत्वांकाक्षी लेखक लोगों की बुद्धि तरस योग्य है।