Tag Archives: aadhyatm

जीन के गुण ही तो गुण में बरतते हैं-चिंत्तन आलेख


पश्चिमी विज्ञान मानव शरीर में स्थित जीन के आधार पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत करता है जबकि यही विश्लेषण भारतीय दर्शन ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं‘ के आधार पर करता है। पश्चिमी विश्लेषण मनुष्य के स्वभाव में उन जीनों के प्रभाव का वर्णन करते हैं जबकि भारतीय दर्शन उनको गुणों का परिणाम कहकर प्रतिपादित करता है।
मनुष्य की पहचान उसका मन है और देह में स्थित होने के कारण उसमें विद्यमान गुण या जीन से प्रभावित होता है इसमें संशय नहीं हैं। जब शरीर में कोई भीषण विकार या पीड़ा उत्पन्न होती है तब मन कहीं नहीं भाग पाता। उस समय केवल उससे मुक्ति की अपेक्षा के अलावा वह कोई विचार नहीं। करता। मन में विचार आते हैं कि ‘अमुक पीड़ा दूर हो जाये तो फिर मैं एसा कुछ नहीं करूंगा जिससे यह रोग फिर मुझे घेरे।’
कभी अपने आप तो कभी दवा से वह ठीक हो जाता है पर फिर उसका मन सब भूल जाता है। व्यसन करने वाले लोग इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। जब अपने व्यसन की वजह से भारी तकलीफ में होते हैं तब सोचते हैं कि अब इसका प्रभाव कम हो तो फिर नहीं करेंगे।’

ऐसा होता नहीं है। व्यसन कर प्रभाव कम हाते े ही वह फिर उसी राह पर चलते हैं। अपने ज्ञान के आधार पर मै यह कह सकता हूं कि‘शुरूआत में व्यसन आदमी किसी संगत के प्रभाव में आकर करता है फिर वही चीज-शराब और तंबाकू-मनुष्य के शरीर में अपना गुण या जीन स्थापित कर लेती है और आदमी उसका आदी हो जाता है। याद रहे वह गुण व्यसन करने से पहले उस आदमी में नहीं होता।

पश्चिमी विज्ञान कहता है कि आदमी में प्रेम, घृणा, आत्महत्या, चिढ़चिढ़ेपन तथा अन्य क्रियाओं के जीन होते हैं पर वह यह नहीं बताता कि वह जीन बनते कैंसे हैं? भारतीय दर्शन उसको स्पष्ट करता है कि मनुष्य में सारे गुण खाने-पीने के साथ ही दूसरों की संगत से भी आते हैं। मेरा मानना है कि मनुष्य सांसें लेता और छोड़ता है और उससे उसके पास बैठा आदमी प्रभावित होता है। हां, याद आता है कि पश्चिम के विज्ञानी भी कहते हैं कि सिगरेट पीने वाले अपने से अधिक दूसरे का धुंआ छोड़कर हानि पहुंचाते हैं। इसका अर्थ यह है कि विकार वायु के द्वारा भी आदमी में आते हैं। अगर आप किसी शराबी के पास बैठेंगे और चाहे कितनी भी सात्विक प्रवृत्ति के हों और उसकी बातें लगातार सुन रहे हैं तो उसकी कही बेकार की बातें कहीं न कहीं आपके मन पर आती ही है जो आपका मन वितृष्णा से भर देती है। इसके विपरीत अगर आप किसी संत के प्रवचन-भले ही वह रटकर देता हो-सुनते हैं तो आपके मन में एक अजीब शांति हो जाती है। अगर आप नियमित रूप से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें जिसे आप ठीक नहीं समझते तो ऐसा लगेगा कि वह आपके तनाव का कारण बन रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि पांच तत्वों-प्रथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु- से बनी यह देह इनके साथ सतत संपर्क में रहती है और उनके परिवर्तनों से प्रभावित होती है और इसके साथ ही उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृति भी प्रभावित होती है। इन परिवर्तनों से मनुष्य की देह में जीन या गुणों का निर्माण और विसर्जन होता है और वह उसका प्रदर्शन वह बाहर व्यवहार से कराते हैं।
पश्चिम के विद्वान इन जीन को लेकर विश्लेषण करते हुए उनके उपचार के लिए अनुसंधान करते हैं। अनेक तरह के आकर्षक तर्क और सुसज्तित प्रयोगशालाओं से निकले निष्कर्ष पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनते हैं और भारतीय अध्यात्म को पूरी तरह नकार चुके हमारे देश के विद्वान अखबार, टीवी चैनलो, रेडियो और किताबों उनका प्रचार कर यहां ख्याति अर्जित करते हैं। हां, लोग सवाल करेंगे कि भारतीय अध्यात्म में भला इसका इलाज क्या है?

