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हिन्दी दिवस सप्ताह और पखवाड़ा-हिन्दी चिंत्तन लेख


            14 सितम्बर हिन्दी दिवस के बाद सरकारी विभागों में हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी सप्ताह प्रारंभ हो जाता है।  यह अलग बात है उस दौरान औपचारिक कार्यक्रम समाचारों में हिन्दी दिवस की अपेक्षा अधिक स्थान नहीं पाते। इस दौरान वाद विवाद प्रतियोगिताओं, सम्मेलनों और सम्मान कार्यक्रमों में वही पुरानी बात दोहराई जाती हैं।  अगर हम हिन्दी के व्यवसायिक बाज़ार को देखें तो उसके पास एक बहुत विशाल जनसमूह है।  वह अपने लिये कमाई के लिये हर क्षेत्र में अपने हिसाब से भाषाई विकास के लिये रणनीति बना सकता है पर उसमें आत्मविश्वास की कमी है।  टीवी चैनल के समाचार, धारावाहिक, फिल्म की पटकथायें और समाचार पत्र पत्रिकाओं की विषय सामग्री में प्रबंधकों की भाषा के प्रति कुंठा ही नहीं वरन् उससे जड़ आमजन समूह के प्रति भारी अविश्वास दिखाई देता है।  यह अविश्वास और विचार हीनता आमजन समूह की मूढ़ता की वजह से नहीं वरन् प्रबंधकों और कार्यकर्ताओं में अपने ही उनके अंदर अपने कर्म से प्रतिबद्धता के अभाव  से ही उपजी होती है।

            हिन्दी पर वही पेशेवर विद्वान इन बहसों में भाग लेने आते हैं जिन्होंने हिंग्लििश या हिंग्रेजी के सहारे प्रतिष्ठा के आकाश को छुआ होता है और उनकी रचनायें मनोंरजन या कथित रूप से सामाजिक चेतना के विषय से जुड़ी होती है। प्रगतिशील, जनवादी तथा अन्य विचाराधाराओं के विद्वानों ने प्रचार जगत तथा उसके संगठनों पर अधिकार कर रखा है इसलिये मौलिक, स्वतंत्र तथा जातीय, धार्मिक, राजनीतिक तथा कला के समूहें से पृथक लेखकों के लिये कहीं कोई स्थान नहीं है।  अब अंतर्जाल ने यह सुविधा दी है तो उसे सामाजिक माध्यम कहकर सीमित किया जा रहा है।  पूंजी, प्रतिष्ठा और प्रचार के शिखर संगठनों के महापुरुष निरंतर यह संदेश देते हैं कि यह सामाजिक प्रचार माध्यम भी उनकी कृपा से ही चल रहा है।  प्रचार माध्यम शिखर पुरुषों के ब्लॉग, ट्विटर और फेसबुक की चर्चा कर आमजन को यह संदेश तो देते हैं कि वह सामाजिक माध्यम को महत्व प्रदान कर रहे हैं पर साथ ही यह भी बता देते हैं कि हर विचारक की औकात उसकी भौतिक शक्ति के अनुसार ही आंकी जायेगी।

            हम जैसे सात वर्ष से अंतर्जाल पर सक्रिय हिन्दी लेखक अगर स्वांत सुखाय न हों तो लिखना ही बंद कर दें। हमारा स्तर अभी तक एक अंतर्जाल प्रयोक्ता से आगे नहीं बढ़ पाया।  दो तीन वर्ष तक हमें निराशा लगी पर जब हमने अध्ययन किया तो पता लगा कि भाषा, जाति, धर्म, अर्थ और समाज सेवा में कामनाओं के साथ राजसी प्रवृत्ति के पुरुषों से अपेक्षा करना व्यर्थ है क्योंकि उनके लक्ष्य कभी पूरे नहीं होते इसलिये हमें प्रतिष्ठित करने का समय उन्हें मिल ही नहीं सकता।  हमने हिन्दी भाषा में अंग्रेजी शब्दों के मिश्रण के प्रतिकूल एक लेख यहां लिखा था।  उस पर ढेर सारी प्रतिक्रिंयायें आयीं। उनमें विरोध तथा समर्थन दोनों ही शामिल था।  इस तरह के मिश्रण के अभियान प्रारंभ होने की जानकारी हमें अंतर्जाल पर ही मिली थी तब ऐसा लगा कि शायद यह एक भ्रम हो पर जल्द ही वह सच सामने आने लगा।  भाषाई रणनीतिकार हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के लिये उस राह पर चल पड़े थे जिसकी कल्पना करना हमारे लिये कठिन था।  कहने को यह भाषा के साथ उनकी प्रतिबद्धता थी पर सच उनकी अपनी रचनाओं के सहारे प्रतिष्ठा बनाये रखने के विश्वास का अभाव का प्रमाण था।

