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गृहस्थ को ‘ज्येष्ठाश्रमी’ भी कहा जाता है


महायोगी दक्षजी का कहना है की गृहस्थाश्रम अन्या तीनों आश्रमों की योनी है, इसमें सभी आश्रमों के प्राणियों की उत्पति होती है। अत: यह सभी का आधार भी है और आश्रय भी है। इसलिए गृहस्थ को ‘ज्येष्ठाश्रमी’ भी कहा जाता है।
पितर, देवता, मनुष्य, कीट-पतंग, पशु-पक्षी, जीव-जंतु अर्थात जितना भी प्राणी जगत है गृहस्थ से पालित-पोषित होता है।
सदगृहस्थ नित्य पञ्चयज्ञों के दवारा, श्राद्ध-तर्पण द्वारा और यज्ञ-दान एवं अतिथि-सेवा आदि के द्वारा सबका भरण-पोषण करता है। वह सबकी सेवा करता है।
इसलिए वह सबसे श्रेष्ठ कहा गया है। यदि वह कष्ट में रहता है तो अन्य तीनों आश्रम वाले भी कष्ट में रहते हैं।

सच्चा गृहस्थ वह है जो शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हुए सदा सबकी सेवा में रहता है और गृहस्थ धर्म एवं सदाचार का पालन करता है, वही गृहस्थाश्रमी कहलाने का अधिकारी है।

”कल्याण’ से साभार

मानसिक अंतर्द्वंदों से मुक्त करता है ध्यान


आदमी के मन में हमेशा द्वंद होता है पर वह उससे भागता है आत्म मंथन नहीं करता और फिर वह बहिर्मुखी होने पर उसे शांति नहीं द्वंद पसंद आता है. कहीं दो व्यक्ति एक दूसरे प्रशंसा करें तो उसका मन नहीं लगता और वही दोनों एक दूसरे को गाली देने लगें तो उसे आनंद आता है उसे वह मनोरंजन समझता है।

यही वजह मनोरंजन के व्यापारी उसके सामने द्वंद परोसते हैं. किसी फिल्म में कोई नायक है तो उसके सामने खलनायक होना आवश्यक है. इसी तरह प्राचीन काल के भी कई नायक और खलनायकों की स्मृतियाँ हमारे जेहन में मौजूद रहती हैं और कभी कहीं कथा सुनने को मिलती है तो उसका आनंद उठाते हैं . अभी हाल ही में अंतर्जाल ब्लोग जगत में भी यही दृष्टिगोचर हुआ. कोई एक ब्लोगरों के लिए पुरस्कार दिया जाना था और उसे चुपचाप दिया जा सकता था पर उसके सामने मेरा ब्लोग पराजित कर प्रस्तुत किया है. मैंने इस पर देखा कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, पर जब मैंने इस लेख को लिखना शुरू किया तो मुझे बरबस यही घटना याद आयी. मुझे असल में पुरस्कार मिलने की कोई परवाह नहीं थी जितना इस बात की कि मेरे ब्लोग को पराजित कैसे किया? फिर एक और ख्याल आया? इससे नाखुश अधिक लोग वहाँ होंगे और क्यों न ऐसी पोस्टें डालीं जाएं कि अपना नाम भी हो और शायद कोई नयी अनुभूति हो. यही हुआ भी मैंने कसकर प्रहार किये और सबसे अधिक हास्य कवितायेँ लिखीं. वह जबरदस्त हिट हुईं. उनके व्युज देखकर मैं आश्चर्य चकित रह गया. आखिर अपने एक वरिष्ठ साथी के कहने पर मैंने अपने कदम वापस खींचने का निर्णय लिया।

जैसे ही में यह लेख लिखने बैठा तो मुझे लगा कि उन ब्लोगरों के सामने कोई विकल्प नहीं था. वह जिन लोगों को पुरस्कार दे रहे थे उनकी प्रशंसा में कोई ब्लोग दिखाने जरूरी थे और पाठक जैसा कि जानते हैं कि उनके सामने मेरे जैसे दिग्गज ब्लोगर का नाम अपने आप में बहुत है. पर बात यह नहीं है. मैंने इस पूरे प्रसंग में बहुत कुछ सीखा क्योंकि मैंने ब्लोग जगत की तथाकथित ताकतों से टक्कर ली वह मेरे आत्मविश्वास को बढाने में ही सहायक हुई. लोगों ने मेरी पोस्ट जिस चाव से पढी वह इस बात का प्रमाण है कि लोगों को द्वंद पसंद है।

मैं अपने शीर्षक भी इस तरह डाल देता था कि वह उस समय चल रहे द्वंद का प्रतिबिंब होता था और लोग उसे पढ़ते थे. कहने को यह भी एक उससे संबधित है पर मैं इस पर ऐसा शीर्षक लगाऊंगा जो उससे संबधित नहीं होगा और यह पोस्ट वैसे हिट नहीं होगी . आखिर आदमी को अपने मानसिक द्वंद से बचने का प्रयास क्यों करना चाहिए? दरअसल आदमी निरंतर कुछ पाना चाहता है और त्यागना कुछ नहीं चाहता. वह अपने अन्दर विचारों के बाद जो विकार उत्पन्न होते हैं उनका विसर्जन नहीं करता।