हमारा अध्यात्म कहता है लोग तीन तरह के होते हैं सात्विक, राजस और तामस। यहां उनके बारे में विस्तार से चर्चा करना ठीक नहीं लगता पर जैसा आदमी होगा वैसा ही उसका भोजन और कर्म होगा। वैसे ही उसके अंदर गुणों का निर्माण होगा।

श्रीगीता के सातवों अध्याय के (श्लोक आठ) अनुसार आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा जो स्वभाव से ही मन को प्रिय हो ऐसा भोजन सात्विक को प्रिय होते हैं।

नौवें श्लोक के अनुसार कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक, दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।


दसवें श्लोक के अनुसार -अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट तथा अपवित्र है वह भोजन तामस को प्रिय होता है।

पश्चिम के स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार देह की अधिकतर बीमारियां पेट के कारण ही होती हैं। यही विज्ञान यह भी कहता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। हमारा अध्यात्म और दर्शन भी यही कहता है कि गुण ही गुण को बरतते है। इसके बावजूद पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म में मौलिक अंतर है। पश्चिमी विज्ञान शरीर और मन को प्रथक मानकर अलग अलग विश्लेषण करता है। वह मनुष्य की समस्त क्रियाओं यथा उठना, बैठना, चलना और कामक्रीडा आदि को अलग अलग कर उसकी व्याख्या करता है। इसके विपरीत भारतीय अध्यात्म या दर्शन मनुष्य को एक इकाई मानता है और उसके अंदर मौजूद गुणों के प्रभाव का अध्ययन करता है। अगर योग की भाषा के कहें तो सारा खेल ‘मस्तिष्क में स्थित ‘आज्ञा चक्र’ का है। पश्चिमी विज्ञान भी यह तो मानता है कि मानसिक तनाव की वजह से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और वह उनका इलाज भी ढूंढता है पर जिन मानसिक विकारों से वह उत्पन्न होते हैं और मनुष्य की देह में अस्तित्वहीन रहें ऐसा इलाज उसके पास नहीं है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान केवल धर्म प्रवचन के लिऐ नहीं है वह जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित है। यह मनुष्य के देह और मन में स्थित विकारों को दूर करने के लिए केवल शब्दिक संदेश नहीं देता बल्कि योगासन, प्राणायम और ध्यान के द्वारा उनको दूर करने का उपाय भी बताता है। अध्यात्म यानि हमारी देह में प्राणवान जीव आत्मा और उससे जानने की क्रिया है ज्ञान। अन्य विचाराधारायें आदमी को प्रेम, परोपकार और दया करने के का संदेश देती हैं पर वह देह में आये कैसे यह केवल भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान ही बताता हैं। अगर सुबह उठकर योगासन, प्राणायम, और ध्यान किया जाये तो देह में वह जीन या गुण स्वयं ही आते है जिनसे आदमी प्रेम, परोपकार और दया करने लगता है। देह और मन के विकार को निकाले बिना आदमी को सही राह पर चलने का उपदेश ऐसा ही है जैसे पंचर ट्यूब में हवा भरना।
अगर कोई आदमी बीमार होता है तो डाक्टर कहते हैं कि चिकनाई रहित हल्का भोजन करो जबकि भारतीय दर्शन कहता है कि चिकना, रसयुक्त स्थिर भोजन ही सात्विक है। इसका अर्थ यह है कि डाक्टर जिनको यह भोजन मना कर रहा है उनमें विकार ही इस सात्विक भोजन के कारण है। ऐसा भोजन करने के लिये परिश्रम करना जरूरी है पर आजकल धनी लोग इसे करते नहीं है। श्रीगीता कहती है कि अकुशल श्रम से सात्विक लोग परहेज नहीं करते। आजकल के लोग अकुशल श्रम करने में संकोच करते हैं और यही कारण है कि लोगों में आत्म्विश्वास की कमी होती जा रही है और ऐसे जीन या दुर्गुण उसमें स्वतः आ जाते हैं जो उसे झूठे प्रेम,पुत्यकार की भावना से उपकार और कपटपूर्ण दया में लिप्त कर देते हैं। कुल मिलाकर पश्चिमी विज्ञान की खोज जीन चलते हैं जबकि भारतीय दशैन की खोज ‘गुण ही गुण बरतते हैं। वैसे देखा जाये तो देश में जितनी अधिक पुस्तकें पश्चिमी ज्ञान से संबंधित है भारत के पुरातन ज्ञान उसके अनुपात में कम है पर वह वास्तविकता पर आधारित हैं। संत कबीर दास जी के अनुसार अधिक पुस्तकें पढ़ने से आदमी भ्रमित हो जाता है और शायद यही कारण है कि लोग भ्रमित होकर ही अपना जीवन गुजार रहे हैं। इस विषय पर इसी ब्लाग पर मै फिर कभी लिखूंगा क्योंकि यह आलेख लिखते समय दो बार लाईट जा चुकी है और मेरा क्रम बीच में टूटा हुआ था इसलिये हो सकता है कि विषयांतर हुआ हो पर उस दौरान भी मैं इसी विषय पर सोचता रहा था। बहुत सारे विचार है जो आगे लिखूंगा।