            विचारधाराओं से जुड़े ऐसे आकाशीय विद्वान अपनी बात जनमानस में कहने के लिये उतावले रहते हैं। उन्हें अपनी रचना पर तत्काल प्रतिक्रिया चाहिये क्योंकि उससे ही उनकी भौतिक उपलब्धि होती है।  समाज के पढ़े लिखे तबके से ही उनके सरोकार रह गये हैं। उन्हें अल्पशिक्षित, मनोरंजन प्रिय तथा  अध्यात्मिक वृत्ति के लोगों पर प्रभाव डालने का प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह उनके प्रतिबद्ध पाठकों से ही संदेश ग्रहण करता है। इसलिये उन्होंने अपने इसी संदेशवाहक तबको संबोधित करते रहने के लिये शब्द योजना बनाई।        हमारे यहां विचाराधाराओं से जुड़े अधिकतर लोग अध्यात्म विषय पर लिखना बेगार मानते हैं क्योंकि यह काम तो उन्होंने पेशेवर धार्मिक विद्वानों की सौंप दिया है।  यही कारण है कि आधुनिक हिन्दी लेखक भारतीय जनमानस की अध्यात्मिक सोच से परे होकर अपनी रचना करते हैं। भारतीय जनमानस में अध्यात्मिक दर्शन कूट कूट कर भरा है इसलिये वह इन लेखकों की रचनाओं को एक सीमा तक ही स्वीकार करता है।  अगर वह मनोरंजक हुई्रं तो लोकप्रियता पाती हैं पर लेखक की छवि कभी अध्यात्मिक नहीं बनती। यही कारण है कि अनेक हिन्दी भाषी लेखक प्रचार के शिखर पर दिखते हैं पर भारतीय जनमानस में उनके लिये वैसा स्थान नहीं है जैसा कि पुराने कवियों और लेखकों का रहा है।

            ऐसे ही लेखक अपनी श्रेष्ठता अपनी भौतिक उपलब्धियों के आधार पर प्रमाणित करने हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह या हिन्दी पखवाड़ा केे मंचों का उपयोग करने को लालायित रहते हैं।  यह बुरा नहीं है पर हिन्दी भाषा पर नियंत्रण करने का भाव उनकी आत्ममुग्धता को ही दर्शाती है। जहां तक भाषा का प्रश्न है वह समाज की विचार धारा तय करती है। हमारी मान्यता है कि शुद्ध हिन्दी का उपयोग ही हमारी रचनाओं की शक्ति है। व्यवसायिक क्षेत्र कभी हिन्दी का मार्ग तय नहीं कर सकता। जो लोग यह सोच रहे हैं कि वह हिन्दी के भाग्यविधाता हैं उन्हें यह भ्रम नहीं रखना चाहिये कि समाज उनकी हिन्दी को मान रहा है।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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धनवान समाज से हिन्दी भाषा के विकास की अपेक्षा न करें-14 सितम्बर पर हिन्दी दिवस पर विशेष लेख


      14 सितम्बर हिन्दी दिवस के अवसर पर ऐसा पहली बार हुआ है जब हिन्दी टीवी चैनल इस पर उत्सव मनाकर अपने विज्ञापन प्रसारण का समय पार लगा रहे हैं।  एक टीवी चैनल ने तो अपना मंच फिल्मी अंदाज में तैयार कर हिन्दी भाषा के आधार पर व्यवसायिक करने वाले लोगों को आमंत्रित किया।  उसमें तमाम विद्वान अपने तर्क दे रहे थे।  एक विद्वान ने स्वीकार किया कि हिन्दी भाषा का आधार किसान और मजदूर हैं।  हम जैसे मौलिक लेखक मानते हैं कि हिन्दी सामान्य जनमानस की चहेती भाषा है और विशिष्ट लोगों के राष्ट्रभाषा या मातृभाषा बचाने के प्रयास दिखावटी हैं।  इस चर्चा में बाज़ार या व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रचलित हिन्दी पर चर्चा हुई।  कुछ विद्वानों का मानना था कि बाज़ार हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ रहा है तो अन्य की राय थी ऐसा कुछ नहीं है और हिन्दी भाषियों को उदार होना चाहिये।