एक बात जो मैं हमेशा कहता हूँ जैसे हम अपने मुख से कोई चीज ग्रहण करते हैं तो वह गंदगी के रूप में बदल जाती है. मुख जैसी ही इन्द्रियाँ ही हैं कान और आँख और वह भी जो ग्रहण करती हैं वह भी वैसे ही विकार उत्पन करती हैं. हम मुख से ग्रहण की गयी वस्तुओं से बनी गंदगी का विसर्जन करते हैं पर कान और आँख से उत्पान विकार के निष्पादन की कोई कोशिश नहीं करते. इसके निष्कासन का एक ही तरीका है ध्यान।

हम ध्यान चाहे जब और जहाँ कर सकते हैं. घर, आफिस और यात्रा में जहाँ भी बैठने का अवसर मिले आँखें बंद कर भृकुटी पर ध्यान लगाएं, और कुछ देर में अनुभव करें कि हमारे को राहत अनुभव हो रही है. यह कोई कठिन प्रक्रिया नहीं है, पर लोग अपने सुख का एक पल भी नहीं खोना चाहते और यही दुख का कारण बनता है. ध्यान करते समय कुछ देर भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति भी अपने मन में रख सकते हैं पर जल्द ही हमें उसे शून्य में ले जाना होगा. ध्यान करते समय अपने शरीर के प्रत्येक अंग को मन की आँखों से देखते जाएं. इससे जो शक्ति मिलती हैं वह अगले काम के लिए पर्याप्त होती है और उसके दौरान कोई व्यवधान आये तो उसका आघात हमारे हृदय पर नहीं पड़ता।
मनोरंजन के व्यापारी आजकल टीवी पर अपने गीत और गजल के गानों में गायकों के बीच के द्वंद कराकर लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं. अगर आप सामान्य ढंग से संगीत सुनने का आनंद उठाने वाली ढूंढ़ना चाहें तो कम मिलेंगे जबकि ऐसे अंतर्द्वंदों के साथ उसका आनंद उठाने वालों की कमी नहीं है हांलांकि वह बहुत तनाव पैदा करता है और संगीत सुनने से होने वाले लाभ उससे नहीं मिलते. ऐसी हालत में अपने मन पर मनोरंजन का साधन भी ध्यान हो सकता है अगर आप करके देखें. ध्यान में दौरान आने वाले विचारों से घबडाये नहीं क्योंकि वह विकार हैं जो भस्म होने आते हैं. शेष अगले अंक में।

श्रीमदभागवत गीता में भी है समाजवाद का सन्देश


हमारे देश में तमाम तरह के नारे लगाए जाते हैं जिनमें एक है ‘समाजवाद लाओ’। इस नारे के साथ अनेक आन्दोलन चले और उनके अगूआओं ने अपने चारों और लोगों की भीड़ बटोरी पर अभी भी समाज में समरस्ता का भाव स्थापित नहीं हो पाया। जिन लोगों ने भीड़ एकत्रित कर शक्ति प्राप्त की उन्होने अपने और परिवार के लिए अकूत संपदा अर्जित कर ली इतना ही नहीं आज भी वह यही नारा लगा रहे हैं। गरीबों और शोषितों के दम पर शक्ति अर्जित करने का बावजूद वह उनका भला नहीं कर पाए। भारतीय धर्म ग्रंथों में दोष ढूँढने वाले उसके अच्छे पक्ष से मुहँ फेर लेते हैं क्योंकि उसमें कई ऐसे रहस्य है जो जीवन के मूल तत्वों के सत्य पक्ष को उदघाटित करते हैं और आदमी को फिर भ्रम में नही जाने देते। ऐसे ही श्रीगीता भी एक ऐसा पावन ग्रंथ है जिसमे ज्ञान के साथ विज्ञान भी हैं। मैंने यह लेख मजदूर दिवस पर लिखा था और आज जब इस पर मेरी दृष्टि पढी तो मैंने इसे अपन मुख्य पर रखने का निश्चय किया क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो मुझे इसी ब्लोग की वजह से अधिक जानते और मानते हैं।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।
“जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।”
श्रीमदभागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है जिसमें अपने अधीनस्थ और निकटस्थ व्यक्तियों की सदैव सहायता करने के प्रेरित किया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्रीमदभागवत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकि समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्थशास्त्र माने जाते है जिन के विचारों पर गईबों और शोषितों के लिए अनेक विचारधाराओं का निर्माण हुआ और जिनका नारा था “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ”। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को लगने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है-और जो उनके खिलाफ उकसाते हैं वही उसने हाथ भी मिलाते हैं । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिद्ध होगा।
भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो गरीबो और शोषितों के उद्धार के लिए बनी विचारधाराओं का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्याण को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया-बल्कि इसे मनुष्य समुदाय के लिए एक धर्म माना गया की वह अपने से कमजोर व्यक्ति की सहायता करे।मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आता था पर भक्ति भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।