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.राजलेख हिन्दी पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर वाणी:काटने पर भी लकडी जहाज बनकर पार लगाती है


तरुवर जड़ से काटिया, जबै तम्हारो जहाज
तारे पर बोरे नहीं, बांह गाहे की लाज

संत कबीर दास जी कहते हैं कि लोग वृक्ष को जड़ से काट डालते हैं, परन्तु उस वृक्ष की लकडी का जब जहाज बन जाता है, तब भी वह काटने वाले को नदी-समुद्र से पार लगाता है शत्रु मानकर डुबाता नहीं है। सच है, बडे लोग बांह पकड़ने में लज्जा करते हैं।

आशय- संत कबीर दास जी कहते वृक्ष से बड़प्पन का गुण लेने की सलाह देते हैं। आदमी लकडी को बेरहमी से काट कर नाव बनाता है इसके बावजूद वह बदला लेने के लिए उसे सागर में नहीं डुबाती। इसी तरह सज्जन लोग किसी पर क्रोध प्रदर्शन न कर परहित के कार्य में लगे रहते हैं ।

कबीर विषधर बहु मिलै, मणिधर मिला न कोय
विषधर को मणिधर मिलै, विष तजि अमृत होय

संत कबीर दास जी कहते हैं कि विषधर सर्प तो बहुत मिलते हैं पर मणि वाल सर्प नहीं मिलता। यदि विषधर को मणिधर मिल जाय तो विष मिटकर अमृत हो जाता है।

भावार्थ-कहते हैं कि जहाँ सांप ने काट लिया हो वहाँ मणि लगाने से विष निकल जाता है। वही मणि दूध में डाल कर पीया जाये उसका कोड भी दूर हो जाता है (हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है)। आशय यह है कि यहाँ बुर लोगों की संगत के कारण बुरी आदतें तो बहुत जल्दी आ जाती हैं पर अच्छे की संगत बहुत जल्दी नहीं मिल पाती है और अगर मिल जाये तो अपने आप ही अच्छे संस्कार विचार मन में आ जाते हैं।