      हिन्दी दिवस पर इस तरह की चर्चायें होती रहती हैं पर पहली बार ऐसी चर्चा टीवी चैनल पर हुई।  इसमें समाचार पत्र पत्रिकाओं में शीर्षकों तथा विषय सामग्रंी के साथ  में अंग्रेजी शब्दों के उपयोग पर भी विचार हुआ।  इस तरह की प्रवृत्ति ठीक है या नहीं यह एक अलग विषय है पर इसका पाठकों पर जो प्रभाव हो रहा है उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अक्सर लोग यह शिकायत करते हैं कि अंग्रेजी अखबार हिन्दी से अधिक महंगे हैं।  अगर हम इसके पीछे के कारण जाने तो समझ में आयेगा कि चूंकि लोग अखबारों को अंग्रेजी भाषा ज्ञान बनाये रखने के लिये पढ़ते हैं इसलिये उनकी प्रसार संख्या मांग से कम होती है।  मांग आपूर्ति के नियमानुसार  वह  महंगे दाम पर भी बिक जाते हैं। जबकि हिन्दी प्रकाशनों की संख्या अधिक है तो पाठक संभवत उस मात्रा में उपलब्ध नहीं है। एक समय हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकायें लोकप्रिय थीं पर इसका कारण उनकी विषय सामग्री कम उसके अध्ययन से  हिन्दी भाषा को आत्मसात करने की प्रवृत्ति लोगों में अधिक थी।  लोग साहित्यक किताबों की बजाय समाचार पत्र पत्रिकाओं पर हिन्दी ज्ञान के लिये निर्भर रहना पंसद करे थे। अब अगर कोई व्यक्ति हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं के अध्ययन से हिन्दी भाषा आत्मसात करने की बात सोच भी नहीं सकता।  हिन्दी समाचार पत्र यह मानकर चल रहे हैं कि युवा वर्ग हिन्दी नहीं जानता इसलिये अपने विशिष्ट पृष्ठों में अंग्रेजी शब्दों का अनावश्यक  उपयोग करते हैं। हमें पता नहीं कि इसका उन्हें लाभ है या नहीं पर हम जैसे पाठक ऐसी सामग्री को पढ़ने में भारी असहजता अनुभव करते हैं।  हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं ने अपने पाठकों का मानस समझा नहीं जो कि अध्यात्म प्रवृत्ति का है। यही कारण है कि देश भर के प्रतिष्ठित धार्मिक संस्थाओं की पत्र पत्रिकायें आजकल लोगों के घरों में अधिक मिलती है और हिन्दी के व्यवसायिक प्रकाशनों को ग्राहक उसी तरह ढूंढने पर रहे हैं जैसे कि कपड़े वाला ढूंढता है। एक समय सामाजिक, राजनीतिक, महिला, बाल तथा मनोरंजन के विषयों वाली पत्रिकायें अक्सर लोगों के घर में मिल जाती थीं पर आजकल यह नहीं होता। कह सकते हैं कि इसके लिये आधुनिक संचार माध्यमों जिम्मेदार हैं पर सवाल उठता है कि आखिर अध्यात्मिक पत्र पत्रिकाओं पर यह नियम लागू क्यों नहीं होता? हिन्दी व्यवसायिक प्रकाशनों के प्रबंधकों को इसके लिये आत्म मंथन करना चाहिये कि इतना बड़ा जनसमूह होते हुए भी उनके प्रकाशनों से लोग क्यों मुंह मोड़ रहे हैं। कहीं यह भाषा के लिये आयी उनकी प्रतिबद्धता की कमी तो नहीं है?

      इतना ही नहीं यह प्रकाशन समूह देश में रचना के पठन पाठन तथा सृजन की नयी प्रवृत्तियों के संवाहक भी नहीं बन पाये और दूसरी भाषाओं के रचनाकारों तथा रचनाओं को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत कर यह श्रेय तो लेते रहे हैं कि वह हिन्दी पाठक के लिये बेहतर विषय सामग्री प्रस्तुत की हैं पर आजादी के बाद एक भी लेखक का नाम इनके पास नहीं है जिसे उन्होंने अपने सहारे प्रतिष्ठा दिलाई हो।  क्या हिन्दी में बेहतर कहानियां नहीं लिखी जातीं या प्रभावी कविताओं की कमी है? यह सोच हिन्दी प्रकाशन समूहों के प्रबंधकों और संपादकों का हो सकता है पर यही उनके उस कम आत्मविश्वास का भी प्रमाण है जिसके कारण भारतीय जनमानस में हिन्दी प्रकाशनों की प्रतिष्ठा कम हुई है।

      आखिरी बात यह कि बाज़ार पर आक्षेप करना ठीक नहीं है। भाषा का संबंध भाव से और भाव का संबंध भूमि से होता है। भारत में हिन्दी ही सर्वोत्म भाषा है जो सहज चिंत्तन में सहायक होने के साथ ही उसके संवाद और उसके प्रेक्षण के लिये एक उचित माध्यम है। माने या माने पर इस सत्य से अलग जाकर हिन्दी के विकास पर बहस करना केवल औपचारिकत मात्र रह जाती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान यूं दिखायें-14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष हिन्दी व्यंग्य रचना


हमारी मातृभाषा हिन्दी है

आओ हम सब मिलकर

समूह में गायें।

वाणी से भले ही

निकलते हैं हिंग्लिश के शब्द

पर हमारे हृदय की साम्राज्ञी

हिन्दी भाषा है

सारे संसार को समझायें।

कहें दीपक बापू अंग्रेजी कालीन पर

भले चलते हैं हमारे कदम

उसके नीचे धूल की तरह

हिन्दी पड़ी हुई अभी

हमने उसे झाड़कर

बाहर नहीं फैंका

आओ यह बात स्वयं को

समझाकर आनंद मनायें।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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