भृतहरि शतक:स्त्री को अबला मानना विपरीत बुद्धि का प्रमाण



नूनं हि ते कविवरा विपरीत वाचो
ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् ।
याभिर्विलालतर तारकदृष्टिपातैः
शक्रायिऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः

इस श्लोक का आशय यह है कि जो कवि सुंदर स्त्री को अबला मानते हैं उनको तो विपरीत बुद्धि का माना जाना चाहिए। जिन स्त्रियों ने अपने तीक्ष्ण दृष्टि से देवताओं तक को परास्त कर दिया उनको अबला कैसे माना जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अधिकतर कवि और रचयिता स्त्री को अबला मानते हैं पर भर्तुहरि महाराज ने उसके विपरीत उन्हें सबला माना है। सुंदर स्त्री से आशय समूची स्त्री जाति से ही माना जाना चाहिए, क्योंकि स्त्री का सौंदर्य उसके हृदय में स्थित लज्जा और ममता भाव में है जो कमोवेश हर स्त्री में होती है। माता चाहे किसी भी रंग या नस्ल की हो बच्चे पर अपनी ममता लुटा देती है। बच्चा भी अपनी मां को बड़े प्रेम से निहारता है। पूरे विश्व में अनेक कवि और लेखक नारी को अबला मानकर उस पर अपनी विषय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में बहुत अज्ञानी होते हैं। उन्हें अपनी रचना के समय यह आभास नहीं होता कि हर स्त्री का किसी न किसी पुरुष-जिसमें पिता, भाई, पति और रिश्ते-से संबंध होता है। वह सबके साथ निभाते हुए उनसे संरक्षण पाती है। जो लोग स्त्री को अबला मानकर अपनी रचना लिखते हैं वह वास्तव में अपने आसपास स्थित नारियों से अपने संबंधों पर दृष्टिपात किये बिना ही केवल नाम पाने के लिये लिखते हैं और इसी कारण आजकल पूरे विश्व में नारी को लेकर असत्य साहित्य की भरमार है। अनेक कहानियां और कवितायें नारियों को अबला और शोषित मानकर कर लिखीं जातीं हैं और उनमें सच कम कल्पना अधिक होती है। ऐसे लोग विपरीत बुद्धि के महत्वांकाक्षी लेखक लोगों की बुद्धि तरस योग्य है।

रहीम के दोहे:पुरषार्थ करना अपने हाथ में परिणाम नहीं


जेहि रहीम तन मन लियो, कियों हिए बिच भीन
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन

कवि रहीम का कथन है कि जिस व्यक्ति ने तन मन पर अधिकार कर लिया है, उसने हृदय में स्थान बना लिया है, ऐसे प्रेमी से दुख, सुख कहने की अब कौन सी बात शेष रह गयी .

निज कर क्रिया रहीम कहीं, सुधि भावी के हाथ
पाँसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ

कवि रहीम कहते हैं कि अपने हाथ में तो कर्म करना है परिणाम भविष्य के गर्भ में है जैसे जुआरी के हाथ में खेल के पाँसे कौडी तो अपने हाथ में होते हैं, परन्तु दाव अपने वश में नहीं होता.

चाणक्य नीति:क्रोध है यमराज के समान


1.क्रोध यमराज के समान है, उसके कारण मनुष्य मृत्यु की गोद में चला जाता है। तृष्णा वैतरणी नदी की तरह है जिसके कारण मनुष्य को सदैव कष्ट उठाने पड़ते हैं। विद्या कामधेनु के समान है । मनुष्य अगर भलीभांति शिक्षा प्राप्त करे को वह कहीं भी और कभी भी फल प्रदान कर सकती है।
2.संतोष नन्दन वन के समान है। मनुष्य अगर अपने अन्दर उसे स्थापित करे तो उसे वैसे ही सुख मिलेगा जैसे नन्दन वन में मिलता है।

नोट-यह पत्रिका कहीं भी लिंक कर दिखाने की अनुमति नहीं है. दीपक भारतदीप, ग्वालियर

संत कबीर वाणी:पढ़-लिख कर खुद न समझे, दूसरे को पढाये


पढी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बहुत पढ़-लिखकर दूसरों को पढाने और उपदेश देने लगे पर अपने को नहीं समझा पाए तो कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अपना खुद का जीवन तो व्यर्थ ही जा रहा है।

भावार्थ- आज के संदर्भ में भी उनके द्वारा यह सत्य हमें साफ दिखाई देता है, अपने देखा होगा कि दूसरों को त्याग और परोपकार का उपदेश देने वाले पाखंडी साधू अपने और अपने परिवार के लिए धन और संपत्ति का संग्रह करते हैं और अपनी गद्दी भी अपने किसी शिष्य को नहीं बल्कि अपने खून के रिश्ते में ही किसी को सौंपते हैं। ऐसे लोगों की शरण लेकर भी किसी का उद्धार नहीं हो सकता।

पढ़त गुनत रोगी भया, बडा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, बड़ी न पड़ती सान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कुछ लोग किताबें पढ़, सुन और गुनकर रोगी हो गये और उन्हें अभिमान हो जाता है। जगत को विषय-कामनाओं का ताप भीतर ताप रहा है, घड़ी भर के लिए शांति नहीं मिलती है।
भावार्थ-आपने देखा होगा कि कुछ लोग धार्मिक पुस्तकें पढ़कर दूसरों को समझाने लगते हैं। दरअसल उनको इस बात का अहंकार होता है कि हमें ज्ञान हो गया है जबकि वह केवल शाब्दिक अर्थ जानते हैं पर उसके भावार्थ को स्वयं अपने मन में उन्होने धारण नहीं किया होता है।

तरुवर जड़ से काटिया, जबै तम्हारो जहाज
तारे पर बोरे नहीं, बांह गाहे की लाज

संत कबीर दास जी कहते हैं कि लोग वृक्ष को जड़ से काट डालते हैं, परन्तु उस वृक्ष की लकडी का जब जहाज बन जाता है, तब भी वह काटने वाले को नदी-समुद्र से पार लगाता है शत्रु मानकर डुबाता नहीं है। सच है, बडे लोग बांह पकड़ने में लज्जा करते हैं। आशय- संत कबीर दास जी कहते वृक्ष से बड़प्पन का गुण लेने की सलाह देते हैं। आदमी लकडी को बेरहमी से काट कर नाव बनाता है इसके बावजूद वह बदला लेने के लिए उसे सागर में नहीं डुबाती। इसी तरह सज्जन लोग किसी पर क्रोध प्रदर्शन न कर परहित के कार्य में लगे रहते हैं । कबीर विषधर बहु मिलै, मणिधर मिला न कोय विषधर को मणिधर मिलै, विष तजि अमृत होय
संत कबीर दास जी कहते हैं कि विषधर सर्प तो बहुत मिलते हैं पर मणि वाल सर्प नहीं मिलता। यदि विषधर को मणिधर मिल जाय तो विष मिटकर अमृत हो जाता है। भावार्थ-कहते हैं कि जहाँ सांप ने काट लिया हो वहाँ मणि लगाने से विष निकल जाता है। वही मणि दूध में डाल कर पीया जाये उसका कोड भी दूर हो जाता है (हालांकि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है)। आशय यह है कि यहाँ बुर लोगों की संगत के कारण बुरी आदतें तो बहुत जल्दी आ जाती हैं पर अच्छे की संगत बहुत जल्दी नहीं मिल पाती है और अगर मिल जाये तो अपने आप ही अच्छे संस्कार विचार मन में आ जाते हैं।

नोट- थके हारे योग साधना शुरू करें-यह लेख अवश्य पढें उसका पता नीचे लिखा हुआ है ।
http://dpkraj.blogspot